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मंगलवार, 27 सितम्बर 2011 12:03

2G Spectrum Scam details, Manmohan Singh, A Raja (Part-2)

प्रधानमंत्री जी इतने भोले-मासूम और ईमानदार नहीं हैं, जितना प्रचारित करते हैं… (सन्दर्भ :- मारन और राजा की पत्रावलियाँ)
(भाग - 2)

भाग - 1 (यहाँ क्लिक करें) से आगे जारी…

पिछले भाग में आपने पढ़ा कि किस तरह दयानिधि मारन ने, प्रधानमंत्री और GoM के अन्य सदस्यों की जानकारी में भिन्न-भिन्न तरह से नियमों को तोड़ा-मरोड़ा और अपनी पसंदीदा कम्पनी के पक्ष में मोड़ा, परन्तु प्रधानमंत्री ने कोई आपत्ति नहीं की -

मारन की कारगुज़ारियों को और आगे पढ़िये…

16)      जैसा कि मारन को “भरोसा”(?) था ठीक वैसी ही ToR शर्तें 7 दिसम्बर 2006 को सरकार द्वारा जारी कर दी गईं, जिसमें स्पेक्ट्रम की दरों पर पुनर्विचार को दरकिनार करने के साथ-साथ “क्षेत्रीय डिजिटल प्रसारण” हेतु स्पेक्ट्रम खाली छोड़ने हेतु शर्त शामिल की गई। सरकार एवं मंत्री समूह ने बिलकुल दयानिधि मारन एवं प्रधानमंत्री की “इच्छा के अनुरूप” ToR की शर्तों के कुल छः भागों को घटाकर चार कर दिया, जैसा कि मारन ने पेश किया था।

17) तत्काल दयानिधि मारन ने बचे हुए 7 लाइसेंस मैक्सिस को 14 दिसम्बर 2006 को बाँट दिये।

18) मई 2007 में दयानिधि मारन को दूरसंचार मंत्रालय से हटा दिया गया एवं बाद में 2007 में मैक्सिस की ही एक कम्पनी ने मारन बन्धुओं के सन टीवी में भारी-भरकम “निवेश”(?) किया।

सभी तथ्यों और कड़ियों को आपस में जोड़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि दयानिधि मारन ने पहले जानबूझकर दूसरी कम्पनियों की राह में अडंगे लगाए, फ़िर अपनी मनमानी शर्तों के ToR दस्तावेज को पेश किया। यह भी साफ़ दिखाई दे रहा है कि मारन की तमाम गैरकानूनी बातों, और शर्तों को प्रधानमंत्री ने मंजूरी दी। स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा गठित मंत्री समूह की सिफ़ारिशों को दरकिनार करके मारन की मनमानी चलने दी। मारन ने 2001 की दरों पर 2006 में 14 स्पेक्ट्रम लाइसेंस एक ही कम्पनी मैक्सिस को बेचे, डिशनेट एवं एयरसेल कम्पनी की “बाँह मरोड़कर” उन्हें प्रतियोगिता से बाहर किया गया। बदले में मैक्सिस कम्पनी ने सन टीवी को उपकृत किया।

इस पूरे खेल में प्रधानमंत्री ने कई जगहों पर मारन की मदद की –

अ) सबसे पहले मैक्सिस कम्पनी द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को 74% की मंजूरी (यह कैबिनेट एवं प्रधानमंत्री की सहमति के बिना नहीं हो सकता)

ब) मैक्सिस को फ़ायदा पहुँचाने हेतु UASL की नई गाइडलाईनें जारी की गईं (यह भी मंत्रिमण्डल की सहमति के बिना नहीं हो सकता)

स) मैक्सिस कम्पनी के लिए स्पेक्ट्रम की दरें 2001 के भाव पर रखी गईं तथा सन टीवी को फ़ायदा देने के लिये “क्षेत्रीय डिजिटल प्रसारण” की शर्त दयानिधि मारन के कहने पर यथावत (28 फ़रवरी 2006 के प्रस्ताव के अनुरूप) रखी गई। (यह काम भी प्रधानमंत्री की सहमति और हस्ताक्षरों से ही हुआ)

यह बात भी काफ़ी महत्वपूर्ण है कि तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी को ही “क्षेत्रीय डिजिटल प्रसारण” हेतु स्पेक्ट्रम खाली करने की मंजूरी और अनुशंसा करनी थी, लेकिन उन्होंने इस फ़ाइल पर हस्ताक्षर नहीं किये और न ही कोई अनुशंसा की। इसलिये घूम-फ़िरकर वह फ़ाइल पुनः दूरसंचार मंत्रालय के पास आ गई, जिसे मारन और प्रधानमंत्री ने मिलकर पास कर दिया, यह सब तब हुआ जबकि स्वयं दूरसंचार मंत्री का परिवार एक टीवी चैनल का मालिक है।

कुल मिलाकर तात्पर्य यह है कि लाइसेंस देने की प्रक्रिया की शुरुआत से लेकर अन्त तक दयानिधि मारन ने जितनी भी अनियमितताएं और मनमानी कीं उसमें प्रधानमंत्री की पूर्ण सहमति, जानकारी और मदद शामिल है, ऐसे में प्रधानमंत्री स्वयं को बेकसूर और अनजान बताते हैं तो यह बात गले उतरने वाली नहीं है।

इसके बाद विपक्ष और मीडिया के काफ़ी हंगामों और प्रधानमंत्री द्वारा करुणानिधि के सामने हाथ जोड़ने के बाद आखिरकार दयानिधि मारन को दूरसंचार मंत्रालय से जाना पड़ा… लेकिन जाने से पहले दयानिधि मारन अपना खेल कर चुके थे। मारन के बाहर जाने के बाद ए राजा को दूरसंचार मंत्रालय दिलवाने के लिए कारपोरेट का जैसा "नंगा नाच" हुआ था उसे सभी सुधी पाठक और जागरुक नागरिक, "नीरा राडिया" के लीक हुए टेपों के सौजन्य से पहले ही जान चुके हैं, हमें उसमें जाने की आवश्यकता नहीं…

ए राजा ने भी दूरसंचार मंत्रालय संभालने के साथ ही अपनी गोटियाँ फ़िट करनी शुरु कर दीं…। 2G स्पेक्ट्रम घोटाले के सम्बन्ध में लगातार प्रधानमंत्री का यह दावा रहा है कि TRAI ने स्पेक्ट्रम नीलामी हेतु अनुशंसा नहीं की थी, उनका दावा यह भी है कि इस सम्बन्ध में वित्त मंत्रालय एवं दूरसंचार विभाग भी आपस में राजी नहीं थे। प्रधानमंत्री का कहना है कि वे कोई टेलीकॉम के विशेषज्ञ नहीं हैं इसलिए इस घोटाले की जिम्मेदारी एवं आरोप उन पर लागू नहीं होते हैं।

जबकि तथ्य कहते हैं कि प्रधानमंत्री इस समूचे 2G स्पेक्ट्रम घोटाले के सभी पहलुओं से अच्छी तरह वाकिफ़ थे, और ऐसा तभी से था, जबकि ए राजा ने इस मामले में विस्तार से लिखकर उन्हें दो पत्र भेजे थे (पहला पत्र भेजा गया 2 नवम्बर 2007 को और दूसरा 26 दिसम्बर 2007 को)। इन पत्रों में ए राजा ने सभी बिन्दुओं का जवाब भी दिया है तथा सभी महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर अनुशंसा की है एवं प्रधानमंत्री की राय भी माँगी है।

इसी प्रकार फ़ाइलों पर अफ़सरों की नोटिंग से भी स्पष्ट होता है कि वे भी अपनी खाल बचाकर चल रहे थे, और समझ रहे थे कि कुछ न कुछ "पक" रहा है, इसलिए वे फ़ाइलों पर अपने अनुसार समुचित नोट लगाते चलते थे… चन्द उदाहरण देखिये -


(चित्र फ़ाइल पेज 647)
नोट :-
इस मामले में भी आवेदनों की जाँच, एवं आवेदन प्राप्ति की तारीख अर्थात 25/09/2007 तक किये गये आवेदन और आवेदक कम्पनी की योग्यता की जाँच की जाये अथवा इसके बाद की दिनांक को भी कम्पनी की जाँच-परख को जारी रखा जाए, इस तथ्य को माननीय मंत्री महोदय के संज्ञान में लाया गया है।

हस्ताक्षर
निदेशक (AS-I)

उप-बिन्दु (3) - (iii)       वर्तमान परिस्थिति में जबकि UASL लाइसेंस हेतु 575 आवेदन प्राप्त किये जा चुके हैं, तथा TRAI (दूरसंचार नियामक) द्वारा अनुशंसा की गई है कि आवेदनों की संख्या पर कोई पाबन्दी नहीं लगाई जाये, ऐसे में पैराग्राफ़ 13 के दिशानिर्देशों पर गौर किया जाए। परन्तु माननीय संचार-तकनीकी मंत्री ने 25/09/2007 से पहले आवेदन कर चुकी “पात्र आवेदक कम्पनियो” को पहले ही सहमति-पत्र जारी करने सम्बन्धी यह निर्णय ले लिया है। जबकि वर्तमान परिदृश्य में बड़ी संख्या में आवेदन लंबित हैं एवं उन कम्पनियों की वैधता तथा योग्यता की जाँच-परख अभी बाकी है। संभवतः माननीय संचार मंत्री महोदय ने यह तय कर लिया है कि आवेदक कम्पनी की योग्यता जाँच, आवेदन की दिनांक के अनुसार की जाए।

फ़ाइल के पृष्ठ क्रमांक 648 पर टिप्पणी -  


दिनांक 14 दिसम्बर 2005 की UASL लाइसेंस की गाइडलाइन (पैराग्राफ़ 6) के अनुसार लाइसेंस प्राप्ति हेतु एण्ट्री फ़ीस (जो कि वापसी-योग्य नहीं होगी), सेवा क्षेत्र की कैटेगरी, FBG, PBG, कम्पनी की नेटवर्थ तथा शेयरों का इक्विटी कैपिटल, सभी सेवा प्रदाता क्षेत्रों के लिये आवश्यक है (संलग्नक-1 के अनुसार)। प्रत्येक सेवा प्रदाता क्षेत्र लाइसेंस के लिए एण्ट्री फ़ीस, FBG, PBG, नेटवर्थ की गणना उस सेवा क्षेत्र की कैटेगरी पर निर्भर करेगी, जिसके लिए लाइसेंस दिया गया है…

पृष्ठ 649 पर टिप्पणी है -  

इस बात का कोई कारण समझ में नहीं आता कि इक्विटी सम्बन्धी नियमों को अलग-अलग क्यों लागू किया जाए। सभी लाइसेंस धारकों हेतु सेवा प्रदाता सर्कलों में लाइसेंस प्राप्ति हेतु लाइसेंस इक्विटी 138 करोड़ रुपये होना चाहिए, न कि 10 करोड़, जैसा कि UASL की सन 2005 की गाइडलाइनों में स्पष्ट बताया गया है।

अफ़सर आगे लिखते हैं : उचित आदेश जारी किया जाए… मैं इस सम्बन्ध में कोई भी टिप्पणी नहीं करना चाहता…

बी बी सिंह / 7-1-2008

फ़ाइल के पृष्ठ क्रमांक 650 की टिप्पणी -  


गत पृष्ठ से जारी… माननीय MoC&IT मंत्री महोदय के निर्देशों के अनुरूप इसे पुनः निरीक्षण किया जाए…

हस्ताक्षर
7/01/2008

फ़ाइल के इस पृष्ठ की अन्तिम टिप्पणी, जिसमें नीचे दो अफ़सरों के हस्ताक्षर हैं
संशोधित प्रेस विज्ञप्ति जारी कर दी गई है। संशोधित विज्ञप्ति में अन्तिम पैराग्राफ़ विलोपित कर दिया गया है, जो कि इस प्रकार है – “हालांकि यदि एक से अधिक आवेदक कम्पनी सहमति-पत्रों की शर्तों पर उस दिनांक पर खरी उतरती है, तब भी प्राथमिकता के आधार पर आवेदन करने वाली कम्पनी की तारीख के आधार पर निर्णय किया जाएगा…”

इस संशोधन में माननीय मंत्री महोदय ने “x” नोट को भी हटा दिया है, क्योंकि उनके अनुसार नई शर्त के अनुसार यह आवश्यक नहीं है…

हस्ताक्षर
1) Dy.(AS-I)
2) ADG(AS-I)
10/01/2008

आगे जैसे-जैसे मंत्रालय के अफ़सरों के नोट के कागज़ात RTI के जरिये सामने आएंगे, तस्वीर और साफ़ हो जाएगी…। फ़िलहाल तो जाहिर है कि कई फ़ाइलों की नोटिंग तथा राजा-मारन के साथ हुई कई बैठकों, चर्चाओं के बारे में प्रधानमंत्री से लेकर अन्य सभी मंत्रियों को सब कुछ जानकारी थी, फ़िर भी कुछ नहीं किया गया…

दूरसंचार विभाग द्वारा एक जनहित याचिका के जवाब में 11 नवम्बर 2010 को उच्चतम न्यायालय में दाखिल किये गये हलफ़नामे में कई विरोधाभासी तथ्य उभरकर सामने आते हैं। वित्त सचिव तथा दूरसंचार सचिव के बीच दिनांक 22 नवम्बर एवं 29 नवम्बर 2007 के आपसी पत्रों, जस्टिस शिवराज पाटिल की रिपोर्ट, तथा सबसे महत्वपूर्ण यह कि 16 नवम्बर 2010 को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की जाँच में वित्त मंत्रालय के अधिकारियों के कथन कि वित्त मंत्रालय और दूरसंचार विभाग के बीच ऐसी कोई सहमति नहीं बनी थी कि सन 2007 में लाइसेंस देते समय सन 2001 की स्पेक्ट्रम कीमतों पर ही लाइसेंस दिये जाएं।

निम्नलिखित सभी बिन्दुओं पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, गम्भीर शंकाओं के घेरे में हैं -

1)     प्रधानमंत्री अपनी जवाबदेही से कैसे भाग सकते हैं, खासकर तब जबकि ए राजा ने कई गम्भीर अनियमितताएं एवं गैरकानूनी कार्य उस दौरान किये, जैसे –

अ)     लाइसेंस प्राप्ति हेतु आवेदन की अन्तिम तारीखों में गैरकानूनी रूप से बदलाव

ब)     TRAI एवं प्रधानमंत्री द्वारा राजस्व नुकसान से बचने के लिए बाजार मूल्य पर लाइसेंस की नीलामी के स्पष्ट निर्देशों की अवहेलना की गई।

(स)    कानून मंत्रालय की सलाह थी कि इस मामले को प्रधानमंत्री द्वारा गठित मंत्रियों की विशेष समिति में ही सुलझाया जाए, इसकी भी जानबूझकर अवहेलना की गई।

(द)    TRAI ने लाइसेंस आवेदनकर्ताओं की संख्या पर कोई बन्धन नहीं रखने की बात कही थी, परन्तु ए राजा ने चालबाजी से 575 आवेदनकर्ताओं में से सिर्फ़ 121 को ही लाइसेंस आवेदन करने दिया, क्योंकि राजा द्वारा आवेदन की अन्तिम तारीख को 1 अक्टूबर 2007 से घटाकर अचानक 25 सितम्बर 2007 कर दिया गया था।

(इ)    ए राजा द्वारा FCFS की मनमानी व्याख्या एवं नियमावली की गई ताकि चुनिंदा विशेष कम्पनियों को ही फ़ायदा पहुँचाया जा सके।

इस में से शुरुआती चार बिन्दुओं का उल्लेख 2 नवम्बर 2007 को ए राजा द्वारा प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्र से ही साफ़ हो जाते हैं, जबकि अन्तिम बिन्दु की अनियमितता अर्थात FCFS की मनमानी व्याख्या ए राजा के 26 दिसम्बर 2007 के पत्र में स्पष्ट हो जाती है।

ऐसे में सवाल उठता है कि –

यदि प्रधानमंत्री अपनी बात पर कायम हैं, कि दूरसंचार विभाग और वित्त मंत्रालय स्पेक्ट्रम कीमतों को लेकर आपस में राजी थे तब तो तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदम्बरम भी, भारत सरकार को हुए राजस्व के नुकसान में बराबर के भागीदार माने जाएंगे। साथ ही इस बात की सफ़ाई प्रधानमंत्री कैसे दे सकेंगे कि वित्त सचिव के पत्र के अनुसार, 29 मई 2007 को ए राजा तथा वित्त मंत्री की मुलाकात हुई थी, जिसमें स्पेक्ट्रम की दरों पर चर्चा की गई (जबकि इन दोनों मंत्रियों की इस बैठक का कोई आधिकारिक दस्तावेज नहीं है)।

जबकि दूसरी तरफ़ – रिकॉर्ड के अनुसार CAG रिपोर्ट, जस्टिस पाटिल की रिपोर्ट, दूरसंचार विभाग के हलफ़नामे इत्यादि के अनुसार, यदि पी चिदम्बरम और वित्त मंत्रालय स्पेक्ट्रम की दरों को लेकर DoT  से कभी सहमत नहीं थे और उनके बीच कोई समझौता नहीं हुआ था, तब इस मामले में स्पष्टतः प्रधानमंत्री देश के समक्ष झूठ बोल रहे हैं उन्हें इस बात का जवाब देना होगा कि ऐसा उन्होंने क्यों किया?

राजा की सभी कार्रवाइयों, अर्थात्‌ कट-ऑफ तिथि को आगे बढ़ाना, इस मामले में ईजीओएम को पुनः संदर्भित करने के विधि मंत्री के अनुरोध को खारिज करना, नीलामी की बात को अस्वीकार करना, और यह जानते हुए भी कि 575 आवेदनों को देने के लिए पर्याप्त स्पेक्ट्रम उपलब्ध नहीं है, फिर भी ट्राई की नो कैप अनुशंसा को क्रियान्वित करने का दिखावा करना, इत्यादि गंभीर बातों से प्रधानमंत्री पूरी तरह से परिचित थे। हालिया नए साक्ष्य कहते हैं कि जनवरी/फरवरी 2006 में मारन के साथ हुई बातचीत के बाद प्रधानमंत्री ने 23 फरवरी 2006 को कैबिनेट सचिवालय को स्पेक्ट्रम मूल्य-निर्धारणों का ध्यान रखते हुए संदर्भ के शर्तों को जारी करने का निर्देश दिया।

कुल मिलाकर चाहे जो भी स्थितियाँ हों, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रधानमंत्री अच्छी तरह से जानते थे कि ए राजा क्या कारनामे कर रहे हैं, क्योंकि ए राजा ने अपने पत्रों में प्रधानमंत्री को सभी कुछ स्पष्ट कर दिया था, तथा राजा द्वारा सभी गैरकानूनी कार्य 10 जनवरी 2008 से पहले ही निपटा लिये गये थे…। प्रधानमंत्री को सब कुछ पता था, लेकिन उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की…

(भाग-2 समाप्त…)
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नोट :- (कुछ नए तथ्य एवं बातें प्रकाश में आईं तो सम्भवतः इस लेखमाला का तीसरा भाग भी आ सकता है…)
Published in ब्लॉग
रविवार, 25 सितम्बर 2011 13:13

2G Spectrum Scam details, Manmohan Singh, Dayanidhi Maran (Part 1)

प्रधानमंत्री जी, आप इतने भोले-मासूम और ईमानदार नहीं हैं, जितना प्रचारित करते हैं… (सन्दर्भ :- मारन और राजा की पत्रावलियाँ)
(भाग - 1)

(प्रिय पाठकों :- सावधानीपूर्वक ध्यान लगाकर पढ़िये कि किस तरह मारन और राजा ने 2जी का घोटाला किया, जिसकी पूर्ण जानकारी प्रधानमंत्री, वाणिज्य मंत्री और वित्तमंत्री को थी… लेख अधिक लम्बा है इसलिए इसे दो भागों में बाँट रहा हूँ ताकि पाठक अधिक ध्यान से पढ़ सकें और मामला समझ सकें…)


2जी लाइसेंस देने की प्रक्रिया की शुरुआत से लेकर अन्त तक दयानिधि मारन ने जितनी भी अनियमितताएं और मनमानी कीं उसमें प्रधानमंत्री की पूर्ण सहमति, जानकारी और मदद शामिल है, ऐसे में प्रधानमंत्री स्वयं को बेकसूर और अनजान बताते हैं तो यह बात गले उतरने वाली नहीं है।

अथ 2G कथा भाग-1 प्रारम्भम…

हमारे अब तक के सबसे "ईमानदार" कहे जाने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अक्सर भ्रष्टाचार का मामला उजागर होने के बाद या तो साफ़-साफ़ अपना पल्ला झाड़कर अलग हो जाते हैं, अथवा उनके "पालतू भाण्ड" टाइप के अखबार और पत्रिकाएं, उन्हें "ईमानदार" होने का तमगा तड़ातड़ बाँटने लगते हैं। प्रधानमंत्री स्वयं भी खुद को भ्रष्टाचार के ऐसे "टुटपूंजिये" मामलों से बहुत ऊपर समझते हैं, वे अपने-आप को "अलिप्त" और "पवित्र" बताने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते…। उनका "सीजर की पत्नी" वाला चर्चित बयान तो अब एक मखौल सा लगता है, खासकर उस स्थिति में जबकि लोकतन्त्र में जिम्मेदारी "कप्तान" की होती है। जिस प्रकार रेल दुर्घटना के लिए रेल मंत्री या कोई वरिष्ठ अधिकारी ही अपने निकम्मेपन के लिए कोसा जाता है। उसी प्रकार जब पूरे देश में चौतरफ़ा लूट चल रही हो, नित नये मामले सामने आ रहे हों, ऐसे में "सीजर की पत्नी" निर्लिप्त नहीं रह सकती न ही उसे बेगुनाह माना जा सकता है। मनमोहन सिंह को अपनी जिम्मेदारी निभानी ही चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं हो रहा। यदि डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी और सुप्रीम कोर्ट सतत सक्रिय न रहें और निगरानी न बनाए रखते, तो 2G वाला मामला भी बोफ़ोर्स और हसन अली जैसा हश्र पाता…

और अब तो जैसे-जैसे नए-नए सबूत सामने आ रहे हैं, उससे साफ़ नज़र आ रहा है कि प्रधानमंत्री जी इतने "भोले, मासूम और ईमानदार" भी नहीं हैं जितने वे दिखने की कोशिश करते हैं। दूरसंचार मंत्री रहते दयानिधि मारन ने अपने कार्यकाल में जो गुलगपाड़े किये उनकी पूरी जानकारी मनमोहन सिंह को थी, इसी प्रकार ए राजा (जो कि शुरु से कह रहा है कि उसने जो भी किया चिदम्बरम और मनमोहन सिंह की पूर्ण जानकारी में किया) से सम्बन्धित दस्तावेज और अफ़सरों की फ़ाइल नोटिंग दर्शाती है कि मनमोहन सिंह न सिर्फ़ सब जानते थे, बल्कि उन्होंने अपनी तरफ़ से इसे रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया (हालांकि मामला उजागर होने के बाद भी वे कौन सा तीर मार रहे हैं?)। 2जी घोटाला (2G Spectrum Scam) उजागर होने के बावजूद प्रधानमंत्री द्वारा ए. राजा की पीठ सरेआम थपथपाते इस देश के लोगों ने टीवी पर देखा है…।


इस बात के पर्याप्त तथ्य और सबूत हैं कि ए राजा के मामले के उलट, जहाँ कि प्रधानमंत्री और राजा के बीच पत्र व्यवहार हुए और फ़िर भी राजा ने प्रधानमंत्री की सत्ता को अंगूठा दिखाते हुए 2G स्पेक्ट्रम मनमाने तरीके से बेच डाले… दयानिधि मारन के मामले में तो स्वयं प्रधानमंत्री ने इस आर्थिक अनियमितता में मारन का साथ दिया, बल्कि स्पेक्ट्रम खरीद प्रक्रिया में मैक्सिस को लाने और उसके पक्ष में माहौल खड़ा करने के लिये नियमों की तोड़मरोड़ की, कृत्रिम तरीके से स्पेक्ट्रम की दरें कम रखी गईं, फ़िर मैक्सिस कम्पनी को लाइसेंस मिल जाने तक प्रक्रिया को जानबूझकर विकृत किया गया। बिन्दु-दर-बिन्दु देखिए ताकि आपको आसानी से समझ में आए, देश को चूना कैसे लगाया जाता है…


1)    दयानिधि मारन ने डिशनेट कम्पनी के सात लाइसेंस आवेदनों की प्रक्रिया रोके रखी –
दयानिधि मारन ने डिशनेट कम्पनी द्वारा प्रस्तुत लाइसेंस आवेदनों पर ढाई साल तक कोई प्रक्रिया ही नहीं शुरु की, कम्पनी से विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछ-पूछ कर फ़ाइल अटकाये रखी, यह बात शिवराज समिति की रिपोर्ट में भी शामिल है। मारन ने शिवशंकरन को इतना परेशान किया कि उसने कम्पनी में अपना हिस्सा बेच डाला।

2)    मैक्सिस कम्पनी को आगे लाने हेतु विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाई –
मैक्सिस कम्पनी को लाइसेंस पाने की दौड़ में आगे लाने हेतु दयानिधि मारन ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ा दिया, यह कार्रवाई कैबिनेट की बैठक में 3 नवम्बर 2005 के प्रस्ताव एवं नोटिफ़िकेशन के अनुसार की गई जिसमें प्रधानमंत्री स्वयं शामिल थे और उनकी भी इसमें सहमति थी।

3)    मैक्सिस के लिये UAS लाइसेंस गाइडलाइन को बदला गया –
मारन ने मैक्सिस कम्पनी को फ़ायदा पहुँचाने के लिये लाइसेंस शर्तों की गाइडलाइन में भी मनमाना फ़ेरबदल कर दिया। मारन ने नई गाइडलाइन जारी करते हुए यह शर्त रखी कि 14 दिसम्बर 2005 को भी 2001 के स्पेक्ट्रम भाव मान्य किये जाएंगे (जबकि इस प्रकार लाइसेंस की शर्तों को उसी समय बदला जा सकता है कि धारा 11(1) के तहत TRAI से पूर्व अनुमति ले ली जाए)। दयानिधि मारन ने इन शर्तों की बदली सिर्फ़ एक सरकारी विज्ञापन देकर कर डाली। इस बात को पूरी कैबिनेट एवं प्रधानमंत्री जानते थे।

इस कवायद का सबसे अधिक और एकमात्र फ़ायदा मैक्सिस कम्पनी को मिला, जिसने दिसम्बर 2006 में ही 14 नवीन सर्कलों में UAS लाइसेंस प्राप्त किये थे।

4)    मैक्सिस कम्पनी ने शिवशंकरन को डिशनेट कम्पनी से खरीद लिया था, और इस बात का उल्लेख और सबूत सीबीआई के कई दस्तावेजों में है, जिसे सुप्रीम कोर्ट में पेश किया जा चुका है।

5)    11 जनवरी 2006 को जैसे ही मैक्सिस कम्पनी ने डिशनेट को खरीद लिया, मारन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा जिसमें मंत्रियों के समूह के गठन की मांग की गई ताकि एयरसेल को अतिरिक्त स्पेक्ट्रम आवंटित किया जा सके। मारन को पता चल गया था कि वह कम्पनी को लाइसेंस दे सकते हैं, लेकिन उन्हें स्पेक्ट्रम नहीं मिलेगा। दयानिधि मारन को पक्का पता था कि स्पेक्ट्रम उस समय सेना के पास था, तकनीकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय का प्रभार होने के कारण दयानिधि मारन लाइसेंस के आवेदनों को ढाई वर्ष तक लटका कर रखे रहे, लेकिन जैसे ही मैक्सिस कम्पनी ने डिशनेट को खरीद लिया तो सिर्फ़ दो सप्ताह के अन्दर ही लाइसेंस जारी कर दिये गये। साफ़ है कि इस बारे में प्रधानमंत्री सब कुछ जानते थे, क्योंकि सभी पत्र व्यवहार प्रधानमंत्री को सम्बोधित करके ही लिखे गए हैं।

6)    मारन ने मैक्सिस कम्पनी को “A” कैटेगरी सर्कल में चार अतिरिक्त लाइसेंस लेने हेतु प्रोत्साहित किया। मारन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा उसके अगले दिन ही यानी 12 जनवरी 2006 को मैक्सिस (डिशनेट) ने “ए” कैटेगरी के सर्कलों के लिए 4 आवेदन डाल दिये, जबकि उस समय कम्पनी के सात आवेदन पहले से ही लम्बित थे। इस प्रकार कुल मिलाकर मैक्सिस कम्पनी के 11 लाइसेंस आवेदन हो गये।

7)    1 फ़रवरी 2006 को दयानिधि मारन स्वयं प्रधानमंत्री से व्यक्तिगत रूप से मिले, ताकि मंत्री समूह में उनके एजेण्डे पर जल्दी चर्चा हो।

8)    प्रधानमंत्री ने मंत्री समूह को चर्चा हेतु सन्दर्भ शर्तों (Terms of Reference) की घोषणा की तथा उन्हें स्पेक्ट्रम की दरों पर पुनर्विचार करने की घोषणा की –

11 जनवरी 2006 के पत्र एवं 1 फ़रवरी 2006 की व्यक्तिगत मुलाकात के बाद 23 फ़रवरी 2006 को प्रधानमंत्री ने स्पेक्ट्रम की दरों को तय करने के लिए मंत्री समूह के गठन की घोषणा की, जो कि कुल छः भाग में थी। इस ToR की शर्त 3(e) में इस बात का उल्लेख किया गया है कि, “मंत्री समूह स्पेक्ट्रम की दरों सम्बन्धी नीति की जाँच करे एवं एक स्पेक्ट्रम आवंटन फ़ण्ड का गठन किया जाए। मंत्री समूह से स्पेक्ट्रम बेचने, उस फ़ण्ड के संचालन एवं इस प्रक्रिया में लगने वाले संसाधनों की गाइडलाइन तय करने के भी निर्देश दिये। इस प्रकार यह सभी ToR दयानिधि मारन की इच्छाओं के विपरीत जा रही थीं, क्योंकि दयानिधि पहले ही 14 दिसम्बर 2005 को UAS लाइसेंस की गाइडलाइनों की घोषणा कर चुके थे (जो कि गैरकानूनी थी)। मारन चाहते थे कि UAS लाइसेंस को सन 2001 की दरों पर (यानी 22 सर्कलों के लिये सिर्फ़ 1658 करोड़) बेच दिया जाए।


9)    अपना खेल बिगड़ता देखकर मारन ने प्रधानमंत्री को तत्काल एक पत्र लिख मारा जिसमें उनसे ToR (Terms of References) की शर्तों के बारे में तथा ToR के नये ड्राफ़्ट के बारे में सवाल किये। प्रधानमंत्री और अपने बीच हुई बैठक में तय की गई बातों और ToR की शर्तों में अन्तर आता देखकर मारन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर पूछा कि – “माननीय प्रधानमंत्री जी, आपने मुझे आश्वासन दिया था कि ToR की शर्तें ठीक वही रहेंगी जो हमारे बीच हुई बैठक में तय की गई थीं, परन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ है कि जो मंत्री समूह इस पर गठित किया गया है वह अन्य कई विस्तारित शर्तों पर भी विचार करेगा। मेरे अनुसार सामान्यतः यह कार्य इसी मंत्रालय द्वारा ही किया जाता है…”। आगे दयानिधि मारन सीधे-सीधे प्रधानमंत्री को निर्देश देते लगते हैं, “कृपया सभी सम्बद्ध मंत्रियों एवं पक्षों को यह निर्देशित करें कि जो ToR “हमने” तय की थीं (जो कि साथ में संलग्न हैं) उन्हीं को नए सिरे से नवीनीकृत करें…”। दयानिधि मारन ने जो ToR तैयार की, उसमें सिर्फ़ चार भाग थे, जबकि मूल ToR में छः भाग थे, इसमें दयानिधि मारन ने नई ToR भी जोड़ दी, “डिजिटल क्षेत्रीय प्रसारण हेतु स्पेक्ट्रम की अतिरिक्त जगह खाली रखना…”। असल में यह शर्त और इस प्रकार का ToR बनाना दूरसंचार मंत्रालय का कार्यक्षेत्र ही नहीं है एवं यह शर्त सीधे-सीधे कलानिधि मारन के “सन टीवी” को फ़ायदा पहुँचाने हेतु थी। परन्तु इस ToR की मनमानी शर्तों और नई शर्त जोड़ने पर प्रधानमंत्री ने कोई आपत्ति नहीं उठाई, जो सन टीवी को सीधे फ़ायदा पहुँचाती थी। अन्ततः सभी ToR प्रधानमंत्री की अनुमति से ही जारी की गईं, प्रधानमंत्री इस बारे में सब कुछ जानते थे कि दयानिधि मारन “क्या गुल खिलाने” जा रहे हैं।

10)      विदेशी निवेश बोर्ड (FIPB) द्वारा मैक्सिस कम्पनी की 74% भागीदारी को हरी झण्डी दी -
मार्च-अप्रैल 2006 में मैक्सिस कम्पनी में 74% सीधे विदेशी निवेश की अनुमति को FIPB द्वारा हरी झण्डी दे दी गई। इसका साफ़ मतलब यह है कि न सिर्फ़ वाणिज्य मंत्री इस 74% विदेशी निवेश के बारे में जानते थे, बल्कि गृह मंत्रालय भी इस बारे में जानता था, क्योंकि उनकी अनुमति के बगैर ऐसा हो नहीं सकता था। ज़ाहिर है कि इस प्रकार की संवेदनशील और महत्वपूर्ण जानकारी प्रधानमंत्री सहित कैबिनेट के कई मंत्रियों को पता चल गई थी। प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा इस तथ्य की कभी भी पड़ताल अथवा सवाल करने की कोशिश नहीं की गई कि मैक्सिस कम्पनी 99% विदेशी निवेश की कम्पनी थी, 74% विदेशी निवेश तो सिर्फ़ एक धोखा था क्योंकि बचे हुए 26% निवेश में सिर्फ़ “नाम के लिए” अपोलो कम्पनी के रेड्डी का नाम था। यह जानकारी समूची प्रशासनिक मशीनरी, मंत्रालय एवं सुरक्षा सम्बन्धी हलकों को थी, परन्तु प्रधानमंत्री ने इस गम्भीर खामी की ओर उंगली तक नहीं उठाई, क्यों?


11) अप्रैल से नवम्बर 2006 तक कोई कदम नहीं उठाया –
दयानिधि मारन चाहते तो 14 दिसम्बर 2005 की UAS लाइसेंस गाइडलाइन के आधार पर आसानी से मैक्सिस कम्पनी के सभी 14 लाइसेंस आवेदनों को मंजूरी दे सकते थे, परन्तु उन्होंने ऐसा जानबूझकर नहीं किया, क्योंकि ToR की शर्तों में “स्पेक्ट्रम की दरों का पुनरीक्षण होगा” भी शामिल थी। FIPB की विदेशी निवेश मंजूरी के बाद भी दयानिधि मारन ने लाइसेंस आवेदनों को रोक कर रखा। साफ़ बात है कि इन 8 महीनों में प्रधानमंत्री कार्यालय पर जमकर दबाव बनाया गया जो कि हमें नवम्बर 2006 के बाद हुई तमाम घटनाओं में साफ़ नज़र आता है।

12)      दयानिधि मारन ने ToR की शर्तों का नया ड्राफ़्ट पेश किया –
16 नवम्बर 2006 को दयानिधि मारन ने अवसर का लाभ उठाते हुए मंत्री समूह के समक्ष एक नया ToR शर्तों का ड्राफ़्ट पेश किया, जिसमें स्पेक्ट्रम की कीमतों के पुनरीक्षण वाली शर्त हटाकर क्षेत्रीय डिजिटल प्रसारण वाली शर्त जोड़ दी। इस प्रकार यह ToR वापस पुनः उसी स्थिति में पहुँच गई जहाँ वह 28 फ़रवरी 2006 को थी। ज़ाहिर है कि ToR की इन नई शर्तों और नये ड्राफ़्ट की जानकारी प्रधानमंत्री को थी, क्योंकि ToR की यह शर्तें प्रधानमंत्री की अनुमति के बिना बदली ही नहीं जा सकती थीं।  

13) इस बीच दयानिधि मारन ने अचानक जल्दबाजी दिखाते हुए 21 नवम्बर 2006 को मैक्सिस कम्पनी के लिये सात Letter of Intent (LoI) जारी कर दिये, क्योंकि मारन को पता था कि ToR की नई शर्तें जो कि 16 नवम्बर 2006 को नये ड्राफ़्ट में प्रधानमंत्री और मंत्री समूह को पेश की गई हैं, वह मंजूर हो ही जाएंगी। मैक्सिस कम्पनी के बारे में यह सूचना प्रेस और आम जनता को हो गई थी, परन्तु प्रधानमंत्री ने कुछ नहीं किया।

14) दयानिधि मारन ने 29 नवम्बर 2006 को (यानी ठीक आठ दिन बाद ही) मैक्सिस कम्पनी को बचे हुए सात लाइसेंस आवेदनों पर LoI जारी कर दिया।

15) 5 दिसम्बर 2006 को मारन ने मैक्सिस को सन 2001 के भाव में सात लाइसेंस भी जारी कर दिये, क्योंकि मारन अच्छी तरह जानते थे कि मंत्री समूह अब ToR की नई शर्तों पर विचार अथवा स्पेक्ट्रम की दरों का पुनरीक्षण करने वाला नहीं है। मारन को स्वयं के बनाये हुए फ़रवरी और नवम्बर 2006 में पेश किये गये दोनों ड्राफ़्टों को ही मंजूरी मिलने का पूरा विश्वास पहले से ही था, और ऐसा प्रधानमंत्री के ठोस आश्वासन के बिना नहीं हो सकता था।

बहरहाल, इतने घोटालों, महंगाई, आतंकवाद और भ्रष्टाचार के बावजूद पिछले 7 साल में हमारे माननीय प्रधानमंत्री सिर्फ़ एक बार "आहत"(?) हुए हैं और उन्होंने अपने इस्तीफ़े की पेशकश की है… याद है कब? नहीं याद होगा… मैं याद दिलाता हूँ… "सीजर की पत्नी" ने कहा था कि "यदि अमेरिका के साथ भारत का परमाणु समझौता पास नहीं होता तो मैं इस्तीफ़ा दे देता…"। अब आप स्वयं ही समझ सकते हैं कि उन्हें किसकी चिंता ज्यादा है?
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(भाग -2 में जारी रहेगा…जिसमें RTI के तहत प्राप्त कुछ फ़ाइलों की नोटिंग एवं तथ्य हैं… तब तक मनन कीजिये…)
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मंगलवार, 20 सितम्बर 2011 21:20

Narendra Modi, Next PM of India (A Micro Post)

क्या नरेन्द्र मोदी का विरोध करने वाले, वर्तमान यूपीए सरकार से खुश हैं? (Micro Post)


तीन दिवसीय उपवास और सदभावना मिशन प्रारम्भ करके नरेन्द्र मोदी ने 2012 के गुजरात चुनावों और 2014 के लोकसभा चुनावों का बिगुल फ़ूँक दिया है। 2012 में तो गुजरात में उनकी चौथी बार वापसी होगी ही, इसमें कोई शंका नहीं है… परन्तु 2014 में प्रधानमंत्री के रूप में उनकी ताजपोशी थोड़ा मुश्किल सफ़र है, सेकुलर काँटों भरी राह है…

मैं नरेन्द्र मोदी के विरोधियों से कुछ पूछना चाहता हूँ -

1) यदि वे नरेन्द्र मोदी के विरोधी हैं तो इसका मतलब यह लगाया जाए कि वे कांग्रेस के समर्थक हैं?

2) यदि कांग्रेस समर्थक नहीं हैं तो "भोंदू युवराज" के इस सशक्त विकल्प को अपना समर्थन क्यों नहीं देते?

3) यदि मोदी को समर्थन नहीं दे सकते इसका मतलब तो यही है कि आप महंगाई, कुशासन, आतंकवाद, भ्रष्टाचार से पीड़ित नहीं हैं।

4) मीडिया के जो मित्र हैं, क्या वे यह बता सकते हैं कि यदि भोंदू युवराज नहीं, नरेन्द्र मोदी भी नहीं तो फ़िर कौन?

5) क्या मोदी विरोधियों के पास नरेन्द्र मोदी से बेहतर प्रशासक, प्रधानमंत्री के पद हेतु उपलब्ध है?

6) यदि उनके पास मोदी का विकल्प नहीं है, और वे सपने बुन रहे हैं कि शायद कांग्रेस में कोई चमत्कार हो जाएगा और यह पार्टी एकदम सुधर जाएगी… या फ़िर तीसरे मोर्चे नामक "भानुमति के कुनबे" द्वारा कांग्रेस को समर्थन देने से देश में सुशासन आ जाएगा तो निश्चित ही वे लोग मुंगेरीलाल हैं…

तात्पर्य यह है कि नरेन्द्र मोदी के विरोधी स्पष्ट जवाब दें कि 2014 में यदि मोदी नहीं, तो फ़िर कौन? यदि मोदी नहीं, तो क्या वे लोग कांग्रेस की सत्ता लगातार तीसरी बार सहन करने की क्षमता रखते हैं? राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री स्वीकार कर सकते हैं? दस साल तक सोनिया, मनमोहन, चिदम्बरम, पवार, सिब्बल, लालू को झेलने के बाद अगले पाँच साल भी इन्हें झेलने की क्षमता है? यदि नहीं… तो फ़िर मोदी का विरोध क्यों? विरोध करना ही है तो सकारात्मक विरोध करो… मोदी का कोई अन्य "सशक्त और व्यावहारिक विकल्प" पेश करो… कब तक सेकुलरिज़्म का घण्टा बजाते रहोगे?
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रविवार, 18 सितम्बर 2011 21:19

Mallika Sarabhai, Narendra Modi, Gujarat Riots 2002

मल्लिका जी… एक बार "पवित्र परिवार" से माफ़ी माँगने को कहिये ना…? (एक माइक्रो-पोस्ट)

मल्लिका साराभाई ने नरेन्द्र मोदी पर आरोप लगाया है कि उन्होंने 2002 में साराभाई की जनहित याचिकाओं को खारिज करवाने के लिए उनके वकीलों को दस लाख रुपये की रिश्वत दी थी। अब जाकर 9 साल बाद मल्लिका साराभाई को इसकी याद आई है, इस आरोप के पक्ष में उन्होंने पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट के एफ़िडेविट का उल्लेख किया है, जो कि स्वयं सुप्रीम कोर्ट के समक्ष झूठे साबित हो चुके हैं। अब बताईये मल्लिका मैडम… ठीक नरेन्द्र मोदी के उपवास के समय, आपके कान कौन भर रहा है?

वैसे बार-बार "गुजरात नरसंहार", "मोदी की माफ़ी" इत्यादि शब्दों का लगातार उपयोग करने वाली मल्लिका जी समेत सारी की सारी "सेकुलर गैंग" और "सिविल सोसायटी गिरोह" जानती नहीं होंगी कि आधिकारिक सरकारी आँकड़ों (जिसे केन्द्र ने भी माना है) के अनुसार 2002 के दंगों में 760 मुस्लिम और 254 हिन्दू मारे गये थे, इन 254 हिन्दुओं में से 100 से अधिक पुलिस की गोली से मारे गये। क्या सेकुलरिस्ट बता सकेंगे कि यदि "नरसंहार"(?) हुआ था तो फ़िर 254 हिन्दू कैसे मरे? एक भी नहीं मरना चाहिए था? और यदि नरेन्द्र मोदी ने कोई "एक्शन" नहीं लिया और दंगों के दौरान निष्क्रिय बने रहे, तब 100 से अधिक हिन्दू पुलिस की गोली से कैसे मरे?

परन्तु ऐसे सवालों से "सेकुलरों और सिविलियनों" को उल्टियाँ होने लगती हैं, इनमें से किसी ने आज तक दिल्ली में 3000 सिखों के मारे जाने पर कांग्रेस से माफ़ी की माँग नहीं की… इनमें से किसी की हिम्मत नहीं होती कि कश्मीर से "जातीय सफ़ाये" और "नरसंहार" करके भगाये गये 2 लाख से अधिक कश्मीरी पण्डितों की दुर्दशा के लिए "पवित्र परिवार" से माफ़ी मांगने को कहे…। परन्तु चूंकि नरेन्द्र मोदी को गरियाने से बिना पढ़े ही "सेकुलरिज़्म की डिग्री" मिल जाती है इसलिए सब लगे रहते हैं।

भूषणों, तिवारियों, सिब्बलों इत्यादि में यदि हिम्मत है, तो वह "पवित्र परिवार" से भागलपुर दंगों, सिख विरोधी दंगों, कश्मीर से हिन्दुओं के सफ़ाये, वॉरेन एण्डरसन को सुरक्षित भगा देने जैसे "किसी भी एक मामले में" माफ़ी माँगने को कहे।

(कुछ मित्रों को "पवित्र परिवार" शब्द पर आपत्ति है, परन्तु यह शब्द मीडिया के "दोगलों और भाण्डों" के लिए है, जिन्हें इस परिवार में पवित्रता के अलावा कुछ और दिखाई नहीं देता)

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एक विशेष जानकारी :- मल्लिका साराभाई की एक रिश्तेदार मृदुला साराभाई, कश्मीर के शेख अब्दुल्ला (उमर अब्दुल्ला के दादा) की "घनिष्ठ मित्र"(?) थीं। मृदुला साराभाई ने 1958 में शेख अब्दुल्ला पर चल रहे देशद्रोह के केस में मुम्बई हाईकोर्ट में लगने वाला समूचा खर्च उठाया था। इस देशद्रोह वाले केस में शेख अब्दुल्ला को आजीवन कारावास हो सकता था, नेहरु नहीं चाहते थे कि शेख अब्दुल्ला को सजा मिले, इसलिए नेहरु सरकार ने अचानक 1964 में यह केस वापस ले लिया। इसमें मृदुला साराभाई की भूमिका महत्वपूर्ण थी…

पता नहीं ऐसा क्यों होता है, कि जब हम "सेकुलर बुद्धिजीवियों"(?) का इतिहास खंगालते हैं, तो उनकी "जड़ें और गहरी दोस्तियाँ" कभी कश्मीर से तो कभी पाकिस्तान से जा मिलती हैं। वैसे मृदुला साराभाई सम्बन्धी इस जानकारी का, मल्लिका साराभाई के "वर्तमान सेकुलर व्यवहार" से कोई लेना-देना नहीं है, परन्तु बात निकली ही है तो सोचा कि पाठकों का थोड़ा ज्ञानवर्धन कर दूँ… :) :)
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मंगलवार, 13 सितम्बर 2011 16:16

Muthoot Finance, Anti-Hindu Circular, Ban on Bindi-Tilak


सिन्दूर-बिंदी पर प्रतिबन्ध, अब कॉन्वेंट स्कूलों से निकलकर कारपोरेट तक पहुँचा…

जिनके बच्चे “सेंट” वाले कॉन्वेटों में पढ़ते हैं, वे जानते होंगे कि स्कूल के यूनिफ़ॉर्म के अलावा भी इन बच्चों पर कितनी तरह के प्रतिबन्ध होते हैं, जैसे कि “पवित्र”(?) कॉन्वेंट में पढ़ने वाला लड़का अपने माथे पर तिलक लगाकर नहीं आ सकता, लड़कियाँ बिन्दी-चूड़ी पहनना तो दूर, त्यौहारों पर मेहंदी भी लगाकर नहीं आ सकतीं। स्कूलों में बच्चों द्वारा अंग्रेजी में बात करना तो अनिवार्य है ही, बच्चों के माँ-बाप की अंग्रेजी भी जाँची जाती है… कुल मिलाकर तात्पर्य यह है कि “सहनशील” (यानी दब्बू और डरपोक) हिन्दुओं के बच्चों को “स्कूल के अनुशासन, नियमों एवं ड्रेसकोड” का हवाला देकर उनकी “जड़ों” से दूर करने और उन्हें “भूरे मानसिक गुलाम बनाने” के प्रयास ठेठ निचले स्तर से ही प्रारम्भ हो जाते हैं। भारतीय संस्कृति और खासकर हिन्दुओं पर लगाए जा रहे इन “तालिबानी” प्रतिबन्धों को अक्सर हिन्दुओं द्वारा “स्कूल के अनुशासन और नियम” के नाम पर सह लिया जाता है। अव्वल तो कोई विरोध नहीं करता, क्योंकि एक सीमा तक मूर्ख और सेकुलर दिखने की चाहत वाली किस्म के हिन्दू इसके पक्ष में तर्क गढ़ने में माहिर हैं (उल्लेखनीय है कि ये वही लतखोर हिन्दू हैं, जिन्हें सरस्वती वन्दना भी साम्प्रदायिक लगती है और “सेकुलरिज़्म” की खातिर ये उसका भी त्याग कर सकते हैं)। यदि कोई इसका विरोध करता है तो या तो उसके बच्चे को स्कूल में परेशान किया जाता है, अथवा उसे स्कूल से ही चलता कर दिया जाता है।

वर्षों से चली आ रही इस हिन्दुओं की इस “सहनशीलता”(??) का फ़ायदा उठाकर इस “हिन्दू को गरियाओ, भारतीय संस्कृति को लतियाओ टाइप, सेकुलर-वामपंथी-कांग्रेसी अभियान” का अगला चरण अब कारपोरेट कम्पनी तक जा पहुँचा है। एक कम्पनी है “मुथूट फ़ाइनेंस एण्ड गोल्ड लोन कम्पनी” जिसकी शाखाएं अब पूरे भारत के वर्ग-2 श्रेणी के शहरों तक जा पहुँची हैं। यह कम्पनी सोना गिरवी रखकर उस कीमत का 80% पैसा कर्ज़ देती है (प्रकारांतर से कहें तो गरीबों और मध्यम वर्ग का खून चूसने वाली “साहूकारी” कम्पनी है)। इस कम्पनी का मुख्यालय केरल में है, जो कि पिछले 10 वर्षों में इस्लामी आतंकवादियों का स्वर्ग एवं एवेंजेलिस्ट ईसाईयों का गढ़ राज्य बन चुका है। हाल ही में इस कम्पनी के मुख्यालय से यहाँ काम करने वाले कर्मचारियों हेतु “ड्रेसकोड के नियम” जारी किये गये हैं (देखें चित्र में)।


(बड़ा देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें) 

कम्पनी सचिव शाइनी थॉमस के हस्ताक्षर से जारी इस सर्कुलर में पुरुष एवं स्त्री कर्मचारियों के ड्रेसकोड सम्बन्धी स्पष्ट दिशानिर्देश दिए गये हैं, जिसके अनुसार पुरुष कर्मचारी साफ़सुथरे कपड़े, पैण्ट-शर्ट पहनकर आएंगे, बाल ठीक से बने हों एवं क्लीन-शेव्ड रहेंगे… यहाँ तक तो सब ठीक है क्योंकि यह सामान्य दिशानिर्देश हैं जो लगभग हर कम्पनी में लागू होते हैं। परन्तु आगे कम्पनी कहती है कि पुरुष कर्मचारी घड़ी, चेन और सगाई(शादी) की अंगूठी के अलावा कुछ नहीं पहन सकते… पुरुष कर्मचारियों के शरीर पर किसी प्रकार का “धार्मिक अथवा सांस्कृतिक चिन्ह”, अर्थात चन्दन का तिलक (जो कि दक्षिणी राज्यों में आम बात है), कलाई पर बँधा हुआ मन्दिर का पवित्र कलावा अथवा रक्षाबन्धन के अगले दिन राखी, इत्यादि नहीं होना चाहिए। कम्पनी का कहना है कि यह “कारपोरेट एटीकेट”(?) और “कारपोरेट कल्चर”(?) के तहत जरूरी है, ताकि ग्राहकों पर अच्छा असर पड़े (अच्छा असर यानी सेकुलर असर)।

लगभग इसी प्रकार के “तालिबानी” निर्देश महिला कर्मचारियों हेतु भी हैं, जिसमें उनसे साड़ी-सलवार कमीज में आने को कहा गया है, महिला कर्मचारी भी सिर्फ़ घड़ी, रिंग और चेन पहन सकती हैं (मंगलसूत्र अथवा कान की बाली नहीं)… इस निर्देश में भी आगे स्पष्ट कहा गया है कि महिलाएं ऑफ़िस में “बिन्दी अथवा सिन्दूर” नहीं लगा सकतीं।

अब कुछ असुविधाजनक सवाल “100 ग्राम अतिरिक्त बुद्धि” वाले बुद्धिजीवियों तथा “सेकुलरिज़्म के तलवे चाटने वाले” हिन्दुओं से–

1) जब अमेरिका जैसे धुर ईसाई देश में भी हिन्दू कर्मचारी राखी पहनकर अथवा तिलक लगाकर दफ़्तर आ सकते हैं तो केरल में क्यों नहीं?

2) कम्पनी के इन दिशानिर्देशों में स्पष्ट रूप से “तिलक”, “बिन्दी” और “सिन्दूर” का ही उल्लेख क्यों किया गया है? “गले में क्रास”, “बकरा दाढ़ी” और “जालीदार सफ़ेद टोपी” का उल्लेख क्यों नहीं किया गया?

3) सर्कुलर में “वेडिंग रिंग” पहनने की अनुमति है, जो कि मूलतः ईसाई संस्कृति से भारत में अब आम हो चुका रिवाज है, जबकि माथे पर चन्दन का त्रिपुण्ड लगाने की अनुमति नहीं है, क्योंकि यह विशुद्ध भारतीय संस्कृति की पद्धति है।

ज़ाहिर है कि कम्पनी के मैनेजमेण्ट की “नीयत” (जो कि सेकुलर यानी मैली है) में खोट है, कम्पनी का सर्कुलर मुस्लिम महिलाओं को बुरका या हिजाब पहनने से नहीं रोकता, क्योंकि हाल ही में सिर्फ़ “मोहम्मद” शब्द का उल्लेख करने भर से एक ईसाई प्रोफ़ेसर अपना हाथ कटवा चुका है। परन्तु जहाँ तक हिन्दुओं की बात है, इनके मुँह पर थूका भी जा सकता है, क्योंकि ये “सहनशील”(?) और “सेकुलर”(?) होते हैं। ज़ाहिर है कि दोष हिन्दुओं (के Genes) में ही है। जब अपना सिक्का ही खोटा हो तो कांग्रेस और वामपंथियों को भी क्या दोष दें वे तो अपने-अपने आकाओं (रोम या चीन) की मानसिकता और निर्देशों पर चलते हैं।

“सो कॉल्ड” सेकुलर हिन्दुओं से एक सवाल यह भी है कि यदि कोई “हिन्दू स्कूल” अपने स्कूल में यह यूनिफ़ॉर्म लागू कर दे कि प्रत्येक बच्चा (चाहे वह किसी भी धर्म का हो) चोटी रखकर, धोती पहनकर व तिलक लगाकर ही स्कूल आएगा, तो क्या इन सेकुलरों को दस्त नहीं लग जाएंगे?

 इसी तरह बात-बात पर संघ और भाजपा का मुँह देखने और इन्हें कोसने वाले हिन्दुओं को भी अपने गिरेबान में झाँककर देखना चाहिए कि क्या कॉन्वेंट स्कूलों में उनका बेटा तिलक या बेटी बिन्दी लगाकर जाए और स्कूल प्रबन्धन मना करे तो उनमें स्कूल प्रबन्धन का विरोध करने की हिम्मत है? क्या अभी तक मुथूट फ़ायनेंस कम्पनी में काम कर रहे किसी हिन्दू कर्मचारी ने इस सर्कुलर का विरोध किया है? मुथूट फ़ायनेंस कम्पनी के इन दिशानिर्देशों के खिलाफ़ किसी हिन्दू संगठन ने कोई कदम उठाया? कोई विरोध किया? अभी तक तो नहीं…।

कुछ और नहीं तो, सलीम खान नाम के 10वीं के छात्र से ही कुछ सीख लेते, जिसने स्कूल यूनिफ़ॉर्म में अपनी दाढ़ी यह कहकर कटवाने से मना कर दिया था कि यह उसके धार्मिक स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है। सलीम खान अपनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक ले गया और वहाँ उसने जीत हासिल की (यहाँ देखें http://muslimmedianetwork.com/mmn/?p=4575) । सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि सलीम को अपनी धार्मिक रीतिरिवाजों के पालन का पूरा अधिकार है इसलिए वह स्कूल में दाढ़ी बढ़ाकर आ सकता है। स्कूल प्रबन्धन उसे यूनिफ़ॉर्म के नाम पर क्लीन शेव्ड होने को बाध्य नहीं कर सकता।

तात्पर्य यह है कि विरोध नहीं किया गया तो इस प्रकार की “सेकुलर” गतिविधियाँ और नापाक हरकतें तो आये-दिन भारत में बढ़ना ही हैं, इसे रोका जा सकता है। इसे रोकने के तीन रास्ते हैं –

1)    पहला तरीका तो तालिबानियों वाला है, जिस प्रकार केरल में मोहम्मद का नाम लेने भर से ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ काट दिया गया, उसी प्रकार हिन्दू धर्म एवं देवी-देवताओं का अपमान करने वाले को स्वतः ही कठोर दण्ड दिया जाए। परन्तु यह रास्ता हिन्दुओं को रास नहीं आ सकता, क्योंकि हिन्दू स्वभावतः “बर्बर” हो ही नहीं सकते…

2)    दूसरा तरीका सलीम खान वाला है, यानी हिन्दू धर्म-संस्कृति पर हमला करने वालों अथवा “खामख्वाह का सेकुलरिज़्म ठूंसने वालों” को अदालत में घसीटा जाए और संवैधानिक तरीके से जीत हासिल की जाए। परन्तु “सेकुलरिज़्म” के कीटाणु इतने गहरे धँसे हुए हैं कि यह रास्ता अपनाने में भी हिन्दुओं को झिझक(?) महसूस होती है…

3)    तीसरा रास्ता है “बहिष्कार”, मुथूट फ़ायनेंस कम्पनी या किसी कॉन्वेंट स्कूल द्वारा जबरन अपने नियम थोपने के विरुद्ध उनका बहिष्कार करना चाहिए। इनकी जगह पर कोई दूसरा विकल्प खोजा जाए जैसे मणप्पुरम गोल्ड लोन कम्पनी अथवा कॉन्वेंट की बजाय कोई अन्य स्कूल…। इसमें दिक्कत यह है कि हिन्दू इतने लालची, मूर्ख और कई टुकड़ों में बँटे हुए हैं कि वे प्रभावशाली तरीके से ऐसी बातों का, ऐसी कम्पनियों का, ऐसे स्कूलों का बहिष्कार तक नहीं कर सकते…

एक बात और…… कम्पनी कहती है कि बिन्दी-तिलक और सिन्दूर से उसके ग्राहकों पर “गलत प्रभाव”(?) पड़ सकता है, लेकिन इसी कम्पनी को चन्दन का त्रिपुण्ड लगाकर उनकी ब्रांच में सोना गिरवी रखने आये हिन्दू ग्राहकों से कोई तकलीफ़ नहीं है…। बाकी तो आप समझदार हैं ही…

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नोट :- मेरा फ़र्ज़ है कि मैं इस प्रकार की घटनाओं और तथ्यों को जनता के समक्ष रखूं, जिसे जागना हो जागे, नहीं जागना हो तो सोता रहे…। कश्मीर-नगालैण्ड में भी तो धीरे-धीरे हिन्दू अल्पसंख्यक हो गये हैं या होने वाले हैं, तो मैंने क्या उखाड़ लिया?, अब पश्चिम बंगाल-केरल और असम में भी हो जाएंगे तो आप क्या उखाड़ लेंगे?
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शुक्रवार, 09 सितम्बर 2011 20:28

Cash on Vote, LK Advani and Rajdeep Sardesai

आडवाणी जी… कांग्रेस और राजदीप सरदेसाई दोनों का गुनाह बराबरी का है…

कल संसद में जिस तरह से आडवाणी जी गरजे और बरसे उन्हें देखकर 1991 से 1999 के आडवाणी की याद हो आई। नोट फ़ॉर वोट के मुद्दे पर उन्होंने जिस तरह प्रणब मुखर्जी और चिदम्बरम को घेरा तथा कैश फ़ॉर वोट काण्ड में उन्हें भी गिरफ़्तार करने की चुनौती दी, उस समय उन दोनों की बेबसी देखते ही बनती थी। हालांकि बाकी के कांग्रेसी सांसद "अपनी वाली" पर आ गये थे और उन्होंने आडवाणी जैसे सदन के एक वरिष्ठतम सदस्य को बोलने नहीं दिया। ज़ाहिर है कि मामला आईने की तरह साफ़ है, जिन सांसदों ने वोट देने के लिए पाई गई रिश्वत को उजागर किया, वही जेल में हैं और उस रिश्वत का फ़ायदा जिन्हें मिला, और जिसने रिश्वत दी (यानी UPA सरकार बची) वे तो खुलेआम घूम रहे हैं। माना कि एक "दल्ला" अमरसिंह, लाख बहानों के बावजूद जेल में है, लेकिन अभी भी यह बात छुपी हुई है कि आखिर इतना पैसा दिया किसने? सरकार बचाई किसने? रिश्वत पहुँचाने वाला अभी तक दृश्य से बाहर है, जबकि रिश्वत को नकारकर उसे सरेआम लोकसभा में लहराने वाले जेल में हैं।


इस समूचे मामले में एक सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है IBN-7 का राजदीप सरदेसाई। नोट फ़ॉर वोट के पूरे स्टिंग ऑपरेशन की उसे न सिर्फ़ पल-पल की खबर थी, बल्कि उसी चैनल ने यह पूरा स्टिंग किया था। राजदीप सरदेसाई के पास पूरे सबूत मौजूद हैं कि पैसा कहाँ से आया, किसने दलाली की, पैसा किसे दिया, कब दिया और क्यों दिया? परन्तु न तो उस दिन राजदीप के चैनल ने यह स्टिंग ऑपरेशन अपने चैनल पर दिखाया और न ही इतना समय बीत जाने के बाद आज तक कभी किया। ये कैसी पत्रकारिता है?

गलती तो भाजपा की भी है कि उसने राजदीप सरदेसाई जैसे "सुपर कांग्रेसी दलाल" पर भरोसा कर लिया, IBN-7 को इस स्टिंग की जिम्मेदारी सौंपने और सरदेसाई के साथ मिलकर जाल बिछाने की क्या जरुरत थी? क्या बाकी के सारे चैनल वाले मर गये थे जो इस चर्च के मोहरे पर भरोसा किया? योजना तो यही थी, कि भाजपा के सांसद सदन में नोट लहराएंगे और सदन के बाहर IBN-7 पर इन वीडियो टेपों को प्रसारित किया जाएगा। परन्तु आडवाणी जी… आपने जिस पर भरोसा किया उसी ने आपके पीठ में छुरा भोंक दिया और उस दिन से आज तक वह सारे टेप्स और वीडियो दबाकर बैठा है, वरना उसी दिन UPA सरकार रफ़ा-दफ़ा हो गई होती।


ज़ाहिर है कि ऐसा "कृत्य" राजदीप ने मुफ़्त में तो नहीं किया होगा? जब उसे लगा होगा कि इस स्टिंग के जारी होने पर, इस पूरे मामले में कांग्रेस के "ठेठ ऊपर तक" के नेता फ़ँसेंगे तो उसने परदे के पीछे "समुचित डीलिंग" कर ली। भले ही जाँच का मूल विषय तो यही है कि आखिर वे चार करोड़ रुपये किसने दिये, लेकिन आडवाणी जी… इस बात की भी जाँच करवाईये कि राजदीप सरदेसाई कितने में बिका, किसके हाथों बिका? वह वीडियो प्रसारित न करने के बदले वह पद्मभूषण लेगा, कुछ करोड़ रुपये लेगा या कुछ और? तथा वह वीडियो टेप्स अभी भी सही-सलामत हैं या गायब कर दिये गए हैं? कांग्रेस ने तो जो किया उसे शायद जनता सजा देगी, परन्तु आपसे अनुरोध है कि आप इस "पत्रकारनुमा दलाल" को छोड़ना मत…।

हम तो सिर्फ़ अनुरोध ही कर सकते हैं, क्योंकि इतना बड़ा धोखा खाने के बावजूद आज भी देखा जाता है कि भाजपा के नेता और प्रवक्ता आये दिन राजदीप के IBN या करण थापर के टॉक-शो में अथवा धुर-भाजपा विरोधी NDTV पर अपना मुखड़ा दिखाने के लिए मरे जाते हैं…। आडवाणी जी, आप तो इतने अनुभवी हैं… सो यह बात तो जानते ही होंगे, कि यदि आप इन "मीडिया दलालों" को अपनी गोद में बैठाकर अपने हाथों से भोजन भी करवाएं तब भी ये कांग्रेस के ही गुण गाएंगे, तो फ़िर इनका बहिष्कार करके इन्हें "किसी और तरीके" से सबक क्यों नहीं सिखाते?

आडवाणी जी, विगत कुछ वर्षों में देखने में आया कि अत्यधिक भलमनसाहत दिखाने के चक्कर में आप इन सेकुलरों और कांग्रेसियों से "मधुर सम्बन्ध" बना रहे थे, लेकिन अब आपने इसका नतीजा देख लिया है कि ये "सेकुलर्स" किसी के सगे नहीं होते। आप इनके साथ चाय पार्टियाँ मनाएंगे, ये लोग कर्नाटक में सरकार गिरा देंगे… आप इनके साथ इफ़्तार पार्टियों में शामिल होंगे, ये लोग गुजरात में मनमाना लोकायुक्त थोप देंगे… आप मध्यस्थता करके अण्णा आंदोलन की "आँच" से इन्हें बचाने में मदद करेंगे, ये संसद में आपको बोलने नहीं देंगे…।
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नोट :- माननीय आडवाणी जी, माना कि मैं आपके कई निर्णयों से नाखुश हूँ (जैसे कंधार मामले में आत्मसमर्पण या जिन्ना की मज़ार पर सजदा करके उसे धर्मनिरपेक्ष बताना एवं स्विस बैंक अकाउंट मुद्दे पर सोनिया से खेद व्यक्त करना इत्यादि), मैंने अपने लेखों में कई बार इन निर्णयों की आलोचना भी की है। परन्तु  आपका कट्टर विरोधी भी इस बात को मानेगा, कि कई-कई मनमोहनों, चिदम्बरों, सिब्बलों और दिग्गियों के मुकाबले आप कई गुना बेहतर हैं…। 83 वर्ष की आयु में भी कल जिस तरह से आप संसद में गरज रहे थे, बहुत दिनों बाद दिल खुश किया आपने…। सेकुलरों से दूरी बनाकर रखेंगे, कांग्रेसियों और दलालनुमा पत्रकारों को रगड़ेंगे, तो हम और भी अधिक खुश होंगे…
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बुधवार, 07 सितम्बर 2011 10:21

Narendra Modi, Lokayukta in Gujrat and Congress

नरेन्द्र मोदी से निपटने के "दूसरे तरीके" ढूँढ रही है कांग्रेस…

विगत तीन चुनावों से गुजरात में बड़ी ही मजबूती से जमे हुए भारत के सबसे सफ़ल मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को वहाँ से उखाड़ने के लिए कांग्रेसी हथकण्डों का कोई अन्त नज़र नहीं आ रहा। गुजरात के चुनावों में लगातार जनता द्वारा नकारे जाने के बावजूद कांग्रेसी चालबाजियों में कोई कमी नहीं आई है। याद नहीं पड़ता कि भारत के किसी भी मुख्यमंत्री के खिलाफ़ कांग्रेस ने इतनी साज़िशें रची हों… कुछ बानगियाँ देखिये -

1) जैसा कि सभी को याद है, 2002 के गुजरात दंगों के बाद नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ सतत एक विशिष्ट "घृणा अभियान" चलाया गया। मीडिया के पालतू कुत्तों को लगातार मोदी पर भौंकने के लिए छोड़ा गया।

2) तीस्ता सीतलवाड ने तो सुप्रीम कोर्ट में झूठे हलफ़नामों (Teesta Setalvad Fake Affidavits) की झड़ी ही लगा दी, रईस खान नामक अपने ही सहयोगी को धोखा दिया, प्रमुख गवाह ज़ोहरा को मुम्बई ले जाकर बन्धक बनाकर रखा, उससे कोरे कागज़ों पर दस्तखत करवाए गये… लेकिन सभी दाँव बेकार चले गये जब स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने तीस्ता को लताड़ लगाते हुए फ़र्जी हलफ़नामे दायर करने के लिए उसी पर केस करने का निर्देश दे दिया।

3) नरेन्द्र मोदी को "राजनैतिक अछूत" बनाने की पूरी कोशिशे हुईं, आपको याद होगा कि किस तरह बिहार के चुनावों में सिर्फ़ एक बार मंच पर नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी को हाथ मिलाते देखकर कांग्रेस-राजद और मीडिया के कुछ स्वयंभू पत्रकारों(?) को हिस्टीरिया के दौरे पड़ने लगे थे। इस घृणा अभियान के बावजूद नीतीश कुमार और भाजपा ने मिलकर बिहार में सरकार बना ही ली…

4) सोहराबुद्दीन एनकाउण्टर के मामला भी सभी को याद है। किस तरह से एक खूंखार अपराधी को पुलिस द्वारा एनकाउण्टर में मार दिये जाने को मीडिया-कांग्रेस और सेकुलरों(?) ने "मानवाधिकार" (Soharabuddin Encounter Case) का मामला बना दिया। अपराधी सिर्फ़ अपराधी होता है, लेकिन एक अपराधी को "मुस्लिम मज़लूम" बनाकर जिस तरह से पेश किया गया वह बेहद घृणित रहा। ये बात और है कि पिछले 5 वर्ष के आँकड़े उठाकर देखे जाएं तो उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में सबसे अधिक "पुलिस एनकाउण्टर" हुए हैं, लेकिन चूंकि वहाँ भाजपा की सरकारें नहीं हैं इसलिए अपराधियों को "सताये हुए मुसलमान" बताने की कोशिश नहीं की गई। बहरहाल, नरेन्द्र मोदी को "बदनाम" करने में कांग्रेस और मीडिया सफ़ल रहे… ("बदनाम" अर्थात, उन तटस्थ और दुनिया से कटे हुए लोगों के बीच बदनाम, जो लोग मीडिया की ऊलजलूल बातों से प्रभावित हो जाते हैं), परन्तु अन्त-पन्त कांग्रेस का यह खेल भी बिगड़ गया और नरेन्द्र मोदी एक के बाद एक चुनाव जीतते ही जा रहे हैं।

5) हाल ही में कांग्रेस ने एक कोशिश और की, कि 2002 के दंगों के भूत को फ़िर से जिलाया जाए… इस कड़ी में संजीव भट्ट नामक पुलिस अधिकारी (जो कि कांग्रेसी नेताओं के नज़दीकी हैं और जिनके आपसी ईमेल से उनकी पोल खुल गई) के जरिये एक शपथ-पत्र दायर करके नरेन्द्र मोदी को घेरने की कोशिश की गई…। लेकिन मामला तीस्ता सीतलवाड की तरह फ़िर से उलट गया और संजीव भट्ट कोर्ट में झूठे साबित हो गये।


यह तो थे चन्द ऐसे मामले जहाँ बार-बार गुजरात में 2002 में हुए दंगों को "भुनाने"(?) की भद्दी कोशिशें हुई, क्योंकि कांग्रेस-मीडिया और वामपंथी सेकुलरों का ऐसा मानना है कि भारत के 60 साल के इतिहास में सिर्फ़ एक ही हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ है और वह है गुजरात 2002। इससे पहले के सभी दंगों, एवं कांग्रेसी सरकारों के कालखण्ड में हुए मुरादाबाद-बरेली-मालेगाँव-भागलपुर-मुम्बई-भिवण्डी जैसे हजारों भीषण दंगों को "भुला दिया जाना" चाहिए।

खैर… अब जबकि कांग्रेस के सभी "धार्मिक और साम्प्रदायिक" दाँव उलटे पड़ चुके, तो अब कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी को अपदस्थ करने के लिए, "कर्नाटक में आजमाई हुई चाल" सोची है… जी हाँ सही समझे आप, लोकायुक्त-लोकायुक्त रिपोर्ट का कार्ड खेलकर नरेन्द्र मोदी को 2014 के आम चुनावों से पहले हटाने की साज़िशें शुरु हो गई हैं। फ़िलहाल देश में "ब्राण्ड अण्णा" की बदौलत भ्रष्टाचार के विरुद्ध माहौल बना हुआ है, इसी का फ़ायदा उठाकर कांग्रेसी राज्यपाल ने गुजरात में श्री मेहता को एकतरफ़ा निर्णय करके लोकायुक्त नियुक्त कर दिया। इस बात पर संसद की कार्रवाई कई बार ठप भी हुई, लेकिन कांग्रेस अड़ी हुई है कि यदि लोकायुक्त रहेंगे तो मेहता साहब ही।

पहले हम नियम-कानूनों, प्रक्रिया और परम्परा के बारे में जान लें, फ़िर मेहता साहब के बारे में बात करेंगे…। भारत एक संघ-राज्य है, जहाँ कोई सा भी महत्वपूर्ण प्रशासनिक निर्णय जिसमें राज्यों पर कोई प्रभाव पड़ता हो… वह निर्णय केन्द्र और राज्य सरकार की सहमति से ही हो सकता है। केन्द्र अपनी तरफ़ से कोई भी मनमाना निर्णय नहीं ले सकता, चाहे वह शिक्षा का मामला हो, पुलिस का मामला हो या किसी नियुक्ति का मामला हो। किसी भी राज्य में लोकायुक्त की नियुक्ति राज्य सरकार की सहमति से ही हो सकती है, जिसमें राज्य का मंत्रिमण्डल रिटायर्ड जजों का एक "पैनल" सुझाता है, जिसमें से एक जज को आपसी सहमति से लोकायुक्त चुना जाता है। (उदाहरण के तौर पर संतोष हेगड़े को कर्नाटक का लोकायुक्त बनवाने में आडवाणी जी की सहमति महत्वपूर्ण थी)।

गुजरात के वर्तमान मामले में जो हुआ वह "आश्चर्यजनक" है -

1) विपक्ष और मुख्य न्यायाधीश ने "पैनल" की जगह सिर्फ़ एक नाम (यानी श्री मेहता का) ही भेजा, बाकी नामों पर विचार तक नहीं हुआ।

2) नरेन्द्र मोदी ने चार जजों के नाम भेजे थे, लेकिन राज्यपाल और नेता प्रतिपक्ष सिर्फ़ मेहता के नाम पर ही अड़े रहे, मामला लटका रहा और अब "अण्णा इफ़ेक्ट" का फ़ायदा उठाने के लिए राज्यपाल ने एकतरफ़ा निर्णय लेते हुए मेहता की नियुक्ति कर दी, जिसमें मुख्यमंत्री की सहमति नहीं थी।

3) नवनियुक्त लोकायुक्त श्री मेहता 1983 में जज बनने से पहले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता केके वखारिया के असिस्टेंट हुआ करते थे, वखारिया जी गुजरात कांग्रेस के "लीगल सेल" के प्रमुख हैं।

4) जस्टिस मेहता की सबसे बड़ी क्वालिफ़िकेशन यह बताई गई है कि "अण्णा हजारे" जो कि फ़िलहाल "भ्रष्टाचार हटाओ के चकमक ब्राण्ड" बने हुए हैं, वे जब गुजरात आए थे तो श्री मेहता के यहाँ रुके थे… (यानी अण्णा हजारे जिसके यहाँ रुक जाएं, वह व्यक्ति एकदम "पवित्र" बन जाएगा)।

5) नेता प्रतिपक्ष को गुजरात में उपलब्ध 40 अन्य रिटायर्ड जजों के नाम में से कोई नाम सुझाने को कहा गया, लेकिन नहीं… कांग्रेस सिर्फ़ जस्टिस मेहता के नाम पर ही अड़ी है।

6) इससे पहले 2006 से 2009 के बीच एक अन्य रिटायर्ड जज श्री केआर व्यास का नाम भी, लोकायुक्त पद के लिए कांग्रेस ने खारिज कर दिया था, जबकि यही सज्जन महाराष्ट्र के लोकायुक्त चुन लिए गये। क्या कोई कांग्रेसी यह बता सकता है कि जो जज गुजरात में लोकायुक्त बनने के लायक नहीं समझा गया, वह महाराष्ट्र में कैसे लोकायुक्त बनाया गया?

एक बात और भी गौर करने वाली है कि गुजरात से सम्बन्धित कई मामलों पर न्यायालयों ने अपने निर्णय सुरक्षित रखे हैं या रोक रखे हैं, लेकिन जब भी कोई NGO गुजरात या नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ याचिका लगाता है तो उसकी सुनवाई बड़ी तेज़ गति से होती है, ऐसा क्यों होता है यह भी एक रहस्य ही है।

कुल मिलाकर तात्पर्य यह है कि गुजरात दंगों की फ़र्जी कहानियाँ, गर्भवती मुस्लिम महिला का पेट फ़ाड़ने जैसी झूठी कहानियाँ मीडिया में बिखेरने, तीस्ता "जावेद" सीतलवाड द्वारा झूठे हलफ़नामों में पिट जाने, सोहराबुद्दीन मामले में "मानवाधिकारों" का गला फ़ाड़ने, संजीव भट्ट द्वारा एक और "कोशिश" करने के बाद, अब जबकि कांग्रेस को समझ में आने लगा है कि "धर्म", "साम्प्रदायिकता" के नारों और गुजरात दंगों पर "रुदालियाँ" एकत्रित करके उसे चुनावी लाभ मिलने वाला नहीं है तो अब वह नरेन्द्र मोदी को अस्थिर करने के लिए "दूसरा रास्ता" पकड़ रही है।

ज़ाहिर है कि यह दूसरा रास्ता है "अपना लोकायुक्त" नियुक्त करना, अब तक मोदी के खिलाफ़ भ्रष्टाचार का एक भी मुद्दा नहीं है, इसलिए लोकायुक्त के जरिये भ्रष्टाचार के मुद्दों को हवा देना। यदि मुद्दे नहीं हों तो "निर्मित करना", उसके बाद हो-हल्ला मचाकर "अण्णा हजारे ब्राण्ड" के उपयोग से नरेन्द्र मोदी को अपदस्थ या अस्थिर किया जा सके…। कांग्रेस को यह काम 2013 के अन्त से पहले ही पूरा करना है, क्योंकि उसे पता है कि देश में 2014 का अगला आम चुनाव "राहुल गाँधी Vs नरेन्द्र मोदी" ही होगा, इसलिये कांग्रेस में भारी बेचैनी है। यह बेचैनी, "अण्णा आंदोलन" के दौरान मुँह छिपाए बैठे रहे, और फ़िर संसद में लिखा हुआ बकवास भाषण पढ़कर अपनी भद पिटवा चुके "युवराज" के कारण और भी बढ़ गई है…
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रविवार, 04 सितम्बर 2011 20:17

Jagan Reddy, Gandhi Family and AP Congress

जगन रेड्डी :- "पवित्र परिवार" से पंगा लिया है तो अब भुगतना ही पड़ेगा…

"सेमुअल" राजशेखर रेड्डी की दूसरी पुण्यतिथि(?) पर उसके बेटे जगन रेड्डी का उतरा हुआ और रुँआसा चेहरा देखकर सभी को समझ जाना चाहिए कि "सोनिया मम्मी" से पंगा लेने का क्या नतीजा होता है। दो साल का समय ज्यादा नहीं होता, सिर्फ़ दो साल पहले सेमुअल राजशेखर रेड्डी, सोनिया के, चर्च के और वेटिकन के आँखों के तारे थे। आंध्रप्रदेश और कर्नाटक की सीमा पर इन पिता-पुत्रों ने जमकर अवैध खनन किया। केन्द्र की सारी एजेंसियाँ (जिन्होंने येद्दियुरप्पा को हटाकर ही दम लिया), उस समय इन पिता-पुत्र रेड्डियों तथा कर्नाटक के दोनों रेड्डी बन्धुओं पर मेहरबान थीं। यह चारों रेड्डी उस पूरे इलाके के बेताज बादशाह थे।


किस्मत ने पलटा खाया, सेमुअल रेड्डी एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में ईसा को प्यारे हो गये, जिनकी लाश की खोज में भारत सरकार ने सेना सहित अपनी पूरी मशीनरी झोंक दी थी। जगन रेड्डी की गलतियों की शुरुआत यहाँ से हुई कि उसने आंध्रप्रदेश में अपनी पिता की राजनैतिक विरासत पर सोनिया गाँधी के सामने (उनसे पूछे बिना) ही दावा ठोंक दिया। अब भला गाँधी परिवार को यह बात कैसे मंजूर होती, क्योंकि "राजगद्दी" पर विरासत का दावा ठोंकने का हक तो कांग्रेस पार्टी में सिर्फ़ एक ही परिवार को है। यदि किसी को "राजनैतिक विरासत" चाहिये भी हो तो वह "पवित्र परिवार" की कृपा से ही ले सकता है (जैसे सिंधिया, पायलट, जतिन प्रसाद इत्यादि)।

जगन रेड्डी ने खामख्वाह "मैडम" से पंगा ले लिया, अपनी राजनैतिक ताकत दिखाने के चक्कर में ललकार भी दिया, पार्टी भी छोड़ दी, आंध्र में कांग्रेस को नुकसान भी पहुँचाया, स्वयं के अकेले दम पर कडप्पा की सीट भी जीत ली, अपने पैसों और पिता के नाम के बल पर 25 विधायक भी जितवा लाये… यानी कि खुद को "असली युवराज" साबित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। यही बात "मैडम" को अखर गई, और उन्होंने अवैध खनन के मुद्दे पर इतने सालों से चुप्पी साध रखी थी, अचानक उन्हें जगन बाबू में सारी बुराईयाँ नज़र आने लगीं और उन्होंने अपनी सभी पालतू एजेंसियों (सीबीआई, फ़ेमा, आयकर इत्यादि) को जगन रेड्डी के पीछे छोड़ दिया…। फ़िलहाल तो जगन बाबू मैदान में खम ठोंके खड़े हैं, लेकिन कितने दिन मैदान में टिकेंगे कहना मुश्किल है क्योंकि आंध्रप्रदेश विधानसभा के मौजूदा 100 से अधिक कांग्रेसी विधायक जो कि "सेमुअल" राजशेखर का नाम और फ़ोटो लेकर चुनाव जीतते रहे, उन्होंने भी "मैडम" के आतंक के सामने घुटने टेक दिये हैं और जगन से पीछा छुड़ाने की फ़िराक में हैं।

"पवित्र परिवार" भी इस बात को आसानी से भूल गया कि सारे अनुमानों को ध्वस्त करते हुए "सेमुअल" राजशेखर रेड्डी ने अकेले दम पर चन्द्रबाबू नायडू और भाजपा को पटखनी देते हुए आंध्रप्रदेश में कांग्रेस को जितवाया था… उस समय तो "सेमुअल", उनका बेटा जगन और उनका "एवेंजेलिस्ट" दामाद अनिल सभी के सभी "पवित्र परिवार" को बेहद प्यारे थे। अब अचानक ही जगन रेड्डी की सम्पत्तियों, उसके महलनुमा मकान और खदानों के स्वामित्व के बारे में अखबारों में बहुत कुछ छपने लगा है, मानो यह सब कुछ जगन रेड्डी ने पिछले दो साल में ही खड़ा किया हो… जबकि (मीडिया वालों का माई-बाप) "पवित्र परिवार", सेमुअल रेड्डी के इन सभी "कारनामों" से पहले से ही अवगत था…। यह "पवित्र परिवार" द्वारा पाले हुए मीडिया का दायित्व बनता है कि देश और कांग्रेस में जो भी "अच्छा-अच्छा" हो रहा हो वह उसे "पवित्र परिवार" की महिमा बताए, जबकि देश में जो भी "बुरा-बुरा" हो रहा हो उसके लिए "साम्प्रदायिक", "जातीय" और "क्षेत्रीय" राजनेताओं को दोष दें… मीडिया की भी कोई गलती नहीं है, उन्हें भी तो "उनके सामने डाली गई बोटी" का फ़र्ज़ अदा करना पड़ता है।

वैसे इस घटनाक्रम से कुछ बातें तो निश्चित रूप से सिद्ध होती हैं -

1) राजनीति में कोई भी सगा नहीं होता, न बाप, न भाई…

2) राजनीति में "अहसान" नाम की भी कोई चीज़ नहीं होती…

3) मैडम और पवित्र परिवार से पंगा लेने की कीमत चुकानी ही होगी…

4) किस्मत पलटने के लिए 2 साल का समय तो बहुत ज्यादा होता है…

5) जब "पवित्र परिवार" को चुनौती दी जाती है, तब वे न तो "पुरानी वफ़ादारियाँ" देखते हैं, न ही "पुराने सम्बन्ध" देखते हैं और तो और ये भी नहीं देखते कि सामने वाला बन्दा भी उनके "अपने चर्च" का ही है…

अब जगन बाबू के सामने दो ही रास्ते हैं, पहला यह कि कड़ा संघर्ष करें, जैसे कडप्पा लोकसभा सीट और 20-25 विधायक जितवाए हैं, वैसे ही और भी जनाधार बढ़ाएं, आंध्रप्रदेश कांग्रेस में दो-फ़ाड़ करवाएं… अपनी राजनैतिक स्थिति मजबूत करें। क्योंकि मजबूत क्षेत्रीय कांग्रेसियों के सामने दिल्ली के "पवित्र परिवार" को झुकना ही पड़ता है (उदाहरण शरद पवार और ममता बैनर्जी) लेकिन यह रास्ता लम्बा है।

दूसरा आसान रास्ता यह है कि वे "मैडम" के समक्ष नतमस्तक हो जाएं, कर्नाटक सीमा पर चल रहे अवैध खनन में से "उचित हिस्सा" ऊपर पहुँचाएं, पिता की गद्दी पर विरासत का दावा न करें (करना भी हो, तो तभी करें जब "मैडम" अपनी चरणचम्पी से खुश हों)…
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