नई पद्धति के इस्लामिक आतंक से जूझता यूरोप...

Written by शनिवार, 29 अप्रैल 2017 08:46

गत गुरूवार को फ्रांस से पेरिस में करीम चुर्फी नामक एक मुस्लिम ने अचानक अपनी कार से निकलकर एक पुलिस अधिकारी को गोली से उड़ा दिया और दो अन्य पुलिसकर्मियों को घायल कर दिया.

हालाँकि इसके बाद पुलिसवालों ने करीम को गोली से उड़ा दिया, परन्तु वह आतंक फैलाने में तो कामयाब रहा. इस्लामिक स्टेट ने करीम को अपना जेहादी माना है. इसी से मिलती-जुलती कई घटनाएँ लन्दन, स्टोकहोम, बर्लिन, और स्वीडन में होने लगी हैं, जिसमें अचानक कहीं से किसी कार से निकलकर कोई इस्लामिक आतंकी कभी चाकुओं से, तो कभी अपनी बन्दूक से दो-चार-छः लोगों की हत्याएँ कर देता है और यदि उसके पास कोई भी हथियार उपलब्ध नहीं हो, तो वह अपनी कार या मिनी ट्रक को ही फुटपाथ पर चलते हुए लोगों पर चढ़ा देता है, जिसमें दो-चार लोग तो मर ही जाते हैं. इस्लामिक स्टेट का यह एक नया आतंकी पैटर्न है.... जिससे यूरोप फ़िलहाल झूझ रहा है. 

पिछले पांच वर्षों में ऐसी घटनाओं में वृद्धि हुई है, साफ़ है कि जेहादियों ने आतंक फैलाने के अपने पैटर्न में बदलाव किया है. पांच-छः वर्ष पहले के आतंकवाद को याद करें तो हम पाते हैं की उसमें बड़े विस्फोटकों द्वारा बम विस्फोट किए जाते थे, जिसमें एक साथ दर्जनों लोग मारे जाते थे. लेकिन ऐसे बम विस्फोट के लिए लम्बी-चौड़ी योजना बनाना, विस्फोटक हासिल करना, विस्फोटकों के लिए धन प्राप्त करना, सम्बंधित देशों में नेटवर्क बनाना और प्रशिक्षण देना जैसे थकाऊ और बीच में ही पकड़े जा सकने का खतरा होता था. इसके अलावा सुरक्षा एजेंसियों ने भी विभिन्न देशों में होने वाले धन ट्रांसफर, विस्फोटकों की खरीद-बिक्री पर निगाह बनाना तथा आतंकियों के मुख्य मॉड्यूल एवं संदिग्धों पर लगातार पैनी निगाह रखने के कारण अब बम विस्फोट करना उतना सरल नहीं रह गया है. परन्तु कहीं से भी एक पिस्तौल हासिल करना अथवा दो-चार बड़े चाकू हासिल करना बेहद आसान होता है. पश्चिमी देशों में तो खुलेआम हथियारों की बिक्री होती है और लाईसेंस भी नहीं लगता. इसलिए अब इस्लामिक स्टेट ने अपनी आतंक रणनीति बदल ली है. अब बड़े बम विस्फोटों की बजाय, चाकुओं से हमला, कार या ट्रक तेज गति से भीड़ में घुसेड़ना जैसे छोटे जेहादी कामों को अंजाम दिया जाने लगा है. ऐसी आतंकी घटनाओं में किसी बड़े आतंकी का पकड़ना भी मुश्किल होता है और बम विस्फोट के मुकाबले ऐसे हमलों का सफलता प्रतिशत भी अधिक होता है. यूरोप की पुलिस और एजेंसियों के लिए इस प्रकार के छोटे-छोटे हमले सिरदर्द बने हुए हैं, क्योंकि यह पता ही नहीं होता की कब, कौन, कहाँ से कोई पागल व्यक्ति कार से उतरेगा और गोलियाँ बरसाने लगेगा... या पता नहीं कब कोई पागल अपना ट्रक भीड़ में घुसा देगा.

हालाँकि अल-कायदा की कमर लगभग टूट चुकी है, लेकिन 2010 में अनवर-अल-अव्लाकी (जो अब मारा जा चुका है) नामक आतंकी ने ही सबसे पहले यह आईडिया दिया था, जिसे इस्लामिक स्टेट ने अपना लिया है. बीच में एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें यूरोप की किसी मस्जिद से एक कट्टरपंथी इस्लामिक मौलवी “पश्चिमी मुस्लिमों” को आदेश दे रहा है कि, “...यदि तुम्हें विस्फोटक या बंदूकें नहीं मिल पाएँ, तो काफिरों को पत्थर से कुचल दो, उन्हें चाकुओं या तलवार से काट दो, अपनी कार उन पर चढ़ा दो या किसी ऊंचे स्थान से उन्हें नीचे फेंक दो... यदि यह भी न कर पाए तो उन्हें जहर दे दो या धुएँ से उनका दम घोंट दो...”. गुरूवार को फ्रेंच पुलिस द्वारा मारा गया करीम, फ्रांस का ही नागरिक था, जिसका 2001 से आपराधिक रिकॉर्ड रहा है. दिसंबर 2016 से पहले तक पुलिस को उस पर “इस्लामिक आतंकी” होने का शक नहीं था, क्योंकि उसकी गतिविधि वैसी नहीं दिखाई दी थी, परन्तु इस वर्ष जनवरी से अचानक मस्जिदों में उसके चक्कर बढ़ गए, करीम के आसपास कई संदिग्ध मुस्लिम नज़र आने लगे जो लगातार उसे घेरे रहते. फरवरी में जब करीम ने सोशल मीडिया पर इस्लाम का नाम लेकर धमकाया, तब कहीं जाकर फ्रेंच पुलिस ने उसका नाम उन 16,000 “संभावित इस्लामिक आतंकियों” की लिस्ट में जोड़ दिया, जिन पर निगाह रखी जानी थी. लेकिन अंततः वही हुआ, जो करीम ने चाहा, पुलिस उस पर कब तक और कहाँ-कहाँ निगाह रखती, कहीं से उसे बन्दूक सप्लाय हुई और अप्रैल में उसने यह कारनामा कर डाला.

असल में यूरोप में विभिन्न धार्मिक समुदायों पर निगाह रखने के लिए कोई तंत्र विकसित ही नहीं किया गया है. वहां का समाज भारत की तरह आपस में घुलमिलकर नहीं रहता, बल्कि सभी समुदायों को अलग-अलग तरीके से सरकारें फंडिंग करती हैं. इसका नतीजा यह हुआ है कि इस्लामिक समूह, मस्जिदों और मदरसों में एकजुट होता गया तथा उत्तरी अफ्रीका से आए हुए कट्टर इस्लामी समूहों ने इन मस्जिदों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया. फ्रांस-जर्मनी-स्वीडन सरकारों से पैसा भी वसूल किया, लेकिन अन्दर ही अन्दर स्थानीय मुस्लिमों का ब्रेनवाश भी जारी रहा. यूरोप में कुकुरमुत्ते की तरह अचानक जगह-जगह सैकड़ों मस्जिदें उग आई हैं. आपराधिक रिकॉर्ड वाले करीम चुर्फी का ब्रेनवाश भी ऑनलाईन की बजाय, इसी प्रकार से मस्जिदों में “ऑफलाइन” किया गया.

अब यदि यूरोप को अपना भविष्य बचाना है तो उसे कई मोर्चों पर एक साथ लड़ाई लडनी होगी. सबसे पहले इस्लामिक समूहों की विदेशी फंडिंग को रोकने की व्यवस्था करनी होगी. इसके बाद अपने गुप्तचरों को मस्जिदों की नमाज (खासकर जुमे की नमाज) के समय भेजकर वहां चलने वाली गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखनी होगी. गुप्तचरों द्वारा जिस मस्जिद में कट्टरवाद फैलाने के सबूत प्राप्त हों, उसे तत्काल बंद करके जमींदोज़ किया जाना चाहिए. जैसे ही पता चले अथवा कोई कट्टर बयानबाजी हो, वैसे ही तत्काल उस “संभावित इस्लामिक आतंकी” को देश से निकाल दिया जाए. पुलिस चौकन्नी रहे, तथा सभी आपराधिक रिकॉर्ड वाले मुस्लिमों पर निगाह रखी जाए. मदरसों के पाठ्यक्रमों पर भी ध्यान देना होगा, तथा सोशल मीडिया से चलने वाले दुष्प्रचार को सख्ती से कुचलना होगा.... यूरोप को बचना है तो अब यह करना ही होगा... वर्ना जिस प्रकार मुस्लिम शरणार्थियों द्वारा स्वीडन की राजधानी को “बलात्कार राजधानी” बना डाला है, उसी प्रकार बर्लिन, पेरिस, लन्दन जैसे खूबसूरत शहर खून-आलूदा बनते देर न लगेगी.

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