desiCNN - Items filtered by date: फरवरी 2011
विगत एक-डेढ़ माह में दो प्रमुख न्यायिक घटनाएं हुई हैं, जिनका जैसा व्यापक और सकारात्मक प्रचार होना चाहिये था वह हमारे महान देश के घृणित (यानी सेकुलर) चैनलों द्वारा जानबूझकर नहीं किया गया। इसके उलट इन दोनों न्यायिक निर्णयों को या तो नज़र-अन्दाज़ करने की अथवा इन्हें नकारात्मक रूप में पेश करने की पुरज़ोर कोशिश की गई। हमेशा की तरह इस मुहिम का अगुआ “चर्च-पोषित” चैनल NDTV ही रहा…

पहला महत्वपूर्ण न्यायिक निर्णय आया था कर्नाटक में, जहाँ जस्टिस सोमशेखर आयोग ने यह निर्णय दिया कि 2008 में कर्नाटक के विभिन्न इलाकों में चर्च पर हुए हमले में संघ परिवार का कोई हाथ नहीं है… यह घटनाएं एवेंजेलिस्टों द्वारा हिन्दू देवताओं के गलत चित्रण के कारण उकसाये जाने का परिणाम हैं एवं इसमें शामिल लोगों का यह कृत्य पूर्णतः व्यक्तिगत था, जस्टिस सोमशेखर (Justice Somshekhar Report of Karnataka Church Attack) ने स्पष्ट लिखा है कि “ऐसा कोई सबूत नहीं है कि इन हमलों में राज्य सरकार अथवा इसके किसी मुख्य कार्यकारी का सीधा या अप्रत्यक्ष हाथ हो…” । परन्तु वह “सेकुलर” ही क्या, जो भाजपा या हिन्दुओं के पक्ष में आये हुए किसी फ़ैसले को आसानी से मान ले… जस्टिस सोमशेखर की रिपोर्ट आने के तुरन्त बाद NDTV ने अपना घृणित खेल खेलना शुरु कर दिया…

उल्लेखनीय है कि बिनायक सेन (Binayak Sen Verdict) के मामले में भी “लोअर कोर्ट” और “हाईकोर्ट” के निर्णय की सबसे अधिक आलोचना और हायतौबा NDTV ने ही मचाई थी… बिनायक सेन और चर्च का नापाक गठबन्धन भी लगभग उजागर हो चुका है…। बहरहाल बात हो रही थी NDTV द्वारा चलाई जा रही घटियातम पत्रकारिता की…(NDTV Hate and False Campaign)

जस्टिस सोमशेखर की आधिकारिक रिपोर्ट (जिन्हें राज्य सरकार ने नियुक्त किया था और जिन्होंने 2 साल में 754 गवाहों, 1019 आवेदनों और 34 वकीलों की जिरह-बहस और बयानों के आधार पर सुनवाई की) आने के तुरन्त बाद NDTV ने अपने चैनल और साईट पर एक अन्य रिटायर्ड जज एमएफ़ सलधाना की रिपोर्ट प्रकाशित करना और प्रचारित करना शुरु कर दिया। स्वयं NDTV और जस्टिस सलधाना के अनुसार चर्च पर हुए हमलों की यह जाँच “पूर्णतः व्यक्तिगत और स्वतन्त्र” थी… यानी एमएफ़ सलधाना साहब ने खुद ही अपने “विवेक”(?) से चर्च पर हुए इन हमलों की जाँच करने का निर्णय ले लिया और कर भी ली…। रिटायर्ड जस्टिस सलधाना साहब अपनी इस “व्यक्तिगत” रिपोर्ट में फ़रमाते हैं, “चर्च पर हुए इन हमलों में राज्य की पुलिस भी शामिल थी, तथा बजरंग दल के नेता महेन्द्र कुमार ने सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर चर्चों पर हमले किये…” (यह अजीबोगरीब निष्कर्ष जस्टिस सलधाना साहब ने किस गवाह, बयान आदि के आधार पर निकाले, यह बात NDTV ने अभी तक गुप्त रखी है)।

लेकिन कर्नाटक सरकार को बदनाम करने और हिन्दूवादी संगठनों को निशाना बनाने की अपनी इस घृणित कोशिश में NDTV ने जानबूझकर कुछ तथ्य छिपाये, क्यों छिपाये… यह आप इन तथ्यों को पढ़कर ही समझ जायेंगे –


1) जस्टिस एमएफ़ सलधाना यानी जस्टिस “माइकल एफ़ सलधाना”

2) जस्टिस माइकल सलधाना दक्षिण कन्नडा जिले के कैथोलिक एसोसियेशन के अध्यक्ष हैं… (अब खुद ही सोचिये कि कैथोलिक एसोसियेशन के अध्यक्ष द्वारा की गई “व्यक्तिगत” जाँच कितनी निष्पक्ष हो सकती है)। मजे की बात तो यह है कि जस्टिस सलधाना खुद कहते हैं कि “सरकार द्वारा बनाये गये आयोग के नतीजे निष्पक्ष नहीं हो सकते…” (क्या यह नियम उन पर लागू नहीं होता…? वे भी तो कैथोलिक एसोसियेशन के अध्यक्ष हैं, फ़िर उन्हें न तो ढेर सारे गवाह उपलब्ध थे और न ही कागज़ात, फ़िर भी उन्होंने अपनी “व्यक्तिगत निष्पक्ष” रिपोर्ट पेश कर दी?… न सिर्फ़ पेश कर दी, बल्कि उनके सेकुलर चमचे NDTV ने वह तुरन्त प्रसारित भी कर डाली?) 


(चित्र में जस्टिस माइकल सलधाना Justice Saldhana in Christian Association Programme, उडुपी जिले के यूनाइटेड क्रिश्चियन एसोसियेशन के कार्यक्रम में एक पुस्तिका का विमोचन करते हुए)


जस्टिस “माइकल” सलधाना की निष्पक्षता की पोल तो उसी समय खुल चुकी थी, जब कर्नाटक सरकार ने गौ-हत्या का बिल विधानसभा में पेश किया था। माइकल सलधाना ने उस समय एक “ईसाई-नेता” की हैसियत से गौहत्या बिल (Karnataka Cow Slaughter Bill Opposed) का विरोध किया था और कहा था कि “कर्नाटक सरकार द्वारा यह कानून अल्पसंख्यकों की भोजन की आदतों को बदलने की साजिश है, और यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन है कि वे क्या खाएं और क्या न खाएं…”। 

जस्टिस माइकल की “कथित निष्पक्षता” का एक और नमूना देखिये – “इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फ़ॉर रिलिजीयस फ़्रीडम” (International Institute of Religious Freedom) की भारत आधारित रिपोर्ट में “जस्टिस माइकल सलधाना लिखते हैं – “मंगलोर एवं उडुपी जिले के उच्चवर्णीय हिन्दू ब्राह्मण समूचे कर्नाटक में हिन्दुत्व की विचारधारा के प्रसार में सक्रिय हैं, चूंकि ब्राह्मण जातिवादी व्यवस्था बनाये रखना चाहते हैं और ईसाई धर्मान्तरण का सबसे अधिक नुकसान उन्हें ही होगा, इसलिये वे “हिन्दुत्व” की अवधारणा को मजबूत रखना चाहते हैं, और इसी कारण वे “क्रिश्चियानिटी” से लड़ाई चाहते हैं, जबकि ईसाई धर्म एक पवित्र और भलाई करने वाला धर्म है…”।

एक हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज से ऐसी “साम्प्रदायिक” टिप्पणी की आशा नहीं की जा सकती, एक तरफ़ तो वे खुद ही “ईसाई धर्मान्तरण” की घटना स्वीकार कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ ब्राह्मणों को गाली भी दे रहे हैं कि वे दलितों-पिछड़ों को ईसाई बनने से रोकने के लिये “हिन्दुत्व” का हौआ खड़ा कर रहे हैं… क्या एक “निष्पक्ष” जज ऐसा होता है? और NDTV जैसा घटिया चैनल इन्हीं साहब की रिपोर्ट को हीरे-मोती लगाकर पेश करता रहा, क्योंकि…

1) कर्नाटक में भाजपा की सरकार है, जो इन्हें फ़ूटी आँख नहीं सुहा रही,

2) हिन्दूवादी संगठनों को जस्टिस सोमशेखर ने बरी कर दिया, जबकि NDTV की मंशा यह है कि चाहे जैसे भी हो, संघ-भाजपा-बजरंग दल-विहिप को कठघरे में खड़ा रखे… न्यायपालिका का इससे बड़ा मखौल क्या होगा, तथा इससे ज्यादा नीच पत्रकारिता क्या होगी?

दूसरी महत्वपूर्ण न्यायिक घटना थी गोधरा ट्रेन “नरसंहार” (Godhra Massacre Judgement) के बारे में आया हुआ फ़ैसला… लालू जैसे जोकरों और यूसी बैनर्जी (U.C. Banerjee Commission on Godhra) जैसे भ्रष्ट जजों की नापाक पुरज़ोर कोशिशों के बावजूद जो “सच” था आखिरकार सामने आ ही गया। सच यही था कि “जेहादी मानसिकता” वाले एक बड़े गैंग ने 56 ट्रेन यात्रियों को पेट्रोल डालकर जिन्दा जलाया। गोधरा को शुरु से सेकुलर प्रेस और मीडिया द्वारा “हादसा” कहा गया… “गोधरा हादसा”… जबकि “हादसे” और “नरसंहार” में अन्तर होता है यह बात कोई गधा भी बता सकता है। इसी NDTV टाइप के सेकुलर मीडिया ने गोधरा के बाद अहमदाबाद और गुजरात के अन्य हिस्सों में हुए दंगों को “नरसंहार” घोषित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। तीस्ता सीतलवाड द्वारा सुप्रीम कोर्ट में फ़र्जी केस लगाये गये, नकली शपथ-पत्र (Fake Affidavit by Teesta Setalvad) दाखिल करवाये गये, तहलका, NDTV से लेकर सरकार के टुकड़ों पर पलने वाले सभी चैनलों ने पत्रकारिता को “वेश्या-बाजार” बनाकर बार-बार गुजरात दंगे को “नरसंहार” घोषित किया। पत्रकारिता को “दल्लेबाजी” का धंधा बनाने वाले इन चैनलों से पूछना चाहिये कि यदि गुजरात दंगे “नरसंहार” हैं तो कश्मीर से हिन्दुओं का सफ़ाया क्या है?, मराड में हुआ संहार क्या है? दिल्ली में कांग्रेसियों ने जो सिखों (Anti-Sikh Riots in Delhi) के साथ किया वह क्या था? भोपाल का गैस काण्ड और बेशर्मी से एण्डरसन को छोड़ना (Anderson Freed by Rajiv Gandhi) नरसंहार नहीं हैं क्या? इससे पहले भी भागलपुर, मेरठ, बरेली, मालेगाँव, मुज़फ़्फ़रपुर के दंगे क्या “नरसंहार” नहीं थे? लेकिन सेकुलर प्रेस को ऐसे सवाल पूछने वाले लोग “साम्प्रदायिक” लगते हैं, क्योंकि आज तक किसी ने इनके गले में “बम्बू ठाँसकर” यही नहीं पूछा कि यदि गोधरा न हुआ होता, तो क्या गुजरात के दंगे होते? लेकिन जब भी न्यायपालिका ऐसा कोई निर्णय सुनाती है जो हिन्दुओं के पक्ष या मुस्लिमों के विरोध में हो (चाहे वह बाबरी मस्जिद केस हो, रामसेतु हो या शाहबानो तलाक केस) NDTV जैसे “भाड़े के टट्टू” चिल्लाचोट करने में सबसे आगे रहते हैं…। गोधरा फ़ैसला आने के बाद सारे सेकुलरों को साँप सूँघ गया है, उन्हें समझ नहीं आ रहा कि अब इसकी व्याख्या कैसे करें? हालांकि तीस्ता सीतलवाड और बुरका दत्त जैसी “मंथरा” और “पूतना”, गोधरा नरसंहार और गुजरात दंगों को “अलग-अलग मामले” बताने में जुटी हुई हैं।



गोधरा काण्ड के फ़ैसले के बाद भी NDTV अपनी नीचता से बाज नहीं आया, विनोद दुआ साहब अपनी रिपोर्ट में (वीडियो देखिये) 63 “बेगुनाह”(?) (जो सिर्फ़ सबूतों के अभाव में बरी हुए हैं) मुसलमानों के लिये चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं, लेकिन विनोद दुआ साहब ने कभी भी उन 56 परिवारों के लिये अपना “सेकुलर सुर” नहीं निकाला जो S-6 कोच में भून दिये गये, जिसमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। शायद जलकर मरने वाले 56 परिवारों का दुख कम है और इन नौ साल जेल में रहे इन 63 लोगों के परिवारों का दुख ज्यादा है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे कश्मीर से खदेड़े गये लाखों हिन्दुओं का दुख-दर्द उतना बड़ा नहीं है, जितना फ़िलीस्तीन में इज़राइल के हाथों मारे गये मुसलमानों का…, यही NDTV की “साम्प्रदायिक मानसिकता” है। (Atrocities and Genocide of Kashmmiri Hindus)

दूसरों को “साम्प्रदायिक” कहने से पहले NDTV और प्रणब रॉय को अपनी गिरेबान में झाँकना चाहिये कि वह खुद कितनी साम्प्रदायिक खबरें परोस रहा है, बुरका दत्त जैसी सत्ता-कारपोरेट की दलालों को अभी भी प्रमुखता दिये हुए है। चैनल चलाने के लाइसेंस और तथाकथित पत्रकारिता करने के गरुर में उन्होंने देशहित और सामाजिक समरसता को भी भुला दिया है…
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चलते-चलते - "वेटिकन के मोहरे NDTV" को यह तो पता ही होगा कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन (KGB) (जो अपने बेटों और दामाद के कारनामों और बेवकूफ़ी की वजह से अब भ्रष्टाचार के मामलों में घिर गये हैं) खुद को दलित कहते नहीं थकते, जबकि केरल की SC-ST फ़ेडरेशन के अध्यक्ष वी कुमारन के खुल्लमखुल्ला आरोप लगाया है कि KGB साहब एक फ़र्जी ईसाई हैं और वेटिकन द्वारा भारतीय न्याय-व्यवस्था में घुसेड़े गये हैं। KGB की बेटी और दामाद श्रीनिजन को लन्दन में उच्च शिक्षा हेतु वर्ल्ड काउंसिल ऑफ़ चर्च ने "प्रायोजित" किया था, श्रीनिजन ने SC/ST सीट पर "अजा" बताकर चुनाव लड़ा, जबकि वह "खुल्लमखुल्ला" ईसाई है…।  भारत के सारे दलित-ओबीसी संगठन और नेता मुगालते में ही रह जाएंगे, जबकि KGB तथा श्रीनिजन जैसे "दलित से ईसाई बने हुए लोग", असली दलितों का हक छीन ले जाएंगे…
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कुछ दिनों पहले ही भारतवासियों ने हमारे लाचार और मजबूर प्रधानमंत्री के मुखारविन्द से यह बयान सुना है कि “भारतीय लोग ज्यादा खाने लगे हैं इसलिये महंगाई बढ़ी है…”, लगभग यही बयान कुछ समय पहले शरद पवार और मोंटेक सिंह अहलूवालिया भी दे चुके हैं। तात्पर्य यह कि अब देश का उच्च नेतृत्व हमारे “खाने” पर निगाह रखने की कवायद कर रहा है।

भारतीय संस्कृति और सभ्यता में आमतौर पर माना जाता है कि किसी व्यक्ति को किसी के “भोजन” पर नज़र नहीं रखनी चाहिये। अक्सर सभी ने देखा होगा कि या तो व्यक्ति एकान्त में भोजन करना पसन्द करता है अथवा यदि समूह में भोजन कर रहा हो तो उस स्थल पर उपस्थित सभी को उसमें शामिल होने का निमन्त्रण दिया जाता है… यह एक सामान्य शिष्टाचार और सभ्यता है। प्रधानमंत्री, कृषिमंत्री और योजना आयोग के मोंटेक सिंह ने “भारतीय लोग ज्यादा खाने लगे हैं…” जैसा गरीबों को “चिढ़ाने और जलाने” वाला निष्कर्ष पता नहीं किस आधार पर निकाला है…। जब इन्हें बोलने का हक प्राप्त है तो हमें भी इनके वक्तव्य की धज्जियाँ उड़ाने का पूरा हक है… आईये देखते हैं कि भारतीयों द्वारा “ज्यादा खाने” सम्बन्धी इनका दावा कितना खोखला है…

व्यक्ति का मोटापा मापने का एक वैज्ञानिक तरीका है BMI Index (Body Mass Index)। साबित तथ्य यह है कि जिस देश की जनता को अच्छा और पौष्टिक भोजन सतत उचित मात्रा में प्राप्त होता है उस देश की जनता का BMI सूचकांक बढ़ता है, हालांकि यह सूचकांक या कहें कि वैज्ञानिक गणना व्यक्तिगत आधार पर की जाती है, लेकिन पूरी जनसंख्या का सामान्य औसत निकालकर उस देश का BMI Index निकाला जाता है। आम जनता को समझ में आने वाली सादी भाषा में कहें तो BMI Index व्यक्ति की ऊँचाई और वज़न के अनुपात के गणित से निकाला जाता है, इससे पता चलता है कि व्यक्ति “दुबला” है, “सही वज़न” वाला है, “मोटा” है अथवा “अत्यधिक मोटा” है। फ़िर एक बड़े सर्वे के आँकड़ों के आधार पर गणना करके सिद्ध होता है कि वह देश “मोटा” है या “दुबला” है… ज़ाहिर है कि यदि मोटा है मतलब उस देश के निवासियों को पौष्टिक, वसायुक्त एवं शुद्ध भोजन लगातार उपलब्ध है, जबकि देश दुबला है इसका अर्थ यह है कि उस देश के निवासियों को सही मात्रा में, उचित पौष्टिकता वाला एवं गुणवत्तापूर्ण भोजन नहीं मिल रहा है… यह तो हुई BMI सूचकांक की मूल बात… अब एक चार्ट देखते हैं जिसके अनुसार वैज्ञानिक रुप से कितने “BMI के अंक” पर व्यक्ति को “दुबला”, “मोटा” और “अत्यधिक मोटा” माना जाता है… (Know About BMI)




इस चार्ट से साबित होता है कि पैमाने के अनुसार 16 से 20 अंक BMI वालों को “दुबला” माना जाता है एवं 30 से 35 BMI अंक वालों को “बेहद मोटा” माना जाता है। आमतौर पर देखा जाये तो देश में मोटे व्यक्तियों की संख्या का बढ़ना जहाँ एक तरफ़ स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव के रूप में भी देखा जाता है वहीं दूसरी तरफ़ देश की आर्थिक उन्नति और खुशहाली से भी इसे जोड़ा जाता है। यह एक स्वाभाविक बात है कि जिस देश में आर्थिक सुरक्षा एवं कमाई अधिक होगी वहाँ के व्यक्ति अधिक खाएंगे और मोटे होंगे… कम से कम BMI सूचकांक के ग्राफ़ तो यही प्रदर्शित करते हैं (जो आप आगे देखेंगे)। मनमोहन सिंह और अहलूवालिया ने यहीं पर आकर भारतीयों से भद्दा मजाक कर डाला… उन्होंने महंगाई को “अधिक खाने-पीने” से जोड़ दिया।

हाल ही में इम्पीरियल कॉलेज लन्दन के प्रोफ़ेसर माजिद एज़्ज़ाती ने विज्ञान पत्रिका “लेन्सेट” में एक शोधपत्र प्रकाशित किया है। जिसमें उन्होंने सन 1980 से 2008 तक के समय में विश्व के सभी देशों के व्यक्तियों के वज़न और ऊँचाई के अनुपात को मिलाकर उन देशों के BMI इंडेक्स निकाले हैं। शोध के परिणामों के अनुसार 1980 में जो देश गरीब देशों की श्रेणी में आते थे उनमें से सिर्फ़ ब्राजील और दक्षिण अफ़्रीका ही ऐसे देश रहे जिनकी जनसंख्या के BMI इंडेक्स में उल्लेखनीय वृद्धि हुई (अर्थात जहाँ के निवासी दुबले से मोटे की ओर अग्रसर हुए)… जबकि 1980 से 2008 के दौरान 28 साल में भी भारत के लोगों का BMI नहीं बढ़ा (सुन रहे हैं प्रधानमंत्री जी…)। 1991 से देश में आर्थिक सुधार लागू हुए, ढोल पीटा गया कि गरीबी कम हो रही है… लेकिन कोई सा भी आँकड़ा उठाकर देख लीजिये महंगाई की वजह से खाना-पीना करके मोटा होना तो दूर, गरीबों की संख्या में बढ़ोतरी ही हुई है (ये और बात है कि विश्व बैंक की चर्बी आँखों पर होने की वजह से आपको वह दिखाई नहीं दे रही)। BMI में सर्वाधिक बढ़ोतरी अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया एवं चीन में हुई (ज़ाहिर है कि यह देश और वहाँ के निवासी अधिक सम्पन्न हुए हैं…)। शोध के अनुसार सबसे दुबला और कमजोर देश है कांगो, जबकि सबसे मोटा देश है नौरू। इसी से मिलता-जुलता शोध अमेरिका में भी 1994 में हुआ था जिसका निष्कर्ष यह है कि 59% अमेरिकी पुरुष एवं 49% अमेरिकी महिलाएं “मोटापे” की शिकार हैं। (BMI Index Survey The Economist) 

हमारे “खाने पर निगाह रखने वालों” के लिये पेश है एक छोटा सा BMI आँकड़ा-

1990 में भारत का BMI था 20.70,
अमेरिका का 26.71,
कनाडा का 26.12 तथा
चीन का 21.90...

अब बीस साल के आर्थिक उदारीकरण के बाद स्थिति यह है –

2009 में भारत का BMI है 20.99,
अमेरिका का 28.46,
कनाडा का 27.50 और
चीन का 23.00...

ग्राफ़िक्स क्रमांक 1 - सन 1980 की स्थिति


ग्राफ़िक्स क्रमांक 2 - सन 2008 की स्थिति



(पहले और दूसरे ग्राफ़िक्स में हरे और गहरे हरे रंग वाले देशों, यानी अधिक BMI की बढ़ोतरी साफ़ देखी जा सकती है…हल्के पीले रंग में जो देश दिखाये गये हैं वहाँ BMI में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई…) इस लिंक पर जाकर विस्तार में देखा जा सकता है… (Countrywise BMI Global Chart) 

शरद पवार और मोंटेक सिंह जी, अब बताईये, कौन ज्यादा खा रहा है? भारत के लोग या अमेरिका?

प्रधानमंत्री जी (आपके) सौभाग्य से “फ़िलहाल” अभी भी देश के अधिकांश लोग आपको ईमानदार “मानते हैं”, प्रेस कान्फ़्रेंस में आपने भले ही स्वीकार कर लिया हो कि आप लाचार हैं, मजबूर हैं, हुक्म के गुलाम हैं… लेकिन फ़िर भी देश का गरीब आपसे यही कहेगा कि “हमारे खाने-पीने” पर निगाह रखने की बजाय, आप टेलीकॉम में राजा के “भकोसने”, गेम्स में कलमाडी के “भकोसने”, लवासा और शक्कर में शरद पवार के “भकोसने”, हाईवे निर्माण में कमलनाथ के “भकोसने”, आदर्श सोसायटी में देशमुख-चव्हाण के “भकोसने” पर निगाह रखते… तो आज हमें यह दुर्दिन न देखना पड़ते…

यदि आप इतने ही कार्यकुशल होते तो निर्यात कम करते, सेंसेक्स और कमोडिटी बाज़ार में चल रही सट्टेबाजी को रोकने के कदम उठाते, कालाबाज़ारियों पर लगाम लगाते, बड़े स्टॉकिस्टों और होलसेलरों की नकेल कसते, शरद पवार को बेवकूफ़ी भरी बयानबाजियों से रोकते… तब तो हम जैसे आम आदमी कुछ “खाने-पीने” की औकात में आते… लेकिन यह तो आपसे हुआ नहीं, बस बैठेबिठाए बयान झाड़ दिया कि “लोग ज्यादा खाने लगे हैं…”।

दिल्ली के एसी कमरों में बैठकर आपको क्या पता कि दाल कितने रुपये किलो है, दूध कितने रुपये लीटर है और सब्जी क्या भाव मिल रही है? फ़िल्म दूल्हे राजा में प्रेम चोपड़ा का प्रसिद्ध संवाद है… “नंगा नहायेगा क्या और निचोड़ेगा क्या…”… यही हालत आम जनता की है जनाब…। अपनी आँखें गरीबों के "खाने" पर लगाने की बजाय, दिल्ली के सत्ता गलियारों में बैठे “भकोसने वालों” पर रखिये… इसी में आपका भी भला है और देश का भी…
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(“खाने” और “भकोसने” के बीच का अन्तर तो आपको पता ही होगा या वह भी मुझे ही बताना पड़ेगा? चलिये बता ही देता हूं… येद्दियुरप्पा ने अपने बेटों को 10-12 एकड़ जमीन बाँटी उसे कहते हैं "खाना", तथा देवेगौड़ा और एसएम कृष्णा ने अपने बेटों को 470 एकड़ जमीन बाँटी, इसे कहते हैं "भकोसना"…। बंगारू लक्ष्मण ने कैमरे पर जो रुपया लिया उसे कहते हैं "खाना", और हरियाणा में जो "सत्कर्म" भजनलाल-हुड्डा करते हैं, उसे कहते हैं "भकोसना")…

ना ना ना ना ना ना…प्रधानमंत्री जी,  इस गणित में सिर मत खपाईये कि 60 साल में कांग्रेस ने कितना "भकोसा" और भाजपा ने कितना "खाया"… सिर्फ़ इतना जान लीजिये कि भारत में अभी भी 30% से अधिक आबादी को कड़े संघर्ष के बाद सिर्फ़ एक टाइम की रोटी ही मिल पाती है… "खाना और भकोसना" तो दूर की बात है… जनता की सहनशक्ति की परीक्षा मत लीजिये…
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हाल ही में एक और पाकिस्तानी “सोफ़िस्टिकेटेड भिखमंगे” राहत फ़तेह अली खान को भारतीय कस्टम अधिकारियों ने गैरकानूनी रूप से सवा लाख डालर की राशि अपने साथ दुबई ले जाते हुए पकड़ा। स्पष्ट तौर पर यह सारा पैसा उसका अकेले का नहीं था, और न ही कानूनी रुप से उसने यहाँ कमाया। निश्चित रुप से यह पैसा, भारतीय फ़िल्म उद्योग में “ऊँचे-ऊँचे आदर्श बघारने” और “आये दिन सेकुलर नसीहतें” वाले कुछ फ़िल्मकारों एवं संगीतकारों का है जो कि हवाला रैकेट के जरिये पाकिस्तान होते हुए दुबई पहुँचता रहा है। (Rahat Fateh Ali Khan and Hawala Racket

खैर “हवाला कनेक्शन” एक अलग मामला है और जब इतनी बड़ी राशि के स्रोतों की जाँच होगी तो कुछ चौंकाने वाले भारतीय नाम भी सामने आ सकते हैं… परन्तु इस लेख में मैं पाठकों के सामने इस मुद्दे से जुड़े “राष्ट्रवाद” के पहलू पर चार विभिन्न उदाहरण देकर ध्यान आकर्षित करवाना चाहता हूँ…



केस क्रमांक 1) - इंग्लैण्ड में पाकिस्तान के तीन क्रिकेट खिलाड़ी (फ़िर पाकिस्तानी) मोहम्मद आसिफ़, आमेर और सलमान बट को “स्पॉट फ़िक्सिंग” (Spot Fixing and Pakistan)  के मामले में दोषी पाया गया। एक जुआरी (बुकी) ने कैमरे पर इन तीनों का नाम भी लिया और एक वीडियो में ये तीनों खिलाड़ी उस सट्टेबाज से “कोट” की अदला-बदली करते दिखाई दिये (ज़ाहिर है कि कोट में इन खिलाड़ियों को मिलने वाला पैसा ठुंसा हुआ था)। इस मामले में ब्रिटेन “अपने देश के कानूनों” के मुताबिक इन तीनों खिलाड़ियों के खिलाफ़ केस दर्ज किया, मामले की जाँच की, उन्हें दोषी भी पाया और इस लिखित शर्त पर, कि जब भी इस केस में सुनवाई और सजा के लिये इनकी जरुरत पड़ेगी तभी उन्हें पाकिस्तान जाने की इजाजत दी गई…


केस क्रमांक 2) – अमेरिका के “ट्राईवैली” (Tri-Valley University Fraud)  नामक फ़र्जी विश्वविद्यालय ने भारत के कुछ छात्रों को धोखाधड़ी से “एडमिशन” का झाँसा देकर पैसा वसूल कर लिया। भारत के ये छात्र उस समय अमेरिका में पकड़े गये, जब जाँच में पाया गया कि वह यूनिवर्सिटी फ़र्जी है और इसलिये ये छात्र बिना वैध अनुमति के अमेरिका में “घुसपैठ” के दोषी माने गये। इन छात्रों को “अमेरिका के कानूनों और नियमों” के मुताबिक इनके पैरों में बेड़ीनुमा इलेक्ट्रानिक उपकरण लगाकर रखने को कहा गया, जिससे यह छात्र किस जगह पर हैं यह पुलिस को पता चलता रहे…


केस क्रमांक 3) – पाकिस्तान में एक अमेरिकी रेमंड डेविस (Raymond Davis in Pakistan)  अपनी कार से जा रहा था, जिसे बीच रास्ते में दो लोगों ने मोटरसाइकल अड़ाकर रोका। तब उस अमेरिकी डेविस ने कार में से ही उन दोनों लोगों को गोली से उड़ा दिया, और अमेरिकी दूतावास से तत्काल मदद भी माँग ली। मदद के लिये आने वाली गाड़ी ने भी एक पाकिस्तानी को सड़क पर ठोक दिया और वह भी मारा गया, उसके गम में उसकी विधवा ने भी आत्महत्या कर ली। अब पाकिस्तान ने डेविस को पकड़ रखा है और “अपने देश के कानूनों” के अनुसार सजा देने की बात कर रहा है… पाकिस्तान में आक्रोश की लहर है।

केस क्रमांक 4)- जी हाँ, यही राहत फ़तेह अली खान (Pakistan Thanks Chidambaram)  वाला, जिसके बारे में विस्तार से सभी को पता ही है…


अब जैसा कि सभी जानते हैं, जैसे ही राहत फ़तेह अली खान को अवैध धनराशि के साथ पकड़ा गया उसी समय तत्काल पाकिस्तान ने आसमान सिर पर उठाना शुरु कर दिया। पाकिस्तान के गृहमंत्री और विदेश सचिवों ने भारत सरकार के सामने कपड़े फ़ाड़-फ़ाड़कर अपना रोना शुरु कर दिया… हमारे सेकुलर चैनलों ने मोटे तौर पर राहत के “अपराध” को हल्का-पतला बनाने और बताने की पुरज़ोर कोशिश की और पाकिस्तान द्वारा “भारत-पाकिस्तान के सम्बन्धों में दरार” जैसी गीदड़ भभकी के सुर में सुर मिलाते हुए हुँआ-हुँआ करना शुरु कर दिया… इन सभी के साथ जुगलबन्दी करने में महेश भट्ट (Mahesh Bhatt son with Hadley connection)  तो सदा की तरह “सेकुलर चैम्पियन” बनने की कोशिश कर ही रहे थे।

इस सारी “बुक्का-फ़ाड़ कवायद” का नतीजा यह निकला कि राहत फ़तेह अली खान को हिरासत में लेना तो दूर, भारतीय एजेंसियों ने 48 घण्टे तक यही तय नहीं किया कि FIR कैसी बनाई जाये और रिपोर्ट किन धाराओं में दर्ज की जाये, ताकि कहीं “सेकुलरिज़्म” को धक्का न पहुँच जाये और “अमन की आशा” (Aman ki Aasha)  का बलात्कार न हो जाये।

इन चारों मामलों की आपस में तुलना करने पर साफ़ नज़र आता है कि भारत चाहे खुद ही अपने “महाशक्ति” होने का ढोंग रचता रहे, “दुनिया में अपने कथित असर” का ढोल पीटता रहे, अपनी ही पीठ थपथपाता रहे… हकीकत यही है कि भारत के नेताओं और जनता के एक बड़े हिस्से में “राष्ट्रीय स्वाभिमान” और “राष्ट्रवाद” की भावना बिलकुल भी नहीं है। कड़वा सच कहा जाये तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की “इज्जत” दो कौड़ी की भी नहीं है, “दबदबा” तो क्या खाक होगा। ये हाल तब है जब भारत की जनता का बहुमत प्रतिशत जवानों का है परन्तु दुर्भाग्य से इस “जवान देश” पर ऐसे नेता राज कर रहे हैं और कब्जा जमाए बैठे हैं जो कभी भी कब्र में टपक सकते हैं।

ऊपर की चारों घटनाओं का संक्षिप्त विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि पहली घटना में इंग्लैण्ड ने पाकिस्तान को दो टूक शब्दों में कह दिया कि खिलाड़ियों पर अपराध सिद्ध हुआ है, वीडियो में पकड़े गये हैं, केस चलेगा और सजा भी अदालत ब्रिटिश कानूनों के मुताबिक देगी… शुरुआत में पाकिस्तान ने थोड़ी सी चूं-चपड़ की और हमेशा की तरह “पाकिस्तानियों की छवि (हा हा हा हा हा हा हा) को खराब करने की साजिश” बताया, लेकिन ब्रिटेन ने उसे कड़े शब्दों में समझा दिया कि जो भी होगा कानून के मुताबिक होगा… जल्दी ही पाकिस्तान को समझ में आ गया और उसकी आवाज़ बन्द हो गई।

दूसरे मामले में भारत के छात्रों को फ़र्जी यूनिवर्सिटी की गलती की वजह से विपरीत परिस्थितियों से गुज़रना पड़ा, लेकिन अमेरिका ने “अपने आव्रजन एवं घुसपैठ के नियमों” का हवाला देते हुए उन्हें एक कैदी की तरह पैरों में इलेक्ट्रोनिक बेड़ियाँ (Tri-Valley Radio Tagging)  लगाकर घूमने का निर्देश दिया…। भारत वाले चिल्लाते रहे, ओबामा तक ने ध्यान नहीं दिया… हमारी दो टके की औकात बताते हुए साफ़ कर दिया कि “जो भी होगा कानून के तहत होगा…”।

तीसरा मामला मजेदार है, इसमें पहली बार पाकिस्तान को अमेरिका की बाँह मरोड़ने का मौका मिला है और वह फ़िलहाल वह अब तक इसमें कामयाब भी रहा है। अमेरिका ने डेविस को छोड़ने के लिये पाकिस्तान पर दबाव और धमकियों का अस्त्र चलाया, डॉलर की भारी-भरकम मदद बन्द करने की धमकी दी… अमेरिका-पाकिस्तान के रिश्तों में दरार आ जायेगी, ऐसा भी हड़काया… लेकिन पाकिस्तान ने डेविस को छोड़ने से “फ़िलहाल” इंकार कर दिया है और कहा है कि “पाकिस्तान के कानूनों के मुताबिक जो भी सजा डेविस को मिलेगी, न्यायालय जो निर्णय करेगा वही माना जायेगा…”। “फ़िलहाल” शब्द का उपयोग इसलिये किया क्योंकि डेविस को लेकर पाकिस्तान अपनी “सदाबहार घटिया सौदेबाजी” करने पर उतरने ही वाला है… और पाकिस्तान ने अमेरिका को “ऑफ़र” किया है कि वह डेविस के बदले में पाकिस्तान के एक खूंखार आतंकवादी (यानी हाफ़िज़ सईद जैसा “मासूम”) को छोड़ दे। अभी उच्च स्तर पर विचार-विमर्श जारी है कि डेविस के बदले डॉलर लिये जायें या “मासूम”।

और अन्त में चौथा मामला देखिये, राहत फ़तेह अली खान को लेकर उधर पाकिस्तान के मीडिया ने कपड़े फ़ाड़ना शुरु किया, इधर हमारे “सेकुलर मीडिया” ने भी उसके सुर में सुर मिलाना शुरु किया, महेश भट्ट-अरुंधती जैसे “टट्टू” भी भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों की दुहाईयाँ देने लगे…। सरकार ने क्या किया… पहले तो सिर्फ़ पूछताछ करके छोड़ दिया, फ़िर पासपोर्ट जब्त किया… और थोड़ा हल्ला मचा, तो दोबारा गिरफ़्तारी की नौटंकी करवा दी… लेकिन 48 घण्टे तक न तो आधिकारिक FIR दर्ज हुई और न ही धाराएं तय हुईं…। सोचिये, जब एक भिखमंगा देश (जो दान के अमेरिकी डॉलरों पर गुज़र-बसर कर रहा है) तक अपने अन्नदाता अमेरिका को आँख दिखा देता है, और एक हम हैं जो खुद को “दुनिया के सबसे बड़े उभरते बाज़ार” को लेकर मगरूर हैं, लेकिन “स्वाभिमान” के नाम पर जीरो…

हमारे देश के नेता हमेशा इतना गैर-स्वाभिमानी तरीके से क्यों पेश आते हैं? राहत खान की सफाई ये है कि उन्हें सवा लाख डॉलर एक प्रोग्राम के एवज में मिले हैं। जबकि कानून के अनुसार अगर कोई व्यक्ति भारत में पैसा कमाता है तो उसे भारतीय करेंसी में ही पेमेंट हो सकता है। राहत फतेह अली खान के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। पिछले साल दिसंबर महीने में भी राहत को तय सीमा से ज्यादा नकद ले जाने की कोशिश करते हुए पकड़ा गया था। सूत्रों का कहना है कि उस वक्त उनके पास ज्यादा कैश नहीं था इसलिए उन्हें सिर्फ चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था। सूत्रों का यह भी कहना है कि उन्होंने अपने 7 बड़े कार्यक्रमों की कमाई का 5.4 करोड़ रुपया दुबई के रास्ते लाहौर हवाला के जरिए ही पहुंचवाया (और हम निकम्मों की तरह “सेकुलरिज़्म” की चादर ओढ़े सोये रहे)। यह आदमी ऐसा कैसा “सूफ़ी गायक” है? क्या यही सूफ़ी परम्परा की नौटंकी है, कि “हिन्दी फ़िल्म में मुफ़्त में गाता हूँ…” कहकर चुपके से करोड़ों रुपया अंटी करता रहता है? (Rahat got money for programmes) इससे पहले भी एक और पाकिस्तानी गायक अदनान सामी (Adnan Sami Purchased Property in India) ने मुम्बई में 20 करोड़ रुपये की सम्पत्ति खरीद ली… भ्रष्टाचार में गले-गले तक सने हुए हमारे देश के अधिकारियों ने आँखें मूंदे रखीं, जबकि कोई पाकिस्तानी व्यक्ति भारत में स्थायी सम्पत्ति खरीद ही नहीं सकता… और “सेकुलरिज़्म” का हाल ये है कि भारत का कोई व्यक्ति पाकिस्तान तो छोड़िये, कश्मीर में ही ज़मीन नहीं खरीद सकता…।

राहत फ़तेह या अदनान सामी के मामले तो हुए तुलनात्मक रूप से “छोटे मामले” यानी आर्थिक अपराध, टैक्स चोरी और हवाला… लेकिन हम तो इतने नाकारा किस्म के लोग हैं कि देश की राजधानी में सरकार की नाक के नीचे यानी संसद पर हमले के दोषी को दस साल से खिला-पिला रहे हैं, आर्थिक राजधानी मुम्बई पर हमला करने वाला मजे मार रहा है और उसकी सुरक्षा में करोड़ों रुपया फ़ूँक चुके हैं… और ऐसा नहीं है कि ये पिछले 10-15 साल में आई हुई कोई “धातुगत कमजोरी” है, हकीकत तो यह है कि आज़ादी के बाद से ही हमारे नेताओं ने देश के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ किया है, न तो खुद कभी रीढ़ की हड्डी वाले बने और न ही जनता को ऐसा बनने दिया। पुरुलिया हथियार काण्ड (Purulia Arms Drop Case) के बारे में सभी लोग जानते हैं, एक विदेशी व्यक्ति हवाई जहाज लेकर आता है, भारत में हथियार गिराता है, हम उसे गिरफ़्तार करते हैं और रूस, लातविया और डेनमार्क द्वारा सिर्फ़ एक बार “डपट” दिये जाने पर दुम दबाकर उसे छोड़ देते हैं…। भोपाल में गैस लीक (Bhopal Gas Tragedy and Anderson) होती है, 15000 से अधिक इंसान मारे जाते हैं… और हम “”घिघियाए हुए कुत्ते” की तरह वॉरेन एण्डरसन की आवभगत भी करते हैं और उसे आराम से घर जाने देते हैं। देश की सबसे बड़ी (उस समय के अनुसार) पहली “लूट” यानी बोफ़ोर्स के आरोपी को हम उसके घर जाकर “क्लीन चिट” दे आते हैं… देश के भ्रष्ट और निकम्मे लोगों में कोई हलचल, कोई क्रान्ति नहीं होती।

1) पाकिस्तानी फ़िल्म “सरगम” में अदनान सामी की बीवी ज़ेबा के लिये आशा भोंसले ने “प्लेबैक” दिया था… पाक अधिकारियों ने फ़िल्म को तब तक प्रदर्शित नहीं होने दिया… जब तक अदनान सामी ने आशा भोंसले के गाने हटाकर हदिया कियानी की आवाज़ में गाने दोबारा रिकॉर्ड नहीं करवा लिये…

2) (वैसे ऐसा कभी होगा नहीं फ़िर भी) कल्पना कीजिये कि लाहौर हवाई अड्डे पर सोनू निगम सवा लाख डालर के साथ पकड़ा जाये और उस पैसे का हिसाब न दे तो उसके साथ क्या होगा?

3) “सेकुलरिज़्म की गन्दगी” का उदाहरण भी देखिये कि, जब देश के एक राज्य के सबसे सफ़ल मुख्यमंत्री को अमेरिका वीज़ा नहीं देता (Narendra Modi Denied Visa to US) तो यह मीडिया द्वारा यह “देश का अपमान” नहीं कहलाता, लेकिन जब एक “नचैये-भाण्ड” (Shahrukh Khan Detained at US Airport) को एयरपोर्ट पर नंगा करके तलाशी ली जाती है (वहाँ के कानूनों के मुताबिक) तो भूचाल आ जाता है और समूची “शर्मनिरपेक्षता” खतरे में आ जाती है…

उधर चीन अपनी हवाई सीमा में घुस आये अमेरिका के लड़ाकू विमानों को रोक लेता है और जब तक अमेरिका की नाक मोरी में नहीं रगड़ लेता, तब तक नहीं छोड़ता… जबकि इधर हमारी कृपा से ही आज़ाद हुआ बांग्लादेश सीमा सुरक्षा बल के जवानों की हत्या करके जानवरों की तरह उनकी लाशें टाँगकर भेजता है और हम सिर्फ़ “चेतावनी”, “बातचीत”, “कूटनीतिक प्रयास” इत्यादि में ही लगे रहते हैं…। प्रखर “राष्ट्रवाद” की भावना देशवासियों के दिल में इतनी नीचे क्यों चली गई है? दुनिया की तीसरी (या चौथी) सबसे बड़ी सेना, हर साल खरबों रुपये की हथियार खरीद, परमाणु अस्त्र-शस्त्र, मिसाइलें-टैंक… यह सब क्या “पिछवाड़े” में रखने के लिये हैं?

इस सवाल का जवाब ढूंढना बेहद आवश्यक है कि “राष्ट्र स्वाभिमान”, “गौरव” और “प्रखर राष्ट्रवाद” इतना क्यों गिर गया है, कि कोई भी ऐरा-गैरा देश हमें पिलपिलाये हुए चूहे की तरह क्यों लतिया जाता है और हम हर बार सिर्फ़ हें-हें-हें-हें-हें-हें करते रह जाते हैं? विदेशों में सरेआम हमारे देश का और देशवासियों का अपमान होता रहता है और इधर कोई प्रदर्शन तक नहीं होता, क्या इस पराजित मनोवृत्ति का कारण –

1) “नेहरुवादी सेकुलरिज़्म” है?

2) या “मैकाले की गुलाम बनाने वाली शिक्षा” है?

3) या “गाँधीवादी अहिंसा” का नपुंसक बनाने वाला इंजेक्शन है?

4) या अंग्रेजों और मुगलों की गुलामी का असर अब तक नहीं गया है?

5) या कुछ और है?  

या सभी कारण एक साथ हैं? आपको क्या लगता है…? एक मजबूत, स्वाभिमानी, अपने कानूनों का निष्पक्षता से पालन करवाने वाले देश के रूप में क्या कभी हम “तनकर खड़े” हों पायेंगे या इतनी युवा आबादी के बावजूद ऐसे ही “घिसटते” रहेंगे…? आखिर इसका निदान कैसे हो…? आप बतायें…
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जैसा कि सभी जानते हैं कर्नाटक के “महा”(महिम) हंसराज भारद्वाज “अपने मालिक” को खुश करने का कोई मौका कभी नहीं गंवाते। कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी और मनीष तिवारी की तरह ही “वकालत के पेशे को नई ऊँचाईयाँ”(?) देने वाले श्री हंसराज भारद्वाज ने इसी कड़ी में कर्नाटक में एक और गुल खिलाया है…

उल्लेखनीय है कि हाल ही में कर्नाटक में जस्टिस सोमशेखर ने 2008 में कुछ चर्च परिसरों पर हुए हमलों की जाँच की रिपोर्ट सौंपी, जिसमें उन्होंने साफ़ कहा कि चर्च पर हुए हमलों में संघ का कोई हाथ नहीं है, यह कुछ सिरफ़िरे लोगों एवं “एवेंजेलिस्टों” द्वारा हिन्दू भगवानों को दुर्भावनापूर्ण चित्रित करने के विरोध में व्यक्तिगत रुप से किया गया कृत्य है। जस्टिस सोमशेखर की इस रिपोर्ट से कर्नाटक के ईसाई नाराज़ हैं और उनका कहना है कि “इंसाफ़ नहीं हुआ” (यानी इंसाफ़ तभी माना जाता है, जब किसी हिन्दूवादी संगठन को दोषी माना जाये, तीस्ता भी यही चिल्लाती हैं)। कर्नाटक के राज्यपाल भारद्वाज साहब भी इस रिपोर्ट को लेकर खासे खफ़ा हैं (ज़ाहिर सी बात है…)।


बहरहाल, मामला यह है कि… कर्नाटक के एक अति-सम्माननीय इतिहासकार एवं कन्नड़ भाषा के सशक्त हस्ताक्षर श्री एम चिदानन्द मूर्ति (M. Chidananda Murty) को बंगलोर विश्वविद्यालय (Bangalore University) ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि देने का फ़ैसला किया। डॉ चिदानन्द मूर्ति की कर्नाटक में खासी इज्जत की जाती है और कन्नड़ भाषा में उनका योगदान अप्रतिम है। साहित्य की इस सेवा के सम्मान स्वरूप विश्वविद्यालय ने उन्हें यह मानद उपाधि देने का फ़ैसला किया था (चित्र :- प्रोफ़ेसर मूर्ति) । डॉ चिदानन्द जी ने जस्टिस सोमशेखर की रिपोर्ट (Justice Somshekhar Report Denied by Christians) पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सिर्फ़ इतना कहा था कि “किसी भी प्रकार का, जबरिया अथवा लालच, से किया गया धर्मान्तरण गलत है…”। अब इस वक्तव्य में भारद्वाज जी को पता नहीं कौन सी “साम्प्रदायिकता” दिखाई दे गई, उन्होंने “खुन्नस” में आकर बंगलोर विश्वविद्यालय के “कुलाधिपति” होने के अधिकार का प्रयोग करते हुए डॉ चिदानन्द मूर्ति को दी जाने वाली मानद उपाधि को रोकने का आदेश दे डाला।

अपने इस “कृत्य” को सही ठहराने के भौण्डे प्रयास में हंसराज जी ने कहा कि “मैं जस्टिस सोमशेखर की रिपोर्ट से बहुत हैरान और आहत हूं, साथ ही ईसाई समाज भी बहुत दुखी महसूस कर रहा है… ऐसे में प्रोफ़ेसर मूर्ति को यह बयान नहीं देना चाहिये था… इसलिये मैं फ़िलहाल “तात्कालिक” रुप से डॉ मूर्ति को दी जाने वाली उपाधि को कुछ समय रोकने का आदेश दे रहा हूँ… हमें यह देखना होगा कि डॉ चिदानन्द की “पृष्ठभूमि”(?) क्या है एवं राज्य के मुखिया होने के नाते मेरा यह कर्तव्य है कि मैं “साम्प्रदायिकता” बढ़ावा न दूं…। राज्य में कहीं भी धर्मान्तरण नहीं हो रहा है और अल्पसंख्यकों (यानी ईसाईयों) के हितों की देखभाल करना मेरी जिम्मेदारी है…”। इसे कहते हैं एक परम्परागत कांग्रेसी की सदाबहार “चर्च-भक्ति”, उल्लेखनीय है कि प्रोफ़ेसर चिदानन्द मूर्ति न तो भाजपा से जुड़े हुए हैं और न ही संघ-विहिप के सदस्य हैं, बल्कि कई बार उन्होंने भाजपा की नीतियों की आलोचना भी की है…

राज्यपाल के इस अप्रत्याशित निर्णय ने कर्नाटक के शैक्षिक एवं साहित्यिक जगत में भूचाल ला दिया… सभी उबल पड़े। प्रोफ़ेसर मूर्ति ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि “मुझे इस निर्णय पर आश्चर्य एवं दुख हुआ है, मैंने न तो कभी चर्च पर हमलों का समर्थन किया है न ही कभी ईसाईयों की स्थिति के बारे में कुछ कहा… मैंने सिर्फ़ जबरन या लालच के द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण को गलत बताया था…”। कर्नाटक के ही ख्यातनाम लेखक और ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त डॉ यूआर अनन्तमूर्ति (U R Ananthamurthy)  ने भी भारद्वाज को लताड़ लगाते हुए कहा कि “उन्हें अकादमिक लोगों को ऐसे फ़ूहड़ विवादों में नहीं घसीटना चाहिये, यह कन्नड़ भाषा और संस्कृति का भी अपमान है कि एक जाने-माने लेखक एवं इतिहासकार को सिर्फ़ एक बयान के आधार पर “साम्प्रदायिक” घोषित करने की कोशिश हो रही है और वह भी राज्य के सर्वोच्च मुखिया द्वारा…”। एक अन्य प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक चन्द्रशेखर पाटिल ने कहा कि “भाजपा की सरकार को बर्खास्त करने के बहाने ढूंढ रहे राज्यपाल ने ईसाईयों के हितों की आड़ लेकर यह गलत परम्परा डालने की शुरुआत की है, जो कि निन्दनीय है… हम न तो चर्च पर हुए हमलों के पक्ष में हैं और न ही ईसाईयों के विरोध में हैं, लेकिन भारद्वाज साफ़ तौर पर कांग्रेस के एजेण्ट के रुप में काम कर रहे हैं…”। (असल में सभी जानते हैं कि भारद्वाज कांग्रेस को नहीं, बल्कि “माइनो” या कहें कि प्रकारान्तर से “चर्च” को खुश करने के लिये यह सब कर रहे हैं…)

इससे पहले भी कई बार अन्य कई राज्यों में चर्च पर हुए हमलों की जाँच में संघ का हाथ होने की बजाय चर्च की अन्दरूनी राजनीति और कर्मचारी ही निकले । सुप्रीम कोर्ट ने भी हाल ही में दारासिंह-ग्राहम स्टेंस मामले में माना था (Supreme Court Judgement modified) कि “धर्मान्तरण” और एवेंजेलिस्टों की नापाक गतिविधियों की वजह से समाज में तनाव बढ़ रहा है, परन्तु हर बात के लिये “संघ-भाजपा” को दोषी ठहराने से “अल्पसंख्यक” खुश होते हैं… यह बात भारद्वाज भी जानते हैं और दिग्विजय सिंह भी…। खैर ये बेचारे भी क्या करें, इन्हें भी तो “ऊपर” से दिया गया “”आदेश” मानना पड़ता है…

ताज़ा स्थिति यह है कि चौतरफ़ा आलोचना और मीडिया द्वारा इस मुद्दे पर साथ न देने की वजह से हंसराज भारद्वाज को अपना आदेश वापस लेना पड़ा, हालांकि “महामहिम” ने इस सम्बन्ध में कोई आधिकारिक खेद व्यक्त नहीं किया…। इस घटना से साफ़ है कि जहाँ एक तरफ़ तो “चर्च” का दबाव उच्च संस्थाओं पर बढ़ता ही जा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह भी स्थापित होता है कि संघ-भाजपा के पक्ष में बोलने भर से, अथवा नरेन्द्र मोदी जैसों के साथ दिखाई देने भर से, आप “साम्प्रदायिक” घोषित हो जाते हैं…, “अछूत” करार दिये जा सकते हैं…। सोचिये जब इस बुढ़ापे में और इतने उच्च पद पर आसीन व्यक्ति मन में ऐसी “क्षुद्र खुन्नस” रखेगा, तो इस लोकतन्त्र का मालिक “ऊपरवाला” ही है…
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चलते-चलते : एक बार फ़िर से “चर्च” (बल्कि नक्सलवादियों-माओवादियों) के बेनकाब होने की खबर भी पढ़ लीजिये…(पहले यहाँ आप पढ़ चुके हैं… Church in favour of Binayak sen)

केरल काउंसिल ऑफ़ चर्च (KCC) जो कि विभिन्न कैथोलिक चर्चों का एक समूह संगठन है, उसने छत्तीसगढ़ में बिनायक सेन, नारायन सान्याल एवं पीयूष गुहा के प्रति अपना समर्थन जताया है (ज़ाहिर है भई, “अपने” लोगों के प्रति चर्च तो समर्थन दिखाएगा ही)। KCC के प्रवक्ता फ़िलिप एन थॉमस ने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मानवाधिकारों के हनन के विरोध और निर्दोष नागरिकों पर हो रहे ज़ुल्म के खिलाफ़ हमारा नैतिक समर्थन जारी रहेगा…। बिनायक सेन के प्रति अपना समर्थन जताने के लिये थिरुवल्ला स्थित एमएम थॉमस मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा 9 फ़रवरी को एक सभा आयोजित की गई, जिसमें “मानवाधिकारों” को लेकर (अर्थात हिन्दुओं के मानवाधिकार छोड़कर) सतत चिन्तित रहने वाले संगठनों ने अपनी चिंता ज़ाहिर की… (Kerala Council of Churches) । चर्च और नक्सलवादियों के गठजोड़ के बारे में लगातार खबरें आती रहती हैं, लेकिन वामपंथियों को यह समझ नहीं रहा (या शायद समझना नहीं चाहते) कि एक बड़ी साजिश के तहत उनका “उपयोग” किया जा रहा है…। रायपुर में विदेशियों की आवक अचानक बढ़ गई है, विभिन्न देशों के 35-40 नोबल पुरस्कार विजेताओं को “घेरकर-हाँककर” कर लाना फ़िर उनसे बिनायक सेन के समर्थन में रैली आयोजित करवाना तथा उड़ीसा में बड़ी सफ़ाई से स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या करवाना जैसे बड़े काम, किसी “ऐरे-गैरे” के बस की बात नहीं है भईया…
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पिछले लेख में भी कहा था, कि भई हम तो “चौकीदार” हैं (साहित्यकार या लेखक होने का मुगालता अपन पालते नहीं है), सीटी बजाना हमारा काम है… आप जागेंगे या नहीं, यह आप पर निर्भर है…
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केरल में भारत के पहले इस्लामिक बैंक की स्थापना करवाने के लिये “सेकुलर”, “मानवाधिकारवादी” और “वामपंथी” काफ़ी समय से जोर-आज़माइश कर रहे हैं। डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर सुनवाई करते हुए केरल हाईकोर्ट ने इस सम्बन्ध में अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि “यदि भारत के कानून इसकी अनुमति देते हैं तो यह जायज़ है…”, इस स्पष्ट निर्णय के बावजूद “भाण्ड” मीडिया ने इस खबर को ऐसे चलाया मानो केरल हाईकोर्ट ने इस्लामिक बैंक (Islamic Banking in India) की राह से रोड़े हटा दिये हों। जबकि केरल हाईकोर्ट ने वही कहा है, जो डॉ स्वामी (Dr. Subramaniam Swami) की मुख्य आपत्ति थी… अर्थात “भारत का संविधान एवं कानूनी धाराओं के चलते भारत में इस्लामिक बैंक की स्थापना नहीं की जा सकती…”। ठीक यही वक्तव्य रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने और वित्त मंत्रालय ने भी दिया है कि जब तक संविधान में संशोधन नहीं किया जाता, तब तक इस्लामिक बैंक की स्थापना नहीं की जा सकती।



केरल हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में डॉ स्वामी (Dr. Subramanian Swamy) के उठाये हुए बिन्दुओं को सही मानते हुए सरकार से कहा है कि भारत की “धर्मनिरपेक्ष” सरकार किसी “धर्म विशेष” के पर्सनल कानूनों के तहत किसी व्यावसायिक गतिविधि में शामिल नहीं हो सकती, यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ़ है। हाँ… यदि सरकार संसद में बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट एवं रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया एक्ट में पर्याप्त बदलाव करे, सिर्फ़ तभी इस्लामिक बैंक की स्थापना की जा सकती है, ऐसा हो पाना अभी सम्भव नहीं है।

अरब देशों में कार्यरत अल-बराक फ़ाइनेंस कम्पनी ने इस्लामिक बैंक हेतु दो बार आवेदन किया है, लेकिन दोनों बार वह खारिज किया जा चुका है। रिज़र्व बैंक ने हलफ़नामा दाखिल करके हाईकोर्ट को बताया है कि अल-बराक का दावा झूठा है और रिज़र्व बैंक ने कभी भी अल-बराख फ़ाइनेंशियल सर्विस लिमिटेड (ABFSL) को किसी भी प्रकार का रजिस्ट्रेशन सर्टिफ़िकेट जारी नहीं किया है। गवर्नर डी सुब्बाराव ने स्पष्ट कहा कि भारत के वर्तमान कानूनों के दायरे में “बिना ब्याज” की किसी बैंक की स्थापना नहीं की जा सकती, इसके लिये अलग से कानून बनाना पड़ेगा।


इस लताड़ के बावजूद भारत के “सेकुलर जेहादी” जो हमारे टैक्स के पैसों को चूना लगाने के आदी हो चुके हैं, यहाँ पर इस्लामिक बैंक की स्थापना के लिये एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। जबकि उधर धुर-इस्लामिक देश कतर (Qatar) (जी हाँ वही कतर, जहाँ इधर का एक भगोड़ा फ़ूहड़ चित्रकार नागरिकता लिये बैठा है) में इस्लामिक बैंक को बन्द करने की तैयारी चल रही है… जी हाँ, कतर के सेन्ट्रल बैंक ने अपने पारम्परिक इस्लामिक बैंक की सेवाएं समाप्त करने का “सर्कुलर” जारी कर दिया है। सभी ग्राहकों एवं ॠण लेने वालों को इस वर्ष 31 दिसम्बर तक की मोहलत दी गई है। इस घोषणा से कतर नेशनल बैंक के शेयर एक ही दिन में 5 प्रतिशत गिर गये, यह बैंक भी इस्लामिक शरीया कानूनों (Islamic Sharia Laws) के तहत ॠण देती है… विस्तार से खबर यहाँ पढ़ें…

http://www.emirates247.com/business/corporate/qatar-bans-banks-islamic-units-2011-02-06-1.352424

“सेकुलर जेहादियों” और “वामपंथी रुदालियों” के लिये इस्लामिक बैंक से ही सम्बन्धित एक अन्य खबर ब्रिटेन से भी है। ब्रिटेन की पहली शरीयत आधारित बैंक के संस्थापक सदस्यों में से एक जुनैद भट्टी कहते हैं कि “ब्रिटेन में इस्लामिक बैंकिंग का प्रयोग बेहद निराशाजनक रहा है, पिछले चार साल से हम इसे सुचारु करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन यह किसी तरह घिसट-घिसट कर ही चल पा रहा है, अब इसे लम्बे समय तक चलाये रखना मुश्किल है…”। इसी प्रकार इंस्टीट्यूट ऑफ़ इस्लामिक बैंकिंग एण्ड इंश्योरेंस के डायरेक्टर मोहम्मद कय्यूम कहते हैं कि, “मुस्लिम जनसंख्या में इस प्रकार की बैंकिंग के लिये जनजागरण की आवश्यकता है, क्योंकि अन्य प्रतिस्पर्धी बैंक इस्लामिक बैंक की तुलना में काफ़ी कम दरों पर अपने उत्पाद बेच रहे हैं और अधिक ब्याज़ या ज्यादा मुनाफ़ा कोई भी खोना नहीं चाहता…”।

http://www.theaustralian.com.au/business/industry-sectors/sharia-compliant-banking-products-a-huge-flop-in-britain/story-e6frg96f-1225882133009

इस सब के बावजूद भारत में वामपंथियों-सेकुलरों और जेहादियों के गठजोड़ लगातार भारत में इस्लामिक बैंकिंग शुरु करवाने के लिये मरे जा रहे हैं…

बहरहाल… प्रधानमंत्री द्वारा मलेशिया में दिये गये भाषण (Manmohan on Islamic Banking) को देखकर लगता है कि सरकार इस्लामिक बैंकिंग के लिये संसद में कानून भी ला सकती है (“सेकुलरिज़्म” गया भाड़ में) क्योंकि उसके बिना यह सम्भव नहीं होगा…। वैसे भी उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में कहा है कि सरकार सिर्फ़ “हिन्दुओं के कानून” ही बदलती है… यही है असली कांग्रेसी और वामपंथी सेकुलरिज़्म। इसके जिम्मेदार भी “हिन्दू” ही हैं, जो आज तक कभी राजनैतिक रुप से एकजुट नहीं हो पाए… और जब कोई कोशिश करता है तो उसकी टाँग खींचकर नीचे लाने में जुट जाते हैं… (मुम्बई शेयर बाज़ार में तो शरीयत आधारित इस्लामिक इंडेक्स (TASIS BSE Index) शुरु हो ही गया, हिन्दुओं ने क्या उखाड़ लिया?)।

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चलते-चलते :- जिस तरह से अकेले दम पर पिछले 4-5 साल में डॉ स्वामी ने सोनिया-राहुल-मनमोहन-चिदम्बरम और करुणानिधि की नींद उड़ाई है उसे देखते हुए उनकी सुरक्षा पर गम्भीर खतरा मंडरा रहा है। उन्होंने रामसेतु (Ram Sethu) को टूटने से बचाया, इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों के फ़र्जीवाड़े (Electronic Voting Machine Fraud)  को अपनी पुस्तक में विस्तार से उजागर किया, इस्लामिक बैंकिंग की राह में रोड़ा बने हुए हैं (Ban on Islamic Banking), राजा बाबू और मनमोहन के पीछे 2G को लेकर केस दायर किये हैं (2G Spectrum Case), चेन्नै में चिदम्बरम मन्दिर को कमीनिस्टों और नास्तिकों के हाथ में जाने से बचाया… और अभी भी 73 वर्ष की आयु में लगातार सरकार को सुप्रीम कोर्ट में घसीटने में लगे हुए हैं…। एक अकेला व्यक्ति जब इतना काम कर सकता है तो भाजपा इतना बड़ा संगठन और संसाधन लेकर क्या कर रही है? क्या स्वामी की सक्रियता को देखकर किसी भी बड़े विपक्षी नेता को शर्म, ग्लानि अथवा ईर्ष्या नहीं होती? जिस तरह डॉ स्वामी, बाबा रामदेव, किरण बेदी, अरविन्द केजरीवाल (अधिकतर नेता तो _______ हैं, परन्तु राजनीतिज्ञों में अकेले नरेन्द्र मोदी…) जैसे लोग जिस प्रकार कांग्रेस की “नाक मोरी में रगड़ रहे” हैं, इसे देखते हुए इन लोगों की सुरक्षा की चिंता होना स्वाभाविक है…, क्योंकि कांग्रेसी भले ही भाजपा और संघ को हमेशा “फ़ासिस्ट” कहती रहती हों… इनका खुद का इतिहास “आपातकाल” और “सिखों के कत्लेआम” से रंगा पड़ा है। दुआ करें कि डॉ स्वामी सुरक्षित रहें…
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मॉस्को (रूस) में बोल्शेविक क्रांति के नेता व्लादिमीर लेनिन का शव उनकी मौत के पश्चात रासायनिक लेप लगाकर सन 1924 से रखा हुआ है। मॉस्को के लाल चौक पर एक म्यूजियम में रखे हुए व्लादिमीर लेनिन के इस शव (बल्कि “ममी” कहना उचित है) को देखने देश-विदेश से पर्यटक आते हैं। हाल ही में रूस की यूनाइटेड रशिया पार्टी (वहाँ की सरकारी राजनैतिक पार्टी) ने ''www.goodbyelenin.ru'' वेबसाइट पर एक सर्वे करवाया कि “क्यों न अब लेनिन के शव को वहाँ से निकालकर दफ़ना दिया जाये…” पाठकों से “हाँ” या “ना” में जवाब माँगे गये थे। लेनिन के शव को दफ़नाया जाये अथवा नहीं इसे लेकर रूस के विभिन्न इलाके के 1600 लोगों की राय ली गई। वैसे रूस की सरकार सैद्धान्तिक रुप (Michael Gorbachev's View) से लेनिन के शव को दफ़नाने की इच्छुक है।



यह तो हुई उस देश की बात… लेनिन (Vladimir Lenin) के शव को दफ़नाने की बात पर हजारों किमी दूर यहाँ भारत में वामपंथियों ने प्रदर्शन कर डाला (नीचे का चित्र देखें…)। सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ़ इंडिया (कम्युनिस्ट) (SUCI) के कार्यकर्ताओं ने बंगलोर में रूस के इस कदम की आलोचना की और रूस विरोधी नारे लगाये… एक ज्ञापन सौंपा गया और माँग की गई कि लेनिन के शव को नहीं दफ़नाया जाये…। (यह खबर पढ़कर कुछ को हँसी आ रही होगी, कुछ को आश्चर्य हो रहा होगा, जबकि कुछ को वामपंथी “बौद्धिक कंगलेपन” पर गुस्सा भी आ रहा होगा)… अब आप खुद ही सोचिये कि रूस की सरकार, लेनिन के शव को दफ़नायें या जलायें या वैसे ही रखे रहें, इससे भारत के लोगों को क्या मतलब? कहाँ तो एक तरफ़ वामपंथी लोग आये दिन "हिन्दू प्रतीकों" को दकियानूसी बताकर खुद को “नास्तिक” प्रचारित करते फ़िरते हैं और कहाँ तो लेनिन की बरसों पुरानी लाश को लेकर इतने भावुक हो गये कि यहाँ भारत में प्रदर्शन कर डाला? कहाँ तो वे हमेशा “वैचारिक जुगालियों” और “बौद्धिक उल्टियों” के जरिये भाषण-दर-भाषण पेलते रहते हैं और लेनिन के शव को दफ़नाने के नाम से ही उन्हें गुस्सा आने लगा? क्या लेनिन के शव को दफ़नाने से उनके विचार खत्म हो जाएंगे? नहीं। तो फ़िर किस बात का डर? सरकार रूस की है, लेनिन रूस के हैं… वह उस “ममी” के साथ चाहे जो करे… यहाँ के वामपंथियों के पेट में मरोड़ उठने का कोई कारण समझ नहीं आता।




लेकिन जो लोग यहाँ की जड़ों से कटे हुए हों, जिनके प्रेरणास्रोत विदेशी हों, जिनकी विचारधारा “बाहर से उधार” ली हुई हो… वे तो ऐसा करेंगे ही, इसमें आश्चर्य कैसा? चीन में बारिश होती है तो ये लोग इधर छाता खोल लेते हैं, रूस में सूखा पड़ता है तो इधर के वामपंथी खाना कम कर देते हैं, क्यूबा में कास्त्रो (Fidel Castro) की तबियत खराब होती है तो भारत में दुआएं माँगने लग पड़ते हैं… ऐसे विचित्र किस्म के लोग हैं ये।

लेनिन का शव अगले सौ साल रखा भी रहे या दफ़ना दिया जाये, उससे हमें क्या लेना-देना? हद है मानसिक दिवालियेपन और फ़ूहड़ता की…। मजे की बात तो यह है कि इस सर्वे में भाग लेने वाले 1600 लोगों में से 74% लोग लेनिन को दफ़नाने के पक्ष में थे और 26% उसे रखे रहने के…। जो 26% लोग लेनिन के शव को बनाये रखना चाहते हैं उनमें भी बड़ा प्रतिशत ऐसा इसलिये कह रहा है कि क्योंकि “लेनिन के शव से पर्यटक आते हैं…” (यानी श्रद्धा-वद्धा कुछ नहीं, कमाई होती है इसलिये)। साफ़ है कि रूस के लोग तो वामपंथ के खोखले आदर्शों से काफ़ी आगे बढ़ चुके हैं, चीन तो कभी का वाम विचारधारा को तिलांजलि दे चुका है… लेकिन इधर भारत में अभी भी ये लोग इसे मुँह तक ओढ़े बैठे हैं, जबकि बाहर दुनिया बदल चुकी है… इन्हें पता ही नहीं है। जब कोई “राष्ट्रवाद” की बात करता है तो ये कुनैन की गोली खाये जैसा मुँह बनाते हैं… हिन्दुत्व को कोसते-कोसते अब ये भारतीय संस्कृति और भारत की मिट्टी से पूर्णतः कट चुके हैं…। इन्हें तो यह भी पता नहीं है कि आदिवासी इलाकों में इस “कथित वामपंथ” को अब “चर्च” अपने हित साधने के लिये “चतुर स्टाइल” से टिश्यू पेपर की तरह इनका इस्तेमाल कर रहा है…

बहरहाल, चलते-चलते यह भी जानते जाईये कि मुम्बई हमले के अमर शहीद संदीप उन्नीकृष्णन (Sandeep Unnikrishnan) की शवयात्रा में केरल की वामपंथी सरकार का एक भी नुमाइन्दा मौजूद नहीं था…(शायद संदीप के पिता द्वारा अच्युतानन्दन को घर से धकियाए जाने का बदला ले रहे होंगे…), और अब संदीप के चाचा ने कसाब (Ajmal Kasab) और अफ़ज़ल (Afzal Guru) को दामाद बनाये रखने के विरोध में आत्मदाह कर लिया, तब भी वामपंथियों ने कोई प्रदर्शन नहीं किया, ज़ाहिर है कि उन्हें लेनिन के शव की चिन्ता अधिक है…, ठीक उसी प्रकार जैसे छत्तीसगढ़ में एक "कथित मानवाधिकारवादी" के जेल जाने की चिन्ता अधिक है, लेकिन पिछले 10-12 दिनों से अपहृत पुलिस के जवानों की कोई चिन्ता नहीं…।

अब आप सोच-सोचकर माथा पीटिये, कि लेनिन को दफ़नाने या न दफ़नाने से भारत का क्या लेना-देना है यार…?

स्रोत :
http://www.sify.com/news/60-percent-of-russians-want-lenin-s-body-to-be-buried-news-international-lcdjucbghia.html


http://news.in.msn.com/international/article.aspx?cp-documentid=4831649
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(भाग-1 से आगे जारी…)
आप सोच रहे होंगे कि बिनायक सेन तो नक्सलवादियों के समर्थक हैं, उनका चर्च से क्या लेना-देना? यहीं आकर “भोला-भारतीय मन” धोखा खा जाता है, वह “मिशनरी” और “चर्च” के सफ़ेद कपड़ों को “सेवा और त्याग” का पर्याय मान बैठा है, उसके पीछे की चालबाजियाँ, षडयन्त्र एवं चुपके से किये जा रहे धर्मान्तरण को वह तवज्जो नहीं देता। जो इसके खिलाफ़ पोल खोलना चाहता है, उसे “सेकुलरिज़्म” एवं “गंगा-जमनी तहजीब” के फ़र्जी नारों के तहत हँसी में उड़ा दिया जाता है। असल में इस समय भारत जिन दो प्रमुख खतरों से जूझ रहा है वह हैं “सामने” से वार करने वाले जिहादी और पीठ में छुरा मारने वाले मिशनरी पोषित NGOs व संगठन। सामने से वार करने वाले संगठनों से निपटना थोड़ा आसान है, लेकिन मीठी-मीठी बातें करके, सेवा का ढोंग रचाकर, पीठ पीछे छुरा घोंपने वाले से निपटना बहुत मुश्किल है, खासकर जब उसे देश में “उच्च स्तर” पर “सभी प्रकार का” (Article about Sonia Gandhi) समर्थन मिल रहा हो… 

खैर, बात हो रही थी बिनायक सेन की… ध्यान दीजिये कि कैसे उनके पक्ष में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर माहौल बनाया गया, तमाम मानवाधिकार संगठन और NGOs रातोंरात मीडिया में एक लोअर कोर्ट के निर्णय को लेकर रोना-पीटना मचाने लगे, यह सब ऐसे ही नहीं हो जाता है, इसके लिये चर्च की जोरदार “नेटवर्किंग” और “फ़ण्डिंग” चाहिये। उल्लेखनीय है कि बिनायक सेन के इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट अर्थात “ISI” से भी सम्बन्ध हैं।  इस “भारतीय ISI” (Indian ISI) के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टरों की सूची, इसका इतिहास, इसके कामों को देखकर शंका गहराना स्वाभाविक है… इस संस्था की स्थापना सन 1951 में फ़ादर जेरोम डिसूजा द्वारा नेहरु के सहयोग से की गई थी, वह वेटिकन एवं नेहरु के बीच की कड़ी थे। पुर्तगाल सरकार द्वारा भारतीय चर्चों के कब्जे से मुक्ति दिलाने हेतु उस समय फ़ादर जेरोम, नेहरु एवं वेटिकन मिलजुलकर काम किया। यह जाँच का विषय है कि बिनायक सेन के इस भारतीय ISI से कितने गहरे सम्बन्ध हैं? डॉ सेन, जंगलों में गरीब आदिवासियों की सेवा करने जाते थे या किसी और काम से? 

इस संस्था की पूरी गम्भीरता से जाँच की जाना चाहिये…

1) कि इस संस्था के जो विभिन्न केन्द्र देश भर में फ़ैले हुए हैं,

2) उन्हें (यदि अर्ध-सरकारी है तो) भारत सरकार की तरफ़ से कितना अनुदान मिलता है,

3) (यदि गैर-सरकारी है तो) विदेशों से कितना पैसा मिलता है,

4) 1951 में इसका “स्टेटस” क्या था और इस संस्था का वर्तमान “स्टेटस” क्या है, सरकारी, अर्ध-सरकारी या गैर-सरकारी?,

5) यदि सरकारी है, तो इसके बोर्ड सदस्यों में 95% ईसाई ही क्यों हैं? सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में इस संस्था द्वारा किये जा रहे कार्य, गरीबों की सेवा के नाम पर खड़े किये गये सैकड़ों NGOs की पड़ताल, इस संस्था का धर्मान्तरण के लिये “कुख्यात” World Vision Conspiracy of Conversion नामक संस्था से क्या सम्बन्ध है? जैसे कई प्रश्न मुँह बाये खड़े हैं…

लेकिन जैसा कि मैंने कहा सत्ता-पैसे-नेटवर्क का यह गठजोड़ इतना मजबूत है, और बिकाऊ मीडिया को इन्होंने ऐसा खरीद रखा है कि “चर्च” के खिलाफ़ न तो कोई खबर छपती है, न ही इसके कारिन्दों-फ़ादरों-ननों (Indian Church Sex Scandals) आदि के काले कारनामों (Sister Abhaya Rape/Murder Case) पर मीडिया में कोई चर्चा होती है… और अब तो ये भारत की न्यायिक व्यवस्था को भी आँखें दिखाने लगे हैं… इनका साथ देने के लिये वामपंथी, सेकुलर्स एवं कथित मानवाधिकारवादी भी सदैव तत्पर रहते हैं, क्योंकि ये सभी मिलकर एक-दूसरे की पीठ खुजाते हैं…।

तीस्ता सीतलवाड को फ़र्जी गवाहों और कागज़ातों के लिये कोर्ट लताड़ लगाता है, तब मीडिया चुप…, तीस्ता “न्याय”(?) के लिये विदेशी संस्थाओं को निमंत्रण देती है, सुप्रीम कोर्ट नाराज़ होकर जूते लगाता है… तब मीडिया चुप…, शाहबानो मामले में खुल्लमखुल्ला सुप्रीम कोर्ट को लतियाकर राजीव गाँधी मुस्लिमों को खुश करते हैं… तब भी मीडिया चुप…, ए राजा के मामले में, आदर्श सोसायटी मामले में, कॉमनवेल्थ मामले में, और अब CVC थॉमस की नियुक्ति के मामले में सुप्रीम कोर्ट आये-दिन लताड़ पर लताड़ लगाये जा रहा है, कोई और प्रधानमंत्री होता तो अब तक शर्म के मारे इस्तीफ़ा देकर घर चला गया होता, लेकिन मनमोहन सिंह को यह काम भी तो “पूछकर ही” करना पड़ेगा, सो नहीं हो पा रहा…। मीडिया या तो चुप है अथवा दिग्विजय सिंह को “कवरेज” दे रहा है…

जेहादियों के मुकाबले “चर्च” अधिक शातिर है, दिमाग से गेम खेल रहा है… हिन्दुओं को धर्मान्तरित करके उनके नाम नहीं बदलता, बस उनकी आस्था बदल जाती है… आपको पता भी नहीं चलता कि आपके पड़ोस में बैठा हुआ “हिन्दू नामधारी” व्यक्ति अपनी आस्था बदल चुका है और अब वह चर्च के लिये काम करता है…। स्वर्गीय (Rajshekhar Reddy) राजशेखर रेड्डी इसका साक्षात उदाहरण है… इसी प्रकार स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या का प्रमुख आरोपी एवं षडयन्त्रकारी उड़ीसा से कांग्रेस का राज्यसभा सदस्य राधाकान्त नायक (Radhakant Nayak) (क्या सुन्दर हिन्दू नाम है) भी “फ़ुल” ईसाई है, World Vision का प्रमुख पदाधिकारी भी है। पहले तो चर्च ने बहला-फ़ुसलाकर दलितों-आदिवासियों को ईसाई बना लिया, नाम वही रहने दिया ताकि “आरक्षण” का लाभ मिलता रहे, और अब “दलित-ईसाई” नामक अवधारणा को भी आरक्षण की माँग हो रही है… यानी “ओरिजिनल दलितों-पिछड़ों” के हक को मारा जायेगा…और आदिवासी इलाकों में बिनायक सेन जैसे "मोहरे" फ़िट कर रखे हैं… इसीलिये मैंने कहा कि सामने से वार करने वाले जिहादी से तो निपट सकते हो, लेकिन चुपके से षडयन्त्र करके, पीठ पीछे मारने वाले से कैसे लड़ोगे?

तात्पर्य यह कि “कानून अपना काम करेगा…”, “न्यायालयीन मामलों में राजनीति को दखल नहीं देना चाहिये…”, जैसी किताबी नसीहतें सिर्फ़ हिन्दुओं के लिये आरक्षित हैं, जब निर्णय चर्च या धर्मान्तरण के खिलाफ़ जायेगा तो तुरन्त “अपने” मीडियाई भाण्डों को जोर-जोर से गाने के लिये आगे कर दिया जायेगा। “नागालैण्ड फ़ॉर क्राइस्ट” (Nagaland for Christ) तो हो ही चुका, उत्तर-पूर्व के एक-दो अन्य राज्य भी लगभग 60-70% ईसाई आबादी वाले हो चुके, सो वहाँ अब वे “खुल्लमखुल्ला” चुनौती दे रहे हैं… जबकि शेष भारत में “घोषित रूप” से 3 से 5% ईसाई हैं लेकिन “अघोषित” (रेड्डी, नायक, महेश भूपति, प्रभाकरन जैसे) न जाने कितने होंगे…(एक और "कुख्यात शख्सियत" नवीन चावला (Navin Chawla) को भी तमाम आपत्तियाँ दरकिनार करते हुए चुनाव आयुक्त बनाया गया था, चावला भी "अचानक" मदर टेरेसा से बहुत प्रभावित हुए और उनकी "बायोग्राफ़ी" भी लिख मारी, एक फ़र्जी ट्रस्ट बनाकर "इटली" सरकार से एक पुरस्कार भी जुगाड़ लाये थे, चुनाव आयुक्त रहते वोटिंग मशीनों का गुल खिलाया… क्या कोई गारण्टी से कह सकता है कि नवीन चावला ईसाई नहीं है? ऐसे बहुत से "दबे-छिपे" ईसाई भारत में मिल जाएंगे जो हिन्दुओं की जड़ें खोदने में लगे पड़े हैं)… मतलब कि, ईसाई जनसंख्या का यह सही आँकड़ा तभी सामने आयेगा, जब वे भारत की सत्ता को “आँखें दिखाने” लायक पर्याप्त संख्या में हो जायेंगे, फ़िलहाल तो मीडिया को अपने कब्जे में लेकर, बड़ी-बड़ी संस्थाओं और NGOs का जाल बिछाकर, सेवा का ढोंग करके चुपचाप अन्दरखाने, गरीबों और आदिवासियों को “अपनी तरफ़” कर रहे हैं… जैसा कि मैंने पहले कहा “भोला भारतीय मन” बड़ी जल्दी “त्याग-बलिदान-सेवा” के झाँसे में आ ही जाता है, और कभी भी इसे “साजिश” नहीं मानता… परन्तु जब सुप्रीम कोर्ट या कोई आयोग इसकी पोल खोलने वाला विरोधी निर्णय सुनाता है तो “गरीबों की सेवा करने वालों” को मिर्ची लग जाती है…।

चलते-चलते :-

1) भारत में ईसाईयों का प्रतिशत और केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में ईसाई मंत्रियों की संख्या के अनुपात के बारे में पता कीजिये…

2) केन्द्र के सभी प्रमुख मंत्रालयों के प्रमुख सचिवों, (विदेश-रक्षा-गृह-आर्थिक इत्यादि) में पदस्थ केरल व तमिलनाडु के IAS अधिकारियों की सूची बनाईये…। यह देखिये कि उसमें से कितने असली ईसाई हैं और कितने “नकली” (राधाकान्त नायक टाइप के)

3) सोनिया गाँधी ने थॉमस और नवीन चावला की नियुक्ति में इतना “इंटरेस्ट” क्यों लिया? और अब सुप्रीम कोर्ट की लताड़ खाने के बावजूद थॉमस को हटाने को तैयार क्यों नहीं हैं?

(थोड़ा गहराई से विचार करें, और ऊपर के तीनों सवालों के जवाब खोजने की कोशिश करेंगे तो आपकी आँखें फ़टी की फ़टी रह जाएंगी…, दिमाग हिल जायेगा)

4) कांची के शंकराचार्य (Kanchi Seer) को हत्या के आरोप में, नित्यानन्द (Nityanand Sex Scandal) को सेक्स स्कैण्डल में, असीमानन्द को मालेगाँव मामले में… फ़ँसाया और बदनाम किया गया जबकि लक्ष्मणानन्द सरस्वती (Laxmanand Saraswati Assanination by Church) को माओवादियों के जरिये मरवा दिया गया… क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि चारों महानुभाव तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात और उड़ीसा के आदिवासी क्षेत्रों में मिशनरी के धर्मान्तरण के खिलाफ़ बहुत प्रभावशाली काम कर रहे थे।

संकेत तो स्पष्ट रूप से मिल रहे हैं। हम ठहरे चौकीदार, सीटी बजाकर “जागते रहो-जागते रहो” चिल्लाते रहना हमारा काम है… आगे आपकी मर्जी…

(समाप्त)
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देश में गत कुछ दिनों में तीन बेहद महत्वपूर्ण घटनाएं हुई हैं, पहला मामला है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा ग्राहम स्टेंस मामले में अपने ही निर्णय के शब्दों में संशोधन करना…

ग्राहम स्टेंस को जिन्दा जलाये जाने के मामले में दारा सिंह को फ़ाँसी दिये जाने की माँग को उम्रकैद में तब्दील करते समय सुप्रीम कोर्ट ने शुरु में अपने निर्णय में कहा था कि “किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था को किसी की धार्मिक आस्थाओं को बदलने की कोशिश, चाहे वह आर्थिक प्रलोभन के जरिये हो अथवा जबरन, नहीं करना चाहिये… ग्राहम स्टेंस की नृशंस हत्या उड़ीसा के आदिवासी इलाकों में चल रहे धर्म-परिवर्तन का नतीजा है…”, इस वाक्य पर चर्च से जुड़े मिशनरी एवं एवेंजेलिस्ट संगठनों ने बवाल मचा दिया, उनके सुर में सुर मिलाने के लिये हमारे यहाँ फ़र्जी NGOs एवं ढेर सारे विदेशी पालतू-कुत्तेनुमा मानवाधिकार संगठन हैं…सभी ने मिलकर “धर्म परिवर्तन” शब्द को लेकर आपत्ति के भोंपू बजाना शुरु कर दिया… और सभी को अचरज में डालते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही निर्णय के कुछ अंशों को बदलते हुए उन सभी को खुश कर दिया, जो भारत की तथाकथित “गंगा-जमनी” संस्कृति का ढोल बजाते नहीं थकते। लेकिन इससे चर्च द्वारा गरीबों को आर्थिक प्रलोभन देकर एवं बहला-फ़ुसलाकर किये जाने वाले धर्म परिवर्तन की हकीकत बदलने वाली नहीं है… और जो “कथित सेकुलर” यह माने बैठे हैं कि भारत में बैठे मिशनरी के पिठ्ठू सिर्फ़ “गरीबों की सेवा” के लिये हैं, तो उन्हें अपना मुगालता जल्दी ही दूर कर लेना चाहिये। (यहाँ क्लिक करके अरुण शौरी का विचारोत्तेजक लेख पढ़िये...)



“चर्च” की मीडिया पर कितनी तगड़ी “पकड़” है यह इस बात से साबित होता है कि सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय में अपने “शब्दों” को एक-दो दिन बाद बदला, लेकिन इन दिनों के दौरान “मुख्य रूप से बिकाऊ एवं हिन्दू विरोधी मीडिया”(?) के किसी भी व्यक्ति ने “धर्म परिवर्तन” एवं मिशनरी संस्थाओं के संदिग्ध आचरण के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा, आदिवासी क्षेत्रों में चलाये जा रहे धर्मान्तरण पर कोई बहस नहीं हुई… जबकि दारा सिंह को लेकर हिन्दूवादी संस्थाओं को घेरने और गरियाने का सिलसिला लगातार चलाया गया। मैं जानना चाहता हूँ, कि क्या किसी ने भारत के “तथाकथित मुख्य मीडिया” में “चर्च” के बढ़ते दबाव एवं प्रभाव को रेखांकित करने की कोशिश करते देखा है? क्या इस मामले को लेकर मीडिया के किसी हिस्से मिशनरीज़ द्वारा किये जा रहे “धर्म परिवर्तन” पर कोई गम्भीर बहस पढ़ी-सुनी है? असल में ग्राहम स्टेंस की हत्या के मूल कारण अर्थात “धर्मान्तरण” मामले को चुपचाप दफ़नाकर, सारा का सारा फ़ोकस दारासिंह एवं हिन्दुत्ववादियों पर ही रखा गया। परन्तु चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने खुलेआम स्टेंस मामले में चर्च को धर्मान्तरण के मुद्दे पर “नंगा” कर दिया, इसलिये इस निर्णय के खिलाफ़ जमकर हो-हल्ला मचाया गया…



दूसरी घटना है कर्नाटक में 2008 में विभिन्न चर्चों पर हमले की घटनाओं के सम्बन्ध में न्यायिक आयोग की रिपोर्ट। इस रिपोर्ट में माननीय जज महोदय ने 2 साल की तफ़्तीश, सैकड़ों गवाहों के बयान, वीडियो फ़ुटेज एवं अखबारों के आधार पर साफ़ कहा कि चर्च पर हमले के पीछे “संघ परिवार” का हाथ नहीं है, बल्कि यह कुछ भटके हुए नौजवानों का काम है जो चर्च के ही एक गुट “एवेंजेलिस्टों” द्वारा हिन्दुओं के भगवानों के खिलाफ़ दुभावना फ़ैलाने वाला साहित्य बाँट रहे थे। आयोग ने अपना निर्णय 28 जनवरी शाम को पेश किया, लेकिन मीडिया ने आयोग की सैकड़ों पेज की रिपोर्ट को पढ़े बिना ही 28 तारीख की रात से ही हल्ला मचाना शुरु कर दिया… कि आयोग की रिपोर्ट निराशाजनक है, एकतरफ़ा है, संघ परिवार को क्लीन चिट कैसे दे दी गई आदि-आदि। इस मुद्दे पर टीवी पर बहस भी आयोजित करवा ली गई, और टाइम्स नाऊ का अर्नब गोस्वामी (नाम तो हिन्दू जैसा ही रखता है, बाकी पता नहीं) संघ परिवार को क्लीन चिट दिये जाने के कारण बेहद दुखी दिखाई दे रहा था। शायद उसे नहीं मालूम था कि मध्यप्रदेश में भी झाबुआ तथा रतलाम में दो चर्चों पर हुए हमलों में चर्च के ही पूर्व कर्मचारी दोषी पाये गये थे, लेकिन चूंकि न्यायिक आयोग ने चर्च के हो-हल्ले के बहकावे में न आकर उसके खिलाफ़ निर्णय सुनाया है, तो “हम नहीं मानेंगे…”, तब तक चीख-पुकार करेंगे जब तक कि संघ परिवार को दोषी न ठहरा दिया जाये…। ग्राहम स्टेंस वाले जिस पहले मामले का उल्लेख ऊपर किया है उसमें भी मिशनरी को इस बात का “मलाल” था कि दारा सिंह की फ़ाँसी की सजा को सुप्रीम कोर्ट ने उम्रकैद में क्यों बदल दिया? यानी कि मिशनरी और वेटिकन तभी संतुष्ट होंगे, जब उनके मन-मुताबिक निर्णय मिले…  (चित्र में मिशनरी के बढ़ चुके तथा बढ़ते प्रभाव वाले क्षेत्र लाल रंग से दर्शाए गये हैं…)

तीसरी घटना भी अपने-आप में अनूठी है… छत्तीसगढ़ में बिनायक सेन के मामले में कोर्ट में सुनवाई के दौरान यूरोपीय यूनियन के सदस्यों ने उपस्थिति की माँग कर दी है, केन्द्र की पिलपिली, भारत के आत्मसम्मान और स्वाभिमान को गिरवी रखने वाली एवं कोई भी निर्णय लेने में आगे-पीछे देखने वाली, केन्द्र सरकार ने मामला राज्य सरकार के पाले में धकेल दिया है। यूरोपीय यूनियन के सदस्य छत्तीसगढ़ पहुँच भी गये, किसी ने नहीं पूछा कि आखिर “बाहर” वालों को हमारी न्यायिक व्यवस्था में दखल देने का क्या अधिकार है? यूरोपियन यूनियन के सदस्य बिनायक सेन से इतनी हमदर्दी क्यों रखे हुए हैं? क्या कभी भारत की किसी संस्था को इंग्लैंड अथवा ऑस्ट्रेलिया में सिखों अथवा हिन्दुओं पर हुए हमले की सुनवाई के दौरान उपस्थित रहने की अनुमति दी गई या भारत सरकार ने माँगी? उल्लेखनीय है कि बिनायक सेन का मामला अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों(?) द्वारा जोरशोर से उठाया जा रहा है, बड़ा हल्ला मचाया जा रहा है कि बिनायक सेन पर अन्याय हो गया, गजब हो गया… आदि-आदि-आदि, जबकि अभी सिर्फ़ “लोअर कोर्ट” में ही केस चल रहा है। अयोध्या मामले पर बार-बार हिन्दुओं को “कानून अपना काम करेगा” की नसीहत देने वाले नकली और चन्दाखोर मानवाधिकार संगठनों में इतना भी धैर्य नहीं है कि हाईकोर्ट-सुप्रीमकोर्ट में मामला चलने दें और कानून को अपना काम करने दें… लेकिन कोर्ट को “दबाव” में लाने के लिये, अब चर्च यूरोपियन यूनियन के सदस्यों को कोर्ट में बैठायेगा… (मैं जानता हूं, आपको “साइमन कमीशन गो बैक” की याद आ गई होगी, लेकिन लाला लाजपतराय वाला ज़माना अब कहाँ रहा?)। आप सोच रहे होंगे कि बिनायक सेन तो नक्सलवादियों के समर्थक हैं, उनका चर्च से क्या लेना-देना?

पढ़ते रहिये…… भाग-2 में जारी रहेगा…
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