धारा 35-A पर कथित नारीवादी और दलित संगठन चुप क्यों?

Written by गुरुवार, 31 अगस्त 2017 13:53

हाल ही में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम समुदाय से जुड़े “तीन तलाक” के मुद्दे पर आधा-अधूरा ही सही, लेकिन एक शुरुआती फैसला सुनाया है. आधा-अधूरा इसलिए लिखा है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने केवल “एक साथ तीन तलाक बोलकर तलाक” देने को अवैध ठहराया है, लेकिन तीन माह में एक-एक बार तलाक बोलने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है.

अर्थात कोई भी मुस्लिम पुरुष “शरीयत क़ानून के अनुसार” अभी भी तीन माह में तीन बार तलाक बोलकर अपनी बीवी को घर से निकाल सकता है. यानी अब भी भारत के संविधान, भारत की न्याय प्रक्रिया अथवा मुस्लिम महिला की बेबसी से शरीयत को कोई मतलब नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने लिखित निर्णय में तीन तलाक की प्रक्रिया को “मनमाना और सनकी” बताया है. हालाँकि जम्मू-कश्मीर की महिलाओं में इस निर्णय से खुशी तो है, लेकिन उनके कष्टों का फिलहाल कोई अंत नजर नहीं आता, क्योंकि इसकी जड़ में है भारतीय संविधान की वह “खतरनाक धारा”, जिसे नेहरू ने अपनी मनमानी से कश्मीरी महिलाओं पर थोप दिया था. जी हाँ!!! क़ानून की धारा 35-A जिसके द्वारा कश्मीर की राज्य सरकार को ऐसे-ऐसे अधिकार दे दिए गए हैं, जो किसी सभ्य देश में संभव नहीं हैं. आईये संक्षेप में देखते हैं कि आखिर धारा 35-A को काला क़ानून क्यों न कहा जाए? इस धारा के लागू रहने के कारण ही जम्मू-कश्मीर आज तक कभी भी भारत के साथ मनोवैज्ञानिक रूप से जुड़ नहीं पाया. कश्मीर की महिलाएँ, दलित और गोरखा समुदाय भारत के सुप्रीम कोर्ट की तरफ आशा की निगाह से देख रहा है कि शायद धारा 35-A (जो की वास्तव में असंवैधानिक किस्म की है) को खारिज करके उन्हें पिछले सत्तर वर्षों के अन्याय से मुक्ति मिले. 

धारा 35-A के बारे में जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुल सरकार इतनी अधिक संवेदनशील है की उसने तो सुप्रीम कोर्ट में यह लिखकर दे दिया है कि “धारा 35-A अब एक समाप्त हो चुका मामला माना जाए”, तथा “यह धारा संविधान की एक स्थायी धारा है, इसमें कोई बदलाव कश्मीरी जनता को मंजूर नहीं है”. वहीं दूसरी तरफ केंद्र की मोदी सरकार ने कश्मीर की महिलाओं, दलितों एवं गोरखा समुदाय को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट में यह लिखित में दिया है की, “धारा 35-A एक विवादित धारा है, इस पर विस्तृत बहस एवं विचार-विमर्श की आवश्यकता है”, “इस धारा के सभी पहलुओं पर गौर करने के लिए अधिक न्यायाधीशों वाली एक संविधान पीठ इस पर सुनवाई करे और तदनुसार संविधान में बदलाव किए जा सकते हैं”. ज़ाहिर है कि मामला थोड़ा टेढ़ा है, कश्मीर की “इस्लामिक सरकार” इस बेहूदी धारा को बनाए रखने के लिए अड़ी हुई है, जबकि मोदी सरकार चाहती है कि जम्मू-कश्मीर देश की मुख्यधारा में नैतिक रूप से एवं ह्रदय से जुड़ जाए.

 

Article 35 A 1

नेहरू सरकार द्वारा एक अध्यादेश जारी किए जाने के बाद से आज तक धारा 35-A के बारे में कभी कोई बहस हुई ही नहीं. कश्मीरी “पुरुषवादी” मुस्लिम सरकारों की मनमानी आज तक चलती रही, किसी ने इस पर सवाल नहीं उठाया. लेकिन ताज़ा मामले की शुरुआत हुई “वी द सिटीजंस” नामक NGO द्वारा सुप्रीम कोर्ट में न्याय माँगने की अर्जी लगाने से. इस NGO की चारु खन्ना एवं डॉक्टर सीमा राज़दान नामक महिलाओं ने ही सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया कि कश्मीर में महिलाओं की दुरावस्था एवं उनके प्रति अन्यायपूर्ण बर्ताव को रोकने के लिए इस धारा को खारिज किया जाना चाहिए. धारा 35-A जम्मू-कश्मीर सरकार को पूर्ण अधिकार प्रदान करती है, कि वह राज्य के किस व्यक्ति को “स्थायी निवासी” माने, राज्य सरकार की मर्जी है की वह किस व्यक्ति को मताधिकार दे (या वंचित कर दे), यह धारा कश्मीर सरकार को असीमित अधिकार प्रदान करती है कि वह चाहे तो किसी व्यक्ति को उसकी संपत्ति से बेदखल कर सकती है, किसी व्यक्ति को राज्य सरकार की नौकरी प्राप्त करने से रोक सकती है, किसी मेधावी छात्र को स्कॉलरशिप देने से मना कर सकती है. जी हाँ... हैरान हो गए न आप? लेकिन यही सच है.

यह काले क़ानून समान धारा, भारत के नागरिकों और जम्मू-कश्मीर के नागरिकों को अलग-अलग नज़रिए से देखती है. यानी जम्मू-कश्मीर में जन्म लेने वाला सामान्य नागरिक ही नहीं, बल्कि वहां का मुस्लिम भी अलग है, और शेष भारत में जन्म लेने वाला मुस्लिम अलग है. यह क़ानून नेहरू सरकार ने 14 मई 1954 को राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित एक अध्यादेश से मनमाने तरीके से थोप दिया (एक प्रकार से जम्मू-कश्मीर सरकार को इस असंवैधानिक पद्धति से खुश किया गया). इस अध्यादेश को संविधान की प्रमुख धारा 368 का उल्लंघन करते हुए जबरन दादागिरी से लागू किया गया. उल्लेखनीय है कि धारा 368 में स्पष्ट लिखा है कि संविधान की मूल भावना एवं मूल शब्दों से किसी भी प्रकार का हेरफेर नहीं किया जा सकता. संविधान संशोधन के लिए तीन-चौथाई बहुमत आवश्यक होगा, एवं किसी भी धारा में किसी भी बदलाव को संसद की मंजूरी लेना जरूरी है. नेहरू सरकार ने इसका पालन नहीं किया, धारा 35-A संविधान के मूल ढाँचे में शामिल भी नहीं है और नेहरू सरकार ने कश्मीरी मुस्लिमों को खुश करने की हवस में इस धारा को थोपते समय संसद को “बायपास” करते हुए अध्यादेश का सहारा लिया. इस धारा को नेहरू ने संविधान में नहीं जोड़ा, बल्कि "सप्लीमेंट्री" के रूप में रखा है.  स्वाभाविक सी बात है कि यह धारा असंवैधानिक एवं असमानता बढ़ाने वाली है, लेकिन दुर्भाग्य से हिन्दुओं के छोटे-छोटे मामलों पर लगातार मुँह फ़ाड़ने वाले कथित नारीवादी संगठन मुस्लिम महिलाओं से सम्बंधित इस मुद्दे पर चुप्पी साधे बैठे हुए हैं. न तो कश्मीर की महिलाओं से मानवाधिकार आयोग को कोई लेनादेना है, ना ही स्वयंभू प्रगतिशीलों को... जो आए दिन नारी असमानता और महिला अधिकार पर लेक्चर झाड़ते रहते हैं.

चारु वली खन्ना एवं डॉक्टर सीमा राज़दान ने अपनी याचिका में कहा है कि उनके बच्चों को कश्मीर में “नाजायज़” माना जाता है, क्योंकि हमने “गैर-कश्मीरी” पुरुषों से विवाह किया है. इन महिलाओं ने आगे कहा की 1947 में बँटवारे के बाद से ही वे जम्मू के विभिन्न जिलों में निवास करती आई हैं, परन्तु आज तक उन्हें कश्मीर में संपत्ति खरीदने का अधिकार, कश्मीर में वोट देने का अधिकार, राज्य सरकार की सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार, कश्मीर के कॉलेज में उच्च शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार, कश्मीर की किसी बैंक से ऋण प्राप्त करने का अधिकार तक प्राप्त नहीं है. क्योंकि धारा 35-A की वजह से उन्हें स्थायी निवासी प्रमाणपत्र नहीं मिल पाता है. इस बीच जम्मू-कश्मीर सरकार के विधि सचिव अब्दुल माजिद भट ने कहा है कि हम धारा 35-A को बचाए रखने के लिए “किसी भी हद” तक जाने के लिए तैयार हैं. उनके अनुसार यह तमाम बहस “संघी साज़िश” है, ताकि जम्मू-कश्मीर इलाके का जनसंख्या संतुलन बिगाड़ा जा सके और मुस्लिमों का प्रभाव कम हो एवं बाहरी लोगों को यहाँ बसाया जा सके. विपक्षी फारुक अब्दुल्ला ने भी खुलेआम धमकी दी है कि यदि धारा 35-A के साथ छेड़छाड़ हुई तो रक्तपात होगा और राज्य में 2008 के अमरनाथ भूमि विवाद से भी अधिक गंभीर स्थिति निर्माण कर दी जाएगी. उधर यासीन मलिक और सैयद गिलानी ने कहा है कि, “धारा 35-A हमारे लिए जीवन-मरण का प्रश्न है” और हम देखेंगे कि कश्मीर में इसे कौन लागू करता है.

धारा 35-A को लेकर हिन्दू बहुल जम्मू क्षेत्र में भी बेचैनी फ़ैल रही है, क्योंकि अवैध रूप से भारत में घुसे रोहिंग्या मुसलमानों को महबूबा सरकार जम्मू क्षेत्र में बसा रही है, ताकि भविष्य में इस इलाके का जनसँख्या संतुलन हिंदुओं से छीनकर मुस्लिमों के पक्ष में कर दिया जाए. इन रोहिंग्या मुस्लिमों ने महबूबा प्रशासन में साँठगाँठ करके धारा 35-A का लाभ उठाते हुए, कुछ सरकारी नौकरियाँ भी हासिल कर ली हैं जबकि जम्मू के हिन्दू आए दिन प्रताड़ित किए जा रहे हैं. राज्य सरकार की नौकरियों में सभी स्तरों पर 90% मुस्लिम भर्ती हुई है जबकि पिछले सत्तर वर्षों में केवल 10% हिन्दू ही कश्मीर राज्य सरकार की नौकरी में बचे हैं. उधर धारा 35-A को हटाने की सुगबुगाहट के बीच महबूबा और फारुक अब्दुल्ला तथा गिलानी-मलिक के बीच कई गुप्त मंत्रणाएं हो चुकी हैं. इसी का नतीजा है कि महबूबा ने यह बयान भी दिया था कि अगर धारा 35-A हटाई गई तो कश्मीर में भारत के तिरंगे को कंधा देने वाला भी कोई नहीं बचेगा. जम्मू-कश्मीर सरकार इस असीमित अधिकारों वाले “काले क़ानून” को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहती... क्योंकि इसमें प्रावधान हैं कि -

(अ) राज्य सरकार को यह तय करने का अधिकार है कि इस राज्य में कौन मूल निवासी है.

(आ) यदि राज्य सरकार किसी व्यक्ति को यहाँ का निवासी नहीं मानती, तो इस क़ानून के अनुसार उसे राज्य सरकार की नौकरी नहीं मिलेगी... उसे मताधिकार नहीं मिलेगा... उसे यहाँ संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं होगा... किसी भी प्रकार की राज्य सब्सिडी, छात्रवृत्ति वगैरह भी नहीं मिलेगी.

1947 के बँटवारे के समय दो लाख से अधिक हिन्दू-सिख महिलाएँ पाकिस्तान के सियालकोट से विस्थापित होकर जम्मू क्षेत्र में बस गई थीं. सत्तर वर्षों के बाद आज भी इनके पास मताधिकार, ऋण लेने का अधिकार और स्थायी संपत्ति खरीदने का अधिकार नहीं है, क्योंकि राज्य सरकार ने धारा 35-A के तहत इन्हें जम्मू-कश्मीर का निवासी मानने से इनकार किया हुआ है (सत्तर साल तक एक ही राज्य में रहने के बावजूद ऐसा ज़ुल्म). ये दो लाख स्त्रियाँ, भारतीय नागरिक तो हैं, लेकिन कश्मीर की नागरिक नहीं हैं. नेहरू द्वारा बनाए गए इस अदभुत क़ानून के चलते अगर कश्मीर की स्थायी निवासी मुस्लिम महिला, किसी गैर-कश्मीरी से विवाह करती है तो भी उसका पति और उसके बच्चे इस राज्य में कोई अधिकार नहीं रख सकेंगे. यानी कश्मीरी महिला द्वारा किसी बाहरी व्यक्ति से शादी करते ही वह इस राज्य के लिए “बाहरी” बन जाएगी. जब भी जम्मू-कश्मीर में रहने वाली महिलाओं का स्थायी निवास प्रमाणपत्र बनाया जाता है, तो उसमें लिखा होता है, “विवाह होने तक ही वैध”. यह सीधा—सीधा महिलाओं, साधारण न्याय व्यवस्था एवं मानवाधिकारों का हनन है, लेकिन भारत के कथित नारीवादी संगठन इस पर मौन साधे बैठे हैं.

अब हम आते हैं, “वाल्मीकि समुदाय” के अति-दलित समुदाय की समस्या पर. 1957 में लगभग 200 वाल्मीकि परिवारों को सफाईकर्मी के रूप में पंजाब से जम्मू-कश्मीर लाया गया था. वहाँ से उन्हें यह कहकर लाया गया था कि यदि वे ठीक से सफाई का काम करेंगे तो उन्हें पक्के मकान बनाकर दिए जाएँगे, और वे इस राज्य के सम्मानित नागरिक बनेंगे. आज लगभग साठ वर्ष होने को आए, इन वाल्मीकि परिवारों के बच्चे भी अच्छे पढ़-लिख गए हैं, परन्तु आज भी इन परिवारों को “जम्मू-कश्मीर” नामक राज्य में केवल अस्थायी सफाई कर्मचारी की ही नौकरी मिलती है. इन परिवारों को जम्मू के गाँधी नगर में वाल्मीकि कॉलोनी नामक बस्ती में रखा गया है, परन्तु ना तो इन सफाईकर्मियों का कोई स्थायी मकान बन पाया है और ना ही इन अति-दलित समुदाय के पढ़े-लिखे युवकों को राज्य सरकार की नौकरी मिलेगी, क्योंकि धारा 35-A लागू है. देश के बहादुर सैनिक यानी गोरखाओं की हालत और भी बुरी है. पंजाब से गए दलित समुदाय को जम्मू-कश्मीर में केवल 70 वर्ष ही हुए हैं, लेकिन महाराजा रणजीत सिंह और महाराजा गुलाब सिंह के समय से अर्थात लगभग 200 वर्षों से लगभग एक लाख गोरखा जम्मू-कश्मीर में रह रहे हैं, लेकिन उन्हें भी आज तक इस राज्य के स्थानीय निवासी होने का प्रमाणपत्र नहीं मिला है... कारण वही है, “धारा 35-A”.

स्वाभाविक सी बात है कि यह धारा, न केवल सुप्रीम कोर्ट के लिए, बल्कि मोदी सरकार के लिए भी एक अग्निपरीक्षा के समान है. तीन तलाक के मुद्दे पर आए अधूरे निर्णय के बाद अब कश्मीर की महिलाएँ और वहाँ का “वाल्मीकि समाज” आशा भरी निगाहों से अपने लिए न्याय खोज रहा है.

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