शुक्रवार आठ अगस्त.... इस बार सावन का महीना ‘पुरषोत्तम (मल) मास’हैं. इसकी आज छठी तिथि हैं, षष्ठी. गांधीजी की ट्रेन पटना के पास पहुंच रही है. सुबह के पौने छः बजने वाले हैं. सूर्योदय बस अभी हुआ ही है. गांधीजी खिड़की के पास बैठे हैं. उस खिड़की से हलके बादलों से आच्छादित आसमान में पसरी हुई गुलाबी छटा बेहद रमणीय दिखाई दे रही है. ट्रेन की खिड़की से प्रसन्न करने वाली ठण्डी हवा आ रही है. हालांकि उस हवा के साथ ही इंजन से निकलने वाले कोयले के कण भी अंदर आ रहे हैं, लेकिन कुल मिलाकर वातावरण आल्हाददायक है, उत्साहपूर्ण है. (पिछले भाग.. यानी ७ अगस्त १९४७ वाला लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें).

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गुरुवार. ७ अगस्त. देश भर के अनेक समाचारपत्रों में कल गांधीजी द्वारा भारत के राष्ट्रध्वज के बारे में लाहौर में दिए गए वक्तव्य को अच्छी खासी प्रसिद्धि मिली है. मुम्बई के ‘टाईम्स’में इस बारे में विशेष समाचार है, जबकि दिल्ली के ‘हिन्दुस्तान’ में भी इसे पहले पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है. कलकत्ता के ‘स्टेट्समैन’ अखबार में भी यह खबर है, साथ ही मद्रास के ‘द हिन्दू’ ने भी इस प्रकाशित किया है.

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शुक्रवार, 03 अगस्त 2018 12:54

वे पंद्रह दिन :- ६ अगस्त, १९४७

बुधवार... छः अगस्त. हमेशा की तरह गांधीजी तड़के ही उठ गए थे. बाहर अभी अंधेरा था. ‘वाह’ के शरणार्थी शिविर के निकट ही गांधीजी का पड़ाव भी था. वैसे तो ‘वाह’ कोई बड़ा शहर नहीं था, एक छोटा सा गांव ही था. परन्तु अंग्रेजों ने वहां पर अपना सैनिक ठिकाना तैयार किया हुआ था. इसीलिए ‘वाह’ का अपना महत्व था.

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शुक्रवार, 03 अगस्त 2018 12:17

वे पंद्रह दिन :- ५ अगस्त, १९४७

आज अगस्त महीने की पांच तारीख... आकाश में बादल छाये हुये थे, लेकिन फिर भी थोड़ी ठण्ड महसूस हो रही थी. जम्मू से लाहौर जाते समय रावलपिन्डी का रास्ता अच्छा था, इसीलिए गांधीजी का काफिला पिण्डी मार्ग से लाहौर की तरफ जा रहा था. 

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आज चार अगस्त... सोमवार. दिल्ली में वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन की दिनचर्या, रोज के मुकाबले जरा जल्दी प्रारम्भ हुई. दिल्ली का वातावरण उमस भरा था, बादल घिरे हुए थे, लेकिन बारिश नहीं हो रही थी. कुल मिलाकर पूरा वातावरण निराशाजनक और एक बेचैनी से भरा था. वास्तव में देखा जाए तो सारी जिम्मेदारियों से मुक्त होने के लिए माउंटबेटन के सामने अभी ग्यारह रातें और बाकी थीं. हालांकि उसके बाद भी वे भारत में ही रहने वाले थे, भारत के पहले ‘गवर्नर जनरल’ के रूप में. लेकिन उस पद पर कोई खास जिम्मेदारी नहीं रहने वाली थी, क्योंकि १५ अगस्त के बाद तो सब कुछ भारतीय नेताओं के कंधे पर आने वाला ही था. (पिछले भाग... यानी ३ अगस्त १९४७ को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें).... अब आगे पढ़िए...

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बुधवार, 01 अगस्त 2018 11:27

वे पंद्रह दिन :- ३ अगस्त, १९४७

आज के दिन गांधीजी की महाराजा हरिसिंह से भेंट होना तय थी. इस सन्दर्भ का एक औपचारिक पत्र कश्मीर रियासत के दीवान, रामचंद्र काक ने गांधीजी के श्रीनगर में आगमन वाले दिन ही दे दिया था. आज ३ अगस्त की सुबह भी गांधीजी के लिए हमेशा की तरह ही थी. अगस्त का महीना होने के बावजूद किशोरीलाल सेठी के घर अच्छी खासी ठण्ड थी. अपनी नियमित दिनचर्या के अनुसार गांधीजी मुंह अंधेरे ही उठ गए थे. उनकी नातिन ‘मनु’ तो मानो उनकी परछाईं समान ही थी. इस कारण जैसे ही गांधीजी उठे, वह भी जाग गयी थी. 

(पिछले भाग... यानी २ अगस्त १९४७ को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें....)

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(इस लेखमाला का पहला भाग... यानी १ अगस्त १९४७ को पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें...) अब आगे पढ़िए... 

१७, यॉर्क रोड.... इस पते पर स्थित मकान, अब केवल दिल्ली के निवासियों के लिए ही नहीं, पूरे भारत देश के लिए महत्त्वपूर्ण बन चुका था. असल में यह बंगला पिछले कुछ वर्षों से पंडित जवाहरलाल नेहरू का निवास स्थान था. भारत के ‘मनोनीत’प्रधानमंत्री का निवास स्थान. और इस उपनाम या पद में से ‘मनोनीत’ शब्द मात्र तेरह दिनों में समाप्त होने वाला था. क्योंकि १५ अगस्त से जवाहरलाल नेहरू स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार का आरम्भ करने जा रहे थे.

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शुक्रवार, १ अगस्त १९४७. यह दिन अचानक ही महत्त्वपूर्ण बन गया. इस दिन कश्मीर के सम्बन्ध में दो प्रमुख घटनाएं घटीं, जो आगे चलकर बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होने वाली थीं. इन दोनों घटनाओं का आपस में वैसे तो कोई सम्बन्ध नहीं था, परन्तु आगे होने वाले रामायण-महाभारत में इनका स्थान आवश्यक होने वाला था.

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यदि मैं आपसे पूछूँ कि दूसरे विश्वयुद्ध में किसी एक सैनिक द्वारा शत्रुओं के सर्वाधिक सैनिकों का वध (Individual Killing) करने वाला सैनिक किस देश की सेना का था? और उस सैनिक ने शत्रु देश के कितने सैनिक मारे? तो शायद आप सोच में पड़ जाएंगे... आप उस विश्वयुद्ध की कल्पना करके उस सैनिक के देश का नाम इंग्लैण्ड, रूस, जापान, इटली, जर्मनी, अमेरिका वगैरह बताने की कोशिश करेंगे... लेकिन इसमें से एक भी जवाब सही नहीं है.... तो फिर कौन?? यह सैनिक था फिनलैंड की तरफ से लड़ने वाला सिमो हेहा... और क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इस सैनिक ने शत्रुओं के कितने सैनिक “अकेले” मारे होंगे? इस सैनिक ने दस-बीस या सौ नहीं... बल्कि पूरे 511 सैनिकों को मारा, और वह भी फिनलैंड पर आक्रमण करने वाली रूस की लाल सेना के सैनिकों को. 

Simo Heha

 

हैरान हो गए ना?? अब इस सिमो हेहा का पराक्रम जानने से पहले थोड़ा सा इतिहास जान लीजिए. इसका जन्म 1905 के आसपास फिनलैंड-रूस की सीमा पर एक किसान परिवार में हुआ. १९२५ में उसने अपनी सैन्य शिक्षा पूर्ण के और फीनिश सिविल गार्ड नामक सेना में उसकी भर्ती कारपोरल के रूप में हुई. सिमो को बंदूकें विशेष रूप से पसंद थीं. इसमें भी अपने प्रशिक्षण के दौरान उसने निशानेबाजी को वरीयता दी. इसके पास एकदम शुरुआती दौर में रूस निर्मित मोसिन-नाजनट M-91 बन्दूक थी. लेकिन निशानेबाजी में उसकी रूचि को देखते हुए सेना ने उसे थोड़ी अच्छे किस्म की M-28/30 बन्दूक और सुओमी सब-मशीनगन दी गयी. फीनिश सिविल गार्ड के आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार उन दिनों सिमो 500 फुट दूर स्थित किसी भी लक्ष्य को एक मिनट में सोलह बार अचूक निशाना साध सकता था. अब आप सोच लीजिए कि उसका निशाना कितना सटीक होगा. खासकर आपको यह बात ध्यान में रखना है कि 1930 के आसपास रायफलें, बंदूकें बहुत भारी होती थीं और इतनी अत्याधुनिक भी नहीं थीं जितनी आज हैं... फिर भी सिमो हेहा ने अपनी जबरदस्त निशानेबाजी से सभी को प्रभावित किया.

1939 के नवम्बर में रूस की रेड आर्मी ने फिनलैंड पर हमला किया. निशानेबाज सिमो को भी युद्ध में लड़ने के लिए मुख्य सेना में भर्ती होने का आदेश दिया गया. मेजर जनरल उइल्युओ ट्युओम्पो की कमांड में फ़िनलैंड की कोला नदी के पास JR-34 यूनिट की छठवीं कम्पनी में सिमो की नियुक्ति हो गयी. उस समय फिनलैंड पर रूस की नौवीं और चौदहवीं आर्मी ने हमला किया था. इस प्रकार रूस की कुल बारह डिविजन अर्थात लगभग 1,60,000 सैनिकों के खिलाफ सिमो की छोटी सी यूनिट लड़ रही थी (एक मोर्चा तो ऐसा था, जिसमें 4000 रूसी सैनिकों के खिलाफ केवल 32 फीनिश सैनिक ही थे). रूस की सैन्य संख्या भले ही बहुत ज्यादा हो, परन्तु उनमें आपस में तालमेल नहीं था. फिनलैंड में पड़ने वाली बर्फबारी और कड़ाके के ठण्ड हेतु वे तैयार भी नहीं थे. 1939 में फिनलैंड में तापमान माईनस चालीस तक पहुँच चुका था. रूसी सेना के खिलाफ फिनलैंड के सैनिकों ने “छापामार युद्ध” की शैली अपनाई (जैसा कि हमेशा ही होता है, जब लड़ने वाले सैनिकों की संख्या कम हो और शत्रुओं की संख्या ज्यादा हो, तो छापामार युद्ध ही करना पड़ता है). रूसी सेना सामान्यतः मुख्य रास्तों से आकर आक्रमण करती थी. फीनिश सैनिक बर्फ में छिपकर उनकी गतिविधियाँ देखते रहते और फिर उचित समय पाते ही पीछे से घेरकर उन पर हमला बोलते और पुनः बर्फ और जंगलों में गायब हो जाते. इन सब के बीच सिमो हेहा जैसे अचूक निशानेबाज की गोलीबारी ने भी रूस की सेना को त्रस्त कर दिया था.

सिमो की युद्ध पद्धति एकदम अलग थी. वह अकेला बर्फ के ढेर में सफ़ेद कपड़े पहनकर छिपा रहता था. मुँह पर सफ़ेद कपड़ा... केवल एक दिन की खाद्य सामग्री और उसकी बन्दूक/गोलियाँ लेकर ही वह हेडक्वार्टर से निकलता था. बर्फीले ढेर में छिपे होने के बाद जब भी आसपास 500 फुट तक कोई रूसी सैनिक दिखता तो वह तत्काल ढेर हो जाता था. सिमो का काम कितना मुश्किल था यह इस बात से समझा जा सकता है कि वह रूसी सैनिकों पर निशानेबाजी के समय दूरबीन का उपयोग भी नहीं करता था, क्यों?? क्योंकि दूरबीन के काँच से सूर्यकिरण परावर्तित होकर शत्रु कहीं उसका ठिकाना न जान ले. इसी प्रकार बर्फ में छिपे बैठे होने के दौरान श्वासोच्छ्वास की गतिविधि के कारण नाक और मुँह से निकलने वाली भाप से उसकी सही पोजीशन रूसी सेना को पता न चल जाए, इसलिए उसने एक अकल्पनीय देशी पद्धति अपना रखी थी. निशाना लगाते समय यह व्यक्ति अपने मुँह में बर्फ के गोले भर लेता था... अब सोचिये माईनस चालीस के हड्डी जमा देने वाले तापमान में ऐसी हरकत, केवल इसलिए कि मुँह-नाक से निकलने वाली भाप दूर से दिखाई न दे जाए.

रूसी सेना के साथ फिनलैंड का यह युद्ध सौ दिनों तक चला. इन सौ दिनों में सिमो ने बर्फ में छिपे-छिपे रूस के 500 से अधिक सैनिक एक-एक कर मार गिराए. सिमो की निशानेबाजी से रूस कितना आतंकित था, यह इसी बात से स्पष्ट होता है कि रूसी सेना ने इसका नाम “व्हाईट डेथ” रखा था. 6 मार्च 1940 को रूसी सेना के एक स्नाईपर ने इसकी पोजीशन पकड़ ली और उसकी गोली सिमो के जबड़े को चीरती हुई निकल गयी. सिमो ग्यारह दिनों तक कोमा में था. जिस दिन सिमो कोमा से बाहर निकला उसी दिन रूस ने युद्धविराम के घोषणा कर दी. युद्ध में दिखाई गयी इस जबरदस्त बहादुरी के लिए सिमो को अनेक पुरस्कार मिले. उसे कारपोरल से सीधे लेफ्टिनेंट के रूप से प्रमोशन भी दिया गया. फिनलैंड के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था. जबड़े में लगी गोली और बड़े से ज़ख्म और कोमा में जाने के बावजूद सिमो फिर से पूरी तरह ठीक हुआ. ऑपरेशन के कारण उसका चेहरा विद्रूप हो गया था, लेकिन उससे उसे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता था. एक शानदार निशानेबाज सिमो कुल 96 वर्षों तक जीवित रहा.

रूसी सेना ने इन सौ दिनों की लड़ाई में फिनलैंड का केवल 22,000 स्क्वेयर मील इलाका ही जीता. लेकिन इस युद्ध में रूस ने अपने 1,60,000 सैनिकों में से एक लाख सैनिक खो दिए थे. युद्ध समाप्त होने के बाद एक रूसी जनरल ने बड़ी ही मार्मिक टिप्पणी की थी, कि एक लाख सैनिकों को गँवाने के बाद रूस ने फिनलैंड में जितनी छोटी सी जमीन जीती थी, उतनी जमीन पर तो बड़ी मुश्किल से इन मारे गए सैनिकों को दफनाया ही जा सकता था.

- संकेत कुलकर्णी (लंडन)

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“संपर्क फॉर समर्थन” के तहत कुलदीप नैयर से भाजपा नेता मिलने गए, तब अटपटा लगा था। एक आदतन हिन्दू-विरोधी, इस्लाम-परस्त और पाकिस्तान-प्रेमी पत्रकार के पास इतने बड़े हिन्दू-राष्ट्रवादी क्या पाने गए थे? जिसे देश-विदेश में कश्मीर पर आई.एस.आई. के पैसे से चल रही भारत-विरोधी गतिविधियों में शामिल होने में कोई संकोच नहीं, उस से मिल कर संदेश क्या दिया गया? उस से तो सौ गुना अच्छा, देश-हित कारी होता यदि वे अरुण शौरी से मिलने जाते। चलो, खैर... बड़े लोगों की बड़ी बातें। परन्तु नैयर ने इस भेंट पर लेख ही लिख दिया, तो चोट फिर हरी हो गई। नैयर ने भिंगाकर जूते मारने जैसा लिखा है! तमाम हिन्दू-विरोधी लफ्फाजी दुहराई, आर.एस.एस. शासन को ‘अशुभ’ बताया और भाजपा नेता को उपदेश दिया कि मस्जिदें न तोड़ा करो, विभाजन की राजनीति न करो, वगैरह वगैरह।

सीताराम गोयल ने दशकों पहले भाजपाइयों को समझाया था... सवाल करने का काम करो, सफाई देने का नहीं! उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों से संबंधित नीति सुधारने के सदर्भ में यह कहा था। वही बात भाजपा बनाम अन्य नेहरूवादी, समाजवादी दलों के लिए भी सही है। मुसलमान शिकायत करते रहते हैं। हिन्दू सफाई देते रहते हैं। उसी तरह, सभी दल भाजपा पर आरोप लगाते रहते हैं। भाजपा सफाई देती रहती है, कि हम तो सब के हैं, सब का विकास साथ चाहते हैं, मतलब कि आप जैसे ही हैं, भले, मेहनती हैं, हमें गलत न समझो। कुछ यही नैयर को जाकर कहा गया। जबाव में, व्यंग्य आरोप और नसीहतें मिलीं। यही मिलती थी अडवाणी, वाजपेई को। क्योंकि यह संगठन नहीं, बुद्धि की बात हैः क्या करना, क्या नहीं करना। इस्लामियों ने रास्ता निकाला था:- इस से पहले कि कोई तुम से तुम्हारे पापों का हिसाब माँगे, उस पर ढेर सी शिकायतें जड़ दो। आरोप लगाओ। रोओ-गाओ। बस, वह सफाई देने में लग जाएगा और तुम्हारे पाप छिपे रहेंगे। भारतीय राजनीति में पिछले सौ साल से यही हो रहा है। गाँधीजी ने इसे शुरू किया। नेहरूजी ने इसे राजकीय सिद्धांत बनाया। कम्युनिस्टों ने उसे धार दी, और समाजवादी-गाँधीवादी सब वही रटने लगे। इस प्रकार, स्वतंत्र भारत में भी - चाहे हिन्दुओं को हीन नागरिक बना डाला गया, कश्मीर से हिन्दू मार भगाए गए, मुसलमानों ने जब चाहे सड़क पर दंगे करना अपना विशेषाधिकार बना लिया, यहाँ से लेकर बंगलादेश, पाकिस्तान तक सैकड़ों हिन्दू मंदिर तोड़ डाले गए, लाखों-लाख हिन्दू मार डाले गए, जबरन धर्मांतरित कराए गए – पर क्या मजाल कि हिन्दू पूछे कि हमारे साथ यह क्या हुआ है?

वही हाल हमारी पार्टियों का है। चाहे उन्होंने सेक्यूलरिज्म के नाम पर संविधान को विकृत कर डाला, सरकारी धन की लूट-बाँट नियमित धंधा बना लिया, जातिगत, भाषाई, क्षेत्रीय, हर आधार पर हिन्दुओं को तोड़ने की नीति गढ़ ली, कानून, नैतिकता सब ताक पर रख इस्लाम-परस्ती को संविधान से भी ऊपर बना डाला, शिक्षा-संस्कृति तहस-नहस करते गए... मगर भाजपा महानुभावों को उन पापियों से प्रश्न पूछना और उन्हें जबाव देने पर विवश करना न सूझा। समझाने पर भी नहीं। कि उन मूर्खों / मक्कारों से पूछे कि तुम्हारे झूठे सेक्यूलरिज्म ने देश का क्या हाल किया है? कि हिन्दू अपने विरुद्ध भेद-भाव, अपनी पीड़ा के प्रश्न उन से पूछें जो इस के कारण हैं। उलटे, भाजपा मेहनत से नेहरूवादी, सेक्यूलर-वामपंथी नारों को ही लागू करने में लग गई, ताकि सब कहें कि ओह, ये कितने अच्छे लोग है! गरीबों, मुसलमानों, मिशनरियों, पोप, सूफियों, यानी सब का ख्याल करते हैं। एक जिस का ख्याल करने की जरूरत नहीं, वे हैं हिन्दू, जिन्हें न कोई समस्या, न शिकायत है। वैसे भी, ये जाएंगे कहाँ?

सचमुच, अरूण शौरी कहाँ जाएंगे, उन से मिलने की जरूरत नहीं! क्या किया है उन्होंने? ठीक है, उन्होंने साहसपूर्वक देश के हिन्दू-विरोधी अकादमिक, मीडिया वातावरण पर ऊँगली रखने में अग्रदूत की भूमिका निभाई। कम्युनिस्टों की धूर्त्तता, चर्च की अनुचित गतिविधियों और इस्लामी राजनीति की कुटिलता प्रमाणिक रूप से उघाड़ी। बेलगाम भ्रष्टाचार और सेक्यूलरवाद के गठबंधन का पर्दाफाश किया। आर.एस.एस-भाजपा पर मनमाने लांछन लगाने की आदत पर चोट की। अपनी बुद्धि, विद्वता और परिश्रम के बल पर। सब से बढ़ कर, शौरी ने इस्लाम पर उस महत्व का काम किया, जो स्वामी दयानन्द सरस्वती, राम स्वरूप और सीताराम गोयल के सिवा यहाँ किसी ने व्यवस्थित रूप से नहीं किया था... पर इन सब से क्या? शौरी ने संगठन, पार्टी और उन के नेताओं की जी-हुजूरी तो नहीं की। इसलिए, उन का सारा सामाजिक काम बेमानी रहा! उन से मिल कर विचार-विमर्श कौन कहे, उलटे उन पर थू-थू, छिः-छिः हुई कि वे पद-लोभी हो गये हैं।

हाँ, कुलदीप नैयर की बात और है! ये बहुत बड़े हैं, विरोधी दुनिया में इन की पूछ है। सो, यह अच्छी ‘रणनीति’ रहेगी कि इन से वार्ता हो। साथ फोटो छपे। तब प्रचार हो सकेगा कि हम तो सब के साथ हैं, सब हमारे साथ हैं। और क्या चाहिए! किन्तु क्या नैयर वोट दिलाएंगे? आखिर भाजपा को वोट कौन देता है? कुछ पारंपरिक हिन्दू-भावी और संघ-भाजपा कार्यकर्ताओं के प्रचार से पंद्रह-बीस प्रतिशत पक्के मतदाता। पर लगभग उतने ही कांग्रेस, मायावती, लालू, मुलायम, जैसे दलों के भी पक्के वोट हैं। इसलिए मुक्त पाँच-दस प्रतिशत, जो किसी पार्टी का बंधक नहीं, वह जब जिसे वोट देता है, उसे बढ़त मिलती है (गठबंधन वाली स्थिति अलग है)। इसी में किसी नेता/ दल की हवा बनाने, बिगाड़ने वाले भी हैं। तो क्या नैयर से मिलना इन्हें प्रभावित करेगा? संभवतः नहीं। वह बहुत कुछ देखता है, केवल नाटक नहीं। इसीलिए, संगठन निर्णायक चीज नहीं है। सकर्मक लोग और सुबुद्धि उस से बड़ी चीज है। वैसे भी, जब कोई राजनीतिक संगठन बहुत बड़ा बन जाए, तब उस की अपनी दुनिया, ढर्रा, जरूरतें, निहित स्वार्थ, जड़ता, विवशता, आदि हो जाती है। इसलिए भी वह सुबुद्धि के सामने छोटा है।

कुलदीप नैयर के पास कौन सा संगठन है? तब 9 करोड़ सदस्यों का दंभ भरती पार्टी के प्रमुख उन के दरवाजे क्यों गए? क्यों नहीं कभी नैयर ही उन से मिलने चले गए, ‘ऐसे ही’ जिसे कहा जाता है। यानी कुछ लेने-पाने को। यह उलटा क्यों घटित हुआ? एक बड़े पत्रकार के पास करोड़ों वाली पार्टी के नेता क्यों गए? जरूर उन का विशाल संगठन किसी कमी की पूर्ति नहीं कर पा रहा है। वह कौन सी चीज है? सुबुद्धि, सुनीति का विकल्प संगठन नहीं है। आखिर नुरूल हसन से लेकर सैयद शहाबुद्धीन तक ने बिना किसी संगठन के बेजोड़ सफलताएं हासिल कर दिखाई। शहाबुद्धीन को अटलबिहारी वाजपेई लाए और सीधे राज्य-सभा सदस्य बनाया! मात्र बुद्धि से शहाबद्दीन न केवल ऊँचे पहुँचे, मुस्लिम राजनीति को बलशाली बनाया, बल्कि विविध सत्ताधारियों से एक से एक बड़े दूरगामी फैसले करवाए।

और इन ‘संगठन’-जापी राष्ट्रवादियों ने अब तक क्या हासिल किया? वही, मात्र और संगठन, और कुछ कार्यालय, और कुछ भवन, और कुछ सदस्य, और सम्मेलन, समारोह, चिंतन-बैठकें.... और ‘अपने’ बड़े-पदधारी तथा अनेक सरकारें। मगर वे क्या करती रही हैं? रुटीन शासन, लच्छेदार भाषण और खाली जुमलों, आदि के अलावा शहाबुद्दीन, फारुख उमर अब्दुल्ला, अमर्त्य सेन, सूफियों और राजदीप सरदेसाई से लेकर कुलदीप नैयर तक की इज्जत-आफजाई! निस्संदेह, ऐसी इज्जत के हकदार अरूण शौरी या अन्य हिन्दू विद्वान भी नहीं हैं! इन ‘रणनीति’-बहादुर राष्ट्रवादियों से इज्जत पाने की कुंजी है, हिन्दू-विरोधी, सेक्यूलर-वामपंथी बनना और संघ-भाजपा से द्वेष रखना। इतिहास यही दर्शाता है। इस प्रकार, भाजपा सचेत अचेत रूप से हिन्दू-विरोधी सेक्यूलरवाद को और प्रतिष्ठित करती रही है। कुलदीप नैयर को सलामी देना, उन का रुतबा बढ़ाना और बदले में नसीहत सुनना उसी क्रम में है।

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