इसे भाजपा सांसद डॉ. सत्यपाल सिंह (Satyapal Singh) ने निजी विधेयक के रूप में प्रस्तुत किया था। यह मार्च 2017 से लोक सभा में विचार के लिए लंबित है। ठीक ऐसा ही विधेयक सैयद शहाबुद्दीन (Syed Shahabuddin) ने दसवीं लोक सभा में अप्रैल 1995 में रखा था। उन्होंने संविधान की धारा 30 के उपबन्धों में जहाँ-जहाँ ‘सभी अल्पसंख्यक’ लिखा हुआ था, उसे बदल कर ‘भारतीय नागरिकों का कोई भी वर्ग’ करने का प्रस्ताव दिया था। उन के विधेयक का मूल पाठ (नं 36/1995) पढ़ कर उस का महत्व समझा जा सकता है।
शहाबुद्दीन ने अपने विधेयक के उद्देश्य में भी स्पष्ट किया था कि वर्तमान रूप में धारा 30 (Article 30 of Constitution) केवल अल्पसंख्यकों पर लागू होती है। जबकि, ‘‘एक विशाल और विविधता भरे समाज में लगभग सभी समूह चाहे जिन की पहचान धर्म, संप्रदाय, फिरका, भाषा और बोली किसी आधार पर होती हो, व्यवहारिक स्तर पर कहीं न कहीं अल्पसंख्यक ही होता है, चाहे किसी खास स्तर पर वह बहुसंख्यक ही क्यों न हो। आज विश्व में सांस्कृतिक पहचान के उभार के दौर में हर समूह अपनी पहचान बनाए के प्रति समान रूप से चिंतित है और अपनी पसंद की शैक्षिक संस्था बनाने की सुविधा चाहता है। ... इसीलिए, यह उचित होगा कि संविधान की धारा 30 के दायरे में देश के सभी समुदाय और हिस्से सम्मिलित किये जाएं...।’’ शहाबुद्दीन ने यह भी लिखा था कि जो बहुसंख्यकों को प्राप्त नहीं, वैसी विशेष सुविधा अल्पसंख्यक समूहों को देने के लिए धारा 30 की निन्दा होती रही है। अतः बहुसंख्यकों को भी अपनी शैक्षिक संस्थाएं बनाने, चलाने का समान अधिकार मिलना चाहिए।
यह हिन्दू समाज, विशेषकर इस के नेताओं की अचेतावस्था का प्रमाण है कि वह विधेयक यूँ ही पड़ा-पड़ा खत्म हो जाने दिया गया! उसे पारित करना आसान था, जिसे तब सब से प्रखर मुस्लिम नेता ने पेश किया था। उसे पारित कर अल्पसंख्यकवाद की जड़ खत्म हो सकती थी, क्योंकि उसी धारा के विकृत पाठ ने हिन्दुओं को अनेक सुविधाओं से वंचित किया है। यद्यपि संविधान-निर्माताओं का आशय वह न था। संविधान सभा की बहस दिखाती है कि उन की चिंता मात्र यह थी कि किसी अल्पसंख्यक को अपनी सांस्कृतिक, शैक्षिक थाती से वंचित न रहना पड़े। लेकिन समय के साथ उस धारा का विकृत अर्थ कर डाला गया कि वह अधिकार केवल अल्पसंख्यकों को है। इस तरह, अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकारी वर्ग बनाकर नेहरू नेतृत्व वाली कांग्रेस ने हिन्दू-विरोध को संवैधानिक रूप दे दिया। फिर अन्य दल भी वोट-बैंक राजनीति के लोभ में गिर गए... इसीलिए आश्चर्य से अधिक यह लज्जा की बात है, कि 1995 में सैयद शहाबुद्दीन द्वारा दिए गए महत्वपूर्ण अवसर को तमाम हिन्दू नेताओं ने गँवा दिया।
आज वैसा ही विधेयक लोक सभा में पिछले साल से लंबित है। उस में धारा 26-30 के बारे में वही माँग है, कि उसे देश के सभी लोगों पर लागू माना जाए। ताकि केवल विशेष समूहों को वित्तीय सहायता, केवल हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्जा, हिन्दू ज्ञान-ग्रंथों को स्कूल-कॉलेज की शिक्षा से बहिष्कृत किए रखने तथा अपने शैक्षिक संस्थान चलाने में भेद-भाव जैसी गड़बड़ियाँ दूर हों। अन्यथा भारत में ही हिन्दू दूसरे दर्जे के नागरिक बने रहने के लिए अभिशप्त रहेंगे। क्या विडंबना, कि हिन्दुओं की यह दुर्दशा ब्रिटिश राज में नहीं, कांग्रेस राज में शुरू की गई। डॉ. सत्यपाल सिंह का विधेयक पूरी तरह समानता-परक है। यह किसी समुदाय को मिले हुए किसी अधिकार से वंचित नहीं करता, बल्कि सब को वही अधिकार देने की माँग करता है। स्वभाविक है कि इस से भारत में सांप्रदायिक भेद-भाव की राजनीति कमजोर होगी और लोगों में सौमनस्य बढ़ेगा।
अभी तक धारा 26-30 की विकृत व्याख्या ने सब कुछ बिगाड़ा है। धारा 28 का विकृत अर्थ करके स्कूलों में रामायण, महाभारत पढाना प्रतिबंधित रखा गया है। जबकि ईसाई और मुस्लिम अपने-अपने शैक्षिक संस्थाओं में बाइबिल और कुरान जमकर पढ़ाते हैं। इस भेद-भाव के कितने गंभीर दुष्परिणाम हुए, इस का भान भी पार्टी-ग्रस्त हिन्दुत्ववादियों को नहीं है! दिनो-दिन हिन्दू परिवारों के बच्चे धर्म-हीन, विचार-हीन और हिन्दू-द्वेषी बनते जा रहे हैं। इस का सब से बड़ा कारण है कि आरंभ से ही उन्हें हिन्दू ज्ञान से वंचित रखा जाता है। इसलिए वे समय के साथ ईसाई, कम्युनिस्ट, इस्लामी, भोगवादी, पश्चिम-परस्त विचारों से भर जाते हैं। वे उन्हीं बातों को ‘शिक्षा’ समझते हैं, क्योंकि तमाम औपचारिक-अनौपचारिक माध्यमों से उन्हें वही सब जानने, सुनने को मिलता रहा। आखिर क्या कारण कि जेएनयू, एनडीटीवी, फ्रंटलाइन, ईपीडब्ल्यू, आदि नामी बौद्धिक अड्डों से हिन्दू-द्वेषी प्रचार चलाने वाले लगभग सभी जन हिन्दू परिवारों से हैं? वैसे ही इस्लाम-द्वेषी मुस्लिम या चर्च-द्वेषी इसाई प्रोफेसर, पत्रकार, बुद्धिजीवी क्यों नहीं मिलते? सारे प्रभावशाली बुद्धिजीवी केवल हिन्दू-निंदक हैं। इस का सब से बड़ा कारण हिन्दू ज्ञान को शिक्षा से बाहर रखना ही है। मुस्लिम और ईसाई बुद्धिजीवी इस्लामी और ईसाई साहित्य या परंपरा के विरुद्ध कुछ नहीं बोलते। उन की शिक्षा में उन जड़-मतवादों के प्रति भी सम्मान रखना सिखाया गया है। जबकि हिन्दुओं की शिक्षा उलटी कर दी गई है।
उसी तरह, धारा 26 सभी धार्मिक समूहों को अपने धार्मिक संस्थान बनाने, चलाने का अधिकार देती है। सुप्रीम कोर्ट ने अनेक फैसलों में स्पष्ट कहा है कि यह अधिकार निरपवाद रूप से सभी समुदायों को है। जैसे, ‘रत्तीलाल पनाचंद गाँधी बनाम बंबई राज्य’ (1952) मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि किसी धार्मिक संस्था के संचालन का अधिकार उसी धर्म-संप्रदाय के व्यक्तियों का है। उऩ से छीन कर किसी भी अन्य या सेक्यूलर प्राधिकरण को देना उस अधिकार का उल्लंघन है, जो संविधान ने दिया है। ‘पन्नालाल बंसीलाल पित्ती बनाम आंध्र प्रदेश राज्य’ (1996) में भी सुप्रीम कोर्ट ने वही कहा कि संविधान की धारा 25 और 26 जो अधिकार इस्लाम, ईसाई धर्मावलंबियों को दोती है, उस से हिन्दुओं को वंचित नहीं करती है। ऐसे कई न्यायिक निर्णय और हैं। किन्तु व्यवहार में क्या होता रहा? यही कि हमारी सरकारें, जब चाहे हिन्दू मंदिरों, मठों, संस्थाओं की संपत्ति पर कब्जा कर लेती हैं। फिर उसे ‘सेक्यूलर’ ढंग से चलाती और उस की आय का दुरूपयोग करती है। अभी राजस्थान में मंदिरों की जमीन पर भाजपा सरकार कब्जा करने को आमादा है। कहीं-कहीं सरकार हिन्दू मंदिरों की आय से हिन्दू-विरोधियों की सहायता करती है। जैसे, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में। बहाना मंदिरों में कुव्यवस्था का होता है, किन्तु घातक गड़बड़ी कर रहे चर्च, मस्जिदों, मदरसों, आदि पर भी सरकार कभी हाथ नहीं डालती। जबकि गैर-कानूनी कामों में लिप्त चर्च, मस्जिदों, मदरसों के समाचार आते रहे हैं।
फिर, धारा 27 के अनुसार भारतीय नागरिकों को किसी विशेष धर्म को बढ़ावा देने के लिए टैक्स नहीं देना है। लेकिन यहाँ कई प्रधान मंत्री ‘देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार’ होने जैसी बातें करते रहे हैं। कोई नेता हज सबसिडी बढ़ाता है, कोई हज हाऊस बनवाता है, कोई हज का विमान-भाड़ा घटाता है। साथ ही, अल्पंसख्यक मंत्रालय, आयोग, शिक्षा संस्थान, कोचिंग संस्थान, विशेष छात्र-वृत्तियाँ, आदि बनती गई जो व्यवहारतः केवल विशेष धर्म-मतावलंबियों के लिए होती हैं। अर्थात्, एक मजहब विशेष को बढ़ावा देने के लिए टैक्स धन का दुरुपयोग। इस प्रकार, धारा 25 से 30 तक का पाठ और व्यवहार हिन्दू-विरोधी हो गया है। कितनी विचित्र बात कि राम-मंदिर और गंगा जी की सफाई की चिन्ता करने वाले हिन्दूवादी इन धाराओं पर एक मामूली विधेयक पास करने की जरूरत महसूस नहीं करते! जबकि ये धाराएं देश में सारी हिन्दू विरोधी गड़बड़ियों को संस्थागत रूप देने का बहाना बन गई है। इस विधेयक को पास करने में विशेष बहुमत की जरूरत भी नहीं। वर्तमान राजनीतिक वातावरण में हरेक दल इस का विरोध करने में संकोच करेगा। क्योंकि इस विधेयक को पास करने में जबर्दस्त हिन्दू गोलबंदी की संभावना है। फिर भी, क्या डॉ. सत्यपाल सिंह के विधेयक का हश्र वही होगा, जो शहाबुद्दीन के विधेयक का हुआ था?