अमेरिकी जासूसी :- NGOs के उपयोग की रोमांचक कहानी

Written by रविवार, 22 नवम्बर 2015 15:37

तरक्की करने वाले किसी दूसरे देश में कैसे अधिकाधिक रोड़े उत्पन्न किए जा सकें अथवा उसकी तरक्की को कैसे धीमा अथवा पटरी से उतारा जा सके, इस हेतु अमेरिका-जर्मनी जैसे देशों ने विभिन्न देशों में अपने-अपने कई फर्जी और गुप्त संगठन तैयार कर रखे हैं. जिनके द्वारा समय-समय पर अलग-अलग पद्धति से उस देश में उनके हितसाधन किए जाते हैं. इस खेल को समझने के लिए आगे पढ़ें... 

मान लीजिए कि आप रेस ट्रैक पर हैं, और बड़े-बड़े दिग्गजों को हराने का माद्दा रखते हुए आप बहुत उत्साह से दौड़ में हिस्सा लेने के लिए उद्यत हैं. यदि ऐसे में सिर्फ आपके पैरों में दो-दो किलो का वजन बाँध दिया जाए तो क्या आप दौड़ पाएँगे? नहीं. या फिर आपने दौड़ना शुरू किया और आगे-आगे कोई आपके मार्ग में कचरा-पत्थर-कीलें फेंकता चले, तो क्या आप दौड़ पाएँगे? नहीं. कुछ-कुछ ऐसा ही अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति-कूटनीति में भी होता है. तरक्की करने वाले किसी दूसरे देश में कैसे अधिकाधिक रोड़े उत्पन्न किए जा सकें अथवा उसकी तरक्की को कैसे धीमा अथवा पटरी से उतारा जा सके, इस हेतु अमेरिका-जर्मनी जैसे देशों ने विभिन्न देशों में अपने-अपने कई फर्जी और गुप्त संगठन तैयार कर रखे हैं. जिनके द्वारा समय-समय पर अलग-अलग पद्धति से उस देश में उनके हितसाधन किए जाते हैं. मई 2007 को व्हाईट हॉउस के पूर्वी हॉल में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश एक समारोह की अध्यक्षता कर रहे थे. इस समारोह में जॉर्ज बुश द्वारा देश की सेवा करने वाले कई विशिष्ट संगठनों को पुरस्कृत एवं सम्मानित किया जाना था. सम्मानित होने वाले महानुभावों के बीच एक शख्स था, जिसका नाम के.हायरामाइन था. हायरामाईन कोलोराडो स्थित एक विराट और अरबपति मानवाधिकार संगठन का संस्थापक और अध्यक्ष है. के.हायरामाइन के NGO का नाम है Humanitarian International Services Group अर्थात (अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार सेवा समूह). HISG. “कैटरीना” जैसे महा-तूफ़ान के बाद अमेरिकी जनता की सेवा करने के लिए ही इस समारोह में जॉर्ज बुश द्वारा HISG को सम्मानित किया जा रहा था. अमेरिकी राष्ट्रपति से हाथ मिलाने के बाद अपने संक्षिप्त संबोधन में हायरामाइन ने कहा कि, “कैटरीना तूफ़ान आने के बाद एक माह के भीतर ही ह्यूस्टन से हमारे संगठन ने 1500 स्वयंसेवकों की टीम राहत कार्यों के लिए भेजी और पीड़ित अमेरिकी जनता की तन-मन-धन से सेवा की”. यहाँ तक पढ़ने में तो आपको इसमें कोई खास बात नहीं दिखाई दी होगी, NGOs की यह कार्यप्रणाली बड़ी सामान्य प्रक्रिया है. लेकिन इसमें असली पेंच यह है कि के.हायरामाइन और उसका कथित मानवाधिकार NGO अर्थात HISG वास्तव में पेंटागन के जासूस थे, तथा इनके NGO को उच्च स्तरीय रक्षा कार्यक्रमों के जरिये लाखों डॉलर की मदद दी जाती थी, ताकि यह NGO दूसरे देशों में न सिर्फ धर्म परिवर्तन के कामों में निचले संगठनो को सहायता करे, बल्कि उत्तर कोरिया जैसे देशों में अमेरिकी छिपे हुए मोहरे के रूप में काम करके जासूसी करें.

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(जॉर्ज बुश के हाथों पुरस्कार ग्रहण करने के बाद हायरामाइन अपने साथियों के साथ)

चौंकिए नहीं... अमेरिका सहित विभिन्न पश्चिमी देशों द्वारा पोषित अधिकाँश NGOs यही कार्य करते हैं. हायरामाइन और HISG का मामला भी ऐसा ही है. HISG जैसे ना जाने कितने संगठन भारत सहित अनेक देशों में कार्यरत हैं जिन्हें कभी अमेरिकी रक्षा विभाग के जरिये किसी अज्ञात मद में अथवा फोर्ड फाउन्डेशन एवं ग्रीनपीस जैसे महाकाय NGOs के जरिये आर्थिक रूप से पाला-पोसा जाता है और मनचाहे कार्य करवाए जाते हैं. नई शैली में पेंटागन के इस जासूसी अभियान की शुरुआत दिसम्बर 2004 में ही हो गई थी, जब अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की गुप्तचर सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल विलियम बोयकिन (जो कि घोषित रूप से एवेंजेलिकल ईसाई, अर्थात ईसाई धर्मप्रचारक हैं) ने उत्तर कोरिया में अमेरिकी घुसपैठ बढ़ाने तथा सूचनाएँ एकत्रित करने के लिए NGOs के उपयोग का अपारंपरिक आयडिया सुझाया. 2004 से पूर्व अमेरिकी सरकार NGOs के इस गोरखधंधे में सीधे शामिल नहीं होती थी, बल्कि उसके खास मोहरे अर्थात कई तथाकथित मानवाधिकार संगठन इसमें अपनी दखल रखते और कार्यसिद्ध होने के बाद अमेरिकी सरकार को रिपोर्ट देते एवं पुरस्कार-सम्मान प्राप्त करते. पेंटागन द्वारा रक्षा मद में सीधे किसी NGO को पालने-पोसने का यह पहला मामला है.

जैसा कि सभी जानते हैं उत्तर कोरिया का परमाणु कार्यक्रम पिछले पन्द्रह-बीस साल से अमेरिका के लिए भीषण सिरदर्द बना हुआ है. अब तक जासूसी के लिए और अपने मोहरे सत्ता प्रतिष्ठान तक फिट करने की योजना में अमेरिका के लिए उत्तर कोरिया सबसे कठिन देश रहा है. लाख कोशिशों के बावजूद CIA और पेंटागन उत्तर कोरिया के अंदरूनी मामलों की अग्रिम जानकारी प्राप्त करने के बारे में “शून्य” की स्थिति में खड़े रहे. लेकिन के.हायरामाइन के इस मानवाधिकार संगठन HISG की वजह से अमेरिका को उत्तर कोरिया में घुसपैठ की कामयाबी हासिल हुई. HISG ने उत्तर कोरिया में आई आपदाओं के समय “मानवता के नाते”(??) सहायता पहुँचाने की पेशकश की और सहमति मिलने के बाद यह संगठन उन इलाकों तक पहुँचा, जहाँ अब से पहले कोई अमेरिकी संगठन नहीं पहुँच पाया था. अपने राजनैतिक, कूटनैतिक एवं सामरिक लाभों के लिए अमेरिका एवं पश्चिमी देशों द्वारा ऐसे NGOs का इस्तेमाल करना कोई नई बात नहीं है. CIA इस खेल में माहिर रही है, और कई वामपंथी देशों में उसने इन्हीं संगठनों की मदद से जनता में असंतोष फैलाकर तख्तापलट करने में सफलता हासिल की है. सनद रहे कि मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले भारत में लगभग 70,000 NGOs काम कर रहे थे, जिनमें से लगभग 28,000 NGOs ने पिछले दस वर्ष से अपने पैसों एवं विदेश से प्राप्त चन्दे का हिसाब-किताब केन्द्र सरकार को नहीं दिया था.

बहरहाल, वापस लौटते हैं HISG नामक NGO पर. HISG का गठन अमेरिका में 9/11 के हमले के तुरंत बाद किया गया था. के.हेरामाइन ने तीन मित्रों के साथ मिलकर “मानवाधिकार संगठन” के रूप में इसका गठन किया, जिसका उद्देश्य प्राकृतिक आपदाओं के समय एवं युद्धग्रस्त इलाकों में गरीबों की सहायता, दवाई-कपड़े इत्यादि पहुँचाने का घोषित किया गया. चूँकि मानवाधिकार वाला उद्देश्य दिखावटी था ही, अतः शुरुआती दो वर्षों में HISG ने अधिकाँशतः अमेरिका में ही “धर्म-प्रचार समिति” (Christian Evengelism) के रूप में काम किया. जब अमेरिका अफगानिस्तान में घुसा और उसने वहाँ तबाही मचाना शुरू किया तब HISG एक्शन में आया और पहली बार देश के बाहर कदम रखा. जहाज भर खेप में इन्होंने अफगानिस्तान के क्षतिग्रस्त अस्पतालों में दवाओं का वितरण किया. 2003 आते-आते HISG पेंटागन की निगाहों में चढ़ गया. पेंटागन ने इस NGO को अपने अफगानिस्तान ऑपरेशन में शामिल करके इसे वहाँ मिलने वाले निर्माण कार्यों के ठेके में भी सम्मिलित कर दिया. इसी साल पेंटागन में लेफ्टिनेंट विलियम बोयकिन की नियुक्ति रक्षा मंत्रालय अतिरिक्त सचिव के रूप में हुई. 9/11 के हमलों के पश्चात अत्यधिक सतर्क हुए अमेरिका ने बोयकिन को उन देशों का जिम्मा सौंपा, जिन्हें उसने “हाई-रिस्क” पर रखा था, जैसे ईरान और उत्तर कोरिया. बोयकिन को विभिन्न देशों में कई गुप्तचर ऑपरेशन चलाने का अनुभव था. विलियम बोयकिन ने 1993 में सोमालिया में एक आतंकवादी समूह को मार गिराया था और कोलम्बिया में भी कुख्यात ड्रग स्मगलर पाब्लो एस्कोबार का पीछा करके पता लगाने में भी बोयकिन की खास भूमिका थी. तत्कालीन रक्षा सचिव डोनाल्ड रम्सफेल्ड ने बोयकिन को CIA और पेंटागन के साथ मिलकर उत्तर कोरिया पर अपना ध्यान केंद्रित करने की जिम्मेदारी सौंपी थी. जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, उत्तर कोरिया अमेरिका के लिए सबसे कठिन लक्ष्य था, क्योंकि वहाँ किसी भी अमेरिकी संगठन अथवा सरकार की कोई घुसपैठ नहीं हो पा रही थी. ऐसी हालत में वहाँ से गुप्त सूचनाएँ हासिल करना अथवा वहाँ की जनता को भड़काने के लिए उनके बीच अपने नुमाईंदे फिट करना लगभग असंभव हो चला था. ऐसे हालात में पेंटागन ने दूसरे देशों में काम कर रहे NGOs की तर्ज पर HISG को इस महत्त्वपूर्ण काम के लिए चुना.

चूँकि उत्तर कोरिया पर अमेरिका ने कई तरह के प्रतिबन्ध लगा रखे हैं, इसलिए वास्तव में वहाँ की जनता किम जोंग की तानाशाही और गरीबी के तले जी रही है. उत्तर कोरिया अमूमन किसी भी सरकार से सीधे मदद स्वीकार नहीं करता, इसलिए हायरामाइन के NGO ने शुरुआत में प्रयोग के रूप में वहाँ पड़ने वाली कडाके की ठण्ड के दौरान कपड़ों, दवाओं एवं प्राकृतिक आपदा राहत उपकरणों से भरे जहाज “मानवता” के नाम पर भेजे. विशेष तौर पर डिजाइन किए गए इन कपड़ों के बीच विशेष खांचे बनाए गए थे, जिनमें बाईबल रखी जाती थी. उत्तर कोरिया घोषित रूप से वामपंथी देश है, और वहाँ किसी भी प्रकार की धार्मिक गतिविधियों पर रोक है. ऐसे में कपड़ों के बीच छुपाकर बाईबल भेजना एक जोखिम भरा काम था, परन्तु पेंटागन के लिए यह प्रयोग करना जरूरी था. पेंटागन यह जानता था कि अगर बाईबल भेजने की चाल सफल हो गई और पकड़े नहीं गए तो अगली खेप में सैन्य जासूसी उपकरण, सेन्सर्स और छिपे कैमरे-माईक आदि भी उत्तर कोरिया के भीतर भेजे जा सकते थे. HISG द्वारा कपड़ों में बाईबल भेजने की चाल सफल रही और उत्तर कोरिया की सरकार को इसकी भनक भी नहीं लगी. इसके बाद पेंटागन, CIA और इस NGO की हिम्मत खुल गई और उन्होंने चीन में कार्यरत मिशनरी समूहों, मानवीय सहायता कार्यकर्ताओं एवं चीन के स्मगलरों की मदद से इन्होंने उत्तर कोरिया में विभिन्न जासूसी उपकरण “मानवीय सहायता” के नाम पर भेज डाले. मजे की बात यह थी कि चीन के स्मगलरों और HISG के प्रमुख कर्ताधर्ताओं के अलावा किसी को भी इस बात की भनक तक नहीं थी कि वे मानवता के नाम पर चलाए जा रहे इस ऑपरेशन में मोहरे बने हुए हैं और NGO के नाम पर अमेरिका उनसे जासूसी करवा रहा है. उन्हें लगता था कि वे गरीबों की मदद करके कोई पुण्य का काम कर रहे हैं. इस बीच 2007 में के.हायरामाइन भी अपनी चीनी शक्लो-सूरत की वजह से मानवाधिकार संगठन की ढाल लेकर उत्तर कोरिया का दो बार दौरा कर आया. खोजी वेबसाईट The Intercept ने जब इस मामले की खोजबीन शुरू की और अमेरिका के विभिन्न रिटायर्ड फौजियों से बातचीत की तब पता चला कि लगभग 250 से अधिक NGOs ऐसे हैं जिन्हें अमेरिकी सेना, पेंटागन और CIA मिलकर लाखों डॉलर की फंडिंग करते हैं, ताकि विरोधी नीतियों वाले देशों में या तो अपने आदमी फिट करके अमेरिका के अनुकूल नीतियाँ बनवाई जा सकें, अथवा उन देशों में उथलपुथल पैदा करके, जनता में असंतोष भड़काकर अपना उल्लू सीधा किया जा सके. उत्तर कोरिया तो वैसे ही अमेरिका की प्रमुख हिट लिस्ट में है. चूँकि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकार संगठनों को विशेष सुरक्षा एवं अधिकार प्राप्त होते हैं, इसलिए उनके नाम पर बने NGOs के जरिए किसी भी देश में घुसपैठ करना आसान होता है. लेकिन इनके कार्यकर्ताओं के जरिये जासूसी करना अथवा करवाना अन्तर्राष्ट्रीय अपराध की श्रेणी में आता है, इसलिए जब वेबसाईट ने जानकारी लेना चाहा तो पेंटागन के अधिकारियों ने HISG से कोई सम्बन्ध होने से ही इंकार कर दिया. जबकि खुद अमेरिकी सरकार ने ही विभिन्न संस्थाओं का मकड़जाल बनाकर HISG को लाखों डॉलर का भुगतान किया है. 2013 में HISG को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया, लेकिन उससे पहले इसके कर्ताधर्ताओं को न सिर्फ ऐशोआराम का जीवन प्रदान किया गया, बल्कि उच्च पुरस्कारों से भी नवाजा गया.

अमेरिकी अधिकारियों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उत्तर कोरिया के रेडियो एवं दूरसंचार उपकरणों के सिग्नल्स को भंग करने एवं उनमें सेंधमारी करने के लिए कई शक्तिशाली जासूसी उपकरण वहाँ प्लांट किए जाने जरूरी थे, ताकि समय-समय पर सूचनाएँ प्राप्त होती रहें. इस काम के लिए मानवाधिकार NGOs से बेहतर कुछ हो नहीं सकता थम क्योंकि कोई भी उन पर शक नहीं करता और उनके द्वारा पहुँचाए जा रहे सामानों की उतनी कड़ाई से जाँच भी नहीं होती.

HISG जैसे NGOs को भारी मात्रा में पैसा पहुँचाने के लिए जो “मैकेनिज़्म” तैयार किया जाता है, वह भी बड़ा चमत्कारिक किस्म का होता है. चूँकि ऐसा कहीं भी नहीं दिखना चाहिए कि अमेरिकी सरकार इसमें सीधे शामिल है, इसलिए पहले दो प्रकार की कम्पनियाँ खड़ी जाती हैं, पहली For-Profit और दूसरी Non-Profit. दोनों ही कंपनियों में निदेशक एवं पदाधिकारी लगभग समान ही होते हैं. 2009 में HISG ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में बताया था कि उनके पास कोई “वैतनिक कर्मचारी” नहीं है, तीस लोगों की जो टीम है वह सिर्फ अवैतनिक स्वयंसेवक हैं, सिर्फ तीन या चार व्यक्तियों को जो भुगतान प्राप्त होता है वह किसी “सलाहकार कंपनी” के द्वारा किया जाता है. 2009 की ही एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार HISG के असली खिलाड़ी अर्थात के.हायरामाईन ने अपने NGO से कोई वेतन प्राप्त नहीं किया, परन्तु फिर भी एक निजी सलाहकार कंपनी द्वारा उसे बिना कोई काम किए, लगभग तीन लाख डॉलर का भुगतान किया. ज़ाहिर है कि यह पैसा सीधे पेंटागन के द्वारा उस फर्जी कम्पनी के मार्फ़त HISG को पहुँचाया गया. इसके अलावा “वर्किंग पार्टनर्स फाउन्डेशन” एवं “न्यू मिलेनियम ट्रस्ट” जैसे विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से कुल सत्तर लाख डॉलर का भुगतान किया गया, लेकिन कोई माई का लाल इसमें CIA की भूमिका नहीं खोज सकता. फाउन्डेशनों और ट्रस्टों का जाल इसीलिए बिछाया जाता है, ताकि “व्हाईट मनी” के रूप में पैसा सही व्यक्ति तक पहुँचाया जा सके... इन संस्थाओं में “सलाहकार” नामक पद ऐसा विशिष्ट पद होता है, जिसकी कोई सीमा नहीं, कोई आदि नहीं कोई अंत नहीं. निजी बातचीत में वेबसाईट को पेंटागन के ही एक रिटायर्ड अधिकारी ने बताया कि HISG ने इन सात वर्षों के दौरान लगभग तीस देशों में आपदा राहत, गरीबों को भोजन, मुफ्त दवाईयाँ एवं कपड़े पहुँचाने जैसे कई काम अपने हाथ में लिए. नाईजर, माली, इथियोपिया, केन्य, ईरान, लेबनान, यमन और चीन जैसे देशों में HISG ने विभिन्न तरीकों से अपने स्थानीय कार्यकर्ताओं के जरिये पैसा और सामग्री पहुँचाई, जिससे अमेरिकी सरकार HISG से बहुत खुश हुई. जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, HISG का मुख्य काम उत्तर कोरिया में अमेरिकी जासूसों के लिए जमीन और सुरक्षित स्थान की तैयारी करना था. HISG उत्तर कोरिया में समाजसेवी संस्थाओं एवं ऐसे मानवाधिकार अथवा असंदिग्ध और अच्छी छवि वाले लोगों को अपने साथ जोड़ती थी जो बिना किसी दिक्कत के काम कर सकें. इसके बाद कभी डॉक्टर के रूप में, तो कभी किसी संस्था के सहायक के रूप में तो कभी स्वयंसेवकों के रूप में स्थान-स्थान पर व्यक्ति “प्लांट” किए जाते थे. चूँकि उत्तर कोरिया सर्वाधिक खतरनाक देश माना जाता है, जहाँ किसी भी मामूली गलती की सजा सीधे किम जोंग इल द्वारा प्योंगयांग के चौराहे पर गोली मार देने के आदेश से समाप्त होती थी, इसलिए HISG के काम को अमेरिका में उच्च स्तर पर सराहा गया, और सीधे राष्ट्रपति बुश के हाथों “वालंटियर सर्विस अवार्ड” के रूप में पुरस्कार दिया गया.

HISG NGO graphic
(मकड़ी के जाल की तरह NGOs को पैसा पहुँचाया जाता है)


NGOs की आड़ लेकर CIA जैसी अमेरिकी संस्थाएँ कैसे काम करती हैं, इसका एक संक्षिप्त उदाहरण 2011 में पाकिस्तान में देखने को मिलता है, जहाँ हेपेटाईटिस “बी” का टीका लगाने वाली स्वयंसेवी संस्था के जरिये एक पाकिस्तानी डॉक्टर ने एबटाबाद में संदिग्ध लादेन परिवार के DNA सैम्पल लेने की कोशिश की और पकड़ा गया. इस खुलासे के बाद तालिबान इतना नाराज हुआ कि उसने क्षेत्र में काम कर रहे कई डॉक्टरों को मार डाला और अफगानिस्तान और पाकिस्तान के एक बड़े इलाके में पोलियो वैक्सीन का काम भी बन्द करवा दिया, लेकिन अमेरिकी जासूसी संस्थाओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. NGOs का उनका जाल इतना विशाल है, कि आप कभी भी पता नहीं कर सकते कि आपके पास “मानवीय सहायता” के नाम पर बैठा हुआ शख्स अमेरिकी जासूस है. पेंटागन और HISG की मिलीभगत संबंधी पोल खुलने का मुख्य कारण रहा HISG के कर्मचारी. असल में जो भी NGO इस प्रकार की गतिविधियों में शामिल रहता है, उसमें सिर्फ उसके उच्चाधिकारियों को ही मालूम रहता है कि वास्तव में वे लोग क्या काम कर रहे हैं, अथवा क्या काम करने किसी देश में जा रहे हैं. जब अमेरिकी सरकार (यानी पेंटागन और CIA) का काम निकल गया तो उन्होंने सन 2013 में HISG की फण्डिंग बन्द कर दी. के.हायरामाइन ने भी अपने वैतनिक कर्मचारियों को बिना कोई नोटिस दिए अचानक घोषणा कर दी, कि अब यह NGO बन्द किया जा रहा है, क्योंकि हमें “समुचित पैसा” नहीं मिल रहा.

मैं जानता हूँ कि उपरोक्त चौंकाने वाले तथ्य पढ़ने के बाद आपके दिमाग में अचानक भारत में पिछले कुछ वर्षों में हुई घटनाएँ कौंध गई होंगी, जैसे नर्मदा बचाओ आंदोलन के कारण सरदार सरोवर बाँध के निर्माण में देरी... या फिर कुडनकुलम परमाणु बिजलीघर का NGOs द्वारा कड़ा विरोध, जिसके कारण वह प्रोजेक्ट भी पिछड़ा... अथवा फोर्ड फाउन्डेशन की मदद से चलने वाले कुछ “तथाकथित ईमानदारी आंदोलन”... अथवा हाल ही में मोदी सरकार द्वारा फोर्ड फाउन्डेशन एवं ग्रीनपीस के खातों की जाँच तथा उनके द्वारा खर्च किए गए धन का हिसाब-किताब वगैरह माँगे जाने पर अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय बुद्धिजीवियों(??) द्वारा की गई बिलबिलाहट भी आपको याद आ गई होगी. उल्लेखनीय है कि मोदी सरकार के आने से पहले भारत में लगभग 70,000 NGOs थे, जिनमें से 30% NGOs ऐसे थे, जिन्होंने पिछले दस साल से विदेशों से प्राप्त होने वाले दान(??) का कोई हिसाब सरकार को नहीं दिया था, और मोदी सरकार द्वारा हिसाब माँगते ही ये NGOs अचानक गायब हो गए, कुछ तो कागजों पर ही थे, जबकि कुछ ने अपनी “दुकान” बढ़ा ली. भारत में आई भीषण “सुनामी” के बाद तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश के तटीय इलाकों में बेघरों-गरीबों के बीच जिस तेजी से मिशनरी संस्थाओं ने NGOs के जरिये धर्मान्तरण करवाया, वह भी आँखें खोलने लायक है. परन्तु आँखें किसकी खुलीं?? सोनिया सरकार की या जयललिता-करुणानिधि सरकार की? नहीं, इनमें से किसी ने भी सुनामी प्रभावित क्षेत्रों में NGOs के माध्यम से चल रही गतिविधियों पर रोक लगाने अथवा जाँच करने की कोई पहल नहीं की. सोचिये क्यों?? इसके अलावा भारत ने पिछले पन्द्रह वर्षों में भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के लगभग दस अत्यधिक प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों को खो दिया है... नहीं, नहीं... वे भारत छोड़कर नहीं गए, बल्कि उनकी रहस्यमयी मौतें हुई हैं, किसी की आत्महत्या हुई तो कोई मानसिक विक्षिप्त हुआ तो किसी पर बलात्कार अथवा यौन शोषण के आरोप लगे. औसत बुद्धि से भी विचार करें तो कोई मामूली व्यक्ति भी बता सकता है, कि यह घटनाएँ सामान्य नहीं, “असामान्य” हैं. भारत को पीछे धकेलने, उसके पैरों में पत्थर बाँधकर दौडाने की ऐसी “रहस्यमयी कारगुजारियाँ” भला पश्चिमी देशों और चीन के अलावा और कौन कर सकता है? क्योंकि भारत में काम करने वाले उनके हजारों “मोहरे” NGOs के रूप में हमारे आसपास ही मौजूद हैं...

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