यह हीरा वर्तमान में अमेरिका के एक संग्रहालय में रखा हुआ है. “नासक” हीरा मूलतः वर्तमान तेलंगाना प्रदेश के महबूबनगर जिले में स्थित अमरगिरी खदान से पन्द्रहवीं शताब्दी में निकला था. जब यह खदान से निकाला गया, उस समय अपने मूल स्वरूप में यह हीरा 89 कैरेट का था. इस बड़े से हीरे को नासिक के ज्योतिर्लिंग अर्थात त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के शिवलिंग पर स्थापित किया गया था. आगे चलकर नासिक के नाम पर ही इस हीरे का नाम “नासक हीरा” पड़ गया. इस प्रकार अगले लगभग दो सौ वर्षों तक यह हीरा त्र्यम्बकेश्वर की मूर्ति पर विराजमान रहा. इसके विशाल आकार और चमक के बारे में देख-सुनकर विदेशी आक्रान्ताओं एवं मुगलों की बुरी निगाह इस हीरे पर लगातार गड़ी हुई थी. मराठा साम्राज्य के मजबूत रहते किसी की हिम्मत नहीं हुई थी कि कोई इस मंदिर पर हमला करके यह हीरा लूट ले जाए. परन्तु सन 1761 की भीषण पराजय ने मराठा साम्राज्य को जैसा कमज़ोर और त्रस्त बना दिया था, उसके बाद मराठा साम्राज्य कभी भी उतना शक्तिशाली नहीं बन पाया, जैसा कि वह था. हालाँकि फिर भी सन 1800 तक यह हीरा मंदिर में ही सुरक्षित रहा. आगे चलकर बाजीराव पेशवा “द्वितीय” (जो कि इतने मजबूत पेशवा राजा नहीं थे) ने हीरे की सुरक्षा की खातिर इसे निकालकर मराठा खजाने में रखवा दिया.
सन 1817 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी और बुरी तरह कमज़ोर हो चुके मराठा साम्राज्य के बीच तीसरा आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ. अंग्रेजों के साथ हुई इस लड़ाई में बाजीराव द्वितीय बुरी तरह हार गए, इसी के साथ अंग्रेजों का लगभग पूरे भारत पर राज्य स्थापित हो गया. सन 1818 में बाजीराव द्वितीय को मजबूरी में अंग्रेजों के साथ एक अपमानजनक समझौता करना पड़ा और आखिरकार जिस हीरे पर अंग्रेजो की निगाह थी, वह “नासक” हीरा अंग्रेजों के हवाले किया गया. यह समझौता बाजीराव द्वितीय और अंग्रेज कर्नल जे. ब्रिग्स के बीच हुआ था. कर्नल ब्रिग्स ने यह हीरा पेशवाओं के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व करने वाले फ्रांसिस हेस्टिंग्स को दिया, और अंततः हेस्टिंग्स ने यह हीरा ईस्ट इण्डिया कंपनी को मराठों पर अपनी जीत के रूप में पेश किया. तत्काल 1818 में ही ब्रिटिशों ने यह हीरा लन्दन भेज दिया और वहाँ के हीरा मार्केट में इसकी नीलामी के लिए रख दिया. जब यह हीरा लन्दन के हीरा बाज़ार में पहुँचा उस समय भी यह हीरा 89 कैरेट (लगभग 17.8 ग्राम) का “अनकट” हीरा था. लेकिन इसे कोहिनूर का आकार देने के लिए इस हीरे को कई बार काटा और छीला गया. इसके बावजूद लन्दन की एक हीरा कंपनी रैंडल एंड ब्रिज ने इस “नासक” हीरे को उस काल में 3000 पाउंड में खरीदा (यदि आज के हिसाब से कीमत लगाएँ तो यह लगभग 1,98,000 पाउंड होती है).
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रैंडल एंड ब्रिज कंपनी ने यह हीरा तेरह वर्षों तक एक “गौरव” के रूप में अपने पास रखा. फिर इसकी थोड़ी और घिसाई करके, आकार हल्का सा बदलकर इस 78.6 कैरेट (15.7 ग्राम) के हीरे को इस कम्पनी ने इमानुएल ब्रदर्स नामक कम्पनी को 7200 पाउंड में बेच दिया (आज की कीमत लगभग 5,90,000 पाउंड). 1837 में यह हीरा इमानुएल ब्रदर्स ने वेस्टमिंस्टर के प्रथम मार्कस रॉबर्ट ग्रोस्वेनर को बेच दिया. एक समय ऐसा भी था जब रॉबर्ट ग्रोस्वेनर ने इस हीरे को अपनी तलवार में जड़ा रखा था, ताकि उसका रौब और भी अधिक चमके. 1886 आते-आते इस हीरे की कीमत 30,000 से 40,000 पाउंड पहुँच गई (आज की तारीख के अनुसार 29 लाख 47 हजार से लेकर 39 लाख 30 हजार पाउंड तक). मार्च 1927 में इस हीरे को वेस्टमिंस्टर के ड्यूक से एक अमरीकी फर्म मेयर्स ओसतार्वाल्ड ने खरीद लिया. तब तक यह हीरा विश्व में इतना लोकप्रिय हो चुका था और इसकी कीमत के इतने चर्चे होने लगे थे कि 1929-30 में चार बार इसकी चोरी का असफल प्रयास भी हुआ.
अप्रैल 1970 में इस हीरे को विश्व के सर्वाधिक तीस सबसे कीमती और शानदार पत्थरों में सबसे ऊंचा स्थान हासील था, और इसे न्यूयॉर्क की पार्क-बेनेट गैलरी में दर्शकों को देखने के लिए रखा गया था. 16 अप्रैल 1970 को यह हीरा तत्कालीन मुद्रा में पाँच लाख पाउंड में नीलामी के लिए रखा गया (यदि वर्तमान मुद्रास्फीति के हिसाब से इसकी कीमत कम से कम तीस लाख पाउंड होती है). नवंबर 1976 तक यह हीरा अमेरिका के कनेक्टिकट शहर के म्यूजियम में था. वर्तमान में यह किस संग्रहालय में है, इस बारे में कोई ठोस जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध नहीं है.
दुर्भाग्य से भारत की ऐसी अनेक धरोहर और विरासतें, पांडुलिपियां, मूर्तियाँ, ग्रन्थ इत्यादि विदेशों के संग्रहालयों में पड़े हैं. लेकिन सौभाग्य से कम से कम संतोष की बात यही है, कि वहाँ उनकी समुचित देखभाल और इज्जत की जाती है, हम तो यहाँ शिवाजी महाराज के बनाए हुए अदभुत किलों को ही नहीं ठीक से नहीं संभाल पा रहे हैं. नासक हीरे के बारे में भी सटीक जानकारी किसी को नहीं है... कहीं लिखा है कि यह हीरा अमेरिका के संग्रहालय में है, तो कहीं लिखा है कि यह हीरा अभी लेबनान में है... पता नहीं सच क्या है, लेकिन इतना जरूर है कि बड़ी संख्या में अमूल्य और ऐतिहासिक भारतीय धरोहर आज भी विदेशों में है.