नक्सलवाद, आतंक और कारण समझने हेतु छोटा-सरल लेख...

Written by मंगलवार, 25 अप्रैल 2017 12:34

छत्तीसगढ़ में हुए भीषण नक्सली हमले में केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के छब्बीस जवान हुतात्मा हुए और आठ गंभीर रूप से घायल हुए हैं. यह हमला एक सड़क निर्माण को सुरक्षा देने वाली CRPF कंपनी पर हुआ, जिसमें नक्सलियों ने ग्रामीणों तथा महिलाओं को “मानव ढाल” बना रखा था.

इस हमले को केन्द्रीय सुरक्षा बलों पर दूसरा सबसे बड़ा भीषण हमला माना जा सकता है, इससे पहले CRPF की टुकड़ी पर ही हमला हुआ था, जिसमें 76 जवान हुतात्मा हुए थे. सभी को याद है कि उस समय दिल्ली के JNU विवि में “जश्न” मनाया गया था. 76 जवानों की लाशों की तस्वीरें JNU में वितरित की गयी थीं और इसे “नक्सलवाद की भारी जीत” बताकर खुशियाँ मनाई गई थीं. अक्सर “कूल-डूड” किस्म के युवा पूछते हैं की आखिर नक्सलवाद क्या है? छत्तीसगढ़-उड़ीसा-आंधप्रदेश-महाराष्ट्र में ही इसका बोलबाला अधिक क्यों है? संक्षेप में समझाने की कोशिश करता हूँ. 

वामपंथी विचारधारा के अनुसार गरीब को गरीब ही बने रहना चाहिए, उसे अच्छी नौकरी या अच्छी सड़क की कोई जरूरत नहीं है (इसका सबूत यह है की तीस वर्ष तक लगातार बंगाल में शासन करने के बावजूद वहां न तो कोई बड़े उद्योग हैं और ना ही अच्छी सड़कें या बिजली). इस कथित नक्सलवाद का दूसरा पक्ष यह भी है की यदि आदिवासी शिक्षित हो गए, पढ़ाई-लिखाई करने लगे, अच्छी सड़कों के कारण उनका शहरी संपर्क बढ़ने लगा तो उन्हें भी थोड़ी समझ आने लगेगी. यदि ग्रामीण-आदिवासी लोग वामियों अथवा नक्सलियों से सवाल-जवाब करने लगेगा, तो इनकी दुकानदारी बंद होते देर नहीं लगेगी. इसीलिए नक्सली गुट छत्तीसगढ़ के जंगलों में स्थित ग्रामीणों और आदिवासियों को डरा-धमकाकर रखते हैं.

नक्सलियों द्वारा न सिर्फ इन ग्रामीणों से जबरन अनाज, मुर्गा, दारू ली जाती है, बल्कि हफ्ता वसूली भी की जाती है. सरेंडर कर चुकी कई महिला नक्सलियों ने बताया है कि उनके साथ महीनों तक नक्सली नेताओं और समूह द्वारा बलात्कार किया जाता था. ज़ाहिर है की नक्सलवाद कोई विचारधारा नहीं है, बल्कि एक “गिरोह” है जिसकी जड़ें छत्तीसगढ़ के जंगलों से लेकर JNU जैसे “विष-विद्यालय” तक फ़ैली हुई हैं. नक्सलियों के पास स्वचालित हथियार, बंदूकें और गोलियां हैं, इसका अर्थ साफ़ है की इन्हें कहीं न कहीं से भारी मात्रा में पैसा भी मिलता है, केवल हफ्ता वसूली और लूट से यह काम नहीं हो सकता (एक AK-47 की कीमत लाखों में होती है). दिल्ली-चेन्नई जैसे महानगरों में बैठकर इनके कथित हमदर्द “प्रगतिशील बुद्धिजीवी” इनके पक्ष में वैचारिक माहौल बनाने की कोशिशें लगातार जारी रखते हैं. हत्या करने वाले नक्सलियों को ““गरीब ग्रामीण”” और ““बेचारा आदिवासी”” के रूप में चित्रित किया जाता है. सेमीनार आयोजित किए जाते हैं, विदेश यात्राएँ होती हैं, बड़ी मात्रा में NGOs खड़े करके उनकी आड़ में नक्सलवाद का यह खेल पिछले कई वर्षों से जारी है. यदि आप सोचते हैं कि इनकी दुश्मनी केवल भाजपा से है, तो आप नासमझ हैं... क्योंकि कुछ वर्ष पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के काफिले पर हुए हमले में अजीत जोगी को छोड़कर प्रदेश की लगभग पूरी की पूरी कांग्रेस पार्टी ही समाप्त हो गई है.

कहने का मतलब ये है की नक्सलियों के दुश्मन भाजपा-कांग्रेस नहीं हैं, इनकी दुश्मनी हर उस व्यक्ति से है, जो इनके “हफ्ता वसूली और समानंतर सत्ता क्षेत्र” में दखल दे. यदि कोई इन्हें आदिवासियों के शोषण की इजाजत दे, इनके कमाण्डरों को अवैध वसूली करने दे, इन नक्सलियों को उद्योगों-व्यवसायियों से चंदा वसूली करने की पूरी छूट दे, इनके “इलाके” में केवल इनकी सत्ता चलने दे, तो ये खुश रहेंगे, हालांकि ये बात और है की इनके राज में भी वास्तविक आदिवासियों की स्थिति जस की तस रहने वाली है. क्योंकि इन्हें आदिवासियों से कोई लेना-देना नहीं है, इनका मुख्य उद्देश्य होता है जंगल की वनोपज जैसे तेंदूपत्ता और पेड़ों की कटाई में 40% तक की हिस्सेदारी. किसी भी बड़े बीड़ी उद्योगपति अथवा लकड़ी कारखाने के मालिक से चुपचाप अकेले में पूछ लीजिए, वह बता देगा कि पिछले बीस वर्ष में उसने नक्सलियों के नेताओं को लाखों रूपए गुपचुप तरीके से पहुँचाए हैं... ये नक्सली उसी स्थिति में आपको धंधा करने देंगे. नक्सलियों द्वारा की गई ऐसी अवैध वसूली और गुण्डागर्दी के चलते जो व्यापारी अथवा उद्योगपति इनसे समझौता कर लेता है, वही इनके “इलाके” में काम कर पाता है. नागालैंड में भी यही खेल चल रहा है, छत्तीसगढ़ में भी यही खेल चल रहा है. अंतर बस इतना है कि नागालैंड में यही “अवैध वसूली और गिरोहबाजी” क्राईस्ट के नाम पर की जाती है जबकि छत्तीसगढ़ में यह वसूली “गरीब आदिवासियों” के नाम पर. प्रतिमाह होने वाली इस बेहिसाबी काली कमाई का नक्सलवादी नेता किसी को कोई हिसाब नहीं देते, सब ऊपर के ऊपर ही नक्सलियों में बँट जाता है, या हथियार-गोलियाँ खरीदने में खर्च हो जाता है. गरीब आदिवासी को इस “लूट” में से चार पैसे भी नहीं मिलते. सुदूर घने जंगलों में प्रशासन तो होता नहीं है, इसलिए आदिवासी और ग्रामीण इन नक्सलियों से डरे हुए रहते हैं और मजबूरी में इनका साथ देते हैं. इसका अर्थ नक्सली यह लगाते हैं की जनता उनके साथ है, जबकि यदि इन क्षेत्रों में ईमानदारी से लोकतांत्रिक पद्धति द्वारा चुनाव हो जाएं तो नक्सली कभी न जीत पाएँ. गरीब आदिवासियों को सडक, स्कूल, अस्पताल और संचार सुविधा चाहिए, लेकिन नक्सली JNU में तो ऊँची-ऊँची बातें करेंगे, लेकिन छत्तीसगढ़ में न तो सड़क बनने देंगे और ना ही आदिवासी बच्चों को स्कूल जाने देंगे... टेलीकॉम कंपनियों के टावरों को भी आए दिन निशाना बनाते रहते हैं. अंधे को भी दिखाई दे रहा है कि नक्सलवाद का “असली उद्देश्य” क्या है और इन्हें ग्रामीणों की कितनी चिंता है. यदि कोई उद्योगपति इन क्षेत्रों में उद्योग लगाना चाहे तो उसे रोकने के लिए इनके पास केवल हथियार-गोलाबारूद ही नहीं, बल्कि दिल्ली के JNU छाप सेमीनार भी होते हैं. इनकी निगाह में प्रत्येक उद्योगपति केवल लुटेरा होता है, जो भी उद्योगपति छत्तीसगढ़ में आ रहा है, वह केवल लूटने के लिए आ रहा है, जबकि हम (यानी नक्सली) धर्मकार्य कर रहे हैं. आदिवासियों को यह समझा दिया जाता है की तुम्हारी जमीन लुटने वाली है, इसलिए हथियार पकड़ लो... और यदि हथियार नहीं पकड़ सकते तो लड़ने के लिए हमें “हफ्ता” दो. इस नक्सल गिरोह का अंतर्संबंध चर्च और वेटिकन से भी होता है. उड़ीसा में आपने स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या के बारे में सुना होगा. 84 वर्षीय स्वामीजी उड़ीसा के आदिवासी इलाकों में रहकर सनातन धर्म जागरण करते थे, आदिवासियों को जागरूक करते थे, शिक्षित करते थे... चर्च और नक्सलियों को भला यह कैसे भाता?? इसलिए इन्होंने स्वामीजी की हत्या कर दी. यानी जो भी गिरोह भारत को तोड़ने वाला हो, या जो भी गिरोह भारत में अशांति पैदा कर सकता हो... उसकी इन नक्सलियों और JNU के विद्वानों से बहुत पटती है.

यदि नक्सलवादी सचमुच आदिवासियों के हमदर्द होते, तो फिर गुजरात में भी कई जिलों में लाखों आदिवासी हैं, वहाँ पर नक्सलवाद क्यों नहीं पनपा?? क्योंकि गुजरात में सरकारों ने पहले ही सड़कें, स्कूल और अस्पताल आदि बनवा दिए, आदिवासियों को चुनाव के जरिये लोकतंत्र की मुख्यधारा में ले आए. आंधप्रदेश में भी पिछले दस वर्ष में नक्सली हमलों में काफी कमी आई है. झारखंड भी इसी राह पर चल रहा है. छत्तीसगढ़ में नक्सल समस्या काबू में इसलिए नहीं आ रही क्योंकि यह राज्य सभी नक्सल प्रभावित राज्यों के बीचोंबीच है और यहाँ के जंगल बहुत घने तथा बड़े इलाके में फैले हुए हैं. इस कारण आंधप्रदेश-महाराष्ट्र-झारखंड से नक्सली आतंकी बड़े आराम से छत्तीसगढ़ में आते-जाते रहते हैं, घने जंगलों में छिप जाते हैं. छग के बीच में स्थित होने कारण इस राज्य से गुजरने वाले ट्रकों से भी नक्सलियों द्वारा “अवैध वसूली” करना सरल होता है, और माल भी अधिक मिलता है. इसीलिए छत्तीसगढ़ में इन आतंकियों द्वारा उस खास सड़क के निर्माण का विरोध चल रहा है, ताकि सुरक्षा बल इन तक आसानी से न पहुँच सकें और आदिवासी चार पैसे अधिक कमाने के लिए उसी सड़क से शहर न पहुँच सकें...

कुल मिलाकर बात यह है कि नक्सलवाद कोई विचारधारा नहीं है, यह केवल और केवल सत्ता और धन का खेल है. क्षेत्र में अपना दबदबा कायम रखने, उद्योगों-व्यापारियों को धमकाकर मोटी कमाई करने तथा अपने “इलाके” में दूसरे का दखल बर्दाश्त नहीं करने का षड्यंत्र मात्र है, इसका आदिवासियों अथवा गरीबों की भलाई से कोई लेना-देना नहीं होता... ये बातें केवल नक्सलवाद की जी साईबाबा अथवा बिनायक सेन जैसों के लेखों अथवा JNU के सेमिनारों में पाई जाती हैं. हर महीने लाखों रूपए की चंदा उगाही-वसूली और विदेशों से मिलने वाले डोनेशन से फाईव स्टार होटलों में किए जाने वाले अरुंधती रॉय छाप लेखकों के कांफ्रेंस और सरफरोश फिल्म के बीरन जैसे स्वचालित हथियारों की खेप का, आदिवासियों की गरीबी से क्या सम्बन्ध?? आप भी बड़े भोले हैं भाई!!!

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