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मंगलवार, 30 दिसम्बर 2008 11:39
भारत को दस लाख “माधवन” चाहिये…
IIT Engineer Farmer India’s Food Crisis
“तकनीकी” भारत को बदल रही है यह हम सब जानते हैं, लेकिन यदि तकनीक का उपयोग भारत की मूल समस्याओं को दूर करने में हो जाये तो यह सोने में सुहागा होगा। हम अक्सर भारत के आईआईटी पास-आउट छात्रों के बारे में पढ़ते रहते हैं, उनकी ऊँची तनख्वाहों के बारे में, उनके तकनीकी कौशल के बारे में, विश्व में उनकी प्रतिभा के चर्चे के बारे में भी… गत कुछ वर्षों में आईआईटी छात्रों में एक विशिष्ट बदलाव देखने में आ रहा है, वह है मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों को ठोकर मारकर “अपने मन का काम करना”, उनमें भारत को आमूलचूल बदलने की तड़प दिखाई देने लगी है और भले ही अभी इनकी संख्या कम हो, लेकिन आने वाले कुछ ही सालों में यह तेजी से बढ़ेगी…
पहले हम देख चुके हैं कि किस तरह बिट्स पिलानी का एक छात्र बहुराष्ट्रीय कम्पनी की नौकरी को ठोकर मारकर चेन्नई में गरीबों के लिये सस्ती इडली बेचने के धंधे में उतरा और उसने “कैटरिंग” का एक विशाल बिजनेस खड़ा कर लिया… लेकिन यह काम श्री माधवन सालों पहले ही कर चुके हैं… जी हाँ, बात हो रही है चेन्नई के नज़दीक चेंगलपट्टू में खेती-किसानी करने वाले आईआईटी-चेन्नई के पास आऊट श्री आर माधवन की… ONGC जैसे नवरत्न कम्पनी की नौकरी को छोड़कर खेती के व्यवसाय में उतरने वाले आर माधवन एक बेमिसाल शख्सियत हैं… उनकी सफ़लता की कहानी कुछ इस प्रकार है…
माधवन जी को बचपन से ही पेड़-पौधे लगाने, सब्जियाँ उगाने में बेहद रुचि थी, किशोरावस्था में ही उन्होंने कई बार अपनी माँ को खुद की उगाई हुई सब्जियाँ लाकर दी थीं और माँ की शाबाशी पाकर उनका उत्साह बढ़ जाता था। बचपन से उनका सपना “किसान” बनने का ही था, लेकिन जैसा कि भारत के लगभग प्रत्येक मध्यमवर्गीय परिवार में होता है कि “खेती करोगे?” कमाओगे क्या? और भविष्य क्या होगा? का सवाल हरेक युवा से पूछा जाना लाजिमी है, इनसे भी पूछा गया। परिवार के दबाव के कारण किसान बनने का कार्यक्रम माधवन को उस समय छोडना पड़ा। उन्होंने आईआईटी-जेईई परीक्षा दी, और आईआईटी चेन्नई से मेकेनिकल इंजीनियर की डिग्री प्राप्त की। जाहिर है कि एक उम्दा नौकरी, एक उम्दा कैरियर और एक चमकदार भविष्य उनके आगे खड़ा था। लेकिन कहते हैं ना कि “बचपन का प्यार एक ऐसी शै है जो आसानी से नहीं भूलती…”, और फ़िर आईआईटी करने के दौरान किसानी का यह शौक उनके लिये “आजीविका के साथ समाजसेवा” का रुप बन चुका था। ONGC में काम करते हुए भी उन्होंने अपने इस शौक को पूरा करने की “जुगत” लगा ही ली। समुद्र के भीतर तेल निकालने के “रिग” (Oil Rig) पर काम करने वालों को लगातार 14 दिन काम करने पर अगले 14 दिनों का सवैतनिक अवकाश दिया जाता है, माधवन ने यह काम लगातार नौ साल तक किया। 14 दिन तक मेकेनिकल इंजीनियर अगले 14 दिन में खेती-किसानी के नये-नये प्रयोग और सीखना। वे कहते हैं कि “मुझे मेकेनिकल इंजीनियरिंग से भी उतना ही लगाव है और खेती में इंजीनियरिंग और तकनीक का अधिकाधिक उपयोग करना चाहता था। मेरा मानना है कि किसी भी अन्य शिक्षा के मुकाबले “इंजीनियरिंग” की पढ़ाई खेती के काम में बहुत अधिक उपयोगी साबित होती है। मैंने भी खेत में काम करने, निंदाई-गुड़ाई-कटाई के लिये सरल से उपकरणों का घर पर ही निर्माण किया। अन्न-सब्जियाँ उगाने में मेहनत 20% और इंजीनियरिंग तकनीक 80% होना चाहिये।
जब मैंने पिता से कहा कि इतने सालों की नौकरी बाद अब मैं खेती करना चाहूँगा, उस वक्त भी उन्होंने मुझे मूर्ख ही समझा था। चार साल की नौकरी में मैंने इतना पैसा बचा लिया था कि चेन्नई के निकट चेंगलपट्टू गाँव में 6 एकड़ जमीन खरीद सकूँ, सन् 1989 में गाँव में पैण्ट-शर्ट पहनकर खेती करने वाला मैं पहला व्यक्ति था, और लोग मुझे आश्चर्य से देखते थे…”। माधवन जी को किसी ने भी खेती नहीं सिखाई, परिवार का सहयोग मिलना तो दूर, ग्राम सेवक से लेकर कृषि विश्वविद्यालय तक ने उनके साथ असहयोग किया। चार साल तक वे अपने खेत में खेती-किसानी-फ़सल को लेकर विभिन्न प्रयोग करते रहे। 6 एकड़ में उनकी सबसे पहली फ़सल मात्र 2 टन की थी और इससे वे बेहद निराश हुए, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
1996 में उनके जीवन का “टर्निंग पॉइंट” साबित हुई उनकी इज़राइल यात्रा। उन्होंने सुन रखा था कि “टपक-सिंचाई” (Drip Irrigation) और जल-प्रबन्धन के मामले में इज़राइल की तकनीक सर्वोत्तम है। इज़राइल जाकर उन्होंने देखा कि भारत में एक एकड़ में एक टन उगने वाली मक्का इज़राइली एक एकड़ में सात टन कैसे उगाते हैं। जितनी जमीन पर भारत में 6 टन टमाटर उगाया जाता है, उतनी जमीन पर इज़राईली लोग 200 टन टमाटर का उत्पादन कर लेते हैं। उन्होंने इज़राइल में 15 दिन रहकर सारी तकनीकें सीखीं। वे कहते हैं कि “इज़राइलियों से मैंने मुख्य बात यह सीखी कि वे एक पौधे को एक इंडस्ट्री मानते हैं, यानी कि एक किलो मिरची पैदा करने वाला पौधा उनके लिये एक किलो की इंडस्ट्री है। सच तो यही है कि हम भारतवासी पानी की कद्र नहीं जानते, भारत में किसानी के काम में जितना पानी का अपव्यय होता है वह बेहद शर्मनाक है…। 2005 के आँकड़ों के अनुसार भारत में फ़सलों में जितना काम 1 लीटर पानी में हो जाना चाहिये उसके लिये 750 लीटर पानी खर्च किया जाता है…”।
इज़राइल में उन्हे मिले एक और हमवतन, डॉ लक्ष्मणन जो एक तरह से उनके “किसानी-गुरु” माने जा सकते हैं। कैलिफ़ोर्निया में रहने वाले डॉ लक्ष्मणन पिछले 35 सालों से अमेरिका में खेती कर रहे है और लगभग 60,000 एकड़ के मालिक हैं। उन्होंने माधवन की जिद, तपस्या और संघर्ष को देखकर उन्हें लगातार “गाइडेंस” दिया। उनसे मिलकर माधवन को लगा कि पैसे के लिये काम करते हुए यदि मन की खुशी भी मिले तो काम का आनन्द दोगुना हो जाता है। उस जमाने में न तो इंटरनेट था न ही संचार के आधुनिक माध्यम थे, इस कारण माधवन को लक्ष्मणन से संवाद स्थापित करने में बड़ी मुश्किलें होती थीं और समय ज़ाया होता था। हालांकि आज की तारीख में तो माधवन सीधे “स्काईप” या “गूगल टॉक” से उन्हें अपनी फ़सलों की तस्वीरें दिखाकर दो मिनट में सलाह ले लेते हैं। नई-नई तकनीकों से खेती करने में मन की खुशी तो थी ही, धीरे-धीरे पैसा भी मिलने ही लगा। लगभग 8 साल के सतत संघर्ष, घाटे और निराशा के बाद सन् 1997 में उन्हें पहली बार खेती में “प्रॉफ़िट” हुआ। माधवन बताते हैं “इतने संघर्ष के बाद भी मैंने हार नहीं मानी, मेरा मानना था कि आखिर यह एक सीखने की प्रक्रिया है और इसमे मैं गिरूंगा और फ़िर उठूंगा, भले ही कोई मुझे सहारा दे या ना दे, मुझे स्वयं ही लड़ना है और जीतकर दिखाना है”। भारत में कृषि शिक्षा की बात करते समय उनका दर्द साफ़ झलकता है, “भारत के कृषि विश्वविद्यालयों का समूचा पाठ्यक्रम बदलने की आवश्यकता है, भारत के अधिकतर कृषि विश्वविद्यालय खेती करना नहीं सिखाते, बल्कि बैंकों से लोन कैसे लिया जा सकता है- यह सिखाते हैं। उनकी तकनीकें और शिक्षा इतनी पुरानी ढर्रे वाली और जमीनी हकीकतों से कटी हुई है कि कृषि विश्वविद्यालय से निकला हुआ एक स्नातक खेती करने की हिम्मत तक नहीं जुटा सकता। गाँवों के असली हालात और कृषि पाठ्यक्रमों के बीच भारी “गैप” है…”।
अगस्त में धान की खेती से उनका वार्षिक सीजन शुरु होता है, दिसम्बर तक वह फ़सल तैयार हो जाती है तब वे फ़रवरी तक सब्जियाँ उगाते हैं, जब फ़रवरी में वह फ़सल निकल आती है तो सूखा प्रतिरोधी तेल-बीज की फ़सलों जैसे तिल और मूंगफ़ली के लिये खेत खाली हो जाते हैं, मई में इसकी फ़सल लेने के बाद वे एक माह तक विभिन्न सेमिनारों, विदेश यात्राओं के जरिये खेती की नई तकनीकें और नई फ़सलों के बारे में जानकारी लेने में समय बिताते हैं। जून-जुलाई में वापस अपने खेत पर पहुँचकर अगले सीजन की तैयारी में लग जाते हैं। 1999 में उन्होने और 4 एकड़ जमीन खरीद ली। फ़िलहाल उनका लक्ष्य प्रति एकड़ एक लाख रुपये कमाने का है जिसका “आधा टारगेट” वे हासिल कर चुके हैं, यानी फ़िलहाल वे प्रति एकड़ 50,000 रुपये की कमाई कर पा रहे हैं। फ़सलें बेचने के लिये उनके पास खुद की एक जीप और ट्रॉलर है, वे सीधे अपनी फ़सल ग्राहक को बेचते है, बगैर किसी बिचौलिये के। अब तो आसपास के लोग उन्हें आवश्यकतानुसार पहले ही चावल का ऑर्डर दे देते हैं, और माधवन उन्हें खुशी-खुशी पूरा कर देते है, ग्राहक भी कम भाव मिलने से खुश रहता है। उनके खेत के प्रत्येक एकड़ की दस प्रतिशत जमीन विभिन्न प्रयोगों के लिये होती है, वे अलग-अलग फ़सलों पर तरह-तरह के प्रयोग करते रहते हैं, कुछ सफ़ल होते हैं और कुछ असफ़ल। भविष्य की योजनानुसार वे कम से कम 200 एकड़ जमीन खरीदकर उस पर “फ़ूड प्रोसेसिंग” का कारखाना शुरु करना चाहते हैं, और उनका दावा है कि विभिन्न फ़ूड प्रोसेसिंग इकाईयाँ खुद-ब-खुद आयेंगी और वे अपने गाँव को समृद्ध बनाने में सफ़ल होंगे। उनका कहना है कि सबसे पहला लक्ष्य होना चाहिये फ़सल की प्रति एकड़ लागत में कमी करना। उससे पैदावार भी अधिक होगी और सस्ती भी होगी, जिससे निर्यात भी बढ़ाया जा सकता है। उनके दिल में भारत के गरीबों के लिये एक तड़प है, वे कहते हैं “अमेरिका में चार घंटे काम करके एक श्रमिक तीन दिन की रोटी के लायक कमाई कर सकता है, जबकि भारत के गाँवों में पूरा दिन काम करके भी खेती श्रमिक दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाता। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की लगभग 65% जनसंख्या कुपोषण या अल्पपोषण से ग्रस्त है, जिसमें भारत के नागरिकों की संख्या सर्वाधिक है। भारत के दस वर्ष से कम 49% बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं, उनकी भूख मिटाना मेरा लक्ष्य है, क्योंकि यदि इस एक पूरी की पूरी भूखी पीढ़ी को हमने नज़र-अंदाज़ कर दिया तो यह एटम बम से भी खतरनाक हो सकती है।
माधवन के जीवन का एक और स्वर्णिम क्षण तब आया जब पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम उनके खेत पर उनसे मिलने और प्रयोगों को देखने गये, राष्ट्रपति से तय 15 मिनट की मुलाकात दो घण्टे में बदल गई, और तत्काल कलाम साहब के मुँह से निकला कि “भारत को कम से कम दस लाख माधवन की आवश्यकता है…”, स्वभाव से बेहद विनम्र श्री माधवन कहते हैं कि यदि मैं किसी उद्यमशील युवा को प्रेरणा दे सकूँ तो यह मेरे लिये खुशी की बात होगी…
इस खबर का स्रोत इस जगह है…
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चलते-चलते : सन् 2008 बीतने को है, हो सकता है कि इस वर्ष की यह अन्तिम ब्लॉग पोस्ट हो… संयोग से 30 दिसम्बर 2007 को भी मैंने फ़ुन्दीबाई सरपंच की एक ऐसी ही पोस्ट (यहाँ क्लिक कर पढ़ें) लिखी थी, इस प्रकार की सकारात्मक और प्रेरणादायी पोस्ट लिखने हेतु यही उत्तम अवसर है, 2008 में कई अच्छी-बुरी घटनायें घटीं, नेताओं ने हमेशा की तरह निराश ही किया, लेकिन माधवन और फ़ुन्दीबाई सरपंच (एक आईआईटी इंजीनियर और दूसरी अनपढ़) जैसे लोग उम्मीद की किरण जगाते हैं, निराशा से उबारते हैं, और हमें आश्वस्त करते हैं कि बुराई का अंधेरा कितना ही गहरा हो, अच्छाई का एक दीपक उसे हरा सकता है…। इस वर्ष मुझे पाठकों का भरपूर स्नेह मिला, मेरे सभी स्नेही पाठकों, ब्लॉगर मित्रों, इष्ट मित्रों को आगामी अंग्रेजी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें… स्नेह बनाये रखें और माधवन जैसे लोगों से प्रेरणा लें… फ़िर मिलेंगे अगले वर्ष… सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें…
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“तकनीकी” भारत को बदल रही है यह हम सब जानते हैं, लेकिन यदि तकनीक का उपयोग भारत की मूल समस्याओं को दूर करने में हो जाये तो यह सोने में सुहागा होगा। हम अक्सर भारत के आईआईटी पास-आउट छात्रों के बारे में पढ़ते रहते हैं, उनकी ऊँची तनख्वाहों के बारे में, उनके तकनीकी कौशल के बारे में, विश्व में उनकी प्रतिभा के चर्चे के बारे में भी… गत कुछ वर्षों में आईआईटी छात्रों में एक विशिष्ट बदलाव देखने में आ रहा है, वह है मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों को ठोकर मारकर “अपने मन का काम करना”, उनमें भारत को आमूलचूल बदलने की तड़प दिखाई देने लगी है और भले ही अभी इनकी संख्या कम हो, लेकिन आने वाले कुछ ही सालों में यह तेजी से बढ़ेगी…
पहले हम देख चुके हैं कि किस तरह बिट्स पिलानी का एक छात्र बहुराष्ट्रीय कम्पनी की नौकरी को ठोकर मारकर चेन्नई में गरीबों के लिये सस्ती इडली बेचने के धंधे में उतरा और उसने “कैटरिंग” का एक विशाल बिजनेस खड़ा कर लिया… लेकिन यह काम श्री माधवन सालों पहले ही कर चुके हैं… जी हाँ, बात हो रही है चेन्नई के नज़दीक चेंगलपट्टू में खेती-किसानी करने वाले आईआईटी-चेन्नई के पास आऊट श्री आर माधवन की… ONGC जैसे नवरत्न कम्पनी की नौकरी को छोड़कर खेती के व्यवसाय में उतरने वाले आर माधवन एक बेमिसाल शख्सियत हैं… उनकी सफ़लता की कहानी कुछ इस प्रकार है…
माधवन जी को बचपन से ही पेड़-पौधे लगाने, सब्जियाँ उगाने में बेहद रुचि थी, किशोरावस्था में ही उन्होंने कई बार अपनी माँ को खुद की उगाई हुई सब्जियाँ लाकर दी थीं और माँ की शाबाशी पाकर उनका उत्साह बढ़ जाता था। बचपन से उनका सपना “किसान” बनने का ही था, लेकिन जैसा कि भारत के लगभग प्रत्येक मध्यमवर्गीय परिवार में होता है कि “खेती करोगे?” कमाओगे क्या? और भविष्य क्या होगा? का सवाल हरेक युवा से पूछा जाना लाजिमी है, इनसे भी पूछा गया। परिवार के दबाव के कारण किसान बनने का कार्यक्रम माधवन को उस समय छोडना पड़ा। उन्होंने आईआईटी-जेईई परीक्षा दी, और आईआईटी चेन्नई से मेकेनिकल इंजीनियर की डिग्री प्राप्त की। जाहिर है कि एक उम्दा नौकरी, एक उम्दा कैरियर और एक चमकदार भविष्य उनके आगे खड़ा था। लेकिन कहते हैं ना कि “बचपन का प्यार एक ऐसी शै है जो आसानी से नहीं भूलती…”, और फ़िर आईआईटी करने के दौरान किसानी का यह शौक उनके लिये “आजीविका के साथ समाजसेवा” का रुप बन चुका था। ONGC में काम करते हुए भी उन्होंने अपने इस शौक को पूरा करने की “जुगत” लगा ही ली। समुद्र के भीतर तेल निकालने के “रिग” (Oil Rig) पर काम करने वालों को लगातार 14 दिन काम करने पर अगले 14 दिनों का सवैतनिक अवकाश दिया जाता है, माधवन ने यह काम लगातार नौ साल तक किया। 14 दिन तक मेकेनिकल इंजीनियर अगले 14 दिन में खेती-किसानी के नये-नये प्रयोग और सीखना। वे कहते हैं कि “मुझे मेकेनिकल इंजीनियरिंग से भी उतना ही लगाव है और खेती में इंजीनियरिंग और तकनीक का अधिकाधिक उपयोग करना चाहता था। मेरा मानना है कि किसी भी अन्य शिक्षा के मुकाबले “इंजीनियरिंग” की पढ़ाई खेती के काम में बहुत अधिक उपयोगी साबित होती है। मैंने भी खेत में काम करने, निंदाई-गुड़ाई-कटाई के लिये सरल से उपकरणों का घर पर ही निर्माण किया। अन्न-सब्जियाँ उगाने में मेहनत 20% और इंजीनियरिंग तकनीक 80% होना चाहिये।
जब मैंने पिता से कहा कि इतने सालों की नौकरी बाद अब मैं खेती करना चाहूँगा, उस वक्त भी उन्होंने मुझे मूर्ख ही समझा था। चार साल की नौकरी में मैंने इतना पैसा बचा लिया था कि चेन्नई के निकट चेंगलपट्टू गाँव में 6 एकड़ जमीन खरीद सकूँ, सन् 1989 में गाँव में पैण्ट-शर्ट पहनकर खेती करने वाला मैं पहला व्यक्ति था, और लोग मुझे आश्चर्य से देखते थे…”। माधवन जी को किसी ने भी खेती नहीं सिखाई, परिवार का सहयोग मिलना तो दूर, ग्राम सेवक से लेकर कृषि विश्वविद्यालय तक ने उनके साथ असहयोग किया। चार साल तक वे अपने खेत में खेती-किसानी-फ़सल को लेकर विभिन्न प्रयोग करते रहे। 6 एकड़ में उनकी सबसे पहली फ़सल मात्र 2 टन की थी और इससे वे बेहद निराश हुए, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
1996 में उनके जीवन का “टर्निंग पॉइंट” साबित हुई उनकी इज़राइल यात्रा। उन्होंने सुन रखा था कि “टपक-सिंचाई” (Drip Irrigation) और जल-प्रबन्धन के मामले में इज़राइल की तकनीक सर्वोत्तम है। इज़राइल जाकर उन्होंने देखा कि भारत में एक एकड़ में एक टन उगने वाली मक्का इज़राइली एक एकड़ में सात टन कैसे उगाते हैं। जितनी जमीन पर भारत में 6 टन टमाटर उगाया जाता है, उतनी जमीन पर इज़राईली लोग 200 टन टमाटर का उत्पादन कर लेते हैं। उन्होंने इज़राइल में 15 दिन रहकर सारी तकनीकें सीखीं। वे कहते हैं कि “इज़राइलियों से मैंने मुख्य बात यह सीखी कि वे एक पौधे को एक इंडस्ट्री मानते हैं, यानी कि एक किलो मिरची पैदा करने वाला पौधा उनके लिये एक किलो की इंडस्ट्री है। सच तो यही है कि हम भारतवासी पानी की कद्र नहीं जानते, भारत में किसानी के काम में जितना पानी का अपव्यय होता है वह बेहद शर्मनाक है…। 2005 के आँकड़ों के अनुसार भारत में फ़सलों में जितना काम 1 लीटर पानी में हो जाना चाहिये उसके लिये 750 लीटर पानी खर्च किया जाता है…”।
इज़राइल में उन्हे मिले एक और हमवतन, डॉ लक्ष्मणन जो एक तरह से उनके “किसानी-गुरु” माने जा सकते हैं। कैलिफ़ोर्निया में रहने वाले डॉ लक्ष्मणन पिछले 35 सालों से अमेरिका में खेती कर रहे है और लगभग 60,000 एकड़ के मालिक हैं। उन्होंने माधवन की जिद, तपस्या और संघर्ष को देखकर उन्हें लगातार “गाइडेंस” दिया। उनसे मिलकर माधवन को लगा कि पैसे के लिये काम करते हुए यदि मन की खुशी भी मिले तो काम का आनन्द दोगुना हो जाता है। उस जमाने में न तो इंटरनेट था न ही संचार के आधुनिक माध्यम थे, इस कारण माधवन को लक्ष्मणन से संवाद स्थापित करने में बड़ी मुश्किलें होती थीं और समय ज़ाया होता था। हालांकि आज की तारीख में तो माधवन सीधे “स्काईप” या “गूगल टॉक” से उन्हें अपनी फ़सलों की तस्वीरें दिखाकर दो मिनट में सलाह ले लेते हैं। नई-नई तकनीकों से खेती करने में मन की खुशी तो थी ही, धीरे-धीरे पैसा भी मिलने ही लगा। लगभग 8 साल के सतत संघर्ष, घाटे और निराशा के बाद सन् 1997 में उन्हें पहली बार खेती में “प्रॉफ़िट” हुआ। माधवन बताते हैं “इतने संघर्ष के बाद भी मैंने हार नहीं मानी, मेरा मानना था कि आखिर यह एक सीखने की प्रक्रिया है और इसमे मैं गिरूंगा और फ़िर उठूंगा, भले ही कोई मुझे सहारा दे या ना दे, मुझे स्वयं ही लड़ना है और जीतकर दिखाना है”। भारत में कृषि शिक्षा की बात करते समय उनका दर्द साफ़ झलकता है, “भारत के कृषि विश्वविद्यालयों का समूचा पाठ्यक्रम बदलने की आवश्यकता है, भारत के अधिकतर कृषि विश्वविद्यालय खेती करना नहीं सिखाते, बल्कि बैंकों से लोन कैसे लिया जा सकता है- यह सिखाते हैं। उनकी तकनीकें और शिक्षा इतनी पुरानी ढर्रे वाली और जमीनी हकीकतों से कटी हुई है कि कृषि विश्वविद्यालय से निकला हुआ एक स्नातक खेती करने की हिम्मत तक नहीं जुटा सकता। गाँवों के असली हालात और कृषि पाठ्यक्रमों के बीच भारी “गैप” है…”।
अगस्त में धान की खेती से उनका वार्षिक सीजन शुरु होता है, दिसम्बर तक वह फ़सल तैयार हो जाती है तब वे फ़रवरी तक सब्जियाँ उगाते हैं, जब फ़रवरी में वह फ़सल निकल आती है तो सूखा प्रतिरोधी तेल-बीज की फ़सलों जैसे तिल और मूंगफ़ली के लिये खेत खाली हो जाते हैं, मई में इसकी फ़सल लेने के बाद वे एक माह तक विभिन्न सेमिनारों, विदेश यात्राओं के जरिये खेती की नई तकनीकें और नई फ़सलों के बारे में जानकारी लेने में समय बिताते हैं। जून-जुलाई में वापस अपने खेत पर पहुँचकर अगले सीजन की तैयारी में लग जाते हैं। 1999 में उन्होने और 4 एकड़ जमीन खरीद ली। फ़िलहाल उनका लक्ष्य प्रति एकड़ एक लाख रुपये कमाने का है जिसका “आधा टारगेट” वे हासिल कर चुके हैं, यानी फ़िलहाल वे प्रति एकड़ 50,000 रुपये की कमाई कर पा रहे हैं। फ़सलें बेचने के लिये उनके पास खुद की एक जीप और ट्रॉलर है, वे सीधे अपनी फ़सल ग्राहक को बेचते है, बगैर किसी बिचौलिये के। अब तो आसपास के लोग उन्हें आवश्यकतानुसार पहले ही चावल का ऑर्डर दे देते हैं, और माधवन उन्हें खुशी-खुशी पूरा कर देते है, ग्राहक भी कम भाव मिलने से खुश रहता है। उनके खेत के प्रत्येक एकड़ की दस प्रतिशत जमीन विभिन्न प्रयोगों के लिये होती है, वे अलग-अलग फ़सलों पर तरह-तरह के प्रयोग करते रहते हैं, कुछ सफ़ल होते हैं और कुछ असफ़ल। भविष्य की योजनानुसार वे कम से कम 200 एकड़ जमीन खरीदकर उस पर “फ़ूड प्रोसेसिंग” का कारखाना शुरु करना चाहते हैं, और उनका दावा है कि विभिन्न फ़ूड प्रोसेसिंग इकाईयाँ खुद-ब-खुद आयेंगी और वे अपने गाँव को समृद्ध बनाने में सफ़ल होंगे। उनका कहना है कि सबसे पहला लक्ष्य होना चाहिये फ़सल की प्रति एकड़ लागत में कमी करना। उससे पैदावार भी अधिक होगी और सस्ती भी होगी, जिससे निर्यात भी बढ़ाया जा सकता है। उनके दिल में भारत के गरीबों के लिये एक तड़प है, वे कहते हैं “अमेरिका में चार घंटे काम करके एक श्रमिक तीन दिन की रोटी के लायक कमाई कर सकता है, जबकि भारत के गाँवों में पूरा दिन काम करके भी खेती श्रमिक दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाता। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की लगभग 65% जनसंख्या कुपोषण या अल्पपोषण से ग्रस्त है, जिसमें भारत के नागरिकों की संख्या सर्वाधिक है। भारत के दस वर्ष से कम 49% बच्चे कुपोषण से पीड़ित हैं, उनकी भूख मिटाना मेरा लक्ष्य है, क्योंकि यदि इस एक पूरी की पूरी भूखी पीढ़ी को हमने नज़र-अंदाज़ कर दिया तो यह एटम बम से भी खतरनाक हो सकती है।
माधवन के जीवन का एक और स्वर्णिम क्षण तब आया जब पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम उनके खेत पर उनसे मिलने और प्रयोगों को देखने गये, राष्ट्रपति से तय 15 मिनट की मुलाकात दो घण्टे में बदल गई, और तत्काल कलाम साहब के मुँह से निकला कि “भारत को कम से कम दस लाख माधवन की आवश्यकता है…”, स्वभाव से बेहद विनम्र श्री माधवन कहते हैं कि यदि मैं किसी उद्यमशील युवा को प्रेरणा दे सकूँ तो यह मेरे लिये खुशी की बात होगी…
इस खबर का स्रोत इस जगह है…
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चलते-चलते : सन् 2008 बीतने को है, हो सकता है कि इस वर्ष की यह अन्तिम ब्लॉग पोस्ट हो… संयोग से 30 दिसम्बर 2007 को भी मैंने फ़ुन्दीबाई सरपंच की एक ऐसी ही पोस्ट (यहाँ क्लिक कर पढ़ें) लिखी थी, इस प्रकार की सकारात्मक और प्रेरणादायी पोस्ट लिखने हेतु यही उत्तम अवसर है, 2008 में कई अच्छी-बुरी घटनायें घटीं, नेताओं ने हमेशा की तरह निराश ही किया, लेकिन माधवन और फ़ुन्दीबाई सरपंच (एक आईआईटी इंजीनियर और दूसरी अनपढ़) जैसे लोग उम्मीद की किरण जगाते हैं, निराशा से उबारते हैं, और हमें आश्वस्त करते हैं कि बुराई का अंधेरा कितना ही गहरा हो, अच्छाई का एक दीपक उसे हरा सकता है…। इस वर्ष मुझे पाठकों का भरपूर स्नेह मिला, मेरे सभी स्नेही पाठकों, ब्लॉगर मित्रों, इष्ट मित्रों को आगामी अंग्रेजी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें… स्नेह बनाये रखें और माधवन जैसे लोगों से प्रेरणा लें… फ़िर मिलेंगे अगले वर्ष… सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें…
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ब्लॉग
मंगलवार, 23 दिसम्बर 2008 12:24
अमेरिका का मुँह तकती, गद्दारों से भरी पड़ी, पिलपिली महाशक्ति…
Mumbai Terror Attacks India-America and Pakistan
मुम्बई हमले को एक माह होने को आया, गत एक साल में 60 से ज्यादा बम विस्फ़ोट हो चुके, संसद पर हमले को आठ साल हो गये, कारगिल हुए दस साल बीत गये, भारत नाम की कथित “महाशक्ति” लगता है कि आज भी वहीं की वहीं है। मुझे आज तक पता नहीं कि भारत को महाशक्ति (या क्षेत्रीय महाशक्ति) का नाम किसने, कब और क्यों दिया था। महाशक्ति की परिभाषा क्या होती है, इसे लेकर भी शायद विभिन्न मत होंगे, इसीलिये किसी विद्वान(?) ने भारत को महाशक्ति कहा होगा।
चीन ने अमेरिका के जासूसी विमान को अपनी सीमा का उल्लंघन करने पर उसे रोक रखा और तब तक रोक कर रखा जब तक कि अमेरिका ने नाक रगड़ते हुए माफ़ी नहीं माँग ली। रूस, चेचन अलगाववादियों पर लगातार हमले जारी रखे हुए हैं, हाल ही में जॉर्जिया के इलाके में अपने समर्थकों के समर्थन और नई सीमाओं को गढ़ने के लिये रूस ने जॉर्जिया पर भीषण हमले किये। 9/11 के बाद अमेरिका ने न ही संयुक्त राष्ट्र से औपचारिक सहमति ली, न ही किसी का समर्थन लिया, वर्षों पहले जापान ने भी यही किया था। ब्रिटेन हजारों मील दूर अपने फ़ॉकलैण्ड द्वीप को बचाने के लिये अर्जेण्टीना से भी भिड़ गया था और उसे घुटने पर बैठाकर ही युद्ध का खत्मा किया… महाशक्तियाँ ऐसी होती हैं… अलग ही मिट्टी की बनी हुई, अपने देश का स्वाभिमान बनाये रखने के लिये किसी भी हद तक जाने वाली… इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में 1971 के आधे-अधूरे ही सही भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद गत 39 वर्षों में भारत ने अब तक क्या किया है… किस आधार पर इसे कोई महाशक्ति कह सकता है? क्या सिर्फ़ इसलिये कि यह देश सबसे अधिक संख्या में “सॉफ़्टवेयर मजदूर” पैदा करता है (पहले गन्ना कटाई के लिये यहाँ से मजदूर मलेशिया, मालदीव, फ़िजी, तंजानिया, केन्या जाते थे, अब सॉफ़्टवेयर मजदूर अमेरिका जाते हैं), या महाशक्ति सिर्फ़ इसलिये कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा अपना माल खपाने के लिये यहाँ करोड़ों की संख्या में मध्यमवर्गीय मूर्ख मौजूद हैं, या इसलिये कि भारत हथियारों, विमानों का सबसे बड़ा ग्राहक है? कोई मुझे समझाये कि आखिर महाशक्ति हम किस क्षेत्र में हैं? क्या सिर्फ़ बढ़ती आर्थिक हैसियत से किसी देश को महाशक्ति कहा जा सकता है? भारत को अमेरिका बराबर की आर्थिक महाशक्ति बनने में अभी कम से कम 30 साल तो लग ही जायेंगे, फ़िलहाल हम “डॉलर” की चकाचौंध के आगे नतमस्तक हैं, फ़िर इस तथाकथित “क्षेत्रीय महाशक्ति” की सुनता या मानता कौन है? नेपाल? बांग्लादेश? श्रीलंका? म्यांमार… कोई भी तो नहीं।
मुम्बई हमलों के बाद मनमोहन सिंह जी ने देश को सम्बोधित किया था। एक परम्परा है, किसी भी बड़े हादसे के बाद प्रधानमंत्री देश को सम्बोधित करते हैं सो उन्होंने भी रस्म-अदायगी कर दी। इतने बड़े हमले के बाद राष्ट्र को सम्बोधन करते समय अमूमन कुछ “ठोस बातें या विचार” रखे जाते हैं, लेकिन सीधे-सादे प्रधानमंत्री उस वक्त भी सीधे-सादे बने रहे और माफ़ी माँगते नज़र आये। अपने सम्बोधन में उन्होंने मुख्यतः तीन बातें कही थीं, उन्होंने आतंकवादियों को धमकी की भाषा भी बड़े मक्खन लगाने वाले अन्दाज़ में दी। उन्होंने कहा कि 1) “हम आतंकवादी गुटों और उनके आकाओं को मिलने वाली आर्थिक मदद को रोकेंगे”, 2) देश में घुसने वाले हरेक संदिग्ध व्यक्ति को रोकने के उपाय किये जायेंगे, 3) हम आतंक फ़ैलाने वालों, उनकी मदद करने वालों और उन्हें पनाह देने वालों का पीछा करेंगे और उन्हें इस कृत्य की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी… सुनने में यह बातें कितनी अच्छी लगती हैं ना!!! 9/11 के बाद लगभग इसी से मिलती-जुलती बातें जॉर्ज बुश ने अपने राष्ट्र के नाम सम्बोधन में कही थीं, और दुनिया ने देखा कि कम से कम आखिरी दो मुद्दों पर उन्होंने गम्भीरता से काम किया है और कुछ अर्थों में सफ़ल भी हुए… यह होती है महाशक्ति की पहचान। इसके विपरीत भारत में क्या हो रहा है, बातें, बातें, बातें, समीक्षायें, मीटिंग्स, लोकसभा और राज्यसभा में बहसें, नतीजा……फ़िलहाल जीरो।
संदिग्ध गुटों को आर्थिक मदद मिलने के मुद्दे पर बस इतना ही कहा जा सकता है कि ISI और SIMI या अल-कायदा किसी बैंक या वित्तीय संस्थान के भरोसे अपना संगठन नहीं चलाते हैं, उनकी अपनी खुद की अलग अर्थव्यवस्था है, अफ़ीम, तस्करी, नकली नोटों, ड्रग्स और अवैध हथियारों की खरीद-फ़रोख्त से बनाई हुई। यकीन न आता हो तो उत्तर भारत की बैंकों की शाखाओं से निकलते 500 के नकली नोटों की बढ़ती घटनाओं पर गौर कीजिये, एक छोटे शहर के छोटे व्यापारी से 500 और 1000 के नोटों का लेन-देन कीजिये, पता चल जायेगा कि अर्थव्यवस्था से विश्वास डिगाने में महाशक्ति कामयाब हुई या ISI? और आतंकवादी देश में वैध रास्तों से तो घुसते नहीं हैं, उनके लिये मुम्बई-कोंकण के समुद्र तटों से लेकर, नेपाल, बांग्लादेश तक की सीमायें खुली हुई हैं, उन्हें कैसे रोकेंगे?
“हम आतंकवादियों का पीछा करेंगे और उन्हें सबक सिखाया जायेगा…” अब तो सभी जान गए हैं कि यह सिवाय “खोखली” धमकी के अलावा कुछ और नहीं है। विश्व देख रहा है कि भारत की सरकार अफ़ज़ल को किस तरह गोद में बैठाये हुए है और बात कर रहे हैं “पीछा करने की”… जिस प्रकार किसी हत्या के मुजरिम को कहा जाये कि आप हत्यारे को ढूँढने में पुलिस की मदद कीजिये उस प्रकार हमारे प्रधानमंत्री ने हमले के बाद ISI के मुखिया को भारत बुलावा भेजा था, क्या है यह सब? दुर्भाग्य यह है कि विपक्ष भी मजबूती से अपनी बात रखने में सक्षम नहीं है, उसके कंधे पर भी संसद पर हमला और कंधार के भूत सवार हैं। NDA ने ही संसद पर हमले के बाद सेनाओं को खामख्वाह छह महीने तक पाकिस्तान की सीमाओं पर तैनात रखा था, जिसका नतीजा सिर्फ़ इतना हुआ कि उस कवायद में भारत के करोड़ों रुपये खर्च हो गये।
अब पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिये पूरा देश उतावला है, तो हमारे नेता और पार्टियाँ सिर्फ़ शब्दों की जुगाली करने में लगे हुए हैं। श्री वैद्यनाथन जी ने पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिये कुछ उपाय सुझाये थे – जैसे कि
1) पाकिस्तान से निर्यात होने वाले मुख्य जिंसों जैसे बासमती चावल और कालीन आदि को भारत से निर्यात करने के लिये शून्य निर्यात कर लगाया जाये या भारी सबसिडी दी जाये ताकि पाकिस्तान का निर्यात बुरी तरह मार खाये।
2) जो प्रमुख देश (ब्राजील, जर्मनी और चीन) पाकिस्तान को हथियार सप्लाई करते हैं, उन्हें स्पष्ट शब्दों में बताया जाना चाहिये कि पाकिस्तान को शस्त्र देने से हमारे आपसी सम्बन्ध दाँव पर लग सकते हैं और इन देशों की कम्पनियों को भारत में निवेश सम्बन्धी “धमकियाँ” देनी चाहिये, ताकि वे अपनी-अपनी सरकारों को समझा सकें कि पाकिस्तान से सम्बन्ध रखना ठीक नहीं है, भारत से सम्बन्ध रखने में फ़ायदा है।
3) जिस प्रकार चीन में पेप्सी-कोक के आगमन के साथ ही वहाँ हो रहे मानवाधिकार उल्लंघनों की खबरें दबा दी गई, उसी प्रकार भारत को अपने विशाल “बाजार” को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहिये।
4) पाकिस्तानी कलाकारों, क्रिकेट खिलाड़ियों को भारत प्रवेश से वंचित करना होगा ताकि दाऊद द्वारा जो पैसा फ़िल्मों और क्रिकेट में लगाया जा रहा है, उसमें उसे नुकसान उठाना पड़े।
5) भारत की कोई भी सॉफ़्टवेयर कम्पनी पाकिस्तान से जुड़ी किसी भी कम्पनी को अपनी सेवायें न दे, यदि हम सॉफ़्टवेयर में महाशक्ति हैं तो इस ताकत का देशहित में कुछ तो उपयोग होना चाहिये।
वैद्यनाथन जी ने और भी कई उपाय सुझाये हैं, लेकिन एक पर भी भारत सरकार ने शायद अभी तक विचार नहीं किया है। जो लोग युद्ध विरोधी हैं उन्हें भी यह उपाय मंजूर होना चाहिये, क्योंकि आखिर पेट पर लात पड़ने से शायद उसे अकल आ जाये। लगभग यही उपाय कश्मीर समस्या के हल के लिये भी सुझाये गये थे। भारत द्वारा कश्मीर और पाकिस्तान को जोर-शोर से प्रचार करके यह जताना चाहिये कि “हम हैं, हमारी मदद है, हमारे से सम्बन्ध बेहतर हैं तो उनकी रोटी चलेगी…वरना”, लेकिन यह इतनी सी बात भी खुलकर कहने में हमारे सेकुलर गद्दारों को पसीना आ रहा है।
और सबसे बड़ी दिक्कत अरुंधती रॉय, अब्दुल रहमान अन्तुले, लालू-पासवान जैसे सेकुलर हैं, जिनके बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता कि वे किस तरफ़ हैं? पाकिस्तान से भिड़ने से पहले इन जैसे सेकुलर लोगों से पार पाना अधिक जरूरी है। असल में भारत के “सिस्टम” में किसी की जवाबदेही किसी भी स्तर पर नहीं है, जब तक यह नहीं बदला जायेगा तब तक कोई ठोस बदलाव नहीं होने वाला। प्रधानमंत्री से जवाब माँगने से पहले खुद सोचिये कि क्या आपने मनमोहन सिंह को चुना था? नहीं, उन्हें तो मैडम ने चुना था आप पर शासन करने के लिये, फ़िर वे किसे जवाबदेह होंगे? सारा देश इस समय गुस्से, अपमान और क्षोभ से भरा हुआ है, और उधर संसद में हमारे बयानवीर रोजाना नये-नये बयान दिये जा रहे हैं, संयुक्त राष्ट्र से गुहार लगाई जा रही है, जबकि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान जाकर उसे आतंकवाद से लड़ने के नाम पर 6 मिलियन पाऊण्ड की मदद दे दी। इधर जनता त्रस्त है कि अब कहने का वक्त गुजर चुका, कुछ करके दिखाईये जनाब… उधर पाकिस्तान में एक चुटकुला आम हो चला है कि “जब पचास-पचास कोस दूर गाँव में बच्चा रात को रोता है तो माँ कहती है कि बेटा सो जा, सो जा नहीं तो प्रणब मुखर्जी का एक और बयान आ जायेगा…” और बच्चा इस बात पर हँसने लगता है। कुल मिलाकर स्थिति यह बन रही है कि एक पिलपिली सी “महाशक्ति”, बच्चों की तरह अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, संयुक्त राष्ट्र से शिकायत कर रही है कि “ऊँ, ऊँ, ऊँ… देखो, देखो अंकल वो पड़ोस का बच्चा मुझे फ़िर से मारकर भाग गया… अब मैं क्या करूँ, अंकल मैं आपको सबूत दे चुका हूँ कि वही पड़ोसी मुझे रोजाना मारता रहता है…” अंकल को क्या पड़ी है कि वे उस शैतान बच्चे को डाँटें (दिखावे के लिये एकाध बार डाँट भी देते हैं), लेकिन अन्ततः उस शैतान बच्चे से निपटना तो रोजाना पिटने वाले बच्चे को ही है, कि “कम से कम एक बार” उसके घर में घुसकर जमकर धुनाई करे, फ़िर अंकल भी साथ दे देंगे…
फ़िलहाल आशा की एक किरण आगामी लोकसभा चुनाव हैं, जिसमें कांग्रेस को अपना चेहरा बचाने के लिये कोई न कोई कठोर कदम उठाने ही पड़ेंगे, क्योंकि वोटों के लिये कांग्रेस “कुछ भी” कर सकती है, और दोनो हाथों में लड्डू रखने की उसकी गन्दी आदत के कारण कोई कदम उठाने से पहले ही अन्तुले, दिग्विजय सिंह को भी “दूसरी तरफ़” तैनात कर दिया है… हो सकता है कि कांग्रेस एक मिनी युद्ध के लिये सही “टाईमिंग” का इंतजार कर रही हो, क्योंकि यदि युद्ध हुआ तो लोकसभा के आम चुनाव टल जायेंगे, तब तक कश्मीर में चुनाव निपट चुके होंगे और यदि उसके बाद अफ़ज़ल को फ़ाँसी दे दी जाये और पाकिस्तान पर हमला कर दिया जाये तो कांग्रेस के दोनो हाथों में लड्डू और दिल्ली की सत्ता होगी… जैसी कि भारत की परम्परा रही है कि हरेक बड़े निर्णय के पीछे राजनीति होती है, वैसा ही कुछ युद्ध के बारे में होने की सम्भावना है और “पीएम इन वेटिंग” सदा वेटिंग में ही रह जायें। रही आम जनता, तो उसे बिके हुए मीडिया के तमाशे से आसानी से बरगलाया जा सकता है…
Steps taken against terror by India, India-Pakistan War, Kargil War and India, India Pakistan Relationship and Pakistan Army, Dawood Ibrahim, Import-Export from Pakistan and Economy of Pakistan, Secular Forces in India and Pakistan, Cricket Relations of India and Pakistan, Cricket and BCCI’s Economy, Pakistan Cricket Control Board and BCCI, Secularism and Islam, Intolerence in Islam, Hinduism and Secularism, Threats to India by Muslim Terrorism, A R Antulay and Muslim Leaders in India, भारत पाकिस्तान के रिश्ते और पाकिस्तान सेना, दाऊद इब्राहीम और पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था, भारत-पाक क्रिकेट और अर्थव्यवस्था, सेकुलरिज़्म और इस्लाम, इस्लाम में असहिष्णुता, मुस्लिम जनसंख्या और सेकुलरिज़्म तथा लोकतन्त्र पर उनका व्यवहार, हिन्दुत्व और सेकुलरिज़्म, इस्लामी आतंकवाद से भारत के समक्ष खतरे, भारत-पाकिस्तान युद्ध, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
मुम्बई हमले को एक माह होने को आया, गत एक साल में 60 से ज्यादा बम विस्फ़ोट हो चुके, संसद पर हमले को आठ साल हो गये, कारगिल हुए दस साल बीत गये, भारत नाम की कथित “महाशक्ति” लगता है कि आज भी वहीं की वहीं है। मुझे आज तक पता नहीं कि भारत को महाशक्ति (या क्षेत्रीय महाशक्ति) का नाम किसने, कब और क्यों दिया था। महाशक्ति की परिभाषा क्या होती है, इसे लेकर भी शायद विभिन्न मत होंगे, इसीलिये किसी विद्वान(?) ने भारत को महाशक्ति कहा होगा।
चीन ने अमेरिका के जासूसी विमान को अपनी सीमा का उल्लंघन करने पर उसे रोक रखा और तब तक रोक कर रखा जब तक कि अमेरिका ने नाक रगड़ते हुए माफ़ी नहीं माँग ली। रूस, चेचन अलगाववादियों पर लगातार हमले जारी रखे हुए हैं, हाल ही में जॉर्जिया के इलाके में अपने समर्थकों के समर्थन और नई सीमाओं को गढ़ने के लिये रूस ने जॉर्जिया पर भीषण हमले किये। 9/11 के बाद अमेरिका ने न ही संयुक्त राष्ट्र से औपचारिक सहमति ली, न ही किसी का समर्थन लिया, वर्षों पहले जापान ने भी यही किया था। ब्रिटेन हजारों मील दूर अपने फ़ॉकलैण्ड द्वीप को बचाने के लिये अर्जेण्टीना से भी भिड़ गया था और उसे घुटने पर बैठाकर ही युद्ध का खत्मा किया… महाशक्तियाँ ऐसी होती हैं… अलग ही मिट्टी की बनी हुई, अपने देश का स्वाभिमान बनाये रखने के लिये किसी भी हद तक जाने वाली… इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में 1971 के आधे-अधूरे ही सही भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद गत 39 वर्षों में भारत ने अब तक क्या किया है… किस आधार पर इसे कोई महाशक्ति कह सकता है? क्या सिर्फ़ इसलिये कि यह देश सबसे अधिक संख्या में “सॉफ़्टवेयर मजदूर” पैदा करता है (पहले गन्ना कटाई के लिये यहाँ से मजदूर मलेशिया, मालदीव, फ़िजी, तंजानिया, केन्या जाते थे, अब सॉफ़्टवेयर मजदूर अमेरिका जाते हैं), या महाशक्ति सिर्फ़ इसलिये कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा अपना माल खपाने के लिये यहाँ करोड़ों की संख्या में मध्यमवर्गीय मूर्ख मौजूद हैं, या इसलिये कि भारत हथियारों, विमानों का सबसे बड़ा ग्राहक है? कोई मुझे समझाये कि आखिर महाशक्ति हम किस क्षेत्र में हैं? क्या सिर्फ़ बढ़ती आर्थिक हैसियत से किसी देश को महाशक्ति कहा जा सकता है? भारत को अमेरिका बराबर की आर्थिक महाशक्ति बनने में अभी कम से कम 30 साल तो लग ही जायेंगे, फ़िलहाल हम “डॉलर” की चकाचौंध के आगे नतमस्तक हैं, फ़िर इस तथाकथित “क्षेत्रीय महाशक्ति” की सुनता या मानता कौन है? नेपाल? बांग्लादेश? श्रीलंका? म्यांमार… कोई भी तो नहीं।
मुम्बई हमलों के बाद मनमोहन सिंह जी ने देश को सम्बोधित किया था। एक परम्परा है, किसी भी बड़े हादसे के बाद प्रधानमंत्री देश को सम्बोधित करते हैं सो उन्होंने भी रस्म-अदायगी कर दी। इतने बड़े हमले के बाद राष्ट्र को सम्बोधन करते समय अमूमन कुछ “ठोस बातें या विचार” रखे जाते हैं, लेकिन सीधे-सादे प्रधानमंत्री उस वक्त भी सीधे-सादे बने रहे और माफ़ी माँगते नज़र आये। अपने सम्बोधन में उन्होंने मुख्यतः तीन बातें कही थीं, उन्होंने आतंकवादियों को धमकी की भाषा भी बड़े मक्खन लगाने वाले अन्दाज़ में दी। उन्होंने कहा कि 1) “हम आतंकवादी गुटों और उनके आकाओं को मिलने वाली आर्थिक मदद को रोकेंगे”, 2) देश में घुसने वाले हरेक संदिग्ध व्यक्ति को रोकने के उपाय किये जायेंगे, 3) हम आतंक फ़ैलाने वालों, उनकी मदद करने वालों और उन्हें पनाह देने वालों का पीछा करेंगे और उन्हें इस कृत्य की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी… सुनने में यह बातें कितनी अच्छी लगती हैं ना!!! 9/11 के बाद लगभग इसी से मिलती-जुलती बातें जॉर्ज बुश ने अपने राष्ट्र के नाम सम्बोधन में कही थीं, और दुनिया ने देखा कि कम से कम आखिरी दो मुद्दों पर उन्होंने गम्भीरता से काम किया है और कुछ अर्थों में सफ़ल भी हुए… यह होती है महाशक्ति की पहचान। इसके विपरीत भारत में क्या हो रहा है, बातें, बातें, बातें, समीक्षायें, मीटिंग्स, लोकसभा और राज्यसभा में बहसें, नतीजा……फ़िलहाल जीरो।
संदिग्ध गुटों को आर्थिक मदद मिलने के मुद्दे पर बस इतना ही कहा जा सकता है कि ISI और SIMI या अल-कायदा किसी बैंक या वित्तीय संस्थान के भरोसे अपना संगठन नहीं चलाते हैं, उनकी अपनी खुद की अलग अर्थव्यवस्था है, अफ़ीम, तस्करी, नकली नोटों, ड्रग्स और अवैध हथियारों की खरीद-फ़रोख्त से बनाई हुई। यकीन न आता हो तो उत्तर भारत की बैंकों की शाखाओं से निकलते 500 के नकली नोटों की बढ़ती घटनाओं पर गौर कीजिये, एक छोटे शहर के छोटे व्यापारी से 500 और 1000 के नोटों का लेन-देन कीजिये, पता चल जायेगा कि अर्थव्यवस्था से विश्वास डिगाने में महाशक्ति कामयाब हुई या ISI? और आतंकवादी देश में वैध रास्तों से तो घुसते नहीं हैं, उनके लिये मुम्बई-कोंकण के समुद्र तटों से लेकर, नेपाल, बांग्लादेश तक की सीमायें खुली हुई हैं, उन्हें कैसे रोकेंगे?
“हम आतंकवादियों का पीछा करेंगे और उन्हें सबक सिखाया जायेगा…” अब तो सभी जान गए हैं कि यह सिवाय “खोखली” धमकी के अलावा कुछ और नहीं है। विश्व देख रहा है कि भारत की सरकार अफ़ज़ल को किस तरह गोद में बैठाये हुए है और बात कर रहे हैं “पीछा करने की”… जिस प्रकार किसी हत्या के मुजरिम को कहा जाये कि आप हत्यारे को ढूँढने में पुलिस की मदद कीजिये उस प्रकार हमारे प्रधानमंत्री ने हमले के बाद ISI के मुखिया को भारत बुलावा भेजा था, क्या है यह सब? दुर्भाग्य यह है कि विपक्ष भी मजबूती से अपनी बात रखने में सक्षम नहीं है, उसके कंधे पर भी संसद पर हमला और कंधार के भूत सवार हैं। NDA ने ही संसद पर हमले के बाद सेनाओं को खामख्वाह छह महीने तक पाकिस्तान की सीमाओं पर तैनात रखा था, जिसका नतीजा सिर्फ़ इतना हुआ कि उस कवायद में भारत के करोड़ों रुपये खर्च हो गये।
अब पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिये पूरा देश उतावला है, तो हमारे नेता और पार्टियाँ सिर्फ़ शब्दों की जुगाली करने में लगे हुए हैं। श्री वैद्यनाथन जी ने पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिये कुछ उपाय सुझाये थे – जैसे कि
1) पाकिस्तान से निर्यात होने वाले मुख्य जिंसों जैसे बासमती चावल और कालीन आदि को भारत से निर्यात करने के लिये शून्य निर्यात कर लगाया जाये या भारी सबसिडी दी जाये ताकि पाकिस्तान का निर्यात बुरी तरह मार खाये।
2) जो प्रमुख देश (ब्राजील, जर्मनी और चीन) पाकिस्तान को हथियार सप्लाई करते हैं, उन्हें स्पष्ट शब्दों में बताया जाना चाहिये कि पाकिस्तान को शस्त्र देने से हमारे आपसी सम्बन्ध दाँव पर लग सकते हैं और इन देशों की कम्पनियों को भारत में निवेश सम्बन्धी “धमकियाँ” देनी चाहिये, ताकि वे अपनी-अपनी सरकारों को समझा सकें कि पाकिस्तान से सम्बन्ध रखना ठीक नहीं है, भारत से सम्बन्ध रखने में फ़ायदा है।
3) जिस प्रकार चीन में पेप्सी-कोक के आगमन के साथ ही वहाँ हो रहे मानवाधिकार उल्लंघनों की खबरें दबा दी गई, उसी प्रकार भारत को अपने विशाल “बाजार” को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहिये।
4) पाकिस्तानी कलाकारों, क्रिकेट खिलाड़ियों को भारत प्रवेश से वंचित करना होगा ताकि दाऊद द्वारा जो पैसा फ़िल्मों और क्रिकेट में लगाया जा रहा है, उसमें उसे नुकसान उठाना पड़े।
5) भारत की कोई भी सॉफ़्टवेयर कम्पनी पाकिस्तान से जुड़ी किसी भी कम्पनी को अपनी सेवायें न दे, यदि हम सॉफ़्टवेयर में महाशक्ति हैं तो इस ताकत का देशहित में कुछ तो उपयोग होना चाहिये।
वैद्यनाथन जी ने और भी कई उपाय सुझाये हैं, लेकिन एक पर भी भारत सरकार ने शायद अभी तक विचार नहीं किया है। जो लोग युद्ध विरोधी हैं उन्हें भी यह उपाय मंजूर होना चाहिये, क्योंकि आखिर पेट पर लात पड़ने से शायद उसे अकल आ जाये। लगभग यही उपाय कश्मीर समस्या के हल के लिये भी सुझाये गये थे। भारत द्वारा कश्मीर और पाकिस्तान को जोर-शोर से प्रचार करके यह जताना चाहिये कि “हम हैं, हमारी मदद है, हमारे से सम्बन्ध बेहतर हैं तो उनकी रोटी चलेगी…वरना”, लेकिन यह इतनी सी बात भी खुलकर कहने में हमारे सेकुलर गद्दारों को पसीना आ रहा है।
और सबसे बड़ी दिक्कत अरुंधती रॉय, अब्दुल रहमान अन्तुले, लालू-पासवान जैसे सेकुलर हैं, जिनके बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता कि वे किस तरफ़ हैं? पाकिस्तान से भिड़ने से पहले इन जैसे सेकुलर लोगों से पार पाना अधिक जरूरी है। असल में भारत के “सिस्टम” में किसी की जवाबदेही किसी भी स्तर पर नहीं है, जब तक यह नहीं बदला जायेगा तब तक कोई ठोस बदलाव नहीं होने वाला। प्रधानमंत्री से जवाब माँगने से पहले खुद सोचिये कि क्या आपने मनमोहन सिंह को चुना था? नहीं, उन्हें तो मैडम ने चुना था आप पर शासन करने के लिये, फ़िर वे किसे जवाबदेह होंगे? सारा देश इस समय गुस्से, अपमान और क्षोभ से भरा हुआ है, और उधर संसद में हमारे बयानवीर रोजाना नये-नये बयान दिये जा रहे हैं, संयुक्त राष्ट्र से गुहार लगाई जा रही है, जबकि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान जाकर उसे आतंकवाद से लड़ने के नाम पर 6 मिलियन पाऊण्ड की मदद दे दी। इधर जनता त्रस्त है कि अब कहने का वक्त गुजर चुका, कुछ करके दिखाईये जनाब… उधर पाकिस्तान में एक चुटकुला आम हो चला है कि “जब पचास-पचास कोस दूर गाँव में बच्चा रात को रोता है तो माँ कहती है कि बेटा सो जा, सो जा नहीं तो प्रणब मुखर्जी का एक और बयान आ जायेगा…” और बच्चा इस बात पर हँसने लगता है। कुल मिलाकर स्थिति यह बन रही है कि एक पिलपिली सी “महाशक्ति”, बच्चों की तरह अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, संयुक्त राष्ट्र से शिकायत कर रही है कि “ऊँ, ऊँ, ऊँ… देखो, देखो अंकल वो पड़ोस का बच्चा मुझे फ़िर से मारकर भाग गया… अब मैं क्या करूँ, अंकल मैं आपको सबूत दे चुका हूँ कि वही पड़ोसी मुझे रोजाना मारता रहता है…” अंकल को क्या पड़ी है कि वे उस शैतान बच्चे को डाँटें (दिखावे के लिये एकाध बार डाँट भी देते हैं), लेकिन अन्ततः उस शैतान बच्चे से निपटना तो रोजाना पिटने वाले बच्चे को ही है, कि “कम से कम एक बार” उसके घर में घुसकर जमकर धुनाई करे, फ़िर अंकल भी साथ दे देंगे…
फ़िलहाल आशा की एक किरण आगामी लोकसभा चुनाव हैं, जिसमें कांग्रेस को अपना चेहरा बचाने के लिये कोई न कोई कठोर कदम उठाने ही पड़ेंगे, क्योंकि वोटों के लिये कांग्रेस “कुछ भी” कर सकती है, और दोनो हाथों में लड्डू रखने की उसकी गन्दी आदत के कारण कोई कदम उठाने से पहले ही अन्तुले, दिग्विजय सिंह को भी “दूसरी तरफ़” तैनात कर दिया है… हो सकता है कि कांग्रेस एक मिनी युद्ध के लिये सही “टाईमिंग” का इंतजार कर रही हो, क्योंकि यदि युद्ध हुआ तो लोकसभा के आम चुनाव टल जायेंगे, तब तक कश्मीर में चुनाव निपट चुके होंगे और यदि उसके बाद अफ़ज़ल को फ़ाँसी दे दी जाये और पाकिस्तान पर हमला कर दिया जाये तो कांग्रेस के दोनो हाथों में लड्डू और दिल्ली की सत्ता होगी… जैसी कि भारत की परम्परा रही है कि हरेक बड़े निर्णय के पीछे राजनीति होती है, वैसा ही कुछ युद्ध के बारे में होने की सम्भावना है और “पीएम इन वेटिंग” सदा वेटिंग में ही रह जायें। रही आम जनता, तो उसे बिके हुए मीडिया के तमाशे से आसानी से बरगलाया जा सकता है…
Steps taken against terror by India, India-Pakistan War, Kargil War and India, India Pakistan Relationship and Pakistan Army, Dawood Ibrahim, Import-Export from Pakistan and Economy of Pakistan, Secular Forces in India and Pakistan, Cricket Relations of India and Pakistan, Cricket and BCCI’s Economy, Pakistan Cricket Control Board and BCCI, Secularism and Islam, Intolerence in Islam, Hinduism and Secularism, Threats to India by Muslim Terrorism, A R Antulay and Muslim Leaders in India, भारत पाकिस्तान के रिश्ते और पाकिस्तान सेना, दाऊद इब्राहीम और पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था, भारत-पाक क्रिकेट और अर्थव्यवस्था, सेकुलरिज़्म और इस्लाम, इस्लाम में असहिष्णुता, मुस्लिम जनसंख्या और सेकुलरिज़्म तथा लोकतन्त्र पर उनका व्यवहार, हिन्दुत्व और सेकुलरिज़्म, इस्लामी आतंकवाद से भारत के समक्ष खतरे, भारत-पाकिस्तान युद्ध, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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सोमवार, 15 दिसम्बर 2008 12:56
क्या NDTV में दाऊद का पैसा लगा हुआ है?
NDTV, India-Pakistan Relation, Cricket
भारत के खेल मंत्री श्री गिल ने बयान दिया है कि भारत की क्रिकेट टीम को पाकिस्तान का दौरा नहीं करना चाहिये। असल में गिल साहब अभी पूरी तरह “अफ़सर” से “नेता” नहीं बन पाये हैं और उनमें “सेकुलरिज़्म” का कीड़ा भी पूरी तरह घुस नहीं पाया है, सो उन्होंने आम जनता की भावना को शब्दों में मीडिया के सामने उतार दिया।
अब भारत में लाखों व्यक्ति और काफ़ी संस्थान जान चुके हैं कि पाकिस्तान में दाऊद इब्राहीम का नेटवर्क जबरदस्त मजबूत है। पाकिस्तान में होने वाली किसी भी “बड़ी आर्थिक गतिविधि” में उसका “हिस्सा” निश्चित रूप से होता है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड लगभग कंगाली की हालत में पहुँच चुका है। भारत की क्रिकेट टीम के दौरे का सपना देखकर वे अपने बुरे दिन उबारना चाहते हैं, लेकिन आतंकवाद की जो फ़सल उन्होंने इतने सालों में उगाई है, उस “गाजरघास” के कुछ बीज मुम्बई हमलों में शामिल थे, अब भारत की आम जनता पाकिस्तान से सम्बन्ध पूरी तरह खत्म करने के मूड में हैं, लेकिन “कांग्रेसी नेता”, “सेकुलरिज़्म से पीड़ित लोग”, और “नॉस्टैल्जिया में जीने वाले तथा कुछ गाँधीवादी लोग” अभी भी पाकिस्तान से दोस्ती का राग अलाप रहे हैं। असल में भारत में तीन तरह के लोग अब भी “पाकिस्तान-प्रेम” से बुरी तरह ग्रसित हैं, पहले वे लोग जो विभाजन के समय यहाँ रह गये (जाना तो चाहते थे), उन्हें अभी भी लाहौर की हवेलियाँ, बाजार, मुजरे वगैरह याद आते रहते हैं, दूसरे हैं फ़िल्म कलाकारों और नचैयों की एक जमात, जिसे दाऊद भाई अपने इशारों और पैसों पर यहाँ-वहाँ-जहाँ-तहाँ नचवाते रहते हैं, तीसरे हैं “मोमबत्ती छाप सेकुलर गैंग”, जो हजार बार गलत साबित होने के बावजूद भी पाकिस्तान को जबरन अपना “छोटा भाई” मानने पर उतारू है (NDTV इस तीसरे टाइप की कैटेगरी में आता है)।
जैसे ही गिल साहब का यह बयान आया फ़ौरन से भी पहले NDTV ने अपनी खबरों में उसे हाइलाईट करना शुरु कर दिया, चैनल पर उपस्थित एंकरों ने खुद अपनी तरफ़ से ही बयानबाजी शुरु कर दी कि “खेल मंत्री को दौरा रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है…” “भारत-पाकिस्तान के आपसी सम्बन्ध सामान्य बनाने के लिये यह दौरा बहुत जरूरी है…”, “यह दौरा सिर्फ़ सुरक्षा कारणों से रद्द किया जा सकता है…”, “इससे क्रिकेट का बहुत नुकसान होगा…”, “खेल में राजनीति नहीं होना चाहिये…”, आदि-आदि-आदि-आदि, यानी कि “फ़ोकटिया शब्दों की लफ़्फ़ाज़ी” चालू हो गई, जिसमें NDTV पहले से ही माहिर है, और “कमाई” करने के मामले में भी, जाहिर है कि तत्काल SMS भी मंगवाये जाने लगे कि “भारत को पाकिस्तान का दौरा करना चाहिये या नहीं…” हमें SMS करें और हमारी जेब भरें…
सेकुलर और NDTV जैसे लोग शायद यह भूल जाते हैं कि खेल या अन्य किसी भी प्रकार के खेल सम्बन्ध “शरीफ़ों” और “सभ्य नागरिकों” से ही रखे जाते हैं, जो देश अपने जन्म से ही घृणा फ़ैलाने में लगा हुआ हो, जहाँ पाठ्यक्रम में ही बाकायदा “जेहाद” की शिक्षा दी जाती है, जहाँ के नौनिहाल “भारत (बल्कि विश्व) में इस्लाम का परचम फ़हराने के उद्देश्य से ही बड़े होते हैं, उस देश से सम्बन्ध रखने की क्या तुक है? और “खेल में राजनीति नहीं होना चाहिये…” का तर्क तो इतना बोदा और थोथा है कि ये सेकुलर लोग इस बात का भी जवाब नहीं दे सकते कि रंगभेद के जमाने में दक्षिण अफ़्रीका ने भारत क्या बिगाड़ा था, जो हमने उससे सम्बन्ध तोड़ रखे थे? या कि इसराइल ने भारत के कौन से हिस्से पर कब्जा कर लिया था कि यासर अराफ़ात को गले लगाते-लगाते उससे भी हमने सम्बन्ध तोड़ रखे थे? क्या यह व्यवहार खेल में राजनीति नहीं थी? और सबसे बड़ी बात तो यह कि पाकिस्तान के साथ न खेलने से हमारा क्या नुकसान होने वाला है? कुछ भी नहीं। सारा विश्व इस समय पाकिस्तान के खिलाफ़ है, हमें इस माहौल का फ़ायदा उठाना चाहिये, न कि अपना परम्परागत “गाँधीवादी” तरीका अपनाकर मामले को ढीला छोड़ देना चाहिये। लेकिन इस देश में देश का स्वाभिमान देखने से ज्यादा “पैसे के भूखे” लोग हैं, उन्हें तत्काल “डॉलर” का नुकसान दिखाई दे रहा है। जबकि असल में नुकसान होगा पाकिस्तान क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का, यानी प्रकारान्तर से दाऊद का भी, फ़िर क्यों भाई लोग क्रिकेट खेलने के पीछे पड़े हैं। यहीं से भारत के कुछ “खास” लोगों पर शक मजबूत होता है। पाकिस्तान से मधुर सम्बन्ध बनाये रखने में बासमती चावल, कश्मीरी शॉल, शक्कर, आलू, पान के करोड़ों में “खेलने-खाने-खिलाने” वाले आयातक और निर्यातकों की एक बहुत बड़ी गैंग के अपने स्वार्थ हैं, और इन्हें देश के स्वाभिमान से कभी भी कोई लेना-देना नहीं रहा।
यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि पाकिस्तान में सेना और आईएसआई का शिकंजा वहाँ के प्रत्येक वित्तीय संस्थान पर कसा हुआ है। पाकिस्तान की डॉ आयशा सिद्दिकी-आगा द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में सन् 2000 में प्रस्तुत एक पेपर “पावर, पर्क्स, प्रेस्टीज एण्ड प्रिविलेजेस – मिलिटरी इकॉनामिक एक्टिविटीज इन पाकिस्तान” में उन्होंने बताया है कि पाकिस्तान ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ कि सेना का हरेक संस्थान और हरेक जमात पर पूरा नियन्त्रण है। अध्ययनों से पता चला है कि पाकिस्तान में चार विशालकाय फ़ाउण्डेशन हैं 1) फ़ौजी फ़ाउण्डेशन (FF), 2) आर्मी वेलफ़ेयर ट्रस्ट (AWT), 3) बहारिया फ़ाउण्डेशन (BF), 4) शाहीन फ़ाउण्डेशन (SF), इन विभिन्न ट्रस्टों और फ़ाउण्डेशनों पर पाकिस्तान फ़ौज का पूर्ण कब्जा है, पाकिस्तान की आर्थिक धुरी में ये काफ़ी महत्वपूर्ण माने जाते हैं (सन्दर्भ - आर वैद्यनाथन रेडिफ़. कॉम 10/12/08)। ऐसे में यह मानना मूर्खतापूर्ण ही होगा कि आर्थिक रूप से मजबूत पाकिस्तान हमारा दोस्त बन सकता है, बल्कि वह जितना आर्थिक रूप से सम्पन्न होगा, वहाँ की सेना और दाऊद इब्राहीम ही आर्थिक रूप से मजबूत होते जायेंगे। ऐसे में पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना यानी उन्हें संजीवनी प्रदान करने जैसा होगा, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि पाकिस्तान की पूर्ण आर्थिक नाकेबन्दी की जानी चाहिये, जैसे एक “भोगवादी” वर्ग भारत में है वैसा ही पाकिस्तान में भी है, उसके आर्थिक हितों पर चोट होना जरूरी है। पाकिस्तान में सेना ने हमेशा ही कुछ कठपुतलियों को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनाये रखा है और उनसे कोई उम्मीद रखना बेकार ही होगा। खुद जरदारी की यह घोषणा बेहद हास्यास्पद है कि बेनज़ीर की हत्या की जाँच स्कॉटलैण्ड यार्ड से करवाई जायेगी, अर्थात उन्हें अपने देश की पुलिस पर ही भरोसा नहीं है, ऐसे में भारत उस व्यक्ति पर भरोसा क्यों करे जिसका अतीत दागदार है और अपने “बिजनेस”(?) को बढ़ाने के लिये जिस व्यक्ति के दाऊद के साथ रिश्ते सरेआम जाहिर हो चुके हैं? असल में जरदारी और प्रधानमंत्री सिर्फ़ “टाइमपास” कर रहे हैं, और भारत मूर्ख बनता हुआ लग रहा है। जरूरत इस बात की है कि सबसे पहले हम “गुजराल डॉक्ट्रिन” को कूड़े में फ़ेंकें और पाकिस्तान को अपना “छोटा भाई” मानना बन्द करें।
पाकिस्तान के खिलाफ़ अभी हमने युद्ध की मुद्रा बनाना शुरु ही किया है, लेकिन उससे पहले ही NDTV ने “भाईचारे” का राग छेड़ना शुरु कर दिया है, “खेल को राजनीति से दूर रखना चाहिये…” रूपी उपदेश झाड़ने शुरु हो गये हैं। उधर अरुन्धती रॉय ने विदेश में अंग्रेजी अखबारों में भारत और हिन्दुओं के खिलाफ़ जहर उगलना जारी रखा है… ऐसे में शक होता है कि कहीं दाऊद के कुछ “गुर्गे” सफ़ेदपोशों के भेष में हमारे बीच में तो मौजूद नहीं हैं, जो जब-तब पाकिस्तान से दोस्ती का “डोज़” देते रहते हैं? कहीं भारत के कुछ खास लोगों की पाकिस्तान में बैठे खास लोगों से कुछ गुप्त साँठगाँठ तो नहीं, जो हमेशा भारत पाकिस्तान के आगे झुक जाता है?
India Pakistan Relationship and Pakistan Army, Dawood Ibrahim, NDTV and Islamic Funding, Import-Export from Pakistan and Economy of Pakistan, Secular Forces in India and Pakistan, Cricket Relations of India and Pakistan, Cricket and BCCI’s Economy, Pakistan Cricket Control Board and BCCI, Secularism and Islam, Intolerence in Islam, Hinduism and Secularism, Threats to India by Muslim Terrorism, भारत पाकिस्तान के रिश्ते और पाकिस्तान सेना, दाऊद इब्राहीम और पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था, भारत-पाक क्रिकेट और अर्थव्यवस्था, सेकुलरिज़्म और इस्लाम, इस्लाम में असहिष्णुता, मुस्लिम जनसंख्या और सेकुलरिज़्म तथा लोकतन्त्र पर उनका व्यवहार, हिन्दुत्व और सेकुलरिज़्म, इस्लामी आतंकवाद से भारत के समक्ष खतरे, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
भारत के खेल मंत्री श्री गिल ने बयान दिया है कि भारत की क्रिकेट टीम को पाकिस्तान का दौरा नहीं करना चाहिये। असल में गिल साहब अभी पूरी तरह “अफ़सर” से “नेता” नहीं बन पाये हैं और उनमें “सेकुलरिज़्म” का कीड़ा भी पूरी तरह घुस नहीं पाया है, सो उन्होंने आम जनता की भावना को शब्दों में मीडिया के सामने उतार दिया।
अब भारत में लाखों व्यक्ति और काफ़ी संस्थान जान चुके हैं कि पाकिस्तान में दाऊद इब्राहीम का नेटवर्क जबरदस्त मजबूत है। पाकिस्तान में होने वाली किसी भी “बड़ी आर्थिक गतिविधि” में उसका “हिस्सा” निश्चित रूप से होता है। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड लगभग कंगाली की हालत में पहुँच चुका है। भारत की क्रिकेट टीम के दौरे का सपना देखकर वे अपने बुरे दिन उबारना चाहते हैं, लेकिन आतंकवाद की जो फ़सल उन्होंने इतने सालों में उगाई है, उस “गाजरघास” के कुछ बीज मुम्बई हमलों में शामिल थे, अब भारत की आम जनता पाकिस्तान से सम्बन्ध पूरी तरह खत्म करने के मूड में हैं, लेकिन “कांग्रेसी नेता”, “सेकुलरिज़्म से पीड़ित लोग”, और “नॉस्टैल्जिया में जीने वाले तथा कुछ गाँधीवादी लोग” अभी भी पाकिस्तान से दोस्ती का राग अलाप रहे हैं। असल में भारत में तीन तरह के लोग अब भी “पाकिस्तान-प्रेम” से बुरी तरह ग्रसित हैं, पहले वे लोग जो विभाजन के समय यहाँ रह गये (जाना तो चाहते थे), उन्हें अभी भी लाहौर की हवेलियाँ, बाजार, मुजरे वगैरह याद आते रहते हैं, दूसरे हैं फ़िल्म कलाकारों और नचैयों की एक जमात, जिसे दाऊद भाई अपने इशारों और पैसों पर यहाँ-वहाँ-जहाँ-तहाँ नचवाते रहते हैं, तीसरे हैं “मोमबत्ती छाप सेकुलर गैंग”, जो हजार बार गलत साबित होने के बावजूद भी पाकिस्तान को जबरन अपना “छोटा भाई” मानने पर उतारू है (NDTV इस तीसरे टाइप की कैटेगरी में आता है)।
जैसे ही गिल साहब का यह बयान आया फ़ौरन से भी पहले NDTV ने अपनी खबरों में उसे हाइलाईट करना शुरु कर दिया, चैनल पर उपस्थित एंकरों ने खुद अपनी तरफ़ से ही बयानबाजी शुरु कर दी कि “खेल मंत्री को दौरा रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है…” “भारत-पाकिस्तान के आपसी सम्बन्ध सामान्य बनाने के लिये यह दौरा बहुत जरूरी है…”, “यह दौरा सिर्फ़ सुरक्षा कारणों से रद्द किया जा सकता है…”, “इससे क्रिकेट का बहुत नुकसान होगा…”, “खेल में राजनीति नहीं होना चाहिये…”, आदि-आदि-आदि-आदि, यानी कि “फ़ोकटिया शब्दों की लफ़्फ़ाज़ी” चालू हो गई, जिसमें NDTV पहले से ही माहिर है, और “कमाई” करने के मामले में भी, जाहिर है कि तत्काल SMS भी मंगवाये जाने लगे कि “भारत को पाकिस्तान का दौरा करना चाहिये या नहीं…” हमें SMS करें और हमारी जेब भरें…
सेकुलर और NDTV जैसे लोग शायद यह भूल जाते हैं कि खेल या अन्य किसी भी प्रकार के खेल सम्बन्ध “शरीफ़ों” और “सभ्य नागरिकों” से ही रखे जाते हैं, जो देश अपने जन्म से ही घृणा फ़ैलाने में लगा हुआ हो, जहाँ पाठ्यक्रम में ही बाकायदा “जेहाद” की शिक्षा दी जाती है, जहाँ के नौनिहाल “भारत (बल्कि विश्व) में इस्लाम का परचम फ़हराने के उद्देश्य से ही बड़े होते हैं, उस देश से सम्बन्ध रखने की क्या तुक है? और “खेल में राजनीति नहीं होना चाहिये…” का तर्क तो इतना बोदा और थोथा है कि ये सेकुलर लोग इस बात का भी जवाब नहीं दे सकते कि रंगभेद के जमाने में दक्षिण अफ़्रीका ने भारत क्या बिगाड़ा था, जो हमने उससे सम्बन्ध तोड़ रखे थे? या कि इसराइल ने भारत के कौन से हिस्से पर कब्जा कर लिया था कि यासर अराफ़ात को गले लगाते-लगाते उससे भी हमने सम्बन्ध तोड़ रखे थे? क्या यह व्यवहार खेल में राजनीति नहीं थी? और सबसे बड़ी बात तो यह कि पाकिस्तान के साथ न खेलने से हमारा क्या नुकसान होने वाला है? कुछ भी नहीं। सारा विश्व इस समय पाकिस्तान के खिलाफ़ है, हमें इस माहौल का फ़ायदा उठाना चाहिये, न कि अपना परम्परागत “गाँधीवादी” तरीका अपनाकर मामले को ढीला छोड़ देना चाहिये। लेकिन इस देश में देश का स्वाभिमान देखने से ज्यादा “पैसे के भूखे” लोग हैं, उन्हें तत्काल “डॉलर” का नुकसान दिखाई दे रहा है। जबकि असल में नुकसान होगा पाकिस्तान क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का, यानी प्रकारान्तर से दाऊद का भी, फ़िर क्यों भाई लोग क्रिकेट खेलने के पीछे पड़े हैं। यहीं से भारत के कुछ “खास” लोगों पर शक मजबूत होता है। पाकिस्तान से मधुर सम्बन्ध बनाये रखने में बासमती चावल, कश्मीरी शॉल, शक्कर, आलू, पान के करोड़ों में “खेलने-खाने-खिलाने” वाले आयातक और निर्यातकों की एक बहुत बड़ी गैंग के अपने स्वार्थ हैं, और इन्हें देश के स्वाभिमान से कभी भी कोई लेना-देना नहीं रहा।
यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि पाकिस्तान में सेना और आईएसआई का शिकंजा वहाँ के प्रत्येक वित्तीय संस्थान पर कसा हुआ है। पाकिस्तान की डॉ आयशा सिद्दिकी-आगा द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में सन् 2000 में प्रस्तुत एक पेपर “पावर, पर्क्स, प्रेस्टीज एण्ड प्रिविलेजेस – मिलिटरी इकॉनामिक एक्टिविटीज इन पाकिस्तान” में उन्होंने बताया है कि पाकिस्तान ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ कि सेना का हरेक संस्थान और हरेक जमात पर पूरा नियन्त्रण है। अध्ययनों से पता चला है कि पाकिस्तान में चार विशालकाय फ़ाउण्डेशन हैं 1) फ़ौजी फ़ाउण्डेशन (FF), 2) आर्मी वेलफ़ेयर ट्रस्ट (AWT), 3) बहारिया फ़ाउण्डेशन (BF), 4) शाहीन फ़ाउण्डेशन (SF), इन विभिन्न ट्रस्टों और फ़ाउण्डेशनों पर पाकिस्तान फ़ौज का पूर्ण कब्जा है, पाकिस्तान की आर्थिक धुरी में ये काफ़ी महत्वपूर्ण माने जाते हैं (सन्दर्भ - आर वैद्यनाथन रेडिफ़. कॉम 10/12/08)। ऐसे में यह मानना मूर्खतापूर्ण ही होगा कि आर्थिक रूप से मजबूत पाकिस्तान हमारा दोस्त बन सकता है, बल्कि वह जितना आर्थिक रूप से सम्पन्न होगा, वहाँ की सेना और दाऊद इब्राहीम ही आर्थिक रूप से मजबूत होते जायेंगे। ऐसे में पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना यानी उन्हें संजीवनी प्रदान करने जैसा होगा, जबकि आवश्यकता इस बात की है कि पाकिस्तान की पूर्ण आर्थिक नाकेबन्दी की जानी चाहिये, जैसे एक “भोगवादी” वर्ग भारत में है वैसा ही पाकिस्तान में भी है, उसके आर्थिक हितों पर चोट होना जरूरी है। पाकिस्तान में सेना ने हमेशा ही कुछ कठपुतलियों को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बनाये रखा है और उनसे कोई उम्मीद रखना बेकार ही होगा। खुद जरदारी की यह घोषणा बेहद हास्यास्पद है कि बेनज़ीर की हत्या की जाँच स्कॉटलैण्ड यार्ड से करवाई जायेगी, अर्थात उन्हें अपने देश की पुलिस पर ही भरोसा नहीं है, ऐसे में भारत उस व्यक्ति पर भरोसा क्यों करे जिसका अतीत दागदार है और अपने “बिजनेस”(?) को बढ़ाने के लिये जिस व्यक्ति के दाऊद के साथ रिश्ते सरेआम जाहिर हो चुके हैं? असल में जरदारी और प्रधानमंत्री सिर्फ़ “टाइमपास” कर रहे हैं, और भारत मूर्ख बनता हुआ लग रहा है। जरूरत इस बात की है कि सबसे पहले हम “गुजराल डॉक्ट्रिन” को कूड़े में फ़ेंकें और पाकिस्तान को अपना “छोटा भाई” मानना बन्द करें।
पाकिस्तान के खिलाफ़ अभी हमने युद्ध की मुद्रा बनाना शुरु ही किया है, लेकिन उससे पहले ही NDTV ने “भाईचारे” का राग छेड़ना शुरु कर दिया है, “खेल को राजनीति से दूर रखना चाहिये…” रूपी उपदेश झाड़ने शुरु हो गये हैं। उधर अरुन्धती रॉय ने विदेश में अंग्रेजी अखबारों में भारत और हिन्दुओं के खिलाफ़ जहर उगलना जारी रखा है… ऐसे में शक होता है कि कहीं दाऊद के कुछ “गुर्गे” सफ़ेदपोशों के भेष में हमारे बीच में तो मौजूद नहीं हैं, जो जब-तब पाकिस्तान से दोस्ती का “डोज़” देते रहते हैं? कहीं भारत के कुछ खास लोगों की पाकिस्तान में बैठे खास लोगों से कुछ गुप्त साँठगाँठ तो नहीं, जो हमेशा भारत पाकिस्तान के आगे झुक जाता है?
India Pakistan Relationship and Pakistan Army, Dawood Ibrahim, NDTV and Islamic Funding, Import-Export from Pakistan and Economy of Pakistan, Secular Forces in India and Pakistan, Cricket Relations of India and Pakistan, Cricket and BCCI’s Economy, Pakistan Cricket Control Board and BCCI, Secularism and Islam, Intolerence in Islam, Hinduism and Secularism, Threats to India by Muslim Terrorism, भारत पाकिस्तान के रिश्ते और पाकिस्तान सेना, दाऊद इब्राहीम और पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था, भारत-पाक क्रिकेट और अर्थव्यवस्था, सेकुलरिज़्म और इस्लाम, इस्लाम में असहिष्णुता, मुस्लिम जनसंख्या और सेकुलरिज़्म तथा लोकतन्त्र पर उनका व्यवहार, हिन्दुत्व और सेकुलरिज़्म, इस्लामी आतंकवाद से भारत के समक्ष खतरे, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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ब्लॉग
गुरुवार, 11 दिसम्बर 2008 12:58
क्या कोई मुस्लिम कभी “सेकुलर” हो सकता है? – एक विश्लेषण
How a Muslim Could be a Secular?
जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी कहते हैं कि कुरान के अनुसार विश्व दो भागों में बँटा हुआ है, एक वह जो अल्लाह की तरफ़ हैं और दूसरा वे जो शैतान की तरफ़ हैं। देशो की सीमाओं को देखने का इस्लामिक नज़रिया कहता है कि विश्व में कुल मिलाकर सिर्फ़ दो खेमे हैं, पहला दार-उल-इस्लाम (यानी मुस्लिमों द्वारा शासित) और दार-उल-हर्ब (यानी “नास्तिकों” द्वारा शासित)। उनकी निगाह में नास्तिक का अर्थ है जो अल्लाह को नहीं मानता, क्योंकि विश्व के किसी भी धर्म के भगवानों को वे मान्यता ही नहीं देते हैं।
इस्लाम सिर्फ़ एक धर्म ही नहीं है, असल में इस्लाम एक पूजापद्धति तो है ही, लेकिन उससे भी बढ़कर यह एक समूची “व्यवस्था” के रूप में मौजूद रहता है। इस्लाम की कई शाखायें जैसे धार्मिक, न्यायिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सैनिक होती हैं। इन सभी शाखाओं में सबसे ऊपर, सबसे प्रमुख और सभी के लिये बन्धनकारी होती है धार्मिक शाखा, जिसकी सलाह या निर्देश (बल्कि आदेश) सभी धर्मावलम्बियों को मानना बाध्यकारी होता है। किसी भी देश, प्रदेश या क्षेत्र के “इस्लामीकरण” करने की एक प्रक्रिया है। जब भी किसी देश में मुस्लिम जनसंख्या एक विशेष अनुपात से ज्यादा हो जाती है तब वहाँ इस्लामिक आंदोलन शुरु होते हैं। शुरुआत में उस देश विशेष की राजनैतिक व्यवस्था सहिष्णु और बहु-सांस्कृतिकवादी बनकर मुसलमानों को अपना धर्म मानने, प्रचार करने की इजाजत दे देती है, उसके बाद इस्लाम की “अन्य शाखायें” उस व्यवस्था में अपनी टाँग अड़ाने लगती हैं। इसे समझने के लिये हम कई देशों का उदाहरण देखेंगे, आईये देखते हैं कि यह सारा “खेल” कैसे होता है –
जब तक मुस्लिमों की जनसंख्या किसी देश/प्रदेश/क्षेत्र में लगभग 2% के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसन्द अल्पसंख्यक बनकर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते, जैसे -
अमेरिका – मुस्लिम 0.6%
ऑस्ट्रेलिया – मुस्लिम 1.5%
कनाडा – मुस्लिम 1.9%
चीन – मुस्लिम 1.8%
इटली – मुस्लिम 1.5%
नॉर्वे – मुस्लिम 1.8%
जब मुस्लिम जनसंख्या 2% से 5% के बीच तक पहुँच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलम्बियों में अपना “धर्मप्रचार” शुरु कर देते हैं, जिनमें अक्सर समाज का निचला तबका और अन्य धर्मों से असंतुष्ट हुए लोग होते हैं, जैसे कि –
डेनमार्क – मुस्लिम 2%
जर्मनी – मुस्लिम 3.7%
ब्रिटेन – मुस्लिम 2.7%
स्पेन – मुस्लिम 4%
थाईलैण्ड – मुस्लिम 4.6%
मुस्लिम जनसंख्या के 5% से ऊपर हो जाने पर वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलम्बियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना “प्रभाव” जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिये वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर “हलाल” का माँस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि “हलाल” का माँस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यतायें प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में “खाद्य वस्तुओं” के बाजार में मुस्लिमों की तगड़ी पैठ बनी। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्केट के मालिकों को दबाव डालकर अपने यहाँ “हलाल” का माँस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी “धंधे” को देखते हुए उनका कहा मान लेता है (अधिक जनसंख्या होने का “फ़ैक्टर” यहाँ से मजबूत होना शुरु हो जाता है), ऐसा जिन देशों में हो चुका वह हैं –
फ़्रांस – मुस्लिम 8%
फ़िलीपीन्स – मुस्लिम 6%
स्वीडन – मुस्लिम 5.5%
स्विटजरलैण्ड – मुस्लिम 5.3%
नीडरलैण्ड – मुस्लिम 5.8%
त्रिनिदाद और टोबैगो – मुस्लिम 6%
इस बिन्दु पर आकर “मुस्लिम” सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके “क्षेत्रों” में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाये (क्योंकि उनका अन्तिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व “शरीयत” कानून के हिसाब से चले)। जब मुस्लिम जनसंख्या 10% से अधिक हो जाती है तब वे उस देश/प्रदेश/राज्य/क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिये परेशानी पैदा करना शुरु कर देते हैं, शिकायतें करना शुरु कर देते हैं, उनकी “आर्थिक परिस्थिति” का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़फ़ोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ़्रांस के दंगे हों, डेनमार्क का कार्टून विवाद हो, या फ़िर एम्स्टर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवाद को समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है, जैसे कि –
गुयाना – मुस्लिम 10%
भारत – मुस्लिम 15%
इसराइल – मुस्लिम 16%
केन्या – मुस्लिम 11%
रूस – मुस्लिम 15% (चेचन्या – मुस्लिम आबादी 70%)
जब मुस्लिम जनसंख्या 20% से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न “सैनिक शाखायें” जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरु हो जाता है, जैसे-
इथियोपिया – मुस्लिम 32.8%
जनसंख्या के 40% के स्तर से ऊपर पहुँच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याऐं, आतंकवादी कार्रवाईयाँ आदि चलने लगते हैं, जैसे –
बोस्निया – मुस्लिम 40%
चाड – मुस्लिम 54.2%
लेबनान – मुस्लिम 59%
जब मुस्लिम जनसंख्या 60% से ऊपर हो जाती है तब अन्य धर्मावलंबियों का “जातीय सफ़ाया” शुरु किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोड़ना, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है, जैसे –
अल्बानिया – मुस्लिम 70%
मलेशिया – मुस्लिम 62%
कतर – मुस्लिम 78%
सूडान – मुस्लिम 75%
जनसंख्या के 80% से ऊपर हो जाने के बाद तो सत्ता/शासन प्रायोजित जातीय सफ़ाई की जाती है, अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है, सभी प्रकार के हथकण्डे/हथियार अपनाकर जनसंख्या को 100% तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है, जैसे –
बांग्लादेश – मुस्लिम 83%
मिस्त्र – मुस्लिम 90%
गाज़ा पट्टी – मुस्लिम 98%
ईरान – मुस्लिम 98%
ईराक – मुस्लिम 97%
जोर्डन – मुस्लिम 93%
मोरक्को – मुस्लिम 98%
पाकिस्तान – मुस्लिम 97%
सीरिया – मुस्लिम 90%
संयुक्त अरब अमीरात – मुस्लिम 96%
बनती कोशिश पूरी 100% जनसंख्या मुस्लिम बन जाने, यानी कि दार-ए-स्सलाम होने की स्थिति में वहाँ सिर्फ़ मदरसे होते हैं और सिर्फ़ कुरान पढ़ाई जाती है और उसे ही अन्तिम सत्य माना जाता है, जैसे –
अफ़गानिस्तान – मुस्लिम 100%
सऊदी अरब – मुस्लिम 100%
सोमालिया – मुस्लिम 100%
यमन – मुस्लिम 100%
दुर्भाग्य से 100% मुस्लिम जनसंख्या होने के बावजूद भी उन देशों में तथाकथित “शांति” नहीं हो पाती। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जिन देशों में मुस्लिम जनसंख्या 8 से 10 प्रतिशत हो चुकी होती है, उन देशों में यह तबका अपने खास “मोहल्लो” में रहना शुरु कर देता है, एक “ग्रुप” बनाकर विशेष कालोनियाँ या क्षेत्र बना लिये जाते हैं, उन क्षेत्रों में अघोषित रूप से “शरीयत कानून” लागू कर दिये जाते हैं। उस देश की पुलिस या कानून-व्यवस्था उन क्षेत्रों में काम नहीं कर पाती, यहाँ तक कि देश का न्यायालयीन कानून और सामान्य सरकारी स्कूल भी उन खास इलाकों में नहीं चल पाते (ऐसा भारत के कई जिलों के कई क्षेत्रों में खुलेआम देखा जा सकता है, कई प्रशासनिक अधिकारी भी दबी जुबान से इसे स्वीकार करते हैं, लेकिन “सेकुलर-देशद्रोहियों” के कारण कोई कुछ नहीं बोलता)।
आज की स्थिति में मुस्लिमों की जनसंख्या समूचे विश्व की जनसंख्या का 22-24% है, लेकिन ईसाईयों, हिन्दुओं और यहूदियों के मुकाबले उनकी जन्मदर को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस शताब्दी के अन्त से पहले ही मुस्लिम जनसंख्या विश्व की 50% हो जायेगी (यदि तब तक धरती बची तो)… भारत में कुल मुस्लिम जनसंख्या 15% के आसपास मानी जाती है, जबकि हकीकत यह है कि उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और केरल के कई जिलों में यह आँकड़ा 40 से 50% तक पहुँच चुका है… अब देश में आगे चलकर क्या परिस्थितियाँ बनेंगी यह कोई भी (“सेकुलरों” को छोड़कर) आसानी से सोच-समझ सकता है…
(सभी सन्दर्भ और आँकड़े : डॉ पीटर हैमण्ड की पुस्तक “स्लेवरी, टेररिज़्म एण्ड इस्लाम – द हिस्टोरिकल रूट्स एण्ड कण्टेम्पररी थ्रेट तथा लियोन यूरिस – “द हज”, से साभार)
यदि इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देखें, तो कोई मुस्लिम सही अर्थों में सेकुलर हो ही नहीं सकता, क्योंकि वे “एकेश्वरवादी” हैं, उनके लिये अल्लाह ही सबसे बड़ी और एकमात्र सच्चाई है और पैगम्बर मोहम्मद के सन्देश पत्थर की लकीर। वे दूसरे धर्मों के देवताओं का अस्तित्व ही नहीं मानते, बल्कि दूसरे मूर्तिपूजकों को वे काफ़िर मानते हैं, ऐसे में भला वे सेकुलर कैसे हो सकते हैं। जब कोई हिन्दू, अपने धर्म या देवी-देवताओं पर सवाल उठाता है तो हिन्दू उस पर बहस करेंगे, उस व्यक्ति की आलोचना करेंगे, उसकी बातों को कम से कम एक बार सुनेंगे और उसके बावजूद उस व्यक्ति का कोई बाल भी बाँका नहीं होगा, जबकि मुस्लिम व्यक्ति अपने ही धर्म के खिलाफ़ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, और सलमान रुश्दी या तसलीमा नसरीन जैसे कुछ लोग यदि समाज में व्याप्त किसी बुराई पर बोलने की कोशिश भी करते हैं तो उनके खिलाफ़ फ़तवे जारी हो जाते हैं, उन्हें जान से मारने की धमकियाँ मिलती हैं, उन्हें अपने ही देश से भागना पड़ता है। हिन्दुओं और मुस्लिमों में यही मुख्य अन्तर है, यानी सहिष्णुता और असहिष्णुता का। हिन्दुओं को दूसरे धर्मों और उनकी पूजा पद्धतियों से कभी कोई आपत्ति नहीं होती, जबकि इस्लाम में दूसरे धर्मों को समान रूप से इज्जत देना तो दूर, उनके लिये कोई जगह छोड़ना भी लगभग गुनाह मान लिया जाता हो, तब ऐसे में भला कैसे कोई मुस्लिम “सेकुलर” हो सकता है? विद्वानों से मैं पूछना चाहता हूँ कि “सेकुलर” की उनकी परिभाषा क्या है? और उस परिभाषा के खाँचे में मुस्लिम धर्मावलम्बी कैसे सेकुलर कहला सकते हैं? इसका दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि कोई व्यक्ति या तो “सेकुलर” हो सकता है या फ़िर “सच्चा मुसलमान”, दोनों एक साथ नहीं हो सकता। और जो आँकड़े तथा विभिन्न देशों की परिस्थियाँ ऊपर दी गई हैं, उससे एक सवाल और भी खड़ा होता है कि आखिर मुस्लिम बहुल देशों में लोकतन्त्र क्यों नहीं पनपता? हालांकि इसका जवाब भी इसी लेख में छुपा हुआ है, लेकिन उस विषय पर बाद में कभी विस्तार से बात करेंगे…
Secularism and Islam, Process of Islamization of a Country, Intolerence in Islam, Muslim Population in Various Countries, Muslim Population and their Behaviour towards Secularism and Democracy, Hinduism and Secularism, Threats to India by Muslim Terrorism, सेकुलरिज़्म और इस्लाम, इस्लामीकरण की प्रक्रिया, इस्लाम में असहिष्णुता, मुस्लिम जनसंख्या और सेकुलरिज़्म तथा लोकतन्त्र पर उनका व्यवहार, हिन्दुत्व और सेकुलरिज़्म, इस्लामी आतंकवाद से भारत के समक्ष खतरे, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी कहते हैं कि कुरान के अनुसार विश्व दो भागों में बँटा हुआ है, एक वह जो अल्लाह की तरफ़ हैं और दूसरा वे जो शैतान की तरफ़ हैं। देशो की सीमाओं को देखने का इस्लामिक नज़रिया कहता है कि विश्व में कुल मिलाकर सिर्फ़ दो खेमे हैं, पहला दार-उल-इस्लाम (यानी मुस्लिमों द्वारा शासित) और दार-उल-हर्ब (यानी “नास्तिकों” द्वारा शासित)। उनकी निगाह में नास्तिक का अर्थ है जो अल्लाह को नहीं मानता, क्योंकि विश्व के किसी भी धर्म के भगवानों को वे मान्यता ही नहीं देते हैं।
इस्लाम सिर्फ़ एक धर्म ही नहीं है, असल में इस्लाम एक पूजापद्धति तो है ही, लेकिन उससे भी बढ़कर यह एक समूची “व्यवस्था” के रूप में मौजूद रहता है। इस्लाम की कई शाखायें जैसे धार्मिक, न्यायिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सैनिक होती हैं। इन सभी शाखाओं में सबसे ऊपर, सबसे प्रमुख और सभी के लिये बन्धनकारी होती है धार्मिक शाखा, जिसकी सलाह या निर्देश (बल्कि आदेश) सभी धर्मावलम्बियों को मानना बाध्यकारी होता है। किसी भी देश, प्रदेश या क्षेत्र के “इस्लामीकरण” करने की एक प्रक्रिया है। जब भी किसी देश में मुस्लिम जनसंख्या एक विशेष अनुपात से ज्यादा हो जाती है तब वहाँ इस्लामिक आंदोलन शुरु होते हैं। शुरुआत में उस देश विशेष की राजनैतिक व्यवस्था सहिष्णु और बहु-सांस्कृतिकवादी बनकर मुसलमानों को अपना धर्म मानने, प्रचार करने की इजाजत दे देती है, उसके बाद इस्लाम की “अन्य शाखायें” उस व्यवस्था में अपनी टाँग अड़ाने लगती हैं। इसे समझने के लिये हम कई देशों का उदाहरण देखेंगे, आईये देखते हैं कि यह सारा “खेल” कैसे होता है –
जब तक मुस्लिमों की जनसंख्या किसी देश/प्रदेश/क्षेत्र में लगभग 2% के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसन्द अल्पसंख्यक बनकर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते, जैसे -
अमेरिका – मुस्लिम 0.6%
ऑस्ट्रेलिया – मुस्लिम 1.5%
कनाडा – मुस्लिम 1.9%
चीन – मुस्लिम 1.8%
इटली – मुस्लिम 1.5%
नॉर्वे – मुस्लिम 1.8%
जब मुस्लिम जनसंख्या 2% से 5% के बीच तक पहुँच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलम्बियों में अपना “धर्मप्रचार” शुरु कर देते हैं, जिनमें अक्सर समाज का निचला तबका और अन्य धर्मों से असंतुष्ट हुए लोग होते हैं, जैसे कि –
डेनमार्क – मुस्लिम 2%
जर्मनी – मुस्लिम 3.7%
ब्रिटेन – मुस्लिम 2.7%
स्पेन – मुस्लिम 4%
थाईलैण्ड – मुस्लिम 4.6%
मुस्लिम जनसंख्या के 5% से ऊपर हो जाने पर वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलम्बियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना “प्रभाव” जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिये वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर “हलाल” का माँस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि “हलाल” का माँस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यतायें प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में “खाद्य वस्तुओं” के बाजार में मुस्लिमों की तगड़ी पैठ बनी। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्केट के मालिकों को दबाव डालकर अपने यहाँ “हलाल” का माँस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी “धंधे” को देखते हुए उनका कहा मान लेता है (अधिक जनसंख्या होने का “फ़ैक्टर” यहाँ से मजबूत होना शुरु हो जाता है), ऐसा जिन देशों में हो चुका वह हैं –
फ़्रांस – मुस्लिम 8%
फ़िलीपीन्स – मुस्लिम 6%
स्वीडन – मुस्लिम 5.5%
स्विटजरलैण्ड – मुस्लिम 5.3%
नीडरलैण्ड – मुस्लिम 5.8%
त्रिनिदाद और टोबैगो – मुस्लिम 6%
इस बिन्दु पर आकर “मुस्लिम” सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके “क्षेत्रों” में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाये (क्योंकि उनका अन्तिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व “शरीयत” कानून के हिसाब से चले)। जब मुस्लिम जनसंख्या 10% से अधिक हो जाती है तब वे उस देश/प्रदेश/राज्य/क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिये परेशानी पैदा करना शुरु कर देते हैं, शिकायतें करना शुरु कर देते हैं, उनकी “आर्थिक परिस्थिति” का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़फ़ोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ़्रांस के दंगे हों, डेनमार्क का कार्टून विवाद हो, या फ़िर एम्स्टर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवाद को समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है, जैसे कि –
गुयाना – मुस्लिम 10%
भारत – मुस्लिम 15%
इसराइल – मुस्लिम 16%
केन्या – मुस्लिम 11%
रूस – मुस्लिम 15% (चेचन्या – मुस्लिम आबादी 70%)
जब मुस्लिम जनसंख्या 20% से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न “सैनिक शाखायें” जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरु हो जाता है, जैसे-
इथियोपिया – मुस्लिम 32.8%
जनसंख्या के 40% के स्तर से ऊपर पहुँच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याऐं, आतंकवादी कार्रवाईयाँ आदि चलने लगते हैं, जैसे –
बोस्निया – मुस्लिम 40%
चाड – मुस्लिम 54.2%
लेबनान – मुस्लिम 59%
जब मुस्लिम जनसंख्या 60% से ऊपर हो जाती है तब अन्य धर्मावलंबियों का “जातीय सफ़ाया” शुरु किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोड़ना, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है, जैसे –
अल्बानिया – मुस्लिम 70%
मलेशिया – मुस्लिम 62%
कतर – मुस्लिम 78%
सूडान – मुस्लिम 75%
जनसंख्या के 80% से ऊपर हो जाने के बाद तो सत्ता/शासन प्रायोजित जातीय सफ़ाई की जाती है, अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है, सभी प्रकार के हथकण्डे/हथियार अपनाकर जनसंख्या को 100% तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है, जैसे –
बांग्लादेश – मुस्लिम 83%
मिस्त्र – मुस्लिम 90%
गाज़ा पट्टी – मुस्लिम 98%
ईरान – मुस्लिम 98%
ईराक – मुस्लिम 97%
जोर्डन – मुस्लिम 93%
मोरक्को – मुस्लिम 98%
पाकिस्तान – मुस्लिम 97%
सीरिया – मुस्लिम 90%
संयुक्त अरब अमीरात – मुस्लिम 96%
बनती कोशिश पूरी 100% जनसंख्या मुस्लिम बन जाने, यानी कि दार-ए-स्सलाम होने की स्थिति में वहाँ सिर्फ़ मदरसे होते हैं और सिर्फ़ कुरान पढ़ाई जाती है और उसे ही अन्तिम सत्य माना जाता है, जैसे –
अफ़गानिस्तान – मुस्लिम 100%
सऊदी अरब – मुस्लिम 100%
सोमालिया – मुस्लिम 100%
यमन – मुस्लिम 100%
दुर्भाग्य से 100% मुस्लिम जनसंख्या होने के बावजूद भी उन देशों में तथाकथित “शांति” नहीं हो पाती। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जिन देशों में मुस्लिम जनसंख्या 8 से 10 प्रतिशत हो चुकी होती है, उन देशों में यह तबका अपने खास “मोहल्लो” में रहना शुरु कर देता है, एक “ग्रुप” बनाकर विशेष कालोनियाँ या क्षेत्र बना लिये जाते हैं, उन क्षेत्रों में अघोषित रूप से “शरीयत कानून” लागू कर दिये जाते हैं। उस देश की पुलिस या कानून-व्यवस्था उन क्षेत्रों में काम नहीं कर पाती, यहाँ तक कि देश का न्यायालयीन कानून और सामान्य सरकारी स्कूल भी उन खास इलाकों में नहीं चल पाते (ऐसा भारत के कई जिलों के कई क्षेत्रों में खुलेआम देखा जा सकता है, कई प्रशासनिक अधिकारी भी दबी जुबान से इसे स्वीकार करते हैं, लेकिन “सेकुलर-देशद्रोहियों” के कारण कोई कुछ नहीं बोलता)।
आज की स्थिति में मुस्लिमों की जनसंख्या समूचे विश्व की जनसंख्या का 22-24% है, लेकिन ईसाईयों, हिन्दुओं और यहूदियों के मुकाबले उनकी जन्मदर को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस शताब्दी के अन्त से पहले ही मुस्लिम जनसंख्या विश्व की 50% हो जायेगी (यदि तब तक धरती बची तो)… भारत में कुल मुस्लिम जनसंख्या 15% के आसपास मानी जाती है, जबकि हकीकत यह है कि उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और केरल के कई जिलों में यह आँकड़ा 40 से 50% तक पहुँच चुका है… अब देश में आगे चलकर क्या परिस्थितियाँ बनेंगी यह कोई भी (“सेकुलरों” को छोड़कर) आसानी से सोच-समझ सकता है…
(सभी सन्दर्भ और आँकड़े : डॉ पीटर हैमण्ड की पुस्तक “स्लेवरी, टेररिज़्म एण्ड इस्लाम – द हिस्टोरिकल रूट्स एण्ड कण्टेम्पररी थ्रेट तथा लियोन यूरिस – “द हज”, से साभार)
यदि इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देखें, तो कोई मुस्लिम सही अर्थों में सेकुलर हो ही नहीं सकता, क्योंकि वे “एकेश्वरवादी” हैं, उनके लिये अल्लाह ही सबसे बड़ी और एकमात्र सच्चाई है और पैगम्बर मोहम्मद के सन्देश पत्थर की लकीर। वे दूसरे धर्मों के देवताओं का अस्तित्व ही नहीं मानते, बल्कि दूसरे मूर्तिपूजकों को वे काफ़िर मानते हैं, ऐसे में भला वे सेकुलर कैसे हो सकते हैं। जब कोई हिन्दू, अपने धर्म या देवी-देवताओं पर सवाल उठाता है तो हिन्दू उस पर बहस करेंगे, उस व्यक्ति की आलोचना करेंगे, उसकी बातों को कम से कम एक बार सुनेंगे और उसके बावजूद उस व्यक्ति का कोई बाल भी बाँका नहीं होगा, जबकि मुस्लिम व्यक्ति अपने ही धर्म के खिलाफ़ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, और सलमान रुश्दी या तसलीमा नसरीन जैसे कुछ लोग यदि समाज में व्याप्त किसी बुराई पर बोलने की कोशिश भी करते हैं तो उनके खिलाफ़ फ़तवे जारी हो जाते हैं, उन्हें जान से मारने की धमकियाँ मिलती हैं, उन्हें अपने ही देश से भागना पड़ता है। हिन्दुओं और मुस्लिमों में यही मुख्य अन्तर है, यानी सहिष्णुता और असहिष्णुता का। हिन्दुओं को दूसरे धर्मों और उनकी पूजा पद्धतियों से कभी कोई आपत्ति नहीं होती, जबकि इस्लाम में दूसरे धर्मों को समान रूप से इज्जत देना तो दूर, उनके लिये कोई जगह छोड़ना भी लगभग गुनाह मान लिया जाता हो, तब ऐसे में भला कैसे कोई मुस्लिम “सेकुलर” हो सकता है? विद्वानों से मैं पूछना चाहता हूँ कि “सेकुलर” की उनकी परिभाषा क्या है? और उस परिभाषा के खाँचे में मुस्लिम धर्मावलम्बी कैसे सेकुलर कहला सकते हैं? इसका दूसरा अर्थ यह भी निकलता है कि कोई व्यक्ति या तो “सेकुलर” हो सकता है या फ़िर “सच्चा मुसलमान”, दोनों एक साथ नहीं हो सकता। और जो आँकड़े तथा विभिन्न देशों की परिस्थियाँ ऊपर दी गई हैं, उससे एक सवाल और भी खड़ा होता है कि आखिर मुस्लिम बहुल देशों में लोकतन्त्र क्यों नहीं पनपता? हालांकि इसका जवाब भी इसी लेख में छुपा हुआ है, लेकिन उस विषय पर बाद में कभी विस्तार से बात करेंगे…
Secularism and Islam, Process of Islamization of a Country, Intolerence in Islam, Muslim Population in Various Countries, Muslim Population and their Behaviour towards Secularism and Democracy, Hinduism and Secularism, Threats to India by Muslim Terrorism, सेकुलरिज़्म और इस्लाम, इस्लामीकरण की प्रक्रिया, इस्लाम में असहिष्णुता, मुस्लिम जनसंख्या और सेकुलरिज़्म तथा लोकतन्त्र पर उनका व्यवहार, हिन्दुत्व और सेकुलरिज़्म, इस्लामी आतंकवाद से भारत के समक्ष खतरे, Blogging, Hindi Blogging, Hindi Blog and Hindi Typing, Hindi Blog History, Help for Hindi Blogging, Hindi Typing on Computers, Hindi Blog and Unicode
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ब्लॉग
शनिवार, 06 दिसम्बर 2008 12:45
क्या तारीखें कुछ कहती हैं? - एक माइक्रो पोस्ट
पहला SMS
13 मई – जयपुर विस्फ़ोट
जून माह – खाली
26 जुलाई – अहमदाबाद विस्फ़ोट
अगस्त माह – खाली
13 सितम्बर – दिल्ली विस्फ़ोट
अक्टूबर माह – खाली
26 नवम्बर – मुम्बई फ़ायरिंग और विस्फ़ोट
दिसम्बर माह – खाली (???) (उम्मीद पर दुनिया कायम है)
13 जनवरी को क्या होने वाला है?
कृपया 13 जनवरी को बहुत सावधान रहें… चौकन्ने रहें और चारों तरफ़ ध्यान रखें…
दूसरा SMS
क्या 26 तारीख भारत के लिये बहुत बुरी है?
26 दिसम्बर – सुनामी
26 जनवरी – कच्छ का भूकम्प
26 फ़रवरी – गोधरा काण्ड
26 जून – गुजरात की भयानक बाढ़
26 जुलाई – मुम्बई ट्रेन ब्लास्ट
26 सितम्बर – अहमदाबाद धमाके
26 नवम्बर – मुम्बई फ़ायरिंग और विस्फ़ोट
कौन- कौन से महीने खाली बचे हैं, उनकी तारीखों पर अपना खयाल रखियेगा…
SMS की दुनिया वाकई निराली है, लेकिन इससे एक बात साबित होती है कि उच्च शिक्षा का “अंकज्योतिष” से कोई लेना-देना नहीं होता तथा लोगों के पास इस तरह का विश्लेषण करने का समय भी होता है… मैंने भी सोचा कि एक माइक्रो-पोस्ट ठेल ही दूँ…
13 मई – जयपुर विस्फ़ोट
जून माह – खाली
26 जुलाई – अहमदाबाद विस्फ़ोट
अगस्त माह – खाली
13 सितम्बर – दिल्ली विस्फ़ोट
अक्टूबर माह – खाली
26 नवम्बर – मुम्बई फ़ायरिंग और विस्फ़ोट
दिसम्बर माह – खाली (???) (उम्मीद पर दुनिया कायम है)
13 जनवरी को क्या होने वाला है?
कृपया 13 जनवरी को बहुत सावधान रहें… चौकन्ने रहें और चारों तरफ़ ध्यान रखें…
दूसरा SMS
क्या 26 तारीख भारत के लिये बहुत बुरी है?
26 दिसम्बर – सुनामी
26 जनवरी – कच्छ का भूकम्प
26 फ़रवरी – गोधरा काण्ड
26 जून – गुजरात की भयानक बाढ़
26 जुलाई – मुम्बई ट्रेन ब्लास्ट
26 सितम्बर – अहमदाबाद धमाके
26 नवम्बर – मुम्बई फ़ायरिंग और विस्फ़ोट
कौन- कौन से महीने खाली बचे हैं, उनकी तारीखों पर अपना खयाल रखियेगा…
SMS की दुनिया वाकई निराली है, लेकिन इससे एक बात साबित होती है कि उच्च शिक्षा का “अंकज्योतिष” से कोई लेना-देना नहीं होता तथा लोगों के पास इस तरह का विश्लेषण करने का समय भी होता है… मैंने भी सोचा कि एक माइक्रो-पोस्ट ठेल ही दूँ…
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गुरुवार, 04 दिसम्बर 2008 12:27
स्वार्थ, अनैतिकता और भ्रष्टाचार से सना हुआ देश आतंकवाद से कैसे लड़ेगा?
Attack on Corruption as well as on Pakistan
मुम्बई की घटना के बाद नौसेना प्रमुख ने माना है कि देश की समुद्री सीमाओं की सुरक्षा में गम्भीर खामियाँ हैं और इन्हें सुधारने की आवश्यकता है। उन्होंने यह भी माना कि जिस शंकास्पद ट्रॉलर को नौसेना ने जाँच हेतु रोका था उसके पास सारे कागजात एकदम सही पाये गये थे। देखने में यह घटना बेहद मामूली सी लग सकती है, लेकिन असल में यह हमारे समूचे “सिस्टम” के सड़ जाने की ओर इशारा करती है। कुछ वर्षों पहले एक मित्र के साथ मुझे भी एक बार मुम्बई के डॉकयार्ड में जाने का सौभाग्य(?) मिला था (डॉकयार्ड में हमारा काम उस स्थान पर था, जहाँ से आयात-निर्यात के माल का कस्टम क्लियरेंस किया जाता है)। मेरा मित्र एक छोटा सा निर्यातक है जो खाड़ी देशों को गारमेंट का निर्यात करता है और उधर से अपनी ही एक अन्य फ़र्म के लिये खजूर और अन्य छोटी-मोटी वस्तुऐं आयात भी करता है। वहाँ (डॉकयार्ड) का माहौल देखकर मेरे जैसा किसी भी सामान्य आदमी की बुद्धि चकरा सकती है। सैकड़ों की संख्या में पैकिंग किये हुए कार्टन्स, बैग, बोरे, कण्टेनर, पीपे, खोखे आदि चारों ओर बिखरे पड़े हुए थे। कस्टम क्लियर करने वाले अधिकारी और कर्मचारी अपनी ड्यूटी इस प्रकार कर रहे थे, मानो वह सामने वाले व्यक्ति पर अहसान कर रहे हों। चारों तरफ़ एक अलसाया हुआ उदासी भरा माहौल था, जैसा कि अमूमन एक सरकारी विभाग में होता है। जबकि वह विभाग कोई मामूली और आम नगर निगम जैसा विभाग नहीं था, वह सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण एक संवेदनशील विभाग है। मेरा मित्र जो कि इन “सरकारी बाबुओं” की नस-नस से वाकिफ़ हो चुका है, उसी ने बताया कि जितनी जल्दी और जितनी ज्यादा “भेंटपूजा” इन कर्मचारियों की होगी उतनी ही जल्दी उसका “माल” यहाँ से “क्लियर” होगा। मैंने देखा और पाया कि उस डॉकयार्ड में आने वाले लगभग सभी लोग, व्यापारी, कर्मचारी, कुली, लाइसेंसशुदा हम्माल आदि आराम से कहीं भी आ-जा रहे थे, किसी भी “माल” को चेक करने की कोई “परम्परा” शायद वहाँ थी ही नहीं, बस जिस व्यापारी/एजेण्ट/दलाल आदि ने जो कागज दिखाया वही माल मान लिया जाता था, भले ही कागज पर लिखा हो कि कण्टेनर में कपड़ा है और अन्दर अफ़ीम भरी हो, कोई देखने-सुनने वाला नहीं। पूरे स्टाफ़ का हिस्सा ऊपर से नीचे तक बँटा हुआ था (और कहीं ईमानदारी हो या नहीं हो भ्रष्टाचार पूरी ईमानदारी से किया जाता है, चपरासी से लेकर ठेठ अफ़सर और मंत्री तक)। कोई भी सहज बुद्धि वाला व्यक्ति सोच सकता है कि भला आतंकवादियों को इतनी मगजमारी करके समुद्र के रास्ते से हथियार लाने की क्या जरूरत है? जबकि वह जब चाहे एक कण्टेनर भरकर हथियार आराम से भारत भिजवा सकता है। एक अंग्रेजी चैनल ने एक “स्टिंग ऑपरेशन” के तहत हमले के दो दिन बाद ही एक बड़ा सा खाली खोखा (जिसे उन्होंने यह माना कि उसमें RDX भरा है) आराम से स्थानीय लोगों के साथ मिलकर ठीक उसी जगह उतार दिया, जिस जगह पर दाऊद इब्राहीम ने कुछ साल पहले अपने हथियार उतारे थे। इस स्टिंग ऑपरेशन में उस चैनल को कुल 10-15 हजार का खर्च आया। अब खुद ही सोचिये कि जब हमले के दो दिन बाद सुरक्षा की ये हालत है तो आगे क्या होगा? या पहले क्या हुआ होगा।
असल समस्या यह है कि अब भारत के लोग “भोगवादी” प्रवृत्ति के हो चुके हैं। खुली अर्थव्यवस्था और पैसे की चकाचौंध ने आँखों पर जो चर्बी चढ़ाई है उसके कारण “देश”, “राष्ट्र”, “नैतिकता”, “अनुशासन” आदि कुछ नहीं दिखाई देता। और भ्रष्टाचार की यह चर्बी सिर्फ़ सरकारी बाबुओं, अफ़सरों, नेताओं और मंत्रियों की आँखों पर ही नहीं है, अब तो यह बीमारी रिसते-रिसते बहुत नीचे स्तर तक, आम आदमी तक पहुँच चुकी है। आज मुम्बई में हुए हमले के विरोध में मोमबत्तियाँ जलाई जा रही हैं, मानव-श्रृंखला बनाई जा रही है, एकता यात्रा निकाली जा रही है, हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा है… क्या वाकई इससे कोई फ़र्क पड़ेगा? मुझे तो नहीं लगता। देश पर हुआ हमला और उसकी प्रतिक्रिया कुछ-कुछ ऐसी है, जैसे कैंसर और लकवे से ग्रस्त एक आदमी की बीवी को छेड़ दिया गया हो और वह मरने-मारने की बातें करने लग पड़ा हो।
ट्रैफ़िक सिग्नल को सरेआम तोड़ते लोग, पकड़े जाने पर पचास-सौ रुपये देकर छूट जाने की मानसिकता लिये हुए लोग आतंकवाद से नहीं लड़ सकते। राशनकार्ड, गैस कनेक्शन, ड्रायविंग लायसेंस जैसे रोजमर्रा के काम करवाने के लिये सरकारी विभागों में नियम तोड़ते-तोड़ते, रिश्वत देते-देते भारत का नागरिक इतना घिस चुका है कि उसमें आतंकवाद से लड़ने की धार ही नहीं बची है, और हाल-फ़िलहाल ये जो कुछ माहौल दिखाई दे रहा है वह मात्र “पेशाब का झाग” भर है, बहुत जल्दी ही नीचे बैठ जायेगा। जिस तरह श्मशान में व्यक्ति “मैं अपनी आँखें दान कर दूँगा…”, “इस दुनिया में क्या रखा है भाई…”, “मोहमाया से दूर रहने में ही भलाई है…” जैसे विचार लेकर खड़ा होता है, और बाहर निकलते ही वापस अपनी दुनिया में रम जाता है, ठीक वैसा ही कुछ हरेक आतंकवादी हमले के बाद भारत में होता आया है। लेकिन जिस देश के लोग भ्रष्टाचार पर नहीं उबलते, किसी मासूम लड़की के बलात्कार और हत्या के बाद भी कोई आंदोलन नहीं करते, बल्कि खुद ही इस जुगाड़ में लगे रहते हैं कि किस तरह से प्रत्येक “सिचुएशन” में मेरा फ़ायदा हो जाये, वह भला आतंकवाद से कैसे लड़ेगा? क्या रक्षा मंत्रालय के किसी अधिकारी को सियाचिन में सैनिकों के जूते खरीदने में भ्रष्टाचार करने के लिये आज तक कोई सजा हुई है? क्या शहीदों को मिलने वाले पेट्रोल पंपों पर कुंडली मारे बैठे नेताओं से आज तक किसी ने जवाबतलब किया है? सेना के ताबूत, राशन, बुलेटप्रूफ़ जैकेटों और यहाँ तक कि सेना के कैंटीन में मिलने वाली सस्ती शराब की अफ़रातफ़री के मामले में आज तक किसी IAS अधिकारी पर कोई मुकदमा चलाया गया है? नहीं ना… फ़िर आप कैसे उम्मीद करते हैं कि रातोंरात देश में कोई क्रान्ति आ जायेगी और देश अचानक अनुशासन की राह पर चल पड़ेगा? आतंकवाद के खिलाफ़ युद्ध लड़ना तो बहुत बाद की बात है, क्या हम लोग रेल्वे स्टेशन या सिनेमा हॉल की टिकट लाइन में ही दस मिनट सीधे खड़े रह सकते हैं? इसलिये जब नौसेना कहती है कि शंकास्पद जहाज के पास कागज पूरे थे तब स्वाभाविक है कि सही और पूरे कागज होना ही है, भारत में लाखों कारें ऐसी हैं जिनके पास “व्यावसायिक LPG से” चलाने के कागज पूरे हैं, लेकिन अमीर लोग उसे चलाते हैं “घरेलू गैस” से, कितनों के ही नौनिहाल अभी 12-14 साल के ही हैं लेकिन सरेआम उन्हें बाइक थमा दी गई है और उनके पास लायसेंस भी है। जब बांग्लादेश से आने के 2 साल के भीतर ही राशनकार्ड बनवाया जा सकता है, नेपाल का एक भगोड़ा हत्यारा कांग्रेस का सांसद बन सकता है, तो “भारत में बने वैध कागज” की क्या और कैसी कीमत है इसके बारे में अलग से क्या बताऊँ। भारत के लोग हमेशा तात्कालिक उपाय के बारे में सोचते हैं, “परमानेंट इलाज” के बारे में नहीं, जैसे कि पहले लाखों कारों का उत्पादन कर लेना, फ़िर बाद में सड़कें बनवाना। युद्ध लड़ना एक तात्कालिक उपाय है, जबकि देशवासियों में नैतिकता, अनुशासन, और ईमानदारी पैदा करना, अन्दरूनी भ्रष्टाचार से लड़ना एक “परमानेंट इलाज” है। मोमबत्ती जलाने वाले और “इनफ़ इज़ इनफ़” का नारा लगाने वालों के नेतृत्व को ध्यान से देखिये, बिजली चोरी करने वाला उद्योगपति, मरीज के साथ जानवर से भी बदतर व्यवहार करने वाला डॉक्टर, बेशर्मी से आगे-आगे दिखने वाला राजनेता, बच्चों के दोपहर भोजन में कमीशन खाने वाला IAS अफ़सर, सभी दिखाई देंगे… आम आदमी तो युद्ध की विभीषिका और खर्च को झेल भी लेगा, लेकिन युद्ध के बाद मोमबत्ती जलाने और रैलियाँ निकालने वाले यही नेता और उद्योगपति उसका खून चूसने में सबसे आगे होंगे… मन में संकल्प लो कि “इन घटिया लोगों से भी निपटेंगे” और युद्ध में कूद पड़ो।
कुछ पाठकों को यह लेख “नकारात्मक” लग सकता है, जबकि मेरा व्यक्तिगत मत है कि पाकिस्तान के साथ युद्ध होना ही चाहिये, भले ही सीधे तौर पर नहीं, लेकिन छापामार शैली में जोरदार कमाण्डो/मिसाइल कार्रवाई तो बहुत ही जरूरी है। जिस तरह से कुछ वर्षों के अन्तराल से झाड़ू लेकर भूत उतारा जाता है वैसे ही हर दस-बारह साल के अन्तराल से पाकिस्तान जैसे देश की धुलाई होती रहनी चाहिये, लेकिन मेरे व्यक्तिगत मत से क्या होता है। अभी तो युद्ध की बात भी ठीक से शुरु नहीं हो पाई है कि देश में समझाइश (यानी विरोध) के स्वर उठने लगे हैं, तमाम बुद्धिजीवी(?) कहने लग पड़े हैं कि “युद्ध कोई इलाज नहीं है…”, “भारत को शांति से काम लेना चाहिये…”, “युद्ध से कुछ हासिल नहीं होगा…”, “शेयर मार्केट 4000 तक पहुँच जायेगा…”, “महंगाई बेतहाशा बढ़ जायेगी…”… आदि-आदि। कहने का तात्पर्य यह है कि अभी तो लड़ाई की मानसिक तैयारी शुरु ही हो रही है कि “भीतरघाती” अपना राग अलापने लगे हैं, ऐसी खण्डित मानसिकता लेकर आतंकवाद से लड़ेंगे??? हम कोई अमेरिका की तरह रोज-रोज युद्ध नहीं लड़ते, युद्ध लड़ना है तो एक स्वर में “हाँ” होनी चाहिये, लेकिन “लड़ाई” हमारे खून में, हमारे संस्कारों में ही नहीं है… और जब देश में आस्तीन के साँप “सेकुलर” और “गाँ……(धी)वादी” लोग मौजूद हैं, “आर या पार” वाला युद्ध तो मुश्किल ही लगता है…
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असल समस्या यह है कि अब भारत के लोग “भोगवादी” प्रवृत्ति के हो चुके हैं। खुली अर्थव्यवस्था और पैसे की चकाचौंध ने आँखों पर जो चर्बी चढ़ाई है उसके कारण “देश”, “राष्ट्र”, “नैतिकता”, “अनुशासन” आदि कुछ नहीं दिखाई देता। और भ्रष्टाचार की यह चर्बी सिर्फ़ सरकारी बाबुओं, अफ़सरों, नेताओं और मंत्रियों की आँखों पर ही नहीं है, अब तो यह बीमारी रिसते-रिसते बहुत नीचे स्तर तक, आम आदमी तक पहुँच चुकी है। आज मुम्बई में हुए हमले के विरोध में मोमबत्तियाँ जलाई जा रही हैं, मानव-श्रृंखला बनाई जा रही है, एकता यात्रा निकाली जा रही है, हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा है… क्या वाकई इससे कोई फ़र्क पड़ेगा? मुझे तो नहीं लगता। देश पर हुआ हमला और उसकी प्रतिक्रिया कुछ-कुछ ऐसी है, जैसे कैंसर और लकवे से ग्रस्त एक आदमी की बीवी को छेड़ दिया गया हो और वह मरने-मारने की बातें करने लग पड़ा हो।
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कुछ पाठकों को यह लेख “नकारात्मक” लग सकता है, जबकि मेरा व्यक्तिगत मत है कि पाकिस्तान के साथ युद्ध होना ही चाहिये, भले ही सीधे तौर पर नहीं, लेकिन छापामार शैली में जोरदार कमाण्डो/मिसाइल कार्रवाई तो बहुत ही जरूरी है। जिस तरह से कुछ वर्षों के अन्तराल से झाड़ू लेकर भूत उतारा जाता है वैसे ही हर दस-बारह साल के अन्तराल से पाकिस्तान जैसे देश की धुलाई होती रहनी चाहिये, लेकिन मेरे व्यक्तिगत मत से क्या होता है। अभी तो युद्ध की बात भी ठीक से शुरु नहीं हो पाई है कि देश में समझाइश (यानी विरोध) के स्वर उठने लगे हैं, तमाम बुद्धिजीवी(?) कहने लग पड़े हैं कि “युद्ध कोई इलाज नहीं है…”, “भारत को शांति से काम लेना चाहिये…”, “युद्ध से कुछ हासिल नहीं होगा…”, “शेयर मार्केट 4000 तक पहुँच जायेगा…”, “महंगाई बेतहाशा बढ़ जायेगी…”… आदि-आदि। कहने का तात्पर्य यह है कि अभी तो लड़ाई की मानसिक तैयारी शुरु ही हो रही है कि “भीतरघाती” अपना राग अलापने लगे हैं, ऐसी खण्डित मानसिकता लेकर आतंकवाद से लड़ेंगे??? हम कोई अमेरिका की तरह रोज-रोज युद्ध नहीं लड़ते, युद्ध लड़ना है तो एक स्वर में “हाँ” होनी चाहिये, लेकिन “लड़ाई” हमारे खून में, हमारे संस्कारों में ही नहीं है… और जब देश में आस्तीन के साँप “सेकुलर” और “गाँ……(धी)वादी” लोग मौजूद हैं, “आर या पार” वाला युद्ध तो मुश्किल ही लगता है…
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