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रविवार, 27 जुलाई 2008 16:58
पाँच सौ “दया नायक” चाहिये, गाँधीगिरी से कुछ नहीं होगा…
Terrorism in India Causes and Remedies
भारत में बम विस्फ़ोटों का सिलसिला लगातार जारी है… नेताओं का अनर्गल प्रलाप और खानापूर्ति (यह पोस्ट पढ़ें) भी हमेशा की तरह जारी है, साथ ही जारी है हम भारतीयों (खासकर छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों का प्रलाप और “गाँधीगिरी” नाम की मूर्खता भी – इसे पढ़ें)। पता नहीं हम लोग यह कब मानेंगे कि आतंकवाद अब इस देश में एक कैंसर का रूप ले चुका है। आतंकवाद या आतंकवादियों का निदान अब साधारण तरीकों से सम्भव नहीं रह गया है। अब “असाधारण कदम” उठाने का वक्त आ गया है (वैसे तो वह काफ़ी पहले ही आ चुका है)। जब शरीर का कोई अंग सड़ जाता है तब उसे काटकर फ़ेंक दिया जाता है, एक “बड़ा ऑपरेशन” (Major Surgery) किया जाता है, ठीक यही किये बिना हम आतंकवाद से नहीं लड़ सकते। लचर कानूनों, समय काटती घिसी-पिटी अदालतों, आजीवन सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले “थकेले” धर्मनिरपेक्षतावादियों, भ्रष्ट पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के रहते आतंकवाद समाप्त होने वाला नहीं है। अब इस देश को आवश्यकता है कम से कम पाँच सौ “दया नायक” की, ऐसे पुलिस अफ़सरों की जो देशभक्त और ईमानदार हैं, लेकिन “व्यवस्था” के हाथों मजबूर हैं और कुछ कर नहीं पा रहे। ऐसे पुलिस अफ़सरों को चुपचाप अपना एक तंत्र विकसित करना चाहिये, “समान विचारधारा वाले” अधिकारियों, पुलिस वालों, मुखबिरों आदि को मिलाकर एक टीम बनाना चाहिये। यह टीम आतंकवादियों, उनके खैरख्वाहों, पनाहगाहों पर जाकर हमला बोले, और उन्हें गिरफ़्तार न करते हुए वहीं हाथोंहाथ खत्म करे। यदि हम गिलानी, अफ़जल, मसूद, उमर जैसे लोगों को नहीं पकड़ते तो न हमें उन्हें अपना “दामाद” बनाकर रखना पड़ता, न ही कंधार जैसे प्रकरण होते। क्या कोई बता सकता है कि हमने अब्दुल करीम तेलगी, अबू सलेम आदि को अब तक जीवित क्यों रखा हुआ है? क्यों नहीं उन जैसों को जल्द से जल्द खत्म कर देते हैं? क्या उन जैसे अपराधी सुधरने वाले हैं? या उन जैसे लोग माफ़ी माँगकर देशभक्त बन जाने वाले हैं? या क्या उनके अपराध छोटे से हैं?
आतंकवाद अब देश के कोने-कोने में पहुँच चुका है (courtesy Bangladesh और Pakistan), लेकिन हम उसे कुचलने की बजाय उसका पोषण करते जा रहे हैं, वोट-बैंक के नाम पर। हमें यह स्वीकार करने में झिझक होती है कि रिश्वत के पैसों के कारण भारत अन्दर से खोखला हो चुका है। इस देश में लोग पेंशनधारियों से, श्मशान में मुर्दों की लकड़ियों में, अस्पतालों में बच्चों की दवाइयों में, विकलांगों की ट्राइसिकल में, गरीबों के लिये आने वाले लाल गेहूँ में… यहाँ तक कि देश के लिये अपनी जान कुर्बान कर देने वाले सैनिकों के सामान में भी भ्रष्टाचार करके अपनी जेबें भरने में लगे हुए हैं। देशभक्ति, अनुशासन, त्याग आदि की बातें तो किताबी बनती जा रही हैं, ऐसे में आप आतंकवाद से लड़ने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? इन सड़े हुए अधिकारियों के बल पर? या इस गली हुई व्यवस्था के बल पर, जो एक मामूली जेबकतरे को दस साल तक जेल में बन्द कर सकती है, लेकिन बिजली चोरी करने वाले उद्योगपति को सलाम करती है।
नहीं… अब यह सब खत्म करना होगा। जैसा कि पहले कहा गया कि हमें कम से कम 500 “दया नायक” चाहिये होंगे, जो मुखबिरों के जरिये आतंकवादियों को ढूँढें और बिना शोरशराबे के उन्हें मौत के घाट उतार दे (खासकर हमारे “नकली मीडिया” को पता चले बिना)। और यह काम कुछ हजार ईमानदार पुलिस अधिकारी अपने व्यक्तिगत स्तर पर भी कर सकते हैं। कहा जाता है कि ऐसा कोई अपराध नहीं होता जो पुलिस नहीं जानती, और कुछ हद तक यह सही भी है। पुलिस को पूर्व (रिटायर्ड) अपराधियों की मदद लेना चाहिये, यदि किसी जेबकतरे या उठाईगीरे को छूट भी देनी पड़े तो दे देना चाहिये बशर्ते वह “काम की जानकारी” पुलिस को दे। फ़िर काम की जानकारी मिलते ही टूट पड़ें, और एकदम असली लगने वाले “एनकाउंटर” कैसे किये जाते हैं यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है। अपराधियों, आतंकवादियों का पीछा करके उन्हें नेस्तनाबूद करना होगा, सिर्फ़ आतंकवादी नहीं बल्कि उसके समूचे परिवार का भी सफ़ाया करना होगा। उनका सामाजिक बहिष्कार करना होगा, उनके दुकान-मकान-सम्पत्ति आदि को कुर्क करना होगा, उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर देना चाहिये, तभी हम उन पर मानसिक विजय प्राप्त कर सकेंगे। अभी तो हालत यह है कि पुलिस की टीम या तो भ्रष्ट मानसिकता से ग्रस्त है या फ़िर परास्त मानसिकता से।
“संजू बाबा” नाम के एक महान व्यक्ति ने “गाँधीगिरी” नाम की जो मूर्खता शुरु की थी, उसे जरूर लोगों ने अपना लिया है, क्योंकि यह आसान काम जो ठहरा। एक शहर में ट्रैफ़िक इंस्पेक्टर तक “गाँधीगिरी” दिखा रहे हैं, चौराहे पर खड़े होकर खासकर लड़कियों-महिलाओं को फ़ूल भेंट कर रहे हैं कि “लायसेंस बनवा लीजिये…”, बच्चों को फ़ूल भेंट कर रहे हैं कि “बेटा 18 साल से कम के बच्चे बाइक नहीं चलाते…”… क्या मूर्खता है यह आखिर? क्या इससे कुछ सुधार आने वाला है? इस निकम्मी गाँधीगिरी की बजाय अर्जुन की “गांडीवगिरी” दिखाने से बात बनेगी। सिर्फ़ एक बार, नियम तोड़ने वाले की गाड़ी जब्त कर लो, चौराहे पर ही उसके दोनों पहियों की हवा निकालकर उसे घर से अपने बाप को लाने को कहो, देखो कैसे अगली बार से वह सड़क पर सीधा चलता है या नहीं? लेकिन नहीं, बस लगे हैं चूतियों की तरह “गाँधीगिरी के फ़ूल” देने में। इसी मानसिकता ने देश का कबाड़ा किया हुआ है। आक्रामकता, जीतने का जज्बा और लड़ने का जीवट हममें है ही नहीं, हाँ ऊँची-ऊँची बातें करना अवश्य आता है, “भारत विश्व का गुरु है…”, “भारत ने विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ाया…”, “हिन्दू धर्म सहनशील है, सहिष्णु है (मतलब डरपोक है)…” आदि-आदि, लेकिन इस महान देश ने कभी भी स्कूल-कॉलेजों में हर छात्र के लिये कम से कम तीन साल की सैनिक शिक्षा जरूरी नहीं समझी (यौन शिक्षा ज्यादा जरूरी है)।
जब व्यवस्था पूरी तरह से सड़ चुकी हो, उस समय केपीएस गिल, रिबेरो जैसे कुछ जुनूनी व्यक्ति ही देश का बेड़ा पार लगा सकते हैं, आतंकवाद से लड़ाई “मरो या मारो” की होनी चाहिये, “मरो” पर तो वे लोग हमसे अमल करवा ही रहे हैं, हम कब “मारो” पर अमल करेंगे? देश के गुमनाम “दया नायकों” उठ खड़े हो…
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आतंकवाद अब देश के कोने-कोने में पहुँच चुका है (courtesy Bangladesh और Pakistan), लेकिन हम उसे कुचलने की बजाय उसका पोषण करते जा रहे हैं, वोट-बैंक के नाम पर। हमें यह स्वीकार करने में झिझक होती है कि रिश्वत के पैसों के कारण भारत अन्दर से खोखला हो चुका है। इस देश में लोग पेंशनधारियों से, श्मशान में मुर्दों की लकड़ियों में, अस्पतालों में बच्चों की दवाइयों में, विकलांगों की ट्राइसिकल में, गरीबों के लिये आने वाले लाल गेहूँ में… यहाँ तक कि देश के लिये अपनी जान कुर्बान कर देने वाले सैनिकों के सामान में भी भ्रष्टाचार करके अपनी जेबें भरने में लगे हुए हैं। देशभक्ति, अनुशासन, त्याग आदि की बातें तो किताबी बनती जा रही हैं, ऐसे में आप आतंकवाद से लड़ने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? इन सड़े हुए अधिकारियों के बल पर? या इस गली हुई व्यवस्था के बल पर, जो एक मामूली जेबकतरे को दस साल तक जेल में बन्द कर सकती है, लेकिन बिजली चोरी करने वाले उद्योगपति को सलाम करती है।
नहीं… अब यह सब खत्म करना होगा। जैसा कि पहले कहा गया कि हमें कम से कम 500 “दया नायक” चाहिये होंगे, जो मुखबिरों के जरिये आतंकवादियों को ढूँढें और बिना शोरशराबे के उन्हें मौत के घाट उतार दे (खासकर हमारे “नकली मीडिया” को पता चले बिना)। और यह काम कुछ हजार ईमानदार पुलिस अधिकारी अपने व्यक्तिगत स्तर पर भी कर सकते हैं। कहा जाता है कि ऐसा कोई अपराध नहीं होता जो पुलिस नहीं जानती, और कुछ हद तक यह सही भी है। पुलिस को पूर्व (रिटायर्ड) अपराधियों की मदद लेना चाहिये, यदि किसी जेबकतरे या उठाईगीरे को छूट भी देनी पड़े तो दे देना चाहिये बशर्ते वह “काम की जानकारी” पुलिस को दे। फ़िर काम की जानकारी मिलते ही टूट पड़ें, और एकदम असली लगने वाले “एनकाउंटर” कैसे किये जाते हैं यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है। अपराधियों, आतंकवादियों का पीछा करके उन्हें नेस्तनाबूद करना होगा, सिर्फ़ आतंकवादी नहीं बल्कि उसके समूचे परिवार का भी सफ़ाया करना होगा। उनका सामाजिक बहिष्कार करना होगा, उनके दुकान-मकान-सम्पत्ति आदि को कुर्क करना होगा, उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर देना चाहिये, तभी हम उन पर मानसिक विजय प्राप्त कर सकेंगे। अभी तो हालत यह है कि पुलिस की टीम या तो भ्रष्ट मानसिकता से ग्रस्त है या फ़िर परास्त मानसिकता से।
“संजू बाबा” नाम के एक महान व्यक्ति ने “गाँधीगिरी” नाम की जो मूर्खता शुरु की थी, उसे जरूर लोगों ने अपना लिया है, क्योंकि यह आसान काम जो ठहरा। एक शहर में ट्रैफ़िक इंस्पेक्टर तक “गाँधीगिरी” दिखा रहे हैं, चौराहे पर खड़े होकर खासकर लड़कियों-महिलाओं को फ़ूल भेंट कर रहे हैं कि “लायसेंस बनवा लीजिये…”, बच्चों को फ़ूल भेंट कर रहे हैं कि “बेटा 18 साल से कम के बच्चे बाइक नहीं चलाते…”… क्या मूर्खता है यह आखिर? क्या इससे कुछ सुधार आने वाला है? इस निकम्मी गाँधीगिरी की बजाय अर्जुन की “गांडीवगिरी” दिखाने से बात बनेगी। सिर्फ़ एक बार, नियम तोड़ने वाले की गाड़ी जब्त कर लो, चौराहे पर ही उसके दोनों पहियों की हवा निकालकर उसे घर से अपने बाप को लाने को कहो, देखो कैसे अगली बार से वह सड़क पर सीधा चलता है या नहीं? लेकिन नहीं, बस लगे हैं चूतियों की तरह “गाँधीगिरी के फ़ूल” देने में। इसी मानसिकता ने देश का कबाड़ा किया हुआ है। आक्रामकता, जीतने का जज्बा और लड़ने का जीवट हममें है ही नहीं, हाँ ऊँची-ऊँची बातें करना अवश्य आता है, “भारत विश्व का गुरु है…”, “भारत ने विश्व को अहिंसा का पाठ पढ़ाया…”, “हिन्दू धर्म सहनशील है, सहिष्णु है (मतलब डरपोक है)…” आदि-आदि, लेकिन इस महान देश ने कभी भी स्कूल-कॉलेजों में हर छात्र के लिये कम से कम तीन साल की सैनिक शिक्षा जरूरी नहीं समझी (यौन शिक्षा ज्यादा जरूरी है)।
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ब्लॉग
गुरुवार, 24 जुलाई 2008 13:36
And the winner is……मायावती (भाग-2)
Prime Minister Mayawati Dalit Movement
भाग-1 से जारी… आने वाले 5-10 वर्षों के भीतर ही मायावती कम से कम एक बार तो प्रधानमंत्री जरूर बनेंगी। इस सोच के पीछे मेरा आकलन इस प्रकार है कि उत्तरप्रदेश में आगामी लोकसभा चुनाव के समय मायावती सत्ता में रहेंगी। अभी उनके पास 17 सांसद हैं, यदि सिर्फ़ उत्तरप्रदेश में वे अपनी सीटें दुगुनी कर लें यानी 34, तो मध्यप्रदेश के बुंदेलखण्ड और विन्ध्य इलाके में उनकी कम से कम 1 या 2 सीटें आने की उम्मीद है। (आने वाले मध्यप्रदेश के चुनावों में इस इलाके से हमें कुछ आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिल सकते हैं)। इस प्रकार यदि वे समूचे भारत में कहीं आपसी समझ से या गठबन्धन करके कांग्रेस/भाजपा से 10 सीटें भी छीन पाती हैं तो उनकी सीटों की संख्या 50 के आसपास पहुँचती है, और इतना तो काफ़ी है किसी भी प्रकार की “सौदेबाजी” के लिये।
निकट भविष्य में केन्द्र में एक पार्टी की सरकार बनने की कोई सम्भावना नहीं दिखाई देती, सो गठबंधन सरकारों के इस दौर में 50 सीटों वाली पार्टी को कोई भी “इग्नोर” नहीं कर सकता। और फ़िर जब दो-चार सीटों वाले देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बन सकते हैं, नौकरशाह से राजनेता बने आईके गुजराल बन सकते हैं, गैर-जनाधार वाले राज्यसभा सदस्य मनमोहन सिंह बन सकते हैं, चारा घोटाले में गले-गले तक डूबे और बिहार को बदहाल बना देने वाले लालू इस पद का सपना देख सकते हैं तो फ़िर मायावती क्यों नहीं बन सकती? उनका तो व्यापक जनाधार भी है। बसपा का यह पसन्दीदा खेल रहा है कि सरकारें अस्थिर करके वे अपना जनाधार बढ़ाते हैं, भविष्य में हमें केन्द्र में ढाई-ढाई साल में प्रधानमंत्री की अदला-बदली देखने को मिल जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये।
मैं जानता हूँ कि काफ़ी लोग मायावती से घृणा करते हैं, लेकिन यह तो आडवाणी, सोनिया, नरेन्द्र मोदी, अर्जुनसिंह सभी के साथ होता है। जिन्होंने मायावती की रैलियों और दलित बस्तियों के “वोटिंग पैटर्न” को देखा है, वे इस बात से सहमत होंगे कि मायावती का वोट बैंक एक मजबूत वोट बैंक है। मैने खुद मायावती की रैली में आने वाले लोगों से एक-दो बार बात की है, दोपहर एक बजे की रैली के लिये दूरदराज से रात को ही लोग स्टेशनों-बस अड्डों पर आ जाते हैं, भूखे पेट रहकर सिर्फ़ “बहनजी” का भाषण सुनने और उन्हें देखने के लिये, ऐसा किसी पार्टी में नहीं होता। भ्रष्टाचार के आरोपों से देश का “इलीट” बुद्धिजीवी वर्ग अपनी नाक-भौं सिकोड़ता है, उसे नीची निगाह से देखता है खासकर मायावती के केस में। जब मायावती चन्दा लेती हैं, हीरे का मुकुट पहनती हैं, केक काटती हैं तब हमारा मीडिया उसे गलत तरीके से प्रचारित करता है और सोचता है कि इससे मायावती की “इमेज” खराब होगी। लेकिन यह सोच पूरी तरह से गलत है और एक मिथ्या आकलन है। जैसे-जैसे दलितों की राजनैतिक चेतना बढ़ रही है और मायावती उसे और हवा दे रही हैं, उससे उनके मन में एक विशेष प्रकार की गर्वानुभूति घर कर रही है।
जरा सोचकर देखिये कि पिछले साठ वर्षों में जितने भी घोटाले, गबन, भ्रष्टाचार, रिश्वत आदि के बड़े-बड़े काण्ड हुए उसमें अपराधियों या आरोपियों में कितने दलित हैं? कोई भी घोटाला उठाकर देख लीजिये, लगभग 95% आरोपी ब्राह्मण, ठाकुर, बनिये, यादव, मुस्लिम आदि हैं। यदि कांग्रेस के बड़े नेताओं (लगभग सभी सवर्ण) की सम्पत्ति का आकलन किया जाये तो मायावती उनके सामने कहीं नहीं ठहरतीं। ऐसे में दलितों के मन में यह भावना प्रबल है कि “इन लोगों” ने देश को साठ सालों में जमकर लूटा है, अब हमारी बारी आई है और जब “बहनजी” इनके ही क्षेत्र में जाकर इन्हें आँखे दिखा रही है तो इन लोगों को हजम नहीं हो रहा, और यह मायावती का अपना स्टाइल है कि वे धन-वैभव को खुलेआम प्रदर्शित करती हैं। दलित वर्ग यह स्पष्ट तौर पर सोचने लगा है कि पहले तो दलितों को आगे आने का मौका ही नहीं मिलता था, तो “पैसा खाने-कमाने” का मौका कहाँ से मिलता? और आज जब कांशीराम-मायावती की बदौलत कुछ रसूख मिलने जा रहा है, थानों में पुलिस अफ़सर उनकी सुनने लगे हैं, जिले में कलेक्टर उनके आगे हाथ बाँधे खड़े होने लगे हैं, तब जानबूझकर मायावती को बाकी सब लोग मिलकर “बदनाम” कर रहे हैं, फ़ँसा रहे हैं, उनके खिलाफ़ षडयन्त्र कर रहे हैं। भले ही यह सोच हमे-आपको देश के लिये घातक लगे और हम इसे बकवास कहकर खारिज करने की कोशिश करें, लेकिन यही कड़वा सच है, जिसे सभी को स्वीकारना होगा। तो भाई अमरसिंह जी सुन लीजिये कि मायावती के खिलाफ़ “भ्रष्टाचार” वाला मामला कहीं उनके वोट बनकर आप पर ही “बूमरेंग” न हो जाये… साथ ही मायावती का “बढ़ा हुआ कद” दोनों प्रमुख पार्टियों के लिये भी एक खतरे की घंटी है।
मायावती बार-बार पिछले एक साल से कांग्रेस पर आरोप लगा रही हैं कि वह उनकी हत्या का षडयंत्र रच रही है। पहले भी रहस्यमयी तरीके से और विभिन्न “दुर्घटनाओं”(?) में माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट, जीएमसी बालयोगी, प्रमोद महाजन, पीआर कुमारमंगलम जैसे युवा नेता (लगभग सभी भावी प्रधानमंत्री होने का दमखम रखते थे) अचानक समाप्त हो गये (या कर दिये गये?)। अब मायावती भी दोनों प्रमुख पार्टियों के “प्रमुख” लोगों की राह का कांटा बनती जा रही हैं, राजनीति में क्या होगा यह कहना मुश्किल है… लेकिन यदि मायावती जीवित रहीं तो निश्चित ही प्रधानमंत्री बनेंगी… 22 जुलाई को बीजारोपण हो चुका है, अब देखना है कि फ़सल कब आती है।
डिस्क्लेमर - इस लेख का मकसद सिर्फ़ एक राजनैतिक विश्लेषण है, किसी के भ्रष्टाचार को सही ठहराना नहीं…
Mayawati, BSP, BJP, Congress, Samajwadi Party, Amar Singh, Mulayam Singh, Dewegaoda, Constitution of India, Dalit Movement in India, Mayawati-Kanshiram, Leftist, Communists, Confidence Motion in Loksabha, Manmohan Singh, Reliance Industries, Bundelkhand, Corruption of Upper Caste Leaders, मायावती, बसपा, भाजपा, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, अमर सिंह, मुलायम सिंह, देवेगौड़ा, भारत का संविधान, भारत में दलित आंदोलन, मायावती कांशीराम, लोकसभा में विश्वास मत, मनमोहन सिंह, रिलायंस, बुन्देलखंड, सवर्ण नेताओं का भ्रष्टाचार, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
भाग-1 से जारी… आने वाले 5-10 वर्षों के भीतर ही मायावती कम से कम एक बार तो प्रधानमंत्री जरूर बनेंगी। इस सोच के पीछे मेरा आकलन इस प्रकार है कि उत्तरप्रदेश में आगामी लोकसभा चुनाव के समय मायावती सत्ता में रहेंगी। अभी उनके पास 17 सांसद हैं, यदि सिर्फ़ उत्तरप्रदेश में वे अपनी सीटें दुगुनी कर लें यानी 34, तो मध्यप्रदेश के बुंदेलखण्ड और विन्ध्य इलाके में उनकी कम से कम 1 या 2 सीटें आने की उम्मीद है। (आने वाले मध्यप्रदेश के चुनावों में इस इलाके से हमें कुछ आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिल सकते हैं)। इस प्रकार यदि वे समूचे भारत में कहीं आपसी समझ से या गठबन्धन करके कांग्रेस/भाजपा से 10 सीटें भी छीन पाती हैं तो उनकी सीटों की संख्या 50 के आसपास पहुँचती है, और इतना तो काफ़ी है किसी भी प्रकार की “सौदेबाजी” के लिये।
निकट भविष्य में केन्द्र में एक पार्टी की सरकार बनने की कोई सम्भावना नहीं दिखाई देती, सो गठबंधन सरकारों के इस दौर में 50 सीटों वाली पार्टी को कोई भी “इग्नोर” नहीं कर सकता। और फ़िर जब दो-चार सीटों वाले देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बन सकते हैं, नौकरशाह से राजनेता बने आईके गुजराल बन सकते हैं, गैर-जनाधार वाले राज्यसभा सदस्य मनमोहन सिंह बन सकते हैं, चारा घोटाले में गले-गले तक डूबे और बिहार को बदहाल बना देने वाले लालू इस पद का सपना देख सकते हैं तो फ़िर मायावती क्यों नहीं बन सकती? उनका तो व्यापक जनाधार भी है। बसपा का यह पसन्दीदा खेल रहा है कि सरकारें अस्थिर करके वे अपना जनाधार बढ़ाते हैं, भविष्य में हमें केन्द्र में ढाई-ढाई साल में प्रधानमंत्री की अदला-बदली देखने को मिल जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये।
मैं जानता हूँ कि काफ़ी लोग मायावती से घृणा करते हैं, लेकिन यह तो आडवाणी, सोनिया, नरेन्द्र मोदी, अर्जुनसिंह सभी के साथ होता है। जिन्होंने मायावती की रैलियों और दलित बस्तियों के “वोटिंग पैटर्न” को देखा है, वे इस बात से सहमत होंगे कि मायावती का वोट बैंक एक मजबूत वोट बैंक है। मैने खुद मायावती की रैली में आने वाले लोगों से एक-दो बार बात की है, दोपहर एक बजे की रैली के लिये दूरदराज से रात को ही लोग स्टेशनों-बस अड्डों पर आ जाते हैं, भूखे पेट रहकर सिर्फ़ “बहनजी” का भाषण सुनने और उन्हें देखने के लिये, ऐसा किसी पार्टी में नहीं होता। भ्रष्टाचार के आरोपों से देश का “इलीट” बुद्धिजीवी वर्ग अपनी नाक-भौं सिकोड़ता है, उसे नीची निगाह से देखता है खासकर मायावती के केस में। जब मायावती चन्दा लेती हैं, हीरे का मुकुट पहनती हैं, केक काटती हैं तब हमारा मीडिया उसे गलत तरीके से प्रचारित करता है और सोचता है कि इससे मायावती की “इमेज” खराब होगी। लेकिन यह सोच पूरी तरह से गलत है और एक मिथ्या आकलन है। जैसे-जैसे दलितों की राजनैतिक चेतना बढ़ रही है और मायावती उसे और हवा दे रही हैं, उससे उनके मन में एक विशेष प्रकार की गर्वानुभूति घर कर रही है।
जरा सोचकर देखिये कि पिछले साठ वर्षों में जितने भी घोटाले, गबन, भ्रष्टाचार, रिश्वत आदि के बड़े-बड़े काण्ड हुए उसमें अपराधियों या आरोपियों में कितने दलित हैं? कोई भी घोटाला उठाकर देख लीजिये, लगभग 95% आरोपी ब्राह्मण, ठाकुर, बनिये, यादव, मुस्लिम आदि हैं। यदि कांग्रेस के बड़े नेताओं (लगभग सभी सवर्ण) की सम्पत्ति का आकलन किया जाये तो मायावती उनके सामने कहीं नहीं ठहरतीं। ऐसे में दलितों के मन में यह भावना प्रबल है कि “इन लोगों” ने देश को साठ सालों में जमकर लूटा है, अब हमारी बारी आई है और जब “बहनजी” इनके ही क्षेत्र में जाकर इन्हें आँखे दिखा रही है तो इन लोगों को हजम नहीं हो रहा, और यह मायावती का अपना स्टाइल है कि वे धन-वैभव को खुलेआम प्रदर्शित करती हैं। दलित वर्ग यह स्पष्ट तौर पर सोचने लगा है कि पहले तो दलितों को आगे आने का मौका ही नहीं मिलता था, तो “पैसा खाने-कमाने” का मौका कहाँ से मिलता? और आज जब कांशीराम-मायावती की बदौलत कुछ रसूख मिलने जा रहा है, थानों में पुलिस अफ़सर उनकी सुनने लगे हैं, जिले में कलेक्टर उनके आगे हाथ बाँधे खड़े होने लगे हैं, तब जानबूझकर मायावती को बाकी सब लोग मिलकर “बदनाम” कर रहे हैं, फ़ँसा रहे हैं, उनके खिलाफ़ षडयन्त्र कर रहे हैं। भले ही यह सोच हमे-आपको देश के लिये घातक लगे और हम इसे बकवास कहकर खारिज करने की कोशिश करें, लेकिन यही कड़वा सच है, जिसे सभी को स्वीकारना होगा। तो भाई अमरसिंह जी सुन लीजिये कि मायावती के खिलाफ़ “भ्रष्टाचार” वाला मामला कहीं उनके वोट बनकर आप पर ही “बूमरेंग” न हो जाये… साथ ही मायावती का “बढ़ा हुआ कद” दोनों प्रमुख पार्टियों के लिये भी एक खतरे की घंटी है।
मायावती बार-बार पिछले एक साल से कांग्रेस पर आरोप लगा रही हैं कि वह उनकी हत्या का षडयंत्र रच रही है। पहले भी रहस्यमयी तरीके से और विभिन्न “दुर्घटनाओं”(?) में माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट, जीएमसी बालयोगी, प्रमोद महाजन, पीआर कुमारमंगलम जैसे युवा नेता (लगभग सभी भावी प्रधानमंत्री होने का दमखम रखते थे) अचानक समाप्त हो गये (या कर दिये गये?)। अब मायावती भी दोनों प्रमुख पार्टियों के “प्रमुख” लोगों की राह का कांटा बनती जा रही हैं, राजनीति में क्या होगा यह कहना मुश्किल है… लेकिन यदि मायावती जीवित रहीं तो निश्चित ही प्रधानमंत्री बनेंगी… 22 जुलाई को बीजारोपण हो चुका है, अब देखना है कि फ़सल कब आती है।
डिस्क्लेमर - इस लेख का मकसद सिर्फ़ एक राजनैतिक विश्लेषण है, किसी के भ्रष्टाचार को सही ठहराना नहीं…
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बुधवार, 23 जुलाई 2008 21:44
And the winner is……मायावती (भाग-1)
Prime Minister Mayawati Dalit Movement
गत दिनों लोकसभा में जो “घमासान” और राजनैतिक नौटंकी हुई उसका नतीजा लगभग यही अपेक्षित ही था। अन्तर सिर्फ़ यह आया कि सपा-बसपा सांसदों के बीच मारपीट की आशंका गलत साबित हुई, लेकिन भाजपा ने जो “तथाकथित सनसनीखेज”(???) खुलासा किया, वह जरूर एक नया ड्रामा था, लेकिन तेजी से गिरते और “खिरते” लोकतन्त्र में वह कोई बड़ी बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि जनता को अब भविष्य में शीघ्र ही लोकसभा में चाकू-तलवार चलते देखने को मिल सकते हैं। इसलिये हैरान-परेशान होना बन्द कीजिये और लोकसभा में जो भी हो उसे “निरपेक्ष” भाव से देखिये, ठीक उसी तरह से जैसे आप-हम सड़क पर चलते किसी झगड़े को देखते हैं। बहरहाल… इस सारी उठापटक, जोड़तोड़, “मैनेजमैंट” आदि के बाद (यानी धूल का गुबार बैठ जाने के बाद) जो दृश्य उभरकर सामने आया है, उसके अनुसार इस तमाशे में लगभग सभी पार्टियों और नेताओं को नुकसान उठाना पड़ा है। लेकिन एक “वीरांगना” ऐसी है जिसे बेहद फ़ायदा हुआ है, और भविष्य की फ़सल के लिये उसने अभी से बीज बो दिये हैं। जी हाँ… मैं बात कर रहा हूँ बसपा सुप्रीमो मायावती की।
22 जुलाई के विश्वासमत से महज चार दिन पहले तक किसी ने सोचा नहीं था कि राजनैतिक समीकरण इतने उलझ जायेंगे और उसमें हमें इतने पेंच देखने को मिलेंगे। 17 तारीख तक मामला लगभग काफ़ी कुछ वामपंथी-भाजपा तथा अन्य के विपक्षी वोट के मुकाबले कांग्रेस-राजद आदि यूपीए के वोट जैसा था। इसी दिन वामपंथियों ने एक नया “कार्ड” खेला (जो कि बहुत देर से उठाया गया कदम था)। उन्होंने मायावती को सारे फ़ोकस के केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया और उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार प्रदर्शित किया। वामपंथी इसे अपना “मास्टर कार्ड” मान रहे थे, जबकि यह “ब्लाइंड शो” की तरह की चाल थी, जिसे जुआरी तब खेलता है, जब उसे हार-जीत की परवाह नहीं होती। लेकिन मायावती को इस सबसे कोई मतलब नहीं था, उन्हें तो बैठे-बिठाये एक बड़ा प्लेटफ़ॉर्म मिल गया, जहाँ से वे अपना भविष्य संवारने के सपने को और रंगीन और बड़ा बना सकती थीं और उन्होंने वह किया भी। जैसे ही 18 तारीख को मायावती ने दिल्ली में डेरा डाला, उन्होंने अपनी चालें तेजी और आत्मविश्वास से चलना शुरु कीं। सपा छोड़कर बसपा में आ चुके शातिर अपराधी अतीक अहमद को दिल्ली लाया गया, अजीत सिंह को 8-10 विधानसभा सीटें देने के वादा करके अपनी तरफ़ मिलाया, देवेगौड़ा से मुलाकात करके उन्हें पता नहीं क्या लालीपॉप दिया, वे भी UNPA के कुनबे में शामिल हो गये। लगे हाथों मायावती ने विदेश नीति पर एक-दो बयान भी ठोंक डाले कि यदि समझौता हुआ तो “अमेरिका ईरान पर हमला कर देगा…”, “भारत की सम्प्रभुता खतरे में पड़ जायेगी…” आदि-आदि। इन बयानों का असल मकसद था अपनी छवि को राष्ट्रीय बनाना और मुसलमानों को सपा के खिलाफ़ भड़काना, जिसमें वे काफ़ी हद तक कामयाब भी रहीं।
मायावती के इन तेज कदमों से राजनीतिक समीकरण भी तेजी से बदले, कांग्रेस-भाजपा में हड़बड़ाहट फ़ैल गई। दोनों पार्टियाँ नई रणनीति सोचने लगीं, दोनों को यह चिन्ता सताने लगी कि कहीं वाकई सरकार गिर गई तो क्या होगा? जबकि मायावती की सारी हलचलें असल में खुद के बचाव के लिये थी, उन्हें मालूम है कि अगले 6-8 महीने अमरसिंह उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जायेंगे और उन्हें सीबीआई के शिकंजे में फ़ँसाने की पूरी कोशिश की जायेगी। भाजपा को भी यह मालूम था कि कहीं वाकई सरकार गिर गई और वाम-UNPA ने सच में ही मायावती को प्रधानमंत्री पद के लिये आगे कर दिया तो भाजपा के लिये “एक तरफ़ कुँआ और दूसरी तरफ़ खाई” वाली स्थिति बन जाती। वह न तो मायावती का विरोध कर सकती थी, न समर्थन। एक बार समर्थन तो सस्ता भी पड़ता, क्योंकि पहले भी भाजपा-बसपा मिलकर काम कर चुके हैं, लेकिन विरोध करना बहुत महंगा पड़ता, भाजपा के माथे “दलित महिला को रोकने” का आरोप मढ़ा जाता। इस स्थिति से बचने के लिये और अपनी साख बचाने के लिये भाजपा को लोकसभा में नोट लहराने का कारनामा करना पड़ा। क्या यह मात्र संयोग है कि लोकसभा में एक करोड़ रुपये दिखाने वाले तीनों सांसद दलित हैं और उनकी सीटें अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित हैं? भाजपा को 22 जुलाई के दिन प्रमोद महाजन बहुत याद आये होंगे, यदि वे होते तो दृश्य कुछ और भी हो सकता था।
बहरहाल यह एक अलग मुद्दा है, बात हो रही है मायावती की। 18 जुलाई से 22 जुलाई के बीच मायावती ने बहुत कुछ “कमा” लिया, उन्होंने अपने “वोट-बैंक” को स्पष्ट संदेश दे दिया कि यदि वे लोग गंभीरता से सोचें तो मायावती देश की पहली दलित (वह भी महिला) प्रधानमंत्री बन सकती हैं। मायावती ने नये-नये दोस्त भी बना लिये हैं जो आगे चलकर उनके राष्ट्रीय नेता बनने के काम आयेंगे। “सीबीआई मुझे फ़ँसा रही है…” का राग वे पहले ही अलाप चुकी हैं तो यदि सच में ऐसा कुछ हुआ तो उनका वोट बैंक उन पर पूरा भरोसा करेगा।
जारी रहेगा भाग-2 में…
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गत दिनों लोकसभा में जो “घमासान” और राजनैतिक नौटंकी हुई उसका नतीजा लगभग यही अपेक्षित ही था। अन्तर सिर्फ़ यह आया कि सपा-बसपा सांसदों के बीच मारपीट की आशंका गलत साबित हुई, लेकिन भाजपा ने जो “तथाकथित सनसनीखेज”(???) खुलासा किया, वह जरूर एक नया ड्रामा था, लेकिन तेजी से गिरते और “खिरते” लोकतन्त्र में वह कोई बड़ी बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि जनता को अब भविष्य में शीघ्र ही लोकसभा में चाकू-तलवार चलते देखने को मिल सकते हैं। इसलिये हैरान-परेशान होना बन्द कीजिये और लोकसभा में जो भी हो उसे “निरपेक्ष” भाव से देखिये, ठीक उसी तरह से जैसे आप-हम सड़क पर चलते किसी झगड़े को देखते हैं। बहरहाल… इस सारी उठापटक, जोड़तोड़, “मैनेजमैंट” आदि के बाद (यानी धूल का गुबार बैठ जाने के बाद) जो दृश्य उभरकर सामने आया है, उसके अनुसार इस तमाशे में लगभग सभी पार्टियों और नेताओं को नुकसान उठाना पड़ा है। लेकिन एक “वीरांगना” ऐसी है जिसे बेहद फ़ायदा हुआ है, और भविष्य की फ़सल के लिये उसने अभी से बीज बो दिये हैं। जी हाँ… मैं बात कर रहा हूँ बसपा सुप्रीमो मायावती की।
22 जुलाई के विश्वासमत से महज चार दिन पहले तक किसी ने सोचा नहीं था कि राजनैतिक समीकरण इतने उलझ जायेंगे और उसमें हमें इतने पेंच देखने को मिलेंगे। 17 तारीख तक मामला लगभग काफ़ी कुछ वामपंथी-भाजपा तथा अन्य के विपक्षी वोट के मुकाबले कांग्रेस-राजद आदि यूपीए के वोट जैसा था। इसी दिन वामपंथियों ने एक नया “कार्ड” खेला (जो कि बहुत देर से उठाया गया कदम था)। उन्होंने मायावती को सारे फ़ोकस के केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया और उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार प्रदर्शित किया। वामपंथी इसे अपना “मास्टर कार्ड” मान रहे थे, जबकि यह “ब्लाइंड शो” की तरह की चाल थी, जिसे जुआरी तब खेलता है, जब उसे हार-जीत की परवाह नहीं होती। लेकिन मायावती को इस सबसे कोई मतलब नहीं था, उन्हें तो बैठे-बिठाये एक बड़ा प्लेटफ़ॉर्म मिल गया, जहाँ से वे अपना भविष्य संवारने के सपने को और रंगीन और बड़ा बना सकती थीं और उन्होंने वह किया भी। जैसे ही 18 तारीख को मायावती ने दिल्ली में डेरा डाला, उन्होंने अपनी चालें तेजी और आत्मविश्वास से चलना शुरु कीं। सपा छोड़कर बसपा में आ चुके शातिर अपराधी अतीक अहमद को दिल्ली लाया गया, अजीत सिंह को 8-10 विधानसभा सीटें देने के वादा करके अपनी तरफ़ मिलाया, देवेगौड़ा से मुलाकात करके उन्हें पता नहीं क्या लालीपॉप दिया, वे भी UNPA के कुनबे में शामिल हो गये। लगे हाथों मायावती ने विदेश नीति पर एक-दो बयान भी ठोंक डाले कि यदि समझौता हुआ तो “अमेरिका ईरान पर हमला कर देगा…”, “भारत की सम्प्रभुता खतरे में पड़ जायेगी…” आदि-आदि। इन बयानों का असल मकसद था अपनी छवि को राष्ट्रीय बनाना और मुसलमानों को सपा के खिलाफ़ भड़काना, जिसमें वे काफ़ी हद तक कामयाब भी रहीं।
मायावती के इन तेज कदमों से राजनीतिक समीकरण भी तेजी से बदले, कांग्रेस-भाजपा में हड़बड़ाहट फ़ैल गई। दोनों पार्टियाँ नई रणनीति सोचने लगीं, दोनों को यह चिन्ता सताने लगी कि कहीं वाकई सरकार गिर गई तो क्या होगा? जबकि मायावती की सारी हलचलें असल में खुद के बचाव के लिये थी, उन्हें मालूम है कि अगले 6-8 महीने अमरसिंह उनके पीछे हाथ धोकर पड़ जायेंगे और उन्हें सीबीआई के शिकंजे में फ़ँसाने की पूरी कोशिश की जायेगी। भाजपा को भी यह मालूम था कि कहीं वाकई सरकार गिर गई और वाम-UNPA ने सच में ही मायावती को प्रधानमंत्री पद के लिये आगे कर दिया तो भाजपा के लिये “एक तरफ़ कुँआ और दूसरी तरफ़ खाई” वाली स्थिति बन जाती। वह न तो मायावती का विरोध कर सकती थी, न समर्थन। एक बार समर्थन तो सस्ता भी पड़ता, क्योंकि पहले भी भाजपा-बसपा मिलकर काम कर चुके हैं, लेकिन विरोध करना बहुत महंगा पड़ता, भाजपा के माथे “दलित महिला को रोकने” का आरोप मढ़ा जाता। इस स्थिति से बचने के लिये और अपनी साख बचाने के लिये भाजपा को लोकसभा में नोट लहराने का कारनामा करना पड़ा। क्या यह मात्र संयोग है कि लोकसभा में एक करोड़ रुपये दिखाने वाले तीनों सांसद दलित हैं और उनकी सीटें अनुसूचित जाति के लिये आरक्षित हैं? भाजपा को 22 जुलाई के दिन प्रमोद महाजन बहुत याद आये होंगे, यदि वे होते तो दृश्य कुछ और भी हो सकता था।
बहरहाल यह एक अलग मुद्दा है, बात हो रही है मायावती की। 18 जुलाई से 22 जुलाई के बीच मायावती ने बहुत कुछ “कमा” लिया, उन्होंने अपने “वोट-बैंक” को स्पष्ट संदेश दे दिया कि यदि वे लोग गंभीरता से सोचें तो मायावती देश की पहली दलित (वह भी महिला) प्रधानमंत्री बन सकती हैं। मायावती ने नये-नये दोस्त भी बना लिये हैं जो आगे चलकर उनके राष्ट्रीय नेता बनने के काम आयेंगे। “सीबीआई मुझे फ़ँसा रही है…” का राग वे पहले ही अलाप चुकी हैं तो यदि सच में ऐसा कुछ हुआ तो उनका वोट बैंक उन पर पूरा भरोसा करेगा।
जारी रहेगा भाग-2 में…
Mayawati, BSP, BJP, Congress, Samajwadi Party, Amar Singh, Mulayam Singh, Dewegaoda, Constitution of India, Dalit Movement in India, Mayawati-Kanshiram, Leftist, Communists, Confidence Motion in Loksabha, Manmohan Singh, Reliance Industries, Bundelkhand, Corruption of Upper Caste Leaders, मायावती, बसपा, भाजपा, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, अमर सिंह, मुलायम सिंह, देवेगौड़ा, भारत का संविधान, भारत में दलित आंदोलन, मायावती कांशीराम, लोकसभा में विश्वास मत, मनमोहन सिंह, रिलायंस, बुन्देलखंड, सवर्ण नेताओं का भ्रष्टाचार, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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शनिवार, 19 जुलाई 2008 18:22
ब्लॉगरों और नेट मित्रों से विनम्र अनुरोध – समाजसेवा के इस प्रकल्प को अपने-अपने शहरों मे शुरु करें
Social Service Medical Equipments
उज्जैन में रहने वाले श्री पीडी कुलकर्णी एक निम्न-मध्यम वर्ग के नौकरीपेशा व्यक्ति हैं। उनका एक बड़ा ऑपरेशन 2005 में सम्पन्न हुआ। उसके बाद किसी अन्य स्वास्थ्य समस्या के कारण उन्हें काफ़ी दिन बिस्तर पर बिताने पड़े और पूरा परिवार उनकी सेवा में दिन-रात लगा रहा। उन दिनों उन्हें कई तरह के मेडिकल उपकरण खरीदने पड़े, जो कि उनके काम के थे, जैसे व्हील चेयर, वॉकर और फ़ोल्डिंग लेट्रिन सीट आदि। भगवान की कृपा से दो वर्ष के भीतर ही वह एकदम स्वस्थ हो गये, बीमा निगम की कृपा से उपचार में लगा कुछ प्रतिशत पैसा भी वापस मिल गया। लेकिन कुलकर्णी परिवार “पोस्ट-ऑपरेटिव केयर” पर जितना खर्च कर चुका था, उसकी आर्थिक भरपाई भी सम्भव नहीं थी, न ही इस सम्बन्ध में कोई सरकारी नियम हैं।
भारत में निजी स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार तेजी से जारी है, क्योंकि सरकारी स्वास्थ्य सेवायें भ्रष्टाचार, लालफ़ीताशाही और राजनीति के चलते लगभग निष्प्राण अवस्था में पहुँच चुकी हैं। इन निजी स्वास्थ्य सेवाओं के साथ-साथ इनसे जुड़े दो उद्योग भी तेजी से पनपे हैं वे हैं दवा उद्योग तथा मेडिकल उपकरण उद्योग। जैसा कि सभी जानते हैं कि महंगाई के कारण धीरे-धीरे स्वास्थ्य सेवायें भी आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रही हैं और किसी विशेष परिस्थिति में ऑपरेशन के बाद “पोस्ट-ऑपरेशन केयर” भी काफ़ी महंगा है।
इस स्थिति से निपटने और आम व्यक्ति को इन खर्चों से बचाने, तथा राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अनाप-शनाप मुनाफ़े को नियंत्रित करने की एक कोशिश के रूप में उज्जैन महाराष्ट्र समाज की एक शाखा “मराठी व्यावसायिक मंडल” (जो कुछ व्यवसायियों और गैर-सरकारी कर्मचारियों का एक समूह है) ने एक विशेष समाजसेवा का प्रकल्प हाथ में लिया है। इस प्रकल्प का नाम है “डॉ स्व वीडी मुंगी सेवा प्रकल्प”। हम सभी को यह मालूम है कि किसी व्यक्ति के आपात ऑपरेशन या अन्य बीमारी के बाद घर पर उसकी देखभाल के लिये भी कई बार कई तरह के उपकरण लगते हैं, जैसे कि ऑक्सीजन सिलेण्डर, जलने के मरीजों के लिये विशेष बिस्तर “वाटर बेड”, सलाइन स्टैंड, स्टूल पॉट, यूरिन पॉट, चलने-फ़िरने के लिये वॉकर, छड़ी, कमर दर्द के मरीजों के लिये लेट्रिन सीट, व्हील चेयर, स्ट्रेचर आदि की आवश्यकता होती है, और यह सभी आईटम बेहद महंगे होते हैं। हो सकता है कि कई लोग आसानी से इनकी कीमत चुकाने की स्थिति में हों, लेकिन असल में इन वस्तुओं का उपयोग एक सीमित समय तक के लिये ही हो पाता है। मरीज के ठीक हो जाने की स्थिति में यह चीजें उन घरों में बेकार पड़ी रहती हैं और अन्ततः खराब होकर कबाड़ में जाती हैं।
इस समाजसेवा प्रकल्प के अनुसार मराठी व्यावसायिक मंडल के कार्यकर्ताओं ने इस प्रकार की काफ़ी सारी वस्तुएं एकत्रित की हैं, कुछ खरीद कर और कुछ परिचितों, मित्रों से दान लेकर। जब कभी किसी व्यक्ति को इस प्रकार की किसी वस्तु की आवश्यकता होती है तो मंडल के सदस्य उसे वह वस्तु प्रदान करते हैं। उस वस्तु की मूल कीमत को शुरु में “जमानत” के तौर पर जमा करवाया जाता है, यदि वस्तु 1000 रुपये से कम कीमत की है तो फ़िलहाल इसका शुल्क 20/- महीना रखा गया है, जबकि यदि वस्तु महंगी है (जैसे ऑक्सीजन सिलेण्डर आदि) तो उसका मासिक शुल्क न लेते हुए 5/- रुपये दैनिक के हिसाब से लिया जाता है, ताकि व्यक्ति आवश्यकता समाप्त होते ही तुरन्त वह वस्तु वापस कर दे और वह किसी और के काम आ सके। वस्तु वापस कर देने पर जमानत राशि वापस कर दी जाती है (मेण्टेनेंस या वस्तु में आई किसी खराबी को ठीक करवाने की जिम्मेदारी भी उसी व्यक्ति की होती है), साथ ही उस व्यक्ति से अनुरोध किया जाता है कि इस प्रकार की कोई वस्तु उसके किसी रिश्तेदार या मित्र के यहाँ फ़ालतू पड़ी हो तो उसे दान में देने को प्रोत्साहित करें। 5/-, 10/-, 20/- की मामूली रकम से जो भी रकम एकत्रित होती है, उससे एक और नई वस्तु आ जाती है, इस प्रकार वस्तुएं धीरे-धीरे बढ़ रही हैं, साथ ही इस सेवा प्रकल्प को उत्साहजनक प्रतिसाद मिल रहा है। फ़िलहाल तो यह एक छोटे स्तर पर चल रहा है, लेकिन जैसे-जैसे इसमें विभिन्न वस्तुएं बढ़ेंगी, जाहिर है कि कुछ अतिरिक्त जगह, कम से कम एक-दो व्यक्ति का स्टाफ़, स्टेशनरी आदि भी लगेगा। दीर्घकालीन योजना है कि एक एम्बुलेंस और एक शव वाहन की भी व्यवस्था की जायेगी। इस प्रकल्प को “निगेटिव ब्लड ग्रुप डोनर असोसियेशन” से भी जोड़ा गया है (सभी जानते हैं कि निगेटिव ग्रुप का खून बड़ी मुश्किल से मिलता है) और स्वयं इस समूह के अध्यक्ष श्री अभय मराठे 50 से अधिक बार रक्तदान कर चुके हैं।
इस योजना में अमीर-गरीब अथवा जाति-धर्म का कोई बन्धन नहीं है, यह एक समाजसेवा है और मामूली शुल्क भी इसलिये लिया जा रहा है ताकि उससे कोई अन्य नई वस्तु ली जा सके और साथ ही सेवा का उपयोग करने वाला व्यक्ति भी इस सेवा को “फ़ॉर ग्राण्टेड” न लेकर गंभीरता से ले। मैं सभी ब्लॉगरों, नेट मित्रों तथा अन्य सभी से जो यह लेख पढ़ें, यह अनुरोध करना चाहूँगा कि वे लोग भी अपने-अपने शहरों में इस प्रकार के कुछ लोगों को एकत्रित करके ऐसा प्रकल्प शुरु करें। जो परिवार किसी एक्सीडेंट या ऑपरेशन से गुजरता है, उसकी व्यथा वही जान सकता है, लेकिन यदि भारी खर्चों के बीच इस प्रकार का कोई मदद का हाथ जब मिल जाता है तो उसे काफ़ी राहत मिलती है। आशा है कि यह लेख अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचेगा और उससे काफ़ी सारे लोग अपने शहरों में यह समाजसेवा शुरु करेंगे। शिक्षा और स्वास्थ्य, दोनों क्षेत्र आने वाले समय में आम आदमी को सबसे ज्यादा आर्थिक तकलीफ़ देंगे, उससे निपटने का एक ही तरीका है “आपसी सहकार”… उपयोग करने के बाद बची हुई दवाईयों का बैंक शुरु करें, या पुराने कम्प्यूटरों से किसी गैराज या अनुपयोगी कमरे में गरीब छात्रों को पढ़ायें, पुराने कपड़े बेचकर बर्तन खरीदने की बजाय यूँ ही किसी जरूरतमंद को दे दें आदि-आदि। “आपसी सहकारिता” एक तरीका है, महंगी होती जा रही स्वास्थ्य सेवाओं और दवा कम्पनियों से बचने का…
नोट : जो भी व्यक्ति उज्जैन या आसपास निवास करते हैं वे यह लेख पढ़ें तो किसी वस्तु के दान के लिये मेरे ब्लॉग अथवा ई-मेल पर सम्पर्क कर सकते हैं…(किसी प्रकार का नगद दान नहीं लिया जाता है)। इस सेवा योजना के बारे में विस्तार से अन्य लोगों को भी सूचित करें, ताकि इस प्रकार के समूह प्रत्येक शहर, गाँव में शुरु किये जायें…
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उज्जैन में रहने वाले श्री पीडी कुलकर्णी एक निम्न-मध्यम वर्ग के नौकरीपेशा व्यक्ति हैं। उनका एक बड़ा ऑपरेशन 2005 में सम्पन्न हुआ। उसके बाद किसी अन्य स्वास्थ्य समस्या के कारण उन्हें काफ़ी दिन बिस्तर पर बिताने पड़े और पूरा परिवार उनकी सेवा में दिन-रात लगा रहा। उन दिनों उन्हें कई तरह के मेडिकल उपकरण खरीदने पड़े, जो कि उनके काम के थे, जैसे व्हील चेयर, वॉकर और फ़ोल्डिंग लेट्रिन सीट आदि। भगवान की कृपा से दो वर्ष के भीतर ही वह एकदम स्वस्थ हो गये, बीमा निगम की कृपा से उपचार में लगा कुछ प्रतिशत पैसा भी वापस मिल गया। लेकिन कुलकर्णी परिवार “पोस्ट-ऑपरेटिव केयर” पर जितना खर्च कर चुका था, उसकी आर्थिक भरपाई भी सम्भव नहीं थी, न ही इस सम्बन्ध में कोई सरकारी नियम हैं।
भारत में निजी स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार तेजी से जारी है, क्योंकि सरकारी स्वास्थ्य सेवायें भ्रष्टाचार, लालफ़ीताशाही और राजनीति के चलते लगभग निष्प्राण अवस्था में पहुँच चुकी हैं। इन निजी स्वास्थ्य सेवाओं के साथ-साथ इनसे जुड़े दो उद्योग भी तेजी से पनपे हैं वे हैं दवा उद्योग तथा मेडिकल उपकरण उद्योग। जैसा कि सभी जानते हैं कि महंगाई के कारण धीरे-धीरे स्वास्थ्य सेवायें भी आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रही हैं और किसी विशेष परिस्थिति में ऑपरेशन के बाद “पोस्ट-ऑपरेशन केयर” भी काफ़ी महंगा है।
इस स्थिति से निपटने और आम व्यक्ति को इन खर्चों से बचाने, तथा राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अनाप-शनाप मुनाफ़े को नियंत्रित करने की एक कोशिश के रूप में उज्जैन महाराष्ट्र समाज की एक शाखा “मराठी व्यावसायिक मंडल” (जो कुछ व्यवसायियों और गैर-सरकारी कर्मचारियों का एक समूह है) ने एक विशेष समाजसेवा का प्रकल्प हाथ में लिया है। इस प्रकल्प का नाम है “डॉ स्व वीडी मुंगी सेवा प्रकल्प”। हम सभी को यह मालूम है कि किसी व्यक्ति के आपात ऑपरेशन या अन्य बीमारी के बाद घर पर उसकी देखभाल के लिये भी कई बार कई तरह के उपकरण लगते हैं, जैसे कि ऑक्सीजन सिलेण्डर, जलने के मरीजों के लिये विशेष बिस्तर “वाटर बेड”, सलाइन स्टैंड, स्टूल पॉट, यूरिन पॉट, चलने-फ़िरने के लिये वॉकर, छड़ी, कमर दर्द के मरीजों के लिये लेट्रिन सीट, व्हील चेयर, स्ट्रेचर आदि की आवश्यकता होती है, और यह सभी आईटम बेहद महंगे होते हैं। हो सकता है कि कई लोग आसानी से इनकी कीमत चुकाने की स्थिति में हों, लेकिन असल में इन वस्तुओं का उपयोग एक सीमित समय तक के लिये ही हो पाता है। मरीज के ठीक हो जाने की स्थिति में यह चीजें उन घरों में बेकार पड़ी रहती हैं और अन्ततः खराब होकर कबाड़ में जाती हैं।
इस समाजसेवा प्रकल्प के अनुसार मराठी व्यावसायिक मंडल के कार्यकर्ताओं ने इस प्रकार की काफ़ी सारी वस्तुएं एकत्रित की हैं, कुछ खरीद कर और कुछ परिचितों, मित्रों से दान लेकर। जब कभी किसी व्यक्ति को इस प्रकार की किसी वस्तु की आवश्यकता होती है तो मंडल के सदस्य उसे वह वस्तु प्रदान करते हैं। उस वस्तु की मूल कीमत को शुरु में “जमानत” के तौर पर जमा करवाया जाता है, यदि वस्तु 1000 रुपये से कम कीमत की है तो फ़िलहाल इसका शुल्क 20/- महीना रखा गया है, जबकि यदि वस्तु महंगी है (जैसे ऑक्सीजन सिलेण्डर आदि) तो उसका मासिक शुल्क न लेते हुए 5/- रुपये दैनिक के हिसाब से लिया जाता है, ताकि व्यक्ति आवश्यकता समाप्त होते ही तुरन्त वह वस्तु वापस कर दे और वह किसी और के काम आ सके। वस्तु वापस कर देने पर जमानत राशि वापस कर दी जाती है (मेण्टेनेंस या वस्तु में आई किसी खराबी को ठीक करवाने की जिम्मेदारी भी उसी व्यक्ति की होती है), साथ ही उस व्यक्ति से अनुरोध किया जाता है कि इस प्रकार की कोई वस्तु उसके किसी रिश्तेदार या मित्र के यहाँ फ़ालतू पड़ी हो तो उसे दान में देने को प्रोत्साहित करें। 5/-, 10/-, 20/- की मामूली रकम से जो भी रकम एकत्रित होती है, उससे एक और नई वस्तु आ जाती है, इस प्रकार वस्तुएं धीरे-धीरे बढ़ रही हैं, साथ ही इस सेवा प्रकल्प को उत्साहजनक प्रतिसाद मिल रहा है। फ़िलहाल तो यह एक छोटे स्तर पर चल रहा है, लेकिन जैसे-जैसे इसमें विभिन्न वस्तुएं बढ़ेंगी, जाहिर है कि कुछ अतिरिक्त जगह, कम से कम एक-दो व्यक्ति का स्टाफ़, स्टेशनरी आदि भी लगेगा। दीर्घकालीन योजना है कि एक एम्बुलेंस और एक शव वाहन की भी व्यवस्था की जायेगी। इस प्रकल्प को “निगेटिव ब्लड ग्रुप डोनर असोसियेशन” से भी जोड़ा गया है (सभी जानते हैं कि निगेटिव ग्रुप का खून बड़ी मुश्किल से मिलता है) और स्वयं इस समूह के अध्यक्ष श्री अभय मराठे 50 से अधिक बार रक्तदान कर चुके हैं।
इस योजना में अमीर-गरीब अथवा जाति-धर्म का कोई बन्धन नहीं है, यह एक समाजसेवा है और मामूली शुल्क भी इसलिये लिया जा रहा है ताकि उससे कोई अन्य नई वस्तु ली जा सके और साथ ही सेवा का उपयोग करने वाला व्यक्ति भी इस सेवा को “फ़ॉर ग्राण्टेड” न लेकर गंभीरता से ले। मैं सभी ब्लॉगरों, नेट मित्रों तथा अन्य सभी से जो यह लेख पढ़ें, यह अनुरोध करना चाहूँगा कि वे लोग भी अपने-अपने शहरों में इस प्रकार के कुछ लोगों को एकत्रित करके ऐसा प्रकल्प शुरु करें। जो परिवार किसी एक्सीडेंट या ऑपरेशन से गुजरता है, उसकी व्यथा वही जान सकता है, लेकिन यदि भारी खर्चों के बीच इस प्रकार का कोई मदद का हाथ जब मिल जाता है तो उसे काफ़ी राहत मिलती है। आशा है कि यह लेख अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचेगा और उससे काफ़ी सारे लोग अपने शहरों में यह समाजसेवा शुरु करेंगे। शिक्षा और स्वास्थ्य, दोनों क्षेत्र आने वाले समय में आम आदमी को सबसे ज्यादा आर्थिक तकलीफ़ देंगे, उससे निपटने का एक ही तरीका है “आपसी सहकार”… उपयोग करने के बाद बची हुई दवाईयों का बैंक शुरु करें, या पुराने कम्प्यूटरों से किसी गैराज या अनुपयोगी कमरे में गरीब छात्रों को पढ़ायें, पुराने कपड़े बेचकर बर्तन खरीदने की बजाय यूँ ही किसी जरूरतमंद को दे दें आदि-आदि। “आपसी सहकारिता” एक तरीका है, महंगी होती जा रही स्वास्थ्य सेवाओं और दवा कम्पनियों से बचने का…
नोट : जो भी व्यक्ति उज्जैन या आसपास निवास करते हैं वे यह लेख पढ़ें तो किसी वस्तु के दान के लिये मेरे ब्लॉग अथवा ई-मेल पर सम्पर्क कर सकते हैं…(किसी प्रकार का नगद दान नहीं लिया जाता है)। इस सेवा योजना के बारे में विस्तार से अन्य लोगों को भी सूचित करें, ताकि इस प्रकार के समूह प्रत्येक शहर, गाँव में शुरु किये जायें…
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रविवार, 13 जुलाई 2008 17:01
परमाणु करार – कांग्रेस द्वारा एक पत्थर से कई शिकार
Indo-US Nuclear Deal Politics
सारे देश में एक “अ-मुद्दे” पर बहस चल रही है, जबकि मुद्दा होना चाहिये था “भारत की ऊर्जा जरूरतें कैसे पूरी हों?”, लेकिन यही भारतीय राजनीति और समाज का चरित्र है। इस वक्त हम विश्लेषण करते हैं भारत की अन्दरूनी राजनीति और उठापटक का… कहते हैं कि भारत में बच्चा भी पैदा होता है तो राजनीति होती है और जब बूढ़ा मरता है तब भी… तो भला ऐसे में परमाणु करार जैसे संवेदनशील मामले पर राजनीति न हो, यह नहीं हो सकता…।
पिछले एक माह से जारी इस सारे राजनैतिक खेल में सबसे प्रमुख खिलाड़ी के तौर पर उभरी है कांग्रेस। कांग्रेस ने एक पत्थर से कई पक्षी मार गिराये हैं (या मारने का प्लान बनाया है)। पिछले चार साल तक वामपंथियों का बोझा ढोने के बाद एकाएक मनमोहन सिंह का “मर्द” जागा और उन्होंने वामपंथियों को “परे-हट” कह दिया। चार साल पहले वामपंथियों की कांग्रेस को सख्त जरूरत थी, ताकि एक “धर्मनिरपेक्ष”(??) सरकार बनाई जा सके, मिल-बाँटकर मलाई खाई जा सके। चार साल तक तो बैठकों, चाय-नाश्ते के दौर चलते रहे, फ़िर आया 2008, जब मार्च के महीने से महंगाई अचानक बढ़ना शुरु हुई और देखते-देखते इसने 11% का आंकड़ा छू लिया। कांग्रेसियों के हाथ-पाँव फ़ुलाने के लिये यह काफ़ी था, क्योंकि दस-ग्यारह माह बाद उन्हें चुनावी महासमर में उतरना है। महंगाई की कोई काट नहीं सूझ रही, न ही ऐसी कोई उम्मीद है कि अगले साल तक महंगाई कुछ कम होगी, ऐसे में कांग्रेस को सहारा मिला समाजवादी पार्टी (सपा) का। दोनों पार्टियाँ उत्तरप्रदेश में मायावती की सताई हुई हैं, एक से भले दो की तर्ज पर “मैनेजर” अमरसिंह का हाथ कांग्रेस ने थाम लिया। कांग्रेस जानती है कि नंदीग्राम, सिंगूर आदि के मुद्दे पर बंगाल में और भ्रष्टाचार व सांप्रदायिकता के मुद्दे पर केरल में वामपंथी दबे हुए हैं और उन्हें खुद अगले चुनाव में ज्यादा सीटें मिलने की कोई उम्मीद नहीं है, जबकि प्रधानमंत्री बनने (बहुमत) का रास्ता उत्तरप्रदेश और बिहार से होकर गुजरता है। मायावती नामक “हैवीवेट” से निपटने के लिये दो “लाइटवेट” साथ लड़ेंगे, और बिहार में लालू तो एक तरह से सोनिया के दांये हाथ ही बन गये हैं, ऐसे में इस समय वामपंथियों को आराम से लतियाया जा सकता था, और वही किया गया।
अब देखिये एक परमाणु मुद्दे ने कांग्रेस को क्या-क्या दिलाया –
1) एक “टेम्परेरी” दोस्त दिलाया जो उत्तरप्रदेश (जहाँ कांग्रेस लगभग जीरो है) में उन्हें कुछ तो फ़ायदा दिलायेगा, बसपा और सपा को आपस में भिड़ाकर कांग्रेस मजे लेगी, सपा के कुछ मुसलमान वोट भी कांग्रेस की झोली में आ गिरने की सम्भावना है।
2) “तीसरा मोर्चा” नाम की जो हांडी-खिचड़ी पकने की कोशिश हो रही थी, एक झटके में फ़ूट गई और दाना-दाना इधर-उधर बिखर गया, और यदि सरकार गिरती भी है तो हल्ला मचाया जा सकता है कि “देखो-देखो…राष्ट्रहित में हमने अपनी सरकार बलिदान कर दी, लेकिन वामपंथियों के आगे नहीं झुके… आदि” (वैसे भी कांग्रेस और उसके भटियारे चमचे, “त्याग-बलिदान” आदि को बेहतरीन तरीके से सजाकर माल खाते हैं), और इसकी शुरुआत भी अखबारों में परमाणु करार के पक्ष में विज्ञापन देकर शुरु की जा चुकी है।
3) यदि सरकार गिरी तो ठीकरा विपक्ष के माथे, खासकर वामपंथियों के… और यदि सरकार नहीं गिरी तो एक साल का समय और मिल जायेगा, पहले वामपंथियों की भभकियाँ सुनते थे, अब सपाईयों की सौदेबाजी सहेंगे, कौन सा कांग्रेस की जेब से जा रहा है।
इस राजनैतिक खेल में सबसे घाटे में यदि कोई रहा तो वह हैं “लाल मुँह के कॉमरेड” (कांग्रेसी चाँटे और शर्म से लाल हुए)। यदि वे महंगाई के मुद्दे पर सरकार गिराते तो कुछ सहानुभूति मिल जाती, लेकिन समर्थन वापस लेने का बहाना बनाया भी तो क्या घटिया सा!! असल में चार साल तक सत्ता की मौज चखने के दौरान आँखों पर चढ़ चुकी चर्बी के कारण महंगाई उन्हें नहीं दिखी, लेकिन बुढ़ाते हुए पंधे साहब को परमाणु करार के कारण मुस्लिम वोट जरूर दिख गये, इसे कहते हैं परले दर्जे की सिद्धांतहीनता, अवसरवाद और राजनैतिक पाखंड। भाजपा फ़िलहाल “मन-मन भावे, ऊपर से मूँड़ हिलावे” वाली मुद्रा अपनाये हुए है, क्योंकि यदि वह सत्ता में होती तो कांग्रेस से भी तेजी से इस समझौते को निपटाती (समझौते की शुरुआत उन्होंने ही की थी)। भाजपा को लग रहा है कि “सत्ता का आम” बस मुँह में टपकने ही वाला है उसे सिर्फ़ वक्त का इंतजार करना है… हालांकि यह मुगालता उसे भारी पड़ सकता है, क्योंकि यदि सरकार नहीं गिरी, चुनाव अगले साल ही हुए, मानसून बेहतर रहा और कृषि उत्पादन बम्पर होने से कहीं महंगाई दर कम हो गई, तो चार राज्यों में जहाँ भाजपा सत्ता में है वहाँ “सत्ता-विरोधी” (Anti-incumbency) वोट पड़ने से कहीं मामला उलट न जाये और एक बार फ़िर से “धर्मनिरपेक्षता” की बाँग लगाते हुए कांग्रेस सत्ता में आ जाये। कांग्रेस के लिये तो यह मामला एक जुआ ही है, वैसे भी जनता तो नाराज है ही, यदि इन चालबाजियों से “सत्ता के अंकों” (यानी 272 मुंडियाँ) के नजदीक भी पहुँच गये तो फ़िर वामपंथियों को मजबूरन, यानी कि “सांप्रदायिक ताकतों” को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर (इस वाक्य को पढ़कर कृपया हँसें नहीं) कांग्रेस का साथ देना ही पड़ेगा…
तो भाइयों कुल मिलाकर यह है सारा कांग्रेस का खेल… जबकि “कम्युनिस्ट” बन गये हैं इस खेल में “तीसरे जोकर”, जिसका वक्त आने पर “उपयोग” कर लिया जायेगा और फ़िर वक्त बदलने पर फ़ेंक दिया जायेगा… आखिर “धर्मनिरपेक्षता”(?) सबसे बड़ी चीज़ है…
अब सबसे अन्त में जरा “कम्युनिस्ट” (COMMUNIST) शब्द का पूरा अर्थ जान लीजिये –
C = Cheap
O = Opportunists
M = Marionette (controller - China)
M = Mean
U = Useless
N = Nuts
I = Indolents
S = Slayers
T = Traitors
क्या अब भी आपको कम्युनिस्टों की “महानता” पर शक है?
Nuclear Deal, India USA Relationship, IAEA, Uranium Reactors, Thorium Reactor, Abdul Kalam, Anil Kakodkar, India’s Energy Requirement, China, Increasing Petrol-Diesel Prices, परमाणु करार, अमेरिका-भारत सम्बन्ध, आईएईए, यूरेनियम रिएक्टर, थोरियम, अब्दुल कलाम, अनिल काकोड़कर, भारत की ऊर्जा जरूरतें, पेट्रोल-डीजल कीमतें, चीन, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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पिछले एक माह से जारी इस सारे राजनैतिक खेल में सबसे प्रमुख खिलाड़ी के तौर पर उभरी है कांग्रेस। कांग्रेस ने एक पत्थर से कई पक्षी मार गिराये हैं (या मारने का प्लान बनाया है)। पिछले चार साल तक वामपंथियों का बोझा ढोने के बाद एकाएक मनमोहन सिंह का “मर्द” जागा और उन्होंने वामपंथियों को “परे-हट” कह दिया। चार साल पहले वामपंथियों की कांग्रेस को सख्त जरूरत थी, ताकि एक “धर्मनिरपेक्ष”(??) सरकार बनाई जा सके, मिल-बाँटकर मलाई खाई जा सके। चार साल तक तो बैठकों, चाय-नाश्ते के दौर चलते रहे, फ़िर आया 2008, जब मार्च के महीने से महंगाई अचानक बढ़ना शुरु हुई और देखते-देखते इसने 11% का आंकड़ा छू लिया। कांग्रेसियों के हाथ-पाँव फ़ुलाने के लिये यह काफ़ी था, क्योंकि दस-ग्यारह माह बाद उन्हें चुनावी महासमर में उतरना है। महंगाई की कोई काट नहीं सूझ रही, न ही ऐसी कोई उम्मीद है कि अगले साल तक महंगाई कुछ कम होगी, ऐसे में कांग्रेस को सहारा मिला समाजवादी पार्टी (सपा) का। दोनों पार्टियाँ उत्तरप्रदेश में मायावती की सताई हुई हैं, एक से भले दो की तर्ज पर “मैनेजर” अमरसिंह का हाथ कांग्रेस ने थाम लिया। कांग्रेस जानती है कि नंदीग्राम, सिंगूर आदि के मुद्दे पर बंगाल में और भ्रष्टाचार व सांप्रदायिकता के मुद्दे पर केरल में वामपंथी दबे हुए हैं और उन्हें खुद अगले चुनाव में ज्यादा सीटें मिलने की कोई उम्मीद नहीं है, जबकि प्रधानमंत्री बनने (बहुमत) का रास्ता उत्तरप्रदेश और बिहार से होकर गुजरता है। मायावती नामक “हैवीवेट” से निपटने के लिये दो “लाइटवेट” साथ लड़ेंगे, और बिहार में लालू तो एक तरह से सोनिया के दांये हाथ ही बन गये हैं, ऐसे में इस समय वामपंथियों को आराम से लतियाया जा सकता था, और वही किया गया।
अब देखिये एक परमाणु मुद्दे ने कांग्रेस को क्या-क्या दिलाया –
1) एक “टेम्परेरी” दोस्त दिलाया जो उत्तरप्रदेश (जहाँ कांग्रेस लगभग जीरो है) में उन्हें कुछ तो फ़ायदा दिलायेगा, बसपा और सपा को आपस में भिड़ाकर कांग्रेस मजे लेगी, सपा के कुछ मुसलमान वोट भी कांग्रेस की झोली में आ गिरने की सम्भावना है।
2) “तीसरा मोर्चा” नाम की जो हांडी-खिचड़ी पकने की कोशिश हो रही थी, एक झटके में फ़ूट गई और दाना-दाना इधर-उधर बिखर गया, और यदि सरकार गिरती भी है तो हल्ला मचाया जा सकता है कि “देखो-देखो…राष्ट्रहित में हमने अपनी सरकार बलिदान कर दी, लेकिन वामपंथियों के आगे नहीं झुके… आदि” (वैसे भी कांग्रेस और उसके भटियारे चमचे, “त्याग-बलिदान” आदि को बेहतरीन तरीके से सजाकर माल खाते हैं), और इसकी शुरुआत भी अखबारों में परमाणु करार के पक्ष में विज्ञापन देकर शुरु की जा चुकी है।
3) यदि सरकार गिरी तो ठीकरा विपक्ष के माथे, खासकर वामपंथियों के… और यदि सरकार नहीं गिरी तो एक साल का समय और मिल जायेगा, पहले वामपंथियों की भभकियाँ सुनते थे, अब सपाईयों की सौदेबाजी सहेंगे, कौन सा कांग्रेस की जेब से जा रहा है।
इस राजनैतिक खेल में सबसे घाटे में यदि कोई रहा तो वह हैं “लाल मुँह के कॉमरेड” (कांग्रेसी चाँटे और शर्म से लाल हुए)। यदि वे महंगाई के मुद्दे पर सरकार गिराते तो कुछ सहानुभूति मिल जाती, लेकिन समर्थन वापस लेने का बहाना बनाया भी तो क्या घटिया सा!! असल में चार साल तक सत्ता की मौज चखने के दौरान आँखों पर चढ़ चुकी चर्बी के कारण महंगाई उन्हें नहीं दिखी, लेकिन बुढ़ाते हुए पंधे साहब को परमाणु करार के कारण मुस्लिम वोट जरूर दिख गये, इसे कहते हैं परले दर्जे की सिद्धांतहीनता, अवसरवाद और राजनैतिक पाखंड। भाजपा फ़िलहाल “मन-मन भावे, ऊपर से मूँड़ हिलावे” वाली मुद्रा अपनाये हुए है, क्योंकि यदि वह सत्ता में होती तो कांग्रेस से भी तेजी से इस समझौते को निपटाती (समझौते की शुरुआत उन्होंने ही की थी)। भाजपा को लग रहा है कि “सत्ता का आम” बस मुँह में टपकने ही वाला है उसे सिर्फ़ वक्त का इंतजार करना है… हालांकि यह मुगालता उसे भारी पड़ सकता है, क्योंकि यदि सरकार नहीं गिरी, चुनाव अगले साल ही हुए, मानसून बेहतर रहा और कृषि उत्पादन बम्पर होने से कहीं महंगाई दर कम हो गई, तो चार राज्यों में जहाँ भाजपा सत्ता में है वहाँ “सत्ता-विरोधी” (Anti-incumbency) वोट पड़ने से कहीं मामला उलट न जाये और एक बार फ़िर से “धर्मनिरपेक्षता” की बाँग लगाते हुए कांग्रेस सत्ता में आ जाये। कांग्रेस के लिये तो यह मामला एक जुआ ही है, वैसे भी जनता तो नाराज है ही, यदि इन चालबाजियों से “सत्ता के अंकों” (यानी 272 मुंडियाँ) के नजदीक भी पहुँच गये तो फ़िर वामपंथियों को मजबूरन, यानी कि “सांप्रदायिक ताकतों” को सत्ता में आने से रोकने के नाम पर (इस वाक्य को पढ़कर कृपया हँसें नहीं) कांग्रेस का साथ देना ही पड़ेगा…
तो भाइयों कुल मिलाकर यह है सारा कांग्रेस का खेल… जबकि “कम्युनिस्ट” बन गये हैं इस खेल में “तीसरे जोकर”, जिसका वक्त आने पर “उपयोग” कर लिया जायेगा और फ़िर वक्त बदलने पर फ़ेंक दिया जायेगा… आखिर “धर्मनिरपेक्षता”(?) सबसे बड़ी चीज़ है…
अब सबसे अन्त में जरा “कम्युनिस्ट” (COMMUNIST) शब्द का पूरा अर्थ जान लीजिये –
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O = Opportunists
M = Marionette (controller - China)
M = Mean
U = Useless
N = Nuts
I = Indolents
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क्या अब भी आपको कम्युनिस्टों की “महानता” पर शक है?
Nuclear Deal, India USA Relationship, IAEA, Uranium Reactors, Thorium Reactor, Abdul Kalam, Anil Kakodkar, India’s Energy Requirement, China, Increasing Petrol-Diesel Prices, परमाणु करार, अमेरिका-भारत सम्बन्ध, आईएईए, यूरेनियम रिएक्टर, थोरियम, अब्दुल कलाम, अनिल काकोड़कर, भारत की ऊर्जा जरूरतें, पेट्रोल-डीजल कीमतें, चीन, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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शनिवार, 12 जुलाई 2008 20:41
कलाम, काकोड़कर और परमाणु करार (भाग-2)
Nuclear Deal India America IAEA
(भाग-1 “कलाम और काकोड़कर… से आगे…) जिस प्रकार राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता, अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति में भी ऐसा ही होता है। अमेरिका ने आज ईराक को कब्जे में किया है कल को वह ईरान पर भी हमला बोल सकता है। ईरान भी आज तक भारत को अपना दोस्त कहता रहा है, लेकिन क्या कभी उसने ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइप लाइन पर गम्भीरता और उदारता का परिचय दिया है? भारत को “ऊर्जा” की सख्त आवश्यकता है, इसलिये हमें तेल-गैस को छोड़कर अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को खंगालना ही होगा (हालांकि यह एक बहुत देर से उठाया हुआ कदम है, लेकिन फ़िर भी…), इसके लिये परमाणु ऊर्जा, भारत में विस्तृत और विशाल समुद्र किनारों पर पवन ऊर्जा चक्कियाँ, वर्ष में कम से कम आठ महीने भारत में प्रखर सूर्य होता है, इसलिये सौर ऊर्जा… सभी विकल्पों पर एक साथ काम चल रहा है, इनमें से ही एक है थोरियम रिएक्टरों से बिजली उत्पादन । विश्व परमाणु संगठन द्वारा दी गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 3 लाख टन थोरियम (समूचे विश्व का 13%) मौजूद है, जिसका शोधन किया जा सकता है, ऐसे में यदि अपने दीर्घकालीन फ़ायदे के लिये अमेरिका से करार कर लिया तो क्या बिगड़ने वाला है?
सबसे अधिक “चिल्लपों” मची हुई है, भारत की परमाणु भट्टियों के निरीक्षण को लेकर… पता नहीं उसमें ऐसा क्या है? भारत परमाणु शक्ति का शांतिपूर्ण उपयोग करने वाला एक जिम्मेदार देश है, हम पहले से ही परमाणु अस्त्र सम्पन्न हैं, यदि कभी निरीक्षण करने की नौबत आई और निरीक्षण दल में यदि अमेरिकी ही भरे पड़े हों तो भी उसमें इतना हल्ला मचाने की क्या जरूरत है? अक्सर हमें “अखण्डता”, “सार्वभौमिकता” आदि बड़े-बड़े शब्द सुनाई दे जाते हैं, लेकिन अपनी गिरेबाँ में झाँककर देखो कि वाकई में भारत कितना “अखण्ड” है और उसकी नीतियों में कितनी “सार्वभौमिकता” है? सरेआम पोल खुल जायेगी…
भारत के तमाम पड़ोसियों में से एक भी विश्वास के काबिल नहीं है (एक नेपाल बचा था, वह भी लाल हो गया), ऐसे में परमाणु करार के बहाने यदि हमारी अमेरिका से नज़दीकी बढ़ती है तो बुरा क्या है? वामपंथी यदि सत्ता में आते ही चार साल पहले से थोरियम रिएक्टर की मांग करते तो उनका क्या बिगड़ जाता? एक घटिया से मुद्दे पर सरकार गिराने चले हैं और उधर चीन अरुणाचल पर अपना दावा ठोंक रहा है, काहे की सार्वभौमिकता? और अमेरिका का विरोध क्यों? भारतवासियों में एक सर्वे किया जाना चाहिये कि वे अमेरिका पर अधिक विश्वास करते हैं या चीन पर? वामपंथियों की आँखें खुल जायेंगी…
और अन्त में सबसे बड़ी बात तो यही है कि किन्हीं दो देशों, या दो शक्तियों में कोई भी समझौता आपसी फ़ायदे के लिये होता है, उस समझौते को जब मर्जी आये तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। ऐसा कहाँ लिखा है कि भारत को अपने तमाम समझौतों का पालन ताज़िन्दगी करते ही रहना होगा। जब हमारी सुविधा होगी तब हम अपना नया रास्ता पकड़ेंगे, जैसे राजनीति में नहीं, वैसे ही कूटनीति में “नैतिकता” का क्या काम? हिटलर ने रूस से समझौता किया था, लेकिन उसी ने रूस पर हमला किया, पाकिस्तान हमेशा इस्लाम-इस्लाम भजता रहता है, लेकिन वही अमेरिका से सबसे अधिक पैसा और हथियार लेता है, उत्तर कोरिया ने भी परमाणु बम बनाने की धमकी देकर अमेरिका और यूरोपीय संघ से अच्छा माल झटक लिया है, चीन ने सरेआम अपनी नदियों का रास्ता मोड़ लिया है और आगे जाकर वह भारत को ही दुख देगा (मतलब यह कि हरेक देश को अपना फ़ायदा सोचना चाहिये, लेकिन “भारत महान” को “लोग क्या कहेंगे…” की फ़िक्र ज्यादा सताती है)। रही बात गुटनिरपेक्षता की, तो अब कहाँ हैं कोई “गुट” और किससे निभायें “निरपेक्षता”? जब अमेरिका ही विश्व का सर्वेसर्वा बन चुका है, चीन उसको चुनौती दे रहा है (यही सच है कि हम अगले 25 वर्षों में भी दोनो की बराबरी नहीं कर सकते हैं), तो फ़िर मौके का फ़ायदा उठाने में क्या गलत है?
इंडियन एक्सप्रेस में भारत के परमाणु आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्रीनिवासन का एक लेख है, उसके अनुसार भारत को फ़िलहाल यूरेनियम की सख्त आवश्यकता है, जबकि भारत की धरती में लगभग एक लाख टन यूरेनियम होने की सम्भावना है, जिसका दोहन किया जाना अभी बाकी है। यदि भारत-अमेरिका करार हो गया और उसे आईएईए की मंजूरी मिल गई तो हम यूरेनियम कहीं से भी खरीद सकते हैं, अमेरिका से ही लें यह कोई जरूरी तो नहीं। सन् 2050 तक भारत की ऊर्जा जरूरतें थोरियम-यूरेनियम 233 से पूरी होने लगेंगी। पोखरण-2 के बाद तिलमिलाये हुए अमेरिका ने हम पर कई आरोप लगाकर कई तरह के प्रतिबन्ध लगाये, आज वही अमेरिका खुद आगे होकर हमसे परमाणु समझौता करने को बेताब हो रहा है, क्योंकि वह जान चुका है कि भारत से अब और पंगा लेना ठीक नहीं, उसे हमारी जरूरत है और हम हैं कि शंका-कुशंका के घेरे में फ़ँसे हुए खामख्वाह उसे लटका रहे हैं, जबकि हम अपने हित की कुछ शर्तें थोपकर उससे काफ़ी फ़ायदा उठा सकते हैं।
एक बार समझौता हो तो जाने दें, अमेरिका के हित भी हमसे जुड़ जायेंगे, हमारे वैज्ञानिकों को नई-नई तकनीकें और नये-नये उपकरण मिलेंगे, शोध में तेजी आयेगी जिससे भारत निर्मित थोरियम रिएक्टरों की राह आसान बनेगी। यदि अमेरिका हमसे फ़ायदा उठाना चाहता है, तो हम बेवकूफ़ क्यों बने रहें, हम भी अपना फ़ायदा देखें। यदि खुदा न खास्ता आने वाले भविष्य में समझौते में कोई पेंच दिखाई दिया, या कोई विवाद की स्थिति बनी, तो “हम चले अपने घर, तू जा अपने घर…” भी कहा जा सकता है, और हो सकता है कि आने वाले दस वर्षों में भारत का प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों युवा हों, तब तक भारत की युवा शक्ति विश्व में अपना लोहा मनवा चुकी होगी, फ़िर डरना कैसा? क्या हमें अपने आने वाले युवाओं पर भरोसा नहीं करना चाहिये? सिर्फ़ इसलिये कि कब्र में पैर लटकाये हुए कुछ “कछुए” और कुछ “धर्मनिरपेक्ष” मेंढक, इस समझौते का विरोध कर रहे हैं? राजनेता (चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी) वोट के लिये सौ बार झूठ बोलेगा, लेकिन कलाम और काकोड़कर को कोई चुनाव नहीं लड़ना है…
खैर… सारे झमेले में फ़िर भी एक बात तो दमदार है कि, प्याज के मुद्दे पर गिरने वाली सरकारें आज परमाणु मुद्दे पर गिरने जा रही हैं, कौन कहता है कि भारत ने तरक्की नहीं की…
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(भाग-1 “कलाम और काकोड़कर… से आगे…) जिस प्रकार राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता, अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति में भी ऐसा ही होता है। अमेरिका ने आज ईराक को कब्जे में किया है कल को वह ईरान पर भी हमला बोल सकता है। ईरान भी आज तक भारत को अपना दोस्त कहता रहा है, लेकिन क्या कभी उसने ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइप लाइन पर गम्भीरता और उदारता का परिचय दिया है? भारत को “ऊर्जा” की सख्त आवश्यकता है, इसलिये हमें तेल-गैस को छोड़कर अन्य वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को खंगालना ही होगा (हालांकि यह एक बहुत देर से उठाया हुआ कदम है, लेकिन फ़िर भी…), इसके लिये परमाणु ऊर्जा, भारत में विस्तृत और विशाल समुद्र किनारों पर पवन ऊर्जा चक्कियाँ, वर्ष में कम से कम आठ महीने भारत में प्रखर सूर्य होता है, इसलिये सौर ऊर्जा… सभी विकल्पों पर एक साथ काम चल रहा है, इनमें से ही एक है थोरियम रिएक्टरों से बिजली उत्पादन । विश्व परमाणु संगठन द्वारा दी गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 3 लाख टन थोरियम (समूचे विश्व का 13%) मौजूद है, जिसका शोधन किया जा सकता है, ऐसे में यदि अपने दीर्घकालीन फ़ायदे के लिये अमेरिका से करार कर लिया तो क्या बिगड़ने वाला है?
सबसे अधिक “चिल्लपों” मची हुई है, भारत की परमाणु भट्टियों के निरीक्षण को लेकर… पता नहीं उसमें ऐसा क्या है? भारत परमाणु शक्ति का शांतिपूर्ण उपयोग करने वाला एक जिम्मेदार देश है, हम पहले से ही परमाणु अस्त्र सम्पन्न हैं, यदि कभी निरीक्षण करने की नौबत आई और निरीक्षण दल में यदि अमेरिकी ही भरे पड़े हों तो भी उसमें इतना हल्ला मचाने की क्या जरूरत है? अक्सर हमें “अखण्डता”, “सार्वभौमिकता” आदि बड़े-बड़े शब्द सुनाई दे जाते हैं, लेकिन अपनी गिरेबाँ में झाँककर देखो कि वाकई में भारत कितना “अखण्ड” है और उसकी नीतियों में कितनी “सार्वभौमिकता” है? सरेआम पोल खुल जायेगी…
भारत के तमाम पड़ोसियों में से एक भी विश्वास के काबिल नहीं है (एक नेपाल बचा था, वह भी लाल हो गया), ऐसे में परमाणु करार के बहाने यदि हमारी अमेरिका से नज़दीकी बढ़ती है तो बुरा क्या है? वामपंथी यदि सत्ता में आते ही चार साल पहले से थोरियम रिएक्टर की मांग करते तो उनका क्या बिगड़ जाता? एक घटिया से मुद्दे पर सरकार गिराने चले हैं और उधर चीन अरुणाचल पर अपना दावा ठोंक रहा है, काहे की सार्वभौमिकता? और अमेरिका का विरोध क्यों? भारतवासियों में एक सर्वे किया जाना चाहिये कि वे अमेरिका पर अधिक विश्वास करते हैं या चीन पर? वामपंथियों की आँखें खुल जायेंगी…
और अन्त में सबसे बड़ी बात तो यही है कि किन्हीं दो देशों, या दो शक्तियों में कोई भी समझौता आपसी फ़ायदे के लिये होता है, उस समझौते को जब मर्जी आये तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। ऐसा कहाँ लिखा है कि भारत को अपने तमाम समझौतों का पालन ताज़िन्दगी करते ही रहना होगा। जब हमारी सुविधा होगी तब हम अपना नया रास्ता पकड़ेंगे, जैसे राजनीति में नहीं, वैसे ही कूटनीति में “नैतिकता” का क्या काम? हिटलर ने रूस से समझौता किया था, लेकिन उसी ने रूस पर हमला किया, पाकिस्तान हमेशा इस्लाम-इस्लाम भजता रहता है, लेकिन वही अमेरिका से सबसे अधिक पैसा और हथियार लेता है, उत्तर कोरिया ने भी परमाणु बम बनाने की धमकी देकर अमेरिका और यूरोपीय संघ से अच्छा माल झटक लिया है, चीन ने सरेआम अपनी नदियों का रास्ता मोड़ लिया है और आगे जाकर वह भारत को ही दुख देगा (मतलब यह कि हरेक देश को अपना फ़ायदा सोचना चाहिये, लेकिन “भारत महान” को “लोग क्या कहेंगे…” की फ़िक्र ज्यादा सताती है)। रही बात गुटनिरपेक्षता की, तो अब कहाँ हैं कोई “गुट” और किससे निभायें “निरपेक्षता”? जब अमेरिका ही विश्व का सर्वेसर्वा बन चुका है, चीन उसको चुनौती दे रहा है (यही सच है कि हम अगले 25 वर्षों में भी दोनो की बराबरी नहीं कर सकते हैं), तो फ़िर मौके का फ़ायदा उठाने में क्या गलत है?
इंडियन एक्सप्रेस में भारत के परमाणु आयोग के पूर्व अध्यक्ष श्रीनिवासन का एक लेख है, उसके अनुसार भारत को फ़िलहाल यूरेनियम की सख्त आवश्यकता है, जबकि भारत की धरती में लगभग एक लाख टन यूरेनियम होने की सम्भावना है, जिसका दोहन किया जाना अभी बाकी है। यदि भारत-अमेरिका करार हो गया और उसे आईएईए की मंजूरी मिल गई तो हम यूरेनियम कहीं से भी खरीद सकते हैं, अमेरिका से ही लें यह कोई जरूरी तो नहीं। सन् 2050 तक भारत की ऊर्जा जरूरतें थोरियम-यूरेनियम 233 से पूरी होने लगेंगी। पोखरण-2 के बाद तिलमिलाये हुए अमेरिका ने हम पर कई आरोप लगाकर कई तरह के प्रतिबन्ध लगाये, आज वही अमेरिका खुद आगे होकर हमसे परमाणु समझौता करने को बेताब हो रहा है, क्योंकि वह जान चुका है कि भारत से अब और पंगा लेना ठीक नहीं, उसे हमारी जरूरत है और हम हैं कि शंका-कुशंका के घेरे में फ़ँसे हुए खामख्वाह उसे लटका रहे हैं, जबकि हम अपने हित की कुछ शर्तें थोपकर उससे काफ़ी फ़ायदा उठा सकते हैं।
एक बार समझौता हो तो जाने दें, अमेरिका के हित भी हमसे जुड़ जायेंगे, हमारे वैज्ञानिकों को नई-नई तकनीकें और नये-नये उपकरण मिलेंगे, शोध में तेजी आयेगी जिससे भारत निर्मित थोरियम रिएक्टरों की राह आसान बनेगी। यदि अमेरिका हमसे फ़ायदा उठाना चाहता है, तो हम बेवकूफ़ क्यों बने रहें, हम भी अपना फ़ायदा देखें। यदि खुदा न खास्ता आने वाले भविष्य में समझौते में कोई पेंच दिखाई दिया, या कोई विवाद की स्थिति बनी, तो “हम चले अपने घर, तू जा अपने घर…” भी कहा जा सकता है, और हो सकता है कि आने वाले दस वर्षों में भारत का प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों युवा हों, तब तक भारत की युवा शक्ति विश्व में अपना लोहा मनवा चुकी होगी, फ़िर डरना कैसा? क्या हमें अपने आने वाले युवाओं पर भरोसा नहीं करना चाहिये? सिर्फ़ इसलिये कि कब्र में पैर लटकाये हुए कुछ “कछुए” और कुछ “धर्मनिरपेक्ष” मेंढक, इस समझौते का विरोध कर रहे हैं? राजनेता (चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी) वोट के लिये सौ बार झूठ बोलेगा, लेकिन कलाम और काकोड़कर को कोई चुनाव नहीं लड़ना है…
खैर… सारे झमेले में फ़िर भी एक बात तो दमदार है कि, प्याज के मुद्दे पर गिरने वाली सरकारें आज परमाणु मुद्दे पर गिरने जा रही हैं, कौन कहता है कि भारत ने तरक्की नहीं की…
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शुक्रवार, 11 जुलाई 2008 17:56
कलाम और काकोड़कर चुनाव नहीं लड़ते, इसलिये सच बोल रहे हैं…(भाग-1)
Nuclear Deal India America IAEA
समूचे देश में इस समय परमाणु करार को लेकर “बेकरार और तकरार” जारी है, यहाँ तक कि “निठल्ला चिंतन” भी कई लोग एक साथ कर रहे हैं। जहाँ एक ओर वामपंथी अपने पुरातनपंथी विचारों से चिपके हुए हैं और चार साल तक मजे लूटने के बाद अचानक इस सरकार में उन्हें खामियाँ दिखाई देने लगी हैं, तो दूसरी ओर भाजपा है, जो सोच रही है कि बढ़ती महंगाई, फ़टी-पुरानी पैबन्द लगी “धर्मनिरपेक्षता” और अब बैठे-ठाले सरकार गिरने का खतरा, यानी दोनो हाथों में लड्डू… रही देश की जनता, तो उसे इस सारी नौटंकी से कोई लेना-देना नहीं है, वह अपने रोजमर्रा के संघर्षों में जीवन-यापन कर रही है। जबकि बुद्धिजीवियों द्वारा अखबारों के पन्ने और ब्लॉगों के सर्वर भरे जा रहे हैं, भाई लोग लगे पड़े हैं रस्साकशी में…
इस सारे परिदृश्य में मूल मुद्दा धीरे-धीरे पीछे जा रहा है, जिस पर सबसे ज्यादा बहस होना चाहिये। वह मुद्दा है “भारत की तेजी से बढ़ती ऊर्जा जरूरतें कैसे पूरी होंगी? और इस सम्बन्ध में हमारी विदेश नीति क्या होना चाहिये?” भारत और चीन दो बढ़ती हुई आर्थिक महाशक्ति हैं, दोनों की सबसे बड़ी जरूरत है “ऊर्जा”। फ़िलहाल हम 1,20,000 मेगावाट का उत्पादन कर रहे हैं, जिसमें से 30% चोरी और क्षरण हो जाती है। अगले बीस साल में हमें चार लाख मेगावाट की आवश्यकता होगी, हर व्यक्ति अपने घर में दो-दो एसी लगवा रहा है, कम्प्यूटर खरीद रहा है, चार-चार टीवी हर घर में हैं, किसान भी मोटरों से खेतों में सिंचाई कर रहे हैं, उद्योग-धंधे तेजी से बढ़ रहे हैं… कहाँ से लायेंगे इतनी बिजली?
हरेक देश को अपने भविष्य और जनता के फ़ायदे के बारे में सोचने का पूरा हक है, भारत को भी है। भारत के पास थोरियम के विशाल भंडार मौजूद हैं। भारत के वैज्ञानिक थोरियम से रिएक्टर बनाकर बिजली बनाने की तकनीक पर काम कर रहे हैं (जो पूर्णतः सफ़ल होने पर भारत बिजली का निर्यात तक कर सकेगा)। थोरियम से बिजली बनाने की तकनीक के रास्ते में रोड़ा है पश्चिमी देशों से मिलने वाली आधुनिक तकनीक, विविध उपकरण और वैज्ञानिक मदद। हालांकि भारत के वैज्ञानिकों ने अपनी मेहनत और प्रतिभा के दम पर 350 मेगावाट का एक थोरियम रियेक्टर सफ़लतापूर्वक बना लिया है, लेकिन इस तकनीक में महारत हासिल करने के लिये और इसे व्यापक रूप देने के लिये वैज्ञानिकों को नई-नई तकनीक और उपकरण चाहिये होंगे, ताकि इस काम में तेजी लाई जा सके।
यह सारी भूमिका इसलिये बाँधी, क्योंकि जो परमाणु समझौता हम अमेरिका से करने जा रहे हैं, उसका मुख्य फ़ायदा यही है कि अभी हमें यूरेनियम के लिये अमेरिका पर निर्भर रहना होता है, लेकिन इस समझौते से पूरा विश्व हमारे लिये खुला हुआ होगा, हम कहीं से भी यूरेनियम, संयंत्र और तकनीक खरीदने को स्वतन्त्र होंगे। इस परमाणु ऊर्जा से हम सिर्फ़ 4000 मेगावाट की बिजली ही पैदा कर पायेंगे, जो कि “ऊँट के मुँह में जीरे के समान” है, लेकिन इसके पीछे कलाम और काकोड़कर की सोच को राजनेता नहीं पहचान पा रहे। इस समझौते के अनुसार, भारत में बिजली का निर्माण तीन चरणों में होगा, पहले चरण में यूरेनियम आधारित बिजली, दूसरे चरण में यूरेनियम विखण्डन (Explosion) आधारित बिजली तथा तीसरे चरण में थोरियम आधारित बिजली उत्पादन। अब परिदृश्य यह है कि भारत में यूरेनियम लगभग नगण्य है, इसलिये शुरुआत में हमें यह आयात करना पड़ेगा, उसके रिएक्टर भी बाहर से मंगवाने पड़ेंगे, लेकिन तीसरा चरण आते-आते भारत के वैज्ञानिकों को नवीनतम रिएक्टर तकनीक तो मिल ही जायेगी, साथ ही भारत में काफ़ी मात्रा में थोरियम मौजूद होने के कारण तब बिजली भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने लगेगी। कलाम और काकोड़कर दोनो महान वैज्ञानिक हैं, उन्होंने इस परमाणु समझौते का गहन अध्ययन किया है, उन्हें पता है कि भारतीय वैज्ञानिकों को “वैश्विक अस्पृश्यता” से दूर करने के लिये यह समझौता बेहद जरूरी है। तात्कालिक रूप से प्राथमिक चरण में भारत को यह सौदा महंगा पड़ेगा, कारण यूरेनियम बेचने वाले, यूरेनियम के रिएक्टर बेचने वाले, उस पर निगरानी(?) करने में पश्चिमी देशों का एकाधिकार है, और सभी पश्चिमी देश पहले अपना हित / फ़ायदा देखते हैं। ऐसे में यदि भारत भी “सिर्फ़ अपना” फ़ायदा देखे तो इसमें हर्ज ही क्या है?
(भाग-2 में जारी…)
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समूचे देश में इस समय परमाणु करार को लेकर “बेकरार और तकरार” जारी है, यहाँ तक कि “निठल्ला चिंतन” भी कई लोग एक साथ कर रहे हैं। जहाँ एक ओर वामपंथी अपने पुरातनपंथी विचारों से चिपके हुए हैं और चार साल तक मजे लूटने के बाद अचानक इस सरकार में उन्हें खामियाँ दिखाई देने लगी हैं, तो दूसरी ओर भाजपा है, जो सोच रही है कि बढ़ती महंगाई, फ़टी-पुरानी पैबन्द लगी “धर्मनिरपेक्षता” और अब बैठे-ठाले सरकार गिरने का खतरा, यानी दोनो हाथों में लड्डू… रही देश की जनता, तो उसे इस सारी नौटंकी से कोई लेना-देना नहीं है, वह अपने रोजमर्रा के संघर्षों में जीवन-यापन कर रही है। जबकि बुद्धिजीवियों द्वारा अखबारों के पन्ने और ब्लॉगों के सर्वर भरे जा रहे हैं, भाई लोग लगे पड़े हैं रस्साकशी में…
इस सारे परिदृश्य में मूल मुद्दा धीरे-धीरे पीछे जा रहा है, जिस पर सबसे ज्यादा बहस होना चाहिये। वह मुद्दा है “भारत की तेजी से बढ़ती ऊर्जा जरूरतें कैसे पूरी होंगी? और इस सम्बन्ध में हमारी विदेश नीति क्या होना चाहिये?” भारत और चीन दो बढ़ती हुई आर्थिक महाशक्ति हैं, दोनों की सबसे बड़ी जरूरत है “ऊर्जा”। फ़िलहाल हम 1,20,000 मेगावाट का उत्पादन कर रहे हैं, जिसमें से 30% चोरी और क्षरण हो जाती है। अगले बीस साल में हमें चार लाख मेगावाट की आवश्यकता होगी, हर व्यक्ति अपने घर में दो-दो एसी लगवा रहा है, कम्प्यूटर खरीद रहा है, चार-चार टीवी हर घर में हैं, किसान भी मोटरों से खेतों में सिंचाई कर रहे हैं, उद्योग-धंधे तेजी से बढ़ रहे हैं… कहाँ से लायेंगे इतनी बिजली?
हरेक देश को अपने भविष्य और जनता के फ़ायदे के बारे में सोचने का पूरा हक है, भारत को भी है। भारत के पास थोरियम के विशाल भंडार मौजूद हैं। भारत के वैज्ञानिक थोरियम से रिएक्टर बनाकर बिजली बनाने की तकनीक पर काम कर रहे हैं (जो पूर्णतः सफ़ल होने पर भारत बिजली का निर्यात तक कर सकेगा)। थोरियम से बिजली बनाने की तकनीक के रास्ते में रोड़ा है पश्चिमी देशों से मिलने वाली आधुनिक तकनीक, विविध उपकरण और वैज्ञानिक मदद। हालांकि भारत के वैज्ञानिकों ने अपनी मेहनत और प्रतिभा के दम पर 350 मेगावाट का एक थोरियम रियेक्टर सफ़लतापूर्वक बना लिया है, लेकिन इस तकनीक में महारत हासिल करने के लिये और इसे व्यापक रूप देने के लिये वैज्ञानिकों को नई-नई तकनीक और उपकरण चाहिये होंगे, ताकि इस काम में तेजी लाई जा सके।
यह सारी भूमिका इसलिये बाँधी, क्योंकि जो परमाणु समझौता हम अमेरिका से करने जा रहे हैं, उसका मुख्य फ़ायदा यही है कि अभी हमें यूरेनियम के लिये अमेरिका पर निर्भर रहना होता है, लेकिन इस समझौते से पूरा विश्व हमारे लिये खुला हुआ होगा, हम कहीं से भी यूरेनियम, संयंत्र और तकनीक खरीदने को स्वतन्त्र होंगे। इस परमाणु ऊर्जा से हम सिर्फ़ 4000 मेगावाट की बिजली ही पैदा कर पायेंगे, जो कि “ऊँट के मुँह में जीरे के समान” है, लेकिन इसके पीछे कलाम और काकोड़कर की सोच को राजनेता नहीं पहचान पा रहे। इस समझौते के अनुसार, भारत में बिजली का निर्माण तीन चरणों में होगा, पहले चरण में यूरेनियम आधारित बिजली, दूसरे चरण में यूरेनियम विखण्डन (Explosion) आधारित बिजली तथा तीसरे चरण में थोरियम आधारित बिजली उत्पादन। अब परिदृश्य यह है कि भारत में यूरेनियम लगभग नगण्य है, इसलिये शुरुआत में हमें यह आयात करना पड़ेगा, उसके रिएक्टर भी बाहर से मंगवाने पड़ेंगे, लेकिन तीसरा चरण आते-आते भारत के वैज्ञानिकों को नवीनतम रिएक्टर तकनीक तो मिल ही जायेगी, साथ ही भारत में काफ़ी मात्रा में थोरियम मौजूद होने के कारण तब बिजली भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होने लगेगी। कलाम और काकोड़कर दोनो महान वैज्ञानिक हैं, उन्होंने इस परमाणु समझौते का गहन अध्ययन किया है, उन्हें पता है कि भारतीय वैज्ञानिकों को “वैश्विक अस्पृश्यता” से दूर करने के लिये यह समझौता बेहद जरूरी है। तात्कालिक रूप से प्राथमिक चरण में भारत को यह सौदा महंगा पड़ेगा, कारण यूरेनियम बेचने वाले, यूरेनियम के रिएक्टर बेचने वाले, उस पर निगरानी(?) करने में पश्चिमी देशों का एकाधिकार है, और सभी पश्चिमी देश पहले अपना हित / फ़ायदा देखते हैं। ऐसे में यदि भारत भी “सिर्फ़ अपना” फ़ायदा देखे तो इसमें हर्ज ही क्या है?
(भाग-2 में जारी…)
Nuclear Deal, India USA Relationship, IAEA, Uranium Reactors, Thorium Reactor, Abdul Kalam, Anil Kakodkar, India’s Energy Requirement, China, Increasing Petrol-Diesel Prices, परमाणु करार, अमेरिका-भारत सम्बन्ध, आईएईए, यूरेनियम रिएक्टर, थोरियम, अब्दुल कलाम, अनिल काकोड़कर, भारत की ऊर्जा जरूरतें, पेट्रोल-डीजल कीमतें, चीन, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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रविवार, 06 जुलाई 2008 13:46
सुधा मूर्ति द्वारा लिखित एक बेहतरीन संस्मरण…
विवाह जीवन का एक अनिवार्य संस्कार है। भारत में विवाह कई रीति-रिवाजों के साथ होता है। हमारी हिन्दी फिल्मों में कई कहानियाँ विवाह के विषय पर आधारित हैं। भारत का इतिहास गवाह है कि कई युद्ध विवाहों के कारण लड़े गए।
पहले विवाह संपन्न होने में पूरा एक सप्ताह तक लग जाता था। समय के साथ-साथ इसकी अवधि कम होती गई। पहले तीन दिन और वर्तमान में एक दिन के लिए यह शुभ समारोह होता है। विवाह में जिंदगी की सारी कमाई खर्च हो जाती है। शादी के लिए कई लोग पैसे उधार लेते हैं और सारी जिंदगी इस कर्ज को चुकाते रहते हैं। जब मैंने बँधुआ मजदूरों के साथ बातें की, तब अनुभव किया कि कर्ज चुकाने के कारण उनकी यह अवस्था हुई है। विवाह के समय हम बारातियों के सुख-सुविधा, दुल्हन के श्रृंगार, व्यंजन आदि के विषय पर चिंतित होते हैं।
हाल ही में मैं मास्को (रूस) गई थी। रूस का इतिहास बताता है कि रूस ने कई युद्ध जीते हैं । वहाँ के निवासी इन बातों से गर्वित हो उठते हैं। शहीद वीरों की स्मृतियों में कई स्मारक एवं मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। पहला युद्ध पीटर दी ग्रेट तथा स्वीडन के बीच हुआ था। दूसरा युद्ध फ्रांस के नेपोलियन एवं जार एलेक्जेंडर प्रथम के बीच हुआ था।
मास्को में एक विशाल पार्क स्थित है, जिसका नाम है पीस पार्क। इस पार्क के मध्य में एक स्तंभ है और इस स्तंभ पर रूस में युद्ध की तारीख एवं स्थानों के बारे में लिखा गया था । पार्क में विभिन्न प्रकार के फव्वारे एवं रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे। पर्यटकों के लिए यह एक आकर्षक स्थल है। रविवार के दिन मैं पार्क में गई थी। उस दिन हल्की-सी वर्षा एवं ठंड पड़ रही थी। मैं उस सुहावने मौसम का आनंद छतरी के तले ले रही थी। चारों ओर खिलती हरियाली मन को भा रही थी।
अचानक मेरी नजर कम उम्र के एक युगल पर पड़ी। उन्हें देखकर ऐसा लगा कि उनकी शादी हाल ही में हुई है। युवती बीस-बाईस वर्ष की थी, पतली-दुबली एवं नीली आँखों वाली। वह देखने में बहुत ही सुंदर थी। युवक भी उसी की उम्र का था तथा दिखने में आकर्षक था। वह फौजी कपड़े पहने था। युवती के सुंदर चमकते कपड़ों पर मोती जड़े हुए थे। युवती ने एक लंबी पोशाक पहन रखी थी। हाथ में एक गुलदस्ता था तथा युवक छतरी से उसे वर्षा की बूँदों से बचा रहा था ताकि वह भीग न जाए।
मैंने देखा कि वे स्मारक की ओर बढ़ रहे हैं। पहुँचने पर उन्होंने गुलदस्ता रखा एवं झुककर प्रार्थना की। कुछ देर बाद वे वहाँ से चले गए। मैं सोच रही थी कि उनसे प्रश्न करूँ कि वे क्या कर रहे थे? इस रिवाज का क्या अर्थ है, परंतु भाषाओं में अंतर होने के कारण मैं उनसे कुछ पूछ नहीं पा रही थी। उस समय एक वृद्ध व्यक्ति मेरे पास खड़े हुए थे। उन्होंने मुझे साड़ी पहने देखकर कहा कि क्या आप भारतीय हैं?
मैंने कहा- हाँ।
वृद्ध व्यक्ति ने कहा- मैंने राज कपूर की फिल्में देखी हैं। उनकी फिल्में बहुत ही अच्छी हैं। रूस में राज कपूर आए थे। क्या आप यह गाना जानती हैं- मैं आवारा हूँ...।
'क्या आप जानती हैं कि मास्को में भारत के तीन प्रसिद्ध व्यक्तियों की मूर्तियाँ स्थापित हैं?'
मैंने पूछा- कौन हैं वे तीन व्यक्ति? तब वृद्ध ने जवाब दिया, जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गाँधी एवं इंदिरा गाँधी। वार्तालाप के दौरान मैंने उनसे कुछ सवाल किए।
मैंने पूछा- आप अँगरेजी भाषा कैसे जानते हैं?
तब उन्होंने कहा- मैंने विदेश में नौकरी की थी। उसी समय मैंने अँगरेजी सीखी।
मैंने पूछा- क्या आप बता सकते हैं कि नवविवाहिता वर-वधू ने शादी के दिन स्मारक के दर्शन किसलिए किए?
वृद्ध व्यक्ति ने कहा- यह यहाँ की प्रथा है। रविवार एवं शनिवार के दिन शादियाँ होती हैं। वर-वधू अपने नाम को सूचीबद्ध करके प्रमुख राष्ट्रीय स्मारक के दर्शन करते हैं। इस देश के हर युवक को कुछ सालों के लिए सेना में विशिष्ट सेवा देनी पड़ती है। चाहे वह सेना में किसी भी पद पर हो, उस युवक को विवाह के दिन अपने सैनिक वस्त्र ही पहनने पड़ते हैं।
मैंने पूछा- ऐसी प्रथा क्यों प्रचलित है यहाँ पर?
यह कृतज्ञता की निशानी है? रूस ने कई युद्ध लड़े हैं। उनमें हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी है। चाहे हमने युद्ध हारे हों या जीते हों, उनकी दी हुई कुर्बानी हमारे देश के लिए बहुमूल्य है। नवविवाहित युगलों को याद रखना चाहिए कि वे एक शांतिपूर्ण स्वतंत्र देश में रहे हैं। चूँकि उनके पूर्वजों ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी थी। उन्हें उनसे आशीर्वाद लेना चाहिए। देशप्रेम विवाह समारोह से अधिक महत्वपूर्ण है। हम बुजुर्गों की यह इच्छा है कि यह परंपरा चलती रहे। विवाह के दिन नवविवाहितों को नजदीक के युद्ध स्मारक के दर्शन करना चाहिए।
इस विषय पर मैं सोचने लगी कि हम अपने बच्चों को क्या सीख देते हैं। क्या हम उन्हें 1857 के स्वतंत्रता के लिए लड़े गए युद्ध के बारे में बताते हैं या हम 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में कहते हैं? क्या हम नवविवाहितों को अंडमान की जेल के विषय में बताते हैं, जहाँ पर हजारों लोगों को कालापानी की सजा दी गई थी एवं वे निर्ममता से फाँसी पर चढ़ाए गए थे?
क्या हम भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, शिवाजी, महाराणा प्रताप, लक्ष्मीबाई आदि वीर शहीदों को याद करते हैं? जिन्होंने देश के लिए जान की कुर्बानी दे दी। स्वतंत्र भारत को देखने के लिए वे वीर पुरुष एवं महिला जिंदा नहीं रहे। क्या हम में इतनी कृतज्ञता की भावना है कि उन वीर महापुरुषों को अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिन याद करें। हम इस दिन साड़ी, गहने की खरीददारी एवं मनोरंजन के लिए पार्टी में जाते हैं।
मेरी आँखें भर आईं। मैं चाहती हूँ कि यह शिक्षा हम रूस के निवासियों से सीखें और याद करें अपने शहीदों को अपनी खुशियों के अवसर पर।
(यह संस्मरण हाल ही में "नईदुनिया" इन्दौर में प्रकाशित हुआ था)
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इस संस्मरण की भावना के मद्देनजर अब दो शब्द मेरी तरफ़ से…
आज के माहौल से मेल खाता हुआ यह मर्मस्पर्शी लेख है, आम नागरिक के मन में देश के लिये जो जज़्बा अन्य पश्चिमी और यूरोपीय देशों में है, उसका 50% भी भारत के लोगों में नहीं है, यदि होता तो वे दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों की सूची में आगे-आगे नहीं होते… हाँ, दिखावा करने में हम लोग सबसे बेहतर हैं, साल में दो-एक बार सैनिकों के लिये घड़ियाली आँसू बहा लेते हैं बस… आज भी हमारी व्यवस्था शहीदों, शहीदों की विधवाओं और परिवारों के साथ बहुत बुरा सलू्क करती हैं। अफ़जल को अब तक फ़ाँसी नहीं दी जा रही, शहीदों के परिवार पेंशन, गुजारे भत्ते, पेट्रोल पंपों के लिये गिड़गिड़ा रहे हैं, सियाचिन पर सैनिकों के लिये जूते भेजने में अधिकारी पैसे को लेकर आनाकानी करते हैं, लेकिन शर्म हमें आती नहीं… जब रा स्व संघ, मानेकशॉ की अंत्येष्टि के बारे में सवाल उठाता है तो वह सांप्रदायिक, लेकिन कारगिल और पोखरण की वर्षगाँठ भु्ला देने वाले कांग्रेसी "धर्मनिरपेक्ष", यही इस देश का रोना है… राष्ट्र के बारे में, सेना के बारे में बात करना भी सांप्रदायिकता में आने लगा है अब????? असली धर्मनिरपेक्षता यही है कि बच्चों को "ग" से गणेश नहीं बल्कि "ग" से गधा पढ़ाया जाये, शिवाजी के गुणगान की बजाय अकबर को महान बताया जाये, सरस्वती वन्दना और वन्देमातरम् का विरोध करना भी "प्रगतिशीलता" की निशानी माना जाता है… लेकिन जिन लोगों को कश्मीर से ज्यादा चिंता फ़िलिस्तीन की हो, असम-बंगाल की घुसपैठ से ज्यादा चिंता गुजरात की है, उनसे क्या अपेक्षा करें… मानेकशॉ की अंत्येष्टि में "सरकार" सिर्फ़ इसीलिये शामिल नहीं हुई कि कहीं पाकिस्तान-बांग्लादेश नाराज न हो जायें… तरस आता है ऐसी घिनौनी सोच पर, और इनके समर्थकों पर… ऐसे लोग कभी भी "भारत को महान" नहीं बना सकते…
पहले विवाह संपन्न होने में पूरा एक सप्ताह तक लग जाता था। समय के साथ-साथ इसकी अवधि कम होती गई। पहले तीन दिन और वर्तमान में एक दिन के लिए यह शुभ समारोह होता है। विवाह में जिंदगी की सारी कमाई खर्च हो जाती है। शादी के लिए कई लोग पैसे उधार लेते हैं और सारी जिंदगी इस कर्ज को चुकाते रहते हैं। जब मैंने बँधुआ मजदूरों के साथ बातें की, तब अनुभव किया कि कर्ज चुकाने के कारण उनकी यह अवस्था हुई है। विवाह के समय हम बारातियों के सुख-सुविधा, दुल्हन के श्रृंगार, व्यंजन आदि के विषय पर चिंतित होते हैं।
हाल ही में मैं मास्को (रूस) गई थी। रूस का इतिहास बताता है कि रूस ने कई युद्ध जीते हैं । वहाँ के निवासी इन बातों से गर्वित हो उठते हैं। शहीद वीरों की स्मृतियों में कई स्मारक एवं मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। पहला युद्ध पीटर दी ग्रेट तथा स्वीडन के बीच हुआ था। दूसरा युद्ध फ्रांस के नेपोलियन एवं जार एलेक्जेंडर प्रथम के बीच हुआ था।
मास्को में एक विशाल पार्क स्थित है, जिसका नाम है पीस पार्क। इस पार्क के मध्य में एक स्तंभ है और इस स्तंभ पर रूस में युद्ध की तारीख एवं स्थानों के बारे में लिखा गया था । पार्क में विभिन्न प्रकार के फव्वारे एवं रंग-बिरंगे फूल खिले हुए थे। पर्यटकों के लिए यह एक आकर्षक स्थल है। रविवार के दिन मैं पार्क में गई थी। उस दिन हल्की-सी वर्षा एवं ठंड पड़ रही थी। मैं उस सुहावने मौसम का आनंद छतरी के तले ले रही थी। चारों ओर खिलती हरियाली मन को भा रही थी।
अचानक मेरी नजर कम उम्र के एक युगल पर पड़ी। उन्हें देखकर ऐसा लगा कि उनकी शादी हाल ही में हुई है। युवती बीस-बाईस वर्ष की थी, पतली-दुबली एवं नीली आँखों वाली। वह देखने में बहुत ही सुंदर थी। युवक भी उसी की उम्र का था तथा दिखने में आकर्षक था। वह फौजी कपड़े पहने था। युवती के सुंदर चमकते कपड़ों पर मोती जड़े हुए थे। युवती ने एक लंबी पोशाक पहन रखी थी। हाथ में एक गुलदस्ता था तथा युवक छतरी से उसे वर्षा की बूँदों से बचा रहा था ताकि वह भीग न जाए।
मैंने देखा कि वे स्मारक की ओर बढ़ रहे हैं। पहुँचने पर उन्होंने गुलदस्ता रखा एवं झुककर प्रार्थना की। कुछ देर बाद वे वहाँ से चले गए। मैं सोच रही थी कि उनसे प्रश्न करूँ कि वे क्या कर रहे थे? इस रिवाज का क्या अर्थ है, परंतु भाषाओं में अंतर होने के कारण मैं उनसे कुछ पूछ नहीं पा रही थी। उस समय एक वृद्ध व्यक्ति मेरे पास खड़े हुए थे। उन्होंने मुझे साड़ी पहने देखकर कहा कि क्या आप भारतीय हैं?
मैंने कहा- हाँ।
वृद्ध व्यक्ति ने कहा- मैंने राज कपूर की फिल्में देखी हैं। उनकी फिल्में बहुत ही अच्छी हैं। रूस में राज कपूर आए थे। क्या आप यह गाना जानती हैं- मैं आवारा हूँ...।
'क्या आप जानती हैं कि मास्को में भारत के तीन प्रसिद्ध व्यक्तियों की मूर्तियाँ स्थापित हैं?'
मैंने पूछा- कौन हैं वे तीन व्यक्ति? तब वृद्ध ने जवाब दिया, जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गाँधी एवं इंदिरा गाँधी। वार्तालाप के दौरान मैंने उनसे कुछ सवाल किए।
मैंने पूछा- आप अँगरेजी भाषा कैसे जानते हैं?
तब उन्होंने कहा- मैंने विदेश में नौकरी की थी। उसी समय मैंने अँगरेजी सीखी।
मैंने पूछा- क्या आप बता सकते हैं कि नवविवाहिता वर-वधू ने शादी के दिन स्मारक के दर्शन किसलिए किए?
वृद्ध व्यक्ति ने कहा- यह यहाँ की प्रथा है। रविवार एवं शनिवार के दिन शादियाँ होती हैं। वर-वधू अपने नाम को सूचीबद्ध करके प्रमुख राष्ट्रीय स्मारक के दर्शन करते हैं। इस देश के हर युवक को कुछ सालों के लिए सेना में विशिष्ट सेवा देनी पड़ती है। चाहे वह सेना में किसी भी पद पर हो, उस युवक को विवाह के दिन अपने सैनिक वस्त्र ही पहनने पड़ते हैं।
मैंने पूछा- ऐसी प्रथा क्यों प्रचलित है यहाँ पर?
यह कृतज्ञता की निशानी है? रूस ने कई युद्ध लड़े हैं। उनमें हमारे पूर्वजों ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी है। चाहे हमने युद्ध हारे हों या जीते हों, उनकी दी हुई कुर्बानी हमारे देश के लिए बहुमूल्य है। नवविवाहित युगलों को याद रखना चाहिए कि वे एक शांतिपूर्ण स्वतंत्र देश में रहे हैं। चूँकि उनके पूर्वजों ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी थी। उन्हें उनसे आशीर्वाद लेना चाहिए। देशप्रेम विवाह समारोह से अधिक महत्वपूर्ण है। हम बुजुर्गों की यह इच्छा है कि यह परंपरा चलती रहे। विवाह के दिन नवविवाहितों को नजदीक के युद्ध स्मारक के दर्शन करना चाहिए।
इस विषय पर मैं सोचने लगी कि हम अपने बच्चों को क्या सीख देते हैं। क्या हम उन्हें 1857 के स्वतंत्रता के लिए लड़े गए युद्ध के बारे में बताते हैं या हम 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में कहते हैं? क्या हम नवविवाहितों को अंडमान की जेल के विषय में बताते हैं, जहाँ पर हजारों लोगों को कालापानी की सजा दी गई थी एवं वे निर्ममता से फाँसी पर चढ़ाए गए थे?
क्या हम भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, शिवाजी, महाराणा प्रताप, लक्ष्मीबाई आदि वीर शहीदों को याद करते हैं? जिन्होंने देश के लिए जान की कुर्बानी दे दी। स्वतंत्र भारत को देखने के लिए वे वीर पुरुष एवं महिला जिंदा नहीं रहे। क्या हम में इतनी कृतज्ञता की भावना है कि उन वीर महापुरुषों को अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिन याद करें। हम इस दिन साड़ी, गहने की खरीददारी एवं मनोरंजन के लिए पार्टी में जाते हैं।
मेरी आँखें भर आईं। मैं चाहती हूँ कि यह शिक्षा हम रूस के निवासियों से सीखें और याद करें अपने शहीदों को अपनी खुशियों के अवसर पर।
(यह संस्मरण हाल ही में "नईदुनिया" इन्दौर में प्रकाशित हुआ था)
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इस संस्मरण की भावना के मद्देनजर अब दो शब्द मेरी तरफ़ से…
आज के माहौल से मेल खाता हुआ यह मर्मस्पर्शी लेख है, आम नागरिक के मन में देश के लिये जो जज़्बा अन्य पश्चिमी और यूरोपीय देशों में है, उसका 50% भी भारत के लोगों में नहीं है, यदि होता तो वे दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों की सूची में आगे-आगे नहीं होते… हाँ, दिखावा करने में हम लोग सबसे बेहतर हैं, साल में दो-एक बार सैनिकों के लिये घड़ियाली आँसू बहा लेते हैं बस… आज भी हमारी व्यवस्था शहीदों, शहीदों की विधवाओं और परिवारों के साथ बहुत बुरा सलू्क करती हैं। अफ़जल को अब तक फ़ाँसी नहीं दी जा रही, शहीदों के परिवार पेंशन, गुजारे भत्ते, पेट्रोल पंपों के लिये गिड़गिड़ा रहे हैं, सियाचिन पर सैनिकों के लिये जूते भेजने में अधिकारी पैसे को लेकर आनाकानी करते हैं, लेकिन शर्म हमें आती नहीं… जब रा स्व संघ, मानेकशॉ की अंत्येष्टि के बारे में सवाल उठाता है तो वह सांप्रदायिक, लेकिन कारगिल और पोखरण की वर्षगाँठ भु्ला देने वाले कांग्रेसी "धर्मनिरपेक्ष", यही इस देश का रोना है… राष्ट्र के बारे में, सेना के बारे में बात करना भी सांप्रदायिकता में आने लगा है अब????? असली धर्मनिरपेक्षता यही है कि बच्चों को "ग" से गणेश नहीं बल्कि "ग" से गधा पढ़ाया जाये, शिवाजी के गुणगान की बजाय अकबर को महान बताया जाये, सरस्वती वन्दना और वन्देमातरम् का विरोध करना भी "प्रगतिशीलता" की निशानी माना जाता है… लेकिन जिन लोगों को कश्मीर से ज्यादा चिंता फ़िलिस्तीन की हो, असम-बंगाल की घुसपैठ से ज्यादा चिंता गुजरात की है, उनसे क्या अपेक्षा करें… मानेकशॉ की अंत्येष्टि में "सरकार" सिर्फ़ इसीलिये शामिल नहीं हुई कि कहीं पाकिस्तान-बांग्लादेश नाराज न हो जायें… तरस आता है ऐसी घिनौनी सोच पर, और इनके समर्थकों पर… ऐसे लोग कभी भी "भारत को महान" नहीं बना सकते…
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शनिवार, 05 जुलाई 2008 14:05
हम भी चाहते हैं कि “कश्मीर आजाद” हो… (भाग-2 से जारी)
Free Kashmir from India
कश्मीर : नेहरु परिवार द्वारा भारत की छाती पर रखा बोझ (भाग 1)
तथा कश्मीर का बोझा ढोते हम मूर्ख भारतीय (भाग 2) से आगे जारी…
सो, जब अगली बार कोई “सेकुलर” “प्रगतिशील” व्यक्ति आपसे पूछे कि भारत में इतनी गरीबी क्यों है? तब यह लेख उसके मुँह पर मारिये और बताइये कि क्योंकि हम भारतवासियों को “कश्मीर” नाम का नासूर पालने का शौक है, और हम कश्मीरी मुसलमानों को हर हालत में खुश देखना चाहते हैं (चाहे वे लोग हमें भूमि का छोटा सा टुकड़ा तक देने को राजी नहीं हैं)। जाहिर है कि उस “सेकुलर” का अगला सवाल यही होगा कि फ़िर हम कश्मीर को भारत से अलग क्यों नहीं कर देते? उसे आज़ाद क्यों नहीं कर देते? तो इसका जवाब है कि ऐसा निश्चित ही किया जा सकता है, लेकिन फ़िर कुछ ही वर्षों में समूचा उत्तर-पूर्व (सातों राज्य) और पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु भी भारत से अलग होने की माँग करने लगेंगे।
कश्मीर हमारे गले में फ़ँसा हुआ हड्डी का वह टुकड़ा है जो न निगलते बन रहा है न उगलते (महान सेकुलर नेहरू परिवार के सौजन्य से)। साठ वर्षों में कश्मीरी मुसलमानों ने क्या-क्या हासिल कर लिया है, देखते हैं…
1) अरबों-खरबों रुपये की केन्द्रीय मदद (जो हमारी-आपकी जेब से जा रही है)
2) कश्मीरी मुसलमान पूरे देश में कहीं भी सम्पत्ति खरीद सकता है, लेकिन एक भारतीय कश्मीर में नहीं।
3) हिन्दुओं का घाटी से पूर्ण सफ़ाया किया जा चुका है।
4) भारत सरकार के महत्वपूर्ण मंत्री और अफ़सर पदों पर कश्मीरी कब्जा किये हुए हैं।
5) भारत सरकार अपने जवानों को वहाँ उनकी रक्षा के लिये जान गँवाने को भेजती रहती है। सुरक्षा बल आतंकवादियों से लड़ते रहते हैं और कश्मीरी मुसलमान मजे करता है।
अब स्थिति यह है कि कश्मीरी चाहते हैं कि भारत सरकार उनकी आर्थिक मदद तो करती रहे लेकिन आतंकवादी और अलगाववादियों को खुला छोड़ दे। यह उनके लिये फ़ायदे का सौदा है, उन लोगों नें उनकी मदद से कश्मीरी पंडितों को वहाँ से पूरी तरह भगा दिया है और उनके मकानों, सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया है, फ़िर भला वे क्यों चाहेंगे कि पंडित वापस लौटें (न ही फ़िलिस्तीन की चिंता करने वाले “महान सेकुलर” लोग इस बारे में कोई बात करेंगे)।
समय आ गया है कि निम्न बिन्दुओं पर गम्भीरता से विचार करें –
--- हम कश्मीर को बहुत-बहुत दे चुके, बस अब और नहीं। कश्मीरियों को साफ़-साफ़ बताने की आवश्यकता है कि हम आप पर क्या खर्च कर रहे हैं और उनके कर्तव्य क्या हैं।
--- इस लेख में बार-बार “कश्मीर” इसलिये कहा गया है कि जम्मू और लद्दाख शांतिप्रिय इलाके हैं (मुस्लिम जनसंख्या कम है ना इसलिये!!!), तो राज्य को तीन भागों में विभक्त कर दिया जाये। जो हिस्सा अधिक “रेवेन्यू” कमाकर केन्द्र सरकार को दे, उसे ज्यादा केन्द्रीय मदद मिलना चाहिये।
--- वक्त आ गया है कि कश्मीरी नेताओं से धारा 370 के बारे में दो टूक बात की जाये, न कि 1953 से पहले की स्थिति की मूर्खतापूर्ण बातें।
--- कश्मीरियों को भी बाकी भारत में किसी भी प्रकार की सम्पत्ति खरीदने पर रोक लगनी चाहिये।
1) कुल मिलाकर देखा जाये तो कश्मीर समस्या के हल दो ही प्रकार से हो सकते हैं, पहला तो यह कि कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू करके आतंकवादियों के खिलाफ़ सीमापार तक खदेड़ने की नीति अपनाई जाये, आतंकवादियों को रगड़-रगड़ कर उन्हें घुटने के बल बैठा दिया जाये, जैसा कि गिल ने पंजाब में किया था, न तो पाकिस्तान की सुनी जाये, न अमेरिका की न ही किसी मानवाधिकारवादियों की… कुचलना ही एकमात्र लक्ष्य होना चाहिये…लेकिन भारतीय सरकारों के “चरित्र”(?) को देखते हुए यह मुश्किल लगता है… (शर्म की बात तो है, लेकिन क्या करें)
2) दूसरा रास्ता है, जो कठिन है लेकिन इसके नतीजे “Long Term” में भारत के पक्ष में ही होंगे – कश्मीरी मुसलमान सदा से यह चाहते हैं कि कश्मीर में भारतीय सेना की संख्या में कटौती की जाये, उनकी यह इच्छा पूरी की जाये। हमारी सेना को धीरे-धीरे सीमा पर बारूदी सुरंगें लगाते हुए पीछे हटना चाहिये और कश्मीर से बाहर निकल आना चाहिये। इसका सीधा असर यह होगा कि तालिबान, अफ़गान और अल-कायदा के लोग कश्मीर में घुसपैठ कर जायेंगे, वे लोग चाहे कितना ही “शरीयत-शरीयत” भज लें, लेकिन वे अपहरण, लूट, बलात्कार से बाज नहीं आयेंगे, विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि बहुत जल्दी ही कश्मीर की जनता का उन “कथित जेहादियों” से मोहभंग हो जायेगा, फ़िर वे खुद ही भारत से मदद की गुहार लगाने लगेंगे, सेना को बुलायेंगे और “आज” के सुनहरे दिन याद करेंगे, उस वक्त हमारा काम आसान हो जायेगा। यदि ऐसा जल्दी नहीं भी होता है, तो निश्चित ही भारत की सेना हटने के बाद पाकिस्तान की दखलअंदाजी कश्मीर में बढ़ जायेगी, ऐसे में कश्मीर की जनता को जो “भारतीय लोकतंत्र” नाम का रसगुल्ला खाने की लत पड़ी हुई है, वह इतनी आसानी से पाकिस्तान के “नकली लोकतंत्र” को सहन नहीं कर पायेगी। वैसे भी तो हम इतना खर्चा करने और हजारों जानें गंवाने के बावजूद उनके दिल में भारत के प्रति प्रेम नहीं जगा सके हैं, फ़िर एक बार यह “जुआ” खेलने में हर्ज ही क्या है? कम से कम भारत के गरीबों और बच्चों की योजनाओं के लिये अरबों रुपया तो बचेगा, जो फ़िलहाल हम “अंधे कुएं” में डाल रहे हैं… इसलिये एक बार कुछ वर्षों के लिये कश्मीर को आजाद कर दो, उन्हें कोई मदद मत दो, सभी भारतीय कुछ वर्षों के लिये “अमरनाथ यात्रा” पर न जायें, कश्मीर में कोई भारतीय पर्यटक न जाये…।
निष्कर्ष - जब पेट पर लात पड़ेगी, तो अकल ठिकाने आने में देर नहीं लगेगी…
इन दो तरीकों के अलावा कोई और तरीका कामयाब होने वाला नहीं है, यदि होना होता, तो पिछले साठ वर्षों में हो गया होता… आपका क्या विचार है???
Kashmir Issue India Pakistan and Kashmir, Free Kashmir, Kashmir Liberation Movement, Hurriyat Conference, Mehbooba Mufti, Mufti Mohammad Sayeed, PDP, National Conference, Farooq Abdullah, Umar Abdullah, Ghulam Nabi Azad, Congress Policies over Kashmir, Secularism and Kashmiri People, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
कश्मीर : नेहरु परिवार द्वारा भारत की छाती पर रखा बोझ (भाग 1)
तथा कश्मीर का बोझा ढोते हम मूर्ख भारतीय (भाग 2) से आगे जारी…
सो, जब अगली बार कोई “सेकुलर” “प्रगतिशील” व्यक्ति आपसे पूछे कि भारत में इतनी गरीबी क्यों है? तब यह लेख उसके मुँह पर मारिये और बताइये कि क्योंकि हम भारतवासियों को “कश्मीर” नाम का नासूर पालने का शौक है, और हम कश्मीरी मुसलमानों को हर हालत में खुश देखना चाहते हैं (चाहे वे लोग हमें भूमि का छोटा सा टुकड़ा तक देने को राजी नहीं हैं)। जाहिर है कि उस “सेकुलर” का अगला सवाल यही होगा कि फ़िर हम कश्मीर को भारत से अलग क्यों नहीं कर देते? उसे आज़ाद क्यों नहीं कर देते? तो इसका जवाब है कि ऐसा निश्चित ही किया जा सकता है, लेकिन फ़िर कुछ ही वर्षों में समूचा उत्तर-पूर्व (सातों राज्य) और पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु भी भारत से अलग होने की माँग करने लगेंगे।
कश्मीर हमारे गले में फ़ँसा हुआ हड्डी का वह टुकड़ा है जो न निगलते बन रहा है न उगलते (महान सेकुलर नेहरू परिवार के सौजन्य से)। साठ वर्षों में कश्मीरी मुसलमानों ने क्या-क्या हासिल कर लिया है, देखते हैं…
1) अरबों-खरबों रुपये की केन्द्रीय मदद (जो हमारी-आपकी जेब से जा रही है)
2) कश्मीरी मुसलमान पूरे देश में कहीं भी सम्पत्ति खरीद सकता है, लेकिन एक भारतीय कश्मीर में नहीं।
3) हिन्दुओं का घाटी से पूर्ण सफ़ाया किया जा चुका है।
4) भारत सरकार के महत्वपूर्ण मंत्री और अफ़सर पदों पर कश्मीरी कब्जा किये हुए हैं।
5) भारत सरकार अपने जवानों को वहाँ उनकी रक्षा के लिये जान गँवाने को भेजती रहती है। सुरक्षा बल आतंकवादियों से लड़ते रहते हैं और कश्मीरी मुसलमान मजे करता है।
अब स्थिति यह है कि कश्मीरी चाहते हैं कि भारत सरकार उनकी आर्थिक मदद तो करती रहे लेकिन आतंकवादी और अलगाववादियों को खुला छोड़ दे। यह उनके लिये फ़ायदे का सौदा है, उन लोगों नें उनकी मदद से कश्मीरी पंडितों को वहाँ से पूरी तरह भगा दिया है और उनके मकानों, सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया है, फ़िर भला वे क्यों चाहेंगे कि पंडित वापस लौटें (न ही फ़िलिस्तीन की चिंता करने वाले “महान सेकुलर” लोग इस बारे में कोई बात करेंगे)।
समय आ गया है कि निम्न बिन्दुओं पर गम्भीरता से विचार करें –
--- हम कश्मीर को बहुत-बहुत दे चुके, बस अब और नहीं। कश्मीरियों को साफ़-साफ़ बताने की आवश्यकता है कि हम आप पर क्या खर्च कर रहे हैं और उनके कर्तव्य क्या हैं।
--- इस लेख में बार-बार “कश्मीर” इसलिये कहा गया है कि जम्मू और लद्दाख शांतिप्रिय इलाके हैं (मुस्लिम जनसंख्या कम है ना इसलिये!!!), तो राज्य को तीन भागों में विभक्त कर दिया जाये। जो हिस्सा अधिक “रेवेन्यू” कमाकर केन्द्र सरकार को दे, उसे ज्यादा केन्द्रीय मदद मिलना चाहिये।
--- वक्त आ गया है कि कश्मीरी नेताओं से धारा 370 के बारे में दो टूक बात की जाये, न कि 1953 से पहले की स्थिति की मूर्खतापूर्ण बातें।
--- कश्मीरियों को भी बाकी भारत में किसी भी प्रकार की सम्पत्ति खरीदने पर रोक लगनी चाहिये।
1) कुल मिलाकर देखा जाये तो कश्मीर समस्या के हल दो ही प्रकार से हो सकते हैं, पहला तो यह कि कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू करके आतंकवादियों के खिलाफ़ सीमापार तक खदेड़ने की नीति अपनाई जाये, आतंकवादियों को रगड़-रगड़ कर उन्हें घुटने के बल बैठा दिया जाये, जैसा कि गिल ने पंजाब में किया था, न तो पाकिस्तान की सुनी जाये, न अमेरिका की न ही किसी मानवाधिकारवादियों की… कुचलना ही एकमात्र लक्ष्य होना चाहिये…लेकिन भारतीय सरकारों के “चरित्र”(?) को देखते हुए यह मुश्किल लगता है… (शर्म की बात तो है, लेकिन क्या करें)
2) दूसरा रास्ता है, जो कठिन है लेकिन इसके नतीजे “Long Term” में भारत के पक्ष में ही होंगे – कश्मीरी मुसलमान सदा से यह चाहते हैं कि कश्मीर में भारतीय सेना की संख्या में कटौती की जाये, उनकी यह इच्छा पूरी की जाये। हमारी सेना को धीरे-धीरे सीमा पर बारूदी सुरंगें लगाते हुए पीछे हटना चाहिये और कश्मीर से बाहर निकल आना चाहिये। इसका सीधा असर यह होगा कि तालिबान, अफ़गान और अल-कायदा के लोग कश्मीर में घुसपैठ कर जायेंगे, वे लोग चाहे कितना ही “शरीयत-शरीयत” भज लें, लेकिन वे अपहरण, लूट, बलात्कार से बाज नहीं आयेंगे, विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि बहुत जल्दी ही कश्मीर की जनता का उन “कथित जेहादियों” से मोहभंग हो जायेगा, फ़िर वे खुद ही भारत से मदद की गुहार लगाने लगेंगे, सेना को बुलायेंगे और “आज” के सुनहरे दिन याद करेंगे, उस वक्त हमारा काम आसान हो जायेगा। यदि ऐसा जल्दी नहीं भी होता है, तो निश्चित ही भारत की सेना हटने के बाद पाकिस्तान की दखलअंदाजी कश्मीर में बढ़ जायेगी, ऐसे में कश्मीर की जनता को जो “भारतीय लोकतंत्र” नाम का रसगुल्ला खाने की लत पड़ी हुई है, वह इतनी आसानी से पाकिस्तान के “नकली लोकतंत्र” को सहन नहीं कर पायेगी। वैसे भी तो हम इतना खर्चा करने और हजारों जानें गंवाने के बावजूद उनके दिल में भारत के प्रति प्रेम नहीं जगा सके हैं, फ़िर एक बार यह “जुआ” खेलने में हर्ज ही क्या है? कम से कम भारत के गरीबों और बच्चों की योजनाओं के लिये अरबों रुपया तो बचेगा, जो फ़िलहाल हम “अंधे कुएं” में डाल रहे हैं… इसलिये एक बार कुछ वर्षों के लिये कश्मीर को आजाद कर दो, उन्हें कोई मदद मत दो, सभी भारतीय कुछ वर्षों के लिये “अमरनाथ यात्रा” पर न जायें, कश्मीर में कोई भारतीय पर्यटक न जाये…।
निष्कर्ष - जब पेट पर लात पड़ेगी, तो अकल ठिकाने आने में देर नहीं लगेगी…
इन दो तरीकों के अलावा कोई और तरीका कामयाब होने वाला नहीं है, यदि होना होता, तो पिछले साठ वर्षों में हो गया होता… आपका क्या विचार है???
Kashmir Issue India Pakistan and Kashmir, Free Kashmir, Kashmir Liberation Movement, Hurriyat Conference, Mehbooba Mufti, Mufti Mohammad Sayeed, PDP, National Conference, Farooq Abdullah, Umar Abdullah, Ghulam Nabi Azad, Congress Policies over Kashmir, Secularism and Kashmiri People, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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शुक्रवार, 04 जुलाई 2008 12:12
कश्मीर का बोझा ढोते हम मूर्ख भारतीय…
Kashmir Drastic Liability on India
(भाग-1 : कश्मीर - नेहरु परिवार द्वारा भारत की छाती पर रखा बोझ… से जारी)
अपनी इन्हीं देशद्रोही नीतियों की वजह से कश्मीरी नेताओं और जनता ने देखिये क्या-क्या हासिल कर लिया है–
1) कश्मीर घाटी से गैर-मुस्लिमों का पूरी तरह से सफ़ाया कर दिया गया है।
2) कई आतंकवादी, जिन्हें सुरक्षाबलों ने जान की बाजी लगाकर पकड़ा था, पैसा, बिरयानी आदि लेकर जेल से बाहर आजाद घूम रहे हैं।
3) कश्मीर घाटी में अलगाववादी भावनायें जोरों पर हैं, चाहे वह “खुद का प्रधानमंत्री” हो या फ़िर छः साल की विधानसभा।
4) पश्चिमी मीडिया (खासकर बीबीसी) के सामने हमेशा कश्मीरी मुसलमान रोते-गाते नजर आते हैं कि “हम पर भारतीय सुरक्षा बल बहुत अत्याचार करते हैं…”
5) केन्द्र से मिली मदद, सबसिडी और छूट का फ़ायदा उठाने (यानी हमारा खून चूसने) में ये “पिस्सू” सबसे आगे रहते हैं।
6) “कश्मीरियत” का झूठा राग सतत् अलापते रहते हैं, जबकि अब कश्मीरियत मतलब सिर्फ़ इस्लाम हो चुका है।
7) कश्मीरी सारे भारत में कहीं भी रह सकते हैं, कहीं भी जमीने खरीद सकते हैं, लेकिन कश्मीर में वे किसी को बर्दाश्त नहीं करते।
कुल मिलाकर कश्मीरियों के लिये यह “विन-विन” की स्थिति है (दोनो हाथों में लड्डू), फ़िर क्या वे मूर्ख हैं जो इतनी आसानी से ये सुविधायें अपने हाथों से जाने देंगे? ढोंगी मुफ़्ती मुहम्मद चाहते हैं कि आतंकवादियों के परिवारों का पुनर्वास किया जाये (जाहिर है कि केन्द्र के पैसे से, यानी हमारे-आपके पैसे से) जिसके लिये एक करोड़ों की योजना उन्होंने केन्द्र को भेजी है। हमेशा की तरह इस योजना को मानवाधिकारवदियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों ने हाथोंहाथ लपक लिया है। इनसे पूछना चाहिये कि आखिर किस बात का पुनर्वास और मुआवजा? तुम्हारा लड़का हमसे पूछकर तो आतंकवादी नहीं बना था। वह तो ज़न्नत में 72 परियों के लालच में “जेहादी” बना था ना? फ़िर हमारे खून-पसीने की कमाई पर तुम क्यों ऐश करोगे? जरा इसराइल से सबक लो, वहाँ स्पष्ट नीति है कि आतंकवादी के पूरे परिवार को दण्ड दिया जाता है, बुलडोजर से उसका घर-बार उखाड़ दिया जाता है और आतंकवादी के परिवार वाले फ़िलीस्तीन की सड़कों पर भीख माँगते हैं। शायद सड़क पर भीख माँगती अपनी माँ को देखकर किसी कट्टर आतंकवादी का दिल पिघले…। जले पर नमक छिड़कने की इंतहा तो यह कि महबूबा मुफ़्ती कहती हैं कि घाटी से गये पंडितों का स्वागत है, हम उनकी सुरक्षा का पूरा खयाल रखेंगे, लेकिन महबूबा ने यह नहीं बताया कि पंडितों की जिस सम्पत्ति और मकानों पर मुसलमानों ने कब्जा कर लिया था, वह उन्हें वापस मिलेगा या नहीं। है ना दोगलापन…
अब देखते हैं कि कैसे कश्मीरी मुसलमान हमारा खून चूस रहे हैं… कश्मीर के बारे में आर्थिक आँकड़े टटोलने की कोशिश कीजिये आपकी आँखें फ़टी की फ़टी रह जायेंगी। आप क्या सोचते हैं कि कश्मीर में गरीबी की दर क्या हो सकती है, बाकी भारत के मुकाबले कम या ज्यादा? 10 प्रतिशत या 20 प्रतिशत? तमाम छातीकूट दावों के बावजूद हकीकत यह है कि कश्मीर में गरीबी की दर है सिर्फ़ 3.4 प्रतिशत जबकि भारत की गरीबी दर है अधिकतम 26 प्रतिशत (बिहार और उड़ीसा जैसे राज्यों में), और ऐसा क्यों है, क्योंकि उन्हें पर्यटन (जो कि 90% भारतीय पर्यटक ही हैं), सूखे मेवों और पशमीना शॉलों के निर्यात से भारी कमाई होती है। ऊपर से तुर्रा यह कि कश्मीर को केन्द्र की तरफ़ से भारी मात्रा में पैसा मिलता है, मदद, सबसिडी और सहायता के नाम पर…
CAGR की रिपोर्ट के अनुसार 1991 में कश्मीर को 1,244 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया जो कि सन् 2002 तक आते-आते बढ़कर 4,578 करोड़ रुपये हो गया था (सन्दर्भ-इंडिया टुडे 14 अक्टूबर 2002)। 1991 से 2002 के बीच केन्द्र सरकार द्वारा कश्मीर को दी गई मदद कुल जीडीपी का 5 प्रतिशत से भी अधिक बैठता है। इसका मतलब है कि कश्मीर को देश के बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा हिस्सा दिया जाता है, किसी भी अनुपात से ज्यादा। यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी परिवार के सबसे निकम्मे और उद्दण्ड लड़के को पिता का सबसे अधिक पैसा मिले “मदद(?) के नाम पर”। क्या आपको बचपन में सुनी हुई कोयल और कौवे की कहानी याद नहीं आई? जिसमें कोयल अपने अंडे कौवे के घोंसले में रख देती है, और कौवा उसके अंडे तो सेता ही है, कोयल के बच्चे भी जोर-जोर से भूख-भूख चिल्लाकर कौवे के बच्चों से अधिक भोजन प्राप्त कर लेते हैं, ठीक यही कश्मीर में हो रहा है, “वे” हमारे पैसों पर पाले जा रहे हैं, और वे इसे अपना “हक”(?) बताकर और ज्यादा हासिल करने की कोशिश में लगे रहते हैं। भारत के ईमानदार करदाताओं का पैसा इस तरह से नाली में बहाया जा रहा है। जब नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि “गुजरात से कोई टैक्स न लो और न ही केन्द्र कोई मदद गुजरात को दे” तो कांग्रेस इसे तत्काल देशद्रोही बयान बताती है। अर्थात यदि देश का कोई पहला राज्य, जो हिम्मत करके कहता है कि “मैं अपने पैरों पर खड़ा हूँ…” तो उसे तारीफ़ की बजाय उलाहने और आलोचना दी जाती है, जबकि गत बीस वर्षों से भी अधिक समय से “जोंक” की तरह देश का खून चूसने वाला कश्मीर “बेचारा” और “धर्मनिरपेक्ष”?
एक बार रेलयात्रा में गृह मंत्रालय के एक अधिकारी मिले थे, उन्होंने आपसी चर्चा में बताया कि कश्मीर में आतंकवाद कभी भी खत्म नहीं होगा, क्योंकि “आतंकवाद के धंधे” से जुड़े लगभग सभी पक्ष नहीं चाहते कि इसका खात्मा हो!!! और खुलासा चाहने पर उन्होंने बताया कि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर कश्मीर में पुलिस, BSF, CRPF और सेना को केन्द्र से प्रतिवर्ष 600 से 800 करोड़ रुपया “सस्पेंस अकाउंट” में दिया जाता है, जिसका कोई ऑडिट नहीं किया जाता, न ही इस बारे में अधिकारियों से कोई सवाल किया जाता है कि वह पैसा कहाँ और कैसे खर्चा हुआ। इसी प्रकार का “सस्पेंस अकाउंट” प्रत्येक राज्य की पुलिस को मुखबिरों को पैसा देने के लिये दिया जाता है (अब वह पैसा मुखबिरों तक कितना पहुँचता है, भगवान जाने)।
अब इसे दूसरी तरह से देखें तो, कश्मीर के प्रत्येक व्यक्ति पर केन्द्र सरकार 10,000 रुपये की सबसिडी देती है, जो कि अन्य राज्यों के मुकाबले लगभग 40% ज्यादा है, और यह विशाल धनराशि राज्य को सीधे खर्च करने को दी जाती है (कोई भी सामान्य व्यक्ति आसानी से गणित लगा सकता है कि कश्मीरी नेताओं, हुर्रियत अल्गाववादियों, आतंकवादियों और अफ़सरों की जेब में कितना मोटा हिस्सा आता होगा, “ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल” की ताजा रिपोर्ट में कश्मीर को सबसे भ्रष्ट राज्य का दर्जा इसीलिये मिला हुआ है)। इसके अलावा अरबों रुपये की विभिन्न योजनायें, जैसे रेल्वे की जम्मू-उधमपुर योजना 600 करोड़, उधमपुर-श्रीनगर-बारामुला योजना 5000 करोड़, विभिन्न पहाड़ी सड़कों पर 2000 करोड़, सलाई पावर प्रोजेक्ट 900 करोड़, दुलहस्ती हाइड्रो प्रोजेक्ट 6000 करोड़, डल झील सफ़ाई योजना 150 करोड़ आदि-आदि-आदि, यानी कि पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, लेकिन एक अंधे कुँए में… तो इस बात पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि वहाँ की आम जनता की आर्थिक हालत तमाम आतंकवादी कार्रवाईयों के बावजूद, देश के बाकी राज्यों के गरीबों के मुकाबले काफ़ी बेहतर है।
(भाग-3 में कश्मीर समस्या का एक हल “जरा हट के”…)
(भाग-3 में जारी रहेगा…)
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(भाग-1 : कश्मीर - नेहरु परिवार द्वारा भारत की छाती पर रखा बोझ… से जारी)
अपनी इन्हीं देशद्रोही नीतियों की वजह से कश्मीरी नेताओं और जनता ने देखिये क्या-क्या हासिल कर लिया है–
1) कश्मीर घाटी से गैर-मुस्लिमों का पूरी तरह से सफ़ाया कर दिया गया है।
2) कई आतंकवादी, जिन्हें सुरक्षाबलों ने जान की बाजी लगाकर पकड़ा था, पैसा, बिरयानी आदि लेकर जेल से बाहर आजाद घूम रहे हैं।
3) कश्मीर घाटी में अलगाववादी भावनायें जोरों पर हैं, चाहे वह “खुद का प्रधानमंत्री” हो या फ़िर छः साल की विधानसभा।
4) पश्चिमी मीडिया (खासकर बीबीसी) के सामने हमेशा कश्मीरी मुसलमान रोते-गाते नजर आते हैं कि “हम पर भारतीय सुरक्षा बल बहुत अत्याचार करते हैं…”
5) केन्द्र से मिली मदद, सबसिडी और छूट का फ़ायदा उठाने (यानी हमारा खून चूसने) में ये “पिस्सू” सबसे आगे रहते हैं।
6) “कश्मीरियत” का झूठा राग सतत् अलापते रहते हैं, जबकि अब कश्मीरियत मतलब सिर्फ़ इस्लाम हो चुका है।
7) कश्मीरी सारे भारत में कहीं भी रह सकते हैं, कहीं भी जमीने खरीद सकते हैं, लेकिन कश्मीर में वे किसी को बर्दाश्त नहीं करते।
कुल मिलाकर कश्मीरियों के लिये यह “विन-विन” की स्थिति है (दोनो हाथों में लड्डू), फ़िर क्या वे मूर्ख हैं जो इतनी आसानी से ये सुविधायें अपने हाथों से जाने देंगे? ढोंगी मुफ़्ती मुहम्मद चाहते हैं कि आतंकवादियों के परिवारों का पुनर्वास किया जाये (जाहिर है कि केन्द्र के पैसे से, यानी हमारे-आपके पैसे से) जिसके लिये एक करोड़ों की योजना उन्होंने केन्द्र को भेजी है। हमेशा की तरह इस योजना को मानवाधिकारवदियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों ने हाथोंहाथ लपक लिया है। इनसे पूछना चाहिये कि आखिर किस बात का पुनर्वास और मुआवजा? तुम्हारा लड़का हमसे पूछकर तो आतंकवादी नहीं बना था। वह तो ज़न्नत में 72 परियों के लालच में “जेहादी” बना था ना? फ़िर हमारे खून-पसीने की कमाई पर तुम क्यों ऐश करोगे? जरा इसराइल से सबक लो, वहाँ स्पष्ट नीति है कि आतंकवादी के पूरे परिवार को दण्ड दिया जाता है, बुलडोजर से उसका घर-बार उखाड़ दिया जाता है और आतंकवादी के परिवार वाले फ़िलीस्तीन की सड़कों पर भीख माँगते हैं। शायद सड़क पर भीख माँगती अपनी माँ को देखकर किसी कट्टर आतंकवादी का दिल पिघले…। जले पर नमक छिड़कने की इंतहा तो यह कि महबूबा मुफ़्ती कहती हैं कि घाटी से गये पंडितों का स्वागत है, हम उनकी सुरक्षा का पूरा खयाल रखेंगे, लेकिन महबूबा ने यह नहीं बताया कि पंडितों की जिस सम्पत्ति और मकानों पर मुसलमानों ने कब्जा कर लिया था, वह उन्हें वापस मिलेगा या नहीं। है ना दोगलापन…
अब देखते हैं कि कैसे कश्मीरी मुसलमान हमारा खून चूस रहे हैं… कश्मीर के बारे में आर्थिक आँकड़े टटोलने की कोशिश कीजिये आपकी आँखें फ़टी की फ़टी रह जायेंगी। आप क्या सोचते हैं कि कश्मीर में गरीबी की दर क्या हो सकती है, बाकी भारत के मुकाबले कम या ज्यादा? 10 प्रतिशत या 20 प्रतिशत? तमाम छातीकूट दावों के बावजूद हकीकत यह है कि कश्मीर में गरीबी की दर है सिर्फ़ 3.4 प्रतिशत जबकि भारत की गरीबी दर है अधिकतम 26 प्रतिशत (बिहार और उड़ीसा जैसे राज्यों में), और ऐसा क्यों है, क्योंकि उन्हें पर्यटन (जो कि 90% भारतीय पर्यटक ही हैं), सूखे मेवों और पशमीना शॉलों के निर्यात से भारी कमाई होती है। ऊपर से तुर्रा यह कि कश्मीर को केन्द्र की तरफ़ से भारी मात्रा में पैसा मिलता है, मदद, सबसिडी और सहायता के नाम पर…
CAGR की रिपोर्ट के अनुसार 1991 में कश्मीर को 1,244 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया जो कि सन् 2002 तक आते-आते बढ़कर 4,578 करोड़ रुपये हो गया था (सन्दर्भ-इंडिया टुडे 14 अक्टूबर 2002)। 1991 से 2002 के बीच केन्द्र सरकार द्वारा कश्मीर को दी गई मदद कुल जीडीपी का 5 प्रतिशत से भी अधिक बैठता है। इसका मतलब है कि कश्मीर को देश के बाकी राज्यों के मुकाबले ज्यादा हिस्सा दिया जाता है, किसी भी अनुपात से ज्यादा। यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी परिवार के सबसे निकम्मे और उद्दण्ड लड़के को पिता का सबसे अधिक पैसा मिले “मदद(?) के नाम पर”। क्या आपको बचपन में सुनी हुई कोयल और कौवे की कहानी याद नहीं आई? जिसमें कोयल अपने अंडे कौवे के घोंसले में रख देती है, और कौवा उसके अंडे तो सेता ही है, कोयल के बच्चे भी जोर-जोर से भूख-भूख चिल्लाकर कौवे के बच्चों से अधिक भोजन प्राप्त कर लेते हैं, ठीक यही कश्मीर में हो रहा है, “वे” हमारे पैसों पर पाले जा रहे हैं, और वे इसे अपना “हक”(?) बताकर और ज्यादा हासिल करने की कोशिश में लगे रहते हैं। भारत के ईमानदार करदाताओं का पैसा इस तरह से नाली में बहाया जा रहा है। जब नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि “गुजरात से कोई टैक्स न लो और न ही केन्द्र कोई मदद गुजरात को दे” तो कांग्रेस इसे तत्काल देशद्रोही बयान बताती है। अर्थात यदि देश का कोई पहला राज्य, जो हिम्मत करके कहता है कि “मैं अपने पैरों पर खड़ा हूँ…” तो उसे तारीफ़ की बजाय उलाहने और आलोचना दी जाती है, जबकि गत बीस वर्षों से भी अधिक समय से “जोंक” की तरह देश का खून चूसने वाला कश्मीर “बेचारा” और “धर्मनिरपेक्ष”?
एक बार रेलयात्रा में गृह मंत्रालय के एक अधिकारी मिले थे, उन्होंने आपसी चर्चा में बताया कि कश्मीर में आतंकवाद कभी भी खत्म नहीं होगा, क्योंकि “आतंकवाद के धंधे” से जुड़े लगभग सभी पक्ष नहीं चाहते कि इसका खात्मा हो!!! और खुलासा चाहने पर उन्होंने बताया कि आतंकवाद से लड़ने के नाम पर कश्मीर में पुलिस, BSF, CRPF और सेना को केन्द्र से प्रतिवर्ष 600 से 800 करोड़ रुपया “सस्पेंस अकाउंट” में दिया जाता है, जिसका कोई ऑडिट नहीं किया जाता, न ही इस बारे में अधिकारियों से कोई सवाल किया जाता है कि वह पैसा कहाँ और कैसे खर्चा हुआ। इसी प्रकार का “सस्पेंस अकाउंट” प्रत्येक राज्य की पुलिस को मुखबिरों को पैसा देने के लिये दिया जाता है (अब वह पैसा मुखबिरों तक कितना पहुँचता है, भगवान जाने)।
अब इसे दूसरी तरह से देखें तो, कश्मीर के प्रत्येक व्यक्ति पर केन्द्र सरकार 10,000 रुपये की सबसिडी देती है, जो कि अन्य राज्यों के मुकाबले लगभग 40% ज्यादा है, और यह विशाल धनराशि राज्य को सीधे खर्च करने को दी जाती है (कोई भी सामान्य व्यक्ति आसानी से गणित लगा सकता है कि कश्मीरी नेताओं, हुर्रियत अल्गाववादियों, आतंकवादियों और अफ़सरों की जेब में कितना मोटा हिस्सा आता होगा, “ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल” की ताजा रिपोर्ट में कश्मीर को सबसे भ्रष्ट राज्य का दर्जा इसीलिये मिला हुआ है)। इसके अलावा अरबों रुपये की विभिन्न योजनायें, जैसे रेल्वे की जम्मू-उधमपुर योजना 600 करोड़, उधमपुर-श्रीनगर-बारामुला योजना 5000 करोड़, विभिन्न पहाड़ी सड़कों पर 2000 करोड़, सलाई पावर प्रोजेक्ट 900 करोड़, दुलहस्ती हाइड्रो प्रोजेक्ट 6000 करोड़, डल झील सफ़ाई योजना 150 करोड़ आदि-आदि-आदि, यानी कि पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है, लेकिन एक अंधे कुँए में… तो इस बात पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि वहाँ की आम जनता की आर्थिक हालत तमाम आतंकवादी कार्रवाईयों के बावजूद, देश के बाकी राज्यों के गरीबों के मुकाबले काफ़ी बेहतर है।
(भाग-3 में कश्मीर समस्या का एक हल “जरा हट के”…)
(भाग-3 में जारी रहेगा…)
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