यानी जहाँ कार्यपालिका को थोड़े से भी नियमों या कानून के पालन से विचलित होने पर उत्तरदायी मानकर कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है, वहीं न्यायपालिका अपने निर्णयों को लेकर किसी के प्रति भी उत्तरदायी नहीं है... ऐसा क्यों? क्या न्यायाधीश महोदय द्वारा दिए गए गलत निर्णयों, अथवा फालतू के “स्थगन आदेशों” के कारण यदि कोई दुर्घटना होती है तो उसके लिए न्यायाधीश जिम्मेदार क्यों नहीं माने जाने चाहिए?? आईये संक्षेप में हम दो घटनाओं को देखते हैं और विचार करते हैं कि इसमें बेचारे मृतकों अथवा नुक्सान उठाने वालों की क्या गलती थी...
पहला मामला है चेन्नई के एक भवन में लगी भीषण आग का. आठ मई को लगी इस आग में मीनाक्षी (65), सेल्वी (30), संजय (3), संजय (10) सोते हुए ही काल के गाल में समा गए. ये लोग जिस भवन में रहते थे, वह 1992 में निर्मित हुआ था, इस भवन में बाद में 2004 में अनधिकृत रूप से अतिरिक्त दो मंजिल जोड़ी गयी थी. इस अग्निकांड में ६ लोग गंभीर रूप से घायल भी हुए थे. आग भवन के जंक्शन बॉक्स से प्रारम्भ होकर दो पहिया पार्किंग तक जा पहुंची. आग की लपट से उठे धुऐं की चपेट में आकर निर्दोषों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा. चेन्नई नगर निगम के दावे के अनुसार 2016 के सितम्बर माह में ही इस भवन के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, किन्तु पिछले दरवाजे से प्रयोग चलता रहा. इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध न्यायालय का अंतरिम आदेश भी जारी हुआ था. स्वाभाविक है कि न्यायालय के इसी स्थगन आदेश के कारण इस भवन का प्रयोग निर्बाध रूप से चल रहा होगा.
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अभी इस आग की चिंगारियां बुझी भी नहीं थीं, कि चेन्नई के ही टी नगर के सिल्क भवन में 30 मई को एक और भयानक अग्निकांड हो गया, जिसमें करीब २०० करोड़ की संपत्ति जल कर स्वाहा हो गई. अच्छी बात यह रही कि इस दुर्घटना में जान की कोई हानि नहीं हुई| प्राप्त समाचारों अनुसार इस भवन में कई टेक्सटाइल और ज्वेलरी के संस्थान थे. इस भवन को नगर निगम का आवश्यक कार्य समाप्ति प्रमाणपत्र भी जारी नहीं किया गया था. इस भवन में प्रस्तावित चार मंजिलों की स्वीकृति को अनदेखा कर के आठ मंजिल तक का निर्माण हुआ था। इस मामले में भी भवन निर्माताओं पास न्यायालय का अंतरिम आदेश था, जिससे वह स्वीकृति नहीं होने पर भी भवन को व्यावसायिक गतिविधियों की लिए उपयोग कर रहे थे| इन घटनाओं को देखते हुए प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि जब कार्यपालिका विभिन्न संस्थाओं के प्रति उत्तरदायी होती है, तो फिर माननीय न्यायाधीश जिन्होंने इस तरह के अनधिकृत भवनों के पक्ष में अंतरिम आदेश जारी किये हैं, वह अपने कर्तव्यों के उत्तरदायित्व से कैसे मुँह मोड़ सकते हैं? प्रशासन की आपत्ति को अनदेखा करके अंतरिम आदेश जारी करने वाले न्यायाधीश इस तरह की जघन्य दुर्घटनाओं के लिए उत्तरदायी क्यों ना माने जायें ?
अब कार्यपालिका के अधिकारियों की ओर से यह सवाल उठाया जा रहा है कि जब इस तरह की किसी परिस्थिति में प्रशासनिक अधिकारियों पर कार्यवाही होती है, फिर समान गलतियों या लापरवाही के लिए न्यायाधीशों के ऊपर कोई दंडात्मक कार्यवाही क्यों संभव नहीं है? न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत के अनुसार न्यायाधीशों को भी उत्तरदायित्व स्वीकार कर के कार्यवाही की सीमा में होना चाहिए, किन्तु वास्तविकता इससे उलट है. 1850 के Judicial Officers’ Protection Act और Judges’ Protection Act, 1985 के अनुसार किसी भी न्यायाधीश के द्वारा उसके अधिकार क्षेत्र में न्यायिक सेवा करते हुए किया गया कोई भी कार्य, या पारित आदेश उसको संरक्षित करता है. किसी भी त्रुटिपूर्ण, अनियमित, गैर कानूनी, गलत उद्देश्य से पारित किसी भी आदेश के विरूद्ध हुई शिकायत से भी न्यायाधीशों को पूर्ण संरक्षण है|
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माननीयों द्वारा खुद के पक्ष में दिया गया यह अजीबोगरीब निर्णय देखें... - “...सरकार और समाज से दोहरी मान्यता प्राप्त न्यायपालिका आम जनता के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है| अपने निर्णयों के माध्यम से क़ानून को स्थापित करने की शक्ति से युक्त न्यायपालिका किसी भी गणराज्य की प्रमुख शक्ति होती है, राज्य की यह शक्ति न्यायालयों के माध्यम से संचालित होती है| अतः यह माना जा सकता है कि व्यापक जनहित में न्यायालयों की स्वतंत्रता आवश्यक है, लेकिन यह स्वतंत्रता सामान्य नागरिकों के मूल अधिकारों का भी उल्लंघन करती है| किसी न्यायाधीश द्वारा गलत निर्णय देने पर किसी न्यायाधीश के विरुद्ध की गयी कार्यवाही या आर्थिक दंड भी जनहित के विरुद्ध है...”(सूरजपाल बनाम केरल सरकार)|
ज़ाहिर है कि यह छूट न्यायाधीशों को "जनहित" के नाम पर दी गयी है| इसका सीधा अर्थ है कि जनता न्यायाधीशों पर किसी अंतरिम आदेश को जारी करने पर कोई अभियोग नहीं चला सकती, जैसे कि उपरोक्त वर्णित दोनों घटनाओं में स्पष्ट है कि अनधिकृत भवन में, अधिकृत प्रवेश के आदेश दिए गए... जिसके परिणामस्वरूप जन-धन की हानि हुई| किसी न्यायाधीश पर अभियोग तभी संभव है, जब उसने अपने अधिकार क्षेत्र अंतर्गत दिए किसी निर्णय में मंशा गुप्त रही हो अथवा निर्णय किसी भ्रष्टाचार के आरोप हो जाए. बचाव का आलम ये है कि ऐसी किसी परिस्थिति में भी न्यायाधीश पर अभियोग केवल उच्च या उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीश द्वारा ही चलाया जा सकता है| सामान्य जनता को अभियोग चलाने या गलत निर्णय के विरुद्ध किसी तरह की क्षतिपूर्ति का अधिकार नहीं है. कोई आश्चर्य नहीं कि क़ानून का पालन करने वाली जनता इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं है, परन्तु व्यापक जनहित के नाम पर ऐसा चलता आ रहा है... पता नहीं इसमें क्या जनहित है?