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सोमवार, 28 जून 2010 13:42
मंगलोर विमान दुर्घटना की वजह से "फ़र्जी पासपोर्ट रैकेट" का प्रभाव पुनः दिखाई दिया… Manglore Plane Crash, Fake Passports
कुछ दिनों पहले मंगलोर में एक विमान दुर्घटना हुई थी जिसमें 158 यात्रियों की मौत हुई तथा इस पर काफ़ी हो-हल्ला मचाया गया था। प्रफ़ुल्ल पटेल की इस बात के लिये आलोचना हुई थी कि नई बनी हुई छोटी हवाई पट्टी पर बड़ा विमान उतारने की इजाजत कैसे दी गई? लेकिन न तो इस मामले में आगे कुछ हुआ, न ही किसी मंत्री-अफ़सर का इस्तीफ़ा हुआ। इस विमान दुर्घटना के कई पहलुओं में से एक महत्वपूर्ण पहलू को मीडिया ने पूरी तरह से ब्लैक आउट कर दिया, और वह यह कि मारे गये कम से कम 9 यात्री ऐसे थे, जिनके ज़ब्त सामान की जाँच के बाद उनके पासपोर्ट फ़र्जी पाये गये, इसलिये न तो उनकी सही पहचान हो सकी है, और न ही मुआवज़ा दिया जा सका।
इस बात का खुलासा इस समय हुआ, जब स्थानीय अखबारों ने दुर्घटना में सौभाग्य से जीवित बचे यात्री से पूछताछ की, संयोग से उसके पास भी फ़र्जी पासपोर्ट ही पाया गया। मृतकों में से कुछ यात्री केरल के मूल निवासी थे, लेकिन उनके पासपोर्ट पर तमिलनाडु के घर के पते पाये गये, इसी प्रकार उनके फ़ोटो भी मिलते नहीं थे। केरल के उत्तरी इलाके के कासरगौड़ (Kasargod) जिले के कलेक्टर और एसपी ने इस मामले में जाँच शुरु कर दी है, ताकि विमान दुर्घटना में मारे गये असली लोगों की पहचान की जा सके। अपनी शर्म छिपाने की कोशिश करते हुए एसपी प्रकाश पी. कहते हैं कि "फ़र्जी पासपोर्ट पर इतनी जल्दी नतीजों पर पहुँचना ठीक नहीं है, अभी जाँच चल रही है और हम हरेक दस्तावेज की गम्भीरता से जाँच करेंगे…"। (तो अभी तक क्या कर रहे थे?)
केरल के इस जिले की सीमाएं एक तरफ़ कर्नाटक से लगती हैं, जबकि इस जिले से कन्नूर (Kannur) और मलप्पुरम (Malappuram) जैसे इस्लामी उग्रवाद के गढ़ और सिमी के ठिकाने भी अधिक दूर नहीं हैं। कासरगौड़ जिले में किसी भी आम आदमी से पासपोर्ट लेने के बारे में पूछिये वह आपसे पूछेगा कि "क्या आपको कासरगौड़ दूतावास का पासपोर्ट चाहिये?" "कासरगौड़ एम्बेसी" नामक परिभाषा स्थानीय स्तर पर गढ़ी गई है, जो लोग पासपोर्ट में तकनीक के जरिये फ़ोटो बदलकर नकली पासपोर्ट पकड़ा देते हैं उनके इस "रैकेट" को कासरगौड़ एम्बेसी कहा जाता है, जिसके बारे में "पुलिस और प्रशासन के अलावा" सभी जानते हैं। यह गोरखधंधा 1980 से चल रहा है, लेकिन खाड़ी देशों में काम करने के लालच और गरीबी के चलते असली पासपोर्ट बनवाने में अक्षम लोग इनके जाल में फ़ँस जाते हैं।
ग्लोबल मलयाली फ़ाउण्डेशन (Global Malyali Foundation) के अध्यक्ष वर्गीज़ मूलन, जो कि सऊदी अरब में रहते हैं… कहते हैं कि "केरल में गरीबी और बेरोजगारी के कारण कई मजदूर इस रैकेट के चंगुल में आ ही जाते हैं, जो इनका फ़ायदा उठाकर इन्हें किसी पासपोर्ट में फ़ोटो बदलकर इन्हें खाड़ी भेज देते हैं, दलालों को यह पता होता है कि इनका खाड़ी स्थित मालिक इनके दस्तावेज इन्हे नहीं देगा। बल्कि कई मामलों में तो इनके फ़र्जी पासपोर्ट भी उनके मालिक गुमा देते हैं या जानबूझकर खराब कर देते हैं। इसके बाद ये वहाँ नारकीय परिस्थितियों में काम करते रहते हैं, और जब तंग आकर भारत वापस भागना होता है तब या तो विमान के टायलेट में छिपकर आते हैं, अथवा फ़िर से उसी दलाल को पकड़ते हैं जिसने उसे पासपोर्ट दिलवाया था। वह दलाल फ़िर से उनसे 25000 रुपये लेकर एक और फ़र्जी पासपोर्ट दे देता है। सवाल उठता है कि दलालों के पास यह पासपोर्ट कैसे आते हैं, तो निश्चित रूप से कासरगौड़ के पासपोर्ट कार्यालय में इनके कुछ गुर्गे मौजूद हैं, साथ ही ये लोग ऐसे गरीब हज यात्रियों पर भी निगाह रखते हैं जिन्हें जीवन में सिर्फ़ एक बार ही पासपोर्ट की आवश्यकता पड़ने वाली है। ऐसे लोगों के बेटे और रिश्तेदार इन दलालों को सस्ते में यह पासपोर्ट बेच देते हैं, जिसे दलाल, अफ़सरों और बाबुओं से मिलकर आगे अपने "अंजाम" तक पहुँचाते हैं।
क्राइम ब्रांच के वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि देश से बाहर जाने वाले हरेक व्यक्ति की पूरी जाँच की जाती है, लेकिन मंगलोर दुर्घटना के सभी कागज़ातों की जाँच करना अब सम्भव नहीं है, क्योंकि कुछ जल गये हैं और कुछ गायब हो चुके हैं। पुलिस अधिकारी दबी ज़बान में स्वीकार करते हैं कि भले ही पासपोर्ट बनाने वाले एजेण्ट स्थानीय हों, लेकिन यह सारा खेल "खाड़ी देशों से कुछ बड़े लोग" चला रहे हैं।
वैसे फ़र्जी पासपोर्ट का मामला भारत के लिये नई बात नहीं है, अबू सलेम और उसकी प्रेमिका का पासपोर्ट भी भोपाल से बनवाया गया था, जिसमें गलत जानकारी, गलत पता, गलत फ़ोटो, गलत पुलिस सत्यापन किया गया था, लेकिन भारत के कर्मचारी-अधिकारी और अपना काम किसी भी तरह करवाने के लिये बेताब रहने वाली आम जनता इतनी भ्रष्ट है कि देश की सुरक्षा व्यवस्था से खिलवाड़ करने में भी उन्हें कोई शर्म नहीं आती।
सरकार दिनोंदिन भारत से अन्तर्राष्ट्रीय हवाई उड़ानों और टर्मिनलों को बढ़ाती जा रही है, लेकिन उन हवाई टर्मिनलों पर सुरक्षा व्यवस्था और जाँच का काम रामभरोसे ही चलता है। केरल जैसे अतिसंवेदनशील राज्य, जहाँ सिमी की जड़ें मजबूत हैं तथा जहाँ से "ईसाई धर्मान्तरण के दिग्गज" पूरे भारत में फ़ैलते हैं, ऐसे राज्य में खाड़ी देशों से आने वाले यात्रियों के पास फ़र्जी पासपोर्ट मिलना इसी ओर इशारा करता है कि कोई भी जब चाहे तब इस देश में आ सकता है, जा सकता है, रह सकता है, बम विस्फ़ोट कर सकता है… कोई रोकने वाला नहीं। कोई भी चाहे तो नेपाल के रास्ते आ सकता है, चाहे तो बांग्लादेश के रास्ते, चाहे तो वाघा बॉर्डर से, चाहे तो कुपवाड़ा-अखनूर से, चाहे तो मन्नार की खाड़ी से, चाहे तो श्रीलंका के रास्ते से… और अब चाहे तो फ़र्जी पासपोर्ट से देश के किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरो, और भीड़ में खो जाओ। तात्पर्य कि कोई कहीं से भी आ सकता है, क्या भारत एक देश नहीं, धर्मशाला है? जहाँ बिना पैसा चुकाये, कोई भी, कैसी भी मौज करता रह सकता है? असल में, सरकार को इन बातों की कोई परवाह नहीं है, जबकि नेताओं-अफ़सरों-नागरिकों को "हराम के पैसों" की लत लग चुकी है, चाहे देश जाये भाड़ में। ऐसे में यदि आप सोचते हैं कि "भारत एक मजबूत और सुरक्षित राष्ट्र" है, तो आप निहायत मूर्ख हैं…
http://www.mangaloretoday.com/mt/index.php?action=mn&type=1012
http://www.youtube.com/watch?v=Yxbh3bwI7k0
Mangalore Airbus Accident, Mangalore Plane Crash, Kasargod Passport Scam, Fake Passports of Kasargod Kerala, Kasargod Embassy, Kerala workers and Gulf Countries, Security threats fake passport, Corruption in Passport Offices of India, Communal Violence in Kerala and Karnataka , मंगलोर विमान दुर्घटना, कासरगौड़ पासपोर्ट, कासरगौड़ फ़र्जी पासपोर्ट, खाड़ी देश और केरल के मजदूर, फ़र्जी पासपोर्ट और सुरक्षा मानक, केरल और कर्नाटक में साम्प्रदायिक हिंसा, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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केरल के इस जिले की सीमाएं एक तरफ़ कर्नाटक से लगती हैं, जबकि इस जिले से कन्नूर (Kannur) और मलप्पुरम (Malappuram) जैसे इस्लामी उग्रवाद के गढ़ और सिमी के ठिकाने भी अधिक दूर नहीं हैं। कासरगौड़ जिले में किसी भी आम आदमी से पासपोर्ट लेने के बारे में पूछिये वह आपसे पूछेगा कि "क्या आपको कासरगौड़ दूतावास का पासपोर्ट चाहिये?" "कासरगौड़ एम्बेसी" नामक परिभाषा स्थानीय स्तर पर गढ़ी गई है, जो लोग पासपोर्ट में तकनीक के जरिये फ़ोटो बदलकर नकली पासपोर्ट पकड़ा देते हैं उनके इस "रैकेट" को कासरगौड़ एम्बेसी कहा जाता है, जिसके बारे में "पुलिस और प्रशासन के अलावा" सभी जानते हैं। यह गोरखधंधा 1980 से चल रहा है, लेकिन खाड़ी देशों में काम करने के लालच और गरीबी के चलते असली पासपोर्ट बनवाने में अक्षम लोग इनके जाल में फ़ँस जाते हैं।
ग्लोबल मलयाली फ़ाउण्डेशन (Global Malyali Foundation) के अध्यक्ष वर्गीज़ मूलन, जो कि सऊदी अरब में रहते हैं… कहते हैं कि "केरल में गरीबी और बेरोजगारी के कारण कई मजदूर इस रैकेट के चंगुल में आ ही जाते हैं, जो इनका फ़ायदा उठाकर इन्हें किसी पासपोर्ट में फ़ोटो बदलकर इन्हें खाड़ी भेज देते हैं, दलालों को यह पता होता है कि इनका खाड़ी स्थित मालिक इनके दस्तावेज इन्हे नहीं देगा। बल्कि कई मामलों में तो इनके फ़र्जी पासपोर्ट भी उनके मालिक गुमा देते हैं या जानबूझकर खराब कर देते हैं। इसके बाद ये वहाँ नारकीय परिस्थितियों में काम करते रहते हैं, और जब तंग आकर भारत वापस भागना होता है तब या तो विमान के टायलेट में छिपकर आते हैं, अथवा फ़िर से उसी दलाल को पकड़ते हैं जिसने उसे पासपोर्ट दिलवाया था। वह दलाल फ़िर से उनसे 25000 रुपये लेकर एक और फ़र्जी पासपोर्ट दे देता है। सवाल उठता है कि दलालों के पास यह पासपोर्ट कैसे आते हैं, तो निश्चित रूप से कासरगौड़ के पासपोर्ट कार्यालय में इनके कुछ गुर्गे मौजूद हैं, साथ ही ये लोग ऐसे गरीब हज यात्रियों पर भी निगाह रखते हैं जिन्हें जीवन में सिर्फ़ एक बार ही पासपोर्ट की आवश्यकता पड़ने वाली है। ऐसे लोगों के बेटे और रिश्तेदार इन दलालों को सस्ते में यह पासपोर्ट बेच देते हैं, जिसे दलाल, अफ़सरों और बाबुओं से मिलकर आगे अपने "अंजाम" तक पहुँचाते हैं।
क्राइम ब्रांच के वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि देश से बाहर जाने वाले हरेक व्यक्ति की पूरी जाँच की जाती है, लेकिन मंगलोर दुर्घटना के सभी कागज़ातों की जाँच करना अब सम्भव नहीं है, क्योंकि कुछ जल गये हैं और कुछ गायब हो चुके हैं। पुलिस अधिकारी दबी ज़बान में स्वीकार करते हैं कि भले ही पासपोर्ट बनाने वाले एजेण्ट स्थानीय हों, लेकिन यह सारा खेल "खाड़ी देशों से कुछ बड़े लोग" चला रहे हैं।
वैसे फ़र्जी पासपोर्ट का मामला भारत के लिये नई बात नहीं है, अबू सलेम और उसकी प्रेमिका का पासपोर्ट भी भोपाल से बनवाया गया था, जिसमें गलत जानकारी, गलत पता, गलत फ़ोटो, गलत पुलिस सत्यापन किया गया था, लेकिन भारत के कर्मचारी-अधिकारी और अपना काम किसी भी तरह करवाने के लिये बेताब रहने वाली आम जनता इतनी भ्रष्ट है कि देश की सुरक्षा व्यवस्था से खिलवाड़ करने में भी उन्हें कोई शर्म नहीं आती।
सरकार दिनोंदिन भारत से अन्तर्राष्ट्रीय हवाई उड़ानों और टर्मिनलों को बढ़ाती जा रही है, लेकिन उन हवाई टर्मिनलों पर सुरक्षा व्यवस्था और जाँच का काम रामभरोसे ही चलता है। केरल जैसे अतिसंवेदनशील राज्य, जहाँ सिमी की जड़ें मजबूत हैं तथा जहाँ से "ईसाई धर्मान्तरण के दिग्गज" पूरे भारत में फ़ैलते हैं, ऐसे राज्य में खाड़ी देशों से आने वाले यात्रियों के पास फ़र्जी पासपोर्ट मिलना इसी ओर इशारा करता है कि कोई भी जब चाहे तब इस देश में आ सकता है, जा सकता है, रह सकता है, बम विस्फ़ोट कर सकता है… कोई रोकने वाला नहीं। कोई भी चाहे तो नेपाल के रास्ते आ सकता है, चाहे तो बांग्लादेश के रास्ते, चाहे तो वाघा बॉर्डर से, चाहे तो कुपवाड़ा-अखनूर से, चाहे तो मन्नार की खाड़ी से, चाहे तो श्रीलंका के रास्ते से… और अब चाहे तो फ़र्जी पासपोर्ट से देश के किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरो, और भीड़ में खो जाओ। तात्पर्य कि कोई कहीं से भी आ सकता है, क्या भारत एक देश नहीं, धर्मशाला है? जहाँ बिना पैसा चुकाये, कोई भी, कैसी भी मौज करता रह सकता है? असल में, सरकार को इन बातों की कोई परवाह नहीं है, जबकि नेताओं-अफ़सरों-नागरिकों को "हराम के पैसों" की लत लग चुकी है, चाहे देश जाये भाड़ में। ऐसे में यदि आप सोचते हैं कि "भारत एक मजबूत और सुरक्षित राष्ट्र" है, तो आप निहायत मूर्ख हैं…
http://www.mangaloretoday.com/mt/index.php?action=mn&type=1012
http://www.youtube.com/watch?v=Yxbh3bwI7k0
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ब्लॉग
गुरुवार, 24 जून 2010 14:23
अब ज़ाकिर नाईक को कनाडा ने भी वीज़ा देने से इंकार किया… ... Zakir Naik Denied Visa UK and Canada
बेचारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, उनकी रातों की नींद का क्या होगा। जब-जब किसी "मासूम", "भटके हुए", "निरपराध" भारतीय को कोई विदेशी सरकार परेशान करती है तो मनमोहन सिंह की रातों की नींद खराब हो ही जाती है। कुछ दिनों पहले ही यह खबर आई थी कि ब्रिटेन ने "जोकर" (सॉरी जाकिर) नाईक को उनके देश में प्रवेश देने से इंकार कर दिया था (यहाँ देखें... http://arabnews.com/world/article68460.ece) और अब ताज़ा खबर यह है कि "जोकर" (सॉरी… ज़ाकिर) नाईक को कनाडा ने भी अपने यहाँ घुसने से मना किया है (यहाँ देखें…http://peacetimes.net/2010/06/dr-zakir-naik-banned-in-canada-follows-the-footsteps-of-uk/)
मजे की बात तो यह है कि कनाडा की "मुस्लिम कनाडा कॉंग्रेस" के अध्यक्ष तारिक फ़तेह ने खुद ही फ़ेसबुक पर "Keep Zakir Naik Out of Canada" का जोरदार अभियान चलाया था और उन्हें भरपूर समर्थन भी मिला (यहाँ देखें…http://www.facebook.com/group.php?gid=128828540484928&v=app_2373072738)। इससे यह भी साबित होता है कि आम मुस्लिम तो शान्ति से रहना चाहता है, लेकिन कुछ जेहादी टाइप के लोग उन्हें सभी देशों में शक की निगाह से देखे जाने को अभिशप्त बना देते हैं। ज़ाकिर नाईक द्वारा कुरआन की ऊटपटांग व्याख्याओं का विरोध भारत में भी हो चुका है, लेकिन फ़िर रहस्यमयी चुप्पी साध ली गई।
बहरहाल, भारत में ज़ाकिर नाईक और "भटके हुए नौजवानों" के "खैरख्वाह चैम्पियन" यानी कि महेश भट्ट ने ब्रिटेन को धमकी(? हा हा हा हा हा हा) दी है कि इस कारण भारत के साथ उसके सम्बन्ध खराब हो सकते हैं। ज़ाकिर नाईक ने भी कहा है कि वे विदेश मंत्री एसएम कृष्णा से मिलकर उन पर लगे बैन को हटवाने का अनुरोध करने की अपील करेंगे (लेकिन अब तो कनाडा ने भी…? बेचारे कृष्णा को बुढ़ापे में कहाँ-कहाँ दौड़ाओगे यार?)। एक मुस्लिम संगठन ने मुम्बई में ब्रिटिश उच्चायोग (British High Commissioner) के दफ़्तर के सामने प्रदर्शन करने की धमकी भी दी है… यानी चारों तरफ़ से "मासूम" ज़ाकिर को बचाने की मुहिम शुरु की जा चुकी है।
वैसे आप लोगों को यह अच्छी तरह से याद होगा कि किस तरह भारत के एक प्रदेश के तीन-तीन बार चुने हुए संवैधानिक पद पर आसीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) को अमेरिका ने जब वीज़ा देने से इंकार कर दिया था, उस समय कौओं की काँव-काँव सुनाई नहीं दी थी, क्योंकि उस समय मामला किसी "मासूम", "निरपराध" और "भटका हुआ नौजवान" से जुड़ा हुआ नहीं था…
ज़ाकिर नाईक साहब के कुछ प्रसिद्ध वक्तव्यों की एक बानगी देख लीजिये -
2) मुस्लिम देशों में किसी अन्य धर्मांवलम्बी को किसी प्रकार के मानवाधिकार प्राप्त नहीं होने चाहिये, यहाँ तक कि किसी अन्य धर्म के पूजा स्थल भी नहीं बनाये जा सकते…
3) ज़ाकिर नाईक के अनुसार मुस्लिम लोग तो किसी भी देश में मस्जिदें बना सकते हैं लेकिन इस्लामिक देश में चर्च या मन्दिर नहीं चलेगा।
4) यदि मुझसे पूछा जाये लादेन इस्लाम के विरोधियों से लड़ रहा है और वह इस्लाम का सच्चा योद्धा है।
5) यदि लादेन सबसे बड़े आतंकवादी देश अमेरिका को आतंक का सबक सिखा रहा है तो हर मुस्लिम को आतंकवादी बन जाना चाहिये।
6) यदि महिलाएं पश्चिमी परिधान पहनती हैं तो वह खुद को बलात्कार का शिकार बनने के लिये "पेश करती" हैं।
(उक्त सभी महान विचार बाकायदा अखबारों और यू-ट्यूब पर मौजूद हैं…)
भला बताईये… ऐसे "विद्वान" को अपने देश में घुसपैठ करने से रोक कर ब्रिटेन और कनाडा अपना कितना "बौद्धिक नुकसान" कर रहे हैं।
अब यदि इस मामले में भारत सरकार हस्तक्षेप करती है तो पहले से ही "नंगी" हो चुकी उनकी धर्मनिरपेक्षता और भी "बदकार" सिद्ध हो जायेगी, क्योंकि नरेन्द्र मोदी के मामले में भारत सरकार का मुँह बन्द हो गया था जबकि संवैधानिक रुप से देखा जाये तो मोदी का अपमान देश का अपमान था। साथ ही ज़ाकिर वीज़ा मुद्दे पर दोगले वामपंथियों का रुख भी देखने लायक होगा, जो पहले ही तसलीमा नसरीन वीज़ा मामले में "सेकुलरिज़्म" की रोटी सेंक चुके हैं। मुस्लिमों को खुश करने सम्बन्धी अमेरिका का दोगलापन भी ज़ाहिर हो ही चुका है, क्योंकि उसने नरेन्द्र मोदी को भले ही वीज़ा न दिया हो, लेकिन सिखों के नरसंहार वाले HKL भगत, टाइटलर, सज्जन कुमार से लेकर गैस काण्ड के मौत के सौदागर "अर्जुन सिंह" और "राजीव गांधी" न जाने कितनी बार अमेरिका की यात्रा कर चुके हैं…।
ऐसा महान देश आपने कहीं नहीं देखा होगा, जहाँ विदेश नीति भी "शर्मनिरपेक्षता" के आधार पर तय होती हो… क्योंकि जिस देश को कभी भी "तनकर खड़ा होना" सिखाया ही नहीं गया, जिसे जानबूझकर "एक पार्टी" द्वारा अशिक्षित और गरीब रखा गया, जिसे कुछ पार्टियों ने जानबूझकर स्कूली पुस्तकों में उसकी संस्कृति से काटकर रखा, वह ऐसे ही कीड़े की तरह रेंगता रहता है… और चीन की तरह ताकतवर बनने के सपने (सिर्फ़ सपने) देखता रहता है।
बहरहाल, ज़ाकिर नाईक वीज़ा मामले में आगामी घटनाक्रम पर नज़र रखने की आवश्यकता है, क्योंकि यह भी कांग्रेसियों और वामपंथियों की "शर्मनिरपेक्षता" की राह में एक नज़ीर साबित होगा…। ब्रिटेन और कनाडा ने राह तो दिखाई है लेकिन शायद बराक "हुसैन" ओबामा (जो कम से कम 9 मौकों पर सार्वजनिक रुप से खुद को मुस्लिम कह चुके हैं) इतनी हिम्मत जुटाने में कामयाब न हो सकें…। और भारत की सरकार तो खैर………
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चलते-चलते : विषय से थोड़ा हटकर एकदम ताज़ा खबर मिली है कि गुजरात सरकार को संयुक्त राष्ट्र लोक सेवा पुरस्कार (UNPSA) हेतु चुना गया है। गुजरात सरकार द्वारा आम जनता की शिकायतों को सुनने के लिये "स्वागत" (SWAGAT - State Wide Attention on Grievances with Application of Technology योजना शुरु की गई थी, जिसमें मुख्यमंत्री खुद 26 जिलों की 225 तहसीलों से सीधे संवाद करते हैं तथा शिकायतों का तत्काल निवारण करते हैं। इस पुरस्कार को दो बार प्राप्त करने वाला गुजरात देश का पहला राज्य है। (यहाँ देखें… http://www.narendramodi.in/#slideshare)
(गैस काण्ड में जनता को लूटने वाले हत्यारों के सरताजों तथा 30 साल से लगातार एक ही राज्य को बरबाद करने वालों, कांग्रेस के हाथों बिके हुए मीडियाई भाण्डों… कुछ तो शर्म करो...)
मजे की बात तो यह है कि कनाडा की "मुस्लिम कनाडा कॉंग्रेस" के अध्यक्ष तारिक फ़तेह ने खुद ही फ़ेसबुक पर "Keep Zakir Naik Out of Canada" का जोरदार अभियान चलाया था और उन्हें भरपूर समर्थन भी मिला (यहाँ देखें…http://www.facebook.com/group.php?gid=128828540484928&v=app_2373072738)। इससे यह भी साबित होता है कि आम मुस्लिम तो शान्ति से रहना चाहता है, लेकिन कुछ जेहादी टाइप के लोग उन्हें सभी देशों में शक की निगाह से देखे जाने को अभिशप्त बना देते हैं। ज़ाकिर नाईक द्वारा कुरआन की ऊटपटांग व्याख्याओं का विरोध भारत में भी हो चुका है, लेकिन फ़िर रहस्यमयी चुप्पी साध ली गई।
बहरहाल, भारत में ज़ाकिर नाईक और "भटके हुए नौजवानों" के "खैरख्वाह चैम्पियन" यानी कि महेश भट्ट ने ब्रिटेन को धमकी(? हा हा हा हा हा हा) दी है कि इस कारण भारत के साथ उसके सम्बन्ध खराब हो सकते हैं। ज़ाकिर नाईक ने भी कहा है कि वे विदेश मंत्री एसएम कृष्णा से मिलकर उन पर लगे बैन को हटवाने का अनुरोध करने की अपील करेंगे (लेकिन अब तो कनाडा ने भी…? बेचारे कृष्णा को बुढ़ापे में कहाँ-कहाँ दौड़ाओगे यार?)। एक मुस्लिम संगठन ने मुम्बई में ब्रिटिश उच्चायोग (British High Commissioner) के दफ़्तर के सामने प्रदर्शन करने की धमकी भी दी है… यानी चारों तरफ़ से "मासूम" ज़ाकिर को बचाने की मुहिम शुरु की जा चुकी है।
वैसे आप लोगों को यह अच्छी तरह से याद होगा कि किस तरह भारत के एक प्रदेश के तीन-तीन बार चुने हुए संवैधानिक पद पर आसीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) को अमेरिका ने जब वीज़ा देने से इंकार कर दिया था, उस समय कौओं की काँव-काँव सुनाई नहीं दी थी, क्योंकि उस समय मामला किसी "मासूम", "निरपराध" और "भटका हुआ नौजवान" से जुड़ा हुआ नहीं था…
ज़ाकिर नाईक साहब के कुछ प्रसिद्ध वक्तव्यों की एक बानगी देख लीजिये -
1) "यदि कोई व्यक्ति मुस्लिम से गैर-मुस्लिम बन जाता है तो उसकी सज़ा मौत है, यहाँ तक कि इस्लाम में आने के बाद वापस जाने की सजा भी मौत है…"
2) मुस्लिम देशों में किसी अन्य धर्मांवलम्बी को किसी प्रकार के मानवाधिकार प्राप्त नहीं होने चाहिये, यहाँ तक कि किसी अन्य धर्म के पूजा स्थल भी नहीं बनाये जा सकते…
3) ज़ाकिर नाईक के अनुसार मुस्लिम लोग तो किसी भी देश में मस्जिदें बना सकते हैं लेकिन इस्लामिक देश में चर्च या मन्दिर नहीं चलेगा।
4) यदि मुझसे पूछा जाये लादेन इस्लाम के विरोधियों से लड़ रहा है और वह इस्लाम का सच्चा योद्धा है।
5) यदि लादेन सबसे बड़े आतंकवादी देश अमेरिका को आतंक का सबक सिखा रहा है तो हर मुस्लिम को आतंकवादी बन जाना चाहिये।
6) यदि महिलाएं पश्चिमी परिधान पहनती हैं तो वह खुद को बलात्कार का शिकार बनने के लिये "पेश करती" हैं।
(उक्त सभी महान विचार बाकायदा अखबारों और यू-ट्यूब पर मौजूद हैं…)
भला बताईये… ऐसे "विद्वान" को अपने देश में घुसपैठ करने से रोक कर ब्रिटेन और कनाडा अपना कितना "बौद्धिक नुकसान" कर रहे हैं।
अब यदि इस मामले में भारत सरकार हस्तक्षेप करती है तो पहले से ही "नंगी" हो चुकी उनकी धर्मनिरपेक्षता और भी "बदकार" सिद्ध हो जायेगी, क्योंकि नरेन्द्र मोदी के मामले में भारत सरकार का मुँह बन्द हो गया था जबकि संवैधानिक रुप से देखा जाये तो मोदी का अपमान देश का अपमान था। साथ ही ज़ाकिर वीज़ा मुद्दे पर दोगले वामपंथियों का रुख भी देखने लायक होगा, जो पहले ही तसलीमा नसरीन वीज़ा मामले में "सेकुलरिज़्म" की रोटी सेंक चुके हैं। मुस्लिमों को खुश करने सम्बन्धी अमेरिका का दोगलापन भी ज़ाहिर हो ही चुका है, क्योंकि उसने नरेन्द्र मोदी को भले ही वीज़ा न दिया हो, लेकिन सिखों के नरसंहार वाले HKL भगत, टाइटलर, सज्जन कुमार से लेकर गैस काण्ड के मौत के सौदागर "अर्जुन सिंह" और "राजीव गांधी" न जाने कितनी बार अमेरिका की यात्रा कर चुके हैं…।
ऐसा महान देश आपने कहीं नहीं देखा होगा, जहाँ विदेश नीति भी "शर्मनिरपेक्षता" के आधार पर तय होती हो… क्योंकि जिस देश को कभी भी "तनकर खड़ा होना" सिखाया ही नहीं गया, जिसे जानबूझकर "एक पार्टी" द्वारा अशिक्षित और गरीब रखा गया, जिसे कुछ पार्टियों ने जानबूझकर स्कूली पुस्तकों में उसकी संस्कृति से काटकर रखा, वह ऐसे ही कीड़े की तरह रेंगता रहता है… और चीन की तरह ताकतवर बनने के सपने (सिर्फ़ सपने) देखता रहता है।
बहरहाल, ज़ाकिर नाईक वीज़ा मामले में आगामी घटनाक्रम पर नज़र रखने की आवश्यकता है, क्योंकि यह भी कांग्रेसियों और वामपंथियों की "शर्मनिरपेक्षता" की राह में एक नज़ीर साबित होगा…। ब्रिटेन और कनाडा ने राह तो दिखाई है लेकिन शायद बराक "हुसैन" ओबामा (जो कम से कम 9 मौकों पर सार्वजनिक रुप से खुद को मुस्लिम कह चुके हैं) इतनी हिम्मत जुटाने में कामयाब न हो सकें…। और भारत की सरकार तो खैर………
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चलते-चलते : विषय से थोड़ा हटकर एकदम ताज़ा खबर मिली है कि गुजरात सरकार को संयुक्त राष्ट्र लोक सेवा पुरस्कार (UNPSA) हेतु चुना गया है। गुजरात सरकार द्वारा आम जनता की शिकायतों को सुनने के लिये "स्वागत" (SWAGAT - State Wide Attention on Grievances with Application of Technology योजना शुरु की गई थी, जिसमें मुख्यमंत्री खुद 26 जिलों की 225 तहसीलों से सीधे संवाद करते हैं तथा शिकायतों का तत्काल निवारण करते हैं। इस पुरस्कार को दो बार प्राप्त करने वाला गुजरात देश का पहला राज्य है। (यहाँ देखें… http://www.narendramodi.in/#slideshare)
(गैस काण्ड में जनता को लूटने वाले हत्यारों के सरताजों तथा 30 साल से लगातार एक ही राज्य को बरबाद करने वालों, कांग्रेस के हाथों बिके हुए मीडियाई भाण्डों… कुछ तो शर्म करो...)
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मंगलवार, 22 जून 2010 12:01
वामपंथी अखबारों और समर्थकों के लिये उन्हीं के राज्यों से "धर्मनिरपेक्षता से लबालब" भरे दो समाचार…… Secularism in Communist Kerala-Bengal
पाठकों ने अक्सर विभिन्न ब्लॉग्स और फ़ोरमों पर वामपंथी समर्थकों को अपने सिद्धान्त और नैतिकता या सेकुलरिज़्म सम्बन्धी लेक्चर झाड़ते सुना ही होगा। वामपंथियों को इस बात का मुगालता हमेशा रहा है कि इस देश में सेकुलरिज़्म यदि जिन्दा है तो सिर्फ़ उन्हीं की वजह से, क्योंकि कांग्रेस और भाजपा को वे लोग एक ही सिक्के के दो पहलू मानते आये हैं। हालांकि उनके इन "सिद्धान्तों"(?) की पोल कई बार खुल चुकी है, फ़िर भी वे खुद को "धर्मनिरपेक्षता का असली योद्धा"(?) समझने से बाज नहीं आते…। जैसा कि सभी जानते हैं, केरल और पश्चिम बंगाल में ऐसे ही महान वामपंथियों का कई वर्षों तक सत्ता पर कब्जा रहा है… इन्हीं दो राज्यों से "धर्मनिरपेक्षता से लबालब भरे" दो समाचार आये हैं…
कोलकाता की आलिया यूनिवर्सिटी में तृणमूल कांग्रेस स्टूडेंट यूनियन के हसन-उज-जमाँ नामक छात्र नेता ने वहाँ की एक बंगाली शिक्षिका श्रीमती शिरीन मिद्या को बुरका पहनकर कॉलेज आने के लिये धमकाया। जब श्रीमती मिद्या ने बुरका पहनने से मना कर दिया और वाइस चांसलर शम्सुल आलम और रजिस्ट्रार डॉ अनवर हुसैन से शिकायत की तो उन्होंने उस छात्रनेता पर कोई कार्रवाई करने से इंकार कर दिया। उलटे वाइस चांसलर ने उन्हें यूनिवर्सिटी न जाने की सलाह दे डाली। हिम्मती महिला श्रीमती मिद्या ने पश्चिम बंगाल के अल्पसंख्यक मंत्री अब्दुल सत्तार से शिकायत की, तो उन्होंने बदले में श्रीमती मिद्या का तबादला यूनिवर्सिटी से साल्ट लेक कैम्पस स्थित लाइब्रेरी में कर दिया। जब इस मामले में पत्रकारों ने रजिस्ट्रार से सम्पर्क किया तो उन्होंने कहा कि "वैसे तो आलिया यूनिवर्सिटी में कोई ड्रेस-कोड नहीं है, लेकिन चूंकि यह मदरसा सिस्टम पर आधारित है, इसलिये महिला शिक्षिकाओं को "शालीन परिधान" पहनना ही चाहिये…" (यानी रजिस्ट्रार "अनवर हुसैन" महोदय मानते हैं कि सिर्फ़ "बुरका" ही शालीन परिधान है…)। क्या आपने किसी महिला संगठन, महिला आयोग या किसी महिला नेत्री को एक महिला शिक्षिका पर हुई इस "ज्यादती" का विरोध करते सुना है? विरोध करने वाली महिला का तबादला किये जाने से यूनिवर्सिटी की बाकी महिलाओं को बुरका पहनाना आसान हो गया है, क्योंकि सभी में श्रीमती मिद्या जैसी हिम्मत नहीं होती। गिरिजा व्यास जी सुन रही हैं क्या?
असल में तृणमूल कांग्रेस ने फ़िलहाल वामपंथियों के "पिछवाड़े में हड़कम्प" मचा रखा है, इसलिये तृणमूल कांग्रेस के एक छात्रनेता को "धार्मिक" मामले (इसे मुस्लिम मामले पढ़ें) में हाथ लगाने की हिम्मत बंगाल के वामपंथी मंत्री की नहीं थी, ऊपर से विधानसभा चुनाव सिर पर आन खड़े हैं सो "धर्मनिरपेक्षता" बरकरार रखने की खातिर एक टीचर का ट्रांसफ़र कर भी दिया तो क्या? लेकिन क्या श्रीमती मिद्या का तबादला करके एक तरह से वामपंथियों ने "अघोषित फ़तवे" का समर्थन नहीं किया है? मुस्लिम वोटों की खातिर सदा हर जगह "लेटने" वाले वामपंथी उस समय सैद्धान्तिक रुप से बुरी तरह उखड़ जाते हैं जब "हिन्दुत्व" या "हिन्दू वोटों" की बात की जाती है…। यहाँ एक और बात नोट करने लायक है कि पश्चिम बंगाल के अधिकतर मुस्लिम बहुल शिक्षा संस्थानों में "गैर-मुस्लिम" शिक्षकों को स्वीकार नहीं किया जा रहा है, भले ही उनके पास आधिकारिक नियुक्ति पत्र (Appointment Letter) हो
चूंकि केरल में वामपंथी और कांग्रेसी अदल-बदल कर कुंडली मारते हैं इसलिये यह प्रदेश "धर्मनिरपेक्षता की सुनामी" से हमेशा ही ग्रस्त रहा है। देश में कहीं भी धर्म-परिवर्तन का मामला सामने आये, उसमें केरल का कोई न कोई व्यक्ति शामिल मिलेगा, कश्मीर से लेकर असम तक हुए बम विस्फ़ोटो में भी केरल का कोई न कोई लिंक जरूर मिलता है। केरल से ही प्रेरणा लेकर अन्य कई राज्यों ने "अल्पसंख्यकों" (यानी सिर्फ़ मुस्लिम) के कल्याण(?) की कई योजनाएं चलाई हैं, केरल की ही तरह मुस्लिमों को OBC से छीनकर आरक्षण भी दिया है, हिन्दू मन्दिरों की सम्पत्ति पर कब्जा करने के लिये सरकारी ट्रस्टों और चमचों को छुट्टे सांड की तरह चरने के लिये छोड़ दिया है… आदि-आदि। यानी कि तात्पर्य यह कि "धर्मनिरपेक्षता" की गंगा केरल में ही सर्वाधिक बहती है और यहीं से इसकी प्रेरणा अन्य राज्यों को मिलती है।
अब केरल की सरकार के अजा-जजा/पिछड़ा वर्ग समाज कल्याण मंत्री एके बालन ने घोषणा की है कि धर्म परिवर्तन करने (यानी ईसाई बन जाने वालों) के ॠण माफ़ कर दिये जायेंगे। इस सरकारी योजना के तहत जिन लोगों ने 25,000 रुपये तक का ॠण लिया है, और उन्होंने धर्म परिवर्तन कर लिया है तो उनके ॠण माफ़ कर दिये जायेंगे। इस तरह से केरल सरकार पर सिर्फ़(?) 159 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा (यह कीमत वामपंथी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों के सामने कुछ भी नहीं है)।
संदेश स्पष्ट और साफ़ है कि "धर्म परिवर्तन करके ईसाई बन जाओ और मौज करो…, अपने धर्म से गद्दारी करने का जो ईनाम वामपंथी सरकार तुम्हें दे रही है, उसका शुक्रिया मनाओ…"।
http://beta.thehindu.com/news/states/kerala/article451983.ece
अब तक तो आप समझ ही गये होंगे कि "असली धर्मनिरपेक्षता" किसे कहते हैं? तो भविष्य में जब भी कोई "वामपंथी दोमुँहा" आपके सामने बड़े-बड़े सिद्धान्तों का उपदेश देता दिखाई दे, तब उसके फ़टे हुए मुँह पर यह लिंक मारिये। ठीक उसी तरह, जिस तरह नरेन्द्र मोदी ने "मौत का सौदागर" वाले बयान को सोनिया के मुँह पर गैस काण्ड के हत्यारों को बचाने और सिखों के नरसंहार के मामले को लेकर मारा है।
रही मीडिया की बात, तो आप लोग "भाण्ड-मिरासियों" से यह उम्मीद न करें कि वे "धर्मनिरपेक्षता" के इस नंगे खेल को उजागर करेंगे… ये हमें ही करना पड़ेगा, क्योंकि अब भाजपा भी बेशर्मी से इसी राह पर चल पड़ी है…। नरेन्द्र मोदी नाम का "मर्द" ही भाजपाईयों में कोई "संचार" फ़ूंके तो फ़ूंके, वरना इस देश को कांग्रेसी और वामपंथी मिलकर "धीमी मौत की नींद" सुलाकर ही मानेंगे…
बुद्धिजीवी(?) इसे धर्मनिरपेक्षता कहते हैं, मैं इसे "शर्मनिरपेक्षता" कहता हूं… और इसके जिम्मेदार भी हम हिन्दू ही हैं, जो कि "सहनशीलता, उदारता, सर्वधर्म समभाव…" जैसे नपुंसक बनाने वाले इंजेक्शन लेकर पैदा होते हैं।
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चित्र साभार - आउटलुक
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1) तृणमूल कांग्रेस स्टूडेण्ट यूनियन ने महिला शिक्षिका को बुरका पहनने पर मजबूर किया (वामपंथियों ने मौन समर्थन किया) -
कोलकाता की आलिया यूनिवर्सिटी में तृणमूल कांग्रेस स्टूडेंट यूनियन के हसन-उज-जमाँ नामक छात्र नेता ने वहाँ की एक बंगाली शिक्षिका श्रीमती शिरीन मिद्या को बुरका पहनकर कॉलेज आने के लिये धमकाया। जब श्रीमती मिद्या ने बुरका पहनने से मना कर दिया और वाइस चांसलर शम्सुल आलम और रजिस्ट्रार डॉ अनवर हुसैन से शिकायत की तो उन्होंने उस छात्रनेता पर कोई कार्रवाई करने से इंकार कर दिया। उलटे वाइस चांसलर ने उन्हें यूनिवर्सिटी न जाने की सलाह दे डाली। हिम्मती महिला श्रीमती मिद्या ने पश्चिम बंगाल के अल्पसंख्यक मंत्री अब्दुल सत्तार से शिकायत की, तो उन्होंने बदले में श्रीमती मिद्या का तबादला यूनिवर्सिटी से साल्ट लेक कैम्पस स्थित लाइब्रेरी में कर दिया। जब इस मामले में पत्रकारों ने रजिस्ट्रार से सम्पर्क किया तो उन्होंने कहा कि "वैसे तो आलिया यूनिवर्सिटी में कोई ड्रेस-कोड नहीं है, लेकिन चूंकि यह मदरसा सिस्टम पर आधारित है, इसलिये महिला शिक्षिकाओं को "शालीन परिधान" पहनना ही चाहिये…" (यानी रजिस्ट्रार "अनवर हुसैन" महोदय मानते हैं कि सिर्फ़ "बुरका" ही शालीन परिधान है…)। क्या आपने किसी महिला संगठन, महिला आयोग या किसी महिला नेत्री को एक महिला शिक्षिका पर हुई इस "ज्यादती" का विरोध करते सुना है? विरोध करने वाली महिला का तबादला किये जाने से यूनिवर्सिटी की बाकी महिलाओं को बुरका पहनाना आसान हो गया है, क्योंकि सभी में श्रीमती मिद्या जैसी हिम्मत नहीं होती। गिरिजा व्यास जी सुन रही हैं क्या?
असल में तृणमूल कांग्रेस ने फ़िलहाल वामपंथियों के "पिछवाड़े में हड़कम्प" मचा रखा है, इसलिये तृणमूल कांग्रेस के एक छात्रनेता को "धार्मिक" मामले (इसे मुस्लिम मामले पढ़ें) में हाथ लगाने की हिम्मत बंगाल के वामपंथी मंत्री की नहीं थी, ऊपर से विधानसभा चुनाव सिर पर आन खड़े हैं सो "धर्मनिरपेक्षता" बरकरार रखने की खातिर एक टीचर का ट्रांसफ़र कर भी दिया तो क्या? लेकिन क्या श्रीमती मिद्या का तबादला करके एक तरह से वामपंथियों ने "अघोषित फ़तवे" का समर्थन नहीं किया है? मुस्लिम वोटों की खातिर सदा हर जगह "लेटने" वाले वामपंथी उस समय सैद्धान्तिक रुप से बुरी तरह उखड़ जाते हैं जब "हिन्दुत्व" या "हिन्दू वोटों" की बात की जाती है…। यहाँ एक और बात नोट करने लायक है कि पश्चिम बंगाल के अधिकतर मुस्लिम बहुल शिक्षा संस्थानों में "गैर-मुस्लिम" शिक्षकों को स्वीकार नहीं किया जा रहा है, भले ही उनके पास आधिकारिक नियुक्ति पत्र (Appointment Letter) हो
2) दूसरी खबर वामपंथियों के एक और लाड़ले प्रदेश, जहाँ वे बारी-बारी से कांग्रेस के साथ अदला-बदली करके कुण्डली मारते हैं, उस केरल प्रदेश से -
चूंकि केरल में वामपंथी और कांग्रेसी अदल-बदल कर कुंडली मारते हैं इसलिये यह प्रदेश "धर्मनिरपेक्षता की सुनामी" से हमेशा ही ग्रस्त रहा है। देश में कहीं भी धर्म-परिवर्तन का मामला सामने आये, उसमें केरल का कोई न कोई व्यक्ति शामिल मिलेगा, कश्मीर से लेकर असम तक हुए बम विस्फ़ोटो में भी केरल का कोई न कोई लिंक जरूर मिलता है। केरल से ही प्रेरणा लेकर अन्य कई राज्यों ने "अल्पसंख्यकों" (यानी सिर्फ़ मुस्लिम) के कल्याण(?) की कई योजनाएं चलाई हैं, केरल की ही तरह मुस्लिमों को OBC से छीनकर आरक्षण भी दिया है, हिन्दू मन्दिरों की सम्पत्ति पर कब्जा करने के लिये सरकारी ट्रस्टों और चमचों को छुट्टे सांड की तरह चरने के लिये छोड़ दिया है… आदि-आदि। यानी कि तात्पर्य यह कि "धर्मनिरपेक्षता" की गंगा केरल में ही सर्वाधिक बहती है और यहीं से इसकी प्रेरणा अन्य राज्यों को मिलती है।
अब केरल की सरकार के अजा-जजा/पिछड़ा वर्ग समाज कल्याण मंत्री एके बालन ने घोषणा की है कि धर्म परिवर्तन करने (यानी ईसाई बन जाने वालों) के ॠण माफ़ कर दिये जायेंगे। इस सरकारी योजना के तहत जिन लोगों ने 25,000 रुपये तक का ॠण लिया है, और उन्होंने धर्म परिवर्तन कर लिया है तो उनके ॠण माफ़ कर दिये जायेंगे। इस तरह से केरल सरकार पर सिर्फ़(?) 159 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा (यह कीमत वामपंथी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धान्तों के सामने कुछ भी नहीं है)।
संदेश स्पष्ट और साफ़ है कि "धर्म परिवर्तन करके ईसाई बन जाओ और मौज करो…, अपने धर्म से गद्दारी करने का जो ईनाम वामपंथी सरकार तुम्हें दे रही है, उसका शुक्रिया मनाओ…"।
http://beta.thehindu.com/news/states/kerala/article451983.ece
अब तक तो आप समझ ही गये होंगे कि "असली धर्मनिरपेक्षता" किसे कहते हैं? तो भविष्य में जब भी कोई "वामपंथी दोमुँहा" आपके सामने बड़े-बड़े सिद्धान्तों का उपदेश देता दिखाई दे, तब उसके फ़टे हुए मुँह पर यह लिंक मारिये। ठीक उसी तरह, जिस तरह नरेन्द्र मोदी ने "मौत का सौदागर" वाले बयान को सोनिया के मुँह पर गैस काण्ड के हत्यारों को बचाने और सिखों के नरसंहार के मामले को लेकर मारा है।
रही मीडिया की बात, तो आप लोग "भाण्ड-मिरासियों" से यह उम्मीद न करें कि वे "धर्मनिरपेक्षता" के इस नंगे खेल को उजागर करेंगे… ये हमें ही करना पड़ेगा, क्योंकि अब भाजपा भी बेशर्मी से इसी राह पर चल पड़ी है…। नरेन्द्र मोदी नाम का "मर्द" ही भाजपाईयों में कोई "संचार" फ़ूंके तो फ़ूंके, वरना इस देश को कांग्रेसी और वामपंथी मिलकर "धीमी मौत की नींद" सुलाकर ही मानेंगे…
बुद्धिजीवी(?) इसे धर्मनिरपेक्षता कहते हैं, मैं इसे "शर्मनिरपेक्षता" कहता हूं… और इसके जिम्मेदार भी हम हिन्दू ही हैं, जो कि "सहनशीलता, उदारता, सर्वधर्म समभाव…" जैसे नपुंसक बनाने वाले इंजेक्शन लेकर पैदा होते हैं।
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चित्र साभार - आउटलुक
Communist Double Standards on Secularism, Alia University Shirin Midya, Fatwa on Burqua, West Bengal Elections, Trinamool and Communists, Kerala and Conversion to Christianity, Subsidy weavers to Converted Christians in Kerala, Loan Wavered Scheme for Christian Conversion , वामपंथी धर्मनिरपेक्षता सेकुलरिज़्म, आलिया यूनिवर्सिटी कोलकाता, बुरका और फ़तवा, पश्चिम बंगाल आम चुनाव, तृणमूल कॉंग्रेस और वामपंथी, केरल में धर्म परिवर्तन, धर्म परिवर्तित ईसाईयों के लोन माफ़, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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ब्लॉग
शुक्रवार, 18 जून 2010 14:23
जनगणना में “धर्म” शामिल करने की माँग साम्प्रदायिकता है क्या??…… Religion & Caste in India Census 2011
जब इन्फ़ोसिस के पूर्व सीईओ नन्दन नीलकेणि ने बहुप्रचारित और अनमोल टाइप की “यूनिक आईडेंटिफ़िकेशन नम्बर” योजना के प्रमुख के रूप में कार्यभार सम्भाला था, उस समय बहुत उम्मीद जागी थी, कि शायद अब कुछ ठोस काम होगा, लेकिन जिस तरह से भारत की सुस्त-मक्कार और भ्रष्ट सरकारी बाबू प्रणाली इस योजना को पलीता लगाने में लगी हुई है, उस कारण वह उम्मीद धीरे-धीरे मुरझाने लगी है। UID (Unique Identification Number) बनाने के पहले चरण में जनगणना की जानी है, जिसमें काफ़ी सारा डाटा एकत्रित किया जाना है। पहले चरण में ही तमाम राजनैतिक दलों, कथित प्रगतिशीलों और जातिवादियों ने जनगणना में “जाति” के कॉलम को शामिल करवाने के लिये एक मुहिम सी छेड़ दी है। चारों तरफ़ से हमले हो रहे हैं कि “जाति एक हकीकत है”, “जाति को शामिल करने से सही तस्वीर सामने आ सकेगी…” आदि-आदि। चारों ओर ऐसी हवा बनाई जा रही है, मानो जनगणना में “जाति” शामिल होने से और उसके नतीजों से (जिसका फ़ायदा सिर्फ़ नेता ही उठायेंगे) भारत में कोई क्रान्ति आने वाली हो।
इस सारे हंगामे में इस बात पर कोई चर्चा नहीं हो रही कि –
1) जनगणना फ़ॉर्म में “धर्म” वाला कॉलम क्यों नहीं है?
2) धर्म बड़ा है या जाति?
3) क्या देश में धर्म सम्बन्धी आँकड़ों की कोई अहमियत नहीं है?
4) क्या ऐसा किसी साजिश के तहत किया जा रहा है?
ऐसे कई सवाल हैं, लेकिन चूंकि मामला धर्म से जुड़ा है इसलिये इन प्रश्नों पर इक्का-दुक्का आवाज़ें उठ रही हैं। बात यह भी है कि मामला धर्म से जुड़ा है और ऐसे में वामपंथियों-सेकुलरों और प्रगतिशीलों द्वारा “साम्प्रदायिक” घोषित होने का खतरा रहता है, जबकि “जाति” की बात उठाने पर न तो वामपंथी और न ही सेकुलर… कोई भी कुछ नहीं बोलेगा… क्योंकि शायद यह प्रगतिशीलता की निशानी है।
सवाल मुँह बाये खड़े हैं कि आखिर नीलकेणि जी पर ऐसा कौन सा दबाव है कि उन्होंने जनगणना के इतने बड़े फ़ॉर्म में “सौ तरह के सवाल” पूछे हैं लेकिन “धर्म” का सवाल गायब कर दिया।
अर्थात देश को यह कभी नहीं पता चलेगा कि –
1) पिछले 10 साल में कितने धर्म परिवर्तन हुए? देश में हिन्दुओं की संख्या में कितनी कमी आई?
2) भारत जैसे “महान” देश में ईसाईयों का प्रतिशत किस राज्य में कितना बढ़ा
3) असम-पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में मुस्लिमों की संख्या कितनी बढ़ी,
4) किस जिले में मुस्लिम अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक बन गये
5) उड़ीसा और झारखण्ड के आदिवासी कहे जाने वाले वाकई में कितने आदिवासी हैं और उनमें से कितने अन्दर ही अन्दर ईसाई बन गये।
उल्लेखनीय है कि पिछले 10-15 साल में भारत में जहाँ एक ओर एवेंजेलिस्टों द्वारा धर्म परिवर्तन की मुहिम जोरशोर से चलाई गई है, वहीं दूसरी ओर बांग्लादेश से घुसपैठ के जरिये असम और बंगाल के कई जिलों में मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात चिन्ताजनक तरीके बढ़ा है। ऐसे हालात में नीलकेणि जी को तो धर्म वाला कॉलम अति-आवश्यक श्रेणी में रखना चाहिये था। बल्कि मेरा सुझाव तो यह भी है कि “वर्तमान धर्म कब से” वाला एक और अतिरिक्त कॉलम जोड़ा जाना चाहिये, ताकि जवाब देने वाला नागरिक बता सके कि क्या वह जन्म से ही उस धर्म में है या “बाद” में आया, साथ जनगणना में पूछे जाने वाले सवालों को एक “शपथ-पत्र” समान माना जाये ताकि बाद में कोई उससे मुकर न सके।
मजे की बात यह है कि जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द ने भी “धर्म” का कॉलम जुड़वाने की माँग की है, हालांकि उनकी माँग की वजह दूसरी है। जमीयत का कहना है कि सरकार मुसलमानों की जनसंख्या को घटाकर दिखाना चाहती है, ताकि उन्हें उनके अधिकारों, सुविधाओं और योजनाओं से वंचित किया जा सके। (यहाँ पढ़ें…)
इससे लगता है कि मौलाना को विश्वास हो गया है कि पिछले 10 साल में भारत में मुस्लिमों की जनसंख्या 13 या 15% से बढ़कर अब 20% हो गई है? और इसीलिये वे चाहते हैं कि उचित प्रतिशत के आधार पर “उचित” प्रतिनिधित्व और “उचित” योजनाएं उन्हें दी जायें, जबकि हिन्दुओं द्वारा जनगणना में धर्म शामिल करवाने की माँग इस डर को लेकर है कि उनकी जनसंख्या और कुछ “खास” इलाकों में जनसंख्या सन्तुलन बेहद खतरनाक तरीके से बदल चुका है, लेकिन यह तभी पता चलेगा जब जनगणना फ़ॉर्म में “धर्म” पता चले। प्रधानमंत्री ने “जाति” की गणना करने सम्बन्धी माँग को प्रारम्भिक तौर पर मान लिया है, लेकिन “धर्म” सम्बन्धी आँकड़ों को जाहिर करवाने के लिये शायद उन्हें सोनिया से पूछना पड़ेगा, क्योंकि मैडम माइनो शायद इसे हरी झण्डी दिखाएं, क्योंकि ऐसा होने पर “ईसाई संगठनों” द्वारा आदिवासी इलाके में चलाये जा रहे धर्म परिवर्तन की पूरी पोल खुल जाने का डर है।
जमीयत के मौलाना के विचार महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक आयोग सदस्य और “क्रिश्चियन वॉइस” के अध्यक्ष अब्राहम मथाई से कितने मिलते-जुलते हैं, मुम्बई में अब्राहम मथाई ने भी ठीक वही कहा, जो मौलाना ने लखनऊ में कहा, कि “धर्म सम्बन्धी सही आँकड़े नहीं मिलने से अल्पसंख्यकों को नुकसान होगा, उन्हें सही “अनुपात” में योजनाएं, सुविधाएं और विभिन्न गैर-सरकारी संस्थाओं में उचित प्रतिनिधित्व नही मिलेगा… अर्थात हर कोई “अपना-अपना फ़ायदा” देख रहा है। (इधर देखें…)
जनगणना के पहले दौर में मकानों और रहवासियों के आँकड़े एकत्रित किये जायेंगे, जबकि दूसरे दौर से बायोमीट्रिक आँकड़े एकत्रित करने की शुरुआत की जायेगी। जनगणना के पहले ही दौर में सरकारी कर्मचारी इतनी गलतियाँ और मक्कारी कर रहे हैं कि पता नहीं अगला दौर शुरु होगा भी या नहीं। भारत पहले भी मतदाता पहचान पत्र की शेषन साहब की योजना को शानदार पलीता लगा चुका है और अब वे कार्ड किसी काम के नहीं रहे। 2011 की जनगणना पर लगभग 2200 करोड रुपया खर्च होगा, जबकि बायोमीट्रिक कार्ड के लिये 800 करोड रुपये का प्रावधान अलग से किया गया है।
हमारी नीलकेणि जी से सिर्फ़ इतनी गुज़ारिश है कि “जाति-जाति-जाति” के शोर में “धर्म” जैसे महत्वपूर्ण मसले को न भूल जायें। यदि गणना में जाति शामिल नहीं भी करते हैं तब भी “धर्म” तो अवश्य ही शामिल करें।
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अन्त में एक सवाल : क्या केन्द्रीय मंत्री अम्बिका सोनी पुनः हिन्दू बन गई हैं? या अब तक ईसाई ही हैं? और आखिर वह ईसाई बनीं कब थीं?… 2011 जनगणना फ़ॉर्म से “धर्म” को गायब करने की वजह से ही ऐसे सवाल मेरे “भोले मन में हिलोरें” ले रहे हैं क्योंकि नेट पर खोजने से एक वेबसाईट (यहाँ देखें…) उन्हें “हिन्दू” बताती है, जबकि एक वेबसाईट “ईसाई” (यहाँ देखें…)… हम जैसे “अकिंचन” लोगों को कैसे पता चले कि आखिर माननीया मंत्री महोदय किस धर्म को “फ़ॉलो” करती हैं…
प्रिय पाठकों, नीचे दी हुई लिंक पर देखिये, “भारत के माननीय ईसाईयों” की लिस्ट में आपको - विजय अमृतराज, अरुंधती रॉय, प्रणव रॉय, बॉबी जिन्दल, राजशेखर रेड्डी और जगनमोहन रेड्डी, टेनिस खिलाड़ी महेश भूपति, अभिनेत्री नगमा, दक्षिण की सुपरस्टार नयनतारा, अम्बिका सोनी, अजीत जोगी, मन्दाकिनी, मलाईका अरोरा, अमृता अरोरा जैसे कई नाम मिलेंगे… जिन्होंने धर्म तो बदल लिया लेकिन भारत की जनता (यानी हिन्दुओं) को “*$*%%**” बनाने के लिये, अपना नाम नहीं बदला।
http://notableindianchristians.webs.com/apps/blog/
तो अब आप खुद ही बताईये नीलकेणि साहब, जब देश के बड़े शहरों में यह हाल हैं तो भारत के दूरदराज आदिवासी इलाकों में क्या हो रहा होगा, हमें कैसे पता चलेगा कि झाबुआ का “शान्तिलाल भूरिया” अभी भी आदिवासी ही है या ईसाई बन चुका? और जब बन ही चुका है, तो खुद को “पापी” क्यों महसूस करता है, नाम भी बदल लेता?
नन्दन जी, उठिये!!! अब क्या विचार है? जनगणना 2011 के फ़ॉर्म में - 1) “धर्म” और 2) “वर्तमान धर्म में कब से”, नामक दो कॉलम जोड़ रहे हैं क्या? या “किसी खास व्यक्ति” से पूछना पड़ेगा?
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इस सारे हंगामे में इस बात पर कोई चर्चा नहीं हो रही कि –
1) जनगणना फ़ॉर्म में “धर्म” वाला कॉलम क्यों नहीं है?
2) धर्म बड़ा है या जाति?
3) क्या देश में धर्म सम्बन्धी आँकड़ों की कोई अहमियत नहीं है?
4) क्या ऐसा किसी साजिश के तहत किया जा रहा है?
ऐसे कई सवाल हैं, लेकिन चूंकि मामला धर्म से जुड़ा है इसलिये इन प्रश्नों पर इक्का-दुक्का आवाज़ें उठ रही हैं। बात यह भी है कि मामला धर्म से जुड़ा है और ऐसे में वामपंथियों-सेकुलरों और प्रगतिशीलों द्वारा “साम्प्रदायिक” घोषित होने का खतरा रहता है, जबकि “जाति” की बात उठाने पर न तो वामपंथी और न ही सेकुलर… कोई भी कुछ नहीं बोलेगा… क्योंकि शायद यह प्रगतिशीलता की निशानी है।
सवाल मुँह बाये खड़े हैं कि आखिर नीलकेणि जी पर ऐसा कौन सा दबाव है कि उन्होंने जनगणना के इतने बड़े फ़ॉर्म में “सौ तरह के सवाल” पूछे हैं लेकिन “धर्म” का सवाल गायब कर दिया।
अर्थात देश को यह कभी नहीं पता चलेगा कि –
1) पिछले 10 साल में कितने धर्म परिवर्तन हुए? देश में हिन्दुओं की संख्या में कितनी कमी आई?
2) भारत जैसे “महान” देश में ईसाईयों का प्रतिशत किस राज्य में कितना बढ़ा
3) असम-पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में मुस्लिमों की संख्या कितनी बढ़ी,
4) किस जिले में मुस्लिम अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक बन गये
5) उड़ीसा और झारखण्ड के आदिवासी कहे जाने वाले वाकई में कितने आदिवासी हैं और उनमें से कितने अन्दर ही अन्दर ईसाई बन गये।
उल्लेखनीय है कि पिछले 10-15 साल में भारत में जहाँ एक ओर एवेंजेलिस्टों द्वारा धर्म परिवर्तन की मुहिम जोरशोर से चलाई गई है, वहीं दूसरी ओर बांग्लादेश से घुसपैठ के जरिये असम और बंगाल के कई जिलों में मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात चिन्ताजनक तरीके बढ़ा है। ऐसे हालात में नीलकेणि जी को तो धर्म वाला कॉलम अति-आवश्यक श्रेणी में रखना चाहिये था। बल्कि मेरा सुझाव तो यह भी है कि “वर्तमान धर्म कब से” वाला एक और अतिरिक्त कॉलम जोड़ा जाना चाहिये, ताकि जवाब देने वाला नागरिक बता सके कि क्या वह जन्म से ही उस धर्म में है या “बाद” में आया, साथ जनगणना में पूछे जाने वाले सवालों को एक “शपथ-पत्र” समान माना जाये ताकि बाद में कोई उससे मुकर न सके।
मजे की बात यह है कि जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द ने भी “धर्म” का कॉलम जुड़वाने की माँग की है, हालांकि उनकी माँग की वजह दूसरी है। जमीयत का कहना है कि सरकार मुसलमानों की जनसंख्या को घटाकर दिखाना चाहती है, ताकि उन्हें उनके अधिकारों, सुविधाओं और योजनाओं से वंचित किया जा सके। (यहाँ पढ़ें…)
इससे लगता है कि मौलाना को विश्वास हो गया है कि पिछले 10 साल में भारत में मुस्लिमों की जनसंख्या 13 या 15% से बढ़कर अब 20% हो गई है? और इसीलिये वे चाहते हैं कि उचित प्रतिशत के आधार पर “उचित” प्रतिनिधित्व और “उचित” योजनाएं उन्हें दी जायें, जबकि हिन्दुओं द्वारा जनगणना में धर्म शामिल करवाने की माँग इस डर को लेकर है कि उनकी जनसंख्या और कुछ “खास” इलाकों में जनसंख्या सन्तुलन बेहद खतरनाक तरीके से बदल चुका है, लेकिन यह तभी पता चलेगा जब जनगणना फ़ॉर्म में “धर्म” पता चले। प्रधानमंत्री ने “जाति” की गणना करने सम्बन्धी माँग को प्रारम्भिक तौर पर मान लिया है, लेकिन “धर्म” सम्बन्धी आँकड़ों को जाहिर करवाने के लिये शायद उन्हें सोनिया से पूछना पड़ेगा, क्योंकि मैडम माइनो शायद इसे हरी झण्डी दिखाएं, क्योंकि ऐसा होने पर “ईसाई संगठनों” द्वारा आदिवासी इलाके में चलाये जा रहे धर्म परिवर्तन की पूरी पोल खुल जाने का डर है।
जमीयत के मौलाना के विचार महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक आयोग सदस्य और “क्रिश्चियन वॉइस” के अध्यक्ष अब्राहम मथाई से कितने मिलते-जुलते हैं, मुम्बई में अब्राहम मथाई ने भी ठीक वही कहा, जो मौलाना ने लखनऊ में कहा, कि “धर्म सम्बन्धी सही आँकड़े नहीं मिलने से अल्पसंख्यकों को नुकसान होगा, उन्हें सही “अनुपात” में योजनाएं, सुविधाएं और विभिन्न गैर-सरकारी संस्थाओं में उचित प्रतिनिधित्व नही मिलेगा… अर्थात हर कोई “अपना-अपना फ़ायदा” देख रहा है। (इधर देखें…)
जनगणना के पहले दौर में मकानों और रहवासियों के आँकड़े एकत्रित किये जायेंगे, जबकि दूसरे दौर से बायोमीट्रिक आँकड़े एकत्रित करने की शुरुआत की जायेगी। जनगणना के पहले ही दौर में सरकारी कर्मचारी इतनी गलतियाँ और मक्कारी कर रहे हैं कि पता नहीं अगला दौर शुरु होगा भी या नहीं। भारत पहले भी मतदाता पहचान पत्र की शेषन साहब की योजना को शानदार पलीता लगा चुका है और अब वे कार्ड किसी काम के नहीं रहे। 2011 की जनगणना पर लगभग 2200 करोड रुपया खर्च होगा, जबकि बायोमीट्रिक कार्ड के लिये 800 करोड रुपये का प्रावधान अलग से किया गया है।
हमारी नीलकेणि जी से सिर्फ़ इतनी गुज़ारिश है कि “जाति-जाति-जाति” के शोर में “धर्म” जैसे महत्वपूर्ण मसले को न भूल जायें। यदि गणना में जाति शामिल नहीं भी करते हैं तब भी “धर्म” तो अवश्य ही शामिल करें।
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अन्त में एक सवाल : क्या केन्द्रीय मंत्री अम्बिका सोनी पुनः हिन्दू बन गई हैं? या अब तक ईसाई ही हैं? और आखिर वह ईसाई बनीं कब थीं?… 2011 जनगणना फ़ॉर्म से “धर्म” को गायब करने की वजह से ही ऐसे सवाल मेरे “भोले मन में हिलोरें” ले रहे हैं क्योंकि नेट पर खोजने से एक वेबसाईट (यहाँ देखें…) उन्हें “हिन्दू” बताती है, जबकि एक वेबसाईट “ईसाई” (यहाँ देखें…)… हम जैसे “अकिंचन” लोगों को कैसे पता चले कि आखिर माननीया मंत्री महोदय किस धर्म को “फ़ॉलो” करती हैं…
प्रिय पाठकों, नीचे दी हुई लिंक पर देखिये, “भारत के माननीय ईसाईयों” की लिस्ट में आपको - विजय अमृतराज, अरुंधती रॉय, प्रणव रॉय, बॉबी जिन्दल, राजशेखर रेड्डी और जगनमोहन रेड्डी, टेनिस खिलाड़ी महेश भूपति, अभिनेत्री नगमा, दक्षिण की सुपरस्टार नयनतारा, अम्बिका सोनी, अजीत जोगी, मन्दाकिनी, मलाईका अरोरा, अमृता अरोरा जैसे कई नाम मिलेंगे… जिन्होंने धर्म तो बदल लिया लेकिन भारत की जनता (यानी हिन्दुओं) को “*$*%%**” बनाने के लिये, अपना नाम नहीं बदला।
http://notableindianchristians.webs.com/apps/blog/
तो अब आप खुद ही बताईये नीलकेणि साहब, जब देश के बड़े शहरों में यह हाल हैं तो भारत के दूरदराज आदिवासी इलाकों में क्या हो रहा होगा, हमें कैसे पता चलेगा कि झाबुआ का “शान्तिलाल भूरिया” अभी भी आदिवासी ही है या ईसाई बन चुका? और जब बन ही चुका है, तो खुद को “पापी” क्यों महसूस करता है, नाम भी बदल लेता?
नन्दन जी, उठिये!!! अब क्या विचार है? जनगणना 2011 के फ़ॉर्म में - 1) “धर्म” और 2) “वर्तमान धर्म में कब से”, नामक दो कॉलम जोड़ रहे हैं क्या? या “किसी खास व्यक्ति” से पूछना पड़ेगा?
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सोमवार, 14 जून 2010 11:25
बन्द करो भोपाल-भोपाल-भोपाल की चिल्लाचोट? कभी खुद के गिरेबान में झाँककर देखा है?…… Bhopal Gas Tragedy, Bhopal Judgement, Congress
“आज तक” पर देर रात एक बहस में देख रहा था कि किस तरह से गाँधी परिवार के “वफ़ादार” श्री आरके धवन, राजीव गाँधी का बचाव कर रहे थे। जैसे ही दिग्विजय सिंह ने केन्द्र का नाम लिया, मानो आग सी लग गई। कांग्रेसियों में होड़ लगने लगी कि, मैडम की नज़रों में चढ़ने के लिये कौन, कितना अधिक जोर से बोल सकता है। सत्यव्रत चतुर्वेदी आये और अर्जुन सिंह पर बरसे (क्योंकि उन्हें उनसे पुराना हिसाब-किताब चुकता करना है), वसन्त साठे (जो खुद केन्द्रीय मंत्री थे) ने भी अर्जुन सिंह पर सवाल उठाये, सारे चैनल और अधिकतर अखबार भी “बलिदानी परिवार” का नाम सीधे तौर पर लेने से बच रहे हैं, कि कहीं उधर से मिलने वाला “पैसा” बन्द हो जाये।
कुछ टीवी चैनल और अखबार तो “पेशाब में आये झाग” की तरह एक दिन का उबाल खाने के बाद वापस कैटरीना-करीना-सलमान की खबरें, नरेन्द्र मोदी, विश्व कप फ़ुटबॉल दिखाने में व्यस्त हो गये हैं। तात्पर्य यही है कि जल्दी ही एक “बलि का बकरा” खोजा जायेगा, जो कि या तो अर्जुन सिंह होंगे अथवा उस समय का कोई तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री या गृह मंत्रालय का बड़ा अफ़सर (अधिक सुविधाजनक तो यही होगा कि, ऐसे आदमी का नाम सामने कर दिया जाये, जो मर चुका हो… लेकिन “त्यागमयी परिवार” के दुर्भाग्य से 25 साल बाद भी अधिकतर लोग जीवित ही हैं), प्रणब मुखर्जी भी अर्जुन के माथे ठीकरा फ़ोड़ने के मूड में हैं, उधर नरेन्द्र मोदी ने सोनिया गाँधी का नाम लिया तो मुँह में मिर्ची भरे जयन्ती नटराजन, आनन्द शर्मा, राजीव शुक्ला, मनीष तिवारी सहित सारे चमचे-काँटे-छुरी-कड़छे-कटोरी सब अपने खोल से बाहर आ गये। अब मंत्रियों का समूह गठित किया गया है जो ये पता लगायेगा कि असली दोषी कौन है? यानी कि कोशिश पूरी है कि देश के सबसे पवित्र, सबसे महान, सबसे त्यागवान, सबसे बलिदानी “परिवार” पर कोई आँच न आने पाये…
खैर कांग्रेस जो करना था कर चुकी, अब आगे जो करना है वही करेगी… उन्हें देखकर घिन आती हो तो आती रहे…।
अपन तो अब अपनी बात करें…
भोपाल का फ़ैसला वही आया जो कि कानून के मुताबिक अदालत के सामने रखा गया था, यह फ़ैसला आने के बाद से चारों तरफ़ भोपाल-भोपाल-भोपाल की रट लगी हुई है, लोगबाग धड़ाधड़ लेख लिख रहे हैं, सरकारों को कोस रहे हैं, व्यवस्था को गालियाँ दे रहे हैं… लेकिन खुद अपने भीतर झाँककर नहीं देखेंगे कि –
देश के नागरिकों का "चरित्र" ऐसे ही तैयार नहीं होता, इसके लिये देशभक्ति और राष्ट्रवाद की लौ दिल में होना चाहिये…। जो पाखण्डी भीड़ कंधार विमान अपहरण के समय वाजपेयी के घर के सामने छाती पीट-पीटकर "आतंकवादियों को छोड़ दो, हमारे परिजन हमें लौटा दो…" की रुदालियाँ गा रही थी… वही देश का असली चेहरा है…नपुंसक और डरपोक। कोई अफ़सर या नेता हमें झुकने के लिये कहता है तो हम लेट जाते हैं।
- आज कई खोजी पत्रकार घूम रहे हैं, सब उस समय कहाँ मर गये थे, जब केस को कमजोर किया जा रहा था? क्या पूरे 25 साल में कभी भी अर्जुनसिंह या राजीव गाँधी से कभी पूछा, कि एण्डरसन देश से बाहर निकला कैसे?
- जो कलेक्टर और एसपी आज टीवी पर बाईट्स दे रहे हैं, उस समय शर्म के मारे मर क्यों नहीं गये थे या नौकरी क्यों नहीं छोड़ गये?
- पीसी अलेक्जेण्डर आज बुढ़ापे में बयान दाग रहे हैं, 25 साल पहले मीडिया में यह बताने क्यों नहीं आये? क्यों कुर्सी से चिपके रहे?
- मोईली न्याय व्यवस्था को दोष दे रहे हैं… कानून मंत्री बनकर कौन से झण्डे गाड़े हैं, ये तो बतायें जरा?
इसलिये बन्द करो ये भोपाल-भोपाल-भोपाल की नौटंकी… कुल मिलाकर यह है कि, हम सभी ढोंगी हैं, पाखण्डी हैं, कामचोर हैं, निकम्मे हैं, स्वार्थी हैं, निठल्ले हैं, हरामखोर हैं, भ्रष्ट हैं, नीच हैं, कमीने हैं… और भी बहुत कुछ हैं… लेकिन फ़िर भी भोपाल-भोपाल चिल्ला रहे हैं…। हम पर राज करने वाली “महारानी” और “भोंदू युवराज” अपने महल में आराम फ़रमा रहे हैं, उनकी तरफ़ से कोई बयान नहीं, कोई चिन्ता नहीं… क्योंकि उनके महल के बाहर उनके कई “वफ़ादार कुत्ते” खुलेआम घूम रहे हैं…। कोई ये बताने को तैयार नहीं है कि यदि अर्जुन सिंह ने एण्डरसन को भोपाल से दिल्ली पहुँचाया, लेकिन दिल्ली से अमेरिका किसने पहुँचाया?
वारेन एण्डरसन तो विदेशी था, कितने पाठकों को विश्वास है कि यदि मुकेश अम्बानी की किसी भारतीय कम्पनी में ऐसा ही हादसा हो जाये तो हम उसका भी कुछ बिगाड़ पायेंगे…? जब ऊपर से नीचे तक सब कुछ सड़ चुका हो, हर व्यक्ति सिर्फ़ पैसों के पीछे भाग रहा हो, राष्ट्र और राष्ट्रवाद नाम की चीज़ सिर्फ़ जुगाली करने के लिये बची हों, तब और क्या होगा…। "कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए एण्डरसन को भगाया गया…" इतना बकवास और घटिया बयान देने में प्रणब मुखर्जी साहब को बुढ़ापे में भी शर्म नहीं आ रही, और ये स्वाभाविक भी है, क्योंकि कानून-व्यवस्था की स्थिति न बिगड़ने पाये, शायद इसीलिये तो अफ़ज़ल को जिन्दा रखा है अब तक…।
जनता के लिये संदेश साफ़ है - अगर “एकजुट, समझदार, देशभक्त और ईमानदार” नहीं हो, तब तो जूते खाने लायक ही हो…। किसी जमाने में मुगलों ने मारे, फ़िर अंग्रेजों ने मारे और अब 60 साल से एक “परिवार” मार रहा है, क्या उखाड़ लोगे… बताओ तो जरा? पहले खुद तो सुधरो, फ़िर बोलना…। सच तो यही है कि, हम लोगों के सिर पर एक “हिटलर” ही चाहिये, जो शीशम की छड़ी लेकर सोते-जागते-उठते-बैठते “पिछवाड़ा” गरम करता रहे… तभी सुधरेंगे हम…… लोकतन्त्र वगैरह की औकात ही नहीं है हमारी…
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अपने मित्रों को इस लेख की लिंक भेजें…क्योंकि हम "चाबुक" खाने और बावजूद उसके न जागने के आदी हो चुके हैं… फ़िर भी एक चाबुक लगाने में कोई हर्ज नहीं है…
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कुछ टीवी चैनल और अखबार तो “पेशाब में आये झाग” की तरह एक दिन का उबाल खाने के बाद वापस कैटरीना-करीना-सलमान की खबरें, नरेन्द्र मोदी, विश्व कप फ़ुटबॉल दिखाने में व्यस्त हो गये हैं। तात्पर्य यही है कि जल्दी ही एक “बलि का बकरा” खोजा जायेगा, जो कि या तो अर्जुन सिंह होंगे अथवा उस समय का कोई तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री या गृह मंत्रालय का बड़ा अफ़सर (अधिक सुविधाजनक तो यही होगा कि, ऐसे आदमी का नाम सामने कर दिया जाये, जो मर चुका हो… लेकिन “त्यागमयी परिवार” के दुर्भाग्य से 25 साल बाद भी अधिकतर लोग जीवित ही हैं), प्रणब मुखर्जी भी अर्जुन के माथे ठीकरा फ़ोड़ने के मूड में हैं, उधर नरेन्द्र मोदी ने सोनिया गाँधी का नाम लिया तो मुँह में मिर्ची भरे जयन्ती नटराजन, आनन्द शर्मा, राजीव शुक्ला, मनीष तिवारी सहित सारे चमचे-काँटे-छुरी-कड़छे-कटोरी सब अपने खोल से बाहर आ गये। अब मंत्रियों का समूह गठित किया गया है जो ये पता लगायेगा कि असली दोषी कौन है? यानी कि कोशिश पूरी है कि देश के सबसे पवित्र, सबसे महान, सबसे त्यागवान, सबसे बलिदानी “परिवार” पर कोई आँच न आने पाये…
खैर कांग्रेस जो करना था कर चुकी, अब आगे जो करना है वही करेगी… उन्हें देखकर घिन आती हो तो आती रहे…।
अपन तो अब अपनी बात करें…
भोपाल का फ़ैसला वही आया जो कि कानून के मुताबिक अदालत के सामने रखा गया था, यह फ़ैसला आने के बाद से चारों तरफ़ भोपाल-भोपाल-भोपाल की रट लगी हुई है, लोगबाग धड़ाधड़ लेख लिख रहे हैं, सरकारों को कोस रहे हैं, व्यवस्था को गालियाँ दे रहे हैं… लेकिन खुद अपने भीतर झाँककर नहीं देखेंगे कि –
- हम खुद कितने भ्रष्ट हैं?
(सोचकर देखना आज तक कितनी रिश्वत ली है, या कितनी दी है?)- हम खुद कितने अनुशासनहीन हैं?
(सोचना कि कितने बच्चे पैदा किये, कितने पेड़ काटे, कितनी बार ट्रेफ़िक नियम तोड़े, कितना पानी बेकार बहाया, कितनी नदियाँ प्रदूषित कीं… आदि)- हम खुद कितने अनैतिक हैं?
(सोचना कि कितनी महिलाओं को बुरी नज़र से देखा, कितनी लड़कियों को गलत तरीके से अपने बस में करने की कोशिश की, कितनी बार लड़कियों को छेड़ा जाता देखकर, पतली गली से कट लिये…)- हम खुद कितने नालायक हैं?
(सोचना कि औकात न होते हुए भी किस नौकरी पर काबिज हो, किस-किस का हक मारकर कौन सी कुर्सी पर कुण्डली मारे बैठे हो?) - हम पढ़े-लिखे होने के बावजूद कितनी बार वोट देने गये हैं?
(सोचना कि कितनी बार ईमानदारी से वोटिंग लिस्ट में नाम जुड़वाया? संसद-विधानसभा-नगर निगम के चुनावों में कितनी बार वोट देने गये?)- हम खुद कितनी बार किसी सामाजिक-राजनैतिक बहस या आन्दोलन में सक्रिय रहे या परदे के पीछे से समर्थन किया है?
(सोचना कि जब कोई राजनैतिक आंदोलन हो रहा था, तब कितनी बार बीवी की साड़ी के पीछे छिपे बैठे थे कि “मुझे क्या करना है?”) - सारी जिन्दगी सिर्फ़ “हाय पैसा-हाय पैसा” करते-करते ही मर गये, अब व्यवस्था को दोष क्यों देते हो?
(सारे गलत-सलत धंधे करके ढेर सा पैसा कमा लिया, भर लिया अपने पिछवाड़े में, देश जाये भाड़ में… तो अब क्यों चिल्ला रहा है बे?)- जिस “परिवार” और जिस पार्टी को सालोंसाल बगैर सोचे-समझे वोट देते आये हो, तो अब उसे भुगतने में नानी क्यों मर रही है?
(सोचना कि किस तरह से “परिवार” की चमचागिरी करके, तेल लगा-लगा कर अपनी पसन्द के काम करवा लिये, ट्रांसफ़र रुकवा लिये, ठेके हथिया लिये?) देश के नागरिकों का "चरित्र" ऐसे ही तैयार नहीं होता, इसके लिये देशभक्ति और राष्ट्रवाद की लौ दिल में होना चाहिये…। जो पाखण्डी भीड़ कंधार विमान अपहरण के समय वाजपेयी के घर के सामने छाती पीट-पीटकर "आतंकवादियों को छोड़ दो, हमारे परिजन हमें लौटा दो…" की रुदालियाँ गा रही थी… वही देश का असली चेहरा है…नपुंसक और डरपोक। कोई अफ़सर या नेता हमें झुकने के लिये कहता है तो हम लेट जाते हैं।
- आज कई खोजी पत्रकार घूम रहे हैं, सब उस समय कहाँ मर गये थे, जब केस को कमजोर किया जा रहा था? क्या पूरे 25 साल में कभी भी अर्जुनसिंह या राजीव गाँधी से कभी पूछा, कि एण्डरसन देश से बाहर निकला कैसे?
- जो कलेक्टर और एसपी आज टीवी पर बाईट्स दे रहे हैं, उस समय शर्म के मारे मर क्यों नहीं गये थे या नौकरी क्यों नहीं छोड़ गये?
- पीसी अलेक्जेण्डर आज बुढ़ापे में बयान दाग रहे हैं, 25 साल पहले मीडिया में यह बताने क्यों नहीं आये? क्यों कुर्सी से चिपके रहे?
- मोईली न्याय व्यवस्था को दोष दे रहे हैं… कानून मंत्री बनकर कौन से झण्डे गाड़े हैं, ये तो बतायें जरा?
इसलिये बन्द करो ये भोपाल-भोपाल-भोपाल की नौटंकी… कुल मिलाकर यह है कि, हम सभी ढोंगी हैं, पाखण्डी हैं, कामचोर हैं, निकम्मे हैं, स्वार्थी हैं, निठल्ले हैं, हरामखोर हैं, भ्रष्ट हैं, नीच हैं, कमीने हैं… और भी बहुत कुछ हैं… लेकिन फ़िर भी भोपाल-भोपाल चिल्ला रहे हैं…। हम पर राज करने वाली “महारानी” और “भोंदू युवराज” अपने महल में आराम फ़रमा रहे हैं, उनकी तरफ़ से कोई बयान नहीं, कोई चिन्ता नहीं… क्योंकि उनके महल के बाहर उनके कई “वफ़ादार कुत्ते” खुलेआम घूम रहे हैं…। कोई ये बताने को तैयार नहीं है कि यदि अर्जुन सिंह ने एण्डरसन को भोपाल से दिल्ली पहुँचाया, लेकिन दिल्ली से अमेरिका किसने पहुँचाया?
वारेन एण्डरसन तो विदेशी था, कितने पाठकों को विश्वास है कि यदि मुकेश अम्बानी की किसी भारतीय कम्पनी में ऐसा ही हादसा हो जाये तो हम उसका भी कुछ बिगाड़ पायेंगे…? जब ऊपर से नीचे तक सब कुछ सड़ चुका हो, हर व्यक्ति सिर्फ़ पैसों के पीछे भाग रहा हो, राष्ट्र और राष्ट्रवाद नाम की चीज़ सिर्फ़ जुगाली करने के लिये बची हों, तब और क्या होगा…। "कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए एण्डरसन को भगाया गया…" इतना बकवास और घटिया बयान देने में प्रणब मुखर्जी साहब को बुढ़ापे में भी शर्म नहीं आ रही, और ये स्वाभाविक भी है, क्योंकि कानून-व्यवस्था की स्थिति न बिगड़ने पाये, शायद इसीलिये तो अफ़ज़ल को जिन्दा रखा है अब तक…।
जनता के लिये संदेश साफ़ है - अगर “एकजुट, समझदार, देशभक्त और ईमानदार” नहीं हो, तब तो जूते खाने लायक ही हो…। किसी जमाने में मुगलों ने मारे, फ़िर अंग्रेजों ने मारे और अब 60 साल से एक “परिवार” मार रहा है, क्या उखाड़ लोगे… बताओ तो जरा? पहले खुद तो सुधरो, फ़िर बोलना…। सच तो यही है कि, हम लोगों के सिर पर एक “हिटलर” ही चाहिये, जो शीशम की छड़ी लेकर सोते-जागते-उठते-बैठते “पिछवाड़ा” गरम करता रहे… तभी सुधरेंगे हम…… लोकतन्त्र वगैरह की औकात ही नहीं है हमारी…
=================
अपने मित्रों को इस लेख की लिंक भेजें…क्योंकि हम "चाबुक" खाने और बावजूद उसके न जागने के आदी हो चुके हैं… फ़िर भी एक चाबुक लगाने में कोई हर्ज नहीं है…
Bhopal Gas Tragedy, Bhopal Chemical Disaster, Warren Anderson and Union Carbide, Industrial Security Standards in India, Chemical Disasters in India, Bhopal Gas Leak Case Verdict, Corruption and Negligence in Hazards, Arjun Singh and Rajiv Gandhi’s role in Bhopal Gas Tragedy, US Multinational Companies and Security Standards, भोपाल गैस त्रासदी, भारत के रासायनिक हादसे और यूनियन कार्बाइड, वारेन एण्डरसन और भोपाल, भोपाल गैस काण्ड अदालती फ़ैसला, भारत में भ्रष्टाचार और उपेक्षा, भोपाल गैस कांड अर्जुन सिंह और राजीव गाँधी, अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और सुरक्षा मानक, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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गुरुवार, 10 जून 2010 14:18
चूंकि वीर सावरकर हिन्दुत्ववादी हैं, ब्राह्मण भी हैं और उनके नाम में "गाँधी" भी नहीं, इसलिये…... Savarkar France Marcelles Hindutva
8 जुलाई 2010 को स्वातंत्र्य वीर सावरकर द्वारा अंग्रेजों के चंगुल से छूटने की कोशिश के तहत फ़्रांस के समुद्र में ऐतिहासिक छलांग लगाने को 100 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। भारतवासियों के इस गौरवशाली क्षण को मधुर बनाने के लिये फ़्रांस सरकार ने मार्सेल्स नगर में वीर सावरकर की मूर्ति लगाने का फ़ैसला किया था, जिसे भारत सरकार के अनुमोदन हेतु भेजा गया… ताकि इसे एक सरकारी आयोजन की तरह आयोजित किया जा सके।
लेकिन हमेशा की तरह भारत की प्रमुख राजनैतिक पार्टी कांग्रेस और उसके पिछलग्गू सेकुलरों ने इसमें अड़ंगा लगा दिया, और पिछले काफ़ी समय से फ़्रांस सरकार का यह प्रस्ताव धूल खा रहा है। इस मूर्ति को लगाने के लिये न तो फ़्रांस सरकार भारत से कोई पैसा ले रही है, न ही उस जगह की लीज़ लेने वाली है, लेकिन फ़िर भी “प्रखर हिन्दुत्व” के इस महान योद्धा को 100 साल बाद भी विदेश में कोई सम्मान न मिलने पाये, इसके लिये “सेकुलरिज़्म” के कनखजूरे अपने काम में लगे हुए हैं। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि “यह एक संवेदनशील मामला है…(?) और मार्सेल्स नगर के अधिकारी इस बात पर सहमत हुए हैं कि इतिहास के तथ्यों पर पुनर्विचार करने के बाद ही वे कोई अगला निर्णय लेंगे…”। (आई बात आपकी समझ में? संसद परिसर में सावरकर की आदमकद पेंटिंग लगाई जा चुकी है, लेकिन फ़्रांस में सावरकर की मूर्ति लगाने पर कांग्रेस को आपत्ति है…, इसे संवेदनशील मामला बताया जा रहा है)
(चित्र में युवा कार्यकर्ता फ़्रांस में सावरकर की मूर्ति हेतु केन्द्र सरकार के नाम ज्ञापन पर हस्ताक्षर अभियान चलाते हुए)
आपको याद होगा कि 2004 में तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने अंडमान की सेल्युलर जेल से सावरकर के कथ्यों वाली प्लेट को हटवा दिया था, और तमाम विरोधों के बावजूद उसे दोबारा नहीं लगने दिया। मणिशंकर अय्यर का कहना था कि सावरकर की अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ाई संदिग्ध है तथा गाँधी की हत्या में उनका हाथ है, इसलिये पोर्ट ब्लेयर के इस ऐतिहासिक स्मारक से सावरकर की यह पट्टी हटाई गई है (यह वही मणिशंकर अय्यर हैं जो 1962 के चीन युद्ध के समय चीन के पक्ष में इंग्लैण्ड में चन्दा एकत्रित कर रहे थे, और कहने को कांग्रेसी, लेकिन दिल से “कमीनिस्ट” मणिशंकर अय्यर… प्रकाश करात, एन राम और प्रणय रॉय के खास मित्रों में से हैं, जो अंग्रेजी में सोचते हैं, अंग्रेजी में ही लिखते-बोलते-खाते-पीते हैं)।
सावरकर के अपमान जैसे दुष्कृत्य के बदले में मणिशंकर अय्यर को देशप्रेमियों और राष्ट्रवादियों के दिल से निकली ऐसी “हाय और बद-दुआ” लगी, कि पहले पेट्रोलियम मंत्रालय छिना, ग्रामीण विकास मंत्रालय मिला, फ़िर उसमें भी सारे अधिकार छीनकर पंचायत का काम देखने का ही अधिकार बचा, अन्त में वह भी चला गया। 2009 के आम चुनाव में टिकट के लिये करुणानिधि के आगे नाक रगड़नी पड़ी, बड़ी मुश्किल से धांधली करके चन्द वोटों से चुनाव जीते और अब बेचारे संसद में पीछे की बेंच पर बैठते हैं और कोशिश में लगे रहते हैं कि किसी तरह उनके “मालिक” यानी राहुल गाँधी की नज़रे-इनायत उन पर हो जाये।
http://www.hindustantimes.com/rssfeed/newdelhi/Govt-against-Hindutva-icon-s-statue-coming-up-in-France/Article1-516015.aspx
वीर सावरकर पर अक्सर आरोप लगते हैं कि उन्होंने अंग्रेजों से माफ़ी माँग ली थी और जेल से रिहा करने के बदले में अंग्रेजों के खिलाफ़ न लड़ने का “अलिखित वचन” दे दिया था, जबकि यह सच नहीं है। सावरकर ने 1911 और 1913 में दो बार “स्वास्थ्य कारणों” से उन्हें रिहा करने की अपील की थी, जो अंग्रेजों द्वारा ठुकरा दी गई। यहाँ तक कि गाँधी, पटेल और तिलक की अर्जियों को भी अंग्रेजों ने कोई तवज्जो नहीं दी, क्योंकि अंग्रेज जानते थे कि यदि अस्वस्थ सावरकर भी जेल से बाहर आये तो मुश्किल खड़ी कर देंगे। जबकि सावरकर जानते थे कि यदि वे बाहर नहीं आये तो उन्हें “काला पानी” में ही तड़पा-तड़पाकर मार दिया जायेगा और उनके विचार आगे नहीं बढ़ेंगे। इसलिये सावरकर की “माफ़ी की अर्जी” एक शातिर चाल थी, ठीक वैसी ही चाल जैसी आगरा जेल से शिवाजी ने औरंगज़ेब को मूर्ख बनाकर चली थी। क्योंकि रिहाई के तुरन्त बाद सावरकर ने 23 जनवरी 1924 को “हिन्दू संस्कृति और सभ्यता के रक्षण के नाम पर” रत्नागिरी हिन्दू सभा का गठन किया और फ़िर से अपना “मूल काम” करने लगे थे।
तात्पर्य यह कि उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने “दिल-दिमाग” से समर्पण नहीं किया था, वहीं हमारे “ईमानदार बाबू” हैं जो ऑक्सफ़ोर्ड में जाकर ब्रिटिश राज की तारीफ़ कर आये… या फ़िर “मोम की गुड़िया” हैं जो “राष्ट्रमण्डल के गुलामों हेतु बने खेलों” में अरबों रुपया फ़ूंकने की खातिर, इंग्लैण्ड जाकर “महारानी” के हाथों बेटन पाकर धन्य-धन्य हुईं।
उल्लेखनीय है कि सावरकर को दो-दो आजीवन कारावास की सजा दी गई थी, सावरकर ने अण्डमान की सेलुलर जेल में कई वर्ष काटे। किसी भी सामान्य व्यक्ति की मानसिक हिम्मत और शारीरिक ताकत जवाब दे जाये, ऐसी कठिन परिस्थिति में उन्हें रहना पड़ा, उन्हें बैल की जगह जोतकर कोल्हू से तेल निकलवाया जाता था, खाने को सिर्फ़ इतना ही दिया जाता था कि वे जिन्दा रह सकें, लेकिन फ़िर भी स्वतन्त्रता आंदोलन का यह बहादुर योद्धा डटा रहा।
सावरकर के इस अथक स्वतन्त्रता संग्राम और जेल के रोंगटे खड़े कर देने वाले विवरण पढ़ने के बाद एक-दो सवाल मेरे मन में उठते हैं –
1) नेहरु की “पिकनिकनुमा” जेलयात्राओं की तुलना, अगर हम सावरकर की कठिन जेल परिस्थितियों से करें… तो स्वाभाविक रुप से सवाल उठता है कि यदि “मुँह में चांदी का चम्मच लिये हुए सुकुमार राजपुत्र” यानी “नेहरु” को सिर्फ़ एक साल के लिये अण्डमान की जेल में रखकर अंग्रेजों द्वारा उनके “पिछवाड़े के चमड़े” तोड़े जाते, तो क्या तब भी उनमें अंग्रेजों से लड़ने का माद्दा बचा रहता? क्या तब भी नेहरु, लेडी माउण्टबेटन से इश्क लड़ाते? असल में अंग्रेज शासक नेहरु और गाँधी के खिलाफ़ कुछ ज्यादा ही “सॉफ़्ट” थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि ये तो “अपना ही आदमी” है? [मैकाले की शिक्षा पद्धति और लुटेरी “आईसीएस” (अब IAS) की व्यवस्था को ज्यों का त्यों बरकरार रखने वाले नेहरु ही थे]
2) दूसरा लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि यदि सावरकर हिन्दू ब्राह्मण की बजाय, दलित-OBC या मुस्लिम होते तो क्या होता? शायद तब मायावती पूरे उत्तरप्रदेश में खुद ही उनकी मूर्तियाँ लगवाती फ़िरतीं, या फ़िर कांग्रेस भी “गाँधी परिवार” के अलावा किसी स्टेडियम, सड़क, नगर, पुल, कालोनी, संस्थान, पुरस्कार आदि का नाम सावरकर के नाम पर रख सकती थी,
लेकिन दुर्भाग्य से सावरकर ब्राह्मण थे, गाँधी परिवार से सम्बन्धित भी नहीं थे, और ऊपर से “हिन्दुत्व” के पैरोकार भी थे… यानी तीनों “माइनस” पॉइंट… ऐसे में उनकी उपेक्षा, अपमान होना स्वाभाविक बात है, मूर्ति वगैरह लगना तो दूर रहा…
==================
नोट : मूर्ति लगाने सम्बन्धी फ़्रांस के प्रस्ताव पर “ऊपर वर्णित यथास्थिति” फ़रवरी 2010 तक की है, इस तिथि के बाद इस मामले में आगे क्या हुआ, अनुमति मिली या नहीं… इस बारे में ताज़ा जानकारी नहीं है…। लेकिन पोस्ट का मूल मुद्दा है, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के अपमान और एक “परिवार” की चमचागिरी में किसी भी स्तर तक गिर जाने का।
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लेकिन हमेशा की तरह भारत की प्रमुख राजनैतिक पार्टी कांग्रेस और उसके पिछलग्गू सेकुलरों ने इसमें अड़ंगा लगा दिया, और पिछले काफ़ी समय से फ़्रांस सरकार का यह प्रस्ताव धूल खा रहा है। इस मूर्ति को लगाने के लिये न तो फ़्रांस सरकार भारत से कोई पैसा ले रही है, न ही उस जगह की लीज़ लेने वाली है, लेकिन फ़िर भी “प्रखर हिन्दुत्व” के इस महान योद्धा को 100 साल बाद भी विदेश में कोई सम्मान न मिलने पाये, इसके लिये “सेकुलरिज़्म” के कनखजूरे अपने काम में लगे हुए हैं। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि “यह एक संवेदनशील मामला है…(?) और मार्सेल्स नगर के अधिकारी इस बात पर सहमत हुए हैं कि इतिहास के तथ्यों पर पुनर्विचार करने के बाद ही वे कोई अगला निर्णय लेंगे…”। (आई बात आपकी समझ में? संसद परिसर में सावरकर की आदमकद पेंटिंग लगाई जा चुकी है, लेकिन फ़्रांस में सावरकर की मूर्ति लगाने पर कांग्रेस को आपत्ति है…, इसे संवेदनशील मामला बताया जा रहा है)
(चित्र में युवा कार्यकर्ता फ़्रांस में सावरकर की मूर्ति हेतु केन्द्र सरकार के नाम ज्ञापन पर हस्ताक्षर अभियान चलाते हुए)
आपको याद होगा कि 2004 में तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने अंडमान की सेल्युलर जेल से सावरकर के कथ्यों वाली प्लेट को हटवा दिया था, और तमाम विरोधों के बावजूद उसे दोबारा नहीं लगने दिया। मणिशंकर अय्यर का कहना था कि सावरकर की अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ाई संदिग्ध है तथा गाँधी की हत्या में उनका हाथ है, इसलिये पोर्ट ब्लेयर के इस ऐतिहासिक स्मारक से सावरकर की यह पट्टी हटाई गई है (यह वही मणिशंकर अय्यर हैं जो 1962 के चीन युद्ध के समय चीन के पक्ष में इंग्लैण्ड में चन्दा एकत्रित कर रहे थे, और कहने को कांग्रेसी, लेकिन दिल से “कमीनिस्ट” मणिशंकर अय्यर… प्रकाश करात, एन राम और प्रणय रॉय के खास मित्रों में से हैं, जो अंग्रेजी में सोचते हैं, अंग्रेजी में ही लिखते-बोलते-खाते-पीते हैं)।
सावरकर के अपमान जैसे दुष्कृत्य के बदले में मणिशंकर अय्यर को देशप्रेमियों और राष्ट्रवादियों के दिल से निकली ऐसी “हाय और बद-दुआ” लगी, कि पहले पेट्रोलियम मंत्रालय छिना, ग्रामीण विकास मंत्रालय मिला, फ़िर उसमें भी सारे अधिकार छीनकर पंचायत का काम देखने का ही अधिकार बचा, अन्त में वह भी चला गया। 2009 के आम चुनाव में टिकट के लिये करुणानिधि के आगे नाक रगड़नी पड़ी, बड़ी मुश्किल से धांधली करके चन्द वोटों से चुनाव जीते और अब बेचारे संसद में पीछे की बेंच पर बैठते हैं और कोशिश में लगे रहते हैं कि किसी तरह उनके “मालिक” यानी राहुल गाँधी की नज़रे-इनायत उन पर हो जाये।
http://www.hindustantimes.com/rssfeed/newdelhi/Govt-against-Hindutva-icon-s-statue-coming-up-in-France/Article1-516015.aspx
वीर सावरकर पर अक्सर आरोप लगते हैं कि उन्होंने अंग्रेजों से माफ़ी माँग ली थी और जेल से रिहा करने के बदले में अंग्रेजों के खिलाफ़ न लड़ने का “अलिखित वचन” दे दिया था, जबकि यह सच नहीं है। सावरकर ने 1911 और 1913 में दो बार “स्वास्थ्य कारणों” से उन्हें रिहा करने की अपील की थी, जो अंग्रेजों द्वारा ठुकरा दी गई। यहाँ तक कि गाँधी, पटेल और तिलक की अर्जियों को भी अंग्रेजों ने कोई तवज्जो नहीं दी, क्योंकि अंग्रेज जानते थे कि यदि अस्वस्थ सावरकर भी जेल से बाहर आये तो मुश्किल खड़ी कर देंगे। जबकि सावरकर जानते थे कि यदि वे बाहर नहीं आये तो उन्हें “काला पानी” में ही तड़पा-तड़पाकर मार दिया जायेगा और उनके विचार आगे नहीं बढ़ेंगे। इसलिये सावरकर की “माफ़ी की अर्जी” एक शातिर चाल थी, ठीक वैसी ही चाल जैसी आगरा जेल से शिवाजी ने औरंगज़ेब को मूर्ख बनाकर चली थी। क्योंकि रिहाई के तुरन्त बाद सावरकर ने 23 जनवरी 1924 को “हिन्दू संस्कृति और सभ्यता के रक्षण के नाम पर” रत्नागिरी हिन्दू सभा का गठन किया और फ़िर से अपना “मूल काम” करने लगे थे।
तात्पर्य यह कि उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने “दिल-दिमाग” से समर्पण नहीं किया था, वहीं हमारे “ईमानदार बाबू” हैं जो ऑक्सफ़ोर्ड में जाकर ब्रिटिश राज की तारीफ़ कर आये… या फ़िर “मोम की गुड़िया” हैं जो “राष्ट्रमण्डल के गुलामों हेतु बने खेलों” में अरबों रुपया फ़ूंकने की खातिर, इंग्लैण्ड जाकर “महारानी” के हाथों बेटन पाकर धन्य-धन्य हुईं।
उल्लेखनीय है कि सावरकर को दो-दो आजीवन कारावास की सजा दी गई थी, सावरकर ने अण्डमान की सेलुलर जेल में कई वर्ष काटे। किसी भी सामान्य व्यक्ति की मानसिक हिम्मत और शारीरिक ताकत जवाब दे जाये, ऐसी कठिन परिस्थिति में उन्हें रहना पड़ा, उन्हें बैल की जगह जोतकर कोल्हू से तेल निकलवाया जाता था, खाने को सिर्फ़ इतना ही दिया जाता था कि वे जिन्दा रह सकें, लेकिन फ़िर भी स्वतन्त्रता आंदोलन का यह बहादुर योद्धा डटा रहा।
सावरकर के इस अथक स्वतन्त्रता संग्राम और जेल के रोंगटे खड़े कर देने वाले विवरण पढ़ने के बाद एक-दो सवाल मेरे मन में उठते हैं –
1) नेहरु की “पिकनिकनुमा” जेलयात्राओं की तुलना, अगर हम सावरकर की कठिन जेल परिस्थितियों से करें… तो स्वाभाविक रुप से सवाल उठता है कि यदि “मुँह में चांदी का चम्मच लिये हुए सुकुमार राजपुत्र” यानी “नेहरु” को सिर्फ़ एक साल के लिये अण्डमान की जेल में रखकर अंग्रेजों द्वारा उनके “पिछवाड़े के चमड़े” तोड़े जाते, तो क्या तब भी उनमें अंग्रेजों से लड़ने का माद्दा बचा रहता? क्या तब भी नेहरु, लेडी माउण्टबेटन से इश्क लड़ाते? असल में अंग्रेज शासक नेहरु और गाँधी के खिलाफ़ कुछ ज्यादा ही “सॉफ़्ट” थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि ये तो “अपना ही आदमी” है? [मैकाले की शिक्षा पद्धति और लुटेरी “आईसीएस” (अब IAS) की व्यवस्था को ज्यों का त्यों बरकरार रखने वाले नेहरु ही थे]
2) दूसरा लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि यदि सावरकर हिन्दू ब्राह्मण की बजाय, दलित-OBC या मुस्लिम होते तो क्या होता? शायद तब मायावती पूरे उत्तरप्रदेश में खुद ही उनकी मूर्तियाँ लगवाती फ़िरतीं, या फ़िर कांग्रेस भी “गाँधी परिवार” के अलावा किसी स्टेडियम, सड़क, नगर, पुल, कालोनी, संस्थान, पुरस्कार आदि का नाम सावरकर के नाम पर रख सकती थी,
लेकिन दुर्भाग्य से सावरकर ब्राह्मण थे, गाँधी परिवार से सम्बन्धित भी नहीं थे, और ऊपर से “हिन्दुत्व” के पैरोकार भी थे… यानी तीनों “माइनस” पॉइंट… ऐसे में उनकी उपेक्षा, अपमान होना स्वाभाविक बात है, मूर्ति वगैरह लगना तो दूर रहा…
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नोट : मूर्ति लगाने सम्बन्धी फ़्रांस के प्रस्ताव पर “ऊपर वर्णित यथास्थिति” फ़रवरी 2010 तक की है, इस तिथि के बाद इस मामले में आगे क्या हुआ, अनुमति मिली या नहीं… इस बारे में ताज़ा जानकारी नहीं है…। लेकिन पोस्ट का मूल मुद्दा है, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के अपमान और एक “परिवार” की चमचागिरी में किसी भी स्तर तक गिर जाने का।
Veer Savarkar, Sawarkar Freedom Fighter, British Rule and Savarkar, Savarkar’s Escape from France, Marcelles France and Savarkar, Gandhi-Nehru-Ambedkar and Savarkar, Manishankar Ayyer and Savarkar, Cellular Jail Andaman and Savarkar, सावरकर, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी वीर सावरकर, अंग्रेज शासन और सावरकर, सावरकर-गाँधी-नेहरु-अम्बेडकर, अण्डमान सेलुलर जेल और सावरकर, काला पानी सजा सावरकर, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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ब्लॉग
सोमवार, 07 जून 2010 14:06
जानिये “तहलका” के कुछ स्टिंग ऑपरेशनों के बारे में, जो कभी नहीं किये जायेंगे…... Tehelka Sting Operation Pramod Muthalik
कुछ दिनों पहले तरुण तेजपाल के “तहलका” और “आज तक” ने कर्नाटक में प्रमोद मुतालिक और उसके साथियों का एक स्टिंग ऑपरेशन किया था, जिसमें दिखाया गया था कि मुतालिक और उसके आदमी 50 लाख रुपये लेकर दंगे करवाते हैं, रुपयों की खातिर प्रदर्शन-तोड़फ़ोड़ और हिंसा आदि करते हैं। इस आधार पर तहलका ने माँग की कि कर्नाटक की भाजपा सरकार को इस्तीफ़ा दे देना चाहिये।
भाजपा-संघ-हिन्दुत्ववादी संगठन-विभिन्न हिन्दू धर्माचार्य-नरेन्द्र मोदी-प्रमोद मुतालिक-प्रवीण तोगड़िया इत्यादि लोग हमेशा से इलेक्ट्रानिक और प्रिण्ट मीडिया के निशाने पर रहे हैं। स्टिंग ऑपरेशन होगा तो बंगारु लक्ष्मण का, स्टिंग ऑपरेशन होगा तो दिलीप सिंह जूदेव का, लोकसभा में पैसा लेकर वोट देने में मुरैना के सांसद का भी होगा, चैनल पर लगातार दो-दो दिन तक आलोचना की जायेगी तो नरेन्द्र मोदी की, गुजरात में जाफ़री परिवार को जलाने वाले(?) किसी तथाकथित बजरंग दल कार्यकर्ता(?) का स्टिंग ऑपरेशन तो अवश्य ही होगा… तात्पर्य यह कि अब देश की जनता को स्टिंग ऑपरेशनों की आदत सी पड़ गई है।
हमारा मीडिया, नरेन्द्र मोदी से इस्तीफ़ा माँग-माँग कर थक चुका, एक तो नरेन्द्र मोदी किसी मीडिया वाले को पैसा नहीं खिलाते… भाव नहीं देते, उलटे उन्हें दुत्कार-दुत्कार कर लतियाते अलग से हैं… तो अब मीडियाई जोकरों ने कर्नाटक की तरफ़ रुख किया है।
1) पब में दारू पीती लड़कियों को गुण्डों ने पीटा – भाजपा इस्तीफ़ा दो,
2) प्रमोद मुतालिक का मुँह काला किया गया… भाजपा इस्तीफ़ा दो,
3) प्रमोद मुतालिक के गुण्डे 50 लाख में दंगे करवाते हैं… - भाजपा इस्तीफ़ा दो,
4) रेड्डी बन्धुओं और येदियुरप्पा के बीच खदान लाईसेंस को लेकर साँठगाँठ है… - भाजपा इस्तीफ़ा दो…
फ़िर चैनल पर दिन भर… ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला, बड़-बड़-बड़-बड़-बड़…
पहले गुजरात सरकार और नरेन्द्र मोदी के इस्तीफ़े की माँग सुन-सुनकर कान पक गये थे, अब कर्नाटक सरकार के इस्तीफ़े की माँग सुनते-सुनते दिमाग सुन्न होने लगा है…
लीजिये अब आपकी सेवा में पेश हैं तहलका, नेहरु डायनेस्टी टीवी और 5M (मार्क्स, मुल्ला, मिशनरी, मैकाले, माइनो) के हाथों बिके हुए मीडिया के उन स्टिंग ऑपरेशनों की सूची, जो कभी नहीं होने वाले… न तो कभी इन मुद्दों पर कोई भी एंकर, आड़े-तिरछे मुँह बनाकर भड़ासेगा, न ही कभी कोई इस्तीफ़ा माँगा जायेगा, न ही किसी जवाबदार का इंटरव्यू लिया जायेगा… क्योंकि कम से कम मीडिया को इंटरव्यू के मामले में सोनिया गाँधी की स्थिति नरेन्द्र मोदी जैसी ही है, जहाँ एक ओर नरेन्द्र मोदी मीडिया को हड़काये कुत्ते की तरह दुरदुराते हैं, वहीं दूसरी ओर सोनिया गाँधी, मीडिया को अपने पालतू कुत्ते जैसा रखती हैं, जो उनको छोड़कर बाकी सभी पर भौंकता-काटता है।
1) महंगाई क्यों बढ़ी? इसके लिये कभी भी शरद पवार-मनमोहन सिंह या प्रणब मुखर्जी का स्टिंग ऑपरेशन नहीं होगा।
2) टेलीकॉम घोटाले ने सरकार को सरेआम नंगा किया हुआ है, लेकिन तहलका, कभी भी मनमोहन सिंह, करुणानिधि, राजा बाबू का स्टिंग ऑपरेशन नहीं करेगा।
3) क्वात्रोची को सीबीआई की मदद से क्लीन चिट दिलवा दी, कोई स्टिंग ऑपरेशन नहीं…
4) स्विस बैंक में खरबों रुपया जमा है, किसी एक कांग्रेसी का भी स्टिंग ऑपरेशन नही…
5) लोकसभा में सरकार बचाने के लिये अमरसिंह सहित कई सांसदों को खरीदा गया, कोई इस्तीफ़ा नहीं…
6) चीन द्वारा रक्षा कम्प्यूटरों में सेंध और डाटा हैकिंग के पर्याप्त सबूत मिले, कोई स्टिंग नहीं, प्रधानमंत्री का इस्तीफ़ा भी नहीं…
7) परमाणु समझौता करके अमेरिका और यूरोप से पुरानी सड़ी हुई भट्टियाँ खरीदने के लिये सरकार बेताब है… तहलका सोया हुआ है।
8) यही परमाणु समझौता अब पाकिस्तान जैसे भिखारी को भी मिलने वाला है, "आज तक" के कर्णधार पता नहीं क्या कर रहे हैं…
9) दंतेवाड़ा में 76 जवानों की हत्या हो गई, चिदम्बरम का स्टिंग ऑपरेशन देखा कभी आपने?
10) मधु कौड़ा, सुनन्दा पुष्कर, ललित मोदी, सेमुअल राजशेखर रेड्डी, नीरा राडिया, कणिमोझी के कितने स्टिंग ऑपरेशन देखे हैं आपने?
11) टेलीकॉम घोटाले के दस्तावेजों में “बुरका” दत्त और वीर संघवी के नाम आये हैं… अपनी बिरादरी के खिलाफ़ स्टिंग ऑपरेशन की हिम्मत है तहलका में?
12) गृह मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि देश के 180 जिलों में माओवादियों का गहरा प्रभाव है… कभी किसी मंत्री को शर्म आई? या किसी ने इस्तीफ़ा दिया? क्या शर्म और इस्तीफ़ा सिर्फ़ नरेन्द्र मोदी के लिये ही रिजर्व है?
13) नंदीग्राम और सिंगूर में माकपा के गुण्डों ने महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा, कभी किसी ने बुद्धदेव भट्टाचार्य का स्टिंग ऑपरेशन देखा हो तो बतायें…
14) पश्चिम बंगाल और असम के कई जिले पिछले 10 साल में अचानक मुस्लिम बहुल कैसे बन गये? तरुण तेजपाल कभी उधर जाते भी हैं या सिर्फ़ गुजरात में ही बैठे रहते हैं?
15) कश्मीर में सेना के जवानों पर पत्थर फ़ेंकने के लिये “गुमराह लड़कों”(?) को जो पैसा दिया जाता है, उसमें उच्च स्तर पर लेन-देन हुआ है… NDTV ने कभी किसी स्टिंग के जरिये, कश्मीर की वास्तविक ज़मीनी स्थिति जानने की कोशिश की है?
16) अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी वाली फ़ाइल को किसने चार साल तक रोके रखा? तरुण तेजपाल जी, कभी शीला दीक्षित का भी स्टिंग ऑपरेशन कर डालिये… कश्मीरी पण्डित वर्षों से नारकीय जीवन जी रहे हैं, कभी भाजपा से फ़ुरसत मिले, तो राहुल गाँधी से उनके "राजनैतिक ज्ञान" के ब्यौरे का स्टिंग ही कर डालिये…
17) कॉमनवेल्थ नामक “गुलामी के खेलों” पर खरबों रुपया बहाया जा चुका है, इसमें से कलमाडी ने कितना, शीला ने कितना और बिल्डरों ने कितना खाया, NDTV-आज तक वाले कभी इस पर भी स्टिंग ऑपरेशन करेंगे क्या?
18) मणिपुर की जनता पिछले 2 माह से राशन-पानी के लिये त्राहि-त्राहि कर रही है, इटली की महारानी ने समूचा उत्तर-पूर्व, ईसाई उग्रवादी संगठनों को दान में देने की ठान ली है… तेजपाल जी, अपना स्टिंग लेकर, कभी उधर की ठण्डी हवा भी खाकर आईये ना… कर्नाटक और गुजरात के मुकाबले अच्छा मौसम है उधर।
लिस्ट तो बहुत लम्बी है, लेकिन दुर्भाग्य से इसमें से एक भी स्टिंग ऑपरेशन आप कभी भी नहीं देख पायेंगे, क्योंकि जैसा कि पहले ही कहा गया है, स्टिंग ऑपरेशन कांग्रेस और सहयोगी दलों के लिये नहीं होते हैं। तो क्या यह माना जाये कि “तहलका” और NDTV जैसे सरकारी चमचे, सिर्फ़ कांग्रेस और सोनिया गाँधी की चापलूसी ही करते रहेंगे? ठीक नवीन चावला की तरह, जिसे उसके तमाम काले कारनामों के बावजूद “एक विशेष मकसद” के लिये मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया है?
मुझे पूरा भरोसा है कि जिस दिन स्विस बैंक द्वारा भ्रष्ट भारतीयों की लिस्ट जारी की जायेगी (हालांकि ऐसा कभी होगा नहीं), तो उसमें तरुण तेजपाल का नाम भी निकलेगा। अब यह पता करने के लिये, कि आखिर तहलका, NDTV इत्यादि को कांग्रेस से कितना पैसा मिलता रहा है, एक अदद स्टिंग ऑपरेशन की सख्त जरूरत है। कोई है? जो यह करे…
==============
चलते-चलते : तहलका ने आरोप लगाया है कि प्रमोद मुतालिक, 50 लाख रुपये लेकर दंगा करवाता है… क्या आपको ये "रेट्स"(?) ज्यादा नहीं लगते? 50 लाख तो बहुत ज्यादा होता है यारों…… जब सिर्फ़ “इस्लाम खतरे में है…” सुनकर, या 72 हूरों के “काल्पनिक लालच” भर से बरेली और हैदराबाद में जमकर फ़्री-फ़ोकट में जमकर दंगे हो रहे हैं, तो ऐसे में दंगे करवाने के लिये 50 लाख देने वाला कोई बेवकूफ़ ही होगा… है ना?
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भाजपा-संघ-हिन्दुत्ववादी संगठन-विभिन्न हिन्दू धर्माचार्य-नरेन्द्र मोदी-प्रमोद मुतालिक-प्रवीण तोगड़िया इत्यादि लोग हमेशा से इलेक्ट्रानिक और प्रिण्ट मीडिया के निशाने पर रहे हैं। स्टिंग ऑपरेशन होगा तो बंगारु लक्ष्मण का, स्टिंग ऑपरेशन होगा तो दिलीप सिंह जूदेव का, लोकसभा में पैसा लेकर वोट देने में मुरैना के सांसद का भी होगा, चैनल पर लगातार दो-दो दिन तक आलोचना की जायेगी तो नरेन्द्र मोदी की, गुजरात में जाफ़री परिवार को जलाने वाले(?) किसी तथाकथित बजरंग दल कार्यकर्ता(?) का स्टिंग ऑपरेशन तो अवश्य ही होगा… तात्पर्य यह कि अब देश की जनता को स्टिंग ऑपरेशनों की आदत सी पड़ गई है।
हमारा मीडिया, नरेन्द्र मोदी से इस्तीफ़ा माँग-माँग कर थक चुका, एक तो नरेन्द्र मोदी किसी मीडिया वाले को पैसा नहीं खिलाते… भाव नहीं देते, उलटे उन्हें दुत्कार-दुत्कार कर लतियाते अलग से हैं… तो अब मीडियाई जोकरों ने कर्नाटक की तरफ़ रुख किया है।
1) पब में दारू पीती लड़कियों को गुण्डों ने पीटा – भाजपा इस्तीफ़ा दो,
2) प्रमोद मुतालिक का मुँह काला किया गया… भाजपा इस्तीफ़ा दो,
3) प्रमोद मुतालिक के गुण्डे 50 लाख में दंगे करवाते हैं… - भाजपा इस्तीफ़ा दो,
4) रेड्डी बन्धुओं और येदियुरप्पा के बीच खदान लाईसेंस को लेकर साँठगाँठ है… - भाजपा इस्तीफ़ा दो…
फ़िर चैनल पर दिन भर… ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला, बड़-बड़-बड़-बड़-बड़…
पहले गुजरात सरकार और नरेन्द्र मोदी के इस्तीफ़े की माँग सुन-सुनकर कान पक गये थे, अब कर्नाटक सरकार के इस्तीफ़े की माँग सुनते-सुनते दिमाग सुन्न होने लगा है…
लीजिये अब आपकी सेवा में पेश हैं तहलका, नेहरु डायनेस्टी टीवी और 5M (मार्क्स, मुल्ला, मिशनरी, मैकाले, माइनो) के हाथों बिके हुए मीडिया के उन स्टिंग ऑपरेशनों की सूची, जो कभी नहीं होने वाले… न तो कभी इन मुद्दों पर कोई भी एंकर, आड़े-तिरछे मुँह बनाकर भड़ासेगा, न ही कभी कोई इस्तीफ़ा माँगा जायेगा, न ही किसी जवाबदार का इंटरव्यू लिया जायेगा… क्योंकि कम से कम मीडिया को इंटरव्यू के मामले में सोनिया गाँधी की स्थिति नरेन्द्र मोदी जैसी ही है, जहाँ एक ओर नरेन्द्र मोदी मीडिया को हड़काये कुत्ते की तरह दुरदुराते हैं, वहीं दूसरी ओर सोनिया गाँधी, मीडिया को अपने पालतू कुत्ते जैसा रखती हैं, जो उनको छोड़कर बाकी सभी पर भौंकता-काटता है।
1) महंगाई क्यों बढ़ी? इसके लिये कभी भी शरद पवार-मनमोहन सिंह या प्रणब मुखर्जी का स्टिंग ऑपरेशन नहीं होगा।
2) टेलीकॉम घोटाले ने सरकार को सरेआम नंगा किया हुआ है, लेकिन तहलका, कभी भी मनमोहन सिंह, करुणानिधि, राजा बाबू का स्टिंग ऑपरेशन नहीं करेगा।
3) क्वात्रोची को सीबीआई की मदद से क्लीन चिट दिलवा दी, कोई स्टिंग ऑपरेशन नहीं…
4) स्विस बैंक में खरबों रुपया जमा है, किसी एक कांग्रेसी का भी स्टिंग ऑपरेशन नही…
5) लोकसभा में सरकार बचाने के लिये अमरसिंह सहित कई सांसदों को खरीदा गया, कोई इस्तीफ़ा नहीं…
6) चीन द्वारा रक्षा कम्प्यूटरों में सेंध और डाटा हैकिंग के पर्याप्त सबूत मिले, कोई स्टिंग नहीं, प्रधानमंत्री का इस्तीफ़ा भी नहीं…
7) परमाणु समझौता करके अमेरिका और यूरोप से पुरानी सड़ी हुई भट्टियाँ खरीदने के लिये सरकार बेताब है… तहलका सोया हुआ है।
8) यही परमाणु समझौता अब पाकिस्तान जैसे भिखारी को भी मिलने वाला है, "आज तक" के कर्णधार पता नहीं क्या कर रहे हैं…
9) दंतेवाड़ा में 76 जवानों की हत्या हो गई, चिदम्बरम का स्टिंग ऑपरेशन देखा कभी आपने?
10) मधु कौड़ा, सुनन्दा पुष्कर, ललित मोदी, सेमुअल राजशेखर रेड्डी, नीरा राडिया, कणिमोझी के कितने स्टिंग ऑपरेशन देखे हैं आपने?
11) टेलीकॉम घोटाले के दस्तावेजों में “बुरका” दत्त और वीर संघवी के नाम आये हैं… अपनी बिरादरी के खिलाफ़ स्टिंग ऑपरेशन की हिम्मत है तहलका में?
12) गृह मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि देश के 180 जिलों में माओवादियों का गहरा प्रभाव है… कभी किसी मंत्री को शर्म आई? या किसी ने इस्तीफ़ा दिया? क्या शर्म और इस्तीफ़ा सिर्फ़ नरेन्द्र मोदी के लिये ही रिजर्व है?
13) नंदीग्राम और सिंगूर में माकपा के गुण्डों ने महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा, कभी किसी ने बुद्धदेव भट्टाचार्य का स्टिंग ऑपरेशन देखा हो तो बतायें…
14) पश्चिम बंगाल और असम के कई जिले पिछले 10 साल में अचानक मुस्लिम बहुल कैसे बन गये? तरुण तेजपाल कभी उधर जाते भी हैं या सिर्फ़ गुजरात में ही बैठे रहते हैं?
15) कश्मीर में सेना के जवानों पर पत्थर फ़ेंकने के लिये “गुमराह लड़कों”(?) को जो पैसा दिया जाता है, उसमें उच्च स्तर पर लेन-देन हुआ है… NDTV ने कभी किसी स्टिंग के जरिये, कश्मीर की वास्तविक ज़मीनी स्थिति जानने की कोशिश की है?
16) अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी वाली फ़ाइल को किसने चार साल तक रोके रखा? तरुण तेजपाल जी, कभी शीला दीक्षित का भी स्टिंग ऑपरेशन कर डालिये… कश्मीरी पण्डित वर्षों से नारकीय जीवन जी रहे हैं, कभी भाजपा से फ़ुरसत मिले, तो राहुल गाँधी से उनके "राजनैतिक ज्ञान" के ब्यौरे का स्टिंग ही कर डालिये…
17) कॉमनवेल्थ नामक “गुलामी के खेलों” पर खरबों रुपया बहाया जा चुका है, इसमें से कलमाडी ने कितना, शीला ने कितना और बिल्डरों ने कितना खाया, NDTV-आज तक वाले कभी इस पर भी स्टिंग ऑपरेशन करेंगे क्या?
18) मणिपुर की जनता पिछले 2 माह से राशन-पानी के लिये त्राहि-त्राहि कर रही है, इटली की महारानी ने समूचा उत्तर-पूर्व, ईसाई उग्रवादी संगठनों को दान में देने की ठान ली है… तेजपाल जी, अपना स्टिंग लेकर, कभी उधर की ठण्डी हवा भी खाकर आईये ना… कर्नाटक और गुजरात के मुकाबले अच्छा मौसम है उधर।
लिस्ट तो बहुत लम्बी है, लेकिन दुर्भाग्य से इसमें से एक भी स्टिंग ऑपरेशन आप कभी भी नहीं देख पायेंगे, क्योंकि जैसा कि पहले ही कहा गया है, स्टिंग ऑपरेशन कांग्रेस और सहयोगी दलों के लिये नहीं होते हैं। तो क्या यह माना जाये कि “तहलका” और NDTV जैसे सरकारी चमचे, सिर्फ़ कांग्रेस और सोनिया गाँधी की चापलूसी ही करते रहेंगे? ठीक नवीन चावला की तरह, जिसे उसके तमाम काले कारनामों के बावजूद “एक विशेष मकसद” के लिये मुख्य चुनाव आयुक्त बनाया गया है?
मुझे पूरा भरोसा है कि जिस दिन स्विस बैंक द्वारा भ्रष्ट भारतीयों की लिस्ट जारी की जायेगी (हालांकि ऐसा कभी होगा नहीं), तो उसमें तरुण तेजपाल का नाम भी निकलेगा। अब यह पता करने के लिये, कि आखिर तहलका, NDTV इत्यादि को कांग्रेस से कितना पैसा मिलता रहा है, एक अदद स्टिंग ऑपरेशन की सख्त जरूरत है। कोई है? जो यह करे…
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चलते-चलते : तहलका ने आरोप लगाया है कि प्रमोद मुतालिक, 50 लाख रुपये लेकर दंगा करवाता है… क्या आपको ये "रेट्स"(?) ज्यादा नहीं लगते? 50 लाख तो बहुत ज्यादा होता है यारों…… जब सिर्फ़ “इस्लाम खतरे में है…” सुनकर, या 72 हूरों के “काल्पनिक लालच” भर से बरेली और हैदराबाद में जमकर फ़्री-फ़ोकट में जमकर दंगे हो रहे हैं, तो ऐसे में दंगे करवाने के लिये 50 लाख देने वाला कोई बेवकूफ़ ही होगा… है ना?
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ब्लॉग
बुधवार, 02 जून 2010 14:31
उम्मीद है कि रॉन वॉट्स दम्पति को भारत रत्न मिलकर रहेगा… ... Ron Watts, Conversion Adventist Church
हम अशिक्षित और संस्कृतिविहीन किस्म के भारतवासियों विशेषकर हिन्दुओं को श्री रॉन वॉट्स तथा श्रीमती डोरोथी वॉट्स का तहेदिल से शुक्रगुज़ार होना चाहिये कि उन्होंने भारत में आकर ईसाई धर्म का प्रचार करने की ज़हमत उठाई और अपने काम को बड़ी लगन और मेहनत से सफ़लता की ऊँचाई पर ले जा रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि उन्हें भारत रत्न मिले और आप उल्लू की तरह पूछते फ़िरें कि ये कौन हैं? और इन्हें भारत रत्न क्यों दिया गया?, इसलिये मेरा फ़र्ज़ बनता है कि आपको इनके बारे में बताऊं…
कनाडा निवासी वॉट्स दम्पति “सेवेन्थ-डे एडवेंटिस्ट चर्च” के दक्षिण एशिया प्रभारी हैं। 1997 में जिस समय इन्होंने इस चर्च के दक्षिण एशिया का प्रभार संभाला, उस समय 103 वर्षों के कार्यकाल में भारत में इसके सदस्यों की संख्या दो लाख पच्चीस हजार ही थी। लेकिन सिर्फ़ 5 साल में अर्थात 2002 तक ही वॉट्स दम्पति ने भारत में इसके सदस्यों की संख्या 7 लाख तक पहुँचा दी (है ना कमाल का काम!!!)। इन्होंने गरीब भारतीयों के लिये इतना जबरदस्त काम किया, कि सिर्फ़ एक दिन में ही ओंगोल (आंध्रप्रदेश) में 15018 लोगों ने धर्म परिवर्तन करके ईसाई धर्म अपना लिया।
http://www.adventistreview.org/2001-1506/news.html
और
http://www.adventistreview.org/2004-1533/news.html
वॉट्स दम्पति का लक्ष्य 10,000 चर्चों के निर्माण का है, और जल्द ही वे इस जादुई आँकड़े को छूने वाले हैं तथा उस समय एक भव्य विजय दिवस मनाया जायेगा। असल में इस महान काम में देरी सिर्फ़ इसलिये हुई, क्योंकि इनके सबसे बड़े मददगार और “हमारी महारानी” के खासुलखास व्यक्ति, अर्थात “भारत रत्न” एक और दावेदार सेमुअल रेड्डी की हवाई दुर्घटना में मौत हो गई। फ़िर भी वॉट्स दम्पति को पाँच राज्यों के ईसाई मुख्यमंत्रियों का पूरा समर्थन हासिल है और वे अपना परोपकार कार्य निरन्तर जारी रखे हैं। इनकी मदद के लिये अमेरिका स्थित मारान्था वॉलंटियर्स भी हैं जिन्होंने भारत में दो साल में 750 चर्च बनाने तथा ओरेगॉन स्थित फ़ार्ली परिवार, जिन्होंने एक चर्च प्रतिदिन के हिसाब से 1000 चर्च बनाने का संकल्प लिया है। इनका यह महान कार्य(?) जल्द ही पूरा होगा, साथ ही भारत में इनकी स्थानीय मदद के लिये इनके कब्जे वाला 80% बिकाऊ मीडिया और हजारों असली-नकली NGOs भी हैं।
श्री एवं श्रीमती वॉट्स की मेहनत और “राष्ट्रीय कार्य” का फ़ल उन्हें दिखाई भी देने लगा है, क्योंकि उत्तर-पूर्व के राज्यों मिजोरम, नागालैण्ड और मणिपुर में पिछले 25 वर्षों में ईसाई जनसंख्या में 200% का अभूतपूर्व उछाल आया है। त्रिपुरा जैसे प्रदेश में जहाँ आज़ादी के समय एक भी ईसाई नहीं था, 60 साल में एक लाख बीस हजार हो गये हैं, (हालांकि त्रिपुरा में कई सालों से वामपंथी शासन है, लेकिन इससे चर्च की गतिविधि पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता, क्योंकि वामपंथियों के अनुसार सिर्फ़ “हिन्दू धर्म” ही दुश्मनी रखने योग्य है, बाकी के धर्म तो उनके परम दोस्त हैं) इसी प्रकार अरुणाचल प्रदेश में सन् 1961 की जनगणना में सिर्फ़ 1710 ईसाई थे जो अब बढ़कर एक लाख के आसपास हो गये हैं तथा चर्चों की संख्या भी 780 हो गई है।
एक दृष्टि रॉन (रोनॉल्ड) वॉट्स साहब के सम्पर्कों पर भी डाल लें, ताकि आपको विश्वास हो जाये कि आपका “भविष्य” एकदम सही हाथों में है…
1) रॉन वाट्स के खिलाफ़ बिजनेस वीज़ा पर अवैध रूप से भारत में दिन गुजारने और कलेक्टर द्वारा देश निकाला दिये जाने के बावजूद जबरन भारत में टिके रहने के आरोप हैं, लेकिन उन्हें भारत से कौन निकाल सकता है, जब “महारानी” जी से उनके घरेलू सम्बन्ध हों… क्या कहा… विश्वास नहीं होता? खुद ही पढ़ लीजिये…
http://www.scribd.com/doc/983197/RON-WATTS-AND-SONIA-GANDHI-OPERATE-TOGETHER
2) रॉन वॉट्स साहब को ऐरा-गैरा न समझ लीजियेगा, इनकी पहुँच सीधे चिदम्बरम साहब के घर तक भी है… चिदम्बरम साहब की श्रीमती नलिनी चिदम्बरम, रॉन वॉट्स की वकील हैं, अब ऐसे में चिदम्बरम साहब की क्या हिम्मत है कि वे वॉट्स को देशनिकाला दें। ज्यादा क्या बताऊँ… आप खुद ही इनके रिश्तों के बारे में पढ़ लीजिये…
http://www.hvk.org/articles/0605/12.html
3) इन साहब की कार्यपद्धति के बारे में विस्तार से जानने के लिये यहाँ देखें…
http://www.organiser.org/dynamic/modules.php?name=Content&pa=showpage&pid=184&page=5
तात्पर्य यह कि समस्त भारतवासियों को वॉट्स दम्पति का शुक्रगुज़ार होना चाहिये कि उन्होंने हजारों लोगों को “सभ्य” बनाया, वरना वे खामख्वाह हिन्दुत्व जैसे बर्बर और असभ्य धर्म में फ़ँसे रहते। इसलिये मैं “महारानी” से अनुशंसा करता हूं कि वॉट्स दम्पति द्वारा भारत के प्रति इस “अतुलनीय योगदान” के लिये इन्हें शीघ्रातिशीघ्र “भारत रत्न” प्रदान करे।
आप क्या सोचते हैं, क्या इन्हें भारत रत्न मिल पायेगा? मुझे तो पूरा विश्वास है कि कांग्रेसियों की “इटली वाली महारानी” इस पर अवश्य विचार करेंगी, आखिर पहले भी ग्राहम स्टेंस की विधवा को हमने उनके “भारत के प्रति अतुलनीय योगदान” के लिये पद्म पुरस्कार दिया ही था।
वैसे तो “अतिथि देवो भवः” की परम्परा भारतवर्ष में कायम रहे इसलिये अफ़ज़ल गुरु, कसाब, क्वात्रोची, वॉरेन एण्डरसन, रॉन वॉट्स जैसे लोगों की “सेवा” में कांग्रेस सतत समर्पित कार्य करती ही है, फ़िर भी मैं तमाम सेकुलरों, कांग्रेसियों, वामपंथियों और बचे-खुचे बिकाऊ बुद्धिजीवियों से भी आग्रह करता हूं कि वे भी अपनी तरफ़ से इस कर्मठ कार्यकर्ता को भारत रत्न दिलवाने हेतु पूरा ज़ोर लगायें, कहीं ऐसा न हो कि हमारी मेहमाननवाज़ी में कोई कमी रह जाये…।
Ronn Watts, Ronald Watts, Seventh Day Adventist Church, Conversion in India, Christian Aggression in India, North-East Demography change, Conversion in AP and Samuel Reddy, Bharat Ratna to Ronald Watts, Secularism and Congress, Connection of Church and Sonia Gandhi, रॉन वॉट्स, रोनाल्ड वॉट्स, सेवन्थ डे एडवेन्टिस्ट चर्च, भारत में धर्मान्तरण, भारत में बढ़ती ईसाई आक्रामकता, उत्तर-पूर्व के राज्य और धर्मान्तरण, आंध्रप्रदेश में ईसाई धर्मान्तरण और सेमुअल रेड्डी, धर्मनिरपेक्षता और कांग्रेस, सोनिया गाँधी और चर्च के रिश्ते, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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http://www.adventistreview.org/2001-1506/news.html
और
http://www.adventistreview.org/2004-1533/news.html
वॉट्स दम्पति का लक्ष्य 10,000 चर्चों के निर्माण का है, और जल्द ही वे इस जादुई आँकड़े को छूने वाले हैं तथा उस समय एक भव्य विजय दिवस मनाया जायेगा। असल में इस महान काम में देरी सिर्फ़ इसलिये हुई, क्योंकि इनके सबसे बड़े मददगार और “हमारी महारानी” के खासुलखास व्यक्ति, अर्थात “भारत रत्न” एक और दावेदार सेमुअल रेड्डी की हवाई दुर्घटना में मौत हो गई। फ़िर भी वॉट्स दम्पति को पाँच राज्यों के ईसाई मुख्यमंत्रियों का पूरा समर्थन हासिल है और वे अपना परोपकार कार्य निरन्तर जारी रखे हैं। इनकी मदद के लिये अमेरिका स्थित मारान्था वॉलंटियर्स भी हैं जिन्होंने भारत में दो साल में 750 चर्च बनाने तथा ओरेगॉन स्थित फ़ार्ली परिवार, जिन्होंने एक चर्च प्रतिदिन के हिसाब से 1000 चर्च बनाने का संकल्प लिया है। इनका यह महान कार्य(?) जल्द ही पूरा होगा, साथ ही भारत में इनकी स्थानीय मदद के लिये इनके कब्जे वाला 80% बिकाऊ मीडिया और हजारों असली-नकली NGOs भी हैं।
श्री एवं श्रीमती वॉट्स की मेहनत और “राष्ट्रीय कार्य” का फ़ल उन्हें दिखाई भी देने लगा है, क्योंकि उत्तर-पूर्व के राज्यों मिजोरम, नागालैण्ड और मणिपुर में पिछले 25 वर्षों में ईसाई जनसंख्या में 200% का अभूतपूर्व उछाल आया है। त्रिपुरा जैसे प्रदेश में जहाँ आज़ादी के समय एक भी ईसाई नहीं था, 60 साल में एक लाख बीस हजार हो गये हैं, (हालांकि त्रिपुरा में कई सालों से वामपंथी शासन है, लेकिन इससे चर्च की गतिविधि पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता, क्योंकि वामपंथियों के अनुसार सिर्फ़ “हिन्दू धर्म” ही दुश्मनी रखने योग्य है, बाकी के धर्म तो उनके परम दोस्त हैं) इसी प्रकार अरुणाचल प्रदेश में सन् 1961 की जनगणना में सिर्फ़ 1710 ईसाई थे जो अब बढ़कर एक लाख के आसपास हो गये हैं तथा चर्चों की संख्या भी 780 हो गई है।
एक दृष्टि रॉन (रोनॉल्ड) वॉट्स साहब के सम्पर्कों पर भी डाल लें, ताकि आपको विश्वास हो जाये कि आपका “भविष्य” एकदम सही हाथों में है…
1) रॉन वाट्स के खिलाफ़ बिजनेस वीज़ा पर अवैध रूप से भारत में दिन गुजारने और कलेक्टर द्वारा देश निकाला दिये जाने के बावजूद जबरन भारत में टिके रहने के आरोप हैं, लेकिन उन्हें भारत से कौन निकाल सकता है, जब “महारानी” जी से उनके घरेलू सम्बन्ध हों… क्या कहा… विश्वास नहीं होता? खुद ही पढ़ लीजिये…
http://www.scribd.com/doc/983197/RON-WATTS-AND-SONIA-GANDHI-OPERATE-TOGETHER
2) रॉन वॉट्स साहब को ऐरा-गैरा न समझ लीजियेगा, इनकी पहुँच सीधे चिदम्बरम साहब के घर तक भी है… चिदम्बरम साहब की श्रीमती नलिनी चिदम्बरम, रॉन वॉट्स की वकील हैं, अब ऐसे में चिदम्बरम साहब की क्या हिम्मत है कि वे वॉट्स को देशनिकाला दें। ज्यादा क्या बताऊँ… आप खुद ही इनके रिश्तों के बारे में पढ़ लीजिये…
http://www.hvk.org/articles/0605/12.html
3) इन साहब की कार्यपद्धति के बारे में विस्तार से जानने के लिये यहाँ देखें…
http://www.organiser.org/dynamic/modules.php?name=Content&pa=showpage&pid=184&page=5
तात्पर्य यह कि समस्त भारतवासियों को वॉट्स दम्पति का शुक्रगुज़ार होना चाहिये कि उन्होंने हजारों लोगों को “सभ्य” बनाया, वरना वे खामख्वाह हिन्दुत्व जैसे बर्बर और असभ्य धर्म में फ़ँसे रहते। इसलिये मैं “महारानी” से अनुशंसा करता हूं कि वॉट्स दम्पति द्वारा भारत के प्रति इस “अतुलनीय योगदान” के लिये इन्हें शीघ्रातिशीघ्र “भारत रत्न” प्रदान करे।
आप क्या सोचते हैं, क्या इन्हें भारत रत्न मिल पायेगा? मुझे तो पूरा विश्वास है कि कांग्रेसियों की “इटली वाली महारानी” इस पर अवश्य विचार करेंगी, आखिर पहले भी ग्राहम स्टेंस की विधवा को हमने उनके “भारत के प्रति अतुलनीय योगदान” के लिये पद्म पुरस्कार दिया ही था।
वैसे तो “अतिथि देवो भवः” की परम्परा भारतवर्ष में कायम रहे इसलिये अफ़ज़ल गुरु, कसाब, क्वात्रोची, वॉरेन एण्डरसन, रॉन वॉट्स जैसे लोगों की “सेवा” में कांग्रेस सतत समर्पित कार्य करती ही है, फ़िर भी मैं तमाम सेकुलरों, कांग्रेसियों, वामपंथियों और बचे-खुचे बिकाऊ बुद्धिजीवियों से भी आग्रह करता हूं कि वे भी अपनी तरफ़ से इस कर्मठ कार्यकर्ता को भारत रत्न दिलवाने हेतु पूरा ज़ोर लगायें, कहीं ऐसा न हो कि हमारी मेहमाननवाज़ी में कोई कमी रह जाये…।
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