पल्लार दलित समुदाय के साथ चर्च में हो रहा घोर अन्याय

Written by गुरुवार, 26 अप्रैल 2018 13:15

यह रिपोर्ट आई है तमिलनाडु के शिवगंगा जिले से. दक्षिण तमिलनाडु के इस जिले में हजारों दलितों को चर्च द्वारा ईसाई बनाया जा चुका है.

हिन्दू धर्म छोड़कर पैसों अथवा नौकरी की लालच में ईसाई बने ऐसे दलितों के साथ अन्याय और भेदभाव की (Discrimination in Church) ख़बरें तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और केरल जैसे राज्यों से आती ही रहती हैं. ईसाई बनाए जा चुके दलितों के लिए अलग चर्च और अलग कब्रिस्तान तो होता ही है, इन्हें चर्च की प्रमुख पूजा पद्धतियों में भाग लेने से भी रोका जाता है और पादरियों के पद पर दलितों को नियुक्त भी नहीं किया जाता. हिन्दू धर्म को त्यागकर ईसाई बने इन दलितों की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है.

तमिलनाडु अन-टचेबिलिटी इरेडिकेशन फ्रंट के सचिव के.सेमुअल राज ने एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित करके सरेआम शिवगंगा डायोसीज पर यह आरोप लगाए हैं कि उन्होंने जानबूझकर “पल्लार समुदाय के दलितों” (Pallar Dalit Community) के साथ भेदभाव जारी रखा हुआ है. के.सेमुअल राज के अनुसार शिवगंगा के ग्रामीण क्षेत्रों में मूल ईसाईयों और कन्वर्टेड दलित ईसाईयों के चर्च भी दो हैं, कब्रिस्तान भी दो हैं.... यहाँ तक कि जातिवाद के दंभ से पीड़ित चर्च ने त्यौहार भी अलग-अलग मनाए हैं.

 

Diocese Dalit

 

सेमुअल राज द्वारा पेश किए गए दस्तावेजों के मुताबिक़ चर्च द्वारा चलाए जा रहे कॉलेजों, स्कूलों, अस्पतालों इत्यादि में जाति के आधार पर भेदभाव चरम पर है. शिवगंगा डायोसीज में 25% जनता पल्लार दलित समुदाय की है, लेकिन पिछले तीस वर्षों में एक भी दलित समुदाय के व्यक्ति को चर्च में पादरी के रूप में नियुक्ति नहीं मिली है. बल्कि जले पर नमक छिडकते हुए, पादरी का प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके 14 पल्लार दलितों को सेमिनरी से निकाल दिया गया है.

सेमुअल राज के ही एक और मित्र, माइकल राजा जो कि पहले “हिन्दू दलित” थे और धर्मान्तरित होकर ईसाई बन गए हैं वे कहते हैं कि शिवगंगा जिले की डायोसीज में कुल 150 पादरी हैं, लेकिन इनमें से एक भी पल्लार दलित समुदाय से नहीं है, मूल कैथोलिक ईसाई हमें सदैव नीची निगाह से देखते हैं, जबकि अब हम भी ईसाई हैं. शिवगंगा के रेवरेंड बिशप से भी इन्होंने इस छुआछूत और भेदभाव की शिकायत की थी, लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला. अब पल्लार दलितों ने इस मामले को मदुराई में सम्पन्न होने वाली बिशपों की कांफ्रेंस के दौरान उठाने का फैसला किया है. लेकिन वास्तविकता यही है कि “हिन्दू दलित” से “दलित ईसाई” बन जाने के बावजूद इनकी आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है. तमिलनाडु के दलित ईसाई केवल चर्च का मोहरा बनकर रह गए हैं और खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. सवाल ये है कि तथाकथित दलित चिन्तक और दलितों के नाम पर जमकर चंदा खाने वाले राजनेता ऐसे मौके पर दलितों का साथ छोड़कर क्यों भाग जाते हैं? जितने मुखर ये लोग हिन्दू सवर्णों के खिलाफ रहते हैं, चर्च के भेदभाव और छुआछूत के खिलाफ चुप्पी क्यों साध लेते हैं?? 

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