अंतिम किले कर्नाटक, को बचाने हेतु कांग्रेस का गन्दा खेल...

Written by शुक्रवार, 04 अगस्त 2017 07:48

जब कोई सेना बुरी तरह हारने लगती है और उसे दुम दबाकर पीछे की तरफ भागना होता है, तब अक्सर वह हारी हुई सेना वापस जाते-जाते अपनी खीझ और क्रोध उतारने के लिए लूटपाट, हत्याएँ करती हुई... गाँव उजाडती हुई भागती है.

काँग्रेस भी लगभग इसी तरह की मानसिकता से गुज़र रही है. जिस तरह से देश भर में दिनोंदिन काँग्रेस की हालत खराब होती जा रही है और भाजपा मजबूत होती जा रही है, उसे देखते हुए अपनी खीझ और गुस्से को उतारने के लिए काँग्रेस बेहद निचले स्तर तक उतरती जा रही है. कर्नाटक में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं. उल्लेखनीय है कि इस समय केवल कर्नाटक ही एकमात्र ऐसा बड़ा राज्य बचा है जो काँग्रेस के हाथ में है, और मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और सोनिया गाँधी अपने इस अंतिम किले को बचाए रखने के लिए पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए उन्हें घटिया राजनीति और देश तोड़ने वाले बयानों तथा समाज को खण्ड-खण्ड करने वाले कृत्यों को बढ़ावा देने से भी गुरेज़ नहीं है. 

जैसा कि सभी जानते हैं, कर्नाटक की राजधानी बंगलौर अब केवल “कन्नडिगा” क्षेत्र नहीं रहा, बल्कि यह भारत की सिलिकॉन वैली कहलाता है तथा मुम्बई की तरह इसका भी एक “मेट्रोपोलिटन कल्चर” विकसित हो चुका है. ऐसे में उत्तर भारत से वहाँ जाकर बसने वाले युवाओं के लिए केन्द्र सरकार ने बंगलौर मेट्रो एवं बसों में तीसरी भाषा के रूप में “हिन्दी” को लागू करने का आदेश दिया, तो इसमें कोई राजनीति नहीं थी. परन्तु काँग्रेस जो कि बंगलौर की सड़कों के गढ्ढे भी ठीक से नहीं भर सकती, विकास के नाम पर लूट मचाई हुई है... उसने “भाषा” के इस मुद्दे को अपनी घटिया राजनीति के लिए लपक लिया और केन्द्र सरकार के इस आदेश को “कन्नड़-हिन्दी” संघर्ष के रूप में पेश करना शुरू कर दिया है. काँग्रेस का कहना है कि कन्नड़ भाषा प्रदेश का गौरव है और संघ यहाँ अपनी संस्कृतनिष्ठ हिन्दी थोपना चाहता है, इसे कभी सहन नहीं किया जाएगा.

Quadrilingual Train Name written in Kannada Hindi Tamil English

(प्रस्तुत चित्र में आपन देख सकते हैं कि भाषा को लेकर कितनी भावनाएँ और दबाव है कि रेलवे को अपना बोर्ड चार-चार भाषाओं में लगाना पड़ रहा है)

(यह लेख आपको desicnn.com के सौजन्य से प्राप्त हो रहा है... जारी रखें)

देखते ही देखते काँग्रेस ने अपने कैडर एवं खरीदे हुए कथित विद्वानों के जरिये इस “भाषा-मुद्दे” को जबरदस्त तरीके से फैला दिया और अंततः येद्दियुरप्पा सहित लगभग सभी भाजपाई स्वाभाविक रूप से बैकफुट पर आ गए. दक्षिण भारत में “भाषा” का मुद्दा हमेशा से संवेदनशील तथा भावुक किस्म का रहा है. इसलिए काँग्रेस ने अपना मुद्दा विकास और सुशासन की बजाय बड़ी ही शातिर तरीके से “कन्नड़-हिन्दी” संघर्ष के रूप में जनता के माथे थोप दिया... जनता को भावनाओं में बहाना हमेशा आसान होता है. आसन्न विधानसभा चुनावों के कारण फिलहाल भाजपाई भी इस मुद्दे को लेकर कुछ नहीं कर पा रहे हैं, केवल बचाव में लगे हैं. ज़ाहिर है कि इस खेल की चाल में काँग्रेस ने बाजी मार ली.

ये तो हुआ भाषा का मुद्दा, जिस पर काँग्रेस ने प्राथमिक रूप से बढ़त हासिल कर ली. इसी तरह घटिया राजनीती के निचले स्तर को छूते हुए कांग्रेस अब एक नए मुद्दे को हवा देने में जुटी है. यह मुद्दा है “लिंगायत पहचान” का. सर्वज्ञात है कि पिछले कई दशक से कर्नाटक की राजनीति वहाँ की दो प्रमुख जातियों “लिंगायत” और “वोक्कालिगा” पर आधारित होती है. हमेशा इन्हीं दोनों जातियों में से ही कोई न कोई मुख्यमंत्री बनता है. जनगणना के अनुसार लिंगायत समुदाय उत्तरी कर्नाटक में मजबूत है, जबकि वोक्कालिगा समुदाय दक्षिण कर्नाटक में. उत्तरी कर्नाटक में 105 विधानसभा सीटें हैं, जबकि दक्षिण भारत में 119 सीटें हैं. लेकिन जनसँख्या के अनुसार लिंगायत समुदाय की जनसँख्या कर्नाटक की कुल आबादी का 23% है, जबकि वोक्कालिगा समुदाय की जनसँख्या 16% है. इसलिए देखा जाए तो हमेशा से लिंगायत समुदाय का पलड़ा भारी रहता है. भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार यानी बीएस येद्दियुरप्पा, जो कि अब सुप्रीम कोर्ट द्वारा बरी किए जाने के बाद और मजबूत होकर उभरे हैं, लिंगायतों के सबसे बड़े नेता हैं. पिछले पाँच वर्षों में काँग्रेस के नेताओं द्वारा किए गए भ्रष्टाचार के कारण कर्नाटक की जनता वैसे ही त्रस्त है. ऐसे में भाजपा के पुनः इस गढ़ पर कब्ज़ा करने के पूरे आसार हैं.

तो अब येद्दियुरप्पा को जीतने से रोकने के लिए क्या किया जाए?? ज़ाहिर है अंग्रेजों से सीखी हुई काँग्रेस पार्टी और क्या करेगी... “फूट डालो और राज करो”. इस दूषित मानसिकता और घटिया राजनीति को अंजाम देने के लिए अब कर्नाटक में काँग्रेस ने लिंगायतों में फूट डालने का काम बहुत तेजी से शुरू कर दिया है. एक नया शिगूफा छोड़ा गया है, कि लिंगायत समुदाय हिन्दू ही नहीं है. एक कन्नड़ लेखक चंद्रशेखर पाटिल के हवाले से बड़े-बड़े अखबारों में लेख और इंटरव्यू छपवाए जा रहे हैं कि लिंगायतों को “वीरशैव” समुदाय से अलग करके उन्हें “अ-हिन्दू” घोषित किया जाए. पाटिल के अनुसार लिंगायतों एवं वीरशैव समुदाय का पिछले 800 वर्षों का संघर्ष का इतिहास रहा है. वीरशैव समुदाय “हिंदुओं की तरह” पुनर्जन्म एवं कर्म इत्यादि पर विश्वास करते हैं, लेकिन लिंगायत नहीं (पाटिल जैसे नकली बुद्धिजीवी के अनुसार). चंद्रशेखर पाटिल के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने ही निर्णय दिया है कि “हिन्दू कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन पद्धति है”, इसलिए हम लिंगायतों को हिन्दू मानते ही नहीं हैं. इसे एक अलग पंथ घोषित किया जाए. ज़ाहिर है कि काँग्रेस की चाल यह है कि लिंगायतों में फूट पैदा करके उस 23% वोट बैंक को तोड़ दिया जाए और वोक्कालिगा समुदाय के 16% वोटों को फुसलाकर कर्नाटक की सत्ता पर पुनः कब्ज़ा किया जाए.

स्वाभाविक है कि इस मुद्दे पर भी भाजपा लगभग बैकफुट पर ही है, क्योंकि यदि वह इस मुद्दे को आक्रामक तरीके से निपटने का प्रयास करे तो वीरशैव-लिंगायत समुदाय में वास्तविक फूट भी पड़ सकती है, क्योंकि दूसरी तरफ से सतत ज़हर उगलना जारी है और यदि 23% में से चार-पाँच प्रतिशत वोटर भी भ्रमित हो गए अथवा जातिगत वैमनस्यता बढ़ गई तो भाजपा को कड़ा संघर्ष करना पड़ सकता है. हालाँकि इस बीच येद्दियुरप्पा ने भी अपना गणित खेलना शुरू कर दिया है और अगस्त माह में ही उन्होंने लिंगायत समुदाय की संस्थाओं एवं मंदिरों-गुरुओं का एक विशाल सम्मेलन आयोजित करने का फैसला किया है ताकि एकजुटता बनी रहे. दूसरी पंक्ति के लिंगायत नेताओं को भी मोदी के अनुशासन का डर, केन्द्र की सत्ता का जलाल एवं कर्नाटक की सत्ता में आने पर पर्याप्त लॉलीपॉप देने का आश्वासन देकर साथ में रखा हुआ है.

अब देखना यही है कि काँग्रेस का अंतिम बड़ा गढ़ कर्नाटक मोदी की लहरों में बह जाता है कि नहीं? या फिर काँग्रेस की “सनातन चालों एवं षड्यंत्रों” का शिकार बनकर कर्नाटक की जनता पुनः उसी को चुनेगी?? कुल मिलाकर बात यह है कि हाथ से सत्ता जाती हुई देखकर तथा पूरे देश से सफाया होने की संभावना देखते हुए काँग्रेस अब अपने “पुराने स्वरूप” में लौटती दिख रही है, अर्थात जाति-भाषा के नाम पर भड़काना और बाँटना. क्योंकि जब तक हिंदुओं को टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं बाँटा जाएगा, काँग्रेस का जीतना मुश्किल है.

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