1990-91 के बाद से कुछ बांग्लादेशी मुस्लिमों ने मोरग्राम में अपना डेरा ज़माना शुरू किया. ये बांग्लादेशी मुस्लिम उन 15 मुस्लिम परिवारों के “मेहमान” अथवा “रिश्तेदार” बनकर कस्बे में आए. हिन्दू परिवारों ने उनकी बातों पर भरोसा कर लिया कि वे वास्तव में उनके रिश्तेदार हैं (उन दिनों अविश्वास का कोई कारण भी नहीं था). धीरे-धीरे इन “मेहमानों और रिश्तेदारों” ने खेतों के आसपास की खाली सरकारी जमीन पर कब्ज़ा और अतिक्रमण करना शुरू कर दिया. मोरग्राम के हिन्दुओं ने CPI(M) के स्थानीय नेताओं से इसकी शिकायत की, परन्तु वामपंथ को सेकुलरिज्म इस बात की इजाजत नहीं देता था कि वे नेता इन नए-नवेले मेहमानों से कोई सवाल-जवाब कर पाते. 1998 आते-आते तक मोरग्राम की जनसँख्या में 50 मुस्लिम परिवार हो गए थे, इनमें से अधिकाँश के पास अचानक कहीं से बहुत सा पैसा आ गया था और उन्होंने कुछ खेत भी खरीद लिए. बोलपुर के निवासी कल्याण चटर्जी बताते हैं कि हम लोग हैरान थे कि हम तो गरीब ही रह गए, और आखिर इन बाहर से आए लोगों के पास इतना पैसा कहाँ से आ गया?
बस... इसके बाद यानी लगभग सन 2000 से, इन मुस्लिम “मेहमानों और रिश्तेदारों” का असली खेल शुरू हुआ. हिन्दुओं की लड़कियां छेड़ना, औरतों को भद्दे ताने देना, खामख्वाह के विवाद पैदा करके रोजाना झगडे करना इत्यादि शुरू हुआ. ज़ाहिर है कि पुलिस में शिकायत का कोई लाभ नहीं था, क्योंकि स्थानीय “वामपंथ-सेकुलरिज्म” का वरदहस्त इन्हें प्राप्त था. जल्दी ही इन 50 मुस्लिम परिवारों ने हिन्दुओं के मंदिरों, घंटी की आवाज़ और दुर्गापूजा पर आपत्ति लेना शुरू कर दिया. गाँव के एकमात्र काली मंदिर के आजूबाजू दो मस्जिदें खड़ी कर दी गईं और पाँचों वक्त की नमाज के समय मंदिर आने-जाने वालों को गालियाँ देना शुरू किया गया. धीरे-धीरे कस्बे में दुर्गापूजा ही बंद हो गई.
इसके बाद वही शुरू हुआ, जो आज देश के लगभग 200 जिलों में हो रहा है, यानी सन 2001 से हिन्दुओं ने अपने खेत और मकान औने-पौने दामों पर बेचने शुरू कर दिए और मोरग्राम से निकलने लगे. सुदीप मुखर्जी बताते हैं कि उनका आठ बीघा का खेत था, जिसे उन्होंने एक मुस्लिम को बेचा और आठ साल पहले पास के बोलपुर में रहने चले गए. अभी एक बात बताना बाकी है... पहले इस कस्बे का नाम “मौर्यग्राम” था, जिसे मुस्लिमों ने जिद करके मोरग्राम करवा दिया, और अब इस कस्बे में केवल दस हिन्दू परिवार बचे हैं, जो मुस्लिमों के खेतों में मजदूरी करते हैं. हरिपद बोराल कहते हैं कि ईद के दिन वे काली मंदिर के सामने ही गाय काटते थे और पुलिस कुछ नहीं करती थी, अंततः हमने फैसला किया कि जब हमारे नेता ही हमारी बात नहीं सुन रहे हैं, पुलिस-प्रशासन ही साथ नहीं दे रहा है तो यहाँ से निकल लेना ही ठीक है, बोराल साहब भी बर्दवान चले गए.
आज की स्थिति में बंगाल के सैकड़ों गाँव “इसी पद्धति के वामपंथ-सेकुलरिज्म-तृणमूल” की मेहरबानी से दुर्दशा में पहुँच चुके हैं. घने बसे गाँवों से हिन्दू पलायन करके कोलकाता, बर्दवान अथवा चौबीस परगना चले गए हैं और इन गाँवों में मुस्लिम जनसँख्या का घनत्व बेहद बढ़ गया है, जहां खुलेआम तमाम अवैध कारोबार किए जा रहे हैं, लेकिन चूँकि ये सब “मुमताज़ बानो” उर्फ़ ममता बनर्जी के वोटबैंक हैं इसलिए यह धड़ल्ले से हो रहा है, सरेआम हो रहा है. यह “वोटबैंक” तीस वर्ष तक वामपंथ के पास था, लेकिन ममता बनर्जी ने उन्हीं के खेल में उन्हीं को मात देने के लिए पहले वामपंथ से उसका कैडर छीना, फिर वोटबैंक छीना और बांग्लादेशी मुस्लिमों को उनसे ज्यादा “सहूलियतें” दीं.