desiCNN - Items filtered by date: मई 2008
Less wood Hindu Cremation Environment
(भाग-2 से जारी…) अब चिता को जमाने का सही तरीका… यदि कण्डे उपलब्ध हों तो सबसे नीचे कण्डों की सेज बनाना चाहिये, फ़िर उसके ऊपर एक मोटी लकड़ी सिर की तरफ़ और दो मोटी लकड़ियाँ दोनों बाजू में रखना चाहिये, ताकि शरीर जब जलकर नीचे बैठे तो साइड से खिसक न जाये। अब बीच में बची हुई जगह पर पतली लकड़ियाँ जमाकर मुर्दे को उस पर लिटायें। अब सबसे पहले छाती पर एक मोटी लकड़ी, दूसरी सिर पर तथा तीसरी घुटनों पर रखें, जलने के दौरान अक्सर यही तीन स्थान अपने स्थान से खिसकने की सम्भावना होती है। बाकी की पतली लकड़ियाँ बीच-बीच में फ़ँसा दें, लेकिन इस तरह कि हवा का आवागमन बना रहे। बीच के खाली स्पेस में थोड़ा-थोड़ा फ़ूस भरते रहें जो हल्का सा बाहर की ओर निकला रहे, क्योंकि सबसे पहले उसी में आग लगानी है। प्रदक्षिणा के बाद जैसे ही व्यक्ति अग्नि दे, चारों तरफ़ के फ़ूस में आग लगाना शुरु करें, और बाकी लोगों को वहाँ से “हवा आने दो…” कहकर हटा दें, एक बार कण्डे आग पकड़ लें तो काम आसान हो जाता है, वैसे तो मुर्दे पर कर्मकांड के दौरान घी छिड़का / लेपा ही जायेगा, तो बाकी बची राल को धीरे-धीरे चिता में झोंकना शुरु करें ताकि आग तेजी से भड़के। चिता जमाते समय इस बात का खास खयाल रहे कि मुर्दे के हाथ और पैर पास-पास हों तथा उसके साइड में कम-से-कम एक-दो लकड़ियाँ अच्छी तरह से जमी हुई हों, कई बार देखा गया है कि आधी चिता जलने के बाद मुर्दे का एक हाथ या एक पैर बाहर आ जाता है। खैर, यहाँ आकर काम लगभग समाप्त हो जाता है, बस दूर बैठकर चिता के 75% जलने का इंतजार कीजिये, हो सकता है कि खोपड़ी फ़ूटने की आवाज भी सुनाई दे जाये, न भी दे तो क्या, अब मृतात्मा को अन्तिम नमस्कार कीजिये, शोक संतप्त को धीरज बँधाइये और घर जाइये, नहाइये-धोइये और अपने काम से लग जाइये, एक न एक दिन तो आपको भी यहीं आना है…

अब बात करते हैं पर्यावरण की… जैसा कि मैंने पहले कहा कि लकड़ियों से शवदहन की परम्परा को अब हमें वक्त रहते बदलना होगा, और विद्युत शवदाह की ओर चलना होगा। इसके लिये मन में पैठी ग्रंथियों को निकाल बाहर करने की आवश्यकता है। विद्युत शवदाह एक बेहतरीन, कम खर्च वाला, कम समय वाला, और पर्यावरण हितैषी उपाय है। लेकिन जब तक जागरूकता नहीं फ़ैलती, कम से कम तब तक हमें इस पारम्परिक चिता दहन में ही कुछ बदलाव करके लकड़ियों का उपयोग कम से कम करना चाहिये। यह काम दो क्विंटल और 20 कण्डे में हो सकता है, जरूरत है सिर्फ़ तकनीक को अपनाने की। मुझे इन्दौर, भोपाल, देवास, गोधरा, उज्जैन आदि जगहों पर जाकर शवयात्रा में शामिल होने का मौका मिला है, इन सबमें मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया है गोधरा की श्मशान व्यवस्था ने। यहाँ चिता जलाने के लिये लोहे के पिंजरानुमा ब्लॉक बनाये गये हैं, एक स्टैण्ड पर रखे हुए जो ऊपर से खुले हैं, लेकिन नीचे और साइड से जालीनुमा खुला होता है, इसका फ़ायदा यह होता है कि इसमें कम लकड़ी लगती है, मुर्दे के हाथ पैर बाहर आने के कोई चांस नहीं, अस्थि संचय में भी आसानी, राख-राख नीचे गिर जाती है, बड़ी-बड़ी अस्थियाँ चुन ली जाती हैं। एक और जगह है (मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा), जहाँ अर्थी भी लोहे की रेडीमेड बनी हुई मिलती है, पहले जाकर ले आओ, सिर्फ़ मुर्दे को उस पर बाँधना होता है, और जलाने से पहले उसे श्मशान के कर्मचारी के हवाले कर दो बस… इसमें भी बाँस और खपच्चियों की बचत होती है। असल उद्देश्य है लकड़ी बचाना, यानी पेड़ बचाना चाहे वह कैसे भी हो। रही बात परम्पराओं की, तो वक्त के साथ बदलाव तो जरूरी है, महाराष्ट्र में भी लोगों ने घरों के गणेश विसर्जन अपने घर में एक बाल्टी में करना प्रारम्भ कर दिया है, जब चार-आठ दिन में मूर्ति पूरी तरह घुल जाये, उस पानी को पौधों में डाल दिया जाता है। पर्यावरण खतरों को देखते हुए परम्पराओं से मूर्खों की तरह चिपके रहने में कोई तुक नहीं है।

“मोक्षदा” नाम के एक NGO ने चिता दहन के लिये एक नया मॉडल तैयार किया है, जिसमें चार विभिन्न प्रकार के पर्यावरण हितैषी Eco-friendly (कम लकड़ी लगने वाले) चितादहन यन्त्र हैं, जिनकी कीमत 2 लाख से लेकर 20 लाख तक है (नगर निगमों में पैसे की कोई कमी नहीं है, यदि ईमानदारी से खर्च किया जाये तो)। शहर की जनसंख्या और श्मशान में आने वाले “ट्रैफ़िक” के हिसाब से अलग-अलग क्षमता का यन्त्र लगवाया जा सकता है। इस कीमत में उक्त NGO द्वारा एक स्थानीय व्यक्ति को ट्रेनिंग, और एक वर्ष का लकड़ी सहित पूरा खर्चा तथा मशीन की सर्विसिंग भी शामिल है। संस्था के आँकड़ों के अनुसार यदि यह संयंत्र 20 वर्ष तक सतत काम करता है (जिसमें औसतन 6 शव रोजाना का ऐवरेज रखा गया है) तो लगभग साढ़े चार- पाँच करोड़ रुपये की बचत होगी। यह तो हुई सीधी बचत, इसमें पेड़ों द्वारा मिलने वाली ऑक्सीजन, फ़ल-फ़ूल, जड़ी-बूटियाँ, मिट्टी की पकड़ बनाना, वर्षाजल को जमीन मे संरक्षित करना जैसे अनमोल फ़ायदे भी जोड़ लीजिये, और क्या चाहिये?

लम्बी-लम्बी पोस्ट लिखने की “बुरी आदत”(?) के चलते यह पोस्ट भी विस्तारित हो गई, लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही कहा “विषय भी एकदम ‘हट-के’ था और मजेदार भी…”। बस यही अपेक्षा करता हूँ कि इसमें कई लोगों को कुछ नई जानकारियाँ मिली होंगी, कुछ लोगों को प्रेरणा मिली होगी (कुछ को घृणा भी आई होगी), लेकिन मेरा उद्देश्य एकदम साफ़ रहता है, “जनजागरण”। विद्युत शवदाह का जितना अधिक प्रचार हो उतना अच्छा, चिता में लकड़ियाँ कम से कम लगें ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी के लिये कुछ तो पेड़ बचें। दो काम मैं पूरी श्रद्धा के साथ करता हूँ, वर्ष भर में दो-तीन रक्तदान और कम से कम 5-6 शवयात्रा। और शवयात्राओं में जाने का मुख्य मकसद होता है वहाँ फ़ुर्सत में खड़े लोगों में से एकाध दो को विद्युत शवदाह, नेत्रदान और देहदान के बारे में “झिलवाना”… अब जैसे आप लोग मेरे इतने बड़े-बड़े लेख “झेल” गये, वैसे ही कुछ लोग तो वहाँ मिल ही जाते हैं, यदि एक साल में मेरे कहने भर से किसी एक व्यक्ति ने भी विद्युत शवदाह का उपयोग कर लिया, तो मेरी मेहनत सफ़ल!!! आपका क्या कहना है? टिप्पणी न करना हो न कीजिये, लेकिन इतना पढ़ने के बाद अब उठिये और शवयात्रा में शामिल हो जाइये। सिर्फ़ मजे लेने के लिये नहीं परन्तु शामिल लोगों को विद्युत शवदाह, नेत्रदान और देहदान के बारे में बताने के लिये। और कुछ नहीं तो ऐसे ही शाम को टहलते-टहलते श्मशान की तरफ़ हो आइये, देखिये वहाँ कितनी शांति है… क्या कहा!! डर लगता है, भाई मेरे जिंदा व्यक्ति से खतरनाक इस धरती पर और कुछ नहीं है… श्मशान काफ़ी अच्छी जगह है बाकी दुनिया के मुकाबले…

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(भाग-1 से जारी) अगला क्रम आता है मुर्दे को अंतिम यात्रा हेतु सजाने का। लगभग हर शहर में एक-दो दुकानें ऐसी होती हैं कि जहाँ इस गतिविधि का सामान तैयार “पैकेज” के रुप में मिलता है। आपको सिर्फ़ जाकर बताना होता है कि मृतक हिन्दू था, मुसलमान था या कुछ और था, ब्राह्मण था, ठाकुर था, या कोई और। सम्बन्धित दुकानदार एकदम अचूक तरीके से आपको एक पूरा पैकेज देता है, जिसमें सफ़ेद कपड़ा, दो बाँस, खपच्चियाँ, मटकी, रस्सी, आटा, जौ, काले तिल, गुलाल आदि सभी सामान एकमुश्त होता है। शवयात्रा का समय तय होते ही तत्काल किसी को भेज कर सामान मंगवा लिया जाये और सामान सावधानीपूर्वक अलग-अलग कर लिया जाये ताकि ऐन वक्त पर किसी तरह की परेशानी न हो। कई समाजों में पूरी तैयारी के पश्चात रिश्तेदारों द्वारा मुर्दे को शॉल ओढ़ाने का चलन होता है, ऐसे में पहले ही सम्बन्धित व्यक्तियों से पूछ लें कि क्या उन्होंने शॉल खरीद ली है। कई बार यह देखा गया है कि जब मुर्दे को बाँधने की तैयारी करते हैं तो कोई एक चीज कम पड़ जाती है या दुकानदार द्वारा पैकेज में गलती से नहीं रखी जाती तब खामख्वाह की भागदौड़ मचती है और अप्रिय दृश्य उत्पन्न होता है।
आइये अब बाँधना शुरु करते हैं… कई बयानवीर, घोषणावीर ऐसे वक्त पर एकदम पीछे नजर आते हैं, आप आगे बढ़िये, इसमें डरने की कोई बात नहीं है, यदि आप मरने वाले को जानते भी नहीं तो क्या हुआ, मरने वाला उठ खड़ा नहीं होगा कि “अबे तू कौन है मुझे उठाने वाला…”। मैंने कई लोगों को डरते हुए देखा है, मानो उनके परिवार में कभी कोई मरेगा ही नहीं, बल्कि ऐसे-ऐसे वीर भी देखे हैं जो लठ्ठ लेकर पड़ोसी का सिर खोल देंगे, लेकिन शवयात्रा में इसलिये नहीं जायेंगे कि “डर लगता है…” खैर उन्हें छोड़िये, दो-दो ईंटें कुछ दूरी पर जमाकर उस पर लम्बे वाले बाँस रखें, बाँस की खपच्चियाँ अमूमन सही नाप की होती हैं उन्हें एक निश्चित दूरी बनाकर रखते हुए दोनो सिरों पर बाँधना शुरु करें, दोनों तरफ़ एक-सवा फ़ुट का अन्तर छोड़ा जाना चाहिये ताकि चारों कंधा देने वाले को आसानी हो। पूरी तरह बँधने के बाद उस पर घास के पूले में से घास फ़ैलाकर बिछा दें और सफ़ेद कपड़ा दोनों सिरों पर छेद करके इकहरा फ़ँसा दें (बाकी का कपड़ा वैसा ही रहेगा, क्योंकि वह मुर्दे को अर्थी पर लिटाने के बाद उस पर दूसरी तरफ़ से आयेगा)। अब धीरे से बॉडी को उठाकर अर्थी पर रखें और बाकी का कपड़ा गले तक लाकर उसे बाँधना शुरु करें। बाँधते समय यह ध्यान रखें कि मुर्दे के दोनों पैरों के अंगूठे आपस में कसकर बाँधे जायें, कई बार देखा गया है कि पैर खुल जाते हैं और एक पैर बाहर लटक जाता है, दोनों हाथ यदि पेट पर रखकर बाँधे जायें तो ज्यादा सही रहता है।

अब बारी आती है ले जाने की, आजकल लगभग हर बड़े शहर, कस्बे में “शव वाहन” उपलब्ध होता है, नगर निगम में ड्रायवर को पहले से फ़ोन करके समय बता दें (अपने तय किये समय से आधा घंटा बाद ही बतायें) ताकि उसका भी कीमती समय खराब न हो, क्योंकि उसे तो दिन भर में आठ-दस शव ले जाने हैं। जब शव-वाहन की व्यवस्था न हो और कंधों पर ही ले जाना हो तो पहले से आठ-दस गबरू जवान छाँट लें और उन्हें “समझा” दें ताकि बीच रास्ते में कोई परेशानी न हो। जैसे ही शव वाहन चौराहे के कोने पर आकर रुके, अर्थी उठाने की जल्दी करें, जल्दी-जल्दी अंतिम दर्शन करवाने की पहल करें, यदि इस वक्त संभालने वाले न हों, तो कई बार बड़ी अप्रिय स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कृपा करके अपने-अपने मोबाइल “साइलेंस” मोड पर रखें, और इसी वक्त कोई जरूरी फ़ोन आ जाये तो दूर जाकर धीमे-धीमे बातें करें। इस वक्त मोबाइल की रिंगटोन बड़ी खीझ उत्पन्न करती है, और बाकी लोग आपको लगभग मार डालने के अन्दाज में घूरेंगे। एक बार एक सज्जन(?) मुर्दे को हार पहनाने के लिये झुके और “कजरारे-कजरारे तेरे कारे-कारे नैना…” की जोरदार चाइना-स्टाइल रिंगटोन बजी, सोचिये कि शोकाकुल रिश्तेदारों पर क्या प्रभाव पड़ा होगा?

अब आते हैं मुख्य मुद्दे पर… श्मशान घाट पहुँचने के पहले ही दो-चार पठ्ठों को भेजकर लकड़ी, कंडे, राल (इसका नाम अलग-अलग जगहों पर अलग हो सकता है, हमारे यहाँ इसे “राल” कहते हैं, यह मटमैला सा बड़े दानेदार होता है, जिसे चिता में फ़ेंकने पर आग भड़कती है), फ़ूस, घी, आटा तुलवाकर रख लें। आमतौर पर एक सामान्य व्यक्ति को जलाने के लिये ढाई-तीन क्विंटल लकड़ी (मोटी और पतली मिलाकर) तथा लगभग 40 कण्डे लगते हैं। आजकल गौवंश के बढ़ते नाश के कारण कण्डे आसानी से उपलब्ध नहीं होते हैं, यदि उपलब्ध हों तो बेहतर, शुरुआती आग लगाने के लिये थोड़ा सा फ़ूस (सूखी लम्बी घास) तथा आग भड़काने के लिये घी और राल, बस यही सामान है जो आखिरी वक्त हम और आप सभी कभी न कभी, श्मशान की किसी छत पर बैठकर देख पायेंगे, जी हाँ भूत बनकर। यही वह जगह होती है जहाँ आपको दुनिया भर के “रायचन्द” मिल जाते हैं, जिनके बाप ने भी कभी चिता न देखी हो, वे भी सलाहें देने लगते हैं। वैसे तो श्मशान पर उपलब्ध कर्मचारी सही लकड़ी देगा ही, लेकिन फ़िर भी ध्यान रखें कि कम से कम 6 लकड़ियाँ तो ऐसी हों जिसे हम “डूंड” कहते हैं अर्थात बेहद मोटी, बाकी की लकड़ियाँ पतली होना चाहिये। आपको लकड़ियाँ फ़िल्मों जैसी नहीं मिलेंगी अब जरा मूड हल्का करने के लिये इसे पढ़ें “फ़िल्मी मौत : क्या सीन है”

आखिरी किस्त मिलेगी… भाग-3 में

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बहुत दिनों से विचार कर रहा था कि इस विषय पर लिखा जाये। खोजबीन करने पर पाया कि इस विषय पर कुछ खास उल्लेखनीय नहीं लिखा गया है, जबकि “मौत” ही इस जीवन का सबसे बड़ा सत्य है जिससे बड़े से बड़ा पैसे वाला, प्रसिद्धि वाला भी नहीं बच सकता। भारत में हिन्दुओं की परम्परा के अनुसार मृत्यु के बाद शव को जलाने की प्रथा है। इस लेख में मैंने सिर्फ़ हिन्दुओं की इस पद्धति पर ही लिखने की कोशिश की है, अन्य धर्मों या समुदायों के अन्तिम संस्कार के बारे में लिखना उचित नहीं है, क्योंकि उनकी पद्धतियाँ, संस्कार आदि अलग-अलग होते हैं जिसके बारे में मेरी जानकारी कम है।

यहाँ तक कि हिन्दुओं में भी चूंकि कई पंथ हैं, समुदाय हैं, जातियाँ हैं, उपजातियाँ हैं, जिनमें दाह संस्कार के अलग-अलग तरीके अपनाये जाते हैं। इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को चोट पहुँचाने का नहीं है, बल्कि दाह संस्कार ठीक ढंग से हो, “मिट्टी” को सही तरीके से ठिकाने लगाया जाये, कोई फ़ूहड़ता न हो, और न ही शोकाकुल व्यक्तियों को मानसिक चोट पहुँचे, यह है।


व्यक्तिगत रूप से मुख्यतः दो कारणों से मैं शव के दाह संस्कार के खिलाफ़ हूँ। पहला, देश में एक वर्ष में लगभग 5 करोड़ पेड़ सिर्फ़ शवदाह के लिये काटे जाते हैं, हिन्दुओं की आबादी एक अरब पहुँचने वाली है और दूसरी तरफ़ जंगल साफ़ होते जा रहे हैं (सोचकर कंपकंपी होती है कि बाकी के कामों के लिये कितने करोड़ पेड़ काटे जाते होंगे)। और दूसरा, हमारी तथाकथित “पवित्र” नदियाँ जो पहले से ही उद्योगपतियों द्वारा प्रदूषित कर दी गई हैं, शवों की राख और अस्थि विसर्जन से बेहद मैली हो चुकी हैं। लेकिन मन में संस्कारों की इतनी गहरी पैठ होती है कि मृत्यु के बाद विद्युत शवदाह के लिये उठने वाली इक्का-दुक्का आवाज सख्ती से दबा दी जाती है और अन्ततः लकड़ियों से ही शव को जलाना होता है। बड़े शहरों में तो धीरे-धीरे (मजबूरी में ही सही) लोग विद्युत शवदाहगृहों का उपयोग करने लगे हैं (एक तो श्मशान पास नहीं होते और दूसरा लकड़ियों के भाव भी अनाप-शनाप बढ़ गये हैं), लेकिन कस्बों और गाँवों में आज भी विद्युत शवदाहगृहों को आम जनता “अच्छी निगाह”(?) से नहीं देखती। अक्सर इन शवदाह गृहों का उपयोग लावारिस लाशों, भिखारियों, बगैर पहचान के सड़क दुर्घटनाओं में मरे हुए लोगों के लिये नगर निगम और पुलिस करती है। जबकि आज जरूरत इस बात की है कि आम जनता को विद्युत शवदाह के बारे में शिक्षित और जागरूक किया जाये। न सिर्फ़ विद्युत शवदाह बल्कि अंगदान के बारे में भी, क्योंकि मरने के बाद तो शरीर मिट्टी हो गया, अब कम से कम उसके दो-चार अंग तो काम में लिये जायें। हाल ही में मालवा के कुछ समाजसेवियों ने सम्पूर्ण “शरीर दान” करने के संकल्प को फ़ैलाने का काम किया है। मेडिकल कॉलेज बढ़ रहे हैं, उनमें छात्रों की संख्या बढ़ रही है, उन्हें “प्रैक्टिकल” के लिये “शरीर” नहीं मिल रहे, कॉलेज प्रबन्धन दुर्घटनाओं में मरे हुए कटे-फ़टे शवों से काम चला रहा है, ऐसे में यदि पूरी तरह से साबुत स्वस्थ शरीर का मुर्दा उन्हें मिल जाये तो विद्यार्थियों को सीखने में आसानी होगी, लेकिन “मरने के बाद मुक्ति” वाला फ़ण्डा(?) शरीर दान करने से रोकता है। राह मुश्किल जरूर है, लेकिन धीरे-धीरे जागरूकता बढ़ रही है, लोग पहले आँखे ही आसानी से दान नहीं करते थे, परन्तु जैसे अब नेत्रदान तेजी से फ़ैल रहा है, उसी तरह “देहदान” भी बढ़ेगा। विषय इतना विस्तृत और रोचक है कि न चाहते हुए भी विषयांतर हो ही जाता है, मैं बता रहा था शवदाह के बारे में और पहुँच गया “देहदान” पर…

तो पेश है मेरी दसियों शवयात्राओं में शिरकत के अनुभव का निचोड़, मेरी कोशिश होगी कि इसमें अंत तक हरेक बात पर लिखा जाये। भारत इतना विशाल और भिन्नताओं से भरा है अतः पाठकों से भी आग्रह है कि अपने क्षेत्र विशेष की शवदाह परम्परा, तरीके, खासियत आदि का उल्लेख अपनी टिप्पणियों में अवश्य करें, ताकि लोगों को विभिन्न संस्कृतियों के बारे में पता चल सके। हम शुरु करते हैं “एकदम शुरु” से…। शुरु से मेरा मतलब है कि मौत कहाँ हुई है उससे, यदि मौत घर पर ही हुई है तो सबसे पहले उस कमरे को जितना हो सके खाली कर लेना चाहिये, मुर्दे को नीचे कमरे के बीचोंबीच जमीन पर सीधा लेटाकर, सिर्फ़ मुँह खुला रखते हुए बाकी पूरा चादर से ढँक देना चाहिये, ताकि अंतिम दर्शनों के लिये आने वाला आसानी से उसकी परिक्रमा भी कर सके और दण्डवत प्रणाम भी कर सके। जाहिर है कि ये बात शोक संतप्त परिजनों को बाद में सूझेगी, इसलिये यार-दोस्तों-मित्रों को पहल करके सबसे पहले ये काम करना चाहिये। कई बार देखने में आया है कि मुर्दा किसी पलंग पर पड़ा रहता है, जो कि कमरे एक कोने में होता है, आसपास रोने-धोने वालों की भीड़ होती है, ऐसे में जो बाहर से आता है वह बेचारा सहमा सा दरवाजे के बाहर से ही नमस्कार करके चलता बनता है, यदि वाकई कोई मृतक का खास मित्र है तो वह व्यथित होता है कि वह छू न पाया, या ठीक से देख न पाया। नाते-रिश्तेदारों, सगे-सम्बन्धियों में से किसी मुख्य व्यक्ति से पहले ही पूछ लें कि “क्या आसपास के किसी रिश्तेदार का इंतजार करना है?”, यदि ऐसा हो तो आने वालों को तत्काल सूचना दे दें कि शवयात्रा फ़लाँ के आने के बाद इतने बजे निकलेगी। यदि ज्यादा समय लगने वाला हो तो बर्फ़ की सिल्ली की व्यवस्था भी कर लें और शरीर को बर्फ़ की सिल्ली पर शिफ़्ट कर दें। यदि मौत किसी अस्पताल में हुई है, या दुर्घटना की वजह से हुई है तो एम्बुलेंस के घर आने से पहले ये सारी व्यवस्थायें हो जायें तो अच्छा। साथ ही यदि बॉडी पोस्टमॉर्टम की हो और चेहरा विच्छेदित हो तो कोशिश करें कि बॉडी कम से कम समय ही घर पर रखी जाये, और किसी तरह समझा-बुझा कर ऐसे शव का विद्युत शवदाह करवाने का प्रयास करें। जारी रहेगा…अगले भाग में

भाग-2 में आप पायेंगे अर्थी को सजाने और चिता को सही ढंग से लगाने का तरीका…

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Morning After Pills, FDA, health threats
ऐसा लगता है कि अब यह मान लिया गया है कि “नैतिक शिक्षा” की बात करना दकियानूसी है और सार्वजनिक स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में नैतिकता की बात करना बेवकूफ़ी। सरकारों की सोच है कि समाज को खुला छोड़ देना चाहिये और उस पर कोई बन्धन लागू नहीं करना चाहिये, ठीक वैसे ही जैसा कि सरकारों ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिये किया हुआ है। फ़िल्मों और टीवी के बढ़ते खुलेपन ने बच्चों को तेजी से जवान बनाना शुरु कर दिया है, डॉक्टर भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि लड़कियों में मासिक धर्म की औसत आयु काफ़ी कम हो चुकी है। भारत के समाज में धीरे-धीरे कपड़े उतारने की होड़ बढ़ती जा रही है, और दुख की बात यह है कि सरकारें भी इसमें खुलकर साथ दे रही हैं। कभी वह “जोर से बोलो कंडोम” का नारा लगवाती हैं, तो कभी एनजीओ (NGO) के माध्यम से ट्रक ड्रायवरों और झुग्गियों में कंडोम बँटवाती हैं। हाल ही में एक और धमाकेदार(?) गोली कुछ जानी-मानी कम्पनियों ने बाजार में उतारी है, जिसे कहते हैं “मॉर्निंग आफ़्टर पिल्स” (Morning After Pills)। इस गोली की खासियत(?) और कर्म यह है कि यदि यौन सम्बन्धों के दौरान कोई गलती से कोई असुरक्षा हो जाये और गर्भधारण का खतरा बन जाये तो स्त्री को अगले 72 घंटों के दौरान कभी भी यह गोली ले लेनी चाहिये, इससे गर्भधारण का खतरा नहीं रहता। यह गोली स्त्री के शारीरिक हार्मोन्स में परिवर्तन करके सम्भावित गर्भधारण की प्रक्रिया को रोक देती है। शर्त यही है कि इसे यौन सम्बन्ध के तुरन्त बाद जितनी जल्दी हो सके ले लेना चाहिये, ताकि यह अधिक से अधिक प्रभावशाली साबित हो। यहाँ तक तो सब ठीक-ठीक ही नजर आता है, लेकिन असली पेंच आगे शुरु होता है।



जैसा कि सभी जानते हैं कि भारतवासी कानून तोड़ने में सबसे आगे रहते हैं, किस तरह से अनुशासन को तोड़ा जाये, सरकारी कानूनों को धता बताया जाये, कैसे गड़बड़ी करके अपना फ़ायदा देखा जाये इसमें भारत के लोग एकदम उर्वर दिमाग वाले हैं। सरकारी एजेंसियाँ, और सरकारी कर्मचारी अपना काम कितनी ईमानदारी से करते हैं, ये भी सबको मालूम है। एक सर्वेक्षण में यह सामने आया है कि इन “मॉर्निंग आफ़्टर पिल्स” का सर्वाधिक उपयोग कुंआरी लड़कियाँ कर रही हैं। इन गोलियों की सबसे ज्यादा खपत कॉलेज कैम्पस, कोचिंग क्लासेस, ब्यूटी पार्लर के आसपास की मेडिकल दुकानों से हो रही है, ठीक उसी तरह जैसे कि “कंडोम” की बिक्री में उछाल “नवरात्रि” के समय सबसे ज्यादा देखा गया है। उल्लेखनीय है कि इन गोलियों के विज्ञापन में “फ़िलहाल” एक विवाहित स्त्री-पुरुष ही दिखाये जाते हैं, तथा इन गोलियों के पैकेट पर भी फ़िलहाल एक विवाहित स्त्री ही दिखाई गई है। “फ़िलहाल” कहने का तात्पर्य सिर्फ़ यही है कि अभी शुरुआत में कम्पनियों द्वारा ऐसा किया जा रहा है, फ़िर धीरे से पैकेट की स्त्री के माथे से बिन्दी गायब हो जायेगी, फ़िर कुछ वर्षों में उस पैकेट पर अविवाहित नवयुवती दिखाई देगी, इस छुपे हुए संदेश के साथ कि “सेक्स में कोई बुराई नहीं है, जमकर मुक्त आनन्द उठाओ… बस गर्भधारण करना गुनाह है, इससे बचो, हमारी गोली लो और आजाद रहो…”। रही-सही कसर टीवी, अखबार, चिकनी पत्रिकायें पूरी कर ही रही हैं, जो सेक्स पर खुलकर बात कर रही हैं, हमें बताया जा रहा है कि भारतीय नारियों की “सेक्स भूख” बढ़ रही है, हमें लगातार सिखाया जा रहा है कि बाजार में एक से एक कंडोम (सुगंधित भी) मौजूद हैं, सम्बन्ध बनाओ लेकिन सुरक्षित बनाओ…आदि-आदि। कोई भी यह सिखाने को तैयार नहीं कि “संयम” रखना सीखो, “नैतिकता” का पालन करो, एक विशेष उम्र तक यौन सम्बन्धों के बारे में सोचो भी नहीं, बल्कि “रियलिटी शो” में मासूम बच्चों को लिपस्टिक पोतकर, “लव-लव” सिखाया जा रहा है।

यह तो हुआ लेख का नैतिक पहलू, और इसमें बहस की काफ़ी गुंजाइश है, आजकल नारियों-लड़कियों को कोई संदेश देना भी खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि “स्त्री मुक्ति” के नाम पर चढ़ दौड़ने वालियाँ कई हैं। तो फ़िलहाल मैं इसे व्यक्तिगत नैतिकता के तौर पर छोड़ देता हूँ कि जिसे ये गोली लेना हो वह ले, न लेना हो तो न ले।

लेकिन दूसरा पहलू जो कि स्वास्थ्य से जुड़ा है वह मानवीय पहलू है। अमेरिका के फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) जो कि सभी प्रकार के खाद्य पदार्थ और दवाओं को अमेरिका में बेचने से पहले अनुमति देता है, ने अपने अध्ययन निष्कर्षों से चेताया है कि इस प्रकार की “मॉर्निंग आफ़्टर पिल्स” के उपयोग से पहले बहुत सावधानी जरूरी है। उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि इस प्रकार की गोलियों में एक जहरीला पदार्थ “डाइ-ईथाइल-स्टिल्बेस्टेरॉल” (DES) पाया जाता है, और कई लड़कियों में (चूँकि अमेरिका में गर्भवती किशोरियाँ नाम की कौम आमतौर पर पाई जाती है) इस DES की मात्रा घातक स्तर तक पाई गई है। असल में होता यह है कि चूँकि ये गोलियाँ “ऑन द काउंटर” (OTC) उत्पाद हैं, इसलिये बगैर सोचे-समझे युवतियाँ इसका उपयोग करने लगती हैं जबकि FDA पहले ही DES को जानवरों के लिये प्रतिबन्धित कर चुका है। जैसा कि मैंने पहले कहा कि इनका असर तभी सर्वाधिक होता है जब यौन सम्बन्ध के 24 घंटे के अन्दर इसे ले लिया जाये, लेकिन अक्सर इसे 72 घंटे बाद तक लिया जा रहा है, इसका नुकसान यह है कि तब तक युवती के गर्भवती होने की प्रक्रिया शुरु हो चुकी होती है। इस स्थिति में घबराहट में वे दो-चार गोलियाँ ले लेती हैं और उसके जहरीले (Carcinogenic) अंश से भ्रूण की हत्या तो हो जाती है, लेकिन स्त्री के शरीर पर इसका बेहद बुरा असर होता है। FDA के अनुसार इन गोलियों के सेवन से कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ जाता है, सिरदर्द, चक्कर आना, घबराहट, मासिक धर्म में परिवर्तन आदि कई बीमारियाँ भी साथ में हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि मान लो तमाम “सद्प्रयासों” के बावजूद गर्भ ठहर जाये (क्योंकि डॉक्टर स्पष्ट कहते हैं कि इस बात की कोई गारंटी नहीं ली जा सकती कि इस गोली को लेने के बाद गर्भधारण नहीं होगा) तो इन गोलियों के असर के कारण होने वाले बच्चे का मानसिक विकास अवरुद्ध हो सकता है या वह विकलांग पैदा हो सकता है। यह गोली “कभीकभार” लेने के लिये है, लेकिन होता यह है कि “मुक्त समाज” में लड़कियाँ इसे महीने में आठ-दस बार तक ले लेती हैं, और फ़िर इसके भयंकर दुष्परिणाम होते हैं, यह बुरी सम्भावना भारत के युवाओं पर भी लागू होगी।



ऐसे में विचारणीय है कि भारत जैसे देश में जहाँ न तो ईमानदारी से कोई ड्रग कानून लागू होता है, न ही यहाँ किसी दवाई में क्या-क्या मिला हुआ है इसकी सार्वजनिक घोषणा की जाती है, सरेआम क्रोसिन, विक्स, बेनाड्रिल जैसी आम दवाइयाँ तो ठीक एंटीबायोटिक्स तक बगैर डॉक्टरी पर्चे के बेच दिये जाते हैं… पशुओं के साथ इंसानों के लिये भी खतरनाक “ऑक्सीटोसिन” को ज्यादा दूध के लालच में खुलेआम भैंसों को लगाया जा रहा है… कई ड्रग जो कि सारे विश्व में प्रतिबन्धित हो चुके हैं यहाँ आराम से बिक रहे हैं… ये “मॉर्निंग आफ़्टर पिल्स” क्या गजब ढायेंगी? विशेषज्ञ डॉक्टर की देखरेख में ही इन गोलियों को लिया जाना चाहिये, लेकिन असल में क्या होगा ये हम सभी जानते हैं…। पुरुष सत्तात्मक समाज में इन गोलियों के विभिन्न आपराधिक दुरुपयोग होने की भी पूरी सम्भावना है। लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि इसके खिलाफ़ आवाज उठाना या नैतिकता की बात करना भी “संघी” विचारधारा का माना जाता है, ऐसे में खुल्लमखुल्ला यौन दुराचरण के साथ-साथ स्त्रियों के गंभीर स्वास्थ्य क्षरण का खतरा सिर पर मंडरा रहा है। पश्चिम की नकल करने के चक्कर में भारत तेजी से अंधे कुंए की ओर दौड़ लगा रहा है। जय हो यौन शिक्षा की…

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