कुटीर उद्योग और सामान्य दुकानदार स्वरोजगार के ताकतवर स्तंभ हैं। लॉकडाउन की परेशानियों में सरकार ने व्यापारियों को सीधे या बैंकों द्वारा भी कोई मदद नहीं दी। वहीं बैंकों ने जबसे अपनी बीमा कंपनियां बनाकर या एजेंसी लेकर बीमा कारोबार शुरू किया है, तबसे बैंक अपने ही खातेदार व्यापारी के ऊपर लगातार बीमा कराने का दबाव बना रहे हैं। उत्तर प्रदेश में तो इसका मुखर विरोध शुरू हो गया है, क्योंकि व्यापारी और बैंक के बीच लोन का लेन-देन रोजमर्रा की चीज है और अभी तक व्यापारिक ऋण में व्यापारी का बीमा अनिवार्य करने का कोई नियम नहीं आया है।
वहीं मंडी व्यापारी नए केंद्रीय अध्यादेशों की चपेट में आ गए हैं। 5 जून 2020 को कृषि से संबंधित तीन अध्यादेश जारी हुए थे। कहने को तो यह अध्यादेश किसानों को खुला बाजार देते हैं, लेकिन किसानों के साथ ही व्यापारी नेता भी इन अध्यादेशों को व्यापार के हित में नहीं मानते। अध्यादेश में कहा है कि मंडी में फसल आई तो शुल्क लगेगा और मंडी के बाहर कोई शुल्क नहीं लगेगा। व्यापारी संगठनों का मानना है कि यह व्यवस्था बड़ी कंपनियों के खुदरा व्यापार में उतरने की संभावना को सुविधाजनक बनाने के लिए की गई है। वहीं कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से कॉरपोरेट व्यापारी किसान की फसल सीधे खेत से ले लेंगे, तो छोटे व्यापारी की भूमिका ही समाप्त हो जाएगी। इस वजह से मंडी में काम करने वाले व्यापारियों सहित आम व्यापारी भी इसके खिलाफ सड़क पर उतरने को मजबूर हो रहे हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में दस लाख मंडी व्यापारी हैं तो उनसे लाखों कर्मचारियों की रोजी-रोटी भी जुड़ी है।
कॉरपोरेट घरानों के खुदरा बाजार में उतरने को छोटे व्यापारियों के लिए बड़ा खतरा माना जा रहा है। गली-मोहल्ले से लेकर कस्बों तक के बाजारों को यही शंका है कि बड़ी मछली उन्हें छोटी मछली की तरह गटक जाएगी। हाल ही में दवा व्यापारियों के राष्ट्रीय संगठन ने वर्चुअल बैठक कर चिंता जताई है कि फार्मेसी में बड़ी कंपनियों के उतरने से आठ लाख दवा व्यापारियों की रोजी-रोटी संकट में आ जाएगी।
पुस्तक व्यापारियों की अलग मुसीबतें हैं। लॉकडाउन में बिक्री नहीं हुई तो रुके स्टॉक से वे घाटे में आ गए हैं। अमूमन अप्रैल से शुरू होने वाली नई पुस्तकों की बिक्री के लिए विक्रेता फरवरी तक अपना स्टॉक भर लेते हैं। नई बिक्री का सीजन जुलाई तक रहता है। यह साल खाली गया है। कार्यशील पूंजी के ब्लॉक हो जाने और बैंक के ब्याज का दबाव बढ़ते जाने से पुस्तक विक्रेता भीषण संकट में हैं। जो पुस्तकें उनके पास बची हैं, उनकी वापसी करना प्रकाशकों के लिए भी कठिन काम है। वहीं प्रकाशन संस्थान भी तीन माह से बंद हैं, उनके पास कोई काम नहीं है। आधे से ज्यादा कर्मचारियों की उन्होंने या तो छंटनी कर दी है या आधा वेतन ही दे पा रहे हैं। बची हुई पुस्तकें प्रकाशकों के लिए रद्दी ही हैं क्योंकि प्रत्येक सत्र में कुछ न कुछ बदलाव कर पुस्तकों को नया रूप देना बाजार का चलन है। हां, अगर अक्टूबर तक भी स्कूल खुल गए, तो लागत वसूली हो सकती है।
कोरोनाः बेरोजगारी और भूख की चुनौती काफी बड़ी साबित होने वाली है
लॉकडाउन में सीजनल चीजों का बचा स्टॉक व्यापारी के सीने पर पत्थर की तरह पड़ा है। स्टॉक के ढेर और उधार वसूली की चुनौतियों का सामना करने, अगले सत्र की तैयारी करने के लिए उसे अतिरिक्त पूंजी चाहिए, जिसके लिए सरकार उसकी बिलकुल मदद नहीं कर रही। धंधे में मंदी तो पिछले काफी समय से चल रही है, जिसकी वजह से अब व्यापारियों की आत्महत्या किसान आत्महत्या से मुकाबला करने लगी है। कहीं ऐसा न हो कि सरकारें बस सोचती ही रह जाएं और भारत भर के 9 करोड़ से अधिक खुदरा व्यापारी आत्महत्या में किसानों से भी आगे निकल जाएं।
(लेखक :- गोपाल अग्रवाल)