अभी कुछ दिन पहले मेरा रांची जाना हुआ था. रांची में 4 दिन तक रुका. देश भर से आये हुए विभिन्न मूर्धन्य विद्वानों/चिन्तकों से मिलना हुआ. कुछ सही में विद्वान थे/है (उनको सुनने से अच्छा लगा लगा कि हाँ, इनको देश-काल-स्थिति का भान है और वे चिंतित भी हैं व देश में आये हुए बड़े संकट से भारत देश के निवासियों को आगाह कर रहे हैं… विशेष रूप से धिम्मियों को आगाह कर रहे हैं). कुछ स्वघोषित स्वयंभू विद्वान भी थे…. तो कुछ “भगवा-मुल्ले” भी थे...

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मित्रों... आपने अक्सर कई बार “सेकुलर चर्चाओं” में हिन्दू-मुस्लिम समस्या को लेकर गंगा-जमुनी संस्कृति नामक शब्द सुना होगा. आखिर यह गंगा जमुनी संस्कृति (Ganga Jamuni Culture) है क्या?

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गंगा-जमुनी संस्कृति की दुहाई देते देते हुए कुछ लोगों के कंठ अवरुद्ध हो जाते हैं. अवरुद्ध होते कंठों से बहुत मुश्किल से आवाजें निकल पाती हैं. ये आवाजें बहुत ही सिलेक्टिव होती हैं. रोजों के समय न जाने कितने मंदिरों के द्वार नमाज के लिए खोल दिए जाते हैं, और उस समय गंगा जमुनी तहजीब जमकर हिलोरें ले रही होती है.

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शीर्षक पढ़कर आप चौंक गए होंगे ना? जी बिलकुल, लेकिन भारत की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष अदालतों का यही सच है... चूँकि आरोपी ने रोजा रखा हुआ है इसलिए उसे 29 जून तक गिरफ्तार नहीं किया जाए. पूरा मामला कुछ यूँ है...

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हाल ही में भारत के वरिष्ठ वकील फली एस नरीमन (जो कि पारसी समुदाय से आते हैं) ने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की इस बात को लेकर आलोचना की थी, कि “एक भगवाधारी महंत को” सत्ता नहीं संभालनी चाहिए.

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स्कूल में नमाज के लिए अलग कमरे की माँग... :- पश्चिम बंगाल में फलता-फूलता सेकुलरिज़्म...

२४ जून २०१६ को कुछ मुसलमान छात्रों ने अचानक दोपहर को अपनी कक्षाएँ छोड़कर स्कूल के लॉन में एकत्रित होकर नमाज पढ़ना शुरू कर दिया था, जबकि उधर हिन्दू छात्रों की कक्षाएँ चल रही थीं. चूँकि उस समय यह अचानक हुआ और नमाजियों की संख्या कम थी इसलिए स्कूल प्रशासन ने इसे यह सोचकर नज़रंदाज़ कर दिया कि रमजान माह चल रहा है तो अपवाद स्वरूप ऐसा हुआ होगा. लेकिन नहीं...

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शुक्रवार, 28 जून 2013 07:52

Devi Mother Mary and Vishnu Saibaba



“देवी”(?) मदर मेरी और “विष्णु”(?) साईं – यह विकृति कहाँ ले जाएगी?


कुछ वर्ष पूर्व की बात है, पंजाब में सिख समुदाय गुस्से से उबल रहा था. सिखों और पंजाब-हरियाणा में एक प्रमुख “पंथ”(?) बन चुके डेरा सच्चा सौदा के समर्थकों के बीच खूनी संघर्ष चला. इस संघर्ष के पीछे का कारण था डेरा सच्चा सौदा प्रमुख “राम-रहीम सिंह” की वेषभूषा... डेरा सच्चा सौदा प्रमुख रामरहीम सिंह ने एक पोस्टर में जैसी वेषभूषा पहन रखी थी और दाढ़ी-पगड़ी सहित जो हावभाव बनाए थे, वह सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह से बिलकुल मिलते-जुलते थे. उस पोस्टर से ऐसा आभास होता था मानो रामरहीम सिंह कोई “पवित्र गुरु” हैं, और सिखों को भी उनका सम्मान करना चाहिए. भला सिखों को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता था, नतीजा यह हुआ कि दोनों पंथों के लोग आपस में जमकर लड़ पड़े.

लेख के आरम्भ में यह उदाहरण देने की जरूरत इसलिए आवश्यक था, ताकि धर्म और उससे जुड़े प्रतीकों के बारे में उस धर्म (या पंथ) के समर्थकों, भक्तों की भावनाओं को समझा जा सके. गत कुछ वर्षों में हिन्दू धर्म के भगवानों, देवियों और धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों पर “बौद्धिक” किस्म के आतंकवादी हमले अचानक बढ़ गए हैं. यह “ट्रेंड” देखने में आया है कि किसी खास पंथ को लोकप्रिय बनाने अथवा दूसरे धर्मों के लोगों को अपने पंथ में शामिल करने (अर्थात धर्मांतरण करने) की फूहड़ होड़ में अक्सर हिन्दू धर्म को ही सबसे पहले निशाना बनाया जाता रहा है. हाल ही में एक लेख में मैंने दक्षिण भारत (जहाँ चर्च और वेटिकन से जुड़ी संस्थाएं बहुत मजबूत हो चुकी हैं) के कुछ इलाकों में हिन्दू धर्म और उसकी संस्कृति से जुड़े प्रतीकों और आराध्य देवताओं को विकृत करने के कई मामलों का ज़िक्र किया था. इसमें यीशु को एक हिन्दू संत की वेषभूषा में, ठीक उसी प्रकार आशीर्वाद की मुद्रा बनाए हुए एक पोस्टर एवं इस चित्र के चारों तरफ “सूर्य नमस्कार” की विभिन्न मुद्राओं को दर्शाया गया (मानो सूर्य नमस्कार और जीसस नमस्कार समकक्ष ही हों). इसी प्रकार भरतनाट्यम प्रस्तुती के गीतों में यीशु के वंदना गीत, चर्च को “यीशु मंदिर कहना”, मदर मैरी को साड़ी-बिंदी सहित “देवी” के रूप में प्रस्तुत करना तथा कुछ चर्चों के बाहर “दीप स्तंभ” का निर्माण करना... जैसी कई “शरारतें”(?) शामिल हैं. ज़ाहिर है कि ऐसा करने से भोले-भाले हिन्दू ग्रामीण और आदिवासियों को मूर्ख बनाकर आसानी से उनका भावनात्मक शोषण किया जा सकता है और उन्हें ईसाई धर्म में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जाता है.


हाल ही में ऐसे दो और मामले सामने आए हैं, जिसमें भारत की सनातन संस्कृति और हिन्दू धर्म के प्रतीकों को विकृत किया गया है. पहला मामला है झारखंड का, जहाँ धर्मांतरण की “मिशनरी” गतिविधियाँ उफान पर हैं. झारखंड के “सरना” आदिवासी जिस देवी की पूजा करते हैं, उसे वे “माँ सरना देवी” कहते हैं. सरना आदिवासी महिलाएँ भी उसी देवी की वेशभूषा का पालन करते हुए शुभ अवसरों पर “लाल रंग की बार्डर वाली सफ़ेद साड़ी” पहनती हैं. हाल ही में धुर्वा विकासखंड के सिंहपुर गाँव में एक चर्च ने मदर मैरी की एक मूर्ति स्थापित की, जिसमें मदर मैरी को ठीक उसी प्रकार की साड़ी में दिखाया गया है तथा जिस प्रकार से आदिवासी महिलाएँ काम करते समय अपने बच्चे को एक झोली में लटकाकर रखती हैं, उसी प्रकार मदर मैरी के कंधे पर एक झोली है, जिसमें यीशु दिखाए गए हैं. इस मूर्ति का अनावरण कार्डिनल टेलेस्पोर टोप्पो ने किया. “आदिवासी देवी” के हावभाव वाली इस मूर्ति के मामले पर पिछले कई दिनों से रांची सहित अन्य ग्रामीण इलाकों में प्रदर्शन हो चुके हैं. सरना आदिवासियों के धर्मगुरु बंधन तिग्गा ने आरोप लगाया है कि “हालांकि सफ़ेद साड़ी कोई भी पहन सकता है, परन्तु मदर मैरी को जानबूझकर लाल बार्डर वाली साड़ी पहनाकर प्रदर्शित करना निश्चित रूप से सरना आदिवासियों को धर्मांतरण के जाल में फँसाने की कुत्सित चाल है. मदर मैरी एक विदेशी महिला है, उसे इस प्रकार आदिवासी वेशभूषा और हावभाव में प्रदर्शित करने से साफ़ हो जाता है कि चर्च की नीयत खराब है...इस मूर्ति को देखने से अनपढ़ और भोले आदिवासी भ्रमित हो सकते हैं... यदि ऐसी ही हरकतें जारी रहीं, तो आज से सौ साल बाद आदिवासी समुदाय यही समझेगा कि मदर मैरी झारखंड की ही कोई देवी थीं...”. 

धर्मगुरु बंधन तिग्गा आगे कहते हैं कि झारखंड में लालच देकर अथवा हिन्दू देवताओं के नाम से भ्रमित करके कई आदिवासियों को धर्मान्तरित किया जा चुका है. हालांकि चर्च का दावा होता है कि इन धर्मान्तरित आदिवासियों के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा, परन्तु अब यह सर्वमान्य तथ्य है कि “गोरों” द्वारा शासित वेटिकन के कैथोलिक ईसाई खुद को “शुद्ध” ईसाई मानते हैं, जबकि अन्य धर्मों से धर्मान्तरित होकर आए हुए व्यक्तियों को “निम्न कोटि” का ईसाई मानते हैं. इनमें आपस में जमकर भेदभाव तो होता ही है, अपितु इनके चर्च भी अलग-अलग हैं.


इसी से मिलता-जुलता दूसरा मामला है शिर्डी के सांईबाबा को भगवान विष्णु के “गेटअप” में प्रदर्शित करने का.... उल्लेखनीय है कि फिल्म “अमर-अकबर’एंथोनी” से पहले शिर्डी के सांईबाबा को बहुत कम लोग जानते थे, परन्तु इसे “मार्केटिंग पद्धति” की सफलता कहें या हिन्दू धर्म के अनुयायियों की तथाकथित “सहिष्णुता”(?) कहें... देखते ही देखते पिछले बीस वर्ष में शिर्डी वाले साईंबाबा, भारत का एक प्रमुख धर्मस्थल बन चुका है, जहाँ ना सिर्फ करोड़ों रूपए का चढावा आता है बल्कि सिर्फ कुछ दशक पहले जन्म लिए हुए एक फ़कीर (जिसने ना तो कोई चमत्कार किया है और ना ही हिन्दू धर्म के वेद-पुराणों में इस नाम का कोई उल्लेख है) को अब भगवान राम और कृष्ण के साथ जोड़कर “ओम साईं-राम”, “ओम साईं-कृष्ण” जैसे उदघोष भी किए जाने लगे हैं. अर्थात भारतीय संस्कृति की पुरातन परम्परा के अनुसार “सीता-राम” और “राधे-कृष्ण” जैसे उदघोष इस संदिग्ध फ़कीर के सामने पुराने पड़ गए हैं. यानी एक जमाने में रावण भी सीता को राम से अलग करने में असफल रहा, लेकिन आधुनिक “धर्मगुरु”(?) शिर्डी के सांईबाबा ने “सीताराम” को “सांई-राम” से विस्थापित करने में सफलता हासिल कर ली? अब इसके एक कदम आगे बढकर, ये साईं भक्त ईश्वर के अवतारों से सीधे आदि देवताओं पर ही आ गए हैं...

हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार सिर्फ तीन ही देवता आदि-देवता हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश. बाकी के अन्य देवता या तो इन्हीं का अवतार हैं अथवा इन्हीं से उत्पन्न हुए हैं. साईं की ताज़ा तस्वीर में साईबाबा को सीधे विष्णु के रूप में चित्रित कर दिया गया है, अर्थात शेषनाग पर बैठे हुए. हो सकता है कि कल को किसी साईं भक्त का दिमाग और आगे चले तो वह लक्ष्मी जी को साईबाबा के पैर दबाते हुए भी चित्रित कर दे... किसी साईं भक्त के दिमाग में घुसे तो वह श्रीकृष्ण के स्थान पर साईं के हाथ में सुदर्शन चक्र थमा दे... जब कोई विरोध करने वाला ना हो तथा संस्कृति और धर्म की मामूली सी समझ भी ना हो, तो ऐसे हादसे अक्सर होते रहते हैं. साईबाबा के भक्त उन्हें “गुरु” कह सकते हैं, “अवतार” कह सकते हैं (हालांकि अवतार की परिभाषा में वे फिट नहीं बैठते), “पथप्रदर्शक” कह सकते हैं... लेकिन साईं को महिमामंडित करने के लिए राम-कृष्ण और अब विष्णु का भौंडा उपयोग करना सही नहीं है. फिर मिशनरी और चर्च द्वारा फैलाए जा रहे “भ्रम” और साईं भक्तों द्वारा फैलाई जा रही “विकृति” में क्या अंतर रह जाएगा? 

सवाल सिर्फ यही है कि क्या हिन्दू धर्म को “लचीला” और “सहिष्णु” मानने की कोई सीमा होनी चाहिए या नहीं? क्या कोई भी व्यक्ति या संस्था, कभी भी उठकर, किसी भी हिन्दू देवता का अपमान कर सकते हैं? मैं यह नहीं कहता कि जिस प्रकार सुदूर डेनमार्क में बने एक कार्टून पर यहाँ भारत में लोग आगज़नी-पथराव करने लगते हैं, वैसी ही प्रतिक्रिया हिंदुओं को भी देनी चाहिए, लेकिन इस “तथाकथित सहिष्णुता” पर कहीं ना कहीं तो लगाम लगानी ही होगी... आवाज़ उठानी ही होगी.. 
 
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बुधवार, 31 अक्टूबर 2012 11:33

Rise of Narendra Modi Phenomena... (Part - 3)

 नरेन्द्र मोदी "प्रवृत्ति" का उदभव एवं विकास… (भाग-3)


जैसा कि हमने पिछले भागों में देखा, “सेकुलरिज़्म” और “मुस्लिम वोट बैंक प्रेम” के नाम पर शाहबानो, रूबिया सईद और मस्त गुल जैसे तीन बड़े-बड़े घाव 1984 से 1996 के बीच विभिन्न सरकारों ने भारत की जनता (विशेषकर हिन्दुओं) के दिल पर दिए

(पिछला भाग पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें… http://blog.sureshchiplunkar.com/2012/10/rise-of-narendra-modi-phenomenon-part-2.html

नरसिंहराव की सरकार ने (कभी भाजपा के समर्थन से, तो कभी झारखण्ड के सांसदों को खरीदकर) जैसे-तैसे अपना कार्यकाल पूरा किया, लेकिन आर्थिक सुधारों को देश की जनता नहीं पचा पाई, जिस वजह से नरसिंहराव बेहद अलोकप्रिय हो गए थे। साथ ही इस बीच अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी और शरद पवार द्वारा अपने-अपने कारणों से विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियाँ बनाने से कांग्रेस और कमजोर हो गई थी। मुस्लिम और दलित वोटों के सहारे सत्ता की चाभी की सुगंध मिलने और किसी को भी पूर्ण बहुमत न मिलता देखकर गठबंधन सरकारों के इस दौर में एक तीसरे मोर्चे का जन्म हुआ, जिसमें मुलायम सिंह, चन्द्रबाबू नायडू, जनता दल और वामपंथी शामिल थे।

1996 के आम चुनावों में जनता ने कांग्रेस को पूरी तरह ठुकरा दिया था, लेकिन पूर्ण बहुमत किसी को भी नहीं दिया था, भाजपा 161 सीटें लेकर पहले नम्बर पर रही, जबकि कांग्रेस को 140 और नेशनल फ़्रण्ट को 79 सीटें मिलीं। जनता दल, वामपंथ और कांग्रेस के भारी “सेकुलर” विरोध के बीच ब्रिटेन की वेस्टमिंस्टर पद्धति का पालन करते हुए राष्ट्रपति शर्मा ने वाजपेयी जी को सरकार बनाने का न्यौता दिया और उनसे 2 सप्ताह में संसद में अपना बहुमत साबित करने को कहा। परन्तु “सेकुलरिज़्म” के नाम पर जिस “गिरोह” की बात मैंने पहले कही, वह 1996 से ही शुरु हुई। 13 दिनों तक सतत प्रयासों, चर्चाओं के बावजूद वाजपेयी अन्य पार्टियों को यह समझाने में विफ़ल रहे कि जनता ने कांग्रेस के खिलाफ़ जनमत दिया है, इसलिए हमें (यानी भाजपा और नेशनल फ़्रण्ट को) आपस में मिलजुलकर काम करना चाहिए, ताकि कांग्रेस की सत्ता में वापसी न हो सके।

भाजपा और अटल जी “भलमनसाहत” के इस मुगालते में रहे कि जब भाजपा ने 1989 में वीपी सिंह को समर्थन दिया है, और देशहित में नरसिंहराव की सरकार को भी गिरने नहीं दिया, तो संभवतः कांग्रेस विरोध के नाम पर अन्य क्षेत्रीय पार्टियाँ अटल सरकार बनवाने पर राजी हो जाएं, फ़िर साथ में अटलबिहारी वाजपेयी की स्वच्छ छवि भी थी। परन्तु मुस्लिम वोटरों के भय तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से की जाने वाले “घृणा” ने इस देश पर एक बार पुनः अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस का ही शासन थोप दिया। अर्थात 13 दिन के बाद वाजपेयी जी ने संसद में स्वीकार किया कि वे अपने समर्थन में 200 से अधिक सांसद नहीं जुटा पाए हैं इसलिए बगैर वोटिंग के ही उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। इस तरह “सेकुलरिज़्म” के नाम पर एक गिरोह बनाकर तथा जनता द्वारा कांग्रेस को नकारने के बावजूद देश की पहली भाजपा सरकार की भ्रूण-हत्या मिलजुलकर की गई। इस “सेक्यूलर गिरोहबाजी” ने हिन्दू वोटरों के मन में एक और कड़वाहट भर दी। उसने अपने-आपको छला हुआ महसूस किया, और अंततः देवेगौड़ा के रूप में कांग्रेस का अप्रत्यक्ष शासन और टूटी-फ़ूटी, लंगड़ी सरकार देश के पल्ले पड़ी, जिसे कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया हुआ था।

ऐसा नहीं कि कांग्रेस के बाहरी समर्थन का अर्थ नेशनल फ़्रण्ट वाले नहीं जानते थे, परन्तु सत्ता के मोह तथा “मुस्लिम वोटों के लालच में भाजपा के कटु विरोध” ने उन्हें इस बात पर मजबूर कर दिया कि वे बाहर से समर्थन दे रही कांग्रेस की चिरौरी और दया पर निर्भर रहें। उन्हें कांग्रेस के हाथों जलील होना मंजूर था, लेकिन भाजपा का साथ देकर गैर-कांग्रेसी सरकार बनाना मंजूर नहीं था। इस कथित नेशनल फ़्रण्ट का पाखण्ड तो पहले दिन से ही इसलिए उजागर हो गया था, क्योंकि इसमें शामिल अधिकांश दल अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ़ ही चुनाव लड़कर व जीतकर आए थे, चाहे वे मुलायम हों, लालू हों, नायडू हों या करुणानिधि हों… इनमें से (मुलायम को छोड़कर) किसी की भी भाजपा से कहीं भी सीधी टक्कर या दुश्मनी नहीं थी। लेकिन फ़िर भी प्रत्येक दल की निगाह इस देश के 16% मुसलमान वोटरों पर थी, जिसके लिए वे भाजपा को खलनायक के रूप में पेश करने में कोई कोताही नहीं बरतना चाहते थे।

देवेगौड़ा के नेतृत्व में चल रही इस “भानुमति के सेकुलर कुनबेनुमा” सरकार के आपसी अन्तर्विरोध ही इतने अधिक थे कि कांग्रेस को यह सरकार गिराने के लिए कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ी और सिर्फ़ 18 माह में देवेगौड़ा की विदाई तय हो गई। कांग्रेस ने देवेगौड़ा पर उनसे “महत्वपूर्ण मामलों में सलाह न लेने” और “कांग्रेस को दरकिनार करने” का आरोप लगाते हुए, देवेगौड़ा को बाहर का दरवाजा दिखा दिया। चूंकि सेकुलरिज़्म के नाम पर बनी इस नकारात्मक यूनाइटेड फ़्रण्ट में “आत्मसम्मान” नाम की कोई चीज़ तो थी नहीं, इसलिए उन्होंने देवेगौड़ा के अपमान को कतई महत्व न देते हुए, आईके गुजराल नामक एक और गैर-जनाधारी नेता को प्रधानमंत्री बनाकर सरकार को कुछ और समय के लिए घसीट लिया। इस बीच भाजपा ने अपना जनाधार मजबूत बनाए रखा, तथा विभिन्न राज्यों में गाहे-बगाहे उसकी सरकारें बनती रहीं। एक नौकरशाह आईके गुजराल की सरकार भी कांग्रेस की दया पर ही थी, सो कांग्रेस उनकी सरकार के नीचे से आसन खींचने के लिए सही समय का इंतज़ार कर रही थी।


वास्तव में इन क्षेत्रीय दलों को भाजपा की बढ़ती शक्ति का भय सता रहा था। वे देख रहे थे कि किस तरह 1984 में 2 सीटों पर सिमट चुकी पार्टी सिर्फ़ 12-13 साल में ही 160 तक पहुँच गई थी, इसलिए उन्हें अपने मान-सम्मान से ज्यादा, भाजपा को किसी भी तरह सत्ता में आने से रोकना और मुसलमानों को खुश करना जरूरी लगा। विडम्बना यह थी कि लगभग इसी नेशनल फ़्रण्ट की वीपी सिंह सरकार को भाजपा ने कांग्रेस विरोध के नाम पर अपना समर्थन दिया था, ताकि कांग्रेस सत्ता से बाहर रहे… लेकिन जब 1996 में भाजपा की 160 सीटें आ गईं तब इन्हीं क्षेत्रीय दलों ने (जो आए दिन गैर-कांग्रेसवाद का नारा बुलन्द करते थे) अपना “गिरोह” बनाकर भाजपा को “अछूत” की श्रेणी में डाल दिया और उसी कांग्रेस के साथ हो लिए, जिसके खिलाफ़ जनमत साफ़ दिखाई दे रहा था…। ऐसे में जिन हिन्दुओं ने भाजपा की सरकार बनने की चाहत में अपना वोट दिया था, उसने इस “सेकुलर गिरोहबाजी” को देखकर अपने मन में एक कड़वी गाँठ बाँध ली…

आईके गुजराल सरकार को न तो लम्बे समय तक चलना था और न ही वह चली। चूंकि कांग्रेस का इतिहास रहा है कि वह गठबंधन सरकारों को अधिक समय तक बाहर से टिकाए नहीं रख सकती, इसलिए गुजराल को गिराने का बहाना ढूँढा जा रहा था। हालांकि गुजराल एक नौकरशाह होने के नाते कांग्रेस से मधुर सम्बन्ध बनाए रखे थे, लेकिन उनकी सरकार में मौजूद अन्य दल उन्हें गाहे-बगाहे ब्लैकमेल करते रहते थे। ऐसा ही एक मौका आया जब चारा घोटाले में सीबीआई ने लालू के खिलाफ़ मुकदमा चलाने की अनुमति माँगते हुए बिहार के राज्यपाल किदवई के सामने आवेदन दे दिया। गुजराल ने इस प्रस्ताव को हरी झण्डी दे दी, बस फ़िर क्या था लालू की कुर्सी छिन गई और वह बुरी तरह बिफ़र गए…। लालू ने जनता दल को तोड़कर अपना राष्ट्रीय जनता दल बना लिया, लेकिन फ़िर भी वे सत्ता से चिपके ही रहे और गुजराल सरकार को समर्थन देते रहे (ज़ाहिर है कि “सेकुलरिज़्म” के नाम पर…)। परन्तु लालू का दबाव सरकार पर बना रहा और गुजराल साहब को सीबीआई के निदेशक जोगिन्दर सिंह का तबादला करना ही पड़ा। इस सारी “सेकुलर नौटंकी” को हिन्दू वोटर लगातार ध्यान से देख रहा था। 
      11 माह बाद आखिर वह मौका भी आया जब कांग्रेस को लगा कि यह सरकार गिरा देना चाहिए। एक आयोग द्वारा DMK के मंत्रियों को, राजीव गाँधी की हत्या में दोषी LTTE से सम्बन्ध रखने की टिप्पणी की थी। बस इसको लेकर कांग्रेस ने बवाल खड़ा कर दिया, सरकार में से “राजीव गाँधी के हत्यारों से सम्बन्ध रखने वाले” DMK को हटाने की माँग को लेकर कांग्रेस ने गुजराल सरकार गिरा दी। बेशर्मी की इंतेहा यह है कि इसी “लिट्टे समर्थक” DMK के साथ यूपीए-1 और यूपीए-2 सरकार चलाने तथा ए राजा के साथ मिल-बाँटकर 2G लूट खाने में कांग्रेस को जरा भी हिचक महसूस नहीं हुई, परन्तु जैसा कि हमेशा से होता आया है, बुद्धिजीवियों द्वारा “नैतिकता” और “राजनैतिक शुचिता” के सम्बन्ध में सारे के सारे उपदेश और नसीहतें हमेशा सिर्फ़ भाजपा को ही दी जाती रही हैं, जबकि कांग्रेस-DMK का साथ “सेकुलरिज़्म” नामक थोथी अवधारणा पर टिका रहा… किसी ने कोई सवाल नहीं उठाया। 
      बहरहाल, देवेगौड़ा और उसके बाद गुजराल सरकार भी गिरी और कांग्रेस की सत्ता लालसा में देश को 1998 में पुनः आम चुनाव में झोंका गया। 1998 तक भाजपा का “कोर हिन्दू वोटर” न सिर्फ़ उसके साथ बना रहा, बल्कि उसमें निरन्तर धीमी प्रगति ही होती रही। 1998 के चुनावों में भी हिन्दू वोटरों ने पुनः अपनी ताकत दिखाई और भाजपा को 182 सीटों पर ले गए, जबकि कांग्रेस सिर्फ़ 144 सीटों पर सिमट गई। चूंकि कांग्रेस की गद्दारी और सत्ता-पिपासा क्षेत्रीय दल देख चुके थे और 182 सीटें जीतने के बाद उनके सामने कोई और विकल्प था भी नहीं… इसलिए अंततः “सेकुलरिज़्म” की परिभाषा में सुविधाजनक फ़ेरबदल करते हुए “NDA” का जन्म हुआ। (क्षेत्रीय दलों को आडवाणी के नाम पर सबसे अधिक आपत्ति थी, वे वाजपेयी के नाम पर सहमत होने को तैयार हुए… शायद यही रवैया आडवाणी की राजनीति को बदलने वाला, अर्थात जिन्ना की मजार पर जाने जैसे कदम उठाने का कारण बना…)  हालांकि “कोर हिन्दू वोटर” ने अपना वोट आडवाणी की रथयात्रा और उनकी साफ़ छवि एवं कट्टर हिन्दुत्व को देखते हुए उन्हीं के नाम पर दिया था, लेकिन ऐन मौके पर क्षेत्रीय दलों की मदद से अटलबिहारी वाजपेयी ने पुनः देश की कमान संभाली, जिससे हिन्दू वोटर एक बार फ़िर ठगा गया…। इन क्षेत्रीय दलों को जो भी प्रमुख पार्टी सत्ता के नज़दीक दिखती है उसे वे सेक्यूलर ही मान लेते हैं, ऐसा ही हुआ, और 13 महीने तक अटल जी की सरकार निर्बाध चली।
13 महीने के बाद देश, भाजपा और हिन्दू वोटरों ने एक बार फ़िर से क्षेत्रीय दलों के स्थानीय हितों और देश की प्रमुख समस्याओं के प्रति उदासीनता के साथ-साथ “सेकुलरिज़्म” का घृणित स्वरूप देखा। हुआ यह कि, केन्द्र की वाजपेयी सरकार को समर्थन दे रहीं जयललिता को किसी भी सूरत में तमिलनाडु की सत्ता चाहिए थी, वह लगातार वाजपेयी पर तमिलनाडु की DMK सरकार को बर्खास्त करने का दबाव बनाती रहीं, लेकिन देश के संघीय ढाँचे का सम्मान करते हुए तथा धारा 356 के उपयोग के खिलाफ़ होने की वजह से वाजपेयी ने जयललिता को समझाने की बहुत कोशिश की, कि DMK सरकार को बर्खास्त करना उचित नहीं होगा, लेकिन जयललिता को देश से ज्यादा तमिलनाडु की राजनीति की चिंता थी, सो वे अड़ी रहीं…। अंततः 13 माह पश्चात जयललिता के सब्र का बाँध टूट गया और उन्होंने अपनी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा पर वाजपेयी सरकार की बलि लेने का फ़ैसला कर ही लिया… 


वाजपेयी सरकार ने प्रमोद महाजन की “हिकमत” और चालबाजी तथा क्षेत्रीय दलों की सत्ता-लोलुपता के सहारे संसद में बहुमत जुटाने का कांग्रेसी खेल खेलने का फ़ैसला किया, लेकिन सारी कोशिशों के बावजूद “सिर्फ़ 1 वोट” से सरकार गिर गई। संसद में वोटिंग के दौरान सभी दलों की साँसे संसद के अन्दर ऊपर-नीचे हो रही थीं, जबकि संसद के बाहर पूरा देश साँस रोककर देख रहा था कि वाजपेयी सरकार बचती है या नहीं। क्योंकि भले ही हिन्दू वोटर आडवाणी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे, लेकिन “हालात से समझौता” करने के बाद उनकी भावनाएं वाजपेयी सरकार से भी जुड़ चुकी थीं। वास्तव में विश्वास प्रस्ताव के खिलाफ़ दो वोट विवादास्पद थे, जहाँ वाजपेयी सरकार अपनी चालबाजी नहीं दिखा सकी। पहला वोट वह था, जिस वोट से सरकार गिरी, वह भी एक “सेकुलर” वोट ही था, जिसे नेशनल कांफ़्रेंस के सैफ़ुद्दीन सोज़ ने सरकार के खिलाफ़ डाला था। इस पहले सेकुलर वोट की कहानी भी बड़ी “मजेदार”(?) है… हुआ यूँ कि नेशनल कांफ़्रेंस ने विश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वोट देने का फ़ैसला किया था, जिसकी वजह से वाजपेयी सरकार उस तरफ़ से निश्चिंत थी। लेकिन अन्तिम समय पर सैफ़ुद्दीन सोज़ के भीतर का “सेकुलर राक्षस” जाग उठा और पिछले 13 महीने से जो वाजपेयी सरकार “साम्प्रदायिक” नहीं थी, वह उन्हें अचानक “साम्प्रदायिक” नज़र आने लगी। सैफ़ुद्दीन सोज़ ने वीपी सिंह को लन्दन में फ़ोन लगाया, जहाँ वह “डायलिसिस” की सुविधा ग्रहण कर रहे थे। जी हाँ, वही “राजा हरिश्चन्द्र छाप” वीपी सिंह, जिन्हें भाजपा से समर्थन लेकर दो साल तक अपनी सरकार चलाने में जरा भी शर्म या झिझक महसूस नहीं हुई थी, उन्होंने सैफ़ुद्दीन सोज़ को “कूटनीतिक सलाह” दे मारी, कि अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर वोटिंग करो… और अंतरात्मा की आवाज़ तो ज़ाहिर है कि “सेकुलरिज़्म का राक्षस” जाग उठने के बाद भाजपा के खिलाफ़ हो ही गई थी… तो सैफ़ुद्दीन सोज़ ने अपनी पार्टी लाइन तोड़ते हुए वाजपेयी सरकार के खिलाफ़ वोट दे दिया, जिससे सरकार गिरी। 
दूसरा सेकुलर वोट था, उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरधर गमांग का, “मुख्यमंत्री” और लोकसभा में??? जी हाँ, जब एक-एक वोट के लिए मारामारी मची हो तब व्हील चेयर पर बैठे हुए सांसदों तक को उठाकर संसद में लाया गया था, ऐसे में भला कांग्रेस कैसे पीछे रहती? एक तकनीकी बिन्दु को मुद्दा बनाया गया कि, “चूंकि गिरधर गमांग भले ही उड़ीसा के मुख्यमंत्री हों, लेकिन उन्होंने इस बीच संसद की सदस्यता से इस्तीफ़ा नहीं दिया है, इसलिए तकनीकी रूप से वह लोकसभा के सदस्य हैं, और इसलिए वह यहाँ वोट दे सकते हैं…”, जबकि नैतिकता यह कहती थी कि गमांग पहले मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देकर ही वोट डाल सकते थे, लेकिन “नैतिकता” और कांग्रेस का हमेशा ही छत्तीस का आँकड़ा रहा है, इसलिए इस कानूनी नुक्ते का सहारा लेकर गिरधर गमांग ने भी सरकार के खिलाफ़ वोट डाला। ऐसी विकट परिस्थिति में लोकसभा अध्यक्ष की भूमिका हमेशा बहुत महत्वपूर्ण होती है, उस समय लोकसभा अध्यक्ष थे तेलुगू देसम के श्री जीएमसी बालयोगी, जो कि संसद की चालबाजियों, कानूनी दाँवपेंचों से दूर एक आदर्शवादी युवा सांसद थे। इसलिए उन्होंने न तो सैफ़ुद्दीन सोज़ को पार्टी व्हिप का उल्लंघन करके वोट डालने पर उनका वोट खारिज किया, और न ही गिरधर गमांग का वोट इस कमजोर तकनीकी बिन्दु के आधार पर खारिज किया… बालयोगी ने दोनों ही सांसदों के वोटों को मान्यता प्रदान कर दी, इसलिए कहा जा सकता है कि जयललिता द्वारा समर्थन वापस लेने के बावजूद, 13 माह तक चली इस वाजपेयी सरकार के “सिर्फ़ एक वोट” से गिर जाने के पीछे सैफ़ुद्दीन सोज़ (यानी वीपी सिंह की सलाह) और गिरधर गमांग (मुख्यमंत्री भी, सांसद भी) का हाथ रहा…
इस तरह एक बार फ़िर से हिन्दू वोटरों की यह इच्छा कि इस देश में कोई गैर-कांग्रेसी सरकार अपना एक कार्यकाल पूरा करे, “सेकुलरिज़्म” के नाम पर धरी की धरी रह गई। संसद में विश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान हिन्दू वोटरों ने “सेकुलरिज़्म” के नाम पर क्षेत्रीय दलों द्वारा की जा रही “नौटंकी” और “दोगलेपन” को साफ़-साफ़ देखा (ध्यान दीजिए, कि यह सारी घटनाएं नरेन्द्र मोदी के प्रादुर्भाव से पहले की हैं… यानी तब भी संघ-भाजपा-भगवा के प्रति इनके मन में घृणा भरी हुई थी)। हिन्दू वोटरों ने महसूस किया कि कभी अपनी सुविधानुसार, कभी सत्ता के गणित के अनुसार तो कभी पूरी बेशर्मी से जब मन चाहे तब भाजपा को वे कभी साम्प्रदायिक तो कभी सेकुलर मानते रहते थे। अपनी परिभाषा बदलते रहते थे… “सेकुलरिज़्म” के इस विद्रूप प्रदर्शन को हमने बाद के वर्षों में भी देखा, जब नेशनल कांफ़्रेंस, तृणमूल कांग्रेस, जनता दल जैसे कई “मेँढक” कभी भाजपा के साथ तो कभी कांग्रेस के साथ सत्ता का मजा चखते रहे। जब वे भाजपा के साथ होते तब वे कांग्रेस की निगाह में “साम्प्रदायिक” होते थे, लेकिन जैसे ही वे कांग्रेस के साथ होते थे, तो अचानक “सेकुलर” बन जाते थे। यह घटियापन सिर्फ़ पार्टियों तक ही सीमित नहीं रहा, व्यक्तियों तक चला गया, और हमने देखा कि किस तरह संजय निरुपम कांग्रेस में आते ही “सेकुलर” बन गए, और छगन भुजबल NCP में आते ही “सेकुलरिज़्म” के पुरोधा बन गए…। हिन्दू वोटर अपने मन में यह सारी कड़वाहट पीता जा रहा था, और अन्दर ही अन्दर सेकुलरिज़्म के इस दोगले रवैये के खिलाफ़ कट्टर बनता जा रहा था…      
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अगले भाग में हम 1999 के चुनाव से आगे बात करेंगे… 

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बुधवार, 04 अप्रैल 2007 20:33

Secularism in India and Politics

 
धर्मनिरपेक्षता की जय ?


क्या आप धर्मनिरपेक्ष हैं ? जरा फ़िर सोचिये और स्वयं के लिये इन प्रश्नों के उत्तर खोजिये.....

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