विधानसभा 2017 विश्लेषण (भाग २) : बाजीराव बने मोदी

Written by रविवार, 12 मार्च 2017 21:21

पिछले भाग (यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है) में मैंने पंजाब और गोवा के चुनाव परिणामों का विश्लेषण किया था, क्योंकि वहाँ भाजपा हारी है. जीत का नशा सवार नहीं होना चाहिए, और पहले हमेशा ही हार की तरफ ध्यान देना चाहिए.

इसलिए पिछले लेख में आपको कड़वा करेला परोसने के बाद, इस भाग में पेश है आपके लिए जीत की मिठाई का विश्लेषण...

सामान्यतः भारत की “सत-बहनें” (Seven Sisters) कहे जाने वाले उत्तर-पूर्व के सातों राज्य हमारे दिल्ली स्थित “तथाकथित नेशनल” मीडिया की निगाहों से हमेशा दूर ही रहते हैं. यहाँ तक कि इन सात बहनों में सबसे बड़ा राज्य असम भी दिल्ली के “पत्तल-कारों” को आकर्षित नहीं करता, इसीलिए जब असम में सैकिया सरकार के दौरान बांग्लादेशियों और स्थानीय असमिया लोगों के बीच भीषण दंगे होते हैं तो राजदीप सरदेसाई कहते हैं कि गुजरात “पास” है, और असम “दूर” है, इसलिए असाम के दंगों का कवरेज नहीं किया जाता, केवल गुजरात पर फोकस रखा जाता है. “पत्तल-कारों” तथा भारत की एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रजाति अर्थात “सेकुलर एक्टिविस्ट” की यही सोच मणिपुर के चुनाव परिणामों पर भी दिखाई दी. टीवी पर दिन भर चले घमासान में “कथित चुनाव विश्लेषकों” को मणिपुर की याद इक्का-दुक्का बार ही आई, मणिपुर के नतीजों को भी “समय मिलने पर” ही फ्लैश किया जाता रहा, विभिन्न पैनलों में चर्चा के दौरान मणिपुर का विश्लेषण भी नहीं किया गया. सभी का ध्यान केवल और केवल उत्तरप्रदेश पर ही बना रहा. हालाँकि यूपी के परिणामों के बारे में उत्सुक होना स्वाभाविक है, लेकिन मणिपुर का क्षेत्रफल गोवा से तो ज्यादा ही है, मणिपुर भी भारत का ही एक राज्य है... फिर भी उसके साथ (और उत्तर-पूर्व के बाकी छः राज्यों के साथ) ऐसा भेदभाव करना कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता. ऐसे “कृत्यों” के कारण ही इन राज्यों में अलगाववाद की भावना पनपती है.

इस प्रस्तावना का मकसद यह है कि पिछले साठ वर्षों में इन सातों राज्यों में अधिकांशतः कांग्रेस का ही शासन रहा, कभी खुद के बलबूते या कभी स्थानीय पार्टी से गठबंधन के साथ. उत्तर-पूर्व के इन राज्यों को भी सदैव केंद्र से मदद की आवश्यकता रहती थी, इसलिए यहाँ की जनता और नेताओं ने हमेशा कांग्रेस के साथ बने रहने में ही अपनी और अपने राज्य की भलाई समझी. 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से इस क्षेत्र में बदलाव की बयार बहने लगी. नरेंद्र मोदी ने यह समझा कि जब तक इन सातों राज्यों में विश्वास का वातावरण निर्मित नहीं होगा और ये खुद को देश की मुख्यधारा में शामिल नहीं मानेंगे तब तक इस क्षेत्र का विकास नहीं हो सकेगा. पिछले ढाई वर्ष में प्रधानमंत्री ने उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए केंद्र का खजाना खोल दिया. सड़कों का निर्माण हो, सेना की सप्लाई लाइन बनाना हो, रेलवे नेटवर्क का विस्तार करना हो अथवा अतिरिक्त फण्ड देकर गरीबी दूर करने के प्रयास हों... सभी क़दमों के द्वारा मोदी ने इस क्षेत्र में भाजपा को “एंट्री” दिलवा दी. हालाँकि असम में तो पहले भी भाजपा कहीं-कहीं थोड़ी मजबूत रही है, लेकिन सर्वानंद सोनोवाल के नेतृत्व तथा बांग्लादेशियों के मुद्दे को भुनाकर असम में भाजपा अकेले दम पर पूर्ण सत्ता में आई. इसके बाद तो उत्तर-पूर्व के राज्यों में मानो कमल पसरने लगा. पहले अरुणाचल प्रदेश और अब मणिपुर में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवाते हुए नरेंद्र मोदी ने “कांग्रेस-मुक्त भारत” की तरफ कदमताल जारी रखा है. जी हाँ!!! इतिहास में पहली बार मणिपुर जैसे सुदूर राज्य में भाजपा ने अकेले चुनाव लड़ते हुए 21 सीटें हासिल कीं. स्वाभाविक है कि इबोबी सिंह जैसे हैवीवेट कांग्रेसी के रहते इस राज्य में भाजपा का विस्तार सरल नहीं था, लेकिन कांग्रेस को बहुमत से कुछ दूर रोककर भाजपा ने जबरदस्त सफलता हासिल की है.

मणिपुर में भाजपा की यह 21 सीटें उत्तराखण्ड से भी अधिक प्रभावी मानी जानी चाहिए, क्योंकि वहां तो भाजपा पहले सत्ता में भी रह चुकी है, जबकि मणिपुर उसके लिए “नई जमीन” तैयार करने का मामला था. ऊपर से लगातार सोलह वर्षों के अनशन के बाद इरोम शर्मिला चानू जैसी एक्टिविस्ट भी इस चुनाव में कूद पड़ी थी. ज़ाहिर है भाजपा की राह आसान नहीं थी. फिर भी मणिपुर में भाजपा को जो “मिठाई” मिली है, वह उत्तर-पूर्व के राज्यों में पिछले कई वर्षों की संघ की जमीनी मेहनत और मिशनरी अशांति का नतीजा है. पूर्वोत्तर क्षेत्र को काँग्रेस हाईकमान ने पिछले साठ वर्ष में जिस प्रकार लूटा-खसोटा उसका एक छोटा सा उदाहरण अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने अपने सुसाईड नोट में पेश किया है (यहाँ क्लिक करके पूरा सनसनीखेज सुसाईड नोट डाउनलोड करें). इसे देखते हुए भाजपा की मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश में बढ़त कोई आश्चर्य की बात नहीं है...

irom sharmila 09 1470756987

सबसे अधिक आश्चर्यजनक हार रही सोलह वर्षों से अनशन कर रही इरोम शर्मिला चानू की पार्टी की. इस पार्टी को एक भी सीट मिलना तो दूर, खुद शर्मिला को केवल 90 वोट मिले, जो कि NOTA वोटों से भी कम निकले. जैसा कि सभी जानते हैं शर्मिला एक गैर-वाजिब माँग को लेकर अड़ियल रुख अपनाए हुए थीं. पूर्वोत्तर के इस अशांत इलाके में सेना के पास AFSPA क़ानून जैसा हथियार होना बेहद जरूरी है. इसलिए मणिपुर की स्थानीय जनता की कोई सहानुभूति इरोम शर्मीला के साथ नहीं थी, लेकिन शर्मीला को मोहरा बनाकर सेना पर हमला करने का मौका खोजने वाले वामपंथी और देश-तोड़क बुद्धिजीवी उसे सिर पर बैठाकर रखते थे. विदेशी फंडिंग प्राप्त “एक्टिविस्टों” की इस जमात ने तो इरोम शर्मीला को चुनाव लड़े बिना ही मणिपुर का अगला मुख्यमंत्री घोषित कर दिया था. मजे की बात यह रही कि जब ईरोम शर्मीला पहाड़ों में अपना चुनाव प्रचार कर रही थी, उस समय दिल्ली के एसी कमरों में बैठने वाले बुद्धिजीवी और जंतर-मंतर इत्यादि पर सदा उसके आसपास मँडराने वाले कथित एक्टिविस्ट उसके आसपास भी नज़र नहीं आए. इसी से ज़ाहिर होता है कि ईरोम शर्मीला का यह कथित आंदोलन रेतीली ज़मीन पर खड़ा था, जिसे JNU छाप वामपंथी अपना “विदेशी” खाद-पानी देकर खामख्वाह उसे चने के झाड़ पर चढ़ाए हुए थे. इबोबी सिंह ने चुनाव जीतकर दिखा दिया कि काँग्रेस मणिपुर में ढीली जरूर पड़ी है, लेकिन खत्म नहीं हुई है. फिर भी भाजपा के 21 सीटें जबरदस्त बूस्टर कहा जाएगा.

अब आते हैं उत्तराखण्ड पर. उत्तराखण्ड सामान्यतः हर पाँच वर्ष में सत्ता की अदला-बदली करता रहता है, इसलिए अनुमान तो था ही कि हरीश रावत की बिदाई हो जाएगी. लेकिन यह बिदाई इतनी बुरी होगी कि खुद रावत भी चुनाव न जीत सकें यह किसी ने नहीं सोचा था. उत्तराखण्ड में संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं की कड़ी मेहनत रंग लाई. इसके अलावा हरीश रावत द्वारा बिना माँगे, मुसलमानों को नमाज पढ़ने के लिए अवकाश देने जैसे फूहड़ निर्णय भी शामिल थे. इसके अलावा केदारनाथ त्रासदी के शिकार परिवारों को दर-बदर की ठोकरें खिलाना, मुआवजे की रकम में भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे भी रावत को भारी पड़े. लेकिन भाजपा के सामने असली चुनौती चुनाव के बाद की है, कि मुख्यमंत्री किसे बनाएँ. एक तो वैसे ही उत्तराखण्ड में विजय बहुगुणा जैसों को पार्टी में लाकर भाजपा को “भगवा काँग्रेस” बना दिया गया है, ऐसे में यदि मुख्यमंत्री भी किसी पूर्व काँग्रेसी को ही बना दिया तो समझ लीजिए कि अगली बार उत्तराखण्ड में भाजपा कभी नहीं आएगी. निशंक पहले ही निष्प्रभावी सिद्ध हो चुके हैं, खण्डूरी में अहंकार भरा हुआ है, लेकिन ईमानदार माने जाते हैं, कोश्यारी की प्रशासनिक पकड़ नहीं थी... कुल मिलाकर उत्तराखंड में चुनाव जीतने से ज्यादा कठिन होगा मुख्यमंत्री का चुनाव करना. देखते हैं ऊँट किस करवट बैठता है.

अब भोजन के सबसे अंत में हम आते हैं, भाजपा-संघ और हिंदुत्व के सभी कर्मठ कार्यकर्ताओं की असली और सबसे मधुर “मिठाई” अर्थात उत्तरप्रदेश के परिणामों पर. मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है, कि आज से लगभग एक वर्ष पहले मैं यूपी में भाजपा को पचास से पचहत्तर सीटें ही दे रहा था. उसका कारण भी था, क्योंकि जिस प्रकार भाजपा के 72 सांसद निष्क्रिय बने हुए थे, और अखिलेश सरकार द्वारा दिए जा रहे कई मुद्दों पर उनका ठंडा रुख बना रहता था, कोई आंदोलन नहीं करते थे, मोदी की विकासवादी नीतियों और योजनाओं को प्रभावी तरीके से ना तो लागू कर पाते थे, और ना ही उसका प्रचार कर पाते थे, उसे देखकर-सुनकर कोई भी कह सकता था कि उत्तरप्रदेश के लोकसभा चुनावों में यहाँ की जनता ने “लोकसभा” को ध्यान में रखकर वोट दिया है. सामान्यतः भारत की जनता इतनी समझदार तो होती ही है कि वह लोकसभा के लिए अलग प्रकार से वोटिंग करती है और विधानसभा के लिए अलग पद्धति से. जब यूपी में मोदी सहित भाजपा के 73 सांसद जीते थे उस समय भाजपा को लगभग 42% वोट मिले थे, जो कि अभूतपूर्व थे. सामान्य बुद्धि यह कहती थी कि अगर विधानसभा चुनावों में इस वोट में दस प्रतिशत की भी गिरावट हो जाए, तब भी 32% वोट लेकर भाजपा यूपी में सरकार बना ही लेगी... लेकिन दिल है कि यूपी के जातिवादी इतिहास और मुस्लिम आबादी को लेकर इस गणित को नहीं मानता था. लेकिन मोदी-शाह की घातक जोड़ी के मन में कुछ और ही था. प्रधानमंत्री ने सीधे केन्द्र से ही अपने सूत्र हिलाने शुरू किए. ओमप्रकाश माथुर और रामलाल जी जैसे तपे हुए संघियों को जमीनी सर्वे और संगठन के काम पर लगाया. जातियों के गणित को तोड़ने के फार्मूले पर काम शुरू किया गया. मायावती के मूल वोटर हैं “जाटव”, जबकि अखिलेश के मूल वोटर हैं “यादव”. दूसरी जातियों के मन यह बात लंबे समय से घर की हुई थी कि जब भी सपा का शासन आता है, तब-तब “केवल यादव” ही सारी मलाई खा जाते हैं, और जब भी मायावती का शासन आता है तब केवल “जाटवों” की ही सुनवाई होती है. इस प्रकार गैर-जाटव और गैर-यादव दर्जनों प्रमुख जातियों को गोलबंद करने की रणनीति बनाई गई, ताकि ना तो दलित कार्ड पूरी तरह चले और OBC कार्ड की भी हवा निकाल दी जाए. अखिलेश यादव आधा चुनाव तो उसी समय हार गए थे, जब उन्होंने काँग्रेस को उसकी औकात से तीन गुना सीटें डे दी थीं.

Amit Shah

उधर सपाई खेमे में चाचा-भतीजे आपस में सिर-फुटव्वल किए हुए थे, मायावती को नोटबंदी ने परेशान कर रखा था और इधर मोदी-शाह की जोड़ी चुपचाप यूपी की दूसरी छोटी-छोटी पार्टियों और जातियों को एकत्रित करने में लगी रही. अनुप्रिया पटेल हों या राजभर समुदाय हों सभी के साथ बाकायदा बैठक करके उन्हें समझाया-बुझाया गया. इन पार्टियों से संबद्ध जातियों का एक बड़ा वोट बैंक उत्तरप्रदेश में है, लेकिन बिखरा हुआ था. इस वोट बैंक के टुकड़ों को आपस में जोड़कर पूरी चादर तानी गई और इस चादर से जाटव, यादव और मुस्लिम नामक तीन बड़े वोट बैंक बाहर रखे गए, क्योंकि जैसा पहले बताया गया इन जातियों पर मेहनत करके अधिक फायदा मिलने की संभावना भी नहीं थी. मुज़फ्फरनगर, कैराना की घटनाएँ हिंदुओं को वैसे ही आंदोलित किए हुए थीं, ऊपर से छेड़छाड़ का विरोध करने पर मुस्लिमों द्वारा मारे गए सिंहासन यादव को फूटी कौड़ी नहीं मिलना, लेकिन गौ-हत्यारे अख़लाक़ परिवार को लाखों रूपए एवं फ़्लैट के आवंटन ने हिन्दू मनोमस्तिष्क के अंदर ही अंदर क्रोध खदबदाना शुरू कर दिया था. रमज़ान के मौके पर अधिक बिजली का वितरण... केवल 19% आबादी होने के बावजूद कब्रिस्तानों के लिए करोड़ों रूपए का फंड जारी करना, लेकिन श्मशान के लिए पैसा नहीं देना... खुद मुलायम सिंह द्वारा सरेआम यह बयान देना कि कारसेवकों पर गोली चलाना फख्र का काम था... जैसी बातों से हिन्दूओं को लगने लगा था कि यदि अगली बार अखिलेश सरकार आई तो उनकी खैर नहीं. बस इस भावना को सही समय पर पकड़ने और उभारने की जरूरत थी, जिसमें नरेंद्र मोदी माहिर हैं ही. वैसा ही किया गया. चुनाव के चरण-दर-चरण नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों से विपक्ष को ऐसा खिझाया, कि वह अपशब्दों पर उतर आया. प्रधानमंत्री जैसे पद पर आसीन व्यक्ति को गधा कहा गया, उधर लालू यादव भी अपनी ऊटपटांग भाषा एवं मोदी को अशालीन भाषा में कोसे जा रहे थे, विपक्ष की बौखलाहट बढ़ती जा रही थी. यूपी की जनता चुपचाप सब देख-सुन रही थी. नरेंद्र मोदी की सभाओं में उमड़ती भारी भीड़ एक संकेत तो दे रही थी, लेकिन जब तक परिणाम नहीं आते तब तक कैसे कहा जा सकता था कि उत्तरप्रदेश में “जाति” टूटेगी, “धर्म” की दीवारें गिरेंगी और इतिहास में पहली बार उत्तरप्रदेश में सुनामी नहीं “सु-नमो” आ जाएगी.

Muslim 1

इधर प्रदेश में महीन बुनावट की जा रही थी, और उधर केन्द्र से नरेंद्र मोदी लगातार बमबारी किए जा रहे थे. जिस नोटबंदी को विपक्ष मोदी की सबसे बड़ी असफलता माने बैठा था और चुनावी फसल काटने की फ़िराक में था, वही नोटबंदी उसके गले की फांस कब बन गई उसे पता ही नहीं चला. प्रधानमंत्री के इस कदम को गरीबों ने अमीरों के खिलाफ उठाया गया कदम माना और बैंक की लाईनों में लगने का कष्ट उठाकर भी मुस्कुराते हुए मोदी का साथ दिया. हालाँकि विपक्ष द्वारा जनता को भड़काने की भरपूर कोशिश की गई, लेकिन वे सफल नहीं हुए. मोदी सरकार द्वारा महिलाओं के पक्ष में दो महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए, पहला था “उज्ज्वला योजना”, जिसके अंतर्गत गरीबी रेखा से नीचे की महिलाओं को केवल आधार कार्ड के जरिये मुफ्त गैस कनेक्शन दिया गया, और दूसरा कदम था “तीन तलाक” के मुद्दे पर दुखी मुस्लिम महिलाओं की इच्छा को आवाज़ देना ताकि मुसलमानों के वोटों में विभाजन पैदा हो सके. इन दोनों ही क़दमों का भाजपा को फायदा मिला है. गाँव-गाँव में जिस तरह से गरीब महिलाओं को चूल्हे के धुएँ से मुक्ति मिली, उसने वोटों की एक नई जमीन तैयार की. जबकि तीन तलाक के मुद्दे पर मुल्ले-मौलवी जिस तरह भड़के और मोदी के खिलाफ मीडिया और सोशल मीडिया पर अपशब्दों की बौछार की गई उससे मुस्लिम महिलाओं का कुछ प्रतिशत वोट अपने-आप भाजपा की झोली में आ गिरा. विकास के मुद्दों पर अखिलेश यादव, ना तो नरेंद्र मोदी को असफल सिद्ध कर सके और ना ही उनके बनाए हुए आधे-अधूरे हाईवे जनता को आकर्षित कर सके. बची-खुची कसर गायत्री प्रजापति छाप भ्रष्टाचार ने पूरी कर दी.

लेख को अधिक लंबा न खींचते हुए अंत में कहना चाहूँगा कि उत्तरप्रदेश की यह ऐतिहासिक जीत “केवल और केवल नरेंद्र मोदी की जीत है”. जिस तरह से मोदी ने वन मैन आर्मी तथा वन मैन शो के तहत सारे सूत्र अपने हाथ में रखे, उसके कारण यूपी के क्षेत्रीय क्षत्रपों को अपने-अपने स्वार्थी दाँव चलने का मौका ही नहीं मिला. जिस प्रकार बाजीराव पेशवा ने अकेले दम पर आधे से अधिक भारत को मुगलों से मुक्त करवाते हुए विशाल मराठा साम्राज्य स्थापित किया था, उसी प्रकार पिछले तीन वर्ष में नरेंद्र मोदी ने केन्द्र से लेकर मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड, हरियाणा, असम, उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड में अपने बलबूते तथा कश्मीर में गठबंधन के साथ भारत के बड़े भूभाग पर “भगवा परचम” लहरा दिया है.

अब उत्तरप्रदेश में आगे की राह थोड़ी मुश्किल होने जा रही है. उत्तरप्रदेश की आने वाली भाजपा सरकार को अब हम अभी से दो भागों में बाँट सकते हैं. 2019 के लोकसभा चुनावों तक एक सरकार, और उसके बाद बचे हुए कार्यकाल में 2022 तक की सरकार. जो भी मुख्यमंत्री बनेगा, ज़ाहिर है कि उसे अगले दो वर्ष में भरपूर मदद मिलेगी लेकिन उसे विकास के मूलभूत काम करके दिखाने होंगे. हिंदूवादी समूहों को राम मंदिर बनाने की जल्दबाजी में नहीं पड़ना चाहिए, भले ही विपक्षी कितना भी शब्दजाल फेकें. 2019 में मोदी के केन्द्र में दूसरी बार सत्तारूढ़ होने तक राम मंदिर या समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों पर ताबड़तोड़ काम करने अथवा चिल्लाचोट की जरूरत नहीं है. सबसे पहले जरूरी है उत्तरप्रदेश की क़ानून-व्यवस्था को मजबूत करना, सड़कों का जाल बिछाना, बिजली की उपलब्धता सुनिश्चित करना तथा चोरी रोकना एवं विभिन्न जाति समूहों को एक साथ लेकर उनके रोजगार की अधिकाधिक व्यवस्था करना, शकर मिलों और किसानों को राहत पहुँचाना... यदि आगामी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की मदद से अगले दो वर्ष में इन सारे कार्यों को प्राथमिकता से निपटाए तो 2019 में उत्तरप्रदेश पुनः भाजपा को लोकसभा की कम से कम 70 सीटें देगा, तब तक कई विपक्षी राज्यसभा सीटें खाली होकर वहाँ भी भाजपा लगभग बहुमत तक पहुँच ही जाएगी. उससे पहले इधर भाजपा का कोई व्यक्ति राष्ट्रपति बन चुका होगा... बस फिर क्या है, 2019 से 2022 के बीच जय-जय सियाराम... हुड-हुड दबंग दबंग दबंग दबंग.... हुड-हुड....

Read 6814 times Last modified on रविवार, 12 मार्च 2017 21:42