प्रेस का ख़ासा बड़ा हिस्सा कुकरहाव कर रहा है। बराक हुसैन ओबामा सहित हज़ारों अमरीकी सड़कों के किनारे नालियों पर बैठे हैं मगर पानी या काग़ज़ नहीं है।
बंधुओ, 'भरतपुर लुट गयो रात मोरी अम्मा' की नौटंकी राजनैतिक चतुराई से भरी कुटिल तकनीक है। भारत में भी बहुत समय से वामपंथी और इस्लामी ढकोसलेबाज़ राष्ट्रवादियों को दबोचने की मुहिम चलाने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल करते आये हैं। मुझे अपनी पत्रिका लफ़्ज़ के प्रकाशन के समय अपने साथी और नाम के सम्पादक इक़बाल अशहर के साथ एक विवाद का ध्यान आता है। लफ़्ज़ हास्यव्यंग्य और शायरी पर काम कर रही थी मगर उसका सम्पादकीय सामयिक विषयों को भी घेरता था। एक सम्पादकीय में मनोहर श्याम जोशी जी के लेख "चड्ढी-चोली का विरोध और बुर्क़े की हिमायत" की प्रशंसा थी। जिस पर इक़बाल अशहर ने मुझसे सम्प्रेषण के लिये फ़ोन की जगह sms का माध्यम चुना और मुझ पर साम्प्रदायिक होने और अपने ग़ैरतअस्सुबी होने का हवाला देते हुए मुझसे सम्पादकीय में माफ़ी की मांग की।
जवाबी sms में अकिंचन ने पूछा क्या आपने इस्लाम त्याग दिया है ? आख़िर संसार को किस चिंतन धारा ने दारुल-हरब, दारुल-इस्लाम के ख़ानों में बांटा है। किसने काफ़िर वाजिबुल-क़त्ल कह कर मनुष्य के मौलिक जीवन के अधिकार की अवहेलना की है ? कौन कहता है "ईमान वालों को चाहिए कि ईमान वालों के विरुद्ध काफ़िरों को अपना संरक्षक-मित्र न बनायें। और जो ऐसा करेगा उसका अल्लाह से कोई नाता नहीं।" क़ुरआन 3-28 । वो हकबका गए और आज तक जवाब नहीं आया।
कृपया सोचिये कि क़ौमी यकजहती अर्थात सांप्रदायिक एकता का सार्वजनिक प्रदर्शन, भाषणों का दिखावा भारत ही नहीं बल्कि विश्व भर में सबसे अधिक कौन सा समाज करता है ? अब सोचिये कि क्यों करता है ? आख़िर सारे संसार में स्थानीय समाज में समरस न होने के लिये अलग पहनावा, अलग खान-पान, अलग शैक्षणिक व्यवस्था, अलग न्यायव्यवस्था कौन मांगता है ? यानी सबके लिये तय व्यवस्था से अलग नियमों की मांग अर्थात अलग पहचान के लिए कौन सा समाज सक्रिय रहता है ? कौन सा समाज दूसरे समाज की लड़कियां तो लेना चाहता है मगर अपने समाज की लड़की किसी दूसरे समाज के लड़के से विवाह करना चाहे तो बलवे, हंगामे, हत्या की धमकी पर उतर आता है ? ज़ाहिर है उत्तर इस्लामी समाज अर्थात मुसलमान है।
यह ढकोसला इतना बड़ा, मज़बूत और परफ़ेक्ट बनाया गया है कि विश्व भर में इसको ढोंग की जगह सच समझ जाता है। ईरान, ईराक़,लीबिया, सोमालिया, सूडान, सीरिया और यमन जैसे 7 देश जो न केवल अपने यहाँ भयानक संघर्ष छेड़े हुए हैं बल्कि दूसरे देशों में अपने वैचारिक एड्स के विषाणु भेज रहे हैं, को अमरीका वीज़ा बंद करता है तो पापी हो जाता है और अल्जीरिया, बंगला देश, ब्रूनेई, ईरान, ईराक़, क़ुवैत, लेबनान, लीबिया, मलेशिया, ओमान, पाकिस्तान, सऊदी अरब, सूडान, सीरिया, संयुक्त अरब अमीरात, यमन जैसे 16 इस्लामी देश दशकों से इज़राइली पासपोर्ट वाले नागरिकों को अपने देश का वीज़ा नहीं देते वो सब पुण्यात्मा हैं।
सम्भवतः इस बात से आपकी जानकारी में वृद्धि हो कि इस्लाम ने अपने पुण्य केंद्र मक्का-मदीना की धरती ही नहीं अपितु आकाश भी प्रतिबंधित कर रखा है। उनके ऊपर से कोई हवाईजहाज़ भी काफ़िरों { ग़ैर-मुस्लिमों } को ले कर नहीं उड़ सकता। काफ़िर से इस सीमा की घृणा इस्लाम की मूल पुस्तक इस्लाम में जगह-जगह मिलती है।
जब तुम्हारा रब फ़िरिश्तों की ओर वह्य कर रहा था कि मैं तुम्हारे साथ हूँ। तो तुम उन लोगों को ईमान ला चुके हैं जमाये रखो। मैं अभी काफ़िरों के दिल में रौब डाले देता हूँ। और तुम उनकी गर्दनों पर मारो और उनके हर जोड़ पर चोट लगाओ { 8-12 }
यह इस लिए कि इन लोगों ने अल्लाह और उसके रसूल का विरोध किया। और जो जो कोई अल्लाह और उसके रसूल का विरोध करे तो निस्संदेह अल्लाह भी कड़ी सज़ा देने वाला है। { 8-13 }
यह है { तुम्हारी सज़ा } इसका मज़ा चखो, और यह भी { जान लो } कि काफ़िरों के लिए आग { जहन्नम } की यातना है { 8-13 }
तुमने उन्हें क़त्ल नहीं किया बल्कि अल्लाह ने उन्हें क़त्ल किया............. { 17-13 }
इस्लामी चिंतन दारुल इस्लाम के ही नहीं दारुल-हरब के नियम भी तय करना चाहता है। इस्लामी देश में मुसलमान कैसे जियें ? क्या करें ? ग़ैरमुस्लिमों के साथ इस्लामी राज्य कैसा व्यवहार करे ये तो उसका स्वाभाविक अधिकार है ही, ग़ैरमुस्लिम देशों के नियम भी उसके अनुसार बनने चाहिये। हलाल मांस, हिजाब, इस्लामी शिक्षा, शरिया, मस्जिदें, उनमें ग़ैरमुस्लिमों के लिये घृणापूर्ण ख़ुत्बे सभी कुछ इस्लाम के अनुसार बनना चाहिये। ऐसा करवाने के लिये उसे विश्वव्यापी इस्लामी-टैक्स ज़कात की लाखों करोड़ की अथाह राशि उपलब्द्ध रहती है। इसी राशि से बराक हुसैन ओबामा, हिलेरी क्लिंटन के चुनावी बजट के लिये सैकड़ों करोड़ डॉलर की सहायता की ज़ोरदार चर्चा अमरीकी मिडिया में भी थी। नरेन्द्र मोदी जी के विरोधियों को भी इसी से करोड़ों रुपये भेजे जाने की सूचनायें मिलती रही हैं।
विश्व राजनीति के इतिहास में पहली बार किसी ने इसका पंजा पकड़ने का कार्य प्रारम्भ किया है और इस्लामियों को उसी भाषा में जवाब देना शुरू किया है जिसमें वो 1400 साल से संसार से सवाल पूछते आ रहे थे। यानी अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। यह काम तो ठीक बल्कि बढ़िया है मगर यह ध्यान रहे यह ऊंट भारत में भी है मगर पहाड़ अभी अमरीकी में ही खड़े हुए हैं। भारतीय ऊँट के लिये भारतीय पहाड़ खड़ा करना, उसे भारतीय पहाड़ के नीचे धकेल कर हमें ही लाना होगा। 1200 वर्ष से रिसते आ रहे नासूरों को साफ़ करने, घाव सिलने, राष्ट्र के पूर्ण स्वस्थ होने का काल आ रहा है। सशक्त होइये, सन्नद्ध होइये, भारत माता के कटी भुजाओं को वापस लाने का, पुनः गौरव पाने का समय निकट आ रहा है। एक बड़ी छलांग और गन्दा नाला पार.......
तुफ़ैल चतुर्वेदी