आईये अब हम तथ्य और तर्क देखते हैं... तेलंगाना सरकार द्वारा जारी 2015 में जारी एक अध्यादेश के अनुसार ही यह सारी कार्यवाही संपन्न हुई है. प्रगतिशील (कथित) दुर्बुद्धिजीवियों का कथन है कि तेलंगाना सरकार को इस प्रकार की धार्मिक “खैरात” नहीं देनी चाहिए, उसका स्पष्ट और ठोस जवाब यही है कि अव्वल तो यह कोई खैरात अथवा सहायता नहीं है... यहाँ तक कि ये पाँच करोड़ के गहने कोई दान भी नहीं है. क्योंकि वास्तव में यह गहने और पाँच करोड़ रूपए तेलंगाना सरकार ने इसी मंदिर से कमाए हैं (कमाए तो इससे कई गुना हैं), क्योंकि मंदिरों की आय, दान और संपत्ति पर राज्य सरकारों का नियंत्रण है. यदि धूर्त प्रगतिशील गिरोह ने “हिन्दू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एन्दाव्मेंट क़ानून पढ़ा होता तो उन्हें यह जानकारी होनी चाहिए थी, कि मंदिर से होने वाली समस्त आय पर केवल शासन का अधिकार है. मंदिरों की संपत्ति और दान को प्रशासन से मुक्त करवाने के लिए लम्बे समय से आन्दोलन चल रहा है. इसलिए ये सेकुलर बुद्धिजीवी इस मुगालते में ना रहें कि तिरुपति में दान किए गए पाँच करोड़ रूपए कोई “सार्वजनिक संपत्ति” या “राज्य सरकार की खैरात” है. यह पाँच करोड़ रूपए इसी मंदिर में आने वाले हिन्दुओं की जेब से निकले हुए हैं, जिसका एक बेहद मामूली सा अंश ही पाँच करोड़ के गहनों के रूप में वापस किया गया है.... ना तो ये कोई अहसान है और ना ही दान है. यदि वास्तव में सरकारों या कथित प्रगतिशीलों में दम है और वे मंदिर या हिन्दुओं की आर्थिक ताकत को देखना ही चाहते हैं तो भारत के सभी मंदिरों को प्रशासन के नियंत्रण से मुक्त कर दें. जिस प्रकार सरकारों का नियंत्रण चर्च अथवा मस्जिदों पर नहीं होता है, वैसा ही मंदिरों के बारे में भी किया जाए. हिन्दू यह लिखकर देने को तैयार हो जाएँगे कि मंदिर में आने वाले पैसों, दान और संपत्ति से ही न सिर्फ वे अपना पूरा खर्च निकाल लेंगे, अपितु मंदिरों के विकास एवं सौन्दर्यीकरण के लिए सरकार से एक फूटी कौड़ी भी नहीं मांगेंगे. लेकिन चूंकि ऐसा करने से सरकारों के खजाने में मंदिरों में आने वाली मोटी आय बंद हो जाएगी, इसके अलावा विभिन्न मंदिर ट्रस्टों में घुसे बैठे राजनीतिज्ञ और हिंदूवादी नेताओं की मिलीभगत से मंदिरों का पैसा गैर-धार्मिक कार्यों अथवा हज सब्सिडी की खैरात के लिए भी नहीं मिल पाएगा, इसलिए “प्रगतिशीलता” चुप्पी साध लेती है.
अब यह भी समझ लीजिए कि सरकारी पैसों से दी जाने वाली खैरात, दान या सहायता किसे कहते हैं?? कम अक्ल वाले तथा मतिभ्रंश के शिकार सेकुलरों-वामियों को शायद यह याद नहीं होगा कि 2015 में तेलंगाना में ऊबर टैक्सी के धंधे में हुए नुक्सान की वजह से एक मुस्लिम टैक्सी ड्रायवर ने आत्महत्या कर ली थी. मुस्लिम की आत्महत्या (अथवा हत्या) साधारण नहीं होती, इसे भी राजनैतिक या धार्मिक रंग देने तथा “सरकारी खैरात” झटकने की वामपंथी अदा बहुत पुरानी है. इस आत्महत्या के बाद “मासूम” मुस्लिम प्रेमी तेलंगाना सरकार ने घोषणा की कि “गैर-हिन्दू” टैक्सी ड्रायवरों को सरकार आर्थिक सहायता देगी. केवल एक यही एक पंक्ति सेकुलरों के बखिये उधेड़ने के लिए पर्याप्त है कि वास्तव में सहायता, खैरात या दान किसे कहा जाता है. क्या उबर कंपनी से संबंद्ध सभी हिन्दू टैक्सी ड्रायवर अमीर हैं?? राज्य सरकार “हिन्दू दलितों और अनुसूचित जाती/जनजाति” के लोगों को अपने विवेकाधीन कोटे से कोई आर्थिक सहायता दे सकती है, लेकिन संविधान के अनुसार “धार्मिक आधार पर” मुस्लिम टैक्स ड्रायवरों को आर्थिक सहायता नहीं दे सकती. लेकिन चूंकि उस समय मामला प्रगतिशीलों के प्रिय मुस्लिमों का था, इसलिए उनके मुंह में दही जमा हुआ था, और अब हमारे ही मंदिरों से कमाए हुए पैसों से हमारे ही मंदिर को दिए गए चिड़िया के चुग्गे बराबर पाँच करोड़ के गहनों में इन बुद्धिजीवियों को “सरकारी अपव्यय” नज़र आ रहा है??
कितने बेशर्म हो सेकुलर भाई?? हिम्मत हो तो मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करो, फिर देखो कि हम कैसे “खैरात” बाँटते हैं और “हमारे” मंदिरों को चकाचक रखते हैं.