घटती FD ब्याज दरें : चिंतित बुज़ुर्ग, अभिशप्त मध्यवर्ग

Written by शनिवार, 19 अगस्त 2017 08:27

72 वर्षीय बुज़ुर्ग मेहता जी इस बात को लेकर भौंचक और दुखी थे कि उनके द्वारा जीवन भर मेहनत करके कमाई गयी पूँजी अर्थात फिक्स्ड डिपोजिट (सावधि जमा) पर बैंकों ने ब्याज दर और घटा दी है.

मेहता जी भारत के उन लाखों रिटायर्ड बुज़ुर्ग लोगों में से एक हैं, जिन्होंने सेविंग के नाम पर अपना सारा पैसा LIC, बैंकों की FD, पोस्ट ऑफिस की योजनाओं अथवा सरकारी बांड या PPF में लगाया था. मेहताजी सोचते थे कि FD एवं पोस्ट ऑफिस की इस बचत के ब्याज पर वे अपना बुढ़ापा किसी तरह काट ही लेंगे और मृत्यु के बाद वह पैसा अपने बच्चों को देते जाएँगे. परन्तु आज से सात-आठ वर्ष पहले मेहता जी को अपनी बचत पर बैंक की तरफ से जो 11-12% ब्याज मिल रहा था, वह धीरे-धीरे घटते-घटते आज 6.5% तक पहुँच गया है और उनके सभी बुज़ुर्ग मित्र चिंतित हैं, क्योंकि एक तरफ तो इस ब्याज से होने वाली उनकी मासिक आय घटती जा रही है और दूसरी तरफ उनकी दवाओं का, मकान के मेंटेनेंस का, दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं का खर्च बढ़ता ही जा रहा है. महँगाई केवल कागजों पर ही कम होती दिख रही है. पेंशन और बैंक ब्याज मिलाकर अब उनका घरखर्च चलना दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है.

उल्लेखनीय है कि हाल ही में लगभग सभी बैंकों तथा पोस्ट ऑफिस की बचत योजनाओं ने अपनी ब्याज दरों में कमी कर दी है. ऐसे मेहता जी जैसे लोग जिन्होंने कभी भी अपने जीवन में शेयर मार्केट की तरफ मुँह नहीं किया, वे सोच में डूबे हुए हैं कि क्या बुढ़ापे में अब सरकार हमें शेयर मार्केट और म्यूचुअल फंडों की तरफ धकेल रही है?? शेयर मार्केट में पैसा लगाना और उससे कमाई करना हर किसी के बस का नहीं होता. इसके लिए काफी सारा इकोनॉमिक ज्ञान और रिस्क लेने की क्षमता दोनों ही होनी चाहिए. मेहता जी जैसे शासकीय सेवा से रिटायर हुए लोगों की स्मृति में आज भी हर्षद मेहता, UTI घोटाला, केतन पारिख घोटाला जैसे हादसे अंकित हैं. शेयर मार्केट के बारे में सोचना भी उन्हें डरा देता है. मेहता जी जब भी बैंक जाते हैं, तभी कोई न कोई एजेंट उन्हें पकड़ लेता है और उन्हें म्यूचुअल फंडों की ढेर सारी योजनाओं के बारे ज्ञान बाँटने लगता है. मेहता जी और भयभीत हो जाते हैं, क्योंकि एक बार किसी एजेंट की बातों में आकर उन्होंने किसी “मार्केट आधारित” म्यूचुअल फंड में यह सोचकर अपना पचास हजार रुपया लगा दिया था, कि देखते हैं क्या होता है.

पाँच वर्ष के बाद जब मेहता जी को पैसों की आवश्यकता पड़ी तो उन्होंने उस एजेंट को बुलाकर अपना म्यूचुअल फंड बंद करने को कहा, ताकि उन पचास हजार और उस पर मिले मुनाफे से उनका काम निकल जाए. मेहताजी के पैरों तले जमीन उस समय खिसक गयी, जब उनके एजेंट ने उन्हें बताया कि चूंकि उनका पैसा जिस फंड में लगा था वह “शेयर मार्केट आधारित” था, और इस समय मार्केट बहुत गिरा हुआ है, इसलिए उन्होंने अपनी आपातकालीन सेविंग के रूप में जो पचास हजार रूपए जमा करवाए थे उनकी कीमत अब छत्तीस हज़ार रूपए रह गयी है, और यदि वे चाहते हैं कि उन्हें कुछ मुनाफ़ा मिले तो उन्हें पाँच वर्ष और रुकना चाहिए, ताकि शेयर मार्केट ऊपर चढ़ने के बाद अच्छा पैसा मिलेगा. ये कहानी अकेले मेहताजी की नहीं है, भारत में ऐसे लाखों-करोड़ों लोग हैं जो उपरोक्त घोटालों और एजेंटों द्वारा बहकाए जाने के कारण शेयर मार्केट तथा म्यूचुअल फण्ड से बिदके हुए हैं.

ऐसे में बचत के रूप में उनकी एकमात्र आशा होती है, स्वर्ण आभूषण या बैंक FD. स्वर्ण आभूषण घरों में रखना खतरे से खाली नहीं है, लॉकर या तो मिलते नहीं हैं या महंगे मिलते हैं. यदि ताबड़तोड़ पैसा चाहिए हो तो जरूरी नहीं कि स्वर्ण आभूषण की सही कीमत मिल ही जाए... ऐसे में ले-देकर बुजुर्गों के पास केवल FD और पोस्ट ऑफिस ही बचता है, जिसके द्वारा उनका खर्च चलता रहे. बैंकों का कहना है कि नोटबंदी के कारण उनके पास लगभग एक लाख करोड़ की अतिरिक्त नकदी जमा हो गयी है (जो पहले लोगों ने अपने घरों में छिपाकर या बाज़ार के प्रचलन में दे रखी थी). बैंकों को समझ में नहीं आ रहा है कि इस भारी नकदी जमा का क्या करें. इसीलिए उन्होंने यह ब्याज दरों में कमी का रास्ता निकाला है, ताकि लोग बैंकों में अपना पैसा न रखें. लेकिन सवाल घूमफिरकर वहीं आ जाता है कि रिटायर्ड बुज़ुर्ग ऐसी स्थिति में क्या करें? उनका मार्गदर्शन करने वाला कोई नहीं है... निजी बीमा कंपनियों अथवा म्यूचुअल फंडों के एजेंटों पर उन्हें भरोसा नहीं है... शेयर मार्केट में उन्होंने कभी अपने जीवन में एक पैसा भी नहीं लगाया...

विदेशों में स्थिति यह है कि बहुत से देशों में उनके नागरिकों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य लगभग मुफ्त है. जब वे सरकारें अपने नागरिकों से टैक्स वसूलती हैं तो बुढ़ापे में उनका ख़याल भी रखती हैं, इसलिए वहाँ पर बुजुर्गों को “सेविंग” से कोई ख़ास मोह नहीं होता है. लेकिन भारत में “सामाजिक सुरक्षा” के नाम पर एक बड़ा सा शून्य है. यहाँ पर तो बुजुर्गों को “अपनी जेब से”, अपने खर्चों पर ही दवाएँ खानी हैं, ऑपरेशन करवाने हैं और घरखर्च चलाना है. सरकार की तरफ से पेंशन के अलावा (और पेंशन भी हर किसी के नसीब में कहाँ होती है) दो कौड़ी की मदद भी नहीं मिलेगी.

इसका दूसरा पक्ष है बैंक, जिनका कहना है कि हमारे पास नकदी की भरमार है और अब हम सस्ती ब्याज दरों पर ऋण देंगे, ताकि उद्यमिता बढ़ेगी, उद्योग लगेंगे, नए काम-धंधे पैदा होंगे... देश का विकास होगा. लेकिन क्या यह सच है?? नहीं!!! यह अर्धसत्य है, भ्रम है. ताज़ा आँकड़ों के मुताबिक़ बैंकों का कुल नौ लाख करोड़ रूपए से भी अधिक पैसा NPA या NPL में फंसा हुआ है. NPA अर्थात नॉन-परफोर्मिंग-असेट्स तथा NPL यानी नॉन-परफोर्मिंग-लोन. संक्षेप में कहें तो ऐसे खराब परिसंपत्तियाँ और ऐसे बुरे ऋण जिनसे बैंकों को फूटी कौड़ी भी नहीं मिल रही. विजय माल्या हों, सहारा समूह के मालिक हों या इस प्रकार दर्जनों बड़े उद्योगपति हों. जिस सूची को सरकार दबाए बैठी है, उस सूची में ऐसे तमाम उद्योगपतियों के नाम हैं, जिन्होंने बैंकों से करोड़ों रूपए लिए और वे डूबत खाते में चले गए. बैंकों ने भी अपने हथियार डाल दिए हैं और हार मान ली है. अपने-अपने बही-खातों में बैंकों ने ऐसी “लूट” को डूबत खाता मानकर बंद कर दिया है. बैंकों की सेहत खराब करने में इन उद्योगपतियों का जितना बड़ा हाथ है, उतना तो नहीं लेकिन महत्त्वपूर्ण हाथ किसानों-अल्पसंख्यक-दलितों-गरीबों के नाम पर चलने वाली योजनाओं के लिए दिए जाने वाले “सरकारी ऋणों” का भी है. चुनाव जीतने के लिए प्रत्येक राजनैतिक दल किसानों के कर्ज माफ़ करता जाता है, बिजली बिल एडजस्ट करता जाता है. अब किसानों को भी इसकी आदत पड़ गयी है, उन्हें मालूम है कि ऋण की एक सीमा के बाद उन्हें कोई हाथ नहीं लगा सकता, आज नहीं तो कल ऋण माफी होगी ही, या फिर बैंक खुद ही उनके सामने गिडगिडाकर कहेगी कि 25% या 40% पर समझौता कर लो.

ऐसे उद्योगपतियों तथा ऐसे किसानों को दिए जाने वाले ऋण का पैसा कहाँ से आता है? यह हजारों करोड़ के डूबत खाते किसके पेट पर लात मारकर चल रहे हैं? जी हाँ!!! मध्यमवर्गीय लोगों की जेब से... रिटायर्ड बुजुर्गों की FD में से... सामान्य जनता की खून-पसीने की कमाई पर ब्याज दरें घटा-घटाकर... हमारी बचत पर कैंची चलाकर.

लेकिन यह एक ऐसा दुष्चक्र है, जिसका फिलहाल कोई तोड़ नहीं है. बुज़ुर्गों और छोटी बचत योजनाओं में पैसा लगाने वाले निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों के जीवन में आर्थिक कठिनाईयाँ बढ़ती ही जानी हैं, क्योंकि सरकार का पूरा ध्यान पार्टी फंड के लिए पैसा देने वाले उद्योगपतियों तथा चुनावों में वोट बैंक की तरह उपयोग होने वाले किसानों-गरीबों पर है... करोड़ों की जनसंख्या वाला एक “बीच का वर्ग” भी है, जो केवल दो पाटों के बीच पिसने के लिए अभिशप्त है.

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