नेवैद्य और प्रसाद क्या होता है? क्या अंतर है?

Written by रविवार, 12 जुलाई 2015 14:11

आजकल पश्चिमी शिक्षा एवं वामपंथी दुष्प्रचार तथा सेकुलर ब्रेनवॉश के कारण हिन्दू धर्म, संस्कृति एवं संतों के खिलाफ बोलना व उनकी खिल्ली उड़ाना आम बात हो गई है. सामान्यतः कोई भी हिन्दू ऐसी मूर्खतापूर्ण बातों पर जल्दी उत्तेजित नहीं होता, परन्तु धीरे-धीरे यह प्रमाण बढ़ता ही जा रहा है.

ऐसी ही एक घटना हाल ही में घटित हुई जब सोशल मीडिया पर हिन्दू संस्कृति का मजाक उड़ाने वाले एक “मित्र”(??) से चर्चा हुई...

एक मित्र की फेसबुक वाल पर, उसके दूसरे मित्र “सलीम” ने उसे एक चित्र दिखाते हुए मजाकिया अंदाज में कहा – “तुम्हारे भगवानों को तो अक्सर अपच की शिकायत होती होगी?? करोड़ों लोग ढेरों मंदिरों और घरों में उन्हें नैवेद्य समर्पित करते हैं. जैसा कि एक सहिष्णु हिन्दू करता है, उसने भी शुरू में अपने मित्र के इस कमेन्ट को हलके-फुल्के मजाक के तौर पर लिया और कहा – “हाँ, खासकर उस स्थिति में जब आजकल के पदार्थों में केमिकल की मात्रा भी काफी बढ़ गई है...”. लेकिन लगता था, “सलीम” बात आगे बढ़ाने के मूड में है... उसने कहा, “नहीं, मजाक नहीं भाई... जब मैं लाखों हिंदुओं को भगवान की इन मूर्तियों के समक्ष नैवेद्यं और प्रसाद अर्पित करते देखता हूँ तो सोचता हूँ कि क्या ये निष्प्राण मूर्तियाँ कभी ये पदार्थ खा सकती हैं? क्या भगवान इस नैवेद्य को खाते हैं? कैसी मूर्खतापूर्ण और बकवास परंपरा है... 

मित्र ने कहा - हाँ, ये सही है कि हम हिन्दू लोग भगवान को नैवेद्य समर्पित करते हैं, जो वापस हमारे पास “प्रसाद” के रूप में आता है. यह परंपरा तो हम घर में, मंदिरों में सदियों से निभाते आ रहे हैं.

सलीम : वही तो मैं कह रहा हूँ, आप जैसे पढ़े-लिखे पत्रकार भी ऐसा करते हैं तो आश्चर्य होता है. क्या आप नहीं जानते कि ये नैवेद्य भगवान नहीं खा सकते? ये मूर्तियाँ अपना मुँह नहीं खोल सकतीं? जब भगवान एक सामान्य व्यक्ति की तरह बोल नहीं सकते, अपना मुँह नहीं खोल सकते तो उन्हें यह नैवेद्य अर्पित करना सिर्फ दिखावा है, इसमें आध्यात्म का कोई अंश नहीं है... ऐसे लोग मूर्ख और अंधविश्वासी होते हैं... बड़ा दुःख होता है देखकर... (कथित नास्तिक वामपंथी तर्क सिर चढ़कर बोल रहा था). वास्तव में देखा जाए तो भगवान आपसे कुछ नहीं चाहता, लेकिन आप भगवान से सब कुछ चाहते हैं. तो हमें सिर्फ भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए, जैसा कि इक्कीसवीं सदी के पढ़े-लिखे लोग करते हैं... ये नैवेद्यं वगैरह सिर्फ दिखावा है.

मित्र : तो क्या भगवान हमारी प्रार्थनाएँ सुनेंगे??

सलीम : हाँ जरूर... उन्हें आपका भोजन या नैवेद्य नहीं चाहिए. भगवान तो अपने-आप में परिपूर्ण और शक्तिशाली होते हैं, दुनिया की हर बात उन्हीं की मर्जी से चलती है... फिर ये नैवेद्य दिखाने का ढोंग किसलिए?

मित्र : सलीम भाई, तुम कहना चाहते हो कि भगवान यानी ये मूर्तियाँ, भोजन ग्रहण नहीं कर सकतीं, अपना मुँह तक नहीं खोल सकतीं, बोल तक नहीं सकतीं. तुमने कहा कि भगवान हमारी प्रार्थनाओं को सुनते हैं. यानी तुम्हारे अनुसार हमें सिर्फ भगवान की पूजा-प्रार्थना करना चाहिए. भगवान हमसे कुछ नहीं चाहते. वे सर्वव्यापी और परिपूर्ण हैं... इसी को तुम आधुनिक और वैज्ञानिक विचार कहते हो... ठीक??

सलीम : हाँ बिलकुल, मैं यही आपको समझाने का प्रयास कर रहा हूँ कि ये भगवान की मूर्तियों के सामने नैवेद्य लगाने की ये प्राचीन परंपरा बकवास है और ये बन्द होनी चाहिए.

मित्र : नहीं, सलीम...

सलीम : क्यों?? वह आश्चर्य में पड़ गया...

मित्र : मैं तुम्हारे तर्क से सहमत नहीं हूँ. तुमने कहा कि भगवान ना तो खा सकता है, ना बोल सकता है और ना ही मनुष्यों की तरह व्यवहार कर सकता है...

सलीम : हाँ हाँ वही...

मित्र : तो फिर भगवान मनुष्यों द्वारा की गई प्रार्थनाओं को सुन कैसे सकता है? भगवान या अल्लाह से प्रार्थना करने के लिए किसी न किसी भाषा में कुछ ना कुछ उच्चारण तो करना पड़ेगा ना? तो क्या भगवान के मुँह या नाक नहीं हैं, लेकिन कान हैं?? जब वे मनुष्यों की तरह व्यवहार नहीं कर सकते, तो उन्हें कैसे पता चलेगा कि प्रार्थना किस भाषा में की जा रही है? यानी तुम्हारे हिसाब से भगवान खा नहीं सकते, बोल नहीं सकते... लेकिन सुन सकते हैं?? ये कैसा तर्क हुआ?

सलीम : नहीं ऐसा नहीं है, भगवान अपने दूतों के माध्यम से बात करते हैं. सभी धर्मों में देवदूतों की परंपरा है.

मित्र : अच्छा!!! तो फिर भगवान अपने इन दूतों के माध्यम से नैवेद्य क्यों नहीं खाते?

सलीम : सब कुछ भगवान की इच्छा और सोच पर निर्भर है, इसलिए.

मित्र : लेकिन तुमने तो कहा था कि “इच्छा” और “सोच” तो मानवों का गुण है, भगवान यह नहीं करते. यदि भगवान की सोच है और वे मनुष्य की इच्छा को समझ सकते हैं, इसका मतलब है कि हमारा भगवान के साथ भौतिक सम्बन्ध है. तो फिर सैद्धान्तिक रूप से नैवेद्य अर्पण करने में क्या गलत है?

सलीम : नहीं, ऐसा नहीं है... हम सिर्फ प्रार्थना कर सकते हैं... भगवान हमारी सुनेंगे... सभी पवित्र धार्मिक पुस्तकों में ऐसा ही लिखा है.

मित्र : लेकिन तुमने तो अभी कहा था कि भगवान को मनुष्य से कुछ नहीं चाहिए, वह परिपूर्ण है. तो फिर तुम्हारे भगवान ने पवित्र पुस्तकों में उसकी पूजा करने और प्रार्थना करने को क्यों कहा है?

सलीम : प्रार्थना तो हमारे करने का कार्य है, ईश्वर तो सब जानते हैं.

मित्र : सलीम, तुम फिर से भ्रमित हो रहे हो, और परस्पर विरोधी बात कर रहे हो. यदि तुम्हारे ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं, जो सभी कुछ जानते हैं, तो हमें भगवान को कुछ बताने की जरूरत क्या है? वे सब जानते हैं कि क्या होने वाला है, वैसा ही होगा, प्रार्थना करने से कुछ बदलने वाला तो नहीं है. या फिर यह हो सकता है कि तुम्हारे भगवान इतने दम्भी और घमंडी हों कि जब तक तुम प्रार्थना नहीं करो, तब तक वे तुम्हारी नहीं सुनेंगे. यदि भगवान परिपूर्ण और सर्वज्ञाता हैं तो नमाज पढ़ने अथवा अज़ान की क्या जरूरत है?

सलीम कुछ क्षण चुप रहा... बोला एक मिनट रुको, मैं इसका उत्तर सोच रहा हूँ...

मित्र : तुम्हें इसका उत्तर नहीं मिलेगा, क्योंकि जब आप दूसरे की आस्थाओं की खिल्ली उड़ाते हो, तब स्वयं भी यह सोचना चाहिए कि तुम्हारी आस्थाएँ सही हैं या नहीं? जब अतार्किक आस्थाओं का प्रश्न आता है तब सभी धर्म अनावश्यक हैं, परन्तु जब किसी आस्था का आधार वैज्ञानिक हो तब ऐसा नहीं होता.

सलीम : चलो कोई बात नहीं, तो फिर तुम ही बताओ कि भगवान को नैवेद्य समर्पित करने के पीछे का तर्क क्या है?

मित्र : तुम अपनी गर्लफ्रेंड को गुलाब का फूल क्यों भेंट करते हो? प्रेम और समर्पण व्यक्त करने के लिए... इसी तरह भगवान के समक्ष अन्न अथवा मिठाई का नैवेद्य समर्पित करना उनके प्रति प्रेम और समर्पण का सांकेतिक तरीका है. यह उनके प्रति आभार प्रदर्शन का भी तरीका है, क्योंकि उन्हीं के कारण यह अन्न हमें मिला. हिन्दू परिवारों में नैवेद्य का निर्माण पूरे भक्तिभाव, समर्पण एवं शरीर तथा दिमाग की शुद्धता के साथ किया जाता है. उसके बाद यह नैवेद्य भगवान को भेंट किया जाता है. हम जानते हैं कि भगवान खुद तो सीधे यह नैवेद्य खाने वाले नहीं हैं, यह सिर्फ सांकेतिक है. परन्तु धार्मिक क्रियाओं, भजन-आरती के पश्चात इस अन्न-मिठाई को “प्रसाद” के रूप में भक्तों में वितरित कर दिया जाता है. मूर्ति तो नैवेद्य नहीं खा सकती, परन्तु भगवान हमारे माध्यम से उसे ग्रहण करते हैं... क्योंकि हम भी उसी भगवान का अंश हैं.

मित्र ने आगे कहा : जब हम भगवान को अन्न, नैवेद्य अथवा पुष्प अर्पित करते हैं तो कहते हैं, “समर्पयामि”, अर्थात यह आपका ही है, एवं सर्वप्रथम आपको ही दिया जा रहा है. फिर यही नैवेद्य, प्रसाद के रूप में वापस हमें मिल जाता है. जिस भक्तिभाव से हमने नैवेद्य समर्पित किया था, उसी भक्तिभाव से हम पुनर्वापसी के रूप में प्रसाद ग्रहण कर लेते हैं. ऐसा भी माना जाता है कि प्रतिदिन भगवान का प्रसाद ग्रहण करने से भगवान हमें सदैव अन्न देते रहेंगे तथा घर में खुशहाली होगी. नैवेद्यं की परंपरा सिर्फ घरों में नहीं, बल्कि मंदिरों में भी है. मकर संक्रांति, पोंगल, होली, दीपावली सभी त्यौहारों पर मंदिरों में नैवेद्य अर्पित किया जाता है. भगवान के प्रति समर्पण एवं श्रद्धा दर्शाने की यह एक पद्धति है.

सलीम : क्या आपके धर्मग्रंथों में भी नैवेद्य के बारे में लिखा है?

मित्र : सभी ग्रंथों में कहा गया है कि तुम्हें अपने ईश्वर को वस्तुएँ, अन्न आदि समर्पित करना चाहिए. गीता में भी कहा गया है कि, “जो भी तुम खाते हो, जो भी तुम पहनते हो, जो भी तुम करते हो, वह ईश्वर को समर्पित करो.. यहाँ तक कि तुम जो भी तपस्या करते हो, वह भी ईश्वर को भेंट कर दो क्योंकि तुम जो भी करते हो, वास्तव में वह “मैं” (अर्थात ब्रह्म या ईश्वर) ही करता हूँ. इसलिए कुछ भी खाने से पहले उसे ईश्वर को समर्पित करना हमारी संस्कृति और परंपरा का अभिन्न अंग है.

हमारे पुरखों एवं ऋषि-मुनियों ने अपने ज्ञान एवं शोध से पाया कि भोजन मनुष्य के शरीर एवं मस्तिष्क की ऊर्जा का स्रोत है. मनुष्य को अपने जीवन एवं शक्ति के लिए भोजन करना जरूरी है, लेकिन यह भोजन सिर्फ उसकी व्यक्तिगत खुशी अथवा आनंद के लिए नहीं, बल्कि ईश्वर के प्रति विनम्रता एवं प्रकृति के प्रति जागरूकता के साथ होना चाहिए. मनुष्य के शरीर एवं मस्तिष्क से सम्बन्धित प्रत्येक बीमारी अथवा विकृति “भोजन” के माध्यम से आती है. जैसा कि तुम जानते हो, बाद में इलाज की अपेक्षा पहले परहेज करना उत्तम होता है. इसलिए ऋषियों ने बड़े ही वैज्ञानिक तरीके से पारंपरिक औषधीय व्यवस्था का निर्माण किया, जिसे हम और आप “आयुर्वेद” के नाम से जानते हैं. सलीम, तुम्हें शायद पता नहीं होगा कि आयुर्वेद में “विरुद्ध आहार” एवं “पथ्य-कुपथ्य” (परहेज) पर काफी ध्यान दिया गया है. यदि मनुष्य आयुर्वेद के निर्देशों का पालन करें तो वह बिना किसी बड़ी बीमारी के 120 वर्ष तक जीवित रह सकता है. इसलिए “भोजन” को पवित्र माना गया है.

प्राचीनकाल में ग्रामीण भारत की अर्थव्यवस्था मंदिरों पर आधारित थी, इसलिए ऋषियों ने प्रत्येक मास, ऋतु एवं कालचक्र के अनुसार मनुष्य के शरीर एवं पर्यावरण तथा प्रकृति को ध्यान में रखकर मंदिरों में नैवेद्य अर्पित करने की परंपरा आरम्भ की. यदि व्यक्ति भोजन के इस “पथ्य-कुपथ्य” का पूर्ण पालन करे, तो वह सदैव स्वस्थ रहेगा. ऋषियों ने हमें “सात्त्विक” भोजन की सलाह दी है, ऐसा सात्त्विक भोजन जो पवित्रता एवं समर्पण के साथ पकाया गया हो तथा ईश्वर को अर्पित किया गया हो. वे चाहते थे कि उनके अनुयायी इस वैज्ञानिक सिस्टम का पालन करते रहें, इसलिए उन्होंने इसे भगवान और विश्वास के साथ जोड़ दिया ताकि जो अज्ञानी हों, वे भी भय के कारण ही सही इस “पथ्य” और “विरुद्ध आहार” नियम का पालन करें. आधुनिक लोग तो इन नियमों के बारे में जानते ही नहीं हैं. यहाँ तक कि आजकल के अल्पज्ञानी पुजारी भी इन परम्पराओं के पूरी तरह जानकार नहीं रहे. इसलिए कहीं-कहीं दिखावा अधिक हो जाता है.

सलीम : मुझे क्षमा करना मित्र, मैंने इस दृष्टि से कभी विचार ही नहीं किया. इसीलिए मुझे नैवेद्यं तथा प्रसाद के बारे में कभी जानकारी मिली नहीं.

मित्र : कोई बात नहीं सलीम, वैसे भी आजकल यह ज्ञान धीरे-धीरे भारत से वैसे ही विलुप्त होता जा रहा है. मनुष्य के अप्राकृतिक भोजन एवं उसके कारण मानव व्यवहार में विकृति बढ़ती ही जा रही है. क्योंकि हिन्दू धर्म में कहावत है, “जैसा खाओगे अन्न, वैसा ही रहेगा मन”. आधुनिकता एवं प्रगतिशीलता के नाम पर जिस तरह लगातार हिन्दू धर्म, संस्कृति एवं परम्पराओं पर हमला जारी है, ऐसे में मुझे आश्चर्य नहीं होगा यदि किसी दिन मंदिरों में “सात्त्विक भोजन” के स्थान पर पिज्जा अथवा चिकन बिरयानी का “प्रसाद”(??) भी दिखाई दे जाए. जिस तरह अज्ञानी पुजारी-पण्डे तथा ब्रेनवॉश किए जा चुके कथित बुद्धिजीवी चारों तरफ बढ़ रहे हैं, ऐसे में कोई बड़ी बात नहीं कि कुछ वर्षों पश्चात दुग्धाभिषेक की बजाय मदिराभिषेक ही आरम्भ हो जाए... जब अज्ञान का अँधेरा पसरता है, मानसिक विकृति चरम पर होती है, और बिना सोचे-समझे-जाने-पढ़े हिन्दू धर्म की की आस्थाओं की खिल्ली उड़ाना ही परम ध्येय बन चुका हो... तब कुछ भी हो सकता है.

==============
साभार : संस्कृति मैग्जीन

Read 5441 times Last modified on शनिवार, 04 फरवरी 2017 19:23