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सोमवार, 24 अक्टूबर 2011 20:33

Kumar Ketkar, Anti-Sangh Activist and Judiciary

कुमार केतकर साहब "नमक का कर्ज़" उतारिये, लेकिन न्यायपालिका को बख्श दीजिये…

संघ-भाजपा-हिन्दुत्व के कटु आलोचक, बड़बोले एवं "पवित्र परिवार" के अंधभक्त श्री कुमार केतकर के खिलाफ़ दापोली (महाराष्ट्र) पुलिस ने कोर्ट के आदेश के बाद मामला दर्ज कर लिया है। अपने एक लेख में केतकर साहब ने सदा की तरह "हिन्दू आतंक", "भगवा-ध्वज" विरोधी राग तो अलापा ही, उन पर केस दर्ज करने का मुख्य कारण बना उनका वह वक्तव्य जिसमें उन्होंने कहा कि "भारतीय न्यायपालिका में संघ के आदमी घुस गये हैं…"।


इस लेख में केतकर साहब ने अयोध्या मामले के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि पुलिस, प्रशासन, प्रेस और न्यायपालिका में "संघ के गुर्गे" घुसपैठ कर गये हैं। पहले तो सामाजिक कार्यकर्ता श्री एन आर शिगवण ने केतकर से पत्र लिखकर जवाब माँगा, लेकिन हेकड़ीबाज केतकर ऐसे पत्रों का जवाब भला क्यों देने लगे, तब शिगवण जी ने कोर्ट में केस दायर किया, जहाँ माननीय न्यायालय ने लेख की उक्त पंक्ति को देखकर तत्काल मामला दर्ज करने का निर्देश दिया…। लेख में अपने "तर्क"(???) को धार देने के लिए केतकर साहब ने महात्मा गाँधी के साथ-साथ राजीव गाँधी की हत्या को भी "हिन्दू आतंक" बता डाला, क्योंकि उनके अनुसार राजीव के हत्यारे भी "हिन्दू" ही हैं, इसलिए… (है ना माथा पीटने लायक तर्क)। यह तर्क कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे दिग्विजय सिंह साहब ने 26/11 के हमले में संघ का हाथ होना बताया था। केतकर साहब का बस चले तो वे अजमल कसाब को भी संघ का कार्यकर्ता घोषित कर दें…।

जहाँ अपने इस लेख में कुमार केतकर ने ठेठ "रुदाली स्टाइल" में संघ-भाजपा के खिलाफ़ विष-वमन किया, वहीं इसी लेख में उन्होंने "पारिवारिक चरण चुम्बन" की परम्परा को बरकरार रखते हुए सवाल किया कि "RSS के "प्रातः स्मरण" (शाखा की सुबह की प्रार्थना) में महात्मा गाँधी का नाम क्यों है, जबकि जवाहरलाल नेहरु का नाम क्यों नहीं है…" (हो सकता है अगले लेख में वे यह आपत्ति दर्ज करा दें कि इसमें जिन्ना का नाम क्यों नहीं है?)। इससे पहले भी कुमार केतकर साहब, बाल ठाकरे को "मुम्बई का अयातुल्लाह खोमैनी" जैसी उपाधियाँ दे चुके हैं, साथ ही "अमूल बेबी" द्वारा मुम्बई की लोकल ट्रेन यात्रा को एक लेख में "ऐतिहासिक यात्रा" निरूपित कर चुके हैं…

इन्हीं हरकतों की वजह से कुछ समय पहले केतकर साहब को "लोकसत्ता" से धक्के मारकर निकाला गया था, इसके बाद वे "दिव्य भास्कर" के एडीटर बन गये… लेकिन लगता है कि ये उसे भी डुबाकर ही मानेंगे…। (पता नहीं दिव्य भास्कर ने उनमें ऐसा क्या देखा?)।

उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले माननीय प्रधानमंत्री "मौन ही मौन सिंह" ने पूरे देश से चुनकर जिन "खास" पाँच सम्पादकों को इंटरव्यू के लिए बुलाया था, उसमें एक अनमोल नगीना कुमार केतकर भी थे, ज़ाहिर है कि "नमक का कर्ज़" उतारने का फ़र्ज़ तो अदा करेंगे ही…, लेकिन न्यायपालिका पर "संघी" होने का आरोप लगाकर उन्होंने निश्चित रूप से दिवालिएपन का सबूत दिया है।

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नोट :- सभी पाठकों, शुभचिंतकों एवं मित्रों को दीपपर्व की हार्दिक शुभकामनाएं, आप सभी खुश रहें, सफ़ल हों…। इस दीपावली संकल्प लें कि हम सभी आपस में मिलकर इसी तरह हिन्दुत्व विरोधियों को बेनकाब करते चलें, उन्हें न्यायालय के रास्ते सबक सिखाते चलें…हिन्दुओं, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू संतों, हिन्दू मन्दिरों के द्वेषियों को तर्कों से ध्वस्त करते चलें…

स्रोत :- http://en.newsbharati.com//Encyc/2011/10/21/Kumar-Ketkar-saving-face-on-Court-action-for-his-defamatory-article-.aspx?NB&m2&p1&p2&p3&p4&lang=1&m1=m8&NewsMode=int
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गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011 19:21

Performance of Sonia-Rahul in Indian Parliament


“युवराज” की मर्जी के सामने संसद की क्या हैसियत…?

जैसा कि आप सभी ज्ञात है कि हम अपने सांसद चुनते हैं ताकि जब भी संसद सत्र चल रहा हो वे वहाँ नियमित उपस्थिति रखें, अपने क्षेत्र की समस्याओं को संसद में प्रश्नों के जरिये उठाएं, तथा उन्हें मिलने वाली सांसद निधि की राशि का उपयोग गरीबों के हित में सही ढंग से करें।

सूचना के अधिकार तहत प्राप्त एक जानकारी के अनुसार, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को “नियुक्त” करने वाली “सुप्रीम कमाण्डर”, तथा देश के भावी युवा(?) प्रधानमंत्री, इस मोर्चे पर बेहद फ़िसड्डी साबित हुए हैं। 15वीं लोकसभा की अब तक कुल 183 बैठकें हुई हैं, जिसमें सोनिया की उपस्थिति रही 77 दिन (42%), जबकि राहुल बाबा 80 दिन (43%) उपस्थित रहे (मेनका गाँधी की उपस्थिति 129 दिन एवं वरुण की उपस्थिति 118 दिन रही)। इस मामले में सोनिया जी को थोड़ी छूट दी जा सकती है, क्योंकि संसद के पूरे मानसून सत्र में वे अपनी “रहस्यमयी” बीमारी की वजह से नहीं आईं। 

इसी प्रकार संसद में प्रश्न पूछने के मामले में रिकॉर्ड के अनुसार वरुण गाँधी ने 15वीं संसद में अब तक कुल 89 प्रश्न पूछे हैं और मेनका गाँधी ने 137 प्रश्न पूछे हैं, जबकि दूसरी ओर संसद के लगातार तीन सत्रों में “मम्मी-बेटू” की जोड़ी ने एक भी सवाल नहीं पूछा (क्योंकि शायद उन्हें संसद में सवाल पूछने की जरुरत ही नहीं है, उनके गुलाम उन्हें उनके घर जाकर “रिपोर्ट” देते हैं)। जहाँ तक बहस में भाग लेने का सवाल है, मेनका गाँधी ने कुल 12 बार बहस में हिस्सा लिया और वरुण गाँधी ने 2 बार, वहीं सोनिया गाँधी ने किसी भी बहस में हिस्सा नहीं लिया, तथा “अमूल बेबी” ने सिर्फ़ एक बार (अण्णा हजारे के वाले मसले पर) चार पेज का “लिखा हुआ” भाषण पढ़ा।

सांसदों के कामों को आँकने में सांसद निधि एक महत्वपूर्ण घटक होता है। इस निधि को सांसद अपने क्षेत्र में स्वविवेक से सड़क, पुल अथवा अस्पताल की सुविधाओं पर खर्च कर सकते हैं। जून 2009 से अगस्त 2011 तक प्रत्येक सांसद को 9 करोड़ की सांसद निधि आवंटित की गई। इसमें से सोनिया गाँधी ने अब तक सिर्फ़ 1.94 करोड़ (21%) एवं राहुल बाबा ने 0.18 करोड़ (मात्र 3%) पैसे का ही उपयोग अपने क्षेत्र के विकास हेतु किया है। वहीं मेनका गाँधी ने इस राशि में से 2.25 करोड़ (25%) तथा वरुण ने अपने संसदीय क्षेत्र के लिए 3.17 करोड़ (36%) खर्च कर लिए हैं।

ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब सत्ताधारी गठबंधन की प्रमुख होने के बावजूद सोनिया-राहुल का व्यवहार संसद के प्रति इतना नकारात्मक और उपेक्षा वाला है तो फ़िर वे आए दिन अन्य राज्य सरकारों को नैतिकता का उपदेश कैसे दे सकते हैं? मनरेगा जैसी ना जाने कितनी योजनाएं हैं, रायबरेली-अमेठी की सड़कों की हालत खस्ता है, फ़िर भी पता नहीं क्यों राहुल बाबा ने यहाँ अपनी निधि का पैसा खर्च क्यों नहीं किया? जबकि मेनका-वरुण का “परफ़ॉर्मेंस” उनके अपने-अपने संसदीय क्षेत्रों में काफ़ी बेहतर है। परन्तु "महारानी" और "युवराज" की जब मर्जी होगी तब वे संसद में आएंगे और इच्छा हुई तो कभीकभार सवाल भी पूछेंगे, हम-आप उनसे इस सम्बन्ध में सवाल करने वाले कौन होते हैं…। जब उन्होंने आज तक सरकारी खर्च पर होने वाली विदेश यात्राओं का हिसाब ही नहीं दिया, तो संसद में उपस्थिति तो बहुत मामूली बात है…। "राजपरिवार" की मर्जी होगी तब जवाब देंगे… संसद की क्या हैसियत है उनके सामने?
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अब समझ में आया कि आखिर मनमोहन सिंह साहब सूचना के अधिकार कानून की बाँह क्यों मरोड़ना चाहते हैं। कुछ “सिरफ़िरे” लोग सोनिया-राहुल से सम्बन्धित इसी प्रकार की “ऊलजलूल” सूचनाएं माँग-माँगकर, सरकार का टाइम खराब करते हैं, सोनिया का ज़ायका खराब करते हैं और उनके गुलामों का हाजमा खराब करते हैं…
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सोमवार, 17 अक्टूबर 2011 20:44

Anti-National NGOs in India and AFSPA Act

देशद्रोही NGOs गैंग "जोंक और पिस्सू" की तरह हैं… (सन्दर्भ - AFSPA विरोध यात्रा) 

संदीप पाण्डे और मेधा पाटकर के नेतृत्व में NGO गैंग वाले, AFSPA कानून और भारतीय सेना के अत्याचारों(?) के खिलाफ़ कश्मीर से मणिपुर तक एक रैली निकाल रहे हैं। कुछ सवाल उठ रहे हैं मन में -

1) जब तक कोई NGO छोटे स्तर पर काम करता है तब तक तो "थोड़ा ठीक" रहता है, परन्तु जैसे ही उसे विदेशी चन्दा मिलने लगता है, और वह करोड़ों का आसामी हो जाता है तो वह भारत विरोधी सुर क्यों अपनाने लगता है? यह विदेशी पैसे का असर है या "हराम की कमाई की मस्ती"।

2) NGO वादियों की इस गैंग ने हज़रतबल दरगाह पर शीश नवाकर इस यात्रा की शुरुआत की…। मैं जानना चाहता हूँ कि ऐसे कितने मूर्ख हैं, जिन्हें इसके पीछे का "देशद्रोही उद्देश्य" न दिखाई दे रहा हो?

3) इस घोर आपत्तिजनक यात्रा के ठीक पहले प्रशांत भूषण का बयान किसी सोची-समझी साजिश का हिस्सा तो नहीं? "(अन) सिविल सोसायटी" के अधिकतर सदस्य गाहे-बगाहे ऐसे बयान देते रहते हैं, जिनके गहरे राजनैतिक निहितार्थ होते हैं, शायद इसी उद्देश्य के लिए इन "शातिरों" ने बूढ़े अण्णा का "उपयोग" किया था…?

देश में पिछले कुछ महीनों से NGOs प्रायोजित आंदोलनों की एक सीरीज सी चल रही है, आईये पहले हम इन हाई-फ़ाई NGOs के बारे में संक्षेप में जान लें…


NGOs की "दुकान" जमाना बहुत आसान है…। एक NGO का गठन करो, सरकारी अधिकारियों को रिश्वत देकर रजिस्ट्रेशन एवं प्रोजेक्ट हथियाओ… अपने राजनैतिक आकाओं को की चमचागिरी करके सरकारी अनुदान हासिल करो… शुरुआत में 4-6 प्रोजेक्ट "ईमानदारी" से करो और फ़िर "अपनी असली औकात, यानी लूट" पर आ जाओ। थोड़ा अच्छा पैसा मिलने लगे तो एक PR एजेंसी (सभ्य भाषा में इसे Public Relation Agency, जबकि खड़ी बोली में इसे "विभिन्न संस्थाओं को उचित मात्रा में तेल लगाकर भाड़े पर आपकी छवि बनाने वाले" कहा जाता है) की सेवाएं लो… जितनी बड़ी "तलवा चाटू" PR एजेंसी होगी, वह उतना ही बड़ा सरकारी अनुदान दिलवाएगी। महंगी PR एजेंसी की सेवाएं लेने के पश्चात, आप मीडिया के भेड़ियों से निश्चिंत हो जाते हैं, क्योंकि यह एजेंसी इन्हें समय-समय पर उचित मात्रा में हड्डी के टुकड़े देती रहती है। जब PR एजेंसी इस फ़र्जी और लुटेरे NGO की चमकदार छवि बना दे, तो इसके बाद "मेगसेसे टाइप के" किसी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार की जुगाड़ बैठाई जाती है। एक बार ऐसे किसी पुरस्कार की जुगाड़ लग गई तो समझो ये "गैंग" दुनिया की किसी भी सरकार को गरियाने के लाइसेंसधारी बन गई। इससे जहाँ एक ओर इस NGOs गैंग पर विदेशी "मदद"(???) की बारिश शुरु हो जाती है, वहीं दूसरी ओर सरकारों के नीति-निर्धारण में आए दिन टाँग अड़ाना, विदेशी आकाओं के इशारे पर सरकार-विरोधी मुहिम चलाना इत्यादि कार्य शुरु हो जाते हैं। इस स्थिति तक पहुँचते- पहुँचते ऐसे NGOs इतने "गब्बर" हो जाते हैं कि इन पर नकेल कसना बहुत मुश्किल हो जाता है…। भारत के दुर्भाग्य से वर्तमान में यहाँ ऐसे "गब्बर" टाइप के हजारों NGOs काम कर रहे हैं…।

संदीप पाण्डे जी के NGOs के बारे में और जानकारी अगले कुछ दिनों में दी जाएगी, तब तक इनकी "कलाकारी" का छोटा सा नमूना पेश है -

इन "सज्जन" ने 2005 में भारत-पाकिस्तान के बीच मधुर सम्बन्ध बनाने के लिए भी एक "पीस मार्च" आयोजित किया था (ज़ाहिर है कि "सेकुलरिज़्म का कीड़ा" जोर से काटने पर ही ऐसा होता है), यह पीस मार्च उन्होंने 23 मार्च 2005 से 11 मई 2005 के दौरान, दिल्ली से मुल्तान तक आयोजित किया था। इस पीस मार्च का प्रारम्भ इन्होंने ख्वाज़ा निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर शीश नवाकर किया (जी हाँ, वही सेकुलरिज़्म का कीड़ा), और यात्रा का अन्त मुल्तान में बहदुद्दीन ज़कारिया के मकबरे पर किया था (इसीलिए अभी जो AFSPA के विरोध में यह "यात्रा" निकाली जा रही है, उसकी शुरुआत हज़रत बल दरगाह से हो रही है, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है…)।

खैर हम वापस आते हैं NGOs गैंग की कलाकारी पर…

दिल्ली से वाघा सीमा कितने किलोमीटर है? मेरे सामान्य ज्ञान के अनुसार शायद 450-500 किमी… यानी आना-जाना मिलाकर हुआ लगभग 1000 किमी। यदि एक घटिया से घटिया चौपहिया गाड़ी का एवरेज 10 किमी प्रति किमी भी मानें, तो 100 लीटर पेट्रोल में दिल्ली से वाघा की दूरी (आना-जाना) तय की जा सकती है। सन 2005 के पेट्रोल भाव को यदि हम 40 रुपये मानें तो लगभग 4000 रुपये के पेट्रोल खर्च में एक गाड़ी दिल्ली से वाघा सीमा तक आ-जा सकती है, यदि दो गाड़ियों का खर्च जोड़ें तो हुआ कुल 8000/-। लेकिन पीस मार्च के "ईमानदार" NGO आयोजकों ने दिल्ली-वाघा आने-जाने हेतु दो वाहनों का "अनुमानित व्यय" (Estimate) लगाया 1 लाख रुपये…। अब सोचिये, जो काम 8000 रुपये में हो रहा है उसके लिए बजट रखा गया है एक लाख रुपए, तो फ़िर बचे हुए 92,000 रुपए कहाँ जा रहे होंगे? ज़ाहिर है कि इस अनाप-शनाप खर्च में विभिन्न "एकाउण्ट्स एडजस्टमेण्ट" किए जाते हैं, कुछ रुपये विदेशी दानदाताओं की आँखों में धूल झोंककर खुद की जेब में अंटी भी कर लिया जाता है। अधिकतर NGOs का काम ऐसे ही मनमाने तरीकों से चलता है, इन "फ़ाइव स्टार" NGOs के उच्चाधिकारी एवं कर्ताधर्ता अक्सर महंगे होटलों में ठहरते हैं और हवाई जहाज़ के "इकोनोमी क्लास" में सफ़र करना इन्हें तौहीन लगती है… (विश्वास न हो, तो अग्निवेश के आने-जाने-ठहरने का खर्च और हिसाब जानने की कोशिश कीजिए)।

2005 में आयोजित इस "भारत-पाकिस्तान दोस्ती बढ़ाओ" वाली "पीस मार्च" में पोस्टरों पर 2 लाख रुपये, दो वाहनों के लिए एक लाख रुपये (जैसा कि ऊपर विवरण दिया गया), अन्य यात्रा व्यय ढाई लाख रुपये, उदघाटन समारोह हेतु 1 लाख रुपए, यात्रा में लगने वाले सामान (माइक, सोलर लाइट इत्यादि) हेतु 30 हजार तथा "अन्य" खर्च के नाम पर एक लाख रुपये खर्च किये गये…। ऐसे अनोखे हैं भारत के NGOs और ऐसी है इनकी महिमा… मजे की बात यह है कि फ़िर भी ये खुद को "सिविल सोसायटी" कहते हैं। एक बूढ़े को "टिशु पेपर" की तरह उपयोग करके उसे रालेगण सिद्धि में मौन व्रत पर भेज दिया, लेकिन इस "टीम (अण्णा)" का मुँह बन्द होने का नाम नहीं ले रहा। कभी कश्मीर पर तो कभी AFSPA के विरोध में तो कभी नरेन्द्र मोदी के विरोध में षडयंत्र रचते हुए, लगातार फ़टा हुआ है। यह बात समझ से परे है कि ये लोग सिर्फ़ जनलोकपाल, जल-संवर्धन, भूमि संवर्धन, एड्स इत्यादि मामलों तक सीमित क्यों नहीं रहते? "समाजसेवा"(?) के नाम पर NGOs चलाने वाले संदीप पाण्डे, मेधा पाटकर एवं प्रशांत भूषण जैसे NGOवादी, आए दिन राजनैतिक मामलों के फ़टे में टाँग क्यों अड़ाते हैं?

जनलोकपाल के दायरे से NGOs को बाहर रखने की जोरदार माँग इसीलिये की जा रही थी, ताकि चर्च और ISI से मिलने वाले पैसों में हेराफ़ेरी करके ऐसी घटिया यात्राएं निकाली जा सकें…। ये वही लोग हैं जिनका दिल फ़िलीस्तीनियों के लिए तो धड़कता है, लेकिन अपने ही देश में निर्वासितों का जीवन बिता रहे कश्मीरी पण्डित इन्हें दिखाई नहीं देते…।

मजे की बात यह है कि इसी सिविल सोसायटी टीम की एक प्रमुख सदस्या किरण बेदी ने AFSPA कानून हटाने का विरोध किया है क्योंकि वह एक पुलिस अफ़सर रह चुकी हैं और जानती हैं कि सीमावर्ती राज्यों में राष्ट्रविरोधियों द्वारा "क्या-क्या" गुल खिलाए जा रहे हैं, और सुरक्षा बलों को कैसी विपरीत परिस्थितियों में वहाँ काम करना पड़ता है, लेकिन अरुंधती, संदीप पाण्डे और गिलानी जैसे लोगों को इससे कोई मतलब नहीं है… उनकी NGO दुकान चलती रहे बस…!!!

बात निकली ही है तो पाठकों की सूचना हेतु बता दूँ, कि अफ़ज़ल गुरु को माफ़ी देने और "जस्टिस फ़ॉर अफ़ज़ल गूरू" (http://justiceforafzalguru.org/) नाम के ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वालों में संदीप पाण्डे महोदय, अरुंधती रॉय, गौतम नवलखा, राम पुनियानी, हर्ष मन्दर इत्यादि सक्रिय रूप से शामिल थे…। ज़ाहिर है कि यह सिर्फ़ संयोग नहीं है कि अमेरिका में ISI के एजेण्ट गुलाम नबी फ़ई से पैसा खाकर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत विरोधी राग अलापने में भी इन्हीं NGOs की गैंग के सरगनाओं के नाम ही आगे-आगे हैं (यहाँ पढ़ें… http://blog.sureshchiplunkar.com/2011/07/ghulam-nabi-fai-isi-agent-indian.html इसी से समझा जा सकता है कि इन NGOs की डोर देश के बाहर किसी दुश्मन के हाथ में है, भारत के लोकतन्त्र में इन लोगों की आस्था लगभग शून्य है, भारतीय सैनिकों के बलिदान के प्रति इनके मन में कतई कोई श्रद्धाभाव नहीं है…। इस प्रकार के NGOs भारत की जनता की गाढ़ी कमाई तथा देश के भविष्य पर एक जोंक या पिस्सू की तरह चिपके हुए हैं…

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ज्यादा बड़ा न करते हुए, फ़िलहाल इतना ही…। NGOs की देशद्रोही तथा आर्थिक अनियमितताओं भरी गतिविधियों पर अगले लेख में फ़िर कभी…

विशेष :- "पिस्सू" के बारे में अधिक जानकारी हेतु यहाँ देखें… http://kudaratnama.blogspot.com/2009/08/blog-post_11.html
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गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011 21:37

Rahul Gandhi, Telangana Agitation and Gopalgarh

"रॉल विन्ची" के लिए तेलंगाना से अधिक महत्वपूर्ण है गोपालगढ़… (एक माइक्रो पोस्ट)  

आंध्रप्रदेश, विशेषकर हैदराबाद सहित समूचे तेलंगाना क्षेत्र में पिछले 30 दिनों से आम जनजीवन ठप पड़ा है। उस क्षेत्र में रहने वाले मित्र एवं रिश्तेदार बताते हैं कि स्थिति बहुत ही खराब है, कोई भी सार्वजनिक एवं सरकारी सेवा काम नहीं कर रही, बिजली कटौती 6 घण्टे तक पहुँच गई है (हैदराबाद जैसे "IT" शहर में भी), बस सेवाएं, स्कूल-कॉलेज ठप हैं, सभी सरकारी एवं सार्वजनिक क्षेत्र कर्मचारी पूरी तरह से तेलंगाना आंदोलन का साथ दे रहे हैं…


इतने लम्बे समय तक आंदोलन को लगभग शांतिपूर्ण बनाये रखने के लिए, इसे एक ऐतिहासिक आंदोलन भी कहा जा सकता है। परन्तु राज्य की इतनी अधिक दुरावस्था के बावजूद अभी दिल्ली में "सिर्फ़ बातचीत" ही चल रही है (यह बातचीत पिछले 40 साल से चल रही है)। चूंकि भाजपा ने इस आंदोलन को सक्रिय समर्थन दे रखा है, सो ज़ाहिर है कि कांग्रेस इस पर कोई सकारात्मक रुख आसानी से नहीं अपनाने वाली।

अब यह परम्परा बन चुकी है कि जिस किसी आंदोलन को (चाहे वह कितना भी वाजिब हो) यदि संघ-भाजपा का समर्थन हो, या तो उसे कुचल दिया जाए, या तो उसे साम्प्रदायिक ठहराकर हाथ झाड़ लिए जाएं, या फ़िर पूरी तरह से अनसुना कर दिया जाए।


कांग्रेस और "भावी प्रधानमंत्री"(???) का गुणगान करने वाले पत्रकार (यानी भाण्ड) जरा बताएं, कि आसाराम बापू के "बबलू" उर्फ़ अच्युतानन्दन के "अमूल बेबी" उर्फ़ "बाबा" उर्फ़ डॉ स्वामी के "रॉल विन्ची" उर्फ़ शरद यादव के "बबुआ" उर्फ़ "भोंदू युवराज"… को पहले गोपालगढ़ का दौरा करना चाहिए था या तेलंगाना का? तथा पिछले एक महीने में कभी आपने उनके "मुखारविन्द" से तेलंगाना मुद्दे पर कोई बयान सुना है? लेकिन युवराज तड़ से गोपालगढ़ जरूर पहुँच गये, वहाँ एक खूंखार अपराधी के साथ बाइक पर घूमे। इसके बाद जैसा कि उनके "गुरु दिग्विजय सिंह" ने आजमगढ़ में किया था, ठीक वैसे ही "विंची" महोदय, सिर्फ़ एक ही "समुदाय" के लोगों से मिले…। परन्तु उन्हें पिछले एक माह से तेलंगाना जाने का समय नहीं मिल पाया है। लानत, लानत, लानत…

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नोट :- यह भी एक "नई और विशिष्ट परम्परा" तैयार हो रही है कि देश के किसी भी महत्वपूर्ण मसले पर "युवराज" द्वारा कोई बयान देना, उनकी "शान के खिलाफ़" माना जाए…
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शुक्रवार, 07 अक्टूबर 2011 12:37

RSS Path Sanchalan, Rashtriya Swayamsevak Sangh and Media

क्या कभी आपने संघ के पथ-संचलन का राष्ट्रीय मीडिया कवरेज देखा है? (एक माइक्रो-पोस्ट)

संघ की परम्परा में "भगवा ध्वज" ही सर्वोच्च है, कोई व्यक्ति, कोई पद अथवा कोई अन्य संस्था महत्वपूर्ण नहीं है। प्रतिवर्ष के अनुसार इस वर्ष भी यह बात रेखांकित हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा उज्जैन में विजयादशमी उत्सव के पथसंचलन समारोह में भाजपा के पार्षद, निगम अध्यक्ष, वर्तमान एवं पूर्व विधायक, सांसद एवं राज्य मंत्री सभी के सभी सामान्य स्वयंसेवकों की तरह पूर्ण गणवेश में कदमताल करते नज़र आए। जिन गलियों से यह संचलन गुज़रा, निवासियों ने अपने घरों एवं बालकनियों से इस पर पुष्प-वर्षा की।


अन्त में सभा के रूप में परिवर्तित, स्वयंसेवकों के विशाल समूह को सम्बोधित किया संघ के युवा एवं ऊर्जावान प्रवक्ता राम माधव जी ने, इस समय सभी "सो कॉल्ड" वीआईपी भी सामान्य स्वयंसेवकों की तरह ज़मीन पर ही बैठे, उनके लिए मंच पर कोई विशेष जगह नहीं बनाई गई थी…। मुख्य संचलन हेतु विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले स्वयंसेवकों के उप-संचलनों को जो समय दिया गया था, वे पूर्ण समयबद्धता के साथ ठीक उसी समय पर मुख्य संचलन में जा मिले। कांग्रेस (यानी एक परिवार) के "चरणचुम्बन" एवं "तेल-मालिश" संस्कृति को करीब से देखने वाले, संघ के आलोचकों के लिए, यह "संस्कृति" नई है, परन्तु एक आम स्वयंसेवक के लिए नई नहीं है।


"परिवारिक चमचागिरी" से ग्रस्त, यही दुरावस्था हमारे मुख्य मीडिया की भी है…। ज़रा दिमाग पर ज़ोर लगाकर बताएं कि क्या आपने कभी किसी मुख्य चैनल पर वर्षों से विशाल स्तर पर निकलने वाले संघ के पथसंचलन का अच्छा कवरेज तो दूर, कोई खबर भी सुनी हो? कभी नहीं…। हर साल की तरह प्रत्येक चैनल रावण के पुतला दहन की बासी खबरें दिखाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। कल तो हद कर दी गई… भाण्ड-भड़ैती चैनलों ने दिल्ली के रामलीला मैदान में राहुल गाँधी ने चाट खाई, उसमें मिर्ची कितनी थी, उसमें चटनी कितनी थी… तथा लालू यादव ने कहाँ तंत्र क्रिया की, कौन सी क्रिया की, क्या इस तंत्र क्रिया से लालू को कांग्रेस के नजदीक जाने (यानी चमचागिरी) में कोई फ़ायदा होगा या नहीं?, जैसी मूर्खतापूर्ण और बकवास खबरें "विजयादशमी" के अवसर पर दिखाई गईं, परन्तु हजारों शहरों में निकलने वाले लाखों स्वयंसेवकों के पथ-संचलन का एक भी कवरेज नहीं…।

असल में मीडिया को यही काम दिया गया है कि किस प्रकार हिन्दू परम्पराओं, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू मन्दिरों, हिन्दू संतों की छवि मलिन की जाए, क्योंकि चर्च के पैसे पर पलने वाले मीडिया को डर है कि अनुशासित, पूर्ण गणवेशधारी, शस्त्रधारी स्वयंसेवकों के पथ संचलन को प्रमुखता से दिखाया तो "हिन्दू गौरव" जागृत हो सकता है।

ज़ाहिर है कि मीडिया की समस्या भी कांग्रेस और वामपंथ से मिलती-जुलती ही है… अर्थात "भगवा ध्वज" देखते ही "सेकुलर दस्त" लगना।
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मंगलवार, 04 अक्टूबर 2011 20:53

Dr. Subramaniam Swami on 2G Scam, Arundhati Roy, Geelani and Robert Vadhera

डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी का दोष, अरुंधती और गिलानियों से भी बड़ा है… (एक माइक्रो-पोस्ट) 

जब तक डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी 2G घोटाले की परत-दर-परत उधेड़ते हुए द्रमुक के मंत्रियों को रगड़ते रहे, उन्हें जेल पहुँचाते रहे, तब तक कोई समस्या नहीं थी। जैसे ही RTI के जरिये डॉ स्वामी ने चिदम्बरम पर फ़ंदा कसना शुरु किया, कांग्रेस में बेचैनी बढ़ गई, दिग्विजय सिंह ने तत्काल डॉ स्वामी को ब्लैकमेलर का खिताब दे डाला। डॉ स्वामी पर जो ताज़ातरीन FIR "मढ़ी" गई है उसके पीछे असली कारण यह है कि उन्होंने "पवित्र परिवार" के "दामाद" को भी 2G घोटाले में लिप्त होने और सबूत पेश करने का दावा कर दिया… इसीलिए जुलाई में लिखे गये एक लेख के विरोध में FIR अब अक्टूबर में लिखी जा रही है। इस लेख को लेकर पहले तिलक नगर और दूसरी बार निजामुद्दीन थाने में FIR रजिस्टर करना खारिज किया जा चुका है… परन्तु अब चिदम्बरम के दबाव में दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच ने केस दायर कर लिया है… । यानी जो लेख जुलाई-अगस्त में "भड़काऊ" नहीं था, अचानक अक्टूबर में हो गया?


बात साफ़ है कि डॉ स्वामी को अगली बार कोर्ट जाने से रोकने की भौण्डी कोशिशें हो रही हैं, क्योंकि सच्चा कांग्रेसी वही होता है, जो बड़ी से बड़ी और भद्दी गाली सहन कर सकता है, लेकिन "पवित्र परिवार"(?) के खिलाफ़ एक शब्द भी नहीं सुन सकता… जबकि डॉ स्वामी ने तो सीधे-सीधे उनके "कँवर साब" पर ही वार कर दिया है… ।

ज़ाहिर है कि "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" सिर्फ़ अरूंधती रॉय, बिनायक सेन, गिलानियों, यासीन मलिक, तीस्ता जावेद इत्यादियों के लिए आरक्षित रखी गई है… डॉ स्वामी के लिए नहीं है। अरे हाँ… दिग्गी राजा भी बाबा रामदेव के खिलाफ़ "गले में पत्थर बाँधकर डुबोने" की भाषा बोल सकते हैं, उन्हें भी सब कुछ माफ़ है। ज़ाहिर है कि हमारे देश में किसी को भी "ठग", "लुटेरा", "ब्लैकमेलर" कहा जा सकता है, दिल्ली में सरकार की नाक के नीचे सरेआम कश्मीर की आज़ादी की माँग की जा सकती है, नक्सलियों से सहानुभूति दर्शाई जा सकती है, माओवादियों और कश्मीरी पत्थर फ़ेकुओं को "भटके हुए नौजवान" चित्रित जा सकता है, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को खुल्लमखुल्ला लतियाते हुए अफ़ज़ल गूरू को बेगुनाह बनाने के लिए प्रचार किया जा सकता है… सब कुछ किया जा सकता है।

लेकिन… लेकिन… लेकिन…  डॉ स्वामी का दोष इन सभी से ज्यादा बड़ा है, क्योंकि उन्होंने देश के सबसे बड़े "त्यागी", सबसे बड़े "बलिदानी", सबसे अधिक "ईमानदार", सबसे ज्यादा "उजले", पवित्र परिवार के दामाद का नाम ले लिया है, और उनकी वजह से आज कांग्रेस के कई मंत्री तिहाड़ की दहलीज पर भी खड़े हैं…, सो उन पर FIR दर्ज होनी ही है। ठीक वैसे ही, जैसे "कालेधन" का नाम लेते ही बाबा रामदेव को खदेड़ा गया और राजबाला को लाठियों से पीटकर मार डाला गया…

चलते-चलते एक तस्वीर और देखते जाईये…


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नोट :- कांग्रेस और भाजपा में यहाँ एक प्रमुख अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है - पवित्र परिवार(?) के खिलाफ़ एक शब्द भी बोलने पर कांग्रेसी नेता उसी तरह बिलबिलाते-फ़ुफ़कारते हैं, मानो किसी साँप की पूँछ पर पैर रख दिया हो। दूसरी ओर यदि कोई कांग्रेसी या वामपंथी, हिन्दुत्व एवं हिन्दू धर्म के खिलाफ़ कुछ भी बोलें, RSS को कितना भी गरियाएं… उसका मुँहतोड़ जवाब देना तो दूर, भाजपा नेताओं की रगों में उबाल तक नहीं आता… विश्वास नहीं आता हो तो विभिन्न चैनलों पर चलने वाली बहस देख लीजिये, या दिग्गी राजा के संघ सम्बन्धी बयानों के जवाब में, अखबारों में भाजपाईयों के बयान पढ़ लीजिए।
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मंगलवार, 04 अक्टूबर 2011 11:27

Sanjeev Bhatt, Rajbala, Baba Ramdev and Corrput Indian Media

प्रस्तुत दोनों लेख अहमदाबाद निवासी श्री जीतेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा लिखे गये हैं, चूंकि मुझे बहुत पसन्द आए हैं इसलिए अपने पाठकों हेतु, मैं उनकी अनुमति से इसे यहाँ कॉपी-पेस्ट कर रहा हूँ…। दोनों लेख ज्वलंत मुद्दों पर हैं और गम्भीर रूप से विचारणीय हैं…।
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लेख क्रमांक 1
आखिर इस देश की नीच मीडिया संजीव भट्ट की पूरी सच्चाई इस देश को क्यों नहीं बताती ??

मित्रों कांग्रेस और विदेशी ताकतों के फेके टुकड़े पर पलने वाली भांड मीडिया आखिर संजीव भट्ट के बारे मे इस देश के सामने सिर्फ आधी सच्चाई ही क्यों दिखा रही है ?

असल मे संजीव भट्ट एक "विसिल ब्लोव्वर " नहीं बल्कि कांग्रेस के हाथो खेलने वाले एक "खिलौना " भर है .. जैसे कोई बच्चा किसी खिलौने से सिर्फ कुछ दिन खेलकर उसे कूड़ेदान मे फेक देता है ठीक वही हाल कांग्रेस संजीव भट्ट का भी करने वाली है .. एक बार अमर सिंह से पूछ लो कांग्रेस क्या है ?

लेकिन मीडिया जिस तरह से संजीव भट्ट को एक "नायक " दिखा रही है वो एक झूठ है .

मै आपको संजीव भट्ट के बारे मे सच बताता हूँ :-

१- जब ये जनाब १९९६ मे बनासकाठा के एसपी थे तब इन्होने सिपाही पद की भर्ती मे बड़ा घोटाला किया था . इनके खिलाफ बड़े गंभीर आरोप लगे ..इन्होने भर्ती की पूरी प्रक्रिया को नकार दिया था और ना ही उमीदवारों के रिकार्ड रखे थे .

२-ये जनाब २००१ में राजस्तान [पाली ]का एक वकील सुमेर सिंह राजपुरोहित जो अपनी कार से अहमदाबाद आ रहा था उससे चेकिंग के नाम पर पैसे की मांग की थी जब उसने मना किया तो इन्होने उसके कार में ५०० ग्राम हेरोइन बरामद बताकर उसे नार्कोटिक्स की गंभीर धाराओं में जेल में डाल दिया .. असल में उस वकील के पास उस वक्त कोई सुबूत नहीं था जिससे पता चले की वो एक वकील है ..

बाद में पाली बार एसोसियेसन की अपील पर राजस्थान हाई कोर्ट ने क्राईम ब्रांच से अपने अंडर जाँच करवाई तो संजीव भट्ट को दोषी पाया गया .. जिसके खिलाफ संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में अपील किया जो आज भी चल रहा है.. लेकिन भारत सरकार के मानवाधिकार आगोग ने अपनी जाचं में संजीव भट्ट को दोषी पाते हुए गुजरात सरकार को सुमेर सिंह राजपुरोहित को एक लाख रूपये हर्जाना अदा करके का आदेश दिया जो गुजरात सरकार के स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के खाते से अदा किया गया .. ये सारी घटनाये गुजरात दंगे से पहले की है ....

 ३-अहमदाबाद के पास अडालज में नर्मदा नहर के करीब २००० वार की सरकारी जमीन पर कब्जा करके बैठे है .. जब ये बात मीडिया में आई तो उन्होंने बताया की उन्होंने सुरम्य सोसाइटी में १००० वार का प्लाट ख़रीदा है जो उनकी माँ के नाम है ..

उन्होंने उस प्लाट की बाउंड्री करवा कर उनमे दो कमरे भी बनवा दिए लेकिन जब प्लाट को नापा गया तो वो २००० वार का निकला . असल में इन्होने नहर की तरफ सरकारी जमीन को भी अपने कब्जे में ले लिया ..
जब पत्रकारों ने उनसे पूछा की आपने अपने सम्पति डिक्लेरेशन में इस प्लाट का जिक्र क्यों नहीं किया तो वो चुप हो गए .. और मोदी सरकार पर उलटे ये आरोप लगाने लगे की उनको बदनाम किया जा रहा है ..

४- 1990 में जब संजीव भट्ट जी जाम नगर में डीएसपी थे तो पुलिस की पिटाई से एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई, संजीव भट्ट समेत छ अन्य पुलिस वाले आरोपी बनाए गए | ये केस आज भी जाम खंभालिया कोर्ट मे चल रहा है ..

५- ये जनाब लगातार १० महीने तक डियूटी से अनुपस्थित रहे ..और सरकार की किसी भी नोटिस का ठीक से जबाब नहीं दिया

६- इनके उपर एक कांस्टेबल के डी पंथ ने बहुत ही गंभीर आरोप लगाये है .. इन्होने मोदी के उपर लगाये गए आरोपों को और मजबूत करने के इरादे से पंथ का अपहरण करके गुजरात कांग्रेस अध्यक्ष अर्जुन मोधवाडिया के बंगले पर ले गये और फिर वहा पर उससे जबरजस्ती कई फर्जी कागजो पर साइन करवाया .

७- इनके उपर गुजरात के सहायक अटार्नी जनरल का ई मेल हैक करके कई गोपनीय सुचनाये चुराने का केस दर्ज है ..जिसमे आई टी एक्ट भी लगाया गया है

८- इन्होने मोदी के उपर जिस मीटिंग मे मुसलमानों के उपर हमलेका आदेश देने का आरोप लगाया है तत्कालीन डीजीपी श्री के चक्रवर्ती ने कहा की संजीव भट्ट उस बैठक में शामिल ही नहीं थे जिसका जिक्र संजीव भट्ट ने एफिडेविट में किया है |

९- आखिर इनके एफिडेविट को सुप्रीम कोर्ट ने लेने से ही मना क्यों कर दिया ?

मित्रों , अब मै इस देश की मीडिया जो कांग्रेस के हाथो बिक चुकी है क्या मेरे इन सवालों का जबाब देगी ?

१-आखिर मिडिया संजीव भट्ट या उनके पत्नी से ये क्यों नहीं पूछता कि आखिर इन्होने गुजरात दंगे के १० साल के बाद क्यों अचानक अपना फर्ज याद आया ?

२-आखिर ये १० साल तक चूप क्यों थे ?? क्या इनका जमीर १० साल के बाद जगा जब रिटायरमेंट के बाद केद्र मे कांग्रेस के द्वारा बड़ा पद मिलने का लालच दिया गया ?

३-और एक चौकाने वाला खुलासा हुआ है कि सादिक हुसैन शेख नामक जिस नोटरी से तीस्ता ने गुजरात दंगों के फर्जी हलफनामे बनवाये, उसी नोटरी से संजीव भट्ट साहब ने भी अपना हलफनामा बनवाया आखिर क्यों??

४- आज की तारीख मे कांग्रेस के द्वारा पंजाब मे १०० से ज्यादा पुलिस कर्मी आतंकवाद ने दौरन मानवाधिकारों के हनन और फर्जी एन्काउंटर के आरोप मे कई सालो से जेल मे बंद है और १२ पुलिस अधिकारी आत्महत्या तक कर चुके है .. जिसमे सबसे दुखद वाकया तरन तारन के युवा और कर्तव्यनिष्ठ एस एस पी श्री अजित सिंह संधू द्वारा चालीस मुकदमे से तंग आकर ट्रेन से आगे कूदकर आत्महत्या करना रहा है . फिर कांग्रेस किस मुंह से मोदी पर आरोप लगा रही है ?

असल मे संजीव भट्ट आज गुजरात कांग्रेस के नेताओ की वजह से जेल मे है ..

जी हाँ मित्रों ये सच है .. मेरे बहुत से मित्र गुजरात कांग्रेस मे कई बड़े पदों पर पदाधिकारी है उन्होंने मुझे कई चौकाने वाले खुलासे किये ..
असल मे संजीव भट्ट बहुत ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति है .. उन्हें रिटायरमेंट के बाद केन्द्र सरकार मे कोई बड़ी नियुक्ति का लालच कांग्रेस के नेताओ ने दिया ..फिर ये पूरा खेल खेला गया ..  
कांग्रेस ये मान कर चल रही थी कि सुप्रीम कोर्ट मोदी पर एफ आई आर दर्ज करने का आदेश जरुर देगी और फिर मोदी को इस्तीफ़ा देना पड़ेगा जिससे गुजरात मे बीजेपी कमजोर हों जायेगी .. कांग्रेस के नेताओ ने तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के दिन पुरे गुजरात मे बाँटने के लिए कई क्विंटल मिठाई तक इक्कठा कर लिया था . लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तब सब मुंह छिपाने लगे।


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लेख क्रमांक 2 
राजबाला का सबसे बड़ा गुनाह:क्योंकि वो राजबाला थी कोई जकिया जाफरी या जाहिरा शेख नहीं !! 


बेचारी राजबाला १२४ दिनों तक कोमा मे रहने के बाद जिंदगी की जंग हार गयी . डॉक्टरों ने सरकार को तीन बार पत्र लिखा था उन्हें अमेरिका के पेंसिल्वेनिया मेडिकल इंस्टीट्यूट भेजना चाहिए .. लेकिन आम आदमी का दंभ भरने वाली कांग्रेस कितनी निर्दयी है की उसने अमेरिका तो दूर भारत मे भी उसका इलाज ठीक से नहीं करवाया .


एक तरफ सोनिया गाँधी को सरकार एक खास एयर एम्बुलेंस मे रातो रात अमेरिका इलाज के लिए भेजती है और सोनिया के लिए २५ लाख रूपये प्रतिदिन वाला सेवेन स्टार सुइट बुक करवाती है इस सुइट मे से हडसन नदी , स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी , और अटलांटिक महासागर का दिलकश नज़ारा साफ साफ दिखता है ..

राजबाला की मौत के रिपोर्ट के लिए उनके परिजनों को धरने पर बैठना पड़ा . फिर जब टीम अन्ना से कई सदस्य अस्पताल पहुचे उसके बाद डॉक्टरों ने उनकी मौत की रिपोर्ट उनके परिजनों को सौपे। इस घटना के दो सबसे बड़े शर्मनाक पहलु है ..पहला राजबाला को लेकर मिडिया का रवैया और दूसरा सरकार और कांग्रेस का!.

राजबाला १२४ दिनों तक दिल्ली के एक अस्पताल मे जिंदगी और मौत का संघर्ष कर रही थी लेकिन इस बीच कांग्रेस का एक भी नेता और सरकार का एक भी मंत्री उनका हाल चाल लेने नहीं पंहुचा .. क्या राजबाला की जगह कोई मुस्लिम महिला होती तो भी क्या कांग्रेस इतनी नीच रवैया दिखाती ?

एक तरफ भरतपुर मे हिंसा पर उतारू भीड़ पर पुलिस को मज़बूरी मे गोली चलानी पड़ी जिससे दो मुसलमान मरे .. फिर आनन फानन मे कांग्रेस ने वहाँ के एसपी और डीएम पर हत्या का मुकदमा दर्ज करने का आदेश दिया ..तो फिर राजबाला के हत्या के लिए चिदंबरम और दिल्ली पुलिस के आला अधिकारियो पर हत्या का मुकदमा क्यों नहीं सरकार दर्ज करने का आदेश देती है ? क्या सिर्फ इसलिए कि राजबाला हिंदू है और कांग्रेस हिन्दुओ से अति घृणा करती है ?

इस घटना को लेकर मीडिया ने भी अपने दोहरापन का फिर एक उदाहरण पेश किया . जब राजबाला का अंतिम सस्कार मे बाबा रामदेव और सुषमा स्वराज पहुचे तो मीडिया खासकर एनडीटीवी बार बार दिखा रहा था कि राजबाला के अंतिम संस्कार मे भी सियासत। जबकि ये दोगला चैनेल जिसके उपर भष्टाचार के कई आरोप है जिसके मलिक प्रणव रॉय के उपर सीबीआई मे तीन केस दर्ज है जो कांग्रेस के फेके टुकडो पर पलता है वो गुजरात दंगे के १० साल बाद भी उसको बार बार कुरेदता है तो क्या ये सियासत नहीं है ?

4 जून को हुए हादसे के बाद कितने पत्रकारों ने उसकी हालत जानने का प्रयास किया ? कितने चैनल में यह खबर दिखाई गयी कि पुलिस बर्बरता की शिकार एक निरीह महिला को अस्पताल में सही इलाज भी मिल पा रहा है या नहीं ? क्या किसी ने गुड़गांव में उसके घर जाकर परिजनों से कोई प्रतिक्रिया मांगी ?

जब एक मुस्लिम लड़की पर तेजाब फेका जाता है तो कांग्रेस सरकार उसका अमेरिका मे प्लास्टिक सर्जरी करवाती है इसमें मुझे या किसी को कोई आपत्ति नहीं है लेकिन जब किसी हिंदू पीड़ित की बारी आती है फिर कांग्रेस की संवेदनाये क्यों मर जाती है ?

अभी ताजा उदाहरण एक हिंदू दलित महिला भंवरी देवी का है . भारत के इतिहास मे पहली बार हुआ है कि एक मंत्री पर बलात्कार , अपहरण , हत्या जैसे संगीन आरोप मे एफ आई आर दर्ज होता है लेकिन ना तो मंत्री इस्तीफ़ा देता है और ना कांग्रेस उस मंत्री से इस्तीफ़ा लेती है अगर उस भंवरी देवी की जगह कोई मुस्लिम महिला होती तो भी क्या कांग्रेस चुप रहती ?

कांग्रेस के इस रवैये ने ये साफ कर दिया है कि कांग्रेस को हिन्दुओ के दुःख दर्द से कोई मतलब नहीं है अब भी अगर हम हिंदू कांग्रेस को वोट देंगे तो फिर आज राजबाला है कल हमारे घर की माँ और बहने भी कांग्रेस की लाठियो से घायल होकर एक जिन्दा लाश की तरह पड़ी रहेंगी !

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शनिवार, 01 अक्टूबर 2011 20:16

Telangana Movement, Congress and Telangana State

"आधुनिक नीरो" 19 दिनों से बंसी बजा रहा है… (सन्दर्भ : तेलंगाना राज्य आंदोलन)

9 दिसम्बर 2009 (अर्थात सोनिया गाँधी के जन्मदिन) पर तेलंगाना क्षेत्र के कांग्रेसी सांसदों ने सोनिया गाँधी को शॉल ओढ़ाकर फ़ूलों का जो गुलदस्ता भेंट किया था, वह अब कांग्रेस को बहुत महंगा पड़ने लगा है। दो साल पहले इन सांसदों ने "महारानी" को शॉल ओढ़ाकर तेलंगाना राज्य बनवाने की घोषणा करवा ली (सोनिया ने उस समय "महारानियों की तरह खुश होकर" बिना सोचे-समझे आंध्रप्रदेश के विभाजन की घोषणा ऐसे कर दी थी, मानो उन्हें अपने घर में पड़े हुए केक के दो टुकड़े करने का आग्रह किया गया हो…)। सोनिया गाँधी और कांग्रेस ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि तेलंगाना आंदोलन दो साल में ऐसा गम्भीर रुख ले लेगा कि अब वहाँ से कांग्रेस का पूर्ण सफ़ाया होने की नौबत आ जाएगी…।

इस बुरी स्थिति से बचने के लिए और आंध्रप्रदेश के शक्तिशाली रेड्डियों की नाराज़गी से बचने के लिए अब तक कांग्रेस इस मुद्दे को लटकाए रखी, और "सही मौके" का इन्तज़ार करती रही… उधर स्थिति और बिगड़ती चली गई।

सोनिया की मुहर लगते ही चमचेनुमा कांग्रेसियों ने तेलंगाना का जयघोष कर दिया। गृहमंत्री ने संसद में ऐलान कर दिया कि अलग तेलंगाना राज्य बनाने के लिये आंध्र की राज्य सरकार एक विधेयक पास करके केन्द्र को भेजेगी। इस मूर्खतापूर्ण कवायद ने आग को और भड़का दिया। सबसे पहला सवाल तो यही उठता है कि चिदम्बरम कौन होते हैं नये राज्य के गठन की हामी भरने वाले? क्या तेलंगाना और आंध्र, कांग्रेस के घर की खेती है या सोनिया गाँधी की बपौती हैं? इतना बड़ा निर्णय किस हैसियत और प्रक्तिया के तहत लिया गया? न तो केन्द्रीय कैबिनेट में कोई प्रस्ताव रखा गया, न तो यूपीए के अन्य दलों को इस सम्बन्ध में विश्वास में लिया गया, न ही किसी किस्म की संवैधानिक पहल की गई, राज्य पुनर्गठन आयोग बनाने के बारे में कोई बात नहीं हुई, आंध्र विधानसभा ने प्रस्ताव पास किया नहीं… फ़िर किस हैसियत से सोनिया और चिदम्बरम ने तेलंगाना राज्य बनाने का निर्णय बाले-बाले ही ले लिया?


वर्तमान स्थिति यह है कि तेलंगाना में पिछले 19 दिनों से आम जनजीवन ठप पड़ा है, राज्य और केन्द्र सरकार के कर्मचारी खुलेआम आदेशों का उल्लंघन करके छुट्टी पर हैं। कोयला खदान कर्मचारियों द्वारा तेलंगाना के समर्थन में खुदाई बन्द करने से महाराष्ट्र और तेलंगाना में बिजली संकट पैदा हो गया है… चारों तरफ़ अव्यवस्था फ़ैली हुई है और इधर कांग्रेस अपने "2G के गंदे कपड़े" धोने में व्यस्त है।

अपने "चरणचुम्बन" से खुश होकर, किसी भी गम्भीर मुद्दे पर इस प्रकार की नौसिखिया बयानबाजी की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, अब आंध्र और तेलंगाना की स्थानीय कांग्रेस को यह समझ में आ रहा है। सोनिया गाँधी ने इस मामले को छत्तीसगढ़, उत्तरांचल और झारखण्ड जैसा आसान समझा था, जबकि ऐसा है नहीं…। आंध्र और रायलसीमा के दबदबे वाले "रेड्डी" इतनी आसानी से विभाजन स्वीकार नहीं करेंगे, यदि किसी तरह कर भी लिया तो असली पेंच है राजधानी के रूप में "हैदराबाद" की माँग…। हैदराबाद से मिलने वाले राजस्व, भू-माफ़िया पर रेड्डियों के कब्जे, तमाम सुविधाओं तथा ज़मीन की कीमत को देखते हुए इसे कोई भी नहीं छोड़ना चाहता, यहाँ तक कि हैदराबाद को "चंडीगढ़" की तर्ज़ पर दोनों राज्यों की राजधानी बनाए रखने के सुझाव को भी खारिज किया जा चुका है…। रेड्डियों की शक्ति का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि लोकसभा में सर्वाधिक सम्पत्ति वाले सांसदों में पहले और दूसरे नम्बर पर आंध्र के ही सांसद हैं, तथा देश में सबसे अधिक प्रायवेट हेलीकॉप्टर रखने वाला इलाका बेल्लारी, जो कहने को तो कर्नाटक में है, लेकिन वहाँ भी रेड्डियों का ही साम्राज्य है।

खैर आगे जो भी हो, लेकिन फ़िलहाल हालत यह है कि तेलंगाना इलाके में जनजीवन पूरी तरह अस्तव्यस्त है, सरकार का अरबों रुपये के राजस्व का नुकसान हो चुका है (फ़िलहाल आंदोलन शांतिपूर्ण है इसलिए… यदि हिंसक आंदोलन होता तो नुकसान और भी अधिक होता), तेलंगाना क्षेत्र के पहले से ही गरीब दिहाड़ी मजदूरों की रोजी-रोटी का संकट उत्पन्न हो गया है… लेकिन 19 दिनों से दिल्ली में "नीरो" चैन की बंसी बजा रहा है… लानत है।

लेकिन दिल्ली के "नीरो" को इस प्रकार बांसुरी बजाने की आदत सी हो गई है, पिछले कई दिनों से सशस्त्र नगा उग्रवादियों ने नगा-कुकी संघर्ष के कारण मणिपुर जाने वाले एकमात्र राजमार्ग को बन्द कर रखा है, जिसके कारण मणिपुर में गैस सिलेण्डर 1700 रुपये, एवं डीजल 200 रुपए लीटर मिल रहा है, परन्तु कोई कार्रवाई नहीं हो रही…। चर्च समर्थित नगा उग्रवादी, आए दिन मणिपुर के निवासियों का जीना हराम किये रहते हैं, लेकिन हमारे "नीरो" को GDP तथा विकास दर प्रतिशत के आँकड़ों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं…

भगवान जाने "तथाकथित विद्वान" अर्थशास्त्रियों का यह "झुण्ड" हमारा पीछा कब छोड़ेगा, और कब एक "असली जननेता" देश का प्रधानमंत्री बनेगा…
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तेलंगाना क्षेत्र एवं इस राज्य की जायज़ माँग के बारे में विस्तार से पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए यह लेख भी अवश्य पढ़ें…
http://blog.sureshchiplunkar.com/2009/12/telangana-movement-sonia-gandhi-and.html
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