टेंशन पॉइंट :- व्यवस्था से लड़ने का सरल और प्रभावी तरीका

Written by गुरुवार, 24 मई 2018 07:35

बात सन 2005 की है, मुझे पांच छः साल बेसब्र प्रतीक्षा के बाद लैंडलाइन फोन का कनेक्शन मिला था तब तक उत्तराखंड के पहाड़ में मोबाइल फोन नहीं थे, इंटरनेट डाटा तो पूरे देश में दूर की बात थी हम पहाड़ में ब्रॉडबैंड ईमेल आदि भी नहीं जानते थे.

दूरसंचार का एकमात्र माध्यम लैंडलाइन फोन होता था. मुझे पांच छः साल टेलीफोन विभाग ने जो प्रतीक्षा करवाई, उससे नाराजगी तो होती थी परन्तु अपने में ही घुट कर रह जाता था. मेरे बाद आवेदन करने वालों को फोन मिल जाता था, लेकिन मुझे आश्वासन दे दिया जाता था कि बस भवन बदलने वाला है जिसमे कई मशीनें लगने वाली हैं सबको कनेक्शन मिल जायेगा. मैं सबर का घूँट भर करके फिर इंतजार में चुप बैठ जाता था. बाद में पता चला कि बिना टेलीफोन कर्मचारियों की “सेवा सुश्रुषा” किये ये बहाने ही लगाते रहते थे, पर भवन बदलने का बहाना इनका सहायक था.

खैर ऐसे में जब मुझे फोन का कनेक्शन मिला तो बहुत ख़ुशी हुयी. दिन में विभाग के कर्मचारी आये कनैक्शन लगा गए, मैंने भी ख़ुशी में अपने सभी जान पहचान वाले और रिश्तेदारों को फोन कर-कर के नंबर बता दिया और शाम को दुकान बंद करके घर चला गया. सुबह दुकान खोलते ही सबसे पहले फोन को कान पर लगाया और देखा तो फोन डेड है! सुनने में आ रहा था कि फोन ठीक करने के लिए मिठाई के डब्बे के साथ दो सौ रूपये देने का रिवाज था. लेकिन विभाग के एसडीओ से लेकर लाइनमैंन कर्मचारी तक का अपने साथ शिष्ट व अच्छा व्यवहार देख कर मुझे विश्वास नहीं होता था. वैसे भी जो लोग कनेक्शन लगाने आये थे उनकी आवभगत मैंने मिठाई ठंडा इत्यादि खिला पिलाकर की थी, केवल नकद नहीं दिया था... न उन्होंने कोई इशारा या मांग किया था (मेरे पूछने के बावजूद भी). कुछ लोगों के अनुभव भी पता लगे वो भी भरे बैठे थे पर क्या कर सकते थे...! लगभग साढ़े दस बजे (हिचक के कारण आधा घंटा देरी से) मैं सीधे साहब (SDO) के पास पहुँच गया. साहब को बोला कि कल ऐसा ऐसा हो गया है कृपया उसे दिखवा दो तो जो साहब कभी आओ बैठो कहकर बात करते थे, वो बड़े रूखे से शब्दों में बोले एक अप्लिकेशन लिख के ले आओ, फिर मैं देखूंगा ऐसे तो नहीं होगा. मेरा माथा ठनक तो गया लेकिन कर भी कुछ नहीं सकता नियम है तो है.

तुरंत एक एप्लीकेशन लिखी गयी और दे आया... शाम तक कोई नहीं आया, मैं घर चला गया. दूसरे दिन फिर गया तो साहब बोले यही एक काम थोड़े ही है! दिखवा दूंगा, हो जायेगा सोमवार तक... यानी चार पांच दिन और इंतजार! मैं परेशान वो लोग क्या कह रहे होंगे जो फोन कर रहे होंगे इतना जरूर हुआ कि इनकमिंग होने लगी थी... खैर मैंने कई स्थानीय नेताओं प्रभावशाली व्यक्तियों से बात करी, पत्रकारों को भी कहा पर कोई भी कुछ न कर सकने की स्थिति बयान कर दे. लेकिन कुछ नहीं हुआ. ये सब करते कराते सोचते, विचारते, गुस्सा करते शुक्रवार आ गया और मेरा दिमाग भन्ना गया. अब इस विभाग के सभी कर्मचारियों अधिकारीयों को ऐसा पाठ पढ़ाने को मन करने लगा, कि ये कर भी कुछ न पायें और बाजार में निकलने में शर्म महसूस करें तब मेरा पहला “टेंशन पॉइंट” पैदा हुआ (हालाँकि तब इसका नाम नहीं रखा था).

 

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अगले ही दिन बहुत तनाव और अपमानित सा अनुभव करते हुए मैंने एक बड़े पोस्टर पर उस विभाग व अधिकारी कर्मचारियों का व्यवहार व्यंग्य करते हुए लिखकर अपनी दुकान के बाहर लगा दिया! बस फिर क्या था.... सोमवार आते-आते तो खलबली मच गयी.... उस कार्यालय के नजदीकी चाय दुकान वाले से मालूम हुआ कि टेलीफोन विभाग के लाइनमैंन कह रहे हैं शंकरदत्त फुलारा ने तो हमारा बाजार में निकलना मुश्किल कर दिया है. एसडीओ ने दो चक्कर पैदल चलकर (चलते चलते) उस पोस्टर का अवलोकन किया, वर्ना वह बिना गाड़ी के कभी बाजार में नहीं दिखता था. देखते ही देखते मेरा फोन सोमवार लगभग बारह बजे तक ठीक हो गया, तथा उनके कार्यालय से फोन भी आ गया, कि आपका फोन ठीक हो गया है. अर्थात कार्यवाही हुई और मेरे हाथ एक नया हथियार लग गया... जो जल्दी ही मेरा शौक बन गया. इसी का नाम मैंने टेंशन पॉइंट रखा. हालाँकि ये प्रयोग, शुरू तो मेरी अपनी समस्या के लिए हुआ था, पर बाद में इसमें क्षेत्रीय समस्याएं, भ्रष्टाचार, बुराइयों आदि अन्य बहुत से विषयों पर लिखा गया, तथा यह अभी भी जारी है.

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“टेंशन पॉइंट” (अर्थात किसी प्रमुख चौराहे पर लगा एक ऐसा बोर्ड, जो व्यवस्था पर, प्रशासन पर व्यंग्य करे). इस बोर्ड पर छोटे छोटे व्यंग्य, कटाक्ष, तीखे वाक्य, दोहरे अर्थ वाले तंज, कभी खिल्ली उड़ाने वाले वाक्यों से मनोरंजन के लिए.... कभी किसी बुराई के विरोध में... कभी भ्रष्टाचार पर चोट के लिए अपनी बात को आम जनता तक पहुँचाने का जरिया है. संवैधानिक अधिकारों में अभिव्यक्ति की आजादी हमें मिली हुई है. यह कह सकते हैं कि यह भी पत्रकारिता का एक स्वरूप है, जिसमें बिना पत्रकारिता पढ़े पत्रकारिता हो जाती है. (थोड़ा सा सावधान रहना पड़ता है बस).

टेंशन प्वाइंट का थोड़ा और परिचय ऐसा है कि, यह एक डेढ़ दो फुट का लम्बा चौड़ा डिस्प्ले बोर्ड (प्लाई कार्डबोर्ड, लकड़ी का या कैसा भी) होता है. यह बोर्ड यहाँ बाजार के मुख्य स्थान पर एक पोल से बंधा है, जिस पर अपने विचार प्रदर्शित किये जाते हैं मैंने इसका लक्ष्य वाक्य रखा है “टेंशन लेने का नहीं लल्लू ....देने का”. अर्थात! टेंशन लो मत, बल्कि दो! बस उसके लिए आपकी भाषा ऐसी होनी चाहिए कि लोग मजे से पढ़ें, और स्वयं भी व्यंग्य मारें! और जिसके लिए लिखी है उसे तीर जैसी चुभे, पर वो आपके विरुद्ध कर कुछ न पाए, और दिल में गहरे तक उतरे. जरुरी नहीं कि हमेशा किसी के विरोध में ही लिखो, बल्कि जागरूकता और मनोरंजन के लिए भी लिखा जा सकता है.... जैसे एक बार मैंने इसकी रोचकता बनाये रखने के लिए लिखा...

बहुत बुरी चीज है दारु;
सरकार बताती है!
पर अपने ठेकों पर
खुद बिकवाती है!
इसकी दादागिरी वाला
कानून देखो
कोई और बेचे तो
गैर क़ानूनी बता कर
जेल भिजवाती है|

 

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इसमें सरकारी कानून के दोगलेपन को उजागर किया गया कि जो काम आम आदमी के लिए गलत है वह सरकार के लिए सही क्यों? बस जी, जो लोग शराब विरोधी मुहिम चलाते थे, वह बहुत खुश हुए मुझे दूकान के अन्दर आकर धन्यवाद कहते. ऐसे ही एक बार पता लगा पुलिस ने होटलों में छापा मार कर शराब पीते हुए लोग पकड़ लिए, मेरे लिए यह भी मनोरंजन करने का “टेंशन पॉइंट” बन गया. मैंने लिखा :- शराबियों के लिए मुसीबत! 

“घर में बीबी बच्चे नहीं पीने देते

होटल में पुलिस!
कार्यालयों में मंत्री छापे मार देते हैं
तो क्या रास्ता चलते चलते पीयें
क्या करें समझ न आये कि
सरकार दारु क्यों बिकवाये”|

अभी तक मेरे द्वारा हजारों टेंशन प्वाइंट लिखे जा चुके हैं इसमें सभी प्रकार के हैं भ्रष्टाचार पर , प्रशासनिक लेटलतीफी पर, सामाजिक-सांस्कृतिक कुरीतियों पर, घरेलु और व्यक्तिगत बुराइयों पर, महंगाई पर राष्ट्रिय अंतर्राष्ट्रीय और मौहल्ले तक की घटनाओं पर.... शायद ही कोई क्षेत्र छूटा हो! हालाँकि कभी कभी इसके वाक्य लम्बे होते हैं, लेकिन धीरे-धीरे कम शब्दों में बात कहने की कला में निखार आता गया जिससे इसकी लोकप्रियता बढती गयी. जब से मोबाइल में कैमरे होने लगे तब से कुछ के फोटो लेने लगा. पहले के कुछ टेंशन पॉइंट संभाल रखे थे, वह भी संकलित हैं लेकिन बहुत से ख़राब हो गए या फोटो नहीं खींच पाया. शुरू में किसी बड़े चार्ट पेपर पर हाथ से पेंटिंग ब्रश द्वारा लिखकर चिपकाना पड़ता था, ताकि लोगों का ध्यान आकर्षित हो. अब सबको पता है इसलिए अपेक्षाकृत छोटे रंगीन पेपर पर कंप्यूटर से प्रिंट निकालकर चिपका दिया जाता है. मेरा मानना है कि बुराइयों और अन्याय से डर कर रहना मनुष्यता नहीं है, अगर आप शिक्षित (उच्च शिक्षित न भी हों) हैं तो आपके पास विरोध का कोई न कोई तरीका ऐसा होना चाहिए कि आपकी बात का प्रभाव अच्छे समाज पर और गलत लोगों पर अलग से दिखे. जो लोग मुझसे मिलकर इसकी तारीफ़ करते हैं, अपेक्षा करते हैं और तब तो और भी आनंद आता है जब कोई चालाक सा ग्रामीण किसी कार्यालय में अपना काम न करने पर टेंशन प्वाइंट या मेरा हवाला देकर काम करवा लेता है... तब मुझे लगता है कि कुछ तो हलचल होती ही है.

इस कार्य में एक सुविधा है कि जब मन करे तब “टेंशन पॉइंट” लिखो. जब समय नहीं है या मन नहीं है तो कोई बात नहीं. एक टेंशन पॉइंट दो-चार-छः-दस दिन तक भी लगा रहता है केवल स्थानीय लोग ही नहीं, बस स्टैंड पर है तो दूरदराज के आने जाने वाले भी पढ़ते हैं, और बस में बैठ कर चर्चा करते हैं. टेंशन पॉइंट की अभी तक इस यात्रा में दो तीन बार ही ऐसा हुआ है कि प्रतिपक्ष नाराज होकर पुलिस से लेकर एसडीएम् के पास तक पहुंचा, पर चूँकि मैं अपनी जगह पर सही था तो वह भी कुछ नहीं कह पाए न कुछ कर पाए, जिससे मेरे विरोधियों में इसकी और मेरी प्रतिष्ठा बढ़ गयी.

मेरा आपसे अनुरोध है कि आप भी अपने-अपने क्षेत्र में इसी प्रकार की छोटी पहल आरम्भ करें. प्रमुख चौराहों पर अपने-अपने दिमाग से हास्य-व्यंग्य शैली में प्रशासन के कान खींचते हुए टेंशन पॉइंट पोस्टर लगाएँ, इसका निश्चित असर होता है... करके देखिये, अच्छा लगता है.

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