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दिनांक 10 मार्च 2010
भारत की टीम पाँच देशों के टूर्नामेण्ट में खेल रही है, अन्य चार देश हैं सूडान, लीबिया, फ़िजी और आईसलैंड । आज भारत की क्रिकेट टीम का बहुत ही महत्वपूर्ण मैच है, उसे सूडान को हर हालत में हराना है, यदि वह आज का मैच जीत जाती है तो उसे 2011 में होने वाले विश्व कप में 35 वीं रैंक मिल जायेगी..मैच की सुबह गुरु ग्रेग और राहुल ने मैच की रणनीति बनाने के लिये टीम मीटिंग बुलाई ।

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चौंकिये नहीं... नोबेल पुरस्कार क्रिकेट टीम को भी मिल सकता है... अब देखिये ना जब से हमारी क्रिकेट टीम यहाँ से विश्व कप खेलने गई थी... तो वह कोई कप जीतने-वीतने नहीं गई थी...वह तो निकली थी एक महान और पवित्र उद्देश्य..."विश्व बन्धुत्व" का प्रचार करने । जब प्रैक्टिस मैच हुए तो भारत की टीम ने दिखा दिया कि क्रिकेट कैसे खेला जाता है... लेकिन जब असली मैच शुरू हुए तो भारत की टीम पहला मैच बांग्लादेश से हार गई...

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बुधवार, 21 मार्च 2007 20:34

Eclipse of Sun and Moon (World Water Day)

सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण और मान्यतायें (जल दिवस पर) 


अभी-अभी गत दिनों चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण दोनों आगे-पीछे ही पडे़ । उज्जैन में चूँकि धर्म का एक विशेष स्थान है और यह धार्मिक नगरी कहलाती है, इसलिये यहाँ के स्थानीय अखबारों और पंडे-पुजारियों से लेकर प्रशासन तक में एक बहस हुई, "शहर को जलप्रदाय किस समय किया जाये ?" भाई लोगों ने तमाम अखबार रंग डाले, हर ऐरे-गैरे का इंटरव्यू भी ले लिया...

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बुधवार, 21 मार्च 2007 16:26

एक दिन सन २०२८ का

"स्व-आचार संहिता" : (यह लेख नईदुनिया इन्दौर में ३०.०४.२००६ को प्रकाशित हो चुका है) यह लेख / चुटकुला / घटना... एक ई-मेल पर आधारित / अनुवादित है, जिसके लेखक की मुझे जानकारी नहीं है । यदि कोई इसके मूलस्रोत के बारे में जानता हो तो कृपया मुझे सप्रमाण लिंक मेल करें, ताकि उसे इस लेख में जोडा़ जा सके ।

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रविवार, 18 मार्च 2007 11:17

Youth Power in India, Young Generation in India


देश बनाने के लिये चाहिये क्रांतिकारी युवा


देश, जितना व्यापक शब्द है, उससे भी अधिक व्यापक है यह सवाल कि देश कौन बनाता है ? नेता, सरकारी कर्मचारी, शिक्षक, मजदूर, वरिष्ठ नागरिक, साधारण नागरिक.... आखिर कौन ? शायद ये सब मिलकर देश बनाते होंगे... लेकिन फ़िर भी एक और प्रश्न है कि इनमें से सर्वाधिक भागीदारी किसकी ? तब तत्काल दिमाग में विचार आता है कि इनमें से कोई नहीं, बल्कि वह समूह जिसका ऊपर जिक्र तक नहीं हुआ...
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शनिवार, 17 मार्च 2007 20:04

Save Water, Save Environment, Green Man in India

हरित मानव का पुनरागमन


लापोडिया (राजस्थान) में विगत वर्ष बहुत ही अल्प बारिश हुई । गाँव में वैसे तो तीन विशाल आकार के तालाब, जिनका नामकरण सौन्दर्यशास्त्र के आधार पर अन्नासागर, देवसागर और फ़ूलसागर... खाली पडे़ हुए थे । परन्तु, लापोडिया, जो सूरज की तीव्रता से झुलसता हुआ एक छोटी सी बस्ती वाला गाँव है और जयपुर से ८० किलोमीटर दूरी पर दक्षिण-पश्चिम मे स्थित है, में ना तो झुलसती हुई धरती को शांत करने के लिये कोई यज्ञ आयोजित किये गये और ना ही पानी के अतिरिक्त टैंकरों की जरूरत महसूस की गई । जो थोडे लोग गाँव छोडकर गये वे भी जयपुर में रोजगार की तलाश में गये थे ।

लेकिन आज अन्य गाँवों से भिन्न लापोडिया के कुँए पानी से लबालब भरे हुए हैं । खेत के किनारे हरी पत्तियों वाली साग-सब्जी, पालक, मैथी, आलू, मूली आदि से पटे हैं । हर परिवार के पास अलग से अतिरिक्त स्थान है, जिसमें उन्होंने पशु आहार के लिये ताजा हरा चारा उगा रखा है । गाँव से प्रतिदिन १६ हजार लीटर दूध का विक्रय होता है । यहाँ पर वृक्ष जैसे - नीम, पीपल, पान, खैर, देशी बबूल आदि की बहार है और पूरा गाँव सैकडों अजनबी पक्षियों की चहचहाहट से रोमांचित हो उठता है, जिसे एक पक्षी प्रेमी ही समझ सकता है । यह सारा दृश्य एक पक्षी अभयारण्य का रूप अख्तियार कर लेता है ।

लापोडिया को कोई दैवीय आशीर्वाद प्राप्त नहीं हो गया है, यह सब चमत्कार है श्री लक्ष्मण सिंह की बाजीगरी का । एक ऐसा ग्रामीण व्यक्ति, जो किसी महाविद्यालय में अध्ययन के लिये नहीं गया, किन्तु उसने दिन-प्रतिदिन के अपने अनुभवों एवं पारम्परिक ज्ञान को गूँथकर जल-संग्रहण की एक अनूठी पद्धति विकसित की । जिसका नाम उसने "चोका" रखा - जो एक छोटे बाँध के स्वरूप में जटिल ग्रिड वाली संरचना है, जिसमें पानी की हर बूँद जो धरा के ऊपर और भीतर मौजूद है, को संग्रहीत किया जाता है । पूर्व में जो पानी ऊपर मौजूद था, वह या तो खपत हो जाता था या सूख जाता था, किन्तु भूमिगत जल जो धरती के अन्दर है, छुपा ही रहता था । इस पानी में गाँव के १०३ कुँए कभी नहीं सूखने देने की क्षमता मौजूद थी । लक्ष्मणसिंह की इस ठेठ देशी सोच नेण दूर तक बसे लोगों का ध्यान आकर्षित किया । दो वर्ष पूर्व सूखे से झुलसते हुए अफ़गानिस्तान का एक प्रथिनिधिमण्डल पूर्वी राजस्थान के इस गाँव में लक्ष्मणसिंह से जल संग्रहण की इस तकनीक को करीब से जानने-समझने के उद्देश्य से आया था । मध्यप्रदेश शासन ने भी एक अध्ययन दल भेजा, राजस्थान सरकार भी लापोडिया के उदाहरण को लेकर एक "हैण्डबुक" निकालने जा रही है । किन्तु इन सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अडोस-पडो़स के कई गाँवों जैसे जयपुर जिले के मेत, चापियाँ एवं ईटनखोई तथा टोंक जिले के बालापुरा, सेलसागर और केरिया में "चोका पद्धति" सफ़लतापूर्वक अंगीकार की गई है ।

५१ वर्षीय लक्ष्मणसिंह जो अपना स्वयं का एक एनजीओ "ग्राम विकास नवयुवक मण्डल" चलाते हैं, का कहना है कि अन्या गाँवों में भी इस काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं" । २०० परिवारों की बस्ती वाला यह गाँव पहले कभी ऐसा नहीं था । लापोडिया का शाब्दिक अर्थ है "झक्की लोग" जो एक सन्देहपूर्ण नाम इसके झगडालू प्रवृत्ति वाले लोगों के कारण मिला होगा । लक्ष्मण सिंह जी के पिता एक जमींदार थे, कहते हैं कि वे सब कुछ बदल देना चाहते है, जो लोग इस गाँव के बारे में धारणा बनाये हुए हैं । एक दिन टोंक जिले के समीप स्थित पारले गाँव का भ्रमण करते हुए वे एक "बुण्ड" (कच्ची मिट्टी की दीवारें) के सम्पर्क में आये । सिंह कहते हैं कि इनको देखकर ही उनके मस्तिष्क में "चोका पद्धति" को विकसित करने के बीज अंकुरित हुए । अगले पाँच वर्ष तक वे "बुण्ड" के आसपास के वातावरण का अवलोकन करते रहे और जल संरक्षण की इस तकनीक को विकसित करने में जुट गये ।

इसकी आधारभूत संरचना काफ़ी सरल है, इसमें बारिश का पानी जो धरती द्वारा सोख जाता है वाष्प बनकर उड़ता नहीं है और यदि रोका जाये तो इसका उपयोग जब जरूरत हो तब किया जा सकता है । इस तरह से धरती के भीतर मौजूद पानी की हर बूँद को संरक्षित किया जा सकता है । सिंह इस दिशा एवं विचार पर काम करना शुरू किया, और वे कहते हैं कि "मैं जिला अधिकारियों के पास सहायता के लिये गया, किन्तु वे मुझ पर हँसे और उन्होंने मुझसे कहा कि यह सम्भव नहीं है, और पूछा कि तुम किस महाविद्यालय मे अध्ययन के लिये गये हो ?" वर्ष १९९४ के लगभग सिंह ने एक "चोका मॉडल" विकसित कर लिया था । अब इसका लाभ स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है, यह सब आँखों के सामने है । नंगी आँखों से चरागाह सूखे दिखाई पडते हैं, लेकिन यह छोटी घास से भरे पडे हैं, जिसमें पालतू पशु चरते हैं । विगत आठ वर्षों से बारिश नियमित नहीं है किन्तु कुँए भरे हुए हैं । गाँव वालों ने सामूहिक पद्धति और सहमति रखकर ५०% भूमि पर ही खेती-बाडी़ करने का निर्णय ले रखा है । इसी तरह कुँए भी सिंचाई के लिये सुबह के वक्त ही उपयोग में लिये जाते हैं ।
सिंह कहते हैं कि "हमें प्रकृति से वही लेना चाहिये जो वह हमें गर्व से और सहर्ष दे, यदि आप जोर-जबर्दस्ती से कुछ छीनना चाहेंगे तो प्रकृति स्वयं की संपूर्ति और आपकी आपूर्ति नहीं कर सकती" । 

परिणामस्वरूप आज लापोडिया में पक्षी बिना भय के चहचहाते हैं और खेत-खलिहान में हरियाली बिछी हुई है ।

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गुरुवार, 15 मार्च 2007 19:39

Beggers and Begging in India as Career




 

भीख और भिखारी : उम्दा व्यवसाय ? 

उक्त समाचार १५.०३.२००७ के "नईदुनिया" में छपा है....जरा सोचिये जब ३६ हजार की सिर्फ़ प्रीमियम है तो बीमा कितने का होगा और उसकी कमाई कितनी होगी ?
संभाजी काले और उनका चार सदस्यों वाला परिवार रोजाना एक हजार रुपये कमाता है, उनके बैंक खाते में कभी भी चालीस हजार रुपये से कम की रकम नहीं रही है । उन्होंने कई कम्पनियों में निवेश भी किया है, उनका एक फ़्लैट मुम्बई के उपनगर विरार में है और सोलापुर में पुश्तैनी जमीन तथा दो मकान हैं । आप सोच रहे होंगे, क्या यह परिवार शेयर ब्रोकर है ? या मध्यम वर्ग का कोई व्यापारी ? जी नहीं, संभाजी काले साहब अपने पूरे परिवार के साथ मुंबई में भीख माँगते हैं । चौंकिये नहीं, यह सच है और ऐसी ही चौंकाने वाली जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं जब "सोशल डेवलपमेंट सेंटर" (एसडीसी) मुम्बई के छात्रों नें डॉ.चन्द्रकान्त पुरी के निर्देशन में एक सामाजिक सर्वे किया । सर्वे के मुताबिक संभाजी काले जैसे कई और भिखारी (?) मुम्बई में मौजूद हैं । चूँकि सर्वे पूरी तरह से निजी था (सरकारी नहीं) इसलिये कुछ भिखारियों ने अपनी सही-सही जानकारी दे दी, लेकिन अधिकतर भिखारियों ने अपनी सम्पत्ति और आय के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताया । फ़िर भी सर्वे करने वालों ने बडी मेहनत से कई चौंकाने वाले आँकडे खोज निकाले हैं । संभाजी काले के अनुसार वे पच्चीस साल पहले मुम्बई आये थे । कई छोटी-मोटी नौकरियाँ की, शादी की, कई सपने देखे, लेकिन पाया कि एक धोखाधडी के चलते वे सड़क पर आ गये हैं । फ़िर उन्होंने तय किया कि वे सपरिवार भीख माँगेंगे । ट्रैफ़िक सिअगनल के नीचे रखे लकडी के बडे खोके की ओर इशारा करते हुए वे कहते हैं "यही मेरा घर है" । काले का बाकी परिवार खार (मुम्बई का एक उपनगर) में रहता है, विरार में नहीं जहाँ उनका फ़्लैट है, क्योंकि खार से अपने "काम" की जगह पर पहुँचना आसान होता है । विरार तक आने जाने में समय भी खराब होता है । काले परिवार का सबसे बडा लडका सोमनाथ सबसे अधिक भीख कमाता है, क्योंकि वह अपनी एक टाँग खो चुका है (एक बार बचपन में भीख माँगते वक्त वह कार के नीचे आ गया था) । काले परिवार में तीन बच्चे और हैं - दो लड़कियाँ और एक लड़का । कुल जमा छः लोग भीख माँगकर आराम से एक हजार रुपये कमा लेते हैं । काले कहते हैं कि बुरे से बुरे दिनों में भी (अर्थात जब मुम्बई महानगरपालिका उन्हें अचानक खदेडने लग जाये, बन्द का ऐलान हो जाये, कर्फ़्यू लग जाये, लगातार दो-तीन दिन छुट्टी आ जाये आदि) वे तीन-चार सौ रुपये तो कमा ही लेते हैं । इस भिखारी परिवार को खार में बहुतेरे लोग जानते हैं और मजेदार बात यह है कि बैंक के कागजात या चिट्ठी-पत्री आदि भी उन तक पहुँच जाती हैं । उनका कहना है कि यह सब उनके अच्छे व्यवहार और पोस्टमैन से "सेटिंग" की वजह से हो पाता है । उक्त सर्वे के अनुसार प्रत्येक भिखारी औसतन प्रतिदिन दो-तीन सौ रुपये तो कमा ही लेता है और उनकी पसन्दीदा जगहें होती हैं ट्रैफ़िक सिग्नल और धार्मिक स्थान । पुरी साहब के अनुसार मात्र पन्द्रह प्रतिशत भिखारी ही असली भिखारी हैं, जिनमें से कुछ वाकई गरीब हैं । जिनमें से कुछ विकलांग हैं, कुछ ऐसे हैं जिन्हें उनके बेटों ने घर से निकाल दिया है, बाकी के पिचासी प्रतिशत भिखारी सिर्फ़ इसी "काम" के लिये अपने गाँव से मुम्बई आये हैं । वे बाकायदा छुट्टी मनाते हैं, अपने गाँव जाते हैं, होटलों में जाते हैं । उस वक्त वे अपनी "जगह" या "सिग्नल" दूसरे भिखारी को लीज पर दे देते हैं और प्रतिशत के हिसाब से उनसे पैसे वसूलते हैं । इच्छित जगह पाने के लिये कभी-कभी इनमें भयंकर खून-खराबा भी होता है और इनके गैंग लीडर (जो कि कोई स्थानीय दादा या किसी विख्यात नेता का गुर्गा होता है) बाकायदा मामले सुलझाते हैं, जाहिर है इसमें अंडरवर्ल्ड की भी भूमिका होती है । अपने-अपने इलाके पर कब्जे को लेकर इनमें गैंगवार भी होते रहते हैं । भिखारियों के अलग-अलग समूह बनाकर उनका वर्गीकरण किया जाता है, बच्चों को पहले चोरी करना, जेब काटना और ट्रेनों में सामान पार करना सिखाया जाता है, फ़िर उनमें से कुछ को भीख माँगने के काम में लिया जाता है । एक बार सरकार ने भिखारियों के पुनर्वास के लिये इन्हें काम दिलवाने की कोशिश की लेकिन कुछ दिनों के बाद वे पुनः भीख माँगने लगे । मुम्बई में लगभग एक लाख भिखारी हैं, इनके काम के घंटे बँधे होते हैं । शाम का समय सबसे अधिक कमाई का होता है । धार्मिक महत्व के दिनों के अनुसार वे अपनी जगहें बदलते रहते हैं । मंगलवार को सिद्धिविनायक मन्दिर के बाहर, बुधवार को संत माईकल चर्च, शुक्रवार को हाजी अली दरगाह और रविवार को महालक्ष्मी मन्दिर में उनका धन्धा चमकदार होता है । यह खबर भी अधिक पुरानी नहीं हुई है कि राजस्थान के पुष्कर में एक भिखारी करोडपति है और बाकायदा मोटरसायकल से भीख माँगने आता है । तिरुपति में एक भिखारी ब्याज पर पैसे देने काम करता है ।

इसलिये भविष्य में किसी भिखारी को झिडकने से पहले सोच लीजिये कि कहीं वह आपसे अधिक पैसे वाला तो नहीं है ? और सबसे बडी बात तो यह कि क्या आप उसे भीख देंगे ?

तो भाईयों सॉफ़्टवेयर इंजीनियर नहीं बन सकें, तो एक चमकदार कैरियर (वो भी टैक्स फ़्री) आपका इंतजार कर रहा है .... smile_teeth
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रविवार, 11 मार्च 2007 16:26

Hindi Language in India and Hindi Diwas

"सुद्ध" नहीं "शुद्ध" हिन्दी बोलो / लिखो


हमारी राष्ट्रभाषा अर्थात हिन्दी, जिसकी देश में स्थापना के लिये अब तक न जाने कितने ही व्यक्तियों, विद्यालयों और संस्थाओं ने लगातार संघर्ष किया, इसमें वे काफ़ी हद तक सफ़ल भी रहे हैं । अब तो दक्षिण से भी हिन्दी के समर्थन में आवाजें उठ रही हैं, और हमारी प्यारी हिन्दी धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रही है और अब इसे कोई रोक भी नहीं सकता । वैसे भी "बाजार"की ताकतें बहुत बडी हैं और हिन्दी में "माल" खींचने की काफ़ी सम्भावनायें हैं इसलिये कैसे भी हो हिन्दी का झंडा तो बुलन्द होकर रहेगा । तमाम चैनलों के चाकलेटी पत्रकार भी धन्धे की खातिर ही सही टूटी-फ़ूटी ही सही, लेकिन हमें "ईराक के इन्टेरिम प्रधानमन्त्री मिस्टर चलाबी ने यूएन के अध्यक्ष से अधिक ग्रांट की माँग की है" जैसी अंग्रेजी की बघार लगी हिन्दी हमें झिलाने लगे हैं, खैर कैसे भी हो हिन्दी का प्रसार तो हो रहा है ।

परन्तु हिन्दी बेल्ट (जी हाँ, जिसे अंग्रेजों और हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों की एक जमात ने "गोबर पट्टी" का नाम दे रखा है, पता नहीं क्यों ?) अर्थात उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश के रहवासी शुद्ध हिन्दी लिखना तो दूर, ठीक से बोल भी नहीं पाते हैं, यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है । इन प्रदेशों को हिन्दी का हृदय-स्थल कहा गया है, अनेक महान साहित्यकारों की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि यही चारों प्रदेश रहे हैं और इस पर गर्व भी किया जाता है । हिन्दी साहित्य को अतुलनीय योगदान इन्हीं प्रदेशों की विभूतियों ने दिया है । इन्हीं चारों प्रदेशों का गठन भाषा के आधार पर नहीं हुआ, इसलिये जहाँ बाकी राज्यों की हिन्दी के अलावा कम से कम अपनी एक आधिकारिक भाषा तो है, चाहे वह मराठी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, उडिया, बंगाली, पंजाबी, मणिपुरी, कोंकणी आदि हों, वहीं दूसरी ओर से इन चारों हिन्दी प्रदेशों की आधिकारिक भाषा हिन्दी होते हुए भी आमजन में इसकी भीषण दुर्दशा साफ़ देखी जा सकती है । इन प्रदेशों में, मालवी है, बुन्देलखंडी है, बघेली, निमाडी़, भोजपुरी, अवधी और भी बहुत सी हैं.... गरज कि हिन्दी को छोडकर सभी अपनी-अपनी जगह हैं, और हिन्दी कहाँ है ? हिन्दी अर्थात जिसे हम साफ़, शुद्ध, भले ही अतिसाहित्यिक और आलंकारिक ना हो, लेकिन "सिरी बिस्वास" (श्री विश्वास) जैसी भी ना हो । ऐसी हिन्दी कहाँ है, क्या सिर्फ़ उपन्यासों में, सहायक वाचनों, बाल भारती, आओ सुलेख लिखें जैसी किताबों में । आम बोलचाल की भाषा में जो हिन्दी का रूप हमें देखने को मिलता है उससे लगता है कि कहीं ना कहीं बुनियादी गड़बडी है । यहाँ तक कि प्रायमरी और मिडिल स्कूलों में पढाने वाले कई अध्यापक / अध्यापिकायें स्नातक और स्नातकोत्तर होने के बावजूद सरेआम... "तीरंगा" और "आर्शीवाद" लिखते हैं, और यही संस्कार (?) वे नौनिहालों को भी दे रहे हैं, फ़िर उनके स्नातकोत्तर होने का क्या उपयोग है ? आम तौर पर देखा गया है कि 'श' को 'स' और 'व' को 'ब' तो ऐसे बोला जाता है मानो दोनों एक ही शब्द हों और उन्हें कैसे भी बोलने पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता । "अरे बिस्नू जी जे डीस तो बासेबल है" (विष्णु जी यह डिश वाशेबल है) सुनकर भला कौन अपना सिर नहीं पीट लेगा ?

लेकिन जैसा कि पहले ही कहा गया कि मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्सों में ऐसी हिन्दी बोलना कतई गलत नहीं माना जाता, बल्कि यह आम बोलचाल की भाषा बन गई है, लेकिन हिन्दी ही कहलाती है । कई स्थानीय चैनलों के समाचारों में 'चेनल' (चैनल), टावर चोक (चौक), बेट (बैट) और रेट (रैट) हमेशा सुनाई दे जाता है, जो कि बडा़ भद्दा लगता है । लेकिन जब "बिद्या" प्रदान करने वाले ही गलत-सलत पढायेंगे तो भविष्य में उसे ठीक करना मुश्किल हो जाता है । इसके मूल में है शुद्ध संस्कृत के अध्ययन का अभाव । जो अध्यापक या विद्यार्थी संस्कृत की तमाम क्रिया, लकारों के साथ शुद्ध बोल पायेंगे वे कभी भी हिन्दी में बोलते समय या लिखते समय "ब्योपारी", "बिबेक" या "संबिधान संसोधन" जैसी गलती कर ही नहीं सकते । रही-सही कसर हिन्दी को "हिंग्रेजी" बना देने की फ़ूहड़ कोशिश करने वालों के कारण हो रही है । खामख्वाह अपनी विद्वत्ता झाडने के लिये हिन्दी के बीच में अंग्रेजी शब्दों को घुसेड़ना एक फ़ैशन होता जा रहा है । यदि अंग्रेजी शब्द सही ढंग और परिप्रेक्ष्य में बोला जाये तो भी आपत्ति नहीं है, लेकिन "छत पर बाऊंड्री वॉल" (अर्थात पैराफ़िट वॉल), या "सिर में हेडेक", "सुबह मॉर्निंग में ही तो मिले थे", "उन्हें बचपन से बहुत लेबर करने की आदत है इसीलिये आज वे एक सेक्सीफ़ुल व्यक्ति हैं" सुनकर तो कोई भी कपडे़ फ़ाडने पर मजबूर हो जायेगा ।

जब किसी बडे अधिकारी या पढे-लिखे व्यक्ति के मुँह से ऐसा कुछ सुनने को मिलता है तो हैरत के साथ-साथ क्षोभ भी होता है, कि वर्षों से हिन्दी क्षेत्र में रहते हुए भी वे एक सामान्य सी साफ़ हिन्दी भी नहीं बोल पाते हैं और अपने अधीनस्थों को सरेआम "सांबास-सांबास" कहते रहते हैं, किसी अल्पशिक्षित व्यक्ति या सारी जिन्दगी गाँव में बिता देने वाले किसी वृद्ध के मुँह से ऐसी हिन्दी अस्वाभाविक नहीं लगती, लेकिन किसी आईएएस अधिकारी या प्रोफ़ेसर के मुँह से नहीं । इसलिये हमें "दुध" (दूध), "लोकि" (लौकी), "शितल" (शीतल) आदि लिखे पर ध्यान देने की आवश्यकता तो है ही, बल्कि क्या और कैसे बोला जा रहा है, क्या उच्चारण किया जा रहा है, इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है । आईये प्रण करें कि भविष्य में जब कभी किसी से "पीछे का बैकग्राऊंड", "आगे का फ़्यूचर", "ओवरब्रिज वाला पुल", "मेरा तो बैडलक ही खराब है", जैसे वाक्य सुनाई दे जायें तो तत्काल उसमें सुधार करवायें, भले ही सामने वाला बुरा मान जाये...

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रविवार, 11 मार्च 2007 12:46

Clap for 2 minutes and be Fit and Healthy

ताली बजाओ, स्वस्थ रहो चिकित्सा


वैसे तो इस विषय के बारे में बहुत से बन्धु जानते होंगे, परन्तु मुझे लगा कि यदि कोई नहीं जानता तो उसके लिये यह एक उपयोगी सामग्री होगी.... उज्जैन के ही एक शख्स श्री अरुण ऋषि का एक न्यास है जिसका नाम है "आरोग्यवान भवः न्यास"... तो अरुण जी के अनुसार यदि रोज प्रातः हम दो मिनट ताली बजायें तो हमारा शरीर स्वस्थ रह सकता है । ताली बजाने की विधि इस प्रकार है कि - हमारी दोनों हथेलियाँ पूरी खुली हों अर्थात दोनों हथेलियों के सभी बिन्दु आपस में अधिक से अधिक स्पर्श करें । खुली हवा में बैठें या खडे़ रहें...पूरी खुली हथेलियों को आपस में जोर से टकरायें... लेकिन शुरुआत में धीरे-धीरे कुछ सेकंड तक फ़िर उसे तेज करते जायें... लगभग एक मिनट तक लगातार ताली बजाने पर आपकी हथेलियों मे थोडी सी गर्मी आ जायेगी या हो सकता है कि किसी व्यक्ति की हथेलियों में हल्की सी जलन होने लगे... तब रुक जायें... दोनों हथेलियों को आपस में रगडें... और चेहरे पर मालिश करें... यही प्रक्रिया कुछ देर बाद जब हथेलियों की गर्मी, जलन खत्म हो जाये फ़िर से एक मिनट के लिये ताली बजायें... इस प्रकार कुल दो मिनट ताली रोज सुबह बजायें... इसके साथ ही रोज नहाते वक्त अपने पैरों के तलवे रगड़-रगड़ कर साफ़ करें... जैसे-जैसे आपके तलवे चमकदार होते जायेंगे, आपके चेहरे पर भी तेज बढता जायेगा... वैसे तो यह आजमाया हुआ तरीका है, लेकिन यदि किसी को इस पर विश्वास नहीं हो रहा हो तो वे कृपया इसे एक-दो महीने तक करके देखें, क्योंकि इसमे नुकसान कुछ भी नहीं है, सिर्फ़ फ़ायदा ही फ़ायदा है... उपरोक्त ताली चिकित्सा और कुछ नहीं बल्कि चीनी "एक्यूप्रेशर" का सरलतम रूप है... इसका वैज्ञानिक आधार यह है कि जब हम जोर-जोर से ताली बजाते हैं तो हमारे हथेलियों में स्थित सूक्ष्म बिन्दु जिनसे सारे शरीर को रक्त की आपूर्ति होती है वे सक्रिय हो जाते हैं । उन रक्त नलिकाओं पर दबाव बनता है और प्रातः की शुद्ध प्राणवायु के साथ मिलकर वह खराब रक्त को स्वच्छ करता है । साथ ही हृदय की धमनियों को जो रक्त जाता है वह भी अतिरिक्त शुद्ध होकर जाता है... जब आप एक मिनट तक लगातार ताली बजायेंगे तो आपको पसीना आयेगा, जिससे घबराने की आवश्यकता नहीं है... यदि एक मिनट तक लगातार नहीं बजा सकते हैं तो कोई बात नहीं जब हाथ में दर्द सा महसूस होने लगे, तत्काल रुक जायें... फ़िर कुछ देर बाद बजायें... धीरे-धीरे प्रैक्टिस से आप लगातार दो मिनट तक जोर-जोर से ताली बजा पायेंगे... यही एक्यूप्रेशर तकनीक तलुवों में भी काम करती है । हमारे शरीर के सभी अंगों के लिये हथेलियों और तलुवों में बिन्दु बने होते है सिर्फ़ उनपर दबाव देना होता है और सारी रक्त नलिकायें खुलती चली जाती हैं । ताली चिकित्सा का आधार हमारी आरतियों में भी समाहित है, जब सभी मिलकर ताली बजाते थे और आरती गाते थे । वैसे भी यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है कि घंटियों की आवाज से हवा में मौजूद सूक्ष्म कीटाणु और बैक्टीरिया मर जाते हैं । तो भाईयों... रोज दो मिनट ताली बजायें, नहाते वक्त तलवे रगडें और स्वस्थ रहें ।

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क्या किसी देश का इतिहास या उसकी पौराणिक मान्यतायें शर्म का विषय हो सकती हैं ? यदि हजारों वर्षों के इतिहास में कोई शर्म का विषय है भी, तो उसके मायने अलग-अलग समुदायों के लिये अलग-अलग क्यों होना चाहिये ? यह सवाल आजकल कई लोगों के मनोमस्तिष्क को झकझोर रहा है । इतिहास के साथ छेड़छाड़ करना शासकों का प्रिय शगल रहा है, लेकिन जब बुद्धिजीवी वर्ग भी उसी मुहिम में शामिल हो जाये तो फ़िर यह बहस का विषय हो जाता है.

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