भारत में संविधान और कानून का राज चलेगा या वोट बैंक और भीड़तन्त्र का???
एक बार फ़िर से भारत नाम का "सॉफ़्ट स्टेट" दोराहे पर आन खड़ा हुआ है, तमिलनाडु विधानसभा ने "ऐतिहासिक एकता"(?) दिखाते हुए राजीव गाँधी के हत्यारों को फ़ाँसी देने के राष्ट्रपति के निर्णय पर पुनर्विचार करने की अपील की है।
उधर कश्मीर में अब्दुल गनी लोन और गिलानी ने धमकी दी थी कि ईद से पहले उनके "भटके हुए नौजवानों" यानी पत्थरबाज गैंग को रिहा करो वरना…!!! उमर अब्दुल्ला तो मौका ही ढूँढ रहे थे, उन्होंने एक कदम आगे बढ़ते हुए ईद का तोहफ़ा देते हुए पत्थरबाजों को उन पर दर्ज सभी पुराने मुकदमों को वापस लेकर उन्हें बाइज्जत जाने दिया, ताकि गिलानी-यासीन मलिक जैसे लोग उन्हें फ़िर "भटका" सकें…।
हुर्रियत कान्फ़्रेंस ने पहले ही धमकी दे रखी है कि यदि अफ़ज़ल गूरू (गुरु नहीं) को फ़ाँसी दी गई तो कश्मीर में खूनखराबा हो जाएगा… केन्द्र सरकार की घिग्गी बँधी हुई है और वह मौका देख रही है कि कैसे अफ़ज़ल को रिहा किया जाये या फ़ाँसी से बचाया जाए। अब तमिलनाडु की विधानसभा ने कांग्रेस को एक मौका दे दिया है, कि "माननीय" राष्ट्रपति 10-12 साल तक अफ़ज़ल की फ़ाइल पर भी बैठी रहें (पिछले 6 साल से शीला दीक्षित और चिदम्बरम बैठे रहे) और फ़िर "अफ़ज़ल तो 20 साल की सजा काट चुका है…" कहकर लिट्टे के उग्रवादियों की तरह ही अफ़ज़ल को भी फ़ाँसी से बचा लिया जाए। इशारों-इशारों में जम्मू-कश्मीर विधानसभा के "माननीय" सदस्य कह रहे हैं कि हम भी "सर्वसम्मति" से ऐसा प्रस्ताव पास करेंगे कि "अफ़ज़ल गूरू" की दया याचिका पर दोबारा विचार हो, अरुंधती रॉय टाइप के "दानवाधिकार" कार्यकर्ता इस मुहिम में सक्रियता से लगे हुए भी हैं…
ऐसे में कुछ गम्भीर सवाल यह उठते है कि -
1) इस देश में "संविधान" के अनुसार शासन चलेगा या "वोट बैंक" की ताकत के अनुसार चलेगा?
2) जब सुप्रीम कोर्ट ने फ़ाँसी की सजा पर दो-दो बार मोहर लगा दी, राष्ट्रपति ने याचिका ठुकरा दी तो किसी राज्य की विधानसभा की इतनी औकात कैसे है, कि वह दोबारा इस पर विचार करने को कहे?
3) क्या भारत के तमाम राष्ट्रपति इतने "बोदे" और "सुस्त" हैं कि उन्हें किसी फ़ाइल पर दस्तखत करने में 11 साल लगते हैं, क्या हमारे गृह मंत्रालय और उसके अधिकारी इतने "निकम्मे" और "कामचोर" हैं कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद फ़ाइल आगे बढ़ाने में 5 साल लगते हैं?
4) तमिलनाडु (लिट्टे के आतंकवादी), पंजाब (भुल्लर केस) और कश्मीर (अफ़ज़ल गूरू)… इस तरह से हर राज्य अपने-अपने चुनावों और "हितलाभ" को देखते हुए आतंकवादियों को "माफ़" करने की अपील करने लगे तो क्या यह हमारे बहादुर जवानों के बलिदान और वीरता का मखौल नहीं है?
5) या तो सीधे लोकसभा में कानून बनाकर हमेशा के लिए फ़ाँसी की सजा के प्रावधान को हटा ही दिया जाए, लेकिन कानून में यदि इसे रखा गया है तो सुप्रीम कोर्ट की इज्जत करना सीखें…(हालांकि कांग्रेस के मन में न्यायालय की कितनी इज्जत है यह हम शाहबानो और भ्रष्ट जज रामास्वामी महाभियोग मामले में देख चुके हैं)…
6) अन्तिम दो सवाल युवाओं से भी है - जब आप NGOs द्वारा "मैनेज्ड" तथा मीडिया द्वारा फ़ुलाए गये अभियानों में बिना सोचे-समझे बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं तो क्या अफ़ज़ल गूरू, पत्थरबाजों की रिहाई, केरल में प्रोफ़ेसर के हाथ काटने (Professor Hand Chopped in Kerala) जैसी घटनाओं पर आपका खून नहीं खौलता?
7) क्या किसी भी राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर आप तभी जागेंगे, जब "भाण्ड मीडिया" अपनी TRP की खातिर आपको उठाएगा, या स्वयं अपनी आँखें-कान खोलकर, खुद का दिमाग चलाकर, देश में चल रही देशद्रोही और देशभंजक गतिविधियों पर भी नज़र रखेंगे?
पंजाब में चुनाव होने वाले हैं इसलिए भुल्लर की फ़ाँसी वाले मामले पर अकाली-भाजपा मौन साध लें, तमिलनाडु में चुनाव होने वाले हैं इसलिए लिट्टे के उग्रवादियों पर जयललिता-करुणानिधि एक हो जाएं, कश्मीर में गिलानी धमकियाँ दे रहे हैं इसलिए अफ़ज़ल की फ़ाँसी पर कांग्रेस से लेकर वामपंथी सभी मुँह में दही जमा लें, असम में उग्रवादियों से बातचीत भी जारी है और सेना के जवान उन्हीं से लड़कर शहीद भी हो रहे हैं…। अरुणाचल से एक सांसद नेपाली नागरिक और हत्यारा होने के बावजूद कांग्रेस से सांसद बन जाता है? बांग्लादेश में सरेआम हिन्दुओं के खिलाफ़ ज़ुल्म जारी हैं, वहाँ के भिखमंगे शरणार्थी भारत पर लगातार बोझ डालते जा रहे हैं… प्रधानमंत्री उसी देश की यात्रा पर जा रहे हैं?…… ये सब क्या हो रहा है? कहाँ है कानून? संविधान का पालन कैसा हो रहा है?
हमारे नेता तो बार-बार "संविधान के शासन" की दुहाईयाँ देते रहते हैं, लेकिन यही लोग आये दिन "संवैधानिक संस्थाओं" को लतियाते भी रहते हैं… चाहे चुनाव आयुक्त के पद पर नवीन चावला की नियुक्ति हो, CVC के पद पर थॉमस की नियुक्ति हो, या फ़िर सुप्रीम कोर्ट कान पकड़कर न घसीटे तब तक कलमाडी, राजा और हसन अली को खुल्लमखुल्ला आश्रय देना हो…। क्या कांग्रेस पार्टी को इतनी भी शर्म नहीं है कि उन्हीं की पार्टी के एक युवा प्रधानमंत्री के हत्यारे "फ़ाइलों के चक्र" और "कानून के जालों" से बीस साल तक बचे रहे? और अब अफ़ज़ल गूरू को बचाने के लिए इसी "पतली गली" की खोज में अभी भी राजनीति से बाज नहीं आ रही, समझा जा सकता है कि क्या तो देश की जनता की रक्षा होगी और क्या तो हम भारत के दुश्मनों को उनके घर जाकर क्या मारेंगे?
जब तक देश का युवा वर्ग "खबरों के उस पार" देखना नहीं सीखता, और "बिके हुए चैनलों-अखबारों" के मायाजाल से बाहर नहीं आता, तब तक ऐसी खबरें-घटनाएं और तथ्य दबाए-छिपाए जाते रहेंगे… देश एक बेहद नाज़ुक राजनैतिक-आर्थिक और सामाजिक दौर से गुज़र रहा है, ऐसे में सिर्फ़ रामलीला मैदान पर "एक रोमाण्टिक आंदोलन" में भाग लेने से कुछ नहीं होगा। हमारा देश पहले से ही "सॉफ़्ट स्टेट" के रूप में बदनाम है, परन्तु अब तो यह "लिज़लिज़ा और पिलपिला" होता चला जा रहा है… नेताओं और सांसदों से यह पूछने का वक्त कभी का आ चुका है कि आखिर यह देश संविधान और कानून के अनुसार चलेगा या वोट बैंक के अनुसार?
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नोट :- "गुरु" शब्द बहुत पवित्र है, परन्तु अफ़ज़ल का सही नाम "गूरू" (कश्मीर में दूध बेचने वाले ग्वालों की एक जाति का उपनाम) है, अतः अफ़ज़ल को "गुरु" नहीं बल्कि उसके सही नाम से "अफ़ज़ल गूरू" कहें…
(सभी मिलकर राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट को ईमेल और पत्र भेजें कि वे लिट्टे हो या अफ़ज़ल हो, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद बार-बार पुनर्विचार न करें और भगवान के लिए "सभी" फ़ाइलों पर "हाँ या ना" कुछ भी हो, पर जल्दी से जल्दी निर्णय लें, आज के "तेज युग" में तो 11 साल में तो "पूरी पीढ़ी" बदल जाती है)
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