टाटा की “नैनो”- सुख ज्यादा देगी या दुःख? Tata, Nano, Road Status in India, Pollution

Written by बुधवार, 15 अप्रैल 2009 18:01
लगभग सभी बड़े शहरों में नैनो की बुकिंग शुरु हो चुकी है, आर्थिक रूप से सक्षम लोग इसे खरीदने हेतु उतावले हो रहे हैं, जिन्हें छठा वेतनमान मिला है वे अपनी “एक्स्ट्रा इनकम” से नैनो की बुकिंग करने की जुगाड़ में हैं और जो पड़ोसियों से जलन का भाव रखते हैं वे भी खामख्वाह ही लोन लेकर कार के मालिक बनने का सपना देखने लगे हैं। मार्केटिंग और विज्ञापन की ताकत के सहारे नैनो को लेकर जो रेलमपेल मची हुई है, उस चक्कर मे कई मूलभूत सवालों को लोग भूल रहे हैं। बाज़ार और बाज़ार आधारित सरकारें तो सवालों को पहले ही दरकिनार कर चुके होते हैं, लेकिन समाज के अन्य लोग अपना फ़र्ज़ भूलकर “नैनो” की चकाचौंध में क्यों खो गये हैं?

काफ़ी लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि पहले से ही चरमराये हुए आधारभूत ढाँचे पर नैनो कितना बोझ डालेगी और क्या भारत की सड़कें और यातायात व्यवस्था नैनो को झेलने में सक्षम हैं? आप बड़े शहरों में रहने वाले हों या छोटे कस्बे में, अपने आसपास नज़र घुमाईये, क्या आपको नहीं लगता कि नैनो (अभी तो नैनो ही आई है, पीछे-पीछे कई और भी आती होंगी) आपका साँस लेना दूभर कर देगी? जो लोग नैनो की बुकिंग की कतार में खड़े हैं उनमें से कितने घरों में गैरेज नाम की वास्तु है? यानी कि नैनो आने के बाद घर के बाहर सड़क पर ही खड़ी रहेगी। आज जबकि बड़े शहरों में मल्टी-स्टोरी के नीचे की जगह भी बच्चों के खेलने के लिये नहीं छोड़ी गई है तथा छोटे शहरों में भी खेल के मैदान अतिक्रमण और भू-माफ़िया की चपेट में हैं, नैनो को कहाँ खड़ा करोगे और फ़िर बच्चों के खेलने की जगह का क्या होगा? इस बारे में कोई चिंता ज़ाहिर नहीं कर रहा, बस लगे हैं नैनो के भजन गाने में।

दुर्घटनाओं की स्थिति देखें तो भारत में सड़क दुर्घटनाओं का आँकड़ा विश्व के शीर्ष देशों में दर्ज किया जाता है, गत दशक में जिस तेजी से अमीरज़ादों की संख्या बढ़ी है और अब नैनो बाज़ार में पधार चुकी है तो फ़ुटपाथ पर सोने वालों, साइकिल चलाने वालों और पैदल चलने वालों को अतिरिक्त सावधानी बरतना ही पड़ेगी, पता नहीं कब कोई 14-15 साल का अमीरज़ादा उसे नैनो से कुचल बैठे। ऐसा लगता है कि “सार्वजनिक परिवहन प्रणाली” को एक साजिश के तहत खत्म किया जा रहा है, जिस अमेरिका की तर्ज़ पर “हर घर में एक कार” का बेवकूफ़ी भरा सपना दिखाया जा रहा है, वहाँ की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली अभी भी भारत के मुकाबले दस-बीस गुना बेहतर अवस्था में है, लेकिन अक्सर भारत के नीति-नियंता, “करते पहले हैं सोचते बाद में हैं और प्लानिंग सबसे अन्त में बनाते हैं…”। पहले अनियंत्रित जनसंख्या बढ़ा ली अब मानव संसाधन के उपयोग के बारे में सोच रहे हैं, पहले तीव्र-औद्योगिकीकरण लागू किया अब खेती के लिये ज़मीन ढूँढ रहे हैं, पहले प्रदूषण करके नदियाँ-तालाब गन्दे कर दिये अब उनकी सफ़ाई के बारे में सोच रहे हैं, पहले कारें पैदा कर दीं अब सड़कें चौड़ी करने के बारे में सोच रहे हैं… एक अन्तहीन मूर्खता है हमारे यहाँ!!! अमेरिका में तो ऑटोमोबाइल उत्पादक लॉबी और सड़क निर्माण लॉबी ने एक मिलीभगत के जरिये अपनी कारें असीमित समय तक बेचने के लिये एक कुचक्र रचा था, क्या ऐसा ही कुछ भारत में भी होने जा रहा है? मारुति द्वारा पेश किये गये आँकड़ों के मुताबिक उसने 25 साल में अभी तक 27 लाख कारें बेची हैं, वैन और अन्य मॉडल अलग से (मान लेते हैं कि कुल 40 लाख)। अब नैनो आयेगी तो मान लेते हैं कि अगले 10 साल में वह अकेले 25 लाख कारें बेच लेगी। डेढ़ अरब की आबादी में 25 लाख लोगों की सुविधा के लिये कितनों को दुविधा में डाला जायेगा? चलो माना कि नैनो रोज़गार उत्पन्न करेगी, लेकिन कितने रोज़गार? क्या कोई हिसाब लगाया गया है? नहीं…

सस्ती कारें आ गईं, लोगों के पास पैसा है, या नहीं भी है तो खरीद डालीं। अब सड़क निर्माता ठेकेदारों-कम्पनियों की लॉबी सरकार पर सड़कें चौड़ी करने के लिये दबाव डालेगी, सरकार “जनता की माँग”(???) पर बजट में अच्छी सड़कों के लिये अलग से प्रावधान करेगी। बजट में प्रावधान करेगी मतलब यह कि प्राथमिक शिक्षा और सरकारी अस्पतालों की सुविधा और बजट छीनकर “चन्द पैसे वालों” (जी हाँ चन्द पैसे वालों, क्योंकि प्राथमिक स्कूल और सरकारी अस्पतालों के उपयोगकर्ता, नैनो को खरीदने वालों की संख्या से बहुत-बहुत ज्यादा हैं) के लिये सड़कें बनवायेगी। सड़कें भी “बिल्ड-ऑपरेट-ट्रांसफ़र” (BOT) की नीति से बनाई जायेंगी, जिसमें सभी का फ़ायदा हो (ये और बात है कि “टोल नाका” कितनी दूर हो और टोल के पैसे कितने हों इस पर सरकारी नियन्त्रण कम ही होगा), कुल मिलाकर समूची लॉबी के लिये “विन-विन” की स्थिति होगी। अब भला ऐसे में सिटी बस, टेम्पो, ट्राम आदि के बारे में सोचने की फ़ुर्सत किसे है, आम जनता जिसे रोजमर्रा के काम सार्वजनिक परिवहन के भरोसे ही निपटाने हैं उसकी स्थिति भेड़-बकरी से ज्यादा न कुछ थी, न कभी होगी।

नैनो के आने से पहले ही कुछ सतर्क लोगों और “असली” जनसेवी संस्थाओं ने सरकार को कई सुझाव दिये थे, जिनमें से कुछ को तुरन्त लागू करने का समय आ गया है, जैसे – रात को घर के बाहर खड़ी किये जाने पर कार मालिक से अतिरिक्त शुल्क वसूलना, कारों की साइज़ (जमीन घेरने) के हिसाब से रोड टैक्स लगाना, चार पहिया वाहनों के रोड टैक्स में भारी बढ़ोतरी करना, पार्किंग शुल्क बढ़ाना, साइकलों के निर्माण पर केन्द्रीय टैक्स शून्य करना, कारों के उत्पादन में दी जाने वाली छूट के बराबर राशि का आबंटन सार्वजनिक परिवहन के लिये भी करना आदि। इन सब उपायों से जो राशि एकत्रित हो उसके लिये अलग से एक खाता बनाकर इस राशि का 50% हिस्सा सिर्फ़ और सिर्फ़ ग्रामीण इलाकों में सड़क निर्माण, 20% हिस्सा सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को मजबूत बनाने तथा 20% राशि प्रदूषण नियन्त्रण रोकने के उपायों में खर्च किया जाये। नैनो के दुष्प्रभाव को कम करने के लिये यह टैक्स जायज़ भी हैं। साथ ही यह तमाम शुल्क वाजिब भी हैं और नैनो या कोई अन्य कार मालिक इससे इन्कार करने की स्थिति में भी नहीं होना चाहिये, क्योंकि जब वह “हाथी” खरीदने निकला ही है तो फ़िर उसके “भोजन हेतु गन्ने” और “बाँधने की जंजीर” पर होने वाला खर्च उसके लिये मामूली है… आप क्या सोचते हैं?

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Super User

 

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I am a Cyber Cafe owner by occupation and residing at Ujjain (MP) INDIA. I am a English to Hindi and Marathi to Hindi translator also. I have translated Dr. Rajiv Malhotra (US) book named "Being Different" as "विभिन्नता" in Hindi with many websites of Hindi and Marathi and Few articles. 

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