मोदी सरकार :- कमज़ोर बौद्धिक मोर्चा, अनिर्णय और अनिच्छा

Written by मंगलवार, 01 मई 2018 08:07

किसी भी सरकार की ठसक केवल कानूनी ही नहीं, सांस्कृतिक-बौद्धिक भी होती है। यह गैर-लोकतांत्रिक तथा लोकतांत्रिक, दोनों सरकारों के लिए सच है।

चीन, क्यूबा या सऊदी अरब की सरकारों के साथ दुनिया भर की सरकारें, संस्थाएं सहज संबंध रखती हैं, जबकि वहाँ कोई लोकतंत्र नहीं है। न होने का कोई आश्वासन है। उन सरकारों की ठसक उन की दृढ़ता, आत्मविश्वास और जनता पर सांस्कृतिक, बौद्धिक वर्चस्व से स्थापित है। उन्हें अंदर, बाहर कोई चुनौती नहीं देता। इस के विपरीत ऐसी सरकार भी हो सकती हैं, जो लोकतांत्रिक है, जो अपने संविधान के अनुरूप कार्य कर रही हैं, जिन्हें बहुमत का समर्थन है – फिर भी जिसे देश में विरोधी दल या संगठित बौद्धिक समूह दिन-रात जली-कटी सुनाए, परेशान करे, काम न करने दे, तथा उस पर कालिख पोतता रहे। पर ऐसे कटिबद्ध विरोधियों के समक्ष वह सरकार असहाय नजर आए। विरोधियों की ऊल-जुलूल माँग पूरी करने पर भी उसे राहत न मिले, बल्कि नई-नई विचित्र माँगे पैदा हों। इस दुश्चक्र से निकलने का उसे कोई मार्ग न सूझे। अभी भारत सरकार ऐसी ही लगती है। इसकी बौद्धिक-रणनीति बहुत कमजोर है। चुनावी समर्थन पाकर भी वह कटिबद्ध विरोधियों, तथा बुद्धिजीवियों के एक संगठित गिरोह के सामने निरुपाय दिखती है। यह झूठे या अतिरंजित मुद्दे उठाकर, देशी-विदेशी राजनीतिक शक्तियों के सहयोग से सरकार को बदनाम करता है, और इन से निपटने की सूरत सरकार को समझ में नहीं आ रही।

स्वयं प्रधान मंत्री कई बिन्दुओं पर नहीं बोलते, बावजूद इस के कि वे गंभीर राजनीतिक मुद्दे हैं। जैसे, चर्च-मिशनरियों द्वारा अपने एजेंट बुद्धिजीवियों द्वारा दलित समुदाय के बीच निरंतर अलगाव, आक्रोश भरना; अवैध रूप से संगठित धर्मांतरण कराना; हिन्दू धर्म-संस्कृति के विरुद्ध अपमानजनक प्रचार करवाना; आदि। अथवा, अनेक मदरसों द्वारा आम मुसलमानों में उग्रवादी, देश-विरोधी, हिन्दू-विरोधी भाव भरना। यह मुद्दे केवल उदाहरण हैं। इन का सीधा संबंध देश की आंतरिक, बाह्य सुरक्षा तथा शान्तिपूर्ण जन-जीवन बने रहने से है। यदि देश का सर्वोच्च राजनीतिक पदधारी इन पर न बोले, तब एक तो यही बेढब स्थिति है। जिस का गलत संदेश जाता है। यह संदेश, कि या तो वह उदासीन या संभ्रमित है। वह भी तब, जब कि उस की सारी झूठी बदनामी इन्हीं विषयों को उठाकर की जाती है! पर इस पर कुछ न बोल कर ही वह मान लेता है कि ये मुद्दे ठंढे रहेंगे, यानी उसे परेशान नहीं किया जाएगा। जबकि बात ठीक यही है कि उस के विरोध की राजनीति उन्हीं मुद्दों पर चलती है, जिसे अकारण भी इसीलिए उठाया जाता रहेगा क्योंकि इस के बिना हिन्दू-विनाश परियोजना (जिस के लिए भाजपा-विरोध, संघ-विरोध एक आड़ भर है) आगे नहीं बढ़ सकती।

कुछ लोग दलील देते हैं कि उन मुद्दों पर भी काम हो रहा है। उन पर सरकार का खुलकर बोलना जरूरी नहीं। चलो, क्षण भर के लिए मान लिया कि उन का बोलना उचित नहीं। कई बार संभावित लाभ-हानि का तुलनात्मक हिसाब संभव नहीं, आदि। लेकिन अभी भारत में एक प्रकार की अध्यक्षीय (पी.एम.ओ.) शासन-प्रणाली चल रही है। इसलिए निर्दोष समूहों, संगठनों तथा स्वयं सरकार के विरुद्ध दुष्टतापूर्ण झूठे आरोपों, लांछन-अभियानों पर भी सरकार की चुप्पी, बल्कि अनुचित रूप से झुक जाने से सरकार का बौद्धिक मोर्चा साफ वीरान लगता है। हैदराबाद में रोहित नामक छात्र की आत्महत्या पर केंद्र सरकार का रवैया बिलुकल सिद्धांतहीन, घुटनाटेक, डरू तथा दिशा-हीन साबित हुआ है। कृपया इन प्रश्नों पर विचार करें –

(1) क्या बिना किसी कानूनी, न्यायिक जाँच के सरकार यह मानती रहेगी कि यदि अमुक-अमुक समुदाय का व्यक्ति आत्महत्या करे, तो उस के दोषी जरूरी तौर पर दूसरे समुदाय के लोग होंगे? तथा वैसे मृतक के परिवार को सरकार एक मोटी रकम देगी?

(2) क्या हिन्दू देवी-देवताओं तथा हिन्दू महापुरुषों का अपमान करना, गोमांस खाने-खिलाने के अभियान चलाना, उस पर आपत्ति करने वाले को पीटना, आदि किसी विशेष समूह या राजनीति से जुड़े व्यक्तियों की प्रतिभा का प्रमाण माना जाएगा? यदि नहीं, तो रोहित में कौन सी प्रतिभा थी, जिस कारण उसे विशिष्ट माना गया?

(3) किस आधार पर संवैधानिक-कानूनी प्रक्रिया के बिना रोहित संबंधी वित्तीय, प्रशासकीय निर्णय हो रहे हैं?

(4) यदि सभी आत्महत्याओं पर ऐसा ही रुख सरकार ने नहीं लिया, तो क्या स्पष्ट नहीं कि निहित स्वाथों और गिरोहों द्वारा समुदाय विशेष से संबंधित मामलों के दुरुपयोग से निपटने की सरकार की कोई तैयारी नहीं है?

(5) ऐसी स्थिति में, आगे हिन्दू-विरोधी देशी-विदेशी तत्वों को और भी बड़े, संगठित अभियान चलाने से कौन सी चीज रोकेगी?

उक्त प्रश्नों का कोई उत्तर सरकार के पास नहीं है। इस का अर्थ यह भी हुआ कि हिन्दू धर्म-संस्कृति, समाज के विरुद्ध विषवमन करने वालों के समक्ष सरकार निरुपाय है। वह हिन्दू धर्म या संगठन की झूठी बदनामी रोकने के लिए कुछ नहीं कर सकती। बल्कि वैसे व्यक्ति को जीवित रहते या उस की हत्या/आत्महत्या के बाद उस के परिवारजनों को अनुदान देगी, जो हिन्दू शास्त्रों को जलाते, गोमांस-भक्षण समारोह करते, स्वामी विवेकानन्द को गालियाँ देते, तथा हिन्दू धर्म का नाश करने की खुली परियोजनाएं चलाने वाले चर्च-मिशनरियों के साथ दोस्ती रखते हैं। यह अंतिम बात पूरे मामले में सब से महत्वपूर्ण है। रोहित से पहले अखलाक प्रसंग, तथा उस से पहले सरकार-विरोधी बुद्धिजीवियों के ‘असहिष्णुता’ अभियानों पर भी यह दिखा कि सरकार बौद्धिक-राजनीतिक मोर्चे पर एकदम खाली-दिमाग है। अतः अभी स्थिति इस प्रकार हैः भारत में वैचारिक, सांस्कृतिक घटनाएं, दुर्घटनाएं और घात हो रहे हैं। भारतीय समाज और हिन्दू समाज एक ही है, मगर इसे नकार कर सारी वैचारिक-सांस्कृतिक बहस सेक्यूलर यानी गैर-हिन्दू या हिन्दू-विरोधी मनोवृत्ति से चलाई जाती है। यह मर्मभूत घात है और वैचारिक तराजू को स्थाई रूप से हिन्दू-विरोधी वजन मिले रहना है। यह दशकों से हो रहा है। भाजपा सरकार बनने से इस में कोई अंतर नहीं आया।

इस वातावरण में हिन्दू-विरोधी (अमर्त्य सेन, इरफान हबीब जैसे चतुर-ज्ञानी, और सामान्य वामपंथी लेखक, पत्रकारों जैसे भावुक-अज्ञानी) पूरी कटिबद्धता से हिन्दू धर्म-समाज-परंपरा-चिन्ता के प्रति शत्रुतापूर्ण या उदासीन हैं और हमले करते हैं। उन्हें इस के लिए प्रेरित करने वाली प्रायः पर्दे के पीछे सक्रिय अदृश्य शक्तियाँ हैं, जिन के लिए अखलाक या रोहित केवल बहाने हैं। ऐसे बहाने मिलने या न मिलने से, उन की हिन्दू-विरोधी, इसीलिए भाजपा-विरोधी कटिबद्धता में कोई फर्क नहीं पड़ता। जबकि इन्हें अपनी जगह दिखाने, इन के चकमे में आने से नये छात्रों, युवाओं को बचाने से निर्विकार होकर सरकार अपने ‘विकास’ राग में मस्त है।

सरकार इन बिन्दुओं को या तो महत्वहीन समझती है, या हर चीज का जबाव आर्थिक विकास करके देना चाहती है। यह भयंकर खामखयाली है! विकास के सिवा न्याय-अन्याय, शान्ति-सौमनस्य की व्यवस्था करना अधिक जरूरी होता है। किसी विषैले वैचारिक-राजनैतिक अभियान का, उस के प्रति अनुभवहीन युवाओं की गलतफहमी और अज्ञान का उत्तर एफ.डी.आई. जैसे पूँजी-निवेश में नहीं, बल्कि ज्ञान-विवेक में विश्वास-निवेश में ही है। नई केंद्र सरकार ने विगत पौने दो वर्ष में कोई संकेत तक नहीं दिया कि वह ऐसा कर रही है। न उस ने निजी क्षेत्र, समाजिक संस्थाओं, आदि को इस के लिए प्रेरित किया है कि वे इस मोर्चे की भी चिन्ता करें।

नतीजा – दलित आड़ में देशी-विदेशी हिन्दू-विरोधी ताकतों का विखंडनकारी दुष्प्रचार और अज्ञानी लेखकों, पत्रकारों द्वारा उसे खूब हवा देना। असहिष्णुता, अखलाक, रोहित, आदि केवल बहाने भर हैं। छोटे-बड़े ऐसे वैचारिक हमले निरंतर और बरसों, दशकों से हो रहे हैं। उस दुष्प्रचार का निशाना वे करोड़ों हिन्दू हैं जो अपने धर्म, समाज, परंपरा और देश की उपेक्षा-अपमान बेबस देखते हैं। जिन्होंने भाजपा नेता में इस प्रक्रिया को रोकने के लिए भी कुछ-न-कुछ करने.करवाने की आशा की थी। मगर नेता ने यह मोर्चा ही छोड़ दिया है। यह सोचकर कि इस से उन की छवि बेहतर बनेगी। बात ठीक उलटी है। उन की कोई सेक्यूलर, कांग्रेसी छवि नहीं बन सकती, जिसे रेडिकल-वामपंथी-मिशनरी-इस्लामी बौद्धिक मोर्चेबंदी शान्ति से छोड़ दे। उन्हें तो कोई मोदी, संघ, आदि दिखाऊ दानव (bogeyman) बनाए रखना जरूरी है, अन्यथा उन की दूरगामी लड़ाई बढ़ नहीं सकती। अतः नेता द्वारा बौद्धिक मोर्चा छोड़ देने से मात्र यह हुआ कि उन की छवि गिर गई। लड़ाई से भागने वाले से उस का अपना पक्ष भी निराश होता है। भाजपा समर्थन घटने का कारण मुख्य कारण यही है। चाहे अन्य कारण भी हैं।

फिर, हर चीज का उत्तर वोट की ताकत से देने की मंशा भी बचकानी है (यद्यपि भाजपा के लिए वह भी घटी है)। सऊदी सरकार या चीन सरकार की अंदरूनी-बाहरी ठसक व वैधता से इसे समझा जाना चाहिए। राजनीति एक गंभीर कार्य है, जिस में अप्रिय लगने वाले निर्णय भी लेने पड़ते हैं। किन्तु जिस के पीछे की सुचिन्तित भावना यदि उचित हो, तो उस में हिचकना अपने देश, समाज की हानि करना ही है। भारत में हिन्दू जनता के प्रति विगत सौ वर्ष से राजनीतिक-सांस्कृतिक अन्याय हो रहा है, जिसे रोकने से बचने और अन्यायी के प्रति ही आदर दिखाने के उलटे परिणाम हुए हैं। फिर भी उस से कोई सीख नहीं ली गई। दुनिया में दूसरे देशों के उदाहरण से भी सीखा नहीं गया।

राजनीति की मुख्य पूँजी है – शक्ति, साफ दिमाग कटिबद्धता और निर्भीकता। इन में किसी एक का भी अभाव हो, तो संबंधित नेता, संगठन या सरकार की दुर्गति संभव है। इस के विपरीत, इन तत्वों के साथ क्रूर से क्रूर शासक, संगठन या सरकार को भी अपने देश और बाहरी दुनिया, दोनों जगह मान-सम्मान मिला रह सकता है। तालिबान इस के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। उन के पिछले दस वर्ष के लड़ाकू, कटिबद्ध रिकॉर्ड के कारण अमेरिकी और यूरोपीय, सभी सरकारें उन का आदर करती हैं, उन से सहज संबंध बनाने की घोर इच्छुक हैं! कहने का अर्थ यह नहीं कि राजनीति में क्रूरता, हिंसा, जिद्दीपना, आदि अपनानी चाहिए। बल्कि मात्र यह कि यदि मानवीयता, सज्जनता, लोकतंत्र के साथ किसी नेता, राजनीतिक संगठन या सरकार में दृढ़ता, निर्भीकता और दूर-दृष्टि न हो, तो उस की मिट्टी-पलीद हो सकती है। भाजपा सरकार इसी का उदाहरण बन रही है। अपने पुराने, संगठित बौद्धिक विरोधियों से लड़ने की उस के पास कोई दृष्टि नहीं है। यही स्थिति वाजपेई सरकार की भी थी। मूलतः इसी कारण वह भी खूब ‘विकास’ (इंडिया शाइनिंग) करने के बावजूद विदा हुई थी।

राजनीति पहले राजनीति है, फिर अर्थनीति। अतः जो नेता अर्थनीति को मुख्य मान राजनीति को पीछे कर दें, जैसी भाजपा नेताओं ने की, उन की हार तय है। विरोधी बुद्धिजीवियों, नेताओं ने उन की कमजोर नस पहचान ली, इसीलिए उन की भूख बढ़ गई है। यह कमजोरी, कि ठीक सेक्यूलरिज्म, हिन्दू-विरोध, चर्च-मिशनरी विस्तारवाद और इस्लामी राजनीति पर भाजपा सरकार या संगठनों के पास कोई समझ या योजना नहीं है। अतः, उसे अभिमन्यु की तरह घेर कर मारा जा सकता है, क्योंकि उसे बौद्धिक-राजनीतिक-मिशनरी चक्रव्यूह से निकलने का ज्ञान नहीं है। कलबुर्गी, अखलाक, असहिष्णुता और रोहित – इन सभी मुद्दों में एक ही चीज समान है, कि सरकार या भाजपा के पास ऐसे मुद्दों की समझ, तथा उस से निपटने की कोई तैयारी नहीं है। फिर, बौद्धिक सोच दूसरे तरह की होती है, वह जन-समर्थन को कोई पैमाना नहीं मानती। अमर्त्य सेन, जॉन दयाल या इरफान हबीब से पूछ देखिए। वे भाजपा को मिले करोड़ों वोट, जन-सभाओं की भीड़ को कुछ नहीं मानते। सही वा गलत, बुद्धिजीवी अपनी दलीलों, विश्वासों, अंधविश्वासों, आदि को ही आधार मानते हैं। सिद्धांततः बात ठीक भी है। भीड़ और वोट तो नेहरू, हिटलर, खुमैनी और बिन लादेन जैसे नेताओं के लिए भी सोत्साह उपलब्ध होते रहे हैं। बात, नीति और तर्क का जबाब दूसरी बात, नीति और वितर्क ही है। दुर्भाग्यवश भाजपा सरकार ने इस मोर्चे पर स्वयं अपने हाथ बाँध और मुँह सी लिए हैं।

भारत में चर्च-समर्थित दलितवादियों या पेट्रो-डॉलर खुराक लिए तबलीगी प्रचारकों, तथा उनके वामपंथी सहयोगियों के आरोपों और प्रहारों का उत्तर दूसरे बौद्धिक लोग ही दे सकते हैं; वोट-जुटाऊ नेता, चुनाव-प्रबंधक या मेला-आयोजक नहीं। किसी विश्वास, अंधविश्वास या दलील की पोल कहाँ है, यह विशेषज्ञता का क्षेत्र है, दबाव, प्रलोभन या अहंकार का नहीं। लंबे समय से यहाँ चर्च, इस्लामी या वामपंथी राजनीति पर नजर रखने वाले भारतीय या भारत-मित्र विदेशी विद्वान, अवलोकनकर्ता, आदि ही उन का मुकाबला कर सकते थे। लेकिन उन्हें साधन, सुविधा या कोरा सम्मान तक देने में भाजपा सरकार नितांत अनिच्छुक रही है। मानो यह राष्ट्र-हित का कार्य न हो! इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में वह निपट उदासीन, यानी स्वेच्छया विफल रही है। परिणाम यह हुआ कि दो साल पहले तक जो बौद्धिक स्वतः भाजपा के पक्ष में काम करते रहे, वे भाजपा सरकार बनने के बाद अधिकांश बेकार कर दिए गए हैं। दोनों तरह सेः संवादहीनता और बौद्धिक क्षेत्र की उपेक्षा।

हालाँकि, उक्त बिन्दुओं (सेक्यूलरिज्म, हिन्दू-विरोध, चर्च-मिशनरी विस्तारवाद और इस्लामी राजनीति) पर सरकार से अधिक समाज की उदासीनता चिन्ताजनक है। निजी क्षेत्र के विश्वविद्यालय, थिंक-टैंक, कई संत समुदायों, आश्रमों के धनाढ्य शिक्षा-तंत्र, आदि भी इस बौद्धिक, सांस्कृतिक लड़ाई के प्रति निर्विकार हैं। यह भयंकर मतिहीनता, जो अपनी रक्षा के प्रति भी उदासीन है – समाज के प्रति सांस्कृतिक कर्तव्य पूरा करना तो दूर रहा – अपने-आप में स्वतंत्र विषय है। सारे हिन्दू स्वामी, मिशन, संत, आश्रम, आदि जो देश भर में हजारों विद्यालय, मंदिर और अस्पताल चला रहे हैं, उन्हें सपने में भी नहीं सूझता कि उन का हश्र कभी ढाका, लाहौर या श्रीनगर स्थित वैसे ही महान मंदिरों, विद्यालयों, आश्रमों जैसा भी हो सकता है! वैसा होने से इन्हें कौन सी चीज बचाएगी? यदि केवल पुलिस या सेना बचा सकती, तब स्वतंत्र भारत में श्रीनगर के हिन्दू घरों, आश्रमों, विद्यालयों को इस्लामी आतंकियों से क्यों न बचाया जा सका? उन्हें इसलिए नहीं बचाया जा सका, क्योंकि जब कश्मीर में पहला सामूहिक हिन्दू संहार हुआ, तो केन्द्र सरकार में वह मामूली दृढ़ता भी नहीं थी जो अपने नागरिकों की रक्षा हेतु हत्यारों को दंडित करने और अगली हत्या या विध्वंस को रोकने के लिए पहली जरूरत होती है। सेना तो तब बचाएगी, जब सरकार आदेश देगी! यदि आदेश देने की बजाए सत्ताधारी अगले चुनाव, या मीडिया या विदेशों में होने वाले शोर-शराबे के भय, हिचक या दुविधा से रुक जाए – तो हिंसक गिरोहों, विध्वंसकारियों की ढिठाई बढ़ना तय है। इस तरह, कश्मीर से हिन्दू पंडित नष्ट हुए।

अतः शेष भारत में संतो, आश्रमों, बाबाओं, तथा हिन्दू उद्योगपतियों, व्यापारियों, स्कूल-चेन चलाने वाले उद्यमियों, आदि सब को इस पर स्वयं सोचना चाहिए कि जो श्रीनगर में हुआ, वह मुंबई, हैदराबाद, चेन्नई, लखनऊ, आदि में भी नहीं हो – इस की गारंटी कैसे की जाए? यह सरकार की नहीं, अपनी चिन्ता होनी चाहिए। जहाँ तक भाजपा सरकार की बात है तो प्रतीत होता है कि वह सब समस्याओं का एक ही इलाज मानती है – ‘विकास’। इस में कहीं न कहीं कम्युनिस्ट अंधविश्वास का दुष्प्रभाव है, जो कहता रहा है कि हर हिंसा, झगड़े, असंतोष, आदि की जड़ में बेकारी या गरीबी होती है। हर समस्या को अनदेखा कर ‘विकास’ की रट लगाने में वही अंधविश्वास झलकता है। भाजपा सरकार के मैनेजर आर्थिक विकास की योजनाएं बनाने, उस के खूब विज्ञापन कर तथा प्रचारात्मक लटकों से लोगों को ‘जीतने’ में लगे हुए हैं। पर, तब उन्हें यह इच्छा छोड़ देनी चाहिए कि देश या विदेशों में बरायनाम भाजपा-विरोधी बौद्धिक वर्ग उन के प्रति सदय होगा। इसलिए नहीं होगा, क्योंकि उन का निशाना हिन्दू धर्म और समाज है, संघ या मोदी तो प्रतीक है।

रोहित अभियान चलाने वाले सरकार को लांछित कर रहे हैं, किन्तु वास्तविक चोट हिन्दू समाज को पहुँचाई जा रही है। उन ब्राह्मणों, बनियों, आदि गैर-दलित, गैर-आरक्षित (यानी जिसे अभी हिन्दुओं से ‘अलग’ नहीं किया जा सका है) हिन्दू समूहों को जिन्हें दिन-रात दुष्ट, विलेन, बताया जा रहा है। साथ ही चोट पहुँच रही है लाखों पीड़ित कश्मीर पंडितों को, गौहाटी से गोधरा तक जलाई गई आत्माओं को, मिशनरी मकड़जाल को देख रहे बेबस हिन्दू ग्रामीणों, वनवासियों को, यानी उन करोड़ों हिन्दुओं को जिन के लिए वैसा कोई अभियान न चला, जो एक मुसलमान या दलित के लिए चलता है। ऐसे दलित, जिन्हें हिन्दू समाज का अंग नहीं, उस से बाहर करने, या बाहर दिखाने के लिए ही यह अभियान चलता है। यही असली बिन्दु है, जिसे दलितवाद की राजनीति में परखना चाहिए। जैसे ही दलित नेता या संबंधित दलित जोरदार तरीके से स्पष्ट कर दे कि वह हिन्दू धर्म का अंग है, और उस का रक्षक है – ऐसे सारे अभियान बंद हो जाएंगे!

इसलिए, इस बिन्दु को ठोक-पीट कर समझने की जरूरत है कि रोहित-अभियान हिन्दू-विरोधी अभियान है, जिसे अनेक मूढ़ लेखक, पत्रकार अनजाने हवा दे रहे हैं। वे उस हिन्दू-विरोधी राजनीति के औजार बन रहे हैं जिस के लिए रोहित और आर.एस.एस. भी बहाना भर है। मूल प्रहार हिन्दू समाज पर हो रहा है, उसे तोड़ने, अंततः नष्ट करने के उद्देश्य से। जिसे स्वतंत्र भारत में भी अपने धर्म के होने मात्र से निन्दा प्रहार झेलना पड़ रहा है। नयनतारा सहगल से लेकर दलितवादी रेडिकल तक, सभी लोग वास्तव में उन्हीं हिन्दुओं के जले पर नमक छिड़क रहे हैं। कई तो अनजाने, क्योंकि उन्हें समझ नहीं कि सत्ताधारियों को जलील करने के नाम पर हिन्दू-विरोधी प्रचार द्वारा वे करोड़ों निर्दोष हिन्दुओं को अपमानित कर रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द, मनुस्मृति, गोभक्ति या रामायण की निन्दा करना आखिर किस पर प्रहार है?

वस्तुतः राजनेतृत्व द्वारा सांस्कृतिक, धार्मिक, शैक्षिक, वैचारिक – यानी कुल मिलाकर बौद्धिक क्षेत्र की उपेक्षा करना, अथवा उसे हल्के से लेना, स्वतः प्रमाण है कि विकास की समझ ही गड़बड़ है। इस से अंततः भाजपा सरकार की विकास-छवि भी प्रभावित होकर रहेगी। यह हानि उसे होगी, किन्तु बाद में। अभी तो सारी चोट हिन्दू समाज को पहुँचाई जा रही है। इसलिए कहें कि भाजपा सरकार का बौद्धिक मोर्चा बहुत कमजोर है, या फिर है ही नहीं। वह इस मोर्चे को खाली छोड़ लड़ रही है।

उसे शुभकामनाएं!

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