इस शेर में जो 'दमदम' शब्द कहा गया है वह उस अफसर ने एक 'तोप' के लिए कहा है. वैसे तो हमेशा से तोपों की कहानियाँ कुछ कम दिलचस्प नहीं है. क्योंकि तोपों की कहानी हमेशा से ही कई वारदातों और रोमांचक इतिहास से भरी रही हैं. हाँ, ये अलग बात है कि हिंदी के साहित्यकार और हिंदी साहित्य इन तोपों के प्रति काफी उदासीन रहे हैं. मगर हक़ीक़त में इन तोपों की कहानियां काफी हैरत में डालने वाली है। ऐसी ही एक कहानी तोप 'दमदम' की भी है.
बहुत पहले जब अहमद शाह अब्दाली जो सैन्य परंपरा का था, जिसके लिए क़त्ल और हत्यायें करना आम बात थी, जिसकी तलवार लहू में डूबी रहती थी. उसका सामना हिंदुस्तान आने के बाद हाथियों की कतार से हुआ. जिसके सामने उसके तेज़ घुडसवार कुछ भी कर पाने में असफल होने लगे. फिर उसने सोचा कि उसे एक ऐसी तोप की जरुरत है, जो इन हाथियों पर सवार सैनिकों के झुण्ड को एक बार में ही धराशायी कर दे, मगर समस्या सामने ये आयी कि, ऐसी तोप बने तो कैसे बने?
काफ़ी दिमाग़ लगा कर उसने 'जज़िया' (जज़िया' एक प्रति व्यक्ति कर है, जिसे एक इस्लामिक राष्ट्र द्वारा इसके गैर मुस्लिम पुरुष नागरिकों पर जो कुछ मानदंडों को पूरा करते हों, पर लगाया जाता है) नाम का कर लाहौर में बसे हिन्दुओं पर लगाया. वास्तव में ‘जजिया’ हिंदुओं के आर्थिक और सामाजिक शोषण का एक माध्यम था. किसी भी देश को दास बनाने का उचित माध्यम भी यही है कि आप उसके नागरिकों को आर्थिक रूप से दीवालिया बना दें, और उस देश के आर्थिक संसाधनों पर एक विजेता के रूप में अपना अधिकार कर लें. मुस्लिम सल्तनत के हर सुल्तान ने भारत के चाहे जितने भूभाग पर शासन किया, इस बात को सुनिश्चित कर लिया कि यहां के नागरिकों की आर्थिक स्वतंत्रता का हरण किया जाए. आर्थिक विपन्नता वह अवस्था होती है, जिससे दुखी होकर व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता का मूल्य लेकर स्वाभिमान को बेचने तक के लिए विवश हो जाता है.
हाँ तो, अब्दाली ने 1757 में यह कानून पास किया कि अब से लाहौर में रह रहे हिन्दुओं को ये कर देना पड़ेगा. जिसके तहत लाहौर का सूबेदार 'शाह वलीउल्लाह' घर-घर जा कर हिन्दुओं से उनका सबसे बड़ा बर्तन, जो पीतल का हो कर स्वरूप मांग (छीन) कर ले आया. जब बहुत सारी धातु एकत्रित हो गयी, तो उस समय के मशहूर धातु-लोहार 'शाह-नाज़िर' की मदद ली गयी. यह उस वक़्त मुग़ल शासक के लिए काम करता था, और देखते ही देखते तीन महीने के अंदर धातु की विशालकाय तोप तैयार हो गयी. जिसका इस्तेमाल 14 जनवरी 1761 में पहली बार पानीपत के तीसरे युद्ध के दौरान मराठाओं की विशाल सेना के खिलाफ हुआ.
इस युद्ध में कुल एक लाख सैनिक मरे थे. जिसमें से पहले ही दिन लगभग चालीस हज़ार सैनिक मारे गए, ऐसा जे.जी. डफ़ ने 'हिस्ट्री ऑफ मराठाज़” में उल्लेख किया है. यह युद्ध उदय था विशालकाय-विनाशकारी तोप 'दमदम' का. इस युद्ध में जीतने के बाद अहमद शाह ने काबुल वापिस जाने का मन बना लिया. वो अपने साथ 'दमदम' को ले कर जाना चाहता था, मगर उसका आकार इतना बड़ा था और पहाड़ी रास्ता तथा रास्ते में पड़ने वाली नदियों की वज़ह से कठिनाई इतनी बढ़ गयी, कि उसे 'दमदम' को वहीं पर यानि कि वर्तमान के लाहौर में ही छोड़ कर जाना पड़ा. वैसे भी अभी तोप 'दमदम' को काफी कुछ देखना बाकी ही था. एक साल बाद 1762 में राजा हरी सिंह ने लाहौर पर हमला बोला, और जीत हासिल की. जीतने के बाद उसने तोप दमदम को लाहौर फोर्ट के सामने ला कर खड़ा कर दिया, और उसका नया नाम 'भंगीवाली तोप' रख दिया. अगले दो साल तक दमदम वही खड़ा रहा. फिर सिखों की शक्ति बढ़ी और लहना सिंह तथा गुज्जर सिंह ने मिल कर लाहौर पर हमला बोल दिया. अब उन्होंने लूट के हिस्से के रूप में दमदम को चरतसिंह को दे दिया, और वो उसे वहां से उठा कर अपने किले गुजराँवाला ले आया.
दमदम तोप का जादू ही कुछ ऐसा था, कि सारे राजा उस पर कब्ज़ा जमाना चाहते थे. चथा समुदाय ने चतर सिंह पर हमला करके तोप को अहमदनगर ले आया. अब उस तोप के लिए ये राजा आपस में ही लड़ने लगे, ऐसे में मौके का फायदा उठा कर चरतसिंह ने एक हिस्से का साथ दिया और फिर से दमदम को अपने कब्ज़े में कर लिया. ऐसे जाने कितनी ही लड़ाइयां ये राजा आपस लड़ते रहे, और अंत में यह तोप अमृतसर आ गयी. एक बार रंजीत सिंह लाहौर को जीतने निकले, तो उन्होंने दमदम को अपनी पैतृक सम्पति घोषित कर दिया. उसके बाद दस्का, कसूर, सुजानपुर और वज़ीराबाद से होते हुए लाहौर और लाहौर के युद्ध के बाद मुल्तान के युद्ध के लिए उसे नाव से ले जाने लगे मगर उस दौरान दमदम तोप का एक पहिया टूट गया.
महाराजा रंजीत सिंह ने फिर भी सैनिकों को हुक्म दिया कि उस तोप का इस्तेमाल युद्ध में किया जाये. एक पहिये की जगह सात सैनिक मिल कर दमदम को उठा कर हमला करने लगे. इस उठाने के चक्कर में लगभग सौ से अधिक सैनिकों की जान गयी, लेकिन आखिर में दमदम तोप मुल्तान फोर्ट में पहुँच ही गयी. उसके बाद दमदम को लाहौर से उठा कर फिर दिल्ली गेट के पास लाया गया. जब अंग्रेजों ने 1849 में समूचे दिल्ली पर कब्ज़ा कर लिया तब इस बेचारी दमदम तोप की मरम्मत करवाई गयी और उसे वज़ीर खान के बगीचे की शोभा बढ़ाने के लिए खड़ा कर दिया गया. फिर एक प्रदर्शनी जो ड्यूक ऑफ एडिनबर्ग के लिए रखी गयी थी, उस दौरान यानि कि 1870 में उसे टॉलिन्टों मार्केट में ला खड़ा कर दिया गया. सबसे अंत में अर्थात 1977 में एक और बार दमदम तोप की मरम्मत करवाई गयी, और उसे हल्का सा पश्चिम की तरफ खिसका कर रख दिया गया जहाँ वो आज भी खड़ी है. लोग-बाग़ कहते हैं कि उसे आज भी कुछ-न-कुछ खिलाया जाता है. दमदम नामक इस ऐतिहासिक तोप को शांत हुए 175 बरस बीत चुके हैं (वैसे भी एक शांत तोप ही हमारी मानव जाति के लिए बेहतर है).
जब बहादुरशाह ज़फ़र को गिरफ्तार करके उस अंग्रेज अफसर ने वो शेर कहा था, तब बहादुरशाह ज़फ़र ने फ़ौरन जवाब दिया था, कि
"ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख़्त-ए-लन्दन तक चलेगी तेग़ हिन्दुस्तान की।"