भारत में परिवार कोई संस्था नहीं है और इसलिए माता-पिता कोई सत्ता नहीं है। मातृत्व और पितृत्व एक भाव है। इस भाव से ही परिवार का निर्माण होता है और इस भाव के कारण ही मनुष्य पशुओं से ऊपर उठता है। परिवार के बनते ही स्त्री स्त्री मात्र नहीं रह जाती और पुरुष पुरुष मात्र नहीं रह जाता। स्त्री माता, बहिन, बेटी, मामी, मौसी, चाची, फुआ, दादी, नानी आदि बन जाती है और पुरुष पिता, भाई, बेटा, मामा, मौसा, चाचा, फूफा, दादा, नाना आदि बन जाता है।
तात्पर्य यह है कि स्त्री-पुरुष परिवार में अपनी सत्ता खो देते हैं और नया रूप धारण कर लेते हैं। यह नया रूप केवल भावात्मक ही होता है, इस पर भी यह वास्तविक रूप से अधिक सुंदर और प्रभावकारी होता है। इसलिए भारत में परिवार और समाज कभी भी पितृसत्तात्मक या मातृसत्तात्मक नहीं रहे और न ही आज हैं। वहां केवल दायित्वबोध की बात है। पिता के अपने दायित्व हैं और माता के अपने। दोनों केवल अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं और इसमें एक-दूसरे की सहायता करते हैं। परिवार के इस भाव का समस्त लोक और राष्ट्र में विस्तार करने के लिए कहा गया – त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्, ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे सर्वं त्यजेत् अर्थात् व्यक्ति अपने अधिकारों को अपने कुल के हित में त्याग दे, कुल अपने अधिकारों को ग्राम के हित में त्याग दे, ग्राम जनपद के हित में अपने अधिकार त्याग दे और आत्मा की प्राप्ति के लिए सभी कुछ त्याग दे।
सोलह संस्कारों में तेरहवां है विवाह संस्कार। विवाह मनुष्य को पशु से ऊपर उठाकर मनुष्यत्व से युक्त करने की एक विधा है। विवाह संस्कार की प्रक्रियाओं को अगर हम देखें तो पाएंगे कि वैदिक विवाह संस्कार जैसा वैज्ञानिक और व्यवहारिक विधान विश्व के किसी भी मजहब, समुदाय तथा देश की विवाह प्रथा में नहीं हैं। उदाहरण के लिए सप्तपदी यानी सात वचन हैं। इन सात वचनों में स्त्री-पुरुष केवल एक-दूसरे के प्रति अपने दायित्वों की बात नहीं करते हैं, बल्कि परिवार और लोक के प्रति दायित्वों के निर्वहन करने में एक-दूसरे का साथ देने-लेने का भी वचन देते हैं। वे संकल्प लेते हैं कि यज्ञ यानी कि लोककल्याण के कार्यों में मिल कर लगेंगे। ऐसे ही एक विधान में वे ध्रुव तारे को देख कर संकल्प करते हैं कि वे आजीवन इस विवाह व्रत का पालन करेंगे। इसे कभी भंग नहीं करेंगे। एक और विधान में वर वधु के बालों के जूड़े को खोलता है और मंत्र पढ़ता हुआ कहता है कि वह उसे विवाहपूर्व के सभी बंधनों से मुक्त कर रहा है और फिर से जूड़े को बांधते हुए मंत्र पढ़ता हुआ कहता है कि वह उसे नए बंधनों में बांध रहा है। विवाह की इन वैदिक प्रक्रियाओं से यह पता चलता है कि विवाह केवल स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंधों के लिए नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक व्रत है। इसलिए भारतीय परंपरा में कभी भी तलाक जैसी कोई व्यवस्था नहीं पनप पाई। पति-पत्नी में अलगाव तो हुआ, परंतु वह अलगाव केवल शारीरिक था, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक स्तर पर वे विवाहित ही रहते थे। एक-दूसरे की प्रतीक्षा में ही रहते थे। यह वैवाहिक आदर्श की पराकाष्ठा कही जा सकती है। भारत के इतिहास में ऐसा उदाहरण ढूंढने से भी नहीं मिलेगा, जिसमें किसी ने विवाह-विच्छेद करके दूसरा विवाह कर लिया हो।
विवाह में एक और महत्वपूर्ण आयाम है गोत्र का। भारतीय मनीषियों ने सपिंड और सगोत्र विवाह को स्पष्टत: मना किया है।
मनु स्मृति कहती है :- सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते। समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदन।।
तात्पर्य यह है कि सगापन तो सातवीं पीढ़ी में समाप्त हो जाता है और घनिष्टपन जन्म और नाम के ज्ञात ना रहने पर छूट जाता है। आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार इनब्रीडिंग मल्टीप्लायर अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का गुणांक इकाई से यानी एक से कम सातवीं पीढ़ी में जा कर ही होता है। गणित के एक समीकरण के अनुसार, अंत:प्रजनन विकार गुणांक = 0.5हृ & 100 ( हृ पीढ़ी का सूचक है)। इस प्रकार पहली पीढ़ी में हृ=1, से यह गुणांक 50 होगा, छठी पीढ़ी में हृ=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बड़ा रहता है। सातवीं पीढ़ी में जा कर हृ=7 होने पर ही यह अंत:प्रजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है। मतलब साफ है कि सातवीं पीढ़ी के बाद ही अनुवांशिक रोग होने की सम्भावना समाप्त होती है। यह एक अत्यंत विस्मयकारी वैज्ञानिक सत्य है जिसे हमारे ऋषियों ने सपिण्ड विवाह का निषेध करके बताया था। सपिंड को ही रोकने के लिए सगोत्र विवाह का भी निषेध किया गया था। इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि पुरुष में एक्स और वाई दोनों गुणसूत्र पाए जाते हैं, जबकि स्त्रियों में केवल एक्स गुणसूत्र ही होते हैं। वाई गुणसूत्र कुल आठ प्रकार के होते हैं और गोत्र प्रवर भी आठ ऋषियों से ही संबंधित हैं जो कि इन आठ विभिन्न वाई गुणसूत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अब यदि सगोत्र विवाह हो तो समान आनुवांशिक प्रभावों के कारण वाई गुणसूत्र की क्षमता कम होती जाएगी और उसके कारण शारीरिक रोग, अल्पायु, बुद्धिमंदता, रोग निरोधक क्षमता की कमी, अपंगता, विकलांगता आदि विकार पैदा होने की संभावना बढ़ जाएगी। भारतीय परंपरा में सगोत्र विवाह न होने का यह भी एक परिणाम है कि सम्पूर्ण विश्व में भारतीय सबसे अधिक बुद्धिमान माने जाते हैं।
विवाह यज्ञ के प्रतीक थे। विवाह करके दंपत्ति को लोक की वृद्धि में लगना होता था। लोकहितार्थ कार्य करने होते थे। इसीलिए गृहस्थ आश्रम को मनु ने सभी आश्रमों का पालक कहा। अन्य तीन आश्रमस्थ ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और सन्यासी, तीनों का पालन करना गृहस्थ का ही कर्तव्य था। इस यज्ञभाव के कारण विवाह और परिवार कभी भी न तो संस्था बने और न ही वासनापूर्ति के साधन। भारतीय मनीषियों ने विवाह में स्त्री को अधिक महत्ता प्रदान की। विवाह के बाद जब स्त्री ससुराल आती है तो उसे आशीर्वाद दिया जाता है – सम्राज्ञी श्वशुरे भव, सम्राज्ञी श्वŸवां भव। ननान्दरि सम्राज्ञी भव, सम्राज्ञी अधि देवृषु॥ अर्थात् हे वधू ! तू श्वसुर, सास, ननद और देवरों की साम्राज्ञी (महारानी) बनो। इसके प्रतीक के रूप में वर्तमान में कई स्थानों पर प्रवेशद्वार पर अन्न से भरे बर्तन को वधु द्वारा पैरों की ठोकर से लुढ़काने की प्रथा है। यह प्रथा उसके स्वामित्व को ही चिह्नित करती है। वैदिक विवाह पद्धति की यह विशेषता विश्व में अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। मनुस्मृति में वधु को प्रसन्न रखने से ही सुख-समृद्धि मिलने की बात कही गई है। वहां कहा है
पितृभिभ्रररतरिभिश्चैता: पतिर्भिदेवरैस्तथा, पूज्या भूषयीतव्याश्च बहूकल्यांमीप्सुभि।।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्तेरमन्ते तत्र देवता:, यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।।
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशुतत्कुलम, न शोचन्ति तू यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा।।
जामयो यानि गेहानीशपन्त्यप्रतिपुजिता:, तानीकृत्याहतानीव विनश्यन्ति समंतत:।।
तसमा देता सदा पूज्या भूषणा च्छादनाशनै: , भूतिका मैनररैर्नित्यं सत्कारेशुत्सवेशु च।।
संतुष्टो भार्यया भर्ता भतर्र भार्या तथैव च, यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वे ध्रुवम्।।
* पिता, भाई, पति, देवर को चाहिए कि अपनी कन्या, बहन, स्त्री और भाभी आदि स्त्रियों को सदा यथायोग्य मधुर भाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण से प्रसन्न रखे। जिनको कल्याण की इच्छा हो वह स्त्रियों को कभी क्लेश न देवे।
* जिस कुल में नारियों का सत्कार होता है, उस कुल में दिव्य गुण, दिव्य भोग और उत्तम सन्तान होते हैं और जिस कुल मे स्त्रियों का सत्कार नहीं होता है, वहां जानिये उनकी सब क्रिया निष्फल रहती।
* जिस कुल मे स्त्रियां अपने-अपने पुरुषों से उनके नीच आचरण के कारण शोकातुर रहती हैं, वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है, और जिस कुल मे स्त्री जन पुरुषों के उत्तम आचरण से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है।
* जिस कुल व घरों मे [नारी] को सत्कार को न प्राप्त होकर जो गृहस्थों को शाप देती है, वे कुल और गृहस्थ जैसे विष देकर बहुतों को एक बार नाश कर देवें, चारो ओर से नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं।
* इस कारण ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले पुरुषों को चाहिए कि विभिन्न अवसरों और उत्सवों मे भूषण, वस्त्र, खानपान आदि से स्त्रियों को सदा सत्कार करते हुए प्रसन्न रखे।
* जिस कुल मे पत्नी से प्रसन्न पति और पति से सदा प्रसन्न पत्नी रहती है, उसी कुल मे निश्चित कल्याण होता है और दोनों परस्पर सदा अप्रसन्न रहे तो उस कुल मे नित्य कलह वास करता है। परिवार की धुरि माता को माना गया था।
तैत्तिरियोपनिषद् में कहा है – अथाधिप्रजम्। माता पूर्वरूपम्। पितोत्तरस्यम्। प्रजासन्धि:। प्रजननं संधानम्। तात्पर्य है कि माता प्रजा की मूल है और उसके बाद ही पिता का स्थान आता है। इन दोनों की सन्धि यानी जुड़ाव प्रजा यानि संतान से होती है। इस सन्धि का लक्ष्य प्रजनन ही है। तैत्तिरियोपनिषद् ने इस बात को आगे समझाते हुए कहा – मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। माता और पिता देवस्वरुप हैं। इसी बात को शतपथ ब्राह्मण में कहा है मातृमानपितृमानआचार्यवान पुरुषो वेद। यानी मनुष्य के तीन गुरु हैं। पहली गुरु माता है, दूसरा पिता और तीसरा गुरु आचार्य है। इस प्रकार शतपथ ब्राह्मण में भी माता को पहला स्थान दिया गया है।
गृहस्थ यानी परिवार के कर्तव्यों को यदि हम देखें तो पाएंगे कि उसमें पूरी सृष्टि का पालन करने का भाव छिपा होता है। इसका पहला उद्देश्य है प्रजोत्पत्ति यानी संतान उत्पन्न करना। दूसरा उद्देश्य है गृहनिर्माण। गृहनिर्माण का अर्थ केवल अपने आवास का प्रबंध करना नहीं है। अतिथियों से लेकर पशु-पक्षियों तक के रहने की व्यवस्था करना ही इसका अभीष्ट है। इसलिए प्राचीन काल से ही धनवान गृहस्थों द्वारा अतिथिशालाएं, पांथागार, धर्मशालाएं, मंदिर आदि बनवाने का इतिहास मिलता है। तीसरा उद्देश्य है सृष्टि का पालन। इसके लिए वह पंचमहायज्ञ करता है। मनुस्मृति में कहा है -अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। होमो दैवो बलिभौंतो नृयज्ञोतिथिपूजनम्।। वेदादि शास्त्रों का अध्ययन ब्रह्मयज्ञ, तर्पण पितृयज्ञ, हवन देवयज्ञ, पंचबलि भूतयज्ञ और अतिथियों का पूजन सत्कार अतिथियज्ञ कहा जाता है।
इस प्रकार पहला महायज्ञ है स्वाध्याय। दूसरा यज्ञ है माता-पिता आदि घर के समस्त बुजुर्गों की सेवा। तीसरा महायज्ञ है दैनिक अग्निहोत्र जो वातावरण की शुद्धि के लिए किया जाता है। चौथा महायज्ञ है बलिवैश्वदेव जो पशु-पक्षी, कीट-पतंगों आदि समस्त प्राणी सृष्टि की पालना के लिए किया जाता है। पांचवां और अंतिम महायज्ञ है नृयज्ञ जिसमें घर आए किसी भी अतिथि यानी परिचित-अपरिचित व्यक्ति को भोजनादि से सत्कार किया जाता है। इस प्रकार एक गृहस्थ को जड़-चेतन सारी सृष्टि की चिंता करनी होती है। इसके लिए वह विवाह का व्रत धारण करता है। इसके लिए वह प्रजा की अभिवृद्धि करता है। इसके लिए वह शतहस्त समाहर यानी सौ हाथों से कमाता है और सहस्रहस्त संकिर: के आदेश के अनुसार हजार हाथों से बांट देता है।
इन पांच महायज्ञों में चार ऋणों को उतारा जाता है। भारतीय मनीषियों का मानना था कि मनुष्य अपने ऊपर चार ऋण लेकर पैदा होता है। ये चार ऋण हैं – देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण और मनुष्यऋण। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, ऋणं ह वै जायते योह्यस्ति। स जायमानस्एव देवेभ्यस्ऋषिभ्य: पितृभ्यो मनुष्येभ्य:। सभी मनुष्य ऋण रूप से ही उत्पन्न होते हैं। वह देवों, ऋषियों, पितरों और मनुष्यों के ऋण से उत्पन्न होता है। यहां पर स्पष्ट रूप से चार ऋणों की चर्चा की गई है। इन चार ऋणों से मुक्ति ही वास्तविक मोक्ष है जिसकी चर्चा चार पुरुषार्थों में की गई है। शतपथ ने इसके बाद इन ऋणों से मुक्ति के लिए उपाय भी बताए हैं। वे उपाय यही पंचमहायज्ञ हैं। इन ऋणों से मुक्ति ही मनुष्य का ध्येय है और इसके लिए ही वह वेदों में वर्णित तीन पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम को ग्रहण करता है। इसके परिणामस्वरूप उसे मोक्ष यानी मुक्ति की प्राप्ति होती है। इसलिए वेद स्पष्ट रूप से कहते हैं – कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजिविच्छेतसमा:। एवं त्वयि नान्यथेतोस्स्ति, न कर्मलिप्यते नरे।। यानी कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्छा रखो, यही एक मात्र मार्ग जिससे मनुष्य कर्मों में लिप्त नहीं होता। इस तरह परिवार में रहने वाले इन संस्कारों तथा पंचमहायज्ञों के माध्यम से समावेशी आचरण सीखते हैं और उसका विस्तार फिर लोक में करते हैं।
भारतीय व्यवस्थाओं को विस्मृत करके जिन यूरोपीय तथा नवयूरोपीय समाजों ने इससे इतर व्यवस्थाएं बनाने का प्रयास किया है और जिनसे आज के भारतीय समाजशास्त्री प्रेरणा ग्रहण कर रहे हैं, उससे न केवल उनका, बल्कि पूरी मानवता और विश्व का नुकसान हुआ है। भारतीय परिवार व्यवस्था में संयुक्त परिवार हुआ करते थे, जिसमें अधिकारों की नहीं, बल्कि कर्तव्यों की बात होती थी, व्यक्तिगत स्वाधीनता नहीं, पारिवारिक दायित्वों की बात होती थी। जबकि यूरोप में अधिकारों पर जोर दिये जाने के कारण परिवारों में विघटन और उसके कारण व्यक्तिगत परिवार बने और अब तो परिवार की बजाय लिव इन संबंधों का प्रचलन हो गया है। यूरोपीय शिक्षा में दीक्षित आधुनिक भारतीय समाजशास्त्रियों ने न तो भारतीय व्यवस्थाओं के गुणों को जानने-समझने का प्रयास किया और न ही यूरोप में चल रहे सामाजिक उथल-पुथल को जानने की कोशिश की।
यूरोप में चल रहे सामाजिक परिवर्तनों पर एक नजर डालना यहां समीचीन होगा। फेथ राबट्र्सन इलियट अपनी पुस्तक जेंडर फैमिली एंड सोसाइटी में लिखते हैं, ‘वर्तमान यूरोपीय समाज में परिवार पर चर्चा ने जो स्वरूप और दिशा ली है, वह साठ और सत्तर के दशक से एकदम अलग है। साठ और सत्तर के दशक को आधुनिक विवाह आधारित परिवार की आलोचनाओं के व्यापक उभार के रूप में देखा जा सकता है जब परिवार को एक अत्याचारी और सड़ा हुआ तंत्र मान लिया गया था। इसी दौर में परिवार और उसके बाहर पुरुष के वर्चस्व की नारीवादी व्याख्याएं की जाने लगीं और यौन संबंधों तथा अभिभावकत्व के लिए नई व्यवस्था बनाए जाने पर जोर दिया जाने लगा। इसके विपरीत अस्सी और नब्बे के दशक को जीवन-स्तर में गिरावट के रक्षात्मक संरक्षण, नवरूढि़वाद तथा निराशावाद से पहचाना जा सकता है। इन्हीं दशकों में यौन संबंधों और अभिभावकत्व की व्यवस्था पर इन बिंदुओं के परिप्रेक्ष्य में संघर्ष चला – 1) नस्लीय भेद और विवाद, 2) आर्थिक पुनर्रचना, उच्चस्तरीय बेरोजगारी, सख्त वित्तीय नियंत्रण और कल्याणकारी योजनाओं में कटौती, 3) बुढ़ाती जनसंख्या और बुजुर्गियत की खोज, 4) पारिवारिक जीवन में बढ़ते हिंसा के प्रति जागरूकता, और 5) एड्स के रूप में एक नए स्वास्थ्य संकट का विस्फोट। इनमें से हरेक प्रक्रिया दैहिक और पारिवारिक संबंधों को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।’
साफ है कि यूरोप में साठ और सत्तर के दशक में यूरोप में व्यक्ति और स्त्रियों की स्वतंत्रता के नाम पर परिवारों को तोडऩे का जो अभियान चला, उससे नब्बे के दशक आते-आते तक तीन चार प्रमुख समस्याएं पैदा हो गईं। पहली तो थी बेरोजगारी की। परिवार टूटे तो अल्पायु से ही नवयुवाओं को पारिवारिक संरक्षण मिलना समाप्त हो गया। साथ ही बुजुर्ग सड़क पर आ गए, उनकी देखभाल करने वाला कोई न रहा। दूसरी समस्या पारिवारिक हिंसा में बढ़ोत्तरी की पैदा हुई। तीसरी समस्या पैदा हुई उन्मुक्त यौन संबंधों के कारण एड्स जैसी जानलेवा बीमारी का उभार। इसका परिणाम यह हुआ है कि आज यूरोप में समाजशास्त्रीय चिंताओं ने नया मोड़ ले लिया है। इलियट लिखते हैं, ‘इस प्रकार जहां साठ और सत्तर के दशक में तलाक कानूनों में सुधार, गर्भपात कानून, समलैंगिक संबंध, विवाहेत्तर यौनसंबंधों की स्वीकार्यता और घरेलू कार्यों के विभाजन आदि प्रमुख मुद्दे थे, वहीं बीसवीं शताब्दी के अंत तक मुद्दे बने – विविध नस्लीय समूहों के एक क्षेत्र में बसने से परिवार और लैंगिक व्यवस्थाओं को मिलने वाली चुनौतियां, बेरोजगारी तथा पारिवारिक जीवन में नवयुवाओं के लिए घटता स्थान, बुजुर्गों की देखभाल के लिए परिवार पर बढ़ता दबाव और उसका विरोध, परिवार में पुरुष हिंसा एवं उदारवादी यौन विचारधाराओं के विध्वंसात्मक प्रभाव।’
भारत में हम इसे दुहराया जाता हुआ देख सकते हैं। इलियट ने अपनी बात की पुष्टि में ढेरों तालिकाएं और अन्यान्य आंकड़े दिए हैं। हम भारत में इसे बड़ी सहजता से देख सकते हैं कि जो मुद्दे यूरोप में साठ और सत्तर के दशक में प्रचलन में थे, उन्हें आज भारत में प्रगतिशीलता के नाम पर उछाला जा रहा है। बाल विवाह को रूढ़ी तथा गैरकानूनी बताया जाता है, परंतु अल्पायु में किशोर-किशोरियों के यौन संबंधों की वकालत की जा रही है। विवाहेत्तर और बिना विवाह के यौन संबंधों को प्रगतिशील साबित करके कानूनी जामा पहनाया जा रहा है। परिवार को स्त्रियों के लिए बंधनकारी बताया जाता है। ये सारी बातें वही हैं जो साठ और सत्तर के दशक में यूरोपीय कर चुके हैं और जिसका परिणाम वे भुगत रहे हैं। साफ है कि यदि अभी भारत अपनी व्यवस्थाओं के प्रति सचेत नहीं हुआ तो शीघ्र ही उसकी हालत भी यूरोपीय देशों जैसी हो जाएगी।