MP Assembly Elections 2013 - An Overview and Assessment
Written by Super User शुक्रवार, 22 नवम्बर 2013 11:54
विधानसभा चुनाव २०१३ – मध्यप्रदेश का
राजनैतिक परिदृश्य और विश्लेषण...
अन्य चार राज्यों के साथ ही मध्यप्रदेश
विधानसभा चुनावों की रणभेरी बज चुकी है, और सेनाएँ अपने-अपने “अश्वों-हाथियों और प्यादों” के साथ इलाके में कूच कर चुकी हैं. अमूमन राज्यों
के चुनाव देश के लिए अधिक मायने नहीं रखते, परन्तु यह विधानसभा चुनाव इसलिए
महत्त्वपूर्ण हो गए हैं क्योंकि सिर्फ छह माह बाद ही देश के इतिहास में सबसे अधिक
संघर्षपूर्ण लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं, तथा भाजपा द्वारा नरेंद्र मोदी को
प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद यह पहले विधानसभा चुनाव
हैं... ज़ाहिर है कि सिर्फ भाजपा ही नहीं नरेंद्र मोदी का भी बहुत कुछ इन विधानसभा
चुनावों में दाँव पर लगा है. यदि भाजपा इन पांच में से तीन राज्यों में भी अपनी
सरकार बना लेती है, तो पार्टी के अंदर नरेंद्र मोदी का विरोध लगभग खत्म हो जाएगा,
और यदि भाजपा सिर्फ मप्र-छग में ही दुबारा सत्ता में वापस आती है तो यह माना जाएगा
कि मतदाताओं के मन में मोदी का जादू अभी शुरू नहीं हो सका है. बहरहाल, राष्ट्रीय
परिदृश्य को हम बाद में देखेंगे, फिलहाल नज़र डालते हैं मध्यप्रदेश पर.
मप्र में वर्तमान विधानसभा चुनाव इस बार
बिना किसी लहर अथवा बिना किसी बड़े मुद्दे के होने जा रहे हैं. २००३ के चुनावों में
जनता के अंदर “दिग्विजय सिंह के कुशासन विरोधी”
लहर चल रही थी, जबकि
२००८ के चुनावों में भाजपा ने उमा भारती विवाद, बाबूलाल गौर के असफल और बेढब
प्रयोग के बाद शिवराज सिंह चौहान जैसे “युवा और फ्रेश” चेहरे को मैदान में उतारा था. मप्र के
लोगों के मन में दिग्गी राजा के अंधियारे शासनकाल का खौफ इतना था कि उन्होंने
भाजपा को दूसरी बार मौका देना उचित समझा. देखते-देखते भाजपा शासन के दस वर्ष बीत
गए और २०१३ आन खड़ा हुआ है. पिछले दस वर्ष से मप्र-छग-गुजरात में लगातार चुनाव हार
रही कांग्रेस के सामने इस बार बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि अक्सर देखा गया है कि
जिन राज्यों में कांग्रेस तीन-तीन चुनाव लगातार हार जाती है, वहाँ से वह एकदम साफ़
हो जाती है – तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, उत्तरप्रदेश, गुजरात और बिहार जैसे जीवंत
उदाहरण मौजूद हैं, जहां अब कांग्रेस का कोई नामलेवा नहीं बचा है. स्वाभाविक है कि
मप्र-छग में कांग्रेस अधिक चिंतित है, खासकर छत्तीसगढ़ में, जहां कांग्रेस का
समूचा नेतृत्व ही नक्सली हमले में मारा गया.
मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान का
मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने शुरुआत में हालांकि “एकता रैली” के नाम से प्रदेश के सारे क्षत्रपों को
एक मंच पर इकठ्ठा करके, सबके हाथ में हाथ मिलाकर ऊँचा करने की नौटंकी करवाई, लेकिन
जैसे-जैसे टिकट वितरण की घड़ी पास आती गई मध्यप्रदेश कांग्रेस के नेताओं का पुराना “अनेकता” राग शुरू हो गया. सबसे पहली तकलीफ हुई
कांतिलाल भूरिया को (जिन्हें दिग्विजय सिंह का डमी माना जाता है), क्योंकि राहुल
गांधी चाहते थे कि शिवराज के मुकाबले प्रदेश में युवा नेतृत्व पेश किया जाए,
स्वाभाविक ही राहुल की पहली पसंद बने ज्योतिरादित्य सिंधिया. जब चुनाव से एक साल
पहले ही कांग्रेस ने सिंधिया को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करना शुरू कर
दिया था, तब लोगों को लगने लगा था कि शायद अब भाजपा को चुनावों में कड़ी टक्कर
मिलेगी. लेकिन राहुल के आदेशों को धता बताते हुए धीरे-धीरे पुराने घिसे हुए
कांग्रेसियों जैसे कमलनाथ, कांतिलाल भूरिया, सुरेश पचौरी, सत्यव्रत चतुर्वेदी, अजय
सिंह इत्यादि ने अपने राग-रंग दिखाना शुरू कर दिए, और “आग में घी” कहिये या “करेला
वो भी नीम चढा” कहिये, रही-सही कसर दिग्विजय सिंह ने पूरी कर दी. कहने को तो वे राहुल गांधी
के गुरु कहे जाते हैं, लेकिन उन्हें भी यह कतई सहन नहीं है कि पिछले पांच साल तक
लगातार “फील्डिंग” करने वाला उनका स्थानापन्न खिलाड़ी अर्थात
कांतिलाल भूरिया अंतिम समय पर बारहवाँ खिलाड़ी बन जाए. इसलिए सिंधिया का नाम घोषित
होते ही “आदिवासी” का राग छेड़ा गया. उधर अपने-अपने इलाके
में मजबूत पकड़ रखने वाले नेता जैसे कमलनाथ (छिंदवाडा), अरुण यादव (खरगोन),
चतुर्वेदी (बुंदेलखंड), अजय सिंह (रीवा) इत्यादि किसी कीमत पर अपना मैदान छोड़ने को
तैयार नहीं थे. सो जमकर रार मचनी थी और वह मची भी. कई स्थापित नेताओं ने पैसा लेकर
टिकट बेचने के आरोप खुल्लमखुल्ला लगाए, सुरेश पचौरी को विधानसभा का टिकट थमाकर
उन्हें दिल्ली से चलता करने की सफल चालबाजी भी हुई. उज्जैन के सांसद प्रेमचंद
गुड्डू ने तो कहर ही बरपा दिया, अपने बेटे को टिकिट दिलवाने के लिए जिस तरह की
चालबाजी और षडयंत्र पूर्ण राजनीति दिखाई गई उसने राहुल गाँधी की “तथाकथित गाईडलाईन” की धज्जियाँ उड़ा दीं और कांग्रेस में एक
नया इतिहास रच दिया. ज्योतिरादित्य सिंधिया की व्यक्तिगत छवि साफ़-सुथरी और ईमानदार
की है, लेकिन उनके साथ दिक्कत यह है कि उनका राजसी व्यक्तित्व और व्यवहार उन्हें
ग्वालियर क्षेत्र के बाहर आम जनता से जुड़ने में दिक्कत देता है. कांग्रेस में
इलाकाई क्षत्रपों की संख्या बहुत ज्यादा है, जैसे कि सिंधिया को महाकौशल में कोई
नहीं जानता, तो कमलनाथ को शिवपुरी-चम्बल क्षेत्र में कोई नहीं जानता. इसी प्रकार
कांतिलाल भूरिया झाबुआ क्षेत्र के बाहर कभी अपनी पकड़ नहीं बना पाए, तो अजय सिंह को
अभी भी अपने पिता अर्जुनसिंह की “छाया” से बाहर आने में वक्त लगेगा. कहने को तो
सभी नेता मंचों और रैलियों में एकता का प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन अंदर ही अंदर
उन्हें शंका सताए जा रही है कि मानो “बिल्ली के भाग से छींका टूटा” और कांग्रेस सत्ता के करीब पहुँच गई तो निश्चित रूप से ज्योतिरादित्य
का पलड़ा भारी रहेगा, क्योंकि कांग्रेस में मुख्यमंत्री दिल्ली से ही तय होता है और
वहाँ सिर्फ सिंधिया और दिग्गी राजा के बीच रस्साकशी होगी, बाकी सब दरकिनार कर दिए
जाएंगे, सो जमकर भितरघात जारी है.
अब आते हैं भाजपा की स्थिति पर... बीते
पांच-सात वर्षों में शिवराज सिंह चौहान ने मध्यप्रदेश में वाकई काफी काम किए हैं,
खासकर सड़कों, स्वास्थ्य, लोकसेवा गारंटी और बालिका शिक्षा के क्षेत्र में. बिजली
के क्षेत्र में शिवराज उतना विस्तार नहीं कर पाए, लेकिन किसानों को विभिन्न प्रकार
के बोनस के लालीपाप पकड़ाते हुए उन्होंने धीरे-धीरे पंचायत स्तर तक अपनी पकड़ मजबूत
की हुई है. स्वयं शिवराज की छवि भी “तुलनात्मक रूप से” साफ़-सुथरी मानी जाती है. कांग्रेस के पास
ले-देकर शिवराज के खिलाफ डम्पर घोटाले, जमीन हथियाना और खनन माफिया के साथ मिलीभगत
के आरोपों के अलावा और कुछ है नहीं. इन मामलों में भी शिवराज ने “बहादुरी”(?) दिखाते हुए विपक्ष के आरोपों पर जमकर
पलटवार किया है और मानहानि के दावे भी ठोंके हैं. लेकिन इस आपसी चिल्ला-चिल्ली के
बीच जनता ने नगर निगम व पंचायत चुनावों में शिवराज को स्वीकार किया है. एक मोटा
अनुमान है कि प्रदेश के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में अकेले शिवराज की छवि के नाम
पर तीन से चार प्रतिशत वोट मिलेगा. जैसा कि हमने ऊपर देखा जहां कांग्रेस के सामने
आपसी फूट और भीतरघात का खतरा है, कम से कम शिवराज के साथ वैसा कुछ नहीं है. प्रदेश
में शिवराज का नेतृत्व, पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व ने पूरी तरह स्वीकार किया हुआ
है. ना तो प्रभात झा और ना ही नरेंद्र सिंह तोमर, दोनों ही शिवराज की कुर्सी को
चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं. इसके अलावा शिवराज ने किसी भी क्षेत्रीय
क्षत्रप को उभरने ही नहीं दिया. इसके अलावा सुषमा स्वराज का वरदहस्त भी शिवराज के
माथे है ही, क्योंकि सुषमा को विदिशा से लोकसभा में भिजवाना भी शिवराज की ही
कारीगरी थी. अर्थात उनका एकछत्र साम्राज्य है. भाजपा ने भी चतुराई दिखाते हुए
शिवराज के कामों का बखान करने की बजाय केन्द्र सरकार के मंत्रियों के बयानों और
घोटालों पर अधिक फोकस किया है. कांग्रेस को इसका कोई तोड़ नहीं सूझ रहा. यही हाल
कांग्रेस का भी है, उसे शिवराज के खिलाफ कुछ ठोस मुद्दा नहीं मिल रहा, इसलिए वह
भाजपा के पुराने कर्म खोद-खोदकर निकालने में जुटी है.
लेकिन मध्यप्रदेश
भाजपा के सामने चुनौती दुसरे किस्म की है, और वह है पिछले दस साल की सत्ता के कारण
पनपे “भ्रष्ट गिरोह” और मंत्रियों-विधायकों से उनकी सांठगांठ.
इस मामले में इंदौर के बाहुबली माने जाने वाले कैलाश विजयवर्गीय की छवि सबसे
संदिग्ध है. गत वर्षों में इंदौर का जैसा विकास(??) हुआ है, उसमें विजयवर्गीय ने सभी
को दूर हटाकर एकतरफा दाँव खेले हैं. इनके अलावा नरोत्तम मिश्र सहित ११ अन्य
मंत्रियों पर भी भ्रष्टाचार के कई आरोप लगते रहे हैं, लेकिन केन्द्र में सत्ता
होने के बावजूद कांग्रेस उन्हें कभी भी ठीक से भुना नहीं पाई. अब चूंकि भाजपा ने
मध्यप्रदेश में टिकट वितरण के समय शिवराज को फ्री-हैंड दिया था, इसी वजह से जनता
की नाराजगी कम करने के लिए शिवराज ने वर्तमान विधायकों में से ४८ विधायकों के
टिकिट काटकर उनके स्थान नए युवा चेहरों को मौका दिया है, हालांकि फिर भी किसी
मंत्री का टिकट काटने की हिम्मत शिवराज नहीं जुटा पाए, लेकिन उन्होंने जनता में
अपनी “पकड़” का सन्देश जरूर दे दिया. शिवराज के समक्ष दूसरी
चुनौती हिंदूवादी संगठनों के आम कार्यकर्ताओं में फ़ैली नाराजगी भी है. धार स्थित
भोजशाला के मामले को जिस तरह शिवराज प्रशासन ने हैंडल किया, वह बहुत से लोगों को
नाराज़ करने वाला रहा. सरस्वती पूजा को लेकर जैसी राजनीति और कार्रवाई शिवराज
प्रशासन ने की, उससे न तो मुसलमान खुश हुए और ना ही हिन्दू संगठन. इसके अलावा
हालिया रतनगढ़ हादसा, इंदौर के दंगों में उचित कार्रवाई न करना, खंडवा की जेल से
सिमी आतंकवादियों का फरार होना और भोपाल में रजा मुराद के साथ मंच शेयर करते समय
मोदी पर की गई टिप्पणी जैसे मामले भी हैं, जो शिवराज पर “दाग” लगाते हैं. इसी प्रकार कई जिलों में संघ
द्वारा प्रस्तावित उम्मीदवारों को टिकट नहीं मिला, जिसकी वजह से जमीनी स्तर के
कार्यकर्ताओं में नाराजगी बताई जाती है. शिवराज के पक्ष में सबसे बड़ी बात है शहरी
और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में खुद शिवराज और फिर नरेंद्र मोदी की छवि के सहारे मिलने
वाले वोट. ये बात और है कि मप्र में शिवराज ने अपनी पूरी संकल्प यात्रा के दौरान
पोस्टरों में नरेंद्र मोदी का चित्र लगाने से परहेज किया है. यह भाजपा की अंदरूनी
राजनीति भी हो सकती है, हालांकि शिवराज की खुद की छवि और पकड़ मप्र में इतनी मजबूत
है कि उन्हें मोदी के सहारे की जरूरत, कम से कम विधानसभा चुनाव में तो नहीं है.
हालांकि नरेंद्र मोदी की प्रदेश में २० चुनावी सभाएं होंगी.
कुल मिलाकर, यदि शिवराज अपने मंत्रियों के
भ्रष्टाचार को स्वयं की छवि और योजनाओं के सहारे दबाने-ढंकने में कामयाब हो गए तो
आसानी से ११६ सीटों का बहुमत बना ले जाएंगे, लेकिन यदि ग्रामीण स्तर पर भाजपा
कार्यकर्ताओं ने कड़ी मेहनत नहीं की, तो मुश्किल भी हो सकती है. जबकि दूसरा पक्ष
अर्थात कांग्रेस भी यदि आपसी सिर-फुटव्वल कम कर ले, अपने-अपने इलाके बाँटकर चुनाव
लड़े, भाजपा की कमियों को ठीक से भुनाए, तो वह भाजपा को चुनौती भी पेश कर सकती है.
हालांकि जनता के बीच जाने और बातचीत करने पर यह चुनाव 60-40 का लगता है (अर्थात ६०% भाजपा, ४०%
कांग्रेस). यदि कांग्रेस में आपस में जूतमपैजार नहीं हुई तो जोरदार टक्कर होगी.
वहीं शिवराज यदि ठीक से “डैमेज कंट्रोल मैनेजमेंट” कर सके, तो आसानी से नैया पार लगा लेंगे.
आम भाजपाई उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शिवराज के काँधे पर सवार होकर वे पार निकल
जाएंगे, जबकि काँग्रेसी सोच रहे हैं कि शायद पिछले दस साल का “एंटी-इनकम्बेंसी
फैक्टर” काम कर जाएगा.
आगामी ८ दिसंबर को पता चलेगा कि शिवराज
सिंह को मप्र की जनता तीसरा मौका देती है या नहीं? और यदि जनता ने शिवराज को तीसरा
मौका दे दिया तो समझिए कि कांग्रेस के लिए यह प्रदेश भी भविष्य में एक दुस्वप्न ही
बन जाएगा. जबकि खुद शिवराज का कद पार्टी में बहुत ऊँचा हो जाएगा.
Hindu Saints on Target - Conspiracy of Church and Secularists
Written by Super User शुक्रवार, 08 नवम्बर 2013 14:04
सिर्फ हिन्दू संत ही निशाने पर क्यों??...
प्राचीनकाल में राजघराने हुआ करते थे, ज़ाहिर है उन राजघरानों के कई काले
कारनामे भी हुआ करते थे. उन राजघरानों की परम्परा के अनुसार “एक परिवार” ही जनता पर अनंतकाल तक शासन किया करता था.
जब कभी इन राजघरानों अथवा उनके अत्याचारों के खिलाफ किसी ने आवाज़ उठाई या तो उसे
दीवार में चुनवा दिया जाता था, अथवा हाथी के पैरों तले रौंद दिया जाता था.... आज
चाहे ज़माना थोड़ा बदल क्यों न गया हो, लेकिन “राजघरानों” की मानसिकता अभी भी वही है, आधुनिक कालखंड में
बदलाव सिर्फ इतना आया है कि अब विरोधियों को जान से मारने की
आवश्यकता कम ही पड़ती है, उन से
निपटने और “निपटाने” के नए-नए तरीके ईजाद हो गए हैं.
सारी दुनिया
में यह बात मशहूर है कि “चर्च” संस्था (या जिसे हम “मिशनरी” कहें, एक ही बात है), अपने विरोधियों को खत्म करने के लिए
षडयंत्र और चालबाजियाँ करने में माहिर है. चर्च के “गुर्गे” (जो पूरी
दुनिया में फैले हुए हैं) अपने “लक्ष्य” के रास्ते में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को
येन-केन-प्रकारेण समाप्त करने में विश्वास रखते हैं. वेटिकन को अपना “धर्मांतरण मिशन” जारी रखने के लिए निर्बाध रास्ता चाहिए होता है,
साथ ही चर्च “दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है” वाले सिद्धांत पर काम करते हुए उस प्रत्येक संस्था
से गाहे-बगाहे हाथ मिलाता, सहयोग करता चलता है जो उसके उद्देश्यों की पूर्ति में
सहायक होते हैं, फिर चाहे वे नक्सली हों या बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ...
जैसा कि सभी जानते हैं, शंकराचार्य को हिन्दू धर्म में एक उच्च स्थान
प्राप्त होता है. शंकराचार्य की पदवी कोई साधारण पदवी नहीं होती, और हिंदुओं के मन
में उनके प्रति आदर-सम्मान से अधिक श्रद्धाभाव होता है. लेकिन जब शंकराचार्य जैसे
ज्ञानी और संत व्यक्ति को कोई सरकार सिर्फ आरोपों के आधार पर बिना किसी जाँच के,
आधी रात को आश्रम से उठाकर जेल में ठूँस दे तो आम हिन्दू को कैसा महसूस होगा?
तमिलनाडु में कांची कामकोटि के शंकराचार्य के साथ यही किया गया था. बगैर कोई मौका
या सफाई दिए ही शंकराचार्य जैसी हस्ती को एक मामूली जेबकतरे की तरह उठाकर जेल में
बंद कर दिया जाता है...
“कट” टू सीन २ –
उड़ीसा के घने जंगलों में मिशनरी की संदिग्ध और धर्मांतरण की गतिविधियों के खिलाफ
जोरदार अभियान चलाने वाले तथा आदिवासियों को चर्च के चंगुल में जाने से बचाने में
प्रमुख भूमिका निभाने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या हो जाती है.
हालाँकि हत्या होने से पहले स्वामी जी लगातार कई बार उनको मिली हुई धमकियों के
बारे में प्रशासन को बताते हैं, लेकिन सरकार कोई ध्यान नहीं देती... कुछ नकाबपोश
आधी रात को आते हैं और एक ८२ वर्षीय वयोवृद्ध संन्यासी को गोली मारकर चलते बनते
हैं...
“कट” टू सीन ३ –
कर्नाटक में सनातन धर्म की अलख जगाए रखने तथा चर्च/मिशनरी के बढ़ते क़दमों को थामने
में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ओजस्वी युवा संत नित्यानंद सरस्वती को एक
अभिनेत्री के साथ अंतरंग दृश्यों का वीडियो “लीक” किया जाता है.
तत्काल भारत का सेकुलर मीडिया उछल-उछलकर नित्यानंद सरस्वती के खिलाफ एक सुनियोजित
अभियान चलाने लगता है. TRP का भूखा, और
सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा फेंकी हुई हड्डी चबाने में माहिर यह मीडिया अपना “काम”(???) बखूबी
अंजाम देता है. नित्यानंद सरस्वती को जमकर बदनाम किया जाता है...
“कट” टू सीन ४ –
दिल्ली का रामलीला मैदान, सैकड़ों स्त्री-पुरुष-वृद्ध-बच्चे आधी रात को थक-हारकर
सोए हुए हैं. अचानक दिल्ली पुलिस उन पर लाठियाँ और आँसू गैस के साथ टूट पड़ती है.
बाबा रामदेव को गिरफ्तार कर लिया जाता है. उनके विश्वस्त सहयोगी बालकृष्ण के खिलाफ
ढेर सारे मामले दर्ज कर लिए जाते हैं. यहाँ भी मीडिया अपनी “दल्लात्मक” भूमिका बखूबी निभाता है. यह मीडिया खुद ही
केस चलाता है, और स्वयं ही ही फैसला भी
सुना देता है. बालकृष्ण और बाबा रामदेव के खिलाफ एक भी ठोस मामला सामने नहीं आने,
किसी भी थाने में मजबूत केस तक न होने और न्यायालय में कहीं भी न टिकने के बावजूद
बाबा रामदेव को “ठग”, “चोर”, “मिलावटी”, “भगोड़ा” इत्यादि से विभूषित किया जाता है.
आसाराम का मामला हो चाहे साध्वी प्रज्ञा का मामला हो...ऐसे और भी कई मामले
हैं, लेकिन एक “पैटर्न” दिखाने के लिए सिर्फ उपरोक्त चारों मामले ही
पर्याप्त हैं... आईये देखते हैं कि आखिर यह पैटर्न क्या है???
जैसा कि मैंने पहले बताया, सनातन धर्म में दक्षिण स्थित कांची कामकोटि का
पीठ सबसे महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है. कांची के शंकराचार्य हिन्दू धर्म के
प्रचार-प्रसार एवं अध्ययन-पठन हेतु कई केन्द्र चलाते हैं. तमिलनाडु में “ब्राह्मण विरोधी” या कहें कि द्रविड़ राजनीति की जड़ें बहुत
गहरी हैं. इसी प्रकार दक्षिण में चर्च की गतिविधियाँ भी बेहद तेजी से बढ़ी हैं और
लगातार अपने पैर पसार रही हैं. चाहे करूणानिधि द्वारा भगवान राम के अस्तित्त्व को
नकारना हो अथवा अन्य तमिल पार्टियों द्वारा रामसेतु को तोड़ने में भारी दिलचस्पी
दिखाना हो, सभी हिन्दू विरोधी मामलों में द्रविड़ पार्टियाँ खासी सक्रिय रहती हैं.
ऐसे में कांची पीठ के सबसे सम्मानित शंकराचार्य को हत्या के मामले में फँसाना, (और
न सिर्फ फँसाना, बल्कि ऐसी “व्यवस्था” करना कि उन्हें कम से कम एक रात तो जेल में
काटनी ही पड़े) चर्च के लिए बहुत लाभकारी, लेकिन सनातन धर्म के अनुयायियों के लिए
बड़ा झटका ही था. उपरोक्त सभी घटनाओं का मकसद यह था कि किसी भी तरह से हिंदुओं की
धार्मिक भावनाएँ आहत हों, उनका अपमान हो, उनमें न्यूनता का अहसास करवाया जाए, ताकि
धर्मांतरण के आड़े आने वाले (या भविष्य में आ सकने वाले) लोगों को सबक मिले.
दूसरी घटना के बारे में भी तथ्य यह हैं कि - नक्सली कमाण्डर पांडा ने एक
उड़िया टीवी चैनल को दी गई भेंटवार्ता में दावा किया कि स्वामी लक्ष्मणानन्द को
उन्होंने ही मारा है। पांडा का कहना था कि चूंकि लक्ष्मणानन्द सामाजिक अशांति(???) फ़ैला रहे थे, इसलिये उन्हें
खत्म करना आवश्यक था। जिस प्रकार त्रिपुरा में NFLT नाम का उग्रवादी
संगठन बैप्टिस्ट चर्च से खुलेआम पैसा और हथियार पाता है, उसी प्रकार अब यह साफ़ हो
गया है कि उड़ीसा और देश के दूरदराज में स्थित अन्य आदिवासी इलाकों में नक्सलियों
और चर्च के बीच एक मजबूत गठबंधन बन गया है, वरना क्या कारण
है कि इन इलाकों में काम करने वाली मिशनरी संस्थाओं को तो नक्सली कोई नुकसान नहीं
पहुँचाते, लेकिन गरीब और मजबूर आदिवासियों को नक्सली
अपना निशाना बनाते रहते हैं? थोड़ा कुरेदने पर
पांडा ने स्वीकार किया कि नक्सलियों के उड़ीसा स्थित कैडर में ईसाई युवकों की
संख्या ज्यादा है, उन्होंने माना कि उनके संगठन में ईसाई लोग
बहुमत में हैं, उड़ीसा के रायगड़ा, गजपति, और कंधमाल में
काम कर रहे लगभग सभी नक्सली ईसाई हैं।
अब स्वामी नित्यानंद वाले मामले पर आते हैं – दक्षिण के एक चैनल ने सबसे
पहले इस “स्टोरी”(??) को दिखाया था. नित्यानंद को जमकर बदनाम
किया गया, तरह-तरह के आरोप लगाए गए, अभिनेत्री रंजीता को भी इसमें लपेटा गया. “मीडिया ट्रायल” कर-करके इस मामले में हिन्दू धर्म, भगवा वस्त्रों
इत्यादि को भी जमकर कोसा गया. जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ा पता चला कि पुलिस और चैनलों को
नित्यानंद की सीडी देकर आरोप लगाने वाला व्यक्ति “कुरुप्पन लेनिन” एक धर्म-परिवर्तित ईसाई है और यह व्यक्ति पहले
एक फ़िल्म स्टूडियो में काम कर चुका है तथा "वीडियो मॉर्फ़िंग" में
एक्सपर्ट है। जब अमेरिकी लैबोरेट्री में उस वीडियो की
जाँच हुई तो यह सिद्ध हुआ कि वह वीडियो नकली था, गढा गया था. प्रणव “जेम्स” रॉय के चैनल NDTV ने सबसे पहले नित्यानन्द स्वामी के साथ
नरेन्द्र मोदी की तस्वीरें दिखाईं और चिल्ला-चिल्लाकर नरेन्द्र मोदी को इस मामले
में लपेटने की कोशिश की (गुजरात के दो-दो चुनावों में बुरी तरह से जूते खाने के
बाद NDTV और उसके चमचों के पास अब यही एक रास्ता रह
गया है मोदी को पछाड़ने के लिये)। लेकिन जैसे ही अगले दिन से “ट्विटर” पर स्वामी
नित्यानन्द की तस्वीरें गाँधी परिवार के चहेते एसएम कृष्णा और एपीजे अब्दुल कलाम
के साथ भी दिखाई दीं, तुरन्त NDTV का मोदी विरोधी सुर धीमा पड़ गया. यहाँ तक कि नित्यानन्द
के स्टिंग ऑपरेशन मामले को सही ठहराने के लिये NDTV ने नारायणदत्त
तिवारी वाले मामले का सहारा भी लिया तथा दोनों को एक ही पलड़े पर रखने की कोशिश की।
जबकि वस्तुतः एनडी तिवारी एक संवैधानिक पद पर थे, उन्होंने राजभवन
और अपने पद का दुरुपयोग किया और तो और होली के दिन भी वह लड़कियों से घिरे नृत्य कर
रहे थे। जबकि नित्यानन्द तथाकथित रूप से जो भी कर रहे थे अपने आश्रम के बेडरूम में
कर रहे थे, बगैर किसी प्रलोभन या दबाव के, इसलिये इन दोनों मामलों की तुलना तो हो ही नहीं
सकती। परन्तु जब दो-दो “C” अर्थात चर्च और
चैनल आपस में मिले हुए हों तो किसी को बदनाम करना इनके बाँए हाथ का खेल है.
5-M (अर्थात मार्क्स, मुल्ला, मिशनरी, मैकाले और मार्केट) के
हाथों बिके हुए भारतीय मीडिया ने स्वामी नित्यानन्द की सीडी सामने आते ही तड़ से उन्हें
अपराधी घोषित कर दिया है, ठीक उसी तरह जिस
तरह कभी संजय जोशी और संघ को किया था (हालांकि बाद में उनकी सीडी भी फ़र्जी पाई गई), या जिस तरह से कांची के
वयोवृद्ध शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती को तमिलनाडु की सरकार ने गिरफ़्तार करके
सरेआम बेइज्जत किया था। अर्थात जब भी कोई हिन्दू “आईकॉन” किसी भी
सच्चे-झूठे मामले में फ़ँसे तो मीडिया उन्हें “अपराधी” घोषित करने में
देर नहीं करता… और इस समय किसी
मानवाधिकारवादी के आगे-पीछे कहीं से भी “कानून अपना काम
करेगा…” वाला सुर नहीं निकलता। यही हाल मीडिया का भी
है, जब हिन्दू संतों को बदनाम करना होगा, खुद की टीआरपी बढानी होगी उस समय तो
चीख-चीखकर उनके एंकर टीवी का पर्दा फाड़ देंगे, लेकिन जब वही संत अदालतों द्वारा
बेदाग़ बरी कर दिए जाते हैं उस समय यही अखबार और चैनल अपने मुँह में दही जमाकर बैठ
जाते हैं. माफीनामा भी पेश करते हैं तो चुपके-चुपके अथवा अखबार के आख़िरी पन्ने पर
किसी कोने में.... नित्यानंद की सेक्स सीडी फर्जी पाए जाने पर कोर्ट ने मीडिया को
जमकर लताड़ लगाई थी, उनसे माफीनामा भी दिलवाया गया, परन्तु ये “भेडिये” इतनी आसानी से सुधरने वाले नहीं हैं,
क्योंकि इनके सिर पर “चर्च” और सरकार (शायद एक ही बात है) का हाथ है.
अब आते हैं बाबा रामदेव के
मामले पर – जिस दिन तक बाबा रामदेव सिर्फ योग सिखाते थे, उस दिन तक तो बाबा रामदेव
एकदम पवित्र थे, बाबा के आश्रम में सभी पार्टियों के नेता आते रहे, रामदेव बाबा से
योग सीखने-सिखाने का दौर चलता रहा. दो साल पहले जैसे ही बाबा रामदेव ने इस देश के
सबसे पवित्र परिवार (अर्थात गाँधी परिवार) और काँग्रेस पर उँगली उठाना शुरू किया
उसी दिन से “सत्ता
के गलियारे”
में बैठे हुए अजगर अचानक जागृत हो गए. काले धन को वापस लाने की माँग इन अजगरों को
इतनी नागवार गुज़री कि इन्होंने बाबा रामदेव के पीछे देश की सभी एजेंसियाँ लगा
डालीं. बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तो बाबा रामदेव से पहले ही खार खाए बैठी
थीं, क्योंकि बाबा रामदेव की वजह से कोक-पेप्सी सहित अन्य कई नकली पदार्थों की
बिक्री भी प्रभावित हुई तथा उनकी “गढी हुई छवि” भी खराब हुई. सत्ता के अजगर और निहित स्वार्थों से भरी
खून चूसक कंपनियों ने बाबा रामदेव के खिलाफ शिकंजा कसना आरम्भ कर दिया जो आज
दिनांक तक जारी है.
धर्मांतरण करवाने वाले “चर्च” और मीडिया की सांठगांठ इतनी मजबूत है कि - जैसे ही मीडिया में आया कि मालेगाँव धमाके में पाई गई मोटरसाईकिल भगवाधारी हिन्दू साध्वी प्रज्ञा की थी (जो काफ़ी पहले उन्होंने बेच दी थी), कि तड़ से “हिन्दू आतंकवाद” नामक शब्द गढ़कर हिन्दुओं पर हमले शुरु…। भले ही जेल में टुंडा, मदनी और रियाज़ भटकल ऐश कर रहे हों, लेकिन साध्वी प्रज्ञा को अण्डे खिलाने की कोशिश या गन्दी-गन्दी गालियाँ देना हो… महिला आयोग, सारे के सारे फर्जी नारीवादी संगठन सब कहीं दुबक कर बैठ जाते हैं, क्योंकि मीडिया ने तो पहले ही उन्हें अपराधी घोषित कर दिया है। इस नापाक गठबंधन की पोल इस बात से भी खुल जाती है कि आज तक भारत के कितने अखबारों और चैनलों ने वेटिकन और अन्य पश्चिमी देशों में चर्च की आड़ में चल रहे देह शोषण के मामलों को उजागर किया है? चलिये वेटिकन को छोड़िये, जैसा कि ऊपर आँकड़े दिए गए हैं, केरल में ही हत्या-बलात्कार-अपहरण के सैकड़ों मामले सामने आ चुके हैं यह कितने लोगों को पता है… और पश्चिम में चर्च तो इतनी तरक्की कर चुका है, कि उधर सिर्फ़ महिलाओं के ही साथ यौन शोषण नहीं होता बल्कि पुरुषों के साथ भी “गे-सेक्स” के मामले सामने आ रहे हैं… इस लिंक पर द गार्जियन की खबर पढ़िये…
http://www.guardian.co.uk/world/2010/mar/04/vatican-gay-sex-scandal
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक भारत में मिशनरी संस्थाओं का सबसे अधिक ज़मीन पर कब्जा
है, लेकिन आसाराम की जमीन को लेकर “कोहर्रम” मचाने वाले मीडिया ने कभी हल्ला मचाया? माओवादियों और नक्सलवादियों के कैम्पों में महिला
कैडर के साथ यौन शोषण और कण्डोम मिलने की खबरें कितने चैनल दिखाते हैं? लेकिन चूंकि हिन्दू धर्मगुरु के आश्रम में हादसा
हुआ है तो मीडिया ऐसे सवालों को सुविधानुसार भुला देता है, और कोशिश की जाती है कि येन-केन-प्रकारेण नरेन्द्र
मोदी या संघ या भाजपा का नाम इसमें जोड़ दिया जाये, अथवा कहीं कुछ नहीं मिले
तो हिन्दू संस्कृति-परम्पराओं को ही गरिया दिया जाये।
सूचना के अधिकार से प्राप्त जानकारी के अनुसार केरल में 63 पादरियों पर मर्डर, बलात्कार, अवैध वसूली और हथियार रखने के मामले विभिन्न पुलिस
थानों में दर्ज हैं। केरल पुलिस द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार पिछले सात वर्षों
में दो पादरियों को हत्या के जुर्म में सजा मिल चुकी है, जबकि दस अन्य को “हत्या के प्रयास” की धाराओं में चार्जशीट किया गया है। कम्युनिस्टों का
नक्सली कैडर और चर्च दोनों मिलकर एक
घातक “कॉम्बिनेशन” बनाते हैं। हालाँकि इसके लिये काफ़ी हद तक हमारे
आस्तीन में पल रहे “नकली सेकुलर” भी जिम्मेदार हैं। इस
देश में जो भी व्यक्ति “चर्च”, “चर्च के गुर्गों” अथवा “पवित्र परिवार” के खिलाफ कोई भी अभियान अथवा आंदोलन चलाएगा उसका यही
हश्र होगा. स्वाभाविक है कि देश की दुर्दशा को देखते हुए हिन्दू संत अब धीरे-धीरे
मुखर होने लगे हैं, इसलिए इन पर गाज गिरने लगी है. हिन्दू संतों के खिलाफ लगातार जारी इस
दुष्प्रचार और दोगलेपन को समय-समय पर प्रकाशित और प्रचारित किया ही जाना चाहिये, हमें जनता को बताना होगा कि ये लोग किस तरह से पक्षपाती
हैं, पक्के हिन्दू-विरोधी हैं। आए दिन “सिर्फ और सिर्फ” हिन्दू संतों के खिलाफ किये जाने वाले
षडयंत्र और विभिन्न मामलों में उन्हें बदनाम करके फँसाने व उनसे बदले की
कार्रवाईयाँ एक बड़े “खेल” की ओर इशारा करती हैं...
Tagged under
Serious Charges and RTI Against UP Cadre IAS Sadakant...
Written by Super User रविवार, 20 अक्टूबर 2013 21:01
सूचना बेचने का अभियुक्त यूपी का प्रमुख सचिव सूचना !
(जनहित में प्रकाशित)
क्या आप यह सोच सकते हैं कि एक ऐसा व्यक्ति जिसके खिलाफ सीबीआई ने देश से दगाबाजी कर निजी उपक्रमों को संवेदनशील सूचनाएं मुहैया कराकर निजी हित साधने के गंभीर आरोप लगाये हों , जिसके खिलाफ सीबीआई जांच के लिए भारत सरकार ने अनुमति दी हो और सीबीआई की यह जांच वर्ष 2011 से अब तक प्रचलित हो वह व्यक्ति न केबल स्वतंत्र घूम रहा हो बल्कि प्रदेश सरकार में तीन- तीन विभागों के प्रमुख सचिव का पद भी धारित कर नीली बत्ती की सुविधाओं का उपभोग रहा हो ? अगर आप उत्तर प्रदेश में हैं तो आप ऐसा बिलकुल सोच सकते हैं l ऐसा ही एक चौंकाने बाला खुलासा सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा की एक आरटीआई से हुआ है l
गौरतलब है कि मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के निवासी यूपी कैडर के सीनियर आईएएस सदाकांत पर गृह मंत्रालय में ज्वाइंट सेक्रेट्री के रूप में कार्य करते हुए निजी कंपनियों को संवेदनशील सूचनाएं मुहैया कराकर भ्रष्टाचार करने के आरोप लगे थे l आरोप था कि सदा कांत निहित स्वार्थसिद्धि हेतु नेशनल प्रोजेक्ट कंस्ट्रक्शन कॉर्पोरेशन के एक प्रोजेक्ट में प्राइवेट कंपनी को गोपनीय जानकारियाँ मुहैया करा रहे थे l
गृह मंत्रालय ने इस मामले में सदाकांत से पूछताछ के लिए सीबीआई को मंजूरी देते हुए उन्हें वापस उनके कैडर में भेज दिया था ।
सदाकांत 2007 में पांच साल के लिए केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर गए थे और केंद्र में उनका कार्यकाल 2012 तक था लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद सीबीआई द्वारा सदाकांत के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किये
जाने के बाद पांच साल का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही सदाकांत को वापस उनके कैडर में भेज दिया गया था ।
लखनऊ निवासी सामाजिक कार्यकत्री उर्वशी शर्मा ने बीते सितम्बर में भारत सरकार के गृह मंत्रालय से सदाकांत के कथित भ्रष्टाचार,देश के साथ दगाबाजी कर गोपनीय सूचनाएँ लीक करने,प्राइवेट कंपनी के साथ किये गए कथित करार एवं गृह मंत्रालय द्वारा सदाकांत को उनके मूल कैडर में बापस भेजने संबंधी फाइलों की फोटो कॉपी और पत्राचार की कॉपी माँगी थी l
गृह विभाग ने सदाकांत को उनके मूल कैडर में बापस भेजने संबंधी पत्र दिनांक 20-05-11 की छायाप्रति उर्वशी को उपलब्ध करा दी है l गृह मंत्रालय की निदेशक एवं केंद्रीय जन सूचना अधिकारी श्यामला मोहन ने अन्य चार बिन्दुओं पर सदाकांत के कथित भ्रष्टाचार,देश के साथ दगाबाजी कर गोपनीय सूचनाएँ लीक करने,प्राइवेट कंपनी के साथ किये गए कथित करार गृह मंत्रालय द्वारा सदाकांत को उनके मूल कैडर में बापस भेजने संबंधी फाइलों की फोटो कॉपी इत्यादि देने के सम्बन्ध में अधिनियम की धारा 8(1)(h) के
सन्दर्भ से उर्वशी को सूचित किया है कि ये सूचना देने से सदाकांत के विरुद्ध चल रही जांच की प्रक्रिया वाधित हो सकती है और सूचना देने से मना कर दिया है l आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1)(h) के अंतर्गत ऐसी सूचना देने से छूट है जिसके दिए जाने से अपराधियों के अन्वेषण,पकडे जाने या अभियोजन की प्रक्रिया में अड़चन पड़ेगी l
उर्वशी कहती हैं कि गृह विभाग के पत्र से स्पस्ट है कि भारत सरकार का गृह विभाग आज भी यह मान रहा है कि उनके द्वारा चाही गयी सूचना दिए जाने से सदाकांत के विरुद्ध चल रहे अभियोजन की प्रक्रिया में अड़चन पड़ेगी यानी भारत सरकार के अनुसार सदाकांत आज भी CBI द्वारा दायर केस में अभियुक्त हैं l
उर्वशी ने अपनी इस आरटीआई के आधार पर उत्तर प्रदेश सरकार की कार्य प्रणाली की शुचिता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर सदाकांत को तत्काल निलंबित करने का आग्रह किया है l सूबे के मुखिया अखिलेश और अन्य को भेजे अपने पत्र में उर्वशी ने लिखा है कि यह विडंवना ही है कि प्रदेश सरकार भ्रष्टाचारियो पर इस प्रकार की विशेष कृपा दृष्टि बनाये हुए है कि भारत सरकार का अभियुक्त IAS उत्तर प्रदेश सरकार में तीन-तीन विभागों का प्रमुख बना बैठा है l अपने पत्र में उर्वशी ने भारत सरकार में रहते हुए निजी कंपनियों से सांठ-गाँठ कर भ्रष्टाचार के सीबीआई के आरोपी को उत्तर प्रदेश में आवास एवं शहरी नियोजन विभाग देने और भारत सरकार की गोपनीय सूचना दिए जाने बाले सदाकांत को सूचना विभाग का प्रमुख सचिव बनाये जाने को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए मिड डे मील की गिरती गुणवत्ता का ठीकरा भी बाल विकास एवं पुष्टाहार के प्रमुख सचिव सदाकांत के सर फोड़ा है....
=====================
नोट :- समस्त जानकारियाँ एवं तथ्य उर्वशी शर्मा के ई-मेल से प्राप्त हुई हैं, जनहित में इसे मेरे ब्लॉग पर स्थान दिया गया है...
(जनहित में प्रकाशित)
क्या आप यह सोच सकते हैं कि एक ऐसा व्यक्ति जिसके खिलाफ सीबीआई ने देश से दगाबाजी कर निजी उपक्रमों को संवेदनशील सूचनाएं मुहैया कराकर निजी हित साधने के गंभीर आरोप लगाये हों , जिसके खिलाफ सीबीआई जांच के लिए भारत सरकार ने अनुमति दी हो और सीबीआई की यह जांच वर्ष 2011 से अब तक प्रचलित हो वह व्यक्ति न केबल स्वतंत्र घूम रहा हो बल्कि प्रदेश सरकार में तीन- तीन विभागों के प्रमुख सचिव का पद भी धारित कर नीली बत्ती की सुविधाओं का उपभोग रहा हो ? अगर आप उत्तर प्रदेश में हैं तो आप ऐसा बिलकुल सोच सकते हैं l ऐसा ही एक चौंकाने बाला खुलासा सामाजिक कार्यकर्ता उर्वशी शर्मा की एक आरटीआई से हुआ है l
गौरतलब है कि मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के निवासी यूपी कैडर के सीनियर आईएएस सदाकांत पर गृह मंत्रालय में ज्वाइंट सेक्रेट्री के रूप में कार्य करते हुए निजी कंपनियों को संवेदनशील सूचनाएं मुहैया कराकर भ्रष्टाचार करने के आरोप लगे थे l आरोप था कि सदा कांत निहित स्वार्थसिद्धि हेतु नेशनल प्रोजेक्ट कंस्ट्रक्शन कॉर्पोरेशन के एक प्रोजेक्ट में प्राइवेट कंपनी को गोपनीय जानकारियाँ मुहैया करा रहे थे l
गृह मंत्रालय ने इस मामले में सदाकांत से पूछताछ के लिए सीबीआई को मंजूरी देते हुए उन्हें वापस उनके कैडर में भेज दिया था ।
सदाकांत 2007 में पांच साल के लिए केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर गए थे और केंद्र में उनका कार्यकाल 2012 तक था लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद सीबीआई द्वारा सदाकांत के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किये
जाने के बाद पांच साल का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही सदाकांत को वापस उनके कैडर में भेज दिया गया था ।
लखनऊ निवासी सामाजिक कार्यकत्री उर्वशी शर्मा ने बीते सितम्बर में भारत सरकार के गृह मंत्रालय से सदाकांत के कथित भ्रष्टाचार,देश के साथ दगाबाजी कर गोपनीय सूचनाएँ लीक करने,प्राइवेट कंपनी के साथ किये गए कथित करार एवं गृह मंत्रालय द्वारा सदाकांत को उनके मूल कैडर में बापस भेजने संबंधी फाइलों की फोटो कॉपी और पत्राचार की कॉपी माँगी थी l
गृह विभाग ने सदाकांत को उनके मूल कैडर में बापस भेजने संबंधी पत्र दिनांक 20-05-11 की छायाप्रति उर्वशी को उपलब्ध करा दी है l गृह मंत्रालय की निदेशक एवं केंद्रीय जन सूचना अधिकारी श्यामला मोहन ने अन्य चार बिन्दुओं पर सदाकांत के कथित भ्रष्टाचार,देश के साथ दगाबाजी कर गोपनीय सूचनाएँ लीक करने,प्राइवेट कंपनी के साथ किये गए कथित करार गृह मंत्रालय द्वारा सदाकांत को उनके मूल कैडर में बापस भेजने संबंधी फाइलों की फोटो कॉपी इत्यादि देने के सम्बन्ध में अधिनियम की धारा 8(1)(h) के
सन्दर्भ से उर्वशी को सूचित किया है कि ये सूचना देने से सदाकांत के विरुद्ध चल रही जांच की प्रक्रिया वाधित हो सकती है और सूचना देने से मना कर दिया है l आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1)(h) के अंतर्गत ऐसी सूचना देने से छूट है जिसके दिए जाने से अपराधियों के अन्वेषण,पकडे जाने या अभियोजन की प्रक्रिया में अड़चन पड़ेगी l
उर्वशी कहती हैं कि गृह विभाग के पत्र से स्पस्ट है कि भारत सरकार का गृह विभाग आज भी यह मान रहा है कि उनके द्वारा चाही गयी सूचना दिए जाने से सदाकांत के विरुद्ध चल रहे अभियोजन की प्रक्रिया में अड़चन पड़ेगी यानी भारत सरकार के अनुसार सदाकांत आज भी CBI द्वारा दायर केस में अभियुक्त हैं l
उर्वशी ने अपनी इस आरटीआई के आधार पर उत्तर प्रदेश सरकार की कार्य प्रणाली की शुचिता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर सदाकांत को तत्काल निलंबित करने का आग्रह किया है l सूबे के मुखिया अखिलेश और अन्य को भेजे अपने पत्र में उर्वशी ने लिखा है कि यह विडंवना ही है कि प्रदेश सरकार भ्रष्टाचारियो पर इस प्रकार की विशेष कृपा दृष्टि बनाये हुए है कि भारत सरकार का अभियुक्त IAS उत्तर प्रदेश सरकार में तीन-तीन विभागों का प्रमुख बना बैठा है l अपने पत्र में उर्वशी ने भारत सरकार में रहते हुए निजी कंपनियों से सांठ-गाँठ कर भ्रष्टाचार के सीबीआई के आरोपी को उत्तर प्रदेश में आवास एवं शहरी नियोजन विभाग देने और भारत सरकार की गोपनीय सूचना दिए जाने बाले सदाकांत को सूचना विभाग का प्रमुख सचिव बनाये जाने को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए मिड डे मील की गिरती गुणवत्ता का ठीकरा भी बाल विकास एवं पुष्टाहार के प्रमुख सचिव सदाकांत के सर फोड़ा है....
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नोट :- समस्त जानकारियाँ एवं तथ्य उर्वशी शर्मा के ई-मेल से प्राप्त हुई हैं, जनहित में इसे मेरे ब्लॉग पर स्थान दिया गया है...
प्रवक्ता पोर्टल की ओर से सम्मान...
प्रवक्ता ने मुझ जैसे "आम आदमी" (बिना टोपी वाले) को लेखक के रूप में सम्मानित किया है यह खुशी की बात है. न तो मैंने कभी पत्रकारिता का कोई कोर्स किया, न किसी अखबार या चैनल में काम किया, न ही मैं पत्रकारिता की परम्परागत भाषा को लिखने में सिद्धहस्त हूँ और न ही मैं दिमाग से लिखता हूँ...
इसके बावजूद सिर्फ "मन" की बात को बेतरतीब और औघड़ पद्धति से लिखने वाले मेरे जैसे व्यक्ति को यदि श्री नरेश भारतीय, श्री राहुल देव, श्री उपासनी जैसे व्यक्तियों के साथ खड़े होने का मौका मिला तो निश्चित ही मैं इसके लिए "न्यू मीडिया" को धन्यवाद का पात्र मानता हूँ... यदि सोशल मीडिया न होता, या मैं इसमें न आया होता, तो संभवतः "संपादकों" की हिटलरशाही तथा राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति "वैचारिक छुआछूत" एवं "गैंगबाजी" का शिकार हो गया होता...
"प्रवक्ता" पोर्टल की ओर से सम्मान मिला... सभी का आभार व्यक्त करता हूँ.
===============
एक बार पुनः भाई संजीव सिन्हा, भारत भूषण जी का आभार, तथा मेरा लिखा हुआ पसंद करने वालों का दिल से धन्यवाद... दिल्ली के इस "अति-संक्षिप्त प्रवास" के दौरान भेंट हुए सभी आत्मीय मित्रों का भी धन्यवाद.
प्रवक्ता सम्मान ग्रहण करने इंदौर-चंडीगढ़ Holiday स्पेशल ट्रेन से दिल्ली गया था. जाते समय तीन घंटे लेट (सिर्फ दिल्ली तक) और आते समय चार घंटे लेट.. इस प्रकार प्लेटफार्म पर बिताए हुए समय और ट्रेन के सफ़र दोनों को मिलाकर कुल ३२ घंटे भारतीय रेलवे के साथ, और सिर्फ आठ घंटे दिल्ली में बिताए...
भारतीय रेलवे की मेहरबानी से इस लम्बी दूरी की ट्रेन में न तो पेंट्री कार थी और न ही साफ़-सफाई की व्यवस्था. साथ ही यह अलिखित नियम "बोनस" में था कि जो ट्रेन लेट चल रही हो उसे और लेट करते हुए पीछे से आने वाली ट्रेनों को पासिंग व क्रासिंग दिया जाए... इसके अतिरिक्त "दीपावली बोनस" के तौर पर सुविधा यह थी कि आते-जाते दोनों समय B-4 नंबर का एसी कोच रिजर्वेशन होने तथा चार्ट में प्रदर्शित किए जाने के बावजूद शुरू से लगाया ही नहीं गया, ताकि इस कोच के यात्री टीसी के सामने गिडगिडाते रहें.
अगली बार किसी भी हालीडे स्पेशल ट्रेन में यात्रा करने से पहले तीन बार सोच लेना...
====================
चित्र में :- दिल्ली से वापसी के समय रात डेढ़-दो बजे तक भाई Saurabh Chatterjee साथ बने रहे, उम्दा डिनर भी करवाया. मैंने भी भारतीय रेल की इस "कृपा"(?) का सदुपयोग पराग टोपे लिखित पुस्तक "The Operation Red Lotus" के तीन-चार अध्याय पढने में कर लिया...
प्रवक्ता ने मुझ जैसे "आम आदमी" (बिना टोपी वाले) को लेखक के रूप में सम्मानित किया है यह खुशी की बात है. न तो मैंने कभी पत्रकारिता का कोई कोर्स किया, न किसी अखबार या चैनल में काम किया, न ही मैं पत्रकारिता की परम्परागत भाषा को लिखने में सिद्धहस्त हूँ और न ही मैं दिमाग से लिखता हूँ...
इसके बावजूद सिर्फ "मन" की बात को बेतरतीब और औघड़ पद्धति से लिखने वाले मेरे जैसे व्यक्ति को यदि श्री नरेश भारतीय, श्री राहुल देव, श्री उपासनी जैसे व्यक्तियों के साथ खड़े होने का मौका मिला तो निश्चित ही मैं इसके लिए "न्यू मीडिया" को धन्यवाद का पात्र मानता हूँ... यदि सोशल मीडिया न होता, या मैं इसमें न आया होता, तो संभवतः "संपादकों" की हिटलरशाही तथा राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रति "वैचारिक छुआछूत" एवं "गैंगबाजी" का शिकार हो गया होता...
"प्रवक्ता" पोर्टल की ओर से सम्मान मिला... सभी का आभार व्यक्त करता हूँ.
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एक बार पुनः भाई संजीव सिन्हा, भारत भूषण जी का आभार, तथा मेरा लिखा हुआ पसंद करने वालों का दिल से धन्यवाद... दिल्ली के इस "अति-संक्षिप्त प्रवास" के दौरान भेंट हुए सभी आत्मीय मित्रों का भी धन्यवाद.
प्रवक्ता सम्मान ग्रहण करने इंदौर-चंडीगढ़ Holiday स्पेशल ट्रेन से दिल्ली गया था. जाते समय तीन घंटे लेट (सिर्फ दिल्ली तक) और आते समय चार घंटे लेट.. इस प्रकार प्लेटफार्म पर बिताए हुए समय और ट्रेन के सफ़र दोनों को मिलाकर कुल ३२ घंटे भारतीय रेलवे के साथ, और सिर्फ आठ घंटे दिल्ली में बिताए...
भारतीय रेलवे की मेहरबानी से इस लम्बी दूरी की ट्रेन में न तो पेंट्री कार थी और न ही साफ़-सफाई की व्यवस्था. साथ ही यह अलिखित नियम "बोनस" में था कि जो ट्रेन लेट चल रही हो उसे और लेट करते हुए पीछे से आने वाली ट्रेनों को पासिंग व क्रासिंग दिया जाए... इसके अतिरिक्त "दीपावली बोनस" के तौर पर सुविधा यह थी कि आते-जाते दोनों समय B-4 नंबर का एसी कोच रिजर्वेशन होने तथा चार्ट में प्रदर्शित किए जाने के बावजूद शुरू से लगाया ही नहीं गया, ताकि इस कोच के यात्री टीसी के सामने गिडगिडाते रहें.
अगली बार किसी भी हालीडे स्पेशल ट्रेन में यात्रा करने से पहले तीन बार सोच लेना...
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चित्र में :- दिल्ली से वापसी के समय रात डेढ़-दो बजे तक भाई Saurabh Chatterjee साथ बने रहे, उम्दा डिनर भी करवाया. मैंने भी भारतीय रेल की इस "कृपा"(?) का सदुपयोग पराग टोपे लिखित पुस्तक "The Operation Red Lotus" के तीन-चार अध्याय पढने में कर लिया...
After Tunda and Bhatkal, Its Dawood Ibrahim Now??
Written by Super User मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013 16:25अब दाऊद इब्राहीम को "जंवाई" बनाने की तैयारी...?
अब्दुल करीम टुंडा और रियाज़ भटकल के बाद अब दाऊद इब्राहीम को "जमाई" बनाने की तैयारियां जोरों पर हैं. सूत्रों के अनुसार दाऊद के साथ सरकार की बातचीत लगभग अंतिम चरण में है. मामला उसके धंधे(???) संबंधी कुछ शर्तों पर अटका हुआ है.
उल्लेखनीय है कि टुंडा और भटकल की गिरफ्तारी भी "दिखाई" गई थी. यदि नेपाली अखबारों की बात सच मानें तो इन दोनों को नेपाल में गिरफ्तार करने के बाद कुछ गुप्त शर्तों के तहत भारत की एजेंसियों को सौंपा गया है. एक तरफ दाऊद भी अब पाकिस्तान की सरकार के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है और दूसरी तरफ आईएसआई भी उसके धंधे में से मोटा माल हथियाने के लिए दबाव बनाने लगी है. इसलिए अब दाऊद "भारत में सुरक्षित" रहना चाहता है.
टुंडा के दिल का आपरेशन करवा दिया है... लंगड़े अब्दुल मदनी का भी उच्च स्तरीय आयुर्वेदिक इलाज करवा दिया है... कसाब और अफज़ल की भी भरपूर खातिरदारी की ही थी, यानी भारत में गांधीवाद और मानवाधिकार(??) का धंधा चमकदार और असरदार है... क्या कहा साध्वी प्रज्ञा का कैंसर??? अरे छोडो भी, हिन्दुओं की औकात ही क्या है?
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वैसे भी दाऊद के अधिकाँश खैरख्वाह तो भारत में ही हैं... चाहे नेता हों या उद्योगपति. इसलिए यदि अगले माह दाऊद की "गिरफ्तारी"(?? हा हा हा हा) हो जाए तो चौंकिएगा नहीं... साथ ही "मीडियाई दल्लों" को भी आसाराम की जगह दाऊद मिल जाएगा दो सप्ताह तक चबाने के लिए...
आपके लिए शायद यह नई खबर हो सकती है, अलबत्ता गृहमंत्री शिंदे और शरद पवार के लिए यह "बहूऊऊऊत पुरानी" खबर है...
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"पप्पू के स्थान पर बबली"??
इस बात का अनुमान तो बहुत पहले ही लग चुका था कि "भोंदू" की लगातार होती दुर्गति और उसकी अति-सीमित बुद्धि की वजह से "बियांका (Bianca) वाड्रा"को कांग्रेस मैदान में उतारेगी ही... आज यह खबर लीक होने के बाद कांग्रेसी लीपा-पोती करते नज़र आए...
हालांकि अब सभी जान चुके हैं कि "पप्पू", नरेंद्र मोदी से मुकाबला करने में सक्षम नहीं है... इसलिए वही वर्षों पुराना कांग्रेसी "नाटक" (अर्थात सूती साड़ियाँ, पूरी बांहों का ब्लाऊज़, आँखों में ग्लिसरीन और महिला होने के नाम पर सहानुभूति की भीख मांगने की गुहार) खेला जाएगा...
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दिक्कत सिर्फ यही है कि "बियांका" के पति, अर्थात अपने परिवार को छोड़कर घरजमाई बना हुआ, "जमीन" से जुड़ा लालची व्यक्ति रॉबर्ट वाड्रा का काला इतिहास भी उसके साथ है...
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हिन्दू साम्प्रदायिकता बनाम मुस्लिम साम्प्रदायिकता...
राष्ट्रीय परिदृश्य पर नरेन्द्र मोदी के
उभरने से काफी पहले अर्थात पन्द्रह साल पहले 1986 में जब देश एक युवा प्रधानमंत्री को तीन-चौथाई
बहुमत देकर यह सोच रहा था कि शायद अब देश तेजी से आगे बढ़ेगा, उसी समय उस “तथाकथित आधुनिक प्रधानमंत्री” ने देश की सुप्रीम कोर्ट को लात मारते हुए
शाहबानो नाम की मुस्लिम महिला पर अन्याय की इबारत लिख मारी. क्या उस समय तक अर्थात
1985-86 तक “संघ
परिवार” ने राम मंदिर आंदोलन को तेज़ किया था? नहीं...
फिर उस समय राजीव गाँधी की क्या मजबूरी थी? इतना जबरदस्त बहुमत होते हुए भी एक
युवा प्रधानमंत्री को मुस्लिम कट्टरपंथ खुश करने की घटिया राजनीति क्यों करनी पड़ी?
इसका जवाब है, काँग्रेस की दोनों हाथों में लड्डू रखने की राजनीति. सभी को मालूम
है कि राम जन्मभूमि का ताला खुलवाते समय ना तो संघ का दबाव था और ना ही उस समय तक
नरेन्द्र मोदी को कोई जानता भी था. लेकिन पहले काँग्रेस ने हिन्दू वोटरों को खुश
करने के लिए राम जन्मभूमि का कार्ड खेला, फिर इस कदम से कहीं मुस्लिम नाराज़ ना हो
जाएँ, इसलिए एक मज़लूम मुस्लिम महिला को दाँव पर लगाकर मुस्लिम तुष्टिकरण कर डाला.
क्या 1986 से पहले “तथाकथित हिन्दू साम्प्रदायिकता”(?) नाम की कोई बात अस्तित्त्व में थी? नहीं थी. परन्तु काँग्रेस की
मेहरबानी से मुस्लिम साम्प्रदायिकता जरूर 1952 से ही इस देश में
लगातार बनी हुई है. इस बीच जब 1989 से 1996 के मध्य “हिन्दू
राजनीति” को भाजपा ले उड़ी और टूटे-फूटे बहुमत के साथ सत्ता में भी आ गई, तब
सेकुलरिज़्म के पुरोधा हडबडाते हुए बेचैन हो गए.
यह तो था मुस्लिम साम्प्रदायिकता के उभार का
शुरुआती बिंदु और इस्लामिक वोटों के लिए नीचे गिरने के सिलसिले के आरम्भ का
संक्षिप्त इतिहास... आईये अब हम पिछले कुछ वर्षों की प्रमुख घटनाओं पर संक्षेप में
निगाह डाल लें. इन घटनाओं को देखने के बाद हम समझ जाएँगे कि राजीव गाँधी ने
मुस्लिम वोटों के लिए जो गिरावट शुरू की थी, वह धार्मिक राजनीति अब खुल्लमखुल्ला
देशद्रोह, बेशर्मी और दबंगई में बदल गई है. शुरुआत करते हैं सोहराबुद्दीन एनकाउंटर
मामले से... केन्द्र व राज्य सरकार के आँकड़ों के अनुसार पिछले दस वर्ष में गुजरात
में सिर्फ 18 फर्जी एनकाउंटर के मामले सामने आए हैं, जबकि उत्तरप्रदेश में 170 से अधिक एवं आँध्रप्रदेश में 150 से अधिक फर्जी
पुलिस एनकाउंटर हुए हैं. फिर “सोहराबुद्दीन” एनकाउंटर को ही मीडिया में इतनी प्रसिद्धि क्यों मिली? ज़ाहिर है,
क्योंकि सोहराबुद्दीन चाहे कितना भी खूंखार अपराधी हो, चाहे उसके घर के कुएँ से
एके-४७ राइफलें मिली हों, परन्तु वह मुसलमान है, इसलिए उसका उपयोग करके नरेन्द्र
मोदी को घेरा जा सकता है. सोहराबुद्दीन के साथ ही तुलसी प्रजापत नाम के गुंडे का
भी एनकाउंटर हुआ था, तुलसी प्रजापत का नाम तो अधिक सुनने में नहीं आता, क्योंकि वह
हिन्दू है. यह सब पढ़ने-सुनने में बड़ा अजीब सा और साम्प्रदायिक किस्म का लग सकता
है, परन्तु जब हम देखते हैं कि अचानक ही इशरत जहाँ नामक संदिग्ध लड़की के मारे जाने
पर नीतीश कुमार और शरद पवार, दोनों ही उसके “अब्बू” बनने की कोशिश करने लगते हैं तब यह शक और भी मजबूत हो जाता है कि मुस्लिम
वोटों को लुभाने के लिए सेक्यूलर “गैंग” सोहराबुद्दीन मामले में किसी भी हद तक जा सकती है.
पाठकों को याद होगा कि मुम्बई के आज़ाद
मैदान में रज़ा अकादमी द्वारा आयोजित रैली के बाद एकत्रित मुस्लिम भीड़ ने जिस तरह
की अनियंत्रित हिंसा की, पुलिस वालों को पीटा गया, महिला कांस्टेबलों की बेइज्जती
की गई और तो और शहीद स्मारक पर मुल्लों द्वारा लातें और डंडे बरसाए गए. संदिग्ध
इतिहास वाली रज़ा अकादमी को रैली की अनुमति देना सही निर्णय था या नहीं यह अलग बात
है, परन्तु इस मुस्लिम भीड़ द्वारा इस हिंसक रैली के बाद राज ठाकरे के दबाव में जब
महाराष्ट्र सरकार की पुलिस ने बिहार जाकर एक मुस्लिम युवक को गिरफ्तार किया, तब भी
नीतीश कुमार ने सहयोग करने की बजाय मुस्लिम कार्ड खेल लिया, जबकि महाराष्ट्र के
गृह मंत्री आरआर पाटिल NCP के ही मंत्री हैं. जो शरद पवार और नीतीश कुमार जो आज इशरत जहाँ को “बेटी-बेटी-बेटी”
कहने की होड़ लगा रहे हैं, वे उस समय आमने-सामने खड़े थे.
मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बड़ी बेशर्मी और
भौंडे अंदाज़ में पालने-पोसने की कई घटनाओं में से एक सभी को याद है और वह है “बाटला हाउस एनकाउंटर”.
सोहराबुद्दीन एनकाउंटर पर रुदालीगान करने वाले सभी सेक्यूलर इस मामले में भी पुनः
शहज़ाद नामक आतंकवादी के पक्ष में आँसू बहाते नज़र आए. जिस तरह से 26/11 हमले के समय हेमंत करकरे के बलिदान की बेइज्जती करके उस घटना को भी
संघ के माथे थोपने की भद्दी कोशिश की गई थी, बाटला हाउस मामले में भी शहीद हुए
इंस्पेक्टर मोहनचंद्र शर्मा को अपराधी साबित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी
गई. यहाँ तक कि आजमगढ़ से ट्रेन भर-भरकर मुसलमानों को दिल्ली में प्रदर्शन हेतु
लाया गया. कोर्ट का निर्णय आने के बावजूद मुस्लिम वोटों के सौदागर अभी भी
मोहनचंद्र शर्मा की मिट्टी पलीद करने में लगे हुए हैं.
सोहराबुद्दीन पर मची छातीकूट, आज़ाद मैदान
हिंसा पर रहस्यमयी चुप्पी और इशरत जहाँ को बेटी बनाने की फूहड़ होड़ के बाद मुस्लिम
साम्प्रदायिकता की राजनीति का घिनौना चेहरा सामने आया उत्तरप्रदेश में, जहाँ के रेत
माफिया पर नकेल कसने वाली युवा, कर्मठ आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति को निलंबित करने
के लिए अखिलेश यादव नाम के एक और “युवा”(?) मुख्यमंत्री ने रमजान माह में एक मस्जिद की दीवार गिराने का स्पष्ट
बहाना बना लिया, ताकि मुस्लिम वोटों की खेती की जा सके. थोड़ा-बहुत हल्ला-गुल्ला
मचाया गया, लेकिन जैसा कि होता है उत्तरप्रदेश के अन्य मंत्रियों ने अपने बेतुके
बयानों से आग में घी डालने का ही काम किया. किसी को भी इस देश के प्रशासनिक ढाँचे,
संघीय व्यवस्था अथवा एक युवा अफसर के गिरते मनोबल के बारे में कोई चिंता नहीं थी.
सोनिया गाँधी ने सिर्फ एक चिठ्ठी लिखकर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली, परन्तु
संसद में सपा-बसपा के ऑक्सीजन पर टिकी हुई काँग्रेस इस मामले को अधिक तूल देना
नहीं चाहती थी... क्योंकि उसके सामने भी मुस्लिम वोटों की फसल का सवाल था...
इन सारी चुनावी सेकुलर बेशर्मियों के बीच
एक और बात को च्युइंग-गम की तरह चबाया गया. वह है मीडिया की सांठगांठ के साथ तैयार
किया गया “इस्लामी टोपी प्रकरण”.
पिछले एक साल में तो इस मुद्दे पर इतना कुछ कहा जा चुका है कि इस्लाम में पवित्र
मानी जाने वाली सफेद टोपी अब हँसी और खिल्ली का विषय बन चुकी है. चंद बिके हुए
लोगों ने ऐसा माहौल रच दिया गया है, मानो देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार
होने के लिए विकास कार्य, दूरदृष्टि, ईमानदारी वगैरह की जरूरत नहीं है, बल्कि “जालीदार टोपी”
लगाना ही एकमात्र क्वालिफिकेशन है. इफ्तार पार्टियों के नाम पर मुस्लिम वोटों की
दलाली का जो भौंडा और भद्दा प्रदर्शन होता है, उसका तो कोई जवाब ही नहीं है. भाजपा
के दूसरे मुख्यमंत्री और नेता भी इस चूहा-दौड़ में शामिल दिखाई देते हैं. 1996 की सेकुलर “गिरोहबाजी” से 13 दिनों और 13 माह में भाजपा की सरकारें गिराने वालों की हरकतें देख चुकी देश की
जनता फिर से देख रही है कि एक अकेले नरेन्द्र मोदी के खिलाफ किस तरह यह “गैंग” ना सिर्फ एकजुट है, बल्कि इन लोगों को मुस्लिम साम्प्रदायिकता भड़काने
से भी गुरेज़ नहीं है. इसीलिए कभी यह गैंग सभी मुसलमानों को “कुत्ते का पिल्ला”
साबित करने में जुट जाती है तो कभी टोपी और पाँच रूपए के टिकिट जैसे क्षुद्र
मुद्दों पर टाईम-पास करती है.
तात्पर्य यह है कि गत कुछ वर्षों में बड़े
ही सुनियोजित ढंग से मुस्लिम साम्प्रदायिकता को खाद-पानी दिया जा रहा है, और मजे
की बात यह है कि ये सब कुछ “साम्प्रदायिक”(?) ताकतों से लड़ने के नाम पर किया जा रहा है. क्या पिछले दस वर्ष में
कभी भाजपा ने राम मंदिर के नाम पर आंदोलन-प्रदर्शन किया है? क्या विहिप और बजरंग
दल ने पिछले दस वर्ष में गौ-हत्या अथवा हिन्दू धर्म के किसी अन्य मुद्दे पर कोई
विशाल या हिंसात्मक आंदोलन किया है? क्या नरेन्द्र मोदी के गुजरात में पिछले दस
वर्ष में कोई छोटा-बड़ा दंगा हुआ है? क्या शिवराज-रमण सरकारों के शासनकाल में
मुसलमानों के ऊपर “अत्याचार”
बढ़ाए गए हैं?? इन सभी सवालों का जवाब “नहीं” में आता है, तो फिर “सेकुलरिज़्म
के घड़ियाल”
मुस्लिम साम्प्रदायिकता के उभार को
तथाकथित हिन्दू आतंक(?) के जवाब में होने वाली घटना कैसे कह सकते हैं... यह तो
चोरी और सीनाजोरी वाली हरकत हो गई.
इसी सीनाजोरी का एक और प्रदर्शन हाल ही
में जम्मू क्षेत्र के किश्तवाड में देखने को मिला, जहाँ ईद की नमाज़ के बाद
मुस्लिमों की भारी भीड़ ने भारत विरोधी नारे लगाए, जिसका विरोध करने पर असंगठित
हिंदुओं को जमकर सबक सिखाया गया. सैकड़ों दुकानें जलीं, संपत्ति लूटी गई, कुछ घायल
हुए और कुछ मारे गए. जवाब में उमर अब्दुल्ला ने भी “देश के इतिहास में हुए एकमात्र दंगे”(?) यानी गुजरात का उदाहरण देकर उसे हल्का करने की कोशिश कर ली. अब्दुल्ला
का वह बयान तो और भी हैरतनाक था जिसमें उन्होंने कहा कि “ कश्मीर में ईद की नमाज के बाद अथवा जुमे की नमाज के बाद भारत विरोधी
नारे लगना तो आम बात है...”
यानी उमर अब्दुल्ला कहना चाहते हैं कि पाकिस्तान जिंदाबाद कहना एक सामान्य सी बात
है और उसका विरोध नहीं किया जाना चाहिए. क्या अब भी कोई शक बाकी रह गया है कि
कश्मीर को पंडितों से खाली करने के बाद अब जेहादियों की नज़रें जम्मू क्षेत्र पर भी
हैं, और इस मंशा को हवा देने में बाकी भारत में जारी मुस्लिम साम्प्रदायिकता का
बड़ा हाथ है, इस साधारण सी बात को सेकुलर समझना ही नहीं चाहते. “हिन्दू आतंक”
नाम के जिस हौए को वे खड़ा करना चाहते हैं, उसके पैर इतनी खोखली जमीन पर खड़े हैं कि
महाराष्ट्र सरकार साध्वी प्रज्ञा के खिलाफ अभी तक ठीक से चार्जशीट भी फ़ाइल नहीं कर
पाई है, सरकारी प्रेस की खबरों पर यकीन करें तो असीमानंद पर NIA के बयान भी लगातार बदल रहे हैं, भाजपा अथवा कोई हिंदूवादी संगठन इनकी
मदद के लिए खुल्लमखुल्ला सामने नहीं आ रहा, जबकि शहजाद का साथ देने के लिए
दिग्विजय सिंह डट चुके हैं, सोहराबुद्दीन के लिए तीस्ता “जावेद” सीतलवाड बैटिंग कर रही हैं, आज़ाद मैदान की घटना को “मामूली”
बताकर खारिज करने की कोशिशें हो रही हैं, किश्तवाड से हिन्दू पलायन करने की गुहार
लगा रहे हैं कोई सुनवाई नहीं हो रही... लेकिन सभी पार्टियों के दिलो-दिमाग पर नरेन्द्र
मोदी नाम का तूफ़ान ऐसा हावी है कि उन्हें मुस्लिम वोटों से आगे कुछ दिखाई नहीं दे
रहा, मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए नित-नए रास्ते खोजे जा रहे हैं, ताकि
मोदी के नाम से मुसलमानों को धमकाकर रखा जा सके.
फिल्म मिशन इम्पासिबल (भाग-२) में एक
वैज्ञानिक कहता है, “नायक
गढ़ने के लिए पहले एक खलनायक गढ़ना जरूरी है...” मुस्लिम वोटरों की दलाली करने वाले नेताओं और दलों की आपसी खींचतान
के चलते उन्होंने आपस में एक “गैंग” बनाकर पहले नरेन्द्र मोदी को खलनायक बनाया, ताकि वे खुद को मुस्लिमों
के एकमात्र मसीहा और खैरख्वाह साबित कर सकें, उनके नायक बन सकें. वर्ना क्या वजह
है कि जब भी गुजरात दंगों की बात होती है या चर्चाएँ होती हैं, उस समय उन दंगों के
मुख्य कारक तत्त्व गोधरा ट्रेन हादसे को ना सिर्फ भुला दिया जाता है, बल्कि उसे
चुपचाप दरी के नीचे छिपाने की भौंडी कोशिशें लगातार जारी रहती हैं. क्या 2001 से पहले भारत में कहीं दंगे नहीं हुए थे? क्या 2001 के बाद भारत में कभी दंगे नहीं हुए? क्या
2001 से पहले के गुजरात का हिन्दू-मुस्लिम दंगों का इतिहास लोगों को मालूम
नहीं है, जब चिमनभाई पटेल के शासन में दो-दो माह तक दंगे चला करते थे? सेकुलरिज़्म
की डामर अपने चेहरे पर पोते हुए कांग्रेसियों और वामपंथियों को सब मालूम है कि
काँग्रेस शासन के दौरान असम के नेल्ली से लेकर मलियाना तक सैकड़ों मुसलमानों का
नरसंहार हुआ था, और उधर तीस साल के वामपंथी कुशासन में पश्चिम बंगाल में गरीबी तो
बढ़ी ही, साथ ही मुस्लिम वोट बैंक की घटिया राजनीति के चलते बांग्लादेश से आए हुए “सेक्यूलर मेहमानों”
ने पश्चिम बंगाल के सत्रह जिलों और असम के आठ जिलों की आबादी को मुस्लिम बहुल बना
डाला. क्या “सेक्यूलर रतौंधी”
से ग्रस्त लोग कभी इसे देख पाएँगे?
नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते समय यह “गैंग” सुविधानुसार यह भूल जाती है कि पिछले दस वर्ष में गुजरात में एक भी
दंगा नहीं हुआ, क्या यह बड़ी उपलब्धि नहीं है? बिलकुल है, परन्तु जैसा कि मैंने ऊपर
कहा, खुद को नायक साबित करने के चक्कर में खलनायक गढा गया है, और जब यह कथित “खलनायक”
गुजरात के विकास को शो-केस में रखकर वोट जुटाने की कोशिश में लगा है, तो रह-रहकर
काँग्रेस-सपा-बसपा-जदयू-वामपंथ सभी को सेकुलरिज़्म का बुखार चढ़ने लगता है. नरेन्द्र
मोदी से मुकाबले के लिए इन लोगों की निगाह में सिर्फ एक ही रामबाण है, और वह है “थोकबंद मुस्लिम वोट”.
ज़ाहिर है कि मुस्लिम वोट देश की १०० से अधिक लोकसभा सीटों पर निर्णायक है, इसलिए
आने वाले दिनों में इस “पैमाने” पर इन्हीं के बीच आपस में घमासान मचेगा, जिसका केन्द्र बिंदु
उत्तरप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल होंगे.
हिन्दू साम्प्रदायिकता का उभार और चरम 1988 से 1993 तक ही कहा जा सकता है. 2001 में गुजरात की घटना
सिर्फ गोधरा की प्रतिक्रिया थी, लेकिन पिछले साठ वर्षों में काँग्रेस सहित अन्य
तथाकथित सेकुलर पार्टियों ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ाया और पाला-पोसा है,
उसके जवाब में यदि मई २०१४ के लोकसभा चुनावों में “हिन्दू उभार”
सामने आ गया तो मुश्किल हो जाएगी. संक्षेप में कहूँ तो, “राजनीति करें, लेकिन रबर को इतना भी ना खींचें कि वह टूट ही जाए...”. यदि इसी तरह मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ोतरी दी गई, तो 1989-1991 की तरह पुनः हिन्दू साम्प्रदायिकता का उभार ना हो जाए... यदि ऐसा हुआ
तो राजनीतिज्ञों का कोई नुकसान नहीं होगा, लेकिन आम गरीब मुसलमान को ही कष्ट उठाने
पड़ेंगे.
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नरेन्द्र मोदी की प्रचार रणनीति और भीतरघात के खतरे...
यदि यह तीन नाम किसी हिन्दी फिल्म के
होते, तो निश्चित ही वह फ़िल्में भी उतनी ही हिट होतीं, जितना कि नरेन्द्र मोदी को
लेकर (24 X 7 X 365) दिन-रात तक “स्यापा” करने वाले चैनलों ने कमाया. जी हाँ, मैं
बात कर रहा हूँ, “कुत्ते के पिल्ले”, “सेकुलरिज्म का बुरका” और “पाँच रूपए की औकात” नामक तीन “फिल्मों”(?) की. किसी एक हीरो द्वारा दस दिनों के
अंतराल में लगातार तीन-तीन हिट फ़िल्में देना मायने रखता है, ये बात और है कि
नरेन्द्र मोदी स्वयं को तेजी से भारत की जनता के बीच “हीरो” अथवा “विलेन” के रूप में
ध्रुवीकरण करते जा रहे हैं.
भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के सशक्त
उम्मीदवार और फिलहाल “राष्ट्रीय प्रचार
प्रमुख” ने जिस अंदाज़ में पहले संवाद एजेंसी “रायटर” को इंटरव्यू दिया, उसके बाद पुणे के
फर्ग्युसन कॉलेज में युवाओं को संबोधित किया उसने मीडिया, काँग्रेस, सेकुलरों और
वामपंथियों के होश उड़ाकर रख दिए. बची-खुची कसर हैदराबाद की प्रस्तावित रैली में
भाजपा की स्थानीय इकाई द्वारा मोदी को सुनने के लिए पाँच रूपए का अंशदान लेने की
घोषणा ने पूरी कर दी. नरेन्द्र मोदी के प्रत्येक भाषण और इंटरव्यू को खुर्दबीन
लेकर जाँचने वाले “बुद्धिजीवियों” की निगाह कुछ
ऐसा मसाला खोजती ही रहती है, जिसके द्वारा उनकी रोजी-रोटी चलती रहे और टीवी पर “भौं-भौं-थू-थू-तू-तू-मैं-मैं” के दौरान
उनका मुखड़ा दिखाई देता रहे. उपरोक्त तीनों नामों की सुपरहिट साप्ताहिक फ़िल्में
इन्हीं बुद्धिजीवियों की देन है. (यहाँ बुद्धिजीवियों से मेरा आशय “बुद्धि को गिरवी रखकर” अपनी रोटी कमाने
वालों से है).
बहरहाल, यह सिद्ध होता जा रहा है कि जो
हुआ अच्छा ही हुआ. क्योंकि नरेन्द्र मोदी को घेरने और उनके कथनों को प्रताड़ित करने
से नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता घटती नहीं है, बल्कि बढ़ती है, उनके भाषणों को
लगातार घंटे भर बिना ब्रेक के दिखाने से चैनलों की TRP भी बढ़ती है... यानी
सभी के लिए यह फायदे का सौदा होता है. दिक्कत काँग्रेस को हो रही है, उसे समझ नहीं
आ रहा है कि नरेन्द्र मोदी के इस आक्रामक प्रचार अभियान का जवाब कैसे दिया जाए,
नतीजे में काँग्रेस कभी दिग्विजय सिंह (जिनका प्रत्येक बयान संघ समर्थकों में
बढ़ोतरी ही करता है), कभी मनीष तिवारी (जो चाटुकारिता की सीमाओं को पार करते हुए
मोदी की औकात पाँच रूपए बताकर मोदी को फायदा पहुंचाते हैं), तो कभी शशि थरूर (जो
खाकी पैंट को इतालवी फासीवाद तक ले जाने की मूर्खता कर बैठते हैं)... जैसे
प्रवक्ताओं को आगे करती जा रही है. लेकिन इन लोगों की बयानबाजी से नुकसान और भी
बढ़ता जा रहा है, ध्रुवीकरण और तेज होता जा रहा है. भले ही नरेन्द्र मोदी ने किसी
समुदाय विशेष को कुत्ते का पिल्ला नहीं कहा हो, लेकिन काँग्रेस-पोषित मीडिया और
काँग्रेस-जनित बुद्धिजीवियों ने मुसलमानों को कुत्ते का पिल्ला साबित करने में कोई
कसर बाकी नहीं रखी.
जैसा कि सब जानते हैं नरेन्द्र मोदी कोई
भी बात अथवा उदाहरण बगैर सोचे-समझे नहीं देते. ज़ाहिर है कि नरेन्द्र मोदी अपने
विरोधियों को उकसाना चाहते थे, और वह कामयाब भी रहे. यूपी-बिहार के मुस्लिम वोटों
को लेकर आगामी कुछ महीने में जैसा घमासान मचने वाला है, उसके कारण हिन्दू वोटर
अपने-आप ध्रुवीकृत होता चला जाएगा. गत तीन दशक गवाह हैं कि यूपी-बिहार में “जाति” की ही राजनीति चलती है, और इस जातिगत
राजनीति का तोड़ या तो विकास की बात करना है, अथवा हिन्दू वोटरों जाति तोड़कर धर्म
के आधार पर एकत्र करना है. नरेन्द्र मोदी दोनों ही रणनीतियों पर चल रहे हैं. जिन
राज्यों में विकास की बात चलेगी वहाँ पर गुजरात का विकास दिखाया जाएगा, मोदी के
भाषणों में वर्तमान UPA सरकार द्वारा फैलाए जा रहे निराशाजनक वातावरण के साथ युवाओं को लेकर
बनने वाले चमकदार भविष्य की बात की जाएगी, और जिन राज्यों में धर्म-जाति की
राजनीति चलती होगी, वहाँ अमित शाह को प्रभारी बनाकर उन्हें सांकेतिक रूप से राम
मंदिर भी भेजा जाएगा.
मोदी के इस रणनीति को लेकर काँग्रेस इस
समय गहरी दुविधा में है. काँग्रेस यह निश्चित नहीं कर पा रही है कि १) क्या वह
राहुल गाँधी को स्पष्ट रूप से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे या ना करे??
(ऐसा करने पर खतरा यह होगा कि लड़ाई मुद्दों से हटकर व्यक्तित्वों पर फोकस हो
जाएगी, शहरी मध्यमवर्ग और युवाओं के गुस्से को देखते हुए काँग्रेस यह नहीं
चाहती)... २) क्या नरेन्द्र मोदी का “हौआ” दिखाकर सर्वाधिक सीटों वाले यूपी-बिहार के मुसलमानों को अपने पक्ष में
किया जा सकता है?? (इसमें खतरा यह है कि भाजपा को छोड़कर सभी पार्टियाँ मुस्लिम वोट
रूपी केक में से अपना टुकड़ा झपटने की तैयारी में हैं, इसलिए निश्चित नहीं कहा जा
सकता कि मोदी को हराने के नाम पर क्या वाकई मुसलमान काँग्रेस को वोट देंगे?)... और
काँग्रेस की दुविधा का तीसरा बिंदु है - क्या काँग्रेस को अपने पुराने फार्मूले
अर्थात “गरीब को गरीब बनाए रखो और चुनाव के समय उसके
सामने रोटी का एक टुकड़ा फेंककर उसके वोट ले लो” को ही आजमाना
चाहिए? उल्लेखनीय है कि २००९ के चुनावों में “मनरेगा” एवं किसानों की कर्ज माफी के 72,000 करोड़ रूपए ने ही
काँग्रेस की नैया पार लगाई थी. यही दाँव काँग्रेस अब दोबारा खेलना चाहती है “खाद्य सुरक्षा क़ानून” के नाम पर. लेकिन
इसमें खतरा यह है कि खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों और नित नए सर्विस टैक्स की वजह से
शहरी मध्यमवर्ग काँग्रेस से और भी नाराज़ हो जाएगा, ऐसा भी हो सकता है कि आगामी
चुनाव बुरी तरह त्रस्त निम्न-मध्यमवर्ग बनाम बेहद गरीब वर्ग के बीच हो जाए. कुल
मिलाकर काँग्रेस खुद अपने ही जाल में उलझती जा रही है, जबकि उधर नरेन्द्र मोदी
मैदान में उतरकर बैटिंग की शुरुआत में ही “तीन चौके” लगा चुके हैं.
हालाँकि “सेकुलरिज्म के
अखाड़े” में उतरने के लिए नरेन्द्र मोदी भी अपनी कमर कस
चुके हैं. मोदी ने संसदीय बोर्ड की बैठक में ही स्पष्ट कर दिया है कि “सेकुलरिज्म” के मुद्दे पर
काँग्रेस को समुचित जवाब दिया जाएगा. जनता को यह बताया जाएगा कि पिछले ६० साल में
काँग्रेस ने किस तरह मुसलमानों का उपयोग किया, किस तरह दंगों के समय अधिकाँश
राज्यों में काँग्रेस (या गैर-भाजपाई) सरकारें थीं, किस तरह काँग्रेस ने विभिन्न
प्रकार के “लालीपाप” दे-देकर
मुसलमानों को बेवकूफ बनाया. साथ ही यह भी बताया जाएगा कि गुजरात के मुसलमानों की
तुलना में पश्चिम बंगाल और बिहार के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति कितनी नीचे है.
तात्पर्य यह है कि “प्रचार प्रमुख” तो पूरे दमखम
और फुल-फ़ार्म में गांधीनगर से दिल्ली की ओर कूच कर चुके हैं, जबकि काँग्रेस CBI या SIT के जरिए किसी
“अप्रत्याशित लाटरी” की प्रत्याशा
में बैठी है, और उनके “युवराज” महीने-दो महीने में एकाध जगह पर अपने दर्शन देकर वापस अपनी मांद में
घुस जाते हैं.
ऐसा नहीं है कि भाजपा या नरेन्द्र मोदी के
सामने सब कुछ अच्छा-अच्छा, गुलाबी-गुलाबी ही है. नरेन्द्र मोदी की राह में कई
किस्म के रोड़े भी हैं. संघ के हस्तक्षेप और बीचबचाव के बावजूद आडवाणी खेमा पार्टी
पर अपनी पकड़ छोड़ने को तैयार नहीं है. खुद आडवाणी भी अभी तक अनमने ढंग से ही
नरेन्द्र मोदी के साथ हैं, उन्होंने अभी तक एक बार भी नरेन्द्र मोदी की
प्रधानमंत्री दावेदारी के पक्ष में खुलकर कुछ नहीं कहा है. इस बीच मध्यप्रदेश में
भाजपा ने राघव जी के रूप में “आत्मघाती गोल” कर लिया है. भले ही मप्र काँग्रेस इस खुलासे के लिए अपनी पीठ ठोंकती
रहे, लेकिन वास्तव में यह भाजपा की अंदरूनी गुटबाजी और महत्वाकांक्षा का ही नतीजा
था कि यह सीडी कांड हो गया. हालाँकि राघव जी की इतनी राजनीतिक हैसियत कभी नहीं रही
कि वे शिवराज या सुषमा को चुनौती दे सकें, परन्तु फिर भी पत्रकार जगत में दबे
शब्दों में इस कांड को शिवराज बनाम मोदी वर्चस्व से जोड़ने की कोशिश हो रही है. इस
प्रकार की गुटबाजी देश के लगभग प्रत्येक राज्य में है. मोदी की असली चुनौती
उत्तरप्रदेश-बिहार और महाराष्ट्र में होगी. जहाँ उन्हें दो विपरीत ध्रुवों को एक
साथ साधना है. यदि नरेन्द्र मोदी महाराष्ट्र में उद्धव-राज को एक साथ लाने तथा
कर्नाटक में येद्दियुरप्पा को ससम्मान वापस लाने में कामयाब रहे तो रास्ता काफी
आसान हो जाएगा. हालाँकि राज ठाकरे को साथ लाने में एक पेंच यह है कि “मनसे” के विरुद्ध यूपी-बिहार में लगभग घृणा का
माहौल है, इसलिए महाराष्ट्र की १५-२० सीटों के लिए खुले तौर पर राज ठाकरे को साथ
लेने पर यूपी-बिहार की कई सीटों को गँवाने और विरोधियों के दुष्प्रचार का सामना भी
करना पड़ सकता है. केरल में नरेन्द्र मोदी पहले ही पेजावर मठ तथा नारायण गुरु आश्रम
जाकर नमन कर चुके हैं, तमिलनाडु से भी जयललिता का साथ मिलने का आश्वासन है.
आंध्रप्रदेश में तेलंगाना विवाद ने काँग्रेस शासित इस सबसे सशक्त राज्य में उसकी
हालत पतली कर रखी है. ज़ाहिर है कि नरेन्द्र मोदी के नाम, उनकी भाषण शैली, काँग्रेस
पर सीधा हमला बोलने की अदा और गुजरात की विकासवादी छवि के सहारे यदि मोदी अपने दम
पर यूपी-बिहार-झारखंड की लगभग १३० सीटों में से ६० सीटें भी ले आते हैं, तो
काँग्रेस का नाश तय है. इसीलिए इन दोनों राज्यों में आने वाले महीनों में
मुसलमानों के वोटों और आरक्षण के नाम पर कोई ना कोई गडबड़ी होने की आशंका जताई जा
रही है. नरेन्द्र मोदी के समर्थक और संघ चाहेंगे कि पार्टी को २०० से २२० सीटों के
बीच प्राप्त हो जाएँ, उसके बाद तो राह अपने-आप आसान हो जाएगी... जबकि आडवाणी गुट
चाहता है कि भाजपा किसी भी हालत में १८० सीटों से आगे ना निकल सके, ताकि बाद में “सर्वसम्मति” और “काँग्रेस विरोधी गठबंधन” के नाम पर
ममता-नीतीश-पटनायक-मायावती इत्यादि को साधकर आडवाणी के नाम को आगे बढ़ाया जा सके.
अतः नरेन्द्र मोदी के सामने जहाँ एक तरफ काँग्रेस-सेकुलर-वामपंथ-सीबीआई-NGO-मीडिया जैसे
मजबूत “गठबंधन” से निपटने की
चुनौती है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा के स्थानीय क्षत्रपों की आपसी सिर-फुटव्वल तथा
आडवाणी गुट के “बेमन” से किए जा
रहे सहयोग से भी निपटना है. हालाँकि काँग्रेस के विरोध तथा नरेन्द्र मोदी के पक्ष
में लगभग प्रत्येक राज्य में एक “अंडर-करंट” बह रहा है, भले ही काँग्रेस या मीडिया इसे न स्वीकार करे परन्तु जिस
तरह से मोदी के प्रत्यके शब्द और प्रत्येक हरकत पर उनके विरोधियों द्वारा तीखी
प्रतिक्रिया दी जाती है, उससे साफ़ है कि वे भी इस “अंडर-करंट” को महसूस कर चुके हैं. स्वाभाविक है कि अगले छः-आठ माह देश की
राजनीति और भविष्य के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं.
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बौद्ध आतंक(?) और बर्मा का ओसामा...
इसे किसी एक पत्रकार की इतिहास और
संस्कृति के बारे में जानकारी का “दिवालियापन” कहें या उत्तेजना फैला कर क्षणिक प्रचार पाने की भूख कहें, यह समझना
मुश्किल है. विश्व में प्रतिष्ठित मानी जाने वाली अमेरिका की पत्रिका “टाईम” में गत माह एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसकी
लेखिका हैं हन्नाह बीच. टाईम पत्रिका की कवर स्टोरी बनना और उसके मुखपृष्ठ पर
प्रकाशित होना एक “सर्कल विशेष” में बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती है. हन्नाह बीच ने बर्मा में पिछले
एक-दो वर्ष से जारी जातीय हिंसा को कवर स्टोरी बनाते हुए लेख लिखा है जिसका शीर्षक
है – “बौद्ध आतंक का चेहरा”.
इस शीर्षक पर कड़ी आपत्ति जताते हुए बर्मा
के राष्ट्रपति थिआं सेन ने बौद्ध संस्कृति के घोर अपमान तथा बौद्ध धर्म और बर्मी
राष्ट्रवाद के समर्थन में हन्नाह बीच और टाईम पत्रिका पर मानहानि का दावा करने का
निश्चय किया है. राष्ट्रपति के समर्थन में आम जनता भी साथ आ गई है, और हजारों
बौद्ध भिक्षुओं के साथ बर्मा की राजधानी यंगून में अमेरिकी दूतावास के सामने
शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया गया.
यह लेख प्रकाशित होने तथा मामले के इतना
तूल पकड़ने की वजह हैं ४४ वर्षीय बौद्ध धर्मगुरु भंते वीराथू. सितम्बर २०१२ में
बौद्ध भिक्षुओं के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए भंते विरथू ने बर्मी राष्ट्रपति
द्वारा अवैध रूप से देश में घुसे बांग्लादेशियों को देश से खदेड़ने सम्बन्धी क़ानून
का समर्थन किया था. पिछले लगभग एक साल से बांग्लादेश सीमा पार कर बर्मा में घुसे
हुए रोहिंग्या मुसलमानों और स्थानीय बौद्ध भिक्षुओं व निवासियों के बीच तनातनी का
माहौल चल रहा था. इस बीच रखिने प्रांत में एक मामूली विवाद के बाद हिंसा भड़क उठी,
जो देखते ही देखते अन्य शहरों में भी फ़ैल गई. भंते विरथू का दावा है कि एक ज्वेलरी
दूकान में कुछ मुस्लिम युवकों द्वारा की गई बदतमीजी, लूट के प्रयास और मारपीट के
बाद बौद्ध समुदाय का गुस्सा उबल पड़ा. बौद्ध भिक्षुओं ने १४ बांग्लादेशी मुसलमानों
को मार दिया और कई मस्जिदों में आग लगा दी. उल्लेखनीय है कि सरकारी आँकड़ों के
मुताबिक़ लगभग सवा करोड़ अवैध बांग्लादेशी मुस्लिम बर्मा में घुसे हुए हैं जो
स्थानीय निवासियों को आए दिन परेशान करते रहते हैं.
भंते विराथू अपने राष्ट्रवादी भाषणों के
लिए जाने जाते हैं, और उनका यह वाक्य बर्मा में बहुत लोकप्रिय हुआ जिसमें उन्होंने
कहा कि – “...आप चाहे जितने भी भले और सहिष्णु क्यों ना हों,
लेकिन आप एक पागल कुत्ते के साथ सो नहीं सकते...”. उन्होंने आगे
कहा कि यदि हम कमजोर पड़े तो बर्मा को एक मुस्लिम राष्ट्र बनते देर नहीं लगेगी.
उनके ऐसे भाषणों को बांग्लादेशी मुस्लिम नेताओं ने “भडकाऊ” और “हिंसात्मक” करार दिया.
लेकिन भंते कहते हैं कि यह हमारे देश को संभालने की बात है, इसमें किसी बाहरी
व्यक्ति को बोलने का कोई हक नहीं है. बौद्ध सम्प्रदाय के लोग कभी भी हिंसक नहीं
रहे हैं, परन्तु बांग्लादेशी मुसलमान उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर कर रहे हैं”. इन्हीं भाषणों को आधार बनाकर टाईम पत्रिका ने एक कवर स्टोरी बना
मारी. इस स्टोरी में बौद्ध संस्कृति से अनजान, “नासमझ”(?) लेखिका ने ना सिर्फ “बौद्ध आतंक” शब्द का उपयोग किया, बल्कि भंते विरथू को “बर्मा का बिन
लादेन” तक चित्रित कर दिया गया.
बर्मा के राष्ट्रपति ने बौद्ध धर्मगुरु का
समर्थन करते हुए कहा है कि सरकार सभी धर्मगुरुओं और सभी पक्षों के नेताओं से चर्चा
कर रही है और इस्लाम विरोधी इस हिंसा का कोई ना कोई हल निकल आएगा. शांति बनाने के
लिए किए जा रहे इन उपायों को इस लेख में पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया गया है.
इसलिए शक होता है कि इस लेख के पीछे अतिवादी इस्लामिक बुद्धिजीवियों का हाथ हो
सकता है, जो कि समस्या की "जड़" (अर्थात अवैध बांग्लादेश घुसपैठिये तथा इस्लाम के नाम पर उन्हें
मिलने वाले स्थानीय समर्थन) पर ध्यान देने की बजाय “जेहाद” भड़काने की दिशा में बर्मा सरकार और बौद्ध समुदाय को बदनाम करने में
लगा हुआ है. भंते ने कहा कि टाईम मैगजीन की इस कवर स्टोरी से समूचे विश्व में
बौद्ध समुदाय की छवि को नुकसान पहुँचा है, इसीलिए हम इसका कड़ा विरोध करते हैं.
बौद्ध धर्म हिंसक कतई नहीं है, लेकिन यदि बांग्लादेशियों पर लगाम नहीं लगाई गई और
बर्मा में मुसलमानों की बढती आबादी की समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह मामला
और आगे बढ़ सकता है. भंते ने बर्मा सरकार से अनुरोध किया है कि बौद्ध और मुस्लिम
समुदायों के बीच विवाह पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए, धर्मांतरण पर रोक लगनी चाहिए तथा
बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा किए जा रहे व्यवसाय और उनके कामकाज पर आर्थिक
बहिष्कार होना चाहिए. विराथू कहते हैं यह हमारे देश और धर्म को बचाने का आंदोलन
है. टाईम पत्रिका के इस लेख से हम कदम पीछे हटाने वाले नहीं हैं और अपने धर्म और
राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे.
अब आप सोच रहे होंगे कि इस मामले का हमारे
देश से क्या सम्बन्ध है? जरूर सोचिए... सोचना भी चाहिए... सोचने से ही तो “मीडिया द्वारा बंद की गई” दिमाग की खिड़कियाँ
खुलती हैं और उनमें ताजी हवा आती है. लेख को पढ़ने के बाद निश्चित रूप से आपके
दिमाग की घंटियाँ बजी होंगी... “हिन्दू आतंक” शब्द भी गूँजा होगा, तथा हिन्दू आतंक शब्द का विरोध करने वालों को “साम्प्रदायिक” कहने के “फैशन” पर भी विचार आया होगा. दिल्ली-मुम्बई
समेत असम और त्रिपुरा जैसे सुदूर राज्यों में घुसे बैठे लाखों अवैध बांग्लादेशियों
और इस्लाम के नाम पर उन्हें मिलने वाले “स्थानीय
समर्थन” के बारे में भी थोड़ा दिमाग हिला ही होगा... इसी
प्रकार भारत में “मूलनिवासी” के नाम पर
व्यवस्थित रूप से चलाए जा रहे “बौद्धिक आतंकवाद” की तरफ भी ध्यान गया ही होगा. लखनऊ में बुद्ध प्रतिमा पर चढ़े बैठे और
तोड़फोड़ मचाते “शांतिदूतों” का चित्र भी
आँखों के सामने घूमा ही होगा. उन “शांतिदूतों” की उस हरकत पर दलित विचारकों-चिंतकों(?) की ठंडी प्रतिक्रिया भी आपने
सुनी ही होगी... तात्पर्य यह कि सोचते जाईये, सोचते जाईये, आपके दिमाग के बहुत से
जाले साफ़ होते जाएँगे... बर्मा के बौद्ध धर्मावलंबी तो जाग चुके, लेकिन आप “नकली-सेकुलरिज्म की अफीम” चाटे अभी भी सोए हुए
हैं.
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“देवी”(?) मदर मेरी और “विष्णु”(?) साईं – यह विकृति कहाँ ले जाएगी?
कुछ वर्ष पूर्व की बात है, पंजाब में सिख
समुदाय गुस्से से उबल रहा था. सिखों और पंजाब-हरियाणा में एक प्रमुख “पंथ”(?) बन चुके डेरा सच्चा सौदा के समर्थकों
के बीच खूनी संघर्ष चला. इस संघर्ष के पीछे का कारण था डेरा सच्चा सौदा प्रमुख “राम-रहीम सिंह” की वेषभूषा... डेरा
सच्चा सौदा प्रमुख रामरहीम सिंह ने एक पोस्टर में जैसी वेषभूषा पहन रखी थी और दाढ़ी-पगड़ी
सहित जो हावभाव बनाए थे, वह सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह से बिलकुल
मिलते-जुलते थे. उस पोस्टर से ऐसा आभास होता था मानो रामरहीम सिंह कोई “पवित्र गुरु” हैं, और सिखों को भी
उनका सम्मान करना चाहिए. भला सिखों को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता था, नतीजा यह हुआ
कि दोनों पंथों के लोग आपस में जमकर लड़ पड़े.
लेख के आरम्भ में यह उदाहरण देने की जरूरत इसलिए आवश्यक था, ताकि धर्म और उससे जुड़े प्रतीकों के बारे में उस धर्म (या पंथ) के समर्थकों, भक्तों की भावनाओं को समझा जा सके. गत कुछ वर्षों में हिन्दू धर्म के भगवानों, देवियों और धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों पर “बौद्धिक” किस्म के आतंकवादी हमले अचानक बढ़ गए हैं. यह “ट्रेंड” देखने में आया है कि किसी खास पंथ को लोकप्रिय बनाने अथवा दूसरे धर्मों के लोगों को अपने पंथ में शामिल करने (अर्थात धर्मांतरण करने) की फूहड़ होड़ में अक्सर हिन्दू धर्म को ही सबसे पहले निशाना बनाया जाता रहा है. हाल ही में एक लेख में मैंने दक्षिण भारत (जहाँ चर्च और वेटिकन से जुड़ी संस्थाएं बहुत मजबूत हो चुकी हैं) के कुछ इलाकों में हिन्दू धर्म और उसकी संस्कृति से जुड़े प्रतीकों और आराध्य देवताओं को विकृत करने के कई मामलों का ज़िक्र किया था. इसमें यीशु को एक हिन्दू संत की वेषभूषा में, ठीक उसी प्रकार आशीर्वाद की मुद्रा बनाए हुए एक पोस्टर एवं इस चित्र के चारों तरफ “सूर्य नमस्कार” की विभिन्न मुद्राओं को दर्शाया गया (मानो सूर्य नमस्कार और जीसस नमस्कार समकक्ष ही हों). इसी प्रकार भरतनाट्यम प्रस्तुती के गीतों में यीशु के वंदना गीत, चर्च को “यीशु मंदिर कहना”, मदर मैरी को साड़ी-बिंदी सहित “देवी” के रूप में प्रस्तुत करना तथा कुछ चर्चों के बाहर “दीप स्तंभ” का निर्माण करना... जैसी कई “शरारतें”(?) शामिल हैं. ज़ाहिर है कि ऐसा करने से भोले-भाले हिन्दू ग्रामीण और आदिवासियों को मूर्ख बनाकर आसानी से उनका भावनात्मक शोषण किया जा सकता है और उन्हें ईसाई धर्म में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जाता है.
हाल ही में ऐसे दो और मामले सामने आए हैं, जिसमें भारत की सनातन संस्कृति और हिन्दू धर्म के प्रतीकों को विकृत किया गया है. पहला मामला है झारखंड का, जहाँ धर्मांतरण की “मिशनरी” गतिविधियाँ उफान पर हैं. झारखंड के “सरना” आदिवासी जिस देवी की पूजा करते हैं, उसे वे “माँ सरना देवी” कहते हैं. सरना आदिवासी महिलाएँ भी उसी देवी की वेशभूषा का पालन करते हुए शुभ अवसरों पर “लाल रंग की बार्डर वाली सफ़ेद साड़ी” पहनती हैं. हाल ही में धुर्वा विकासखंड के सिंहपुर गाँव में एक चर्च ने मदर मैरी की एक मूर्ति स्थापित की, जिसमें मदर मैरी को ठीक उसी प्रकार की साड़ी में दिखाया गया है तथा जिस प्रकार से आदिवासी महिलाएँ काम करते समय अपने बच्चे को एक झोली में लटकाकर रखती हैं, उसी प्रकार मदर मैरी के कंधे पर एक झोली है, जिसमें यीशु दिखाए गए हैं. इस मूर्ति का अनावरण कार्डिनल टेलेस्पोर टोप्पो ने किया. “आदिवासी देवी” के हावभाव वाली इस मूर्ति के मामले पर पिछले कई दिनों से रांची सहित अन्य ग्रामीण इलाकों में प्रदर्शन हो चुके हैं. सरना आदिवासियों के धर्मगुरु बंधन तिग्गा ने आरोप लगाया है कि “हालांकि सफ़ेद साड़ी कोई भी पहन सकता है, परन्तु मदर मैरी को जानबूझकर लाल बार्डर वाली साड़ी पहनाकर प्रदर्शित करना निश्चित रूप से सरना आदिवासियों को धर्मांतरण के जाल में फँसाने की कुत्सित चाल है. मदर मैरी एक विदेशी महिला है, उसे इस प्रकार आदिवासी वेशभूषा और हावभाव में प्रदर्शित करने से साफ़ हो जाता है कि चर्च की नीयत खराब है...इस मूर्ति को देखने से अनपढ़ और भोले आदिवासी भ्रमित हो सकते हैं... यदि ऐसी ही हरकतें जारी रहीं, तो आज से सौ साल बाद आदिवासी समुदाय यही समझेगा कि मदर मैरी झारखंड की ही कोई देवी थीं...”.
धर्मगुरु बंधन तिग्गा आगे कहते हैं कि झारखंड में लालच देकर अथवा हिन्दू देवताओं के नाम से भ्रमित करके कई आदिवासियों को धर्मान्तरित किया जा चुका है. हालांकि चर्च का दावा होता है कि इन धर्मान्तरित आदिवासियों के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा, परन्तु अब यह सर्वमान्य तथ्य है कि “गोरों” द्वारा शासित वेटिकन के कैथोलिक ईसाई खुद को “शुद्ध” ईसाई मानते हैं, जबकि अन्य धर्मों से धर्मान्तरित होकर आए हुए व्यक्तियों को “निम्न कोटि” का ईसाई मानते हैं. इनमें आपस में जमकर भेदभाव तो होता ही है, अपितु इनके चर्च भी अलग-अलग हैं.
इसी से मिलता-जुलता दूसरा मामला है शिर्डी के सांईबाबा को भगवान विष्णु के “गेटअप” में प्रदर्शित करने का.... उल्लेखनीय है कि फिल्म “अमर-अकबर’एंथोनी” से पहले शिर्डी के सांईबाबा को बहुत कम लोग जानते थे, परन्तु इसे “मार्केटिंग पद्धति” की सफलता कहें या हिन्दू धर्म के अनुयायियों की तथाकथित “सहिष्णुता”(?) कहें... देखते ही देखते पिछले बीस वर्ष में शिर्डी वाले साईंबाबा, भारत का एक प्रमुख धर्मस्थल बन चुका है, जहाँ ना सिर्फ करोड़ों रूपए का चढावा आता है बल्कि सिर्फ कुछ दशक पहले जन्म लिए हुए एक फ़कीर (जिसने ना तो कोई चमत्कार किया है और ना ही हिन्दू धर्म के वेद-पुराणों में इस नाम का कोई उल्लेख है) को अब भगवान राम और कृष्ण के साथ जोड़कर “ओम साईं-राम”, “ओम साईं-कृष्ण” जैसे उदघोष भी किए जाने लगे हैं. अर्थात भारतीय संस्कृति की पुरातन परम्परा के अनुसार “सीता-राम” और “राधे-कृष्ण” जैसे उदघोष इस संदिग्ध फ़कीर के सामने पुराने पड़ गए हैं. यानी एक जमाने में रावण भी सीता को राम से अलग करने में असफल रहा, लेकिन आधुनिक “धर्मगुरु”(?) शिर्डी के सांईबाबा ने “सीताराम” को “सांई-राम” से विस्थापित करने में सफलता हासिल कर ली? अब इसके एक कदम आगे बढकर, ये साईं भक्त ईश्वर के अवतारों से सीधे आदि देवताओं पर ही आ गए हैं...
हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार सिर्फ तीन ही देवता आदि-देवता हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश. बाकी के अन्य देवता या तो इन्हीं का अवतार हैं अथवा इन्हीं से उत्पन्न हुए हैं. साईं की ताज़ा तस्वीर में साईबाबा को सीधे विष्णु के रूप में चित्रित कर दिया गया है, अर्थात शेषनाग पर बैठे हुए. हो सकता है कि कल को किसी साईं भक्त का दिमाग और आगे चले तो वह लक्ष्मी जी को साईबाबा के पैर दबाते हुए भी चित्रित कर दे... किसी साईं भक्त के दिमाग में घुसे तो वह श्रीकृष्ण के स्थान पर साईं के हाथ में सुदर्शन चक्र थमा दे... जब कोई विरोध करने वाला ना हो तथा संस्कृति और धर्म की मामूली सी समझ भी ना हो, तो ऐसे हादसे अक्सर होते रहते हैं. साईबाबा के भक्त उन्हें “गुरु” कह सकते हैं, “अवतार” कह सकते हैं (हालांकि अवतार की परिभाषा में वे फिट नहीं बैठते), “पथप्रदर्शक” कह सकते हैं... लेकिन साईं को महिमामंडित करने के लिए राम-कृष्ण और अब विष्णु का भौंडा उपयोग करना सही नहीं है. फिर मिशनरी और चर्च द्वारा फैलाए जा रहे “भ्रम” और साईं भक्तों द्वारा फैलाई जा रही “विकृति” में क्या अंतर रह जाएगा?
सवाल सिर्फ यही है कि क्या हिन्दू धर्म को “लचीला” और “सहिष्णु” मानने की कोई सीमा होनी चाहिए या नहीं? क्या कोई भी व्यक्ति या संस्था, कभी भी उठकर, किसी भी हिन्दू देवता का अपमान कर सकते हैं? मैं यह नहीं कहता कि जिस प्रकार सुदूर डेनमार्क में बने एक कार्टून पर यहाँ भारत में लोग आगज़नी-पथराव करने लगते हैं, वैसी ही प्रतिक्रिया हिंदुओं को भी देनी चाहिए, लेकिन इस “तथाकथित सहिष्णुता” पर कहीं ना कहीं तो लगाम लगानी ही होगी... आवाज़ उठानी ही होगी..
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