इस्लामिक आतंकवाद, असल में वहाबियत है : समझिये कैसे

Written by बुधवार, 14 जून 2017 07:45

आतंकवाद पर कोई बहस या बातचीत आम जन के दिमाग़ को सीधे इस्लाम की तरफ खींच ले जाती है. विश्व व्यापार केन्द्र पर हमले और उसके बाद दो नारों “आंतकवाद के खिलाफ़ जंग”, और "दो सभ्यताओं के बीच टकराव” से ऐसी मानसिकता बनी कि दुनिया भर में आम इंसानों के बीच एक विचार पैठ बनाने लगा कि “सारे मुसलमान आतंकवादी होते हैं”.

कुछ “नर्मदिल” लोग रियायत बरतते हुए इसे “हर आतंकवादी मुसलमान होता है” कहने लगे. यह तथ्य जिसे “इस्लामी आतंकवाद” कहा गया, यह दरअसल है क्या? यह आतंकवाद सचमुच इस्लामी है या कुछ और? अगर इस्लाम ही है, तो इसकी जड़ें कहाँ हैं? कुरान या हदीस में? परंपरागत इस्लामी मान्यताओं में? इस्लाम की किसी खास धारा में. या यही दरअसल इस्लाम है जिसकी बुनियाद में हिंसा है. इस तथ्य का खुलासा करने के लिए एक शब्द का उल्लेख, और उसका आशय समझ कर ही बात आगे की जा सकती है - वह शब्द है “जिहाद”! आखिर जिहाद है क्या? और इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई? और आशय क्या था?

जिहाद की कुरान में पहली ही व्याख्या “जिहाद अल-नफ़स” यानी खुद की बुराइयों के खिलाफ जंग है. “रूह और उसे मुकम्मल बनाने वाला (अल्लाह) बताता है कि क्या नेक है और क्या बद है. वही कामयाब है जो इसे पाक बना सके” (सूरह अल-शम्स, कुरान, 91: 7-9)... तुम क़त्ल मत करो क्योंकि अल्लाह ने ज़िंदगी को पवित्र बनाया है “सूरह अल-अनम, कुरान 6:151)

जब ऐसा है, तो फिर अचानक वह जिहाद कहाँ से आया जो इंसानों का, यहाँ तक की मासूम बच्चों का खून बहाना इस्लाम का हिस्सा बन गया. दुनिया भर में “इस्लामी” आतंकवाद खतरा बन के मंडराने लगा. यकीनन यह आतंकवाद पूरी दुनिया के लिए खतरा है पर कहाँ से आया यह खतरा? इस्लाम जैसे-जैसे परवान चढ़ा, अन्य धर्मों की तरह इसके भी फ़िरक़े बनते गए. इस्लाम कई शाखाओं में बंटा, इस्लाम का एक रूप शुरू से ही रहा और वह था राजनैतिक इस्लाम. ज़ाहिर है कि सत्ता के लिए न जाने कितनी जंग लड़ी गयीं और खुद मोहम्मद ने जंग-ए-बदर लड़ी. आसानी से कहा जा सकता है कि यह जंग भी मज़हब को विस्तार देने के लिए लड़ी गयी. मगर असली उद्देश्य था सत्ता और इस्लामिक सत्ता. जंग-ए-बदर में सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा किसी जंग में होता है पर जिहाद की कुरान में दी गयी परिभाषा फिर भी जस की तस रही. 1299 में राजनैतिक इस्लाम ने पहला बड़ा क़दम उठाया और ऑटोमन साम्राज्य या सल्तनत-ए-उस्मानिया की स्थापना हुई. (1299-1922). सत्ता की भूख इसका मुख्य कारण थी.

जिहाद की नयी परिभाषा गढ़ी अठारहवीं शताब्दी में मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब ने. जिसके नाम से इस्लाम ने एक नया मोड़ लिया जिसमें जिहाद अपने विकृत रूप में सामने आया. नज्त में जन्मे इसी मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब (1703–1792) से चलने वाला सिलसिला आज वहाबी इस्लाम कहलाता है जो सारी दुनिया को आग और खून में डुबो देना चाहता है. मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब के आने से बहुत पहले सूफी सिलसिला मोहब्बत का पैगाम देने और इंसानों को इंसानों से जोड़ने के लिए आ चुका था. इसका प्रसार बहुत तेज़ी से तुर्की, ईरान, अरब, और दक्षिण एशिया में हो चुका था. सूफी सिलसिले से जो कर्मकांड जुड़ गए वह अलग मसला है, मगर हकीक़त है कि सूफी सिलसिले ने इस्लाम को बिल्कुल नया आयाम दे दिया और वह संकीर्णता की जंजीरें तोड़ता हुआ इस्लाम की हदें भी पार कर गया. सल्तनत-ए-उस्मानिया से लेकर फारस और अरब तक सूफी सिलसिलों ने जो दो बेहद महत्त्वपूर्ण काम अंजाम दिए वह थे गुलाम रखने की परंपरा खत्म करना और महिला मुक्ति का द्वार खोलना.

फारस में मौलाना रूमी के अनुयायियों द्वारा मेवलेविया सिलसिले ने तेरहवीं सदी में औरतों के लिए इस सूफ़ी सिलसिले के दरवाज़े न सिर्फ खोले बल्कि उनको बराबर का दर्जा दिया. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सूफियों के संगीतमय वज्दाना नृत्य (सेमा) में पुरुषों और महिलाओं की बराबर की हिस्सेदारी होने लगी. मौलाना रूमी की मुख्य शिष्या फख्रंनिसाँ थी. उनका रुतबा इतना था कि उनके मरने के सात सौ साल बाद मेवलेविया सिलसिले के उस समय के प्रमुख शेख सुलेमान ने अपनी निगरानी में उनका मक़बरा बनवाया. महान सूफी शेख इब्न-अल-अरबी (1165-1240) खुद सूफी खातून फ़ातिमा बिन्त-ए-इब्न-अल-मुथन्ना के शागिर्द थे. शेख इब्न-अल-अरबी ने खुद अपने हाथों से फ़ातिमा बिन्त-ए-इब्न-अल-मुथन्ना के लिए झोपड़ी तैयार की थी जिसमें उन्होंने ज़िंदगी बसर की और वहीँ दम तोड़ा (इब्न-अल-अरबी- सूफिया-ए-अन्दलूसिया: अनुवाद :आर. ऑस्टिन बेशारा प्रकाशन 1988).

मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब ने एक-एक कर के इस्लाम में विकसित होती खूबसूरत और प्रगतिशील परम्पराओं को ध्वस्त करना शुरू किया और उसे इतना संकीर्ण रूप दे दिया कि उसमें किसी तरह की आज़ादी, खुलेपन, सहिष्णुता, और आपसी मेल-जोल की गुंजाइश ही न रहे. कुरान और हदीस से बाहर जो भी है उसको नीस्त-ओ-नाबूद करने का बीड़ा उसने उठाया. अब तक का इस्लाम कई शाखों में बंट चुका था. अहमदिया समुदाय अब्दल-वहाब के काफी बाद उन्नीसवीं सदी में आया लेकिन शिया, हनफ़ी, मलायिकी, सफ़ई, जाफ़रिया, बाक़रिया, बशरिया, खलफ़िया हंबली, ज़ाहिरी, अशरी, मुन्तजिली, मुर्जिया, मतरुदी, इस्माइली, बोहरा जैसी अनेकों आस्थाओं ने इस्लाम के अंदर रहते हुए अपनी अलग पहचान बना ली थी और उनकी पहचान को इस्लामी दायरे में स्वीकृति बाक़ायदा बनी हुई थी. इनके अलावा सूफ़ी मत तो दुनिया भर में फैल ही चुका था और अधिकतर पहचानें सूफ़ी मत से रिश्ता भी बनाये हुए थीं लेकिन मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब की आमद और प्रभाव ने इन सभी पहचानों पर तलवार उठा ली. “मुख़्तसर सीरत-उल-रसूल” नाम से अपनी किताब में खुद मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब ने लिखा “जो किसी क़ब्र, मज़ार के सामने इबादत करे या अल्लाह के अलावा किसी और से रिश्ता रखे वह मुशरिक (एकेश्वरवाद विरोधी) है और हर मुशरिक का खून बहाना और उसकी संपत्ति हड़पना हलाल और जायज़ है.

यहीं से शुरू हुआ मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब का असली जिहाद. जिसने 600 लोगों की एक सेना तैयार की और हर तरफ घोड़े दौड़ा दिए. तमाम तरह की इस्लामी आस्थाओं के लोगों को उसने मौत के घाट उतारना शुरू किया. सिर्फ और सिर्फ अपनी विचारधारा का प्रचार करता रहा और जिसने उसे मानने से इंकार किया उसे मौत मिली और उसकी संपत्ति लूटी गयी. मशहूर इस्लामी विचारक ज़ैद इब्न अल-खत्ताब के मकबरे पर उसने निजी तौर पर हमला किया और खुद उसे गिराया. मज़ारों और सूफी सिलसिले पर हमले का एक नया अध्याय शुरू हुआ. इसी दौरान उसने मोहम्मद इब्ने साँद के साथ समझौता किया. मोहम्मद इब्ने साँद दिरिया का शासक था और धन और सेना दोनों उसके पास थे. दोनों ने मिलकर तलवारों के साथ-साथ आधुनिक असलहों का भी इस्तेमाल शुरू किया. इन दोनों के समझौते से दूर-दराज के इलाकों में पहुंचकर अपनी विचारधारा को थोपना और खुले आम अन्य आस्थाओं को तबाह करना आसान हो गया. अन्य आस्थाओं से जुड़ी तमाम किताबों को जलाना मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब का शौक सा बन गया. इसके साथ ही उसने एक और घिनौना हुक्म जारी किया और वह ये था कि जितनी सूफी मज़ारें, मकबरे या कब्रें हैं उन्हें तोड़कर वहीँ मूत्रालय बनाये जाएँ.

सउदी अरब जो कि घोषित रूप से वहाबी आस्था पर आधारित राष्ट्र है, उसने मोहम्मद इब्न-अब्दल-वहाब की परंपरा को जारी रखा. बात यहाँ तक पहुँच गयी कि 1952 में बुतपरस्ती का नाम देकर उस पूरी कब्रगाह को समतल बना दिया गया जहाँ मोहम्मद के पूरे खानदान और साथियों को दफन किया गया. ऐसा इसलिए किया गया कि लोग ज़ियारत के लिए इन कब्रगाहों पर जाकर मोहम्मद और उनके परिवार को याद करते थे. अक्टूबर 1996 में काबा के एक हिस्से अल्मुकर्रमा को भी इन्हीं कारणों से गिराया गया. काबा के दरवाज़े से पूर्व स्थित अल-मुल्ताज़म जो कि काबा का यमनी हिस्सा है, उसके खूबसूरत पत्थरों को तोड़कर वहाँ प्लाईवुड लगा दिया गया जिससे कि लोग पत्थरों को चूमें नहीं क्योंकि ऐसा करने पर वहाबी इस्लाम के नज़दीक ये मूर्तिपूजा हो जाती है. अभी हाल में “The Independent” की एक रिपोर्ट के अनुसार मक्का के पीछे के हिस्से में जिन खम्भों पर मोहम्मद की ज़िंदगी के महत्वपूर्ण हिस्सों को पत्थरों पर नक्काशी करके दर्ज किया गया था, उन खम्भों को भी गिरा दिया गया. इन खम्भों पर की गयी नक्काशी में एक जगह अरबी में ये भी दर्ज था कि मोहम्मद किस तरह से मेराज (इस्लामी मान्यता के अनुसार मुहम्मद का खुदा से मिलने जाना) पर गए.

वहाबियत इस्लाम के पूरे इतिहास, मान्यताओं, परस्पर सौहार्द और पहचानों के सह-अस्तित्व के साथ खिलवाड़ करता आया है. एक ही पहचान, एक ही तरह के लोग, एक जैसी किताब और नस्ली शुद्धता का नारा हिटलर ने तो बहुत बाद में दिया इसकी बुनियाद तो वहाबियत ने उन्नीसवीं शताब्दी में ही इस्लाम के अंदर रख दी थी. अरब से लेकर दक्षिण एशिया तक वहाबियत ने अपनी इस शुद्धता का तांडव बहुत पहले से दिखाना शुरू कर दिया था लेकिन पिछले कुछ दशकों में इसने अपना घिनौना चेहरा और क्रूर रूप और भी साफ कर दिया. जहाँ एक तरफ मेवलेविया सिलसिले ने तेरहवीं सदी में औरतों के लिए सिलसिले के दरवाज़े न सिर्फ खोले बल्कि उनको बराबर का दर्जा दिया था वहीँ दूसरी तरफ वहाबी इस्लाम ने औरतों को ज़िंदा दफन करना शुरू कर दिया. बेपर्दगी के नाम पर औरतों के चेहरों के हिस्से बदनुमा करने और औरतों पर व्यभिचार का इल्ज़ाम लगा कर उन पर संगसारी करके मार देने को इस्लामी रवायत बना दिया. वहाबियत पर विश्वास न रखने वाले मुसलमानों को इस्लाम के दायरे से ख़ारिज करके उन्हें सरेआम क़त्ल करना जायज़ और हलाल बताया जाने लगा. ये मात्र इस्लाम के अनुयायियों के साथ सलूक की बात है, अन्य धर्मों पर कुफ्र का इल्ज़ाम रखकर उन्हें खत्म करना, संपत्ति लूटना उनकी औरतों को ज़बरदस्ती वहाबियत पर धर्मान्तरण करवाना इनके लिए एक आम बात बन चुकी है. वहाबियत या वहाबी इस्लाम लगातार पूरी दुनिया के लिए खतरा बनता जा रहा है. मौत के इन सौदागरों की करतूत को आमतौर पर इस्लामी आतंकवाद का नाम दिया जाता है जिसकी साजिश वाशिंगटन और लन्दन में रची जाती है और कार्यनीति सउदी अरब से लेकर दक्षिण एशिया तक तैयार की जाती है और अंजाम दी जाती है. अल-कायदा, तालिबान, सिपाह-ए-सहबा, जमात-उद-दावा, अल-खिदमत फाउन्डेशन, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठन इस साजिश को अंजाम देकर लगातार खूनी खेल खेल रहे हैं.

दक्षिण एशिया में वहाबी इस्लाम की जड़ों को मजबूत करने का काम मौलाना मौदूदी ने अंजाम दिया. हकूमत-ए-इलाहिया इसी साजिश का हिस्सा है जिसके तहत गैर वहाबी आस्थाओं को, चाहे वह इस्लाम के अंदर की आस्थाएँ हों या गैर इस्लामी, जड़ से उखाड़ फेंकने और उनकी जगह एक ऐसा निजाम खड़ा करने की साजिश है जिसमें हिटलर जैसा वहाबी परचम लहराया जा सके. मौजूदा संदर्भ में बांग्लादेश इसका ताज़ातरीन उदाहरण है. बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी ने उस देश में बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बी.एन.पी.) के साथ मिलकर पिछले कुछ महीनों में जो खूनी खेल खेला है उसमें न केवल उपरोक्त संगठनों ने भरपूर सहयोग दिया है बल्कि सउदी अरब से इन संगठनों के ज़रिये बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी को भारी मात्रा में धन भी उपलब्ध कराया गया है. किससे छुपा है कि सउदी अरब का हर कदम अमेरिका की जानकारी में उठता है. क्या अमेरिका को इसका इल्म नहीं कि सउदी अरब अपने देश से लेकर पाकिस्तान और बांग्लादेश तक इन संगठनों की तमाम तरह से मदद कर रहा है और इसकी छाया हिंदुस्तान पर भी मंडरा रही है. 14 नवंबर 2011 के इन्डियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार ऑल इंडिया उलेमा एंड मशायख बोर्ड ने दावा किया कि देवबंद, सहारनपुर स्थित दारुल-उलूम की वहाबी विचारधारा के समर्थक और प्रचारक होने के कारण उसे सउदी अरब से मोटी रकम प्राप्त होती है. दारुल-उलूम के प्रबंधन ने सउदी धन पाने का तो खंडन किया लेकिन इस बात का खंडन नहीं किया कि वह वहाबी विचारधारा का पालन करता है. ज़ाहिर है कि इन तमाम संगठनों को ज़ेहनी खुराक दारुल-उलूम देवबंद से ही पहुँचती है. जिन आतंकवादी संगठनों का ज़िक्र यहाँ किया गया आज तक उनमें से किसी संगठन ने दारुल-उलूम देवबंद पर उंगली नहीं उठाई जबकि दारुल-उलूम से कहीं बड़े समर्थकों वाली बरेलवी सुन्नी इस्लाम की विचारधारा पर और उसमें आस्था रखने वालों पर इन संगठनों ने बार-बार हमले किये हैं. पाकिस्तान में शिया, अहमदिया, हिंदू, सिक्ख, ईसाई के साथ-साथ बरेलवी आस्था के मुसलमान भी इन आतंकी संगठनों का निशाना बनते रहे हैं लेकिन अभी तक के इस खूनी खेल के इतिहास में इन संगठनों ने किसी देवबंदी आस्था के संस्थान या व्यक्ति पर कभी हमला नहीं किया बल्कि उन्हें मदद अवश्य पहुंचाते रहे हैं.

आज की वहाबी आस्था के पास केवल तलवार और राइफलें नहीं हैं बल्कि इनके हाथों बेहद खतरनाक आधुनिकतम हथियार लग चुके हैं. इनकी नज़रें पाकिस्तान में मौजूद न्युकिलर हथियारों पर भी हैं. कितनी ही बार शंका जताई जा चुकी है कि यह कतई असंभव नहीं है अगर इन वहाबी आतंकियों के हाथ अत्यंत विध्वंसकरी न्युकिलर हथियार भी आ जाएँ. आस्था जब पागलपन बन जाये तो वह तमाम हदें पार कर सकती है. इस्लाम का वहाबियत रूप पागलपन और हैवानियत के तमाम दायरों को पार कर चुका है. जो लोग ईद के दिन मस्जिदों में घुसकर लाशों के अम्बार लगा सकते हैं वे मौका मिलने पर क्या कुछ नहीं कर गुज़र सकते. वहाबियत का खतरा इस सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. इस खतरे की चपेट में हर वह शख्स है जो इस दरिंदगी के खिलाफ खड़ा है. ज़रूरी हो गया है कि आतंकवाद और वहाबियत के रिश्तों की पड़ताल की जाए, और इस क्रूर, घिनौनी और खतरनाक विचारधारा के खिलाफ मुहिम चले. सवाल उठता है कि यह पहल करे कौन?? जो लोग इस्लाम से बाहर हैं, वे तो कर नहीं सकते... सुधार तो इस्लाम के अनुयायियों को ही करना है... वहाबियत से लड़ाई सरकार नहीं कर सकती, सफाई अन्दर से जरूरी है. 

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