मोदी-शाह की जोड़ी एक के बाद एक राज्य फतह करती जा रही है और विपक्ष लगभग हताश-निराश है. परन्तु देश का यह वातावरण सकारात्मक नहीं, बल्कि नकारात्मक है ऐसा चित्रित करने की अथवा ऐसा आभास बनाने की पुरज़ोर कोशिश करने की नई परंपरा ने हाल ही में जन्म लिया है. साठ वर्षों की कांग्रेस सरकार के दौरान “सब कुछ बढ़िया” चल रहा था, और अचानक पिछले चार साल में ही देश की सारी समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं ऐसी चिल्लाचोट की जा रही है.
कांग्रेस के कालखंड में असंख्य भ्रष्टाचार हुए और आज वे धीरे-धीरे एक एक करते हुए सामने आ रहे हैं. हालाँकि ये भ्रष्टाचार और घोटाले जनता के मनोमस्तिष्क पर अच्छे से जमकर बैठ चुके हैं यह मई 2014 और उसके बाद हुए राज्यों के चुनावों में सिद्ध हो चुका है. केवल और केवल एक परिवार की चाटुकारिता में लिप्त देश की “कथित रूप से” सबसे बड़ी पार्टी अन्दर ही अन्दर कितनी सड़ चुकी है और इसने देश को कितना चूना लगाया है अब देश की जनता इसे भूलेगी नहीं. देश की जनता ने नरेंद्र मोदी को लोकतांत्रिक पद्धति से प्रधानमंत्री बनाया है, लेकिन अब चार साल में पंद्रह से अधिक चुनाव हारने के बावजूद कांग्रेस-वामपंथ के “स्लीपर सेल्स” यह चिल्ला रहे हैं कि मोदी लहर ख़त्म हो चुकी है. त्रिपुरा (Tripura Assembly Elections) में पिछले २५ वर्षों से वामपंथ सत्ता में था. इस बार भाजपा ने अकेले दम पर 35 सीटें और उसकी सहयोगी IPFT ने आठ सीटें हासिल करके वामपंथ को एक कभी न भूलने वाला ज़ख्म दिया है. जिन राज्यों में खुद को कट्टर हिन्दू कहने वाले लोग भी अपनी सुरक्षा की चिंता के कारण जाने से कतराते हैं, त्रिपुरा-नागालैंड जैसे इन राज्यों में RSS के स्वयंसेवकों ने अपनी जान पर खेलकर जो काम किया है, उसकी मिसाल दूसरी नहीं मिलेगी.
त्रिपुरा विजय के तत्काल बाद दो चित्र सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए हैं, जिसमें से पहला चित्र है त्रिपुरा भाजपा के युवा अध्यक्ष अर्थात बिप्लब देब सार्वजनिक रूप से त्रिपुरा के निवर्तमान मुख्यमंत्री मानिक सरकार (Manik Sarkar) के पैर छूकर आशीर्वाद माँग रहे हैं. उल्लेखनीय है कि मानिक सरकार 69 वर्ष के हैं, जबकि बिप्लब देब 48 वर्ष के हैं. इस दृष्टि से आयु एवं अनुभव में मानिक सरकार बिप्लब से श्रेष्ठ हैं. परन्तु बिप्लब देब द्वारा मानिक सरकार के पैर छूना (सार्वजनिक रूप से) यह सुसंस्कृति का लक्षण है, इसे “संघ संस्कार” कहते हैं. सावरकर कहते थे कि “राजनीति में कोई भी शत्रु नहीं होता है, केवल प्रतिस्पर्धी होता है” (हालाँकि ये बात और है कि कांग्रेस ने सावरकर को हमेशा शत्रु ही माना है). राजनीति में बिप्लब देब जैसे आदर्श प्रतिस्पर्धी होने चाहिए, यही लोकतंत्र की शक्ति है. दूसरी घटना, यानी दूसरा चित्र भी महत्त्वपूर्ण है. इसमें त्रिपुरा के बेलोनिया नामक स्थान पर, रूस के हत्यारे विचारक लेनिन की एक मूर्ती को ढहाते हुए कुछ लोग दिखाई दे रहे हैं जो “भारत माता की जय” के नारे लगा रहे हैं. सनद रहे कि जब रूस में वामपंथ का तख्तापलट हुआ था, तब वहाँ भी मार्क्स और लेनिन की बड़ी-बड़ी प्रतिमाएँ भीड़ के आक्रोश ने तोड़ी अथवा गिराई थीं. ये बात और है कि वामपंथ का इतिहास भी इस मामले में उतना ही घिनौना है. त्रिपुरा-केरल जैसे राज्यों में वामपंथियों ने भी गांधी-विवेकानंद की कई मूर्तियाँ तोड़ी हैं. बहरहाल, विषय यह है कि त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ती गिराने वाले “हिन्दू” होंगे, इसमें संदेह है, क्योंकि हिन्दू कभी भी “मूर्तिभंजक” नहीं हो सकता. मूर्तिभंजक होने की नीयत, कथित रूप से पवित्र आसमानी किताब वाले पंथों का एकाधिकार है.
त्रिपुरा चुनावों से पहले पत्रकार दिनेश कानजी ने एक किताब लिखी थी “Manik Sarkar, Real and the Virtual : The Gory Face of Anarchy”. इस पुस्तक में दिनेशजी ने बाकायदा सबूतों एवं तथ्यों के साथ बताया है कि किस तरह से त्रिपुरा में पिछले पच्चीस वर्षों में अराजक एवं अत्याचार युक्त वातावरण बना हुआ था. भारत का कथित मुख्यधारा का मीडिया कभी भी त्रिपुरा की सही तस्वीर देश के सामने पेश नहीं कर पाया. इस कथित मीडिया (जिसमें वामपंथी भरे पड़े हैं) ने मानिक सरकार की ऐसी छवि बना रखी है मानो मानिक सरकार राजा हरिश्चंद्र के अंतिम अवतार हों. जबकि सच्चाई कुछ और ही है. त्रिपुरा में पिछले पच्चीस वर्षों में विपक्षियों के साथ जैसा क्रूर व्यवहार हुआ है, जिस तरह बांग्लादेश से आने वाले इस्लामिक जेहादियों को खुली छूट मिली हुई थी, जिस तरह से सड़कों, बिजली और उद्योगों की स्थिति बद से बदतर हुई थी... उसके कारण वहाँ की जनता में आक्रोश बढ़ता जा रहा था. लेनिन की मूर्ती गिराने की इस घटना को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. यह चन्द अति-उत्साही लोगों का कृत्य है.
भाजपा के कार्यकर्ताओं को सदैव यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी कभी भी “पारिवारिक राजनीति” नहीं करते हैं, वे “राष्ट्र प्रथम” वाली राजनीति करते हैं. और जनता ने भी इसीलिए उन्हें राजसिंहासन पर बैठने के लिए चुना है. दिल्ली की सत्ता पर आने से पहले अर्थात मई 2014 से पहले मोदी ने गुजरात की जनता के दिलों पर राज किया है. भाजपा कार्यकर्ताओं एवं अन्य हिन्दू संगठनों के लोगों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जिस तरह से वामपंथियों और कांग्रेस ने देश में हिन्दू विरोध का “उन्मादी वातावरण” तैयार किया, मुस्लिमों और ईसाईयों का तुष्टिकरण किया, सावरकर से द्वेष और घृणा की, उनका अपमान किया, वैसा ये लोग नहीं करें. ये बात सभी भारतवासी जानते हैं कि लेनिन एक विदेशी आदमी है, उसकी विचारधारा भी विदेशी है जिसका भारत की मिट्टी और संस्कृति से कोई लेनादेना नहीं है. स्वाभाविक रूप से लेनिन अथवा माओ केवल कुछ ही लोगों का आदर्श हो सकते हैं, क्योंकि भारत का आदर्श तो महर्षि अरबिंदो, सावरकर स्वामी विवेकानन्द जैसे लोग हैं. चूँकि भारत के वामपंथ का सब कुछ विदेशों से आयातित है, इसीलिए उनके दफ्तर में भी केवल मार्क्स-लेनिन-माओ-चे इत्यादि की ही तस्वीरें होती हैं और अपने पच्चीस साल के शासन में इन्होंने दूसरी विचारधारा वालों का प्रतिमा-भंजन किया है और इन विदेशियों की मूर्तियाँ लगाई हैं, पाठ्यक्रम में इन्हीं विदेशियों का गुणगान किया है. जिस प्रकार मुस्लिम होने के लिए अल्लाह और उसके पैगम्बरों पर श्रद्धा होना परम-आवश्यक है, इसी प्रकार वामपंथी होने के लिए भारत की संस्कृति एवं भारत के ऋषि-मुनियों, उत्सवों, त्यौहारों इत्यादि से घृणा तथा लेनिन जैसे हत्यारों पर श्रद्धा रखना अनिवार्य है. लेकिन हम “हिन्दू” ऐसे नहीं होते हैं... हम इस्लाम-ईसाई और वामपंथ इन सभी से अलग भी हैं, श्रेष्ठ भी हैं और लोकतांत्रिक भी हैं. नास्तिक होने पर भी आप हिन्दू बने रह सकते हैं, यही हिन्दू संस्कृति का असली आकर्षण है.
आज जबकि सारे विश्व में हिन्दू संस्कृति का आकर्षण बढ़ रहा है, लोग स्वयमेव हिन्दू संस्कृति की तरफ मुड़ने लगे हैं, हिन्दुओं ने कभी भी अल्लाह या जीसस जैसी “मार्केटिंग टेक्नीक” नहीं अपनाई है, तो भला ऐसे में त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ती तोड़ने जैसा कृत्य क्यों करना चाहिए? मूर्तिभंजन करना हिन्दुओं का काम नहीं है. यदि आयातित वामपंथी विचारधारा इतनी ही शक्तिशाली होती, तो वह भारत में फेल क्यों होती? यह विचारधारा तो रूस सहित अनेक देशों में फेल हुई है, क्योंकि यह विचारधारा हत्याओं की और मुफ्तखोरी की विचारधारा है. इसलिए लेनिन जैसों की मूर्ती को ढहाने की बजाय इस खूनी वामपंथी विचारधारा को लोकतांत्रिक माध्यम से ढहाना ज्यादा “हिंदूवादी” कृत्य है. एक सच्चे हिन्दू को उन्मादी न बनते हुए शान्ति के साथ अपनी संस्कृति का प्रसार करना चाहिए. लेनिन की मूर्ती को उसी स्थान पर वैसा ही लगे रहने दें और वैचारिक रूप से कुछ ऐसा करें, कि वह मूर्ती समय के साथ अपने-आप धुंधली पड़ जाए और कबूतर-चिड़िया ऐसी मूर्तियों के सिर पर बीट करें, घोंसला बनाएँ... त्रिपुरा की जनता वामपंथ को उपेक्षित कर दे कुछ ऐसा होना चाहिए, लेकिन लोकतांत्रिक पद्धति से....
क्योंकि मूलतः जो हिन्दू विचार और अध्यात्म है, वह - “....ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥...” है. इसे किसी “विदेशी चिन्ह, विदेशी विचार, विदेशी की मूर्ति” से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ना चाहिए.
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मूल लेखक: जयेश शत्रुघ्न मेस्त्री
अनुवाद :- सुरेश चिपलूनकर
वामपंथ के काले कारनामों को और पढना चाहते हैं?? ये दो-तीन लेख पढ़ें...
१) शहरी नक्सली :- http://desicnn.com/news/twitter-account-suspension-distortion-of-education-system-and-urban-naxalism
२) नक्सलवादी आतंक को समझने के लिए एक छोटा सा लेख :- http://desicnn.com/news/how-to-understand-naxalism-and-what-is-naxalism-in-india-a-short-article
३) गीता ग्रन्थ को बदनाम करते वामपंथी :- http://desicnn.com/news/communist-propaganda-against-bhagvad-gita-and-ignorance-of-hindus-causing-loss-to-our-culture