हिन्दी शब्दों का उपयोग बढाएं... भाषा तभी बचेगी
पिछले १-२ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है, हिंदी के कई खबरिया चैनलों और अख़बारों (परन्तु सभी समाचार चैनल या अखबार नहीं) में अंग्रेजी और रोमन लिपि का इतना अधिक प्रयोग शुरू हो चुका है कि उन्हें हिंदी चैनल/हिंदी अखबार कहने में भी शर्म आती है. मैंने कई संपादकों को लिखा भी कि अपने हिंदी समाचार चैनल/ अख़बार को अर्द्ध-अंग्रेजी चैनल / अख़बार(सेमी-इंग्लिश) मत बनाइये पर इन चैनलों/ अख़बारों के कर्ताधर्ताओं को ना तो अपने पाठकों से कोई सरोकार है और ना ही हिंदी भाषा से, इनके लिए हिंदी बस कमाई का एक जरिया है. मुझे विश्वास है कि आने वाले समय में इनकी अक्ल ठिकाने जरूर आएगी क्योंकि आम दर्शक और पाठक के लिए हिंदी उनकी अपनी भाषा है, माँ भाषा है. मुट्ठीभर लोग हिंदी को बर्बाद करने में लगे हैं.
Conspiracy Against Hindi Language through Roman
तेज़ी से बढ़ता अंग्रेजी और रोमन लिपि का इस्तेमाल
सानिभा: सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी)
निरह: निर्माण-रखरखाव-हस्तान्तरण (ओएमटी)
निपह: निर्माण-परिचालन-हस्तान्तरण (बीओटी)
तीगग: तीव्र गति गलियारा (हाई स्पीड कोरिडोर)
भाविकांस: भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ
भाषा, उच्चारण और वर्णमाला (भाग-५)
Phonetics, Language, Alphabets in Hindi
अब तक पिछले चार भागों में हम उच्चारण के मूलभूत सिद्धांत, विभिन्न उच्चारक, उनकी स्थितियाँ, व्यंजन और अनेक परिभाषाओं के बारे में जान चुके हैं। इस भाग में हम जानेंगे स्वरों के बारे में।
पहले भाग में मैंने स्वरों की जो सूची दी थी, उसमें अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, ऋ और लृ को स्थान दिया था। इस पर कुछ पाठकों ने शंका व्यक्त की थी कि ‘अं’ और ‘अः’ को इसमें शामिल क्यों नहीं किया गया है। इसका कारण समझने की कोशिश करें–
भाषा, उच्चारण और वर्णमाला (भाग-४)
Phonetics, Language, Alphabets in Hindi
‘अ’ की तरह ‘ह’ को भी सभी वर्णों का प्रकाशक कहा जाता है। कोई भी वर्ण बिना विसर्ग और अकार के बिना उच्चारित नहीं हो सकता। अ ही नाभि की गहराई से उच्चरित होने पर विसर्ग बन जाता है। इस प्रकार अ स्वयं अपने में से अपना विरोधी स्वर उत्पन्न करता है। तात्पर्य यह कि अ से ह तक की वर्णमाला में विसर्ग और अकार किसी ना किसी रूप में मौजूद रहते हैं।
भाषा, उच्चारण और वर्णमाला (भाग-३)
Phonetics, Language, Alphabets in Hindi
(भाग-२ से जारी...)
कभी-कभी आश्चर्य होता है, अपने मुँह से हम इतने सारे शब्द, इतनी ध्वनियाँ कैसे निकालते हैं, यही तो हमारे वाणी तंत्र की विशेषता है। मानव का वाणी तंत्र नाभि से होंठ तक होता है, यह ध्वनि का एक अद्भुत उपकरण है। मनुष्य का वाणी तंत्र सर्वाधिक विकसित होता है। अन्य प्राणियों, पशु-पक्षियों में यह तंत्र इतना विकसित नहीं होता, इसीलिये उनकी ध्वनियाँ बहुत सीमित होती हैं। चिड़िया सिर्फ़ चीं-चीं करती सुनाई देती है, शेर-गाय-बकरी आदि की ध्वनियाँ भी सीमित हैं। लेकिन मनुष्य में हर वर्ण का एक अलग स्थान से उच्चारण होता है। इस तंत्र के ज्यादा से ज्यादा इतने हिस्से तय किये गये हैं कि प्रत्येक वर्ण के लिये एक-एक स्थान निर्धारित है।
भाषा, उच्चारण और वर्णमाला (भाग-२)
Phonetics, Language, Alphabets in Hindi
(भाग-१ से जारी...)
हमारी सृष्टि अक्षर से उत्पन्न होती है, इनका क्षरण नहीं होता इसलिये ये अक्षर कहलाते हैं। हमारी भाषा भी अक्षरों पर आधारित होती है, इन अक्षरों का भी क्षरण नहीं होता। अक्षर में स्वर और व्यंजन दोनों आते हैं, इन्हें वर्ण भी कहा जाता है। ये सारे वर्ण ध्वनि पर आधारित हैं, ध्वनि ही नाद है, और यह नाद सम्पूर्ण आकाश में व्याप्त रहता है - सूक्ष्म रूप में। इसीलिये आज वैज्ञानिक, कृष्ण द्वारा कही गई गीता को अंतरिक्ष से प्राप्त करने के प्रयास में जुटे हैं।
हिन्दी दिवस (भाग-२): हिन्दी के कुछ सेवकों के बारे में
Hindi Computing Hindi Diwas
जब मैंने पिछली पोस्ट (हिन्दी दिवस भाग-१ : हिन्दी के लिये आईटी उद्योग ने क्या योगदान किया?) लिखी, उसमें मैंने हिन्दी के कतिपय निस्वार्थ सेवकों का मात्र उल्लेख किया था। अब इस भाग में मैं उनके कामों पर कुछ रोशनी डालूँगा। हालांकि यह जानकारी ब्लॉग जगत में रमने वाले को आमतौर पर है, लेकिन ब्लॉग जगत के बाहर भी कई मित्र, शुभचिंतक हैं जिन्हें यह जानकारी उपयोगी, रोचक और ज्ञानवर्द्घक लगेगी। उन्हें यह पता चलेगा कि कैसे संगणक पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में बिखरे तौर पर ही सही लेकिन समाजसेवियों ने काम शुरु किया, उसे आगे बढाया, प्रचारित किया, मुफ़्त में लोगों को बाँटा, नेटवर्क तैयार किया, उसे मजबूत किया और धीरे-धीरे हिन्दी को कम्प्यूटर पर आज यह मुकाम दिलाने में सफ़ल हुए।
हिन्दी हेतु आईटी इंडस्ट्री और “इन्फ़ोसिस” का क्या योगदान है?
“बाराहा” के वासु, “अक्षरमाला” के श्रीनिवास अन्नम, “कैफ़े-हिन्दी” के मैथिली गुप्त, लिनक्स हिन्दीकरण के महारथी रवि रतलामी, “गमभन” के ओंकार जोशी, प्रभासाक्षी के बालेन्दु शुक्ल, “वेबदुनिया” के विनय छजलानी, हिन्दी ब्लॉगिंग और हिन्दी कम्प्यूटिंग को आसान बनाने वाली हस्तियाँ अविनाश चोपड़े, रमण कौल, आलोक कुमार, हरिराम जी, देबाशीष, ई-स्वामी, हिमांशु सिंह, श्रीश शर्मा....और इन जैसे कई लोग हैं... ये लोग कौन हैं? क्या करते हैं? कितने लोगों ने इनका नाम सुना है?....मैं कहता हूँ, ये लोग “हिन्दी” भाषा को कम्प्यूटर पर स्थापित करने के महायज्ञ में दिन-रात प्राणपण से आहुति देने में जुटे हुए “साधक” हैं, मौन साधक।
Hindi Language in India and Hindi Diwas
हमारी राष्ट्रभाषा अर्थात हिन्दी, जिसकी देश में स्थापना के लिये अब तक न जाने कितने ही व्यक्तियों, विद्यालयों और संस्थाओं ने लगातार संघर्ष किया, इसमें वे काफ़ी हद तक सफ़ल भी रहे हैं । अब तो दक्षिण से भी हिन्दी के समर्थन में आवाजें उठ रही हैं, और हमारी प्यारी हिन्दी धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रही है और अब इसे कोई रोक भी नहीं सकता । वैसे भी "बाजार"की ताकतें बहुत बडी हैं और हिन्दी में "माल" खींचने की काफ़ी सम्भावनायें हैं इसलिये कैसे भी हो हिन्दी का झंडा तो बुलन्द होकर रहेगा । तमाम चैनलों के चाकलेटी पत्रकार भी धन्धे की खातिर ही सही टूटी-फ़ूटी ही सही, लेकिन हमें "ईराक के इन्टेरिम प्रधानमन्त्री मिस्टर चलाबी ने यूएन के अध्यक्ष से अधिक ग्रांट की माँग की है" जैसी अंग्रेजी की बघार लगी हिन्दी हमें झिलाने लगे हैं, खैर कैसे भी हो हिन्दी का प्रसार तो हो रहा है ।
परन्तु हिन्दी बेल्ट (जी हाँ, जिसे अंग्रेजों और हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक जमात ने "गोबर पट्टी" का नाम दे रखा है, पता नहीं क्यों ?) अर्थात उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश के रहवासी शुद्ध हिन्दी लिखना तो दूर, ठीक से बोल भी नहीं पाते हैं, यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है । इन प्रदेशों को हिन्दी का हृदय-स्थल कहा गया है, अनेक महान साहित्यकारों की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि यही चारों प्रदेश रहे हैं और इस पर गर्व भी किया जाता है । हिन्दी साहित्य को अतुलनीय योगदान इन्हीं प्रदेशों की विभूतियों ने दिया है । इन्हीं चारों प्रदेशों का गठन भाषा के आधार पर नहीं हुआ, इसलिये जहाँ बाकी राज्यों की हिन्दी के अलावा कम से कम अपनी एक आधिकारिक भाषा तो है, चाहे वह मराठी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, उडिया, बंगाली, पंजाबी, मणिपुरी, कोंकणी आदि हों, वहीं दूसरी ओर से इन चारों हिन्दी प्रदेशों की आधिकारिक भाषा हिन्दी होते हुए भी आमजन में इसकी भीषण दुर्दशा साफ़ देखी जा सकती है । इन प्रदेशों में, मालवी है, बुन्देलखंडी है, बघेली, निमाडी़, भोजपुरी, अवधी और भी बहुत सी हैं.... गरज कि हिन्दी को छोडकर सभी अपनी-अपनी जगह हैं, और हिन्दी कहाँ है ? हिन्दी अर्थात जिसे हम साफ़, शुद्ध, भले ही अतिसाहित्यिक और आलंकारिक ना हो, लेकिन "सिरी बिस्वास" (श्री विश्वास) जैसी भी ना हो । ऐसी हिन्दी कहाँ है, क्या सिर्फ़ उपन्यासों में, सहायक वाचनों, बाल भारती, आओ सुलेख लिखें जैसी किताबों में । आम बोलचाल की भाषा में जो हिन्दी का रूप हमें देखने को मिलता है उससे लगता है कि कहीं ना कहीं बुनियादी गड़बडी है । यहाँ तक कि प्रायमरी और मिडिल स्कूलों में पढाने वाले कई अध्यापक / अध्यापिकायें स्नातक और स्नातकोत्तर होने के बावजूद सरेआम... "तीरंगा" और "आर्शीवाद" लिखते हैं, और यही संस्कार (?) वे नौनिहालों को भी दे रहे हैं, फ़िर उनके स्नातकोत्तर होने का क्या उपयोग है ? आम तौर पर देखा गया है कि 'श' को 'स' और 'व' को 'ब' तो ऐसे बोला जाता है मानो दोनों एक ही शब्द हों और उन्हें कैसे भी बोलने पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता । "अरे बिस्नू जी जे डीस तो बासेबल है" (विष्णु जी यह डिश वाशेबल है) सुनकर भला कौन अपना सिर नहीं पीट लेगा ?
लेकिन जैसा कि पहले ही कहा गया कि मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्सों में ऐसी हिन्दी बोलना कतई गलत नहीं माना जाता, बल्कि यह आम बोलचाल की भाषा बन गई है, लेकिन हिन्दी ही कहलाती है । कई स्थानीय चैनलों के समाचारों में 'चेनल' (चैनल), टावर चोक (चौक), बेट (बैट) और रेट (रैट) हमेशा सुनाई दे जाता है, जो कि बडा़ भद्दा लगता है । लेकिन जब "बिद्या" प्रदान करने वाले ही गलत-सलत पढायेंगे तो भविष्य में उसे ठीक करना मुश्किल हो जाता है । इसके मूल में है शुद्ध संस्कृत के अध्ययन का अभाव । जो अध्यापक या विद्यार्थी संस्कृत की तमाम क्रिया, लकारों के साथ शुद्ध बोल पायेंगे वे कभी भी हिन्दी में बोलते समय या लिखते समय "ब्योपारी", "बिबेक" या "संबिधान संसोधन" जैसी गलती कर ही नहीं सकते । रही-सही कसर हिन्दी को "हिंग्रेजी" बना देने की फ़ूहड़ कोशिश करने वालों के कारण हो रही है । खामख्वाह अपनी विद्वत्ता झाडने के लिये हिन्दी के बीच में अंग्रेजी शब्दों को घुसेड़ना एक फ़ैशन होता जा रहा है । यदि अंग्रेजी शब्द सही ढंग और परिप्रेक्ष्य में बोला जाये तो भी आपत्ति नहीं है, लेकिन "छत पर बाऊंड्री वॉल" (अर्थात पैराफ़िट वॉल), या "सिर में हेडेक", "सुबह मॉर्निंग में ही तो मिले थे", "उन्हें बचपन से बहुत लेबर करने की आदत है इसीलिये आज वे एक सेक्सीफ़ुल व्यक्ति हैं" सुनकर तो कोई भी कपडे़ फ़ाडने पर मजबूर हो जायेगा ।
जब किसी बडे अधिकारी या पढे-लिखे व्यक्ति के मुँह से ऐसा कुछ सुनने को मिलता है तो हैरत के साथ-साथ क्षोभ भी होता है, कि वर्षों से हिन्दी क्षेत्र में रहते हुए भी वे एक सामान्य सी साफ़ हिन्दी भी नहीं बोल पाते हैं और अपने अधीनस्थों को सरेआम "सांबास-सांबास" कहते रहते हैं, किसी अल्पशिक्षित व्यक्ति या सारी जिन्दगी गाँव में बिता देने वाले किसी वृद्ध के मुँह से ऐसी हिन्दी अस्वाभाविक नहीं लगती, लेकिन किसी आईएएस अधिकारी या प्रोफ़ेसर के मुँह से नहीं । इसलिये हमें "दुध" (दूध), "लोकि" (लौकी), "शितल" (शीतल) आदि लिखे पर ध्यान देने की आवश्यकता तो है ही, बल्कि क्या और कैसे बोला जा रहा है, क्या उच्चारण किया जा रहा है, इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है । आईये प्रण करें कि भविष्य में जब कभी किसी से "पीछे का बैकग्राऊंड", "आगे का फ़्यूचर", "ओवरब्रिज वाला पुल", "मेरा तो बैडलक ही खराब है", जैसे वाक्य सुनाई दे जायें तो तत्काल उसमें सुधार करवायें, भले ही सामने वाला बुरा मान जाये...