रविवार, 12 मार्च 2017 21:21
विधानसभा 2017 विश्लेषण (भाग २) : बाजीराव बने मोदी
पिछले भाग (यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है) में मैंने पंजाब और गोवा के चुनाव परिणामों का विश्लेषण किया था, क्योंकि वहाँ भाजपा हारी है. जीत का नशा सवार नहीं होना चाहिए, और पहले हमेशा ही हार की तरफ ध्यान देना चाहिए.
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मंगलवार, 07 मार्च 2017 19:04
यूपी में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलेगा? : एक आकलन
देश का पूरा राजनैतिक विमर्श उत्तरप्रदेश पर केंद्रित है। 5 राज्यो के विधानसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश का अपना अलग महत्त्व है। यह भी तय है कि उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम देश की आगामी राजनैतिक दशा, दिशा को तय करने वाले सिद्ध हो सकते हैं।
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सोमवार, 27 अप्रैल 2015 19:33
विकास एजेंडे को पीछे करती दुष्प्रचार की दुर्गन्ध...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एजेंडा विकास का एजेंडा है, लेकिन उनके विपक्षी सतत विभिन्न दुष्प्रचार करके जनता को भ्रमित करने में लगे हैं... उनकी इस चालबाजी को विस्तार से समझिए.
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रविवार, 30 मार्च 2014 20:22
Narendra Modi - The Magnet for Power and Coalition
मोदी
का जादू – मिल रहे हैं साथी, बढ़ रहा है कारवाँ...
जिस दिन
भाजपा ने नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनावों हेतु प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित
किया था, उसी दिन से लगातार तमाम चुनाव विश्लेषक और अकादमिक बुद्धिजीवी इस बात पर
कयास लगाते रहे थे कि ऐसा करने से भाजपा अलग-थलग पड़ जाएगी. इन सेक्युलर(?)
विश्लेषकों की निगाह में नरेंद्र मोदी अछूत हैं. यही वे बुद्धिजीवी थे जिन्होंने
भविष्यवाणी कर दी थी कि भाजपा कभी भी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का
उम्मीदवार घोषित नहीं करेगी, लेकिन न सिर्फ वैसा हुआ, बल्कि भाजपा ने मोदी को
प्रचार समिति की कमान सौंप दी. इसके अलावा जब टिकट वितरण की बारी आई, तब भी कुछेक
मामलों को छोड़कर नरेंद्र मोदी को लगभग फ्री-हैंड दिया गया. स्वाभाविक है कि ऐसा
होने पर इन चुनाव विश्लेषकों की सिट्टी-पिट्टी गुम होनी ही थी. इसलिए इन्होंने हार
ना मानते हुए “मोदी के रहते भाजपा को कोई सहयोगी नहीं मिलेगा” का राग दरबारी शुरू
किया. लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इनके दुर्भाग्य से नरेंद्र मोदी – अमित शाह की
जुगलबंदी ने इस राग दरबारी के सारे सुर बिगाड़ने की पूरी तैयारी कर ली है.
जैसा
कि सभी जानते हैं, लोकसभा चुनाव २०१४ में जीत के झंडे गाड़ने के लिए उत्तरप्रदेश और
बिहार यह दो राज्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं. मोदी-शाह की जोड़ी ने पिछले एक साल
से ही इस दिशा में कार्य करना शुरू कर दिया था. जिस दिन मोदी को कमान सौंपी गई,
उसी दिन अमित शाह को उत्तरप्रदेश का प्रभारी बनाने का निर्णय हो गया था. हालांकि
गुजरात और यूपी-बिहार की स्थानीय राजनीति में जमीन-आसमान का अंतर है, परन्तु फिर
भी अमित शाह जैसे व्यक्ति जिसने आज तक दर्जनों चुनाव जीते हों, एक भी चुनाव ना
हारा हो तथा बेहद कुशल रणनीतिकार हो... उसे यूपी का प्रभार देने से यह स्पष्ट हो
गया कि वे नरेंद्र मोदी के सबसे विश्वसनीय व्यक्ति हैं. नरेंद्र मोदी ने जब बिहार
पर अपना ध्यान केन्द्रित किया तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि रामविलास पासवान
भाजपा का दामन थाम लेंगे, परन्तु ऐसा हुआ. भले ही विश्लेषकों को इस समय यह लग रहा
हो कि भाजपा ने पासवान को सात और कुशवाहा को तीन सीटें देकर अपना नुक्सान कर लिया,
लेकिन वास्तव में इसे नरेंद्र मोदी का “मास्टर स्ट्रोक” ही कहा जाएगा. रामविलास
पासवान के भाजपा के साथ आने से दो फायदे हुए हैं. पहला तो यह कि “नरेंद्र मोदी
अछूत हैं”, “उनकी साम्प्रदायिक छवि के कारण कोई उनके साथ नहीं जाएगा”, जैसे मिथक
भरभराकर टूटे. पासवान के इस कदम से नीतीश कुमार, जिन्हें भाजपा चुनाव से पहले गठबंधन
तोड़कर “जोर का झटका धीरे से” दे चुकी थी, उन्हें एक और झटका लगा. मोदी के इस
मास्टर स्ट्रोक का सुनामी जैसा असर कांग्रेस-लालू गठबंधन पर पड़ा. कांग्रेस-लालू-पासवान
की तिकड़ी यदि समय रहते अपने मतभेद भुलाकर किसी समझौते पर पहुँच जाती तो यह भाजपा
के लिए बहुत नुकसानदेह होता. इन तीनों के वोट प्रतिशत एवं जातिगत गणित तथा नीतीश
कुमार के अति-पिछड़े एवं महा-दलित कार्ड का मुकाबला भाजपा सिर्फ नरेंद्र मोदी की
छवि और नीतीश के कुशासन से नहीं कर सकती थी. इसीलिए नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने परदे
के पीछे से रामविलास पासवान को लुभाने की कोशिशें जारी रखीं और इसमें सफलता भी
मिली. असल में नीतीश कुमार का दांव यह था कि वे भाजपा को दूर करके मुस्लिम वोटरों
तथा महादलित-अतिपिछडे के गणित के सहारे वैतरणी पार करना चाहते थे. परन्तु रामविलास
पासवान के भाजपा के साथ आने से जहां एक तरफ कांग्रेस-लालू खेमे में हड़कम्प मचा,
वहीं दूसरी और नीतीश के खेमे का गणित भी छिन्न-भिन्न हो गया और मजबूरी में नीतीश
को “बिहार स्पेशल पॅकेज” और “बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दो” जैसी राजनीति पर
उतरना पड़ा. अब बिहार में स्थिति यह है कि भाजपा-पासवान-कुशवाहा गठबंधन की 29-7-3 सीटों पर
पासवान-कुशवाहा के वोट भाजपा को ट्रांसफर होंगे, जबकि बाकी का काम नीतीश सरकार से
नाराजी और नरेंद्र मोदी की छवि और धुंआधार रैलियों से पूरा हो जाएगा.
इसी से मिलता-जुलता काम मोदी-शाह की जोड़ी ने
यूपी में भी किया. अपने हिन्दू धर्म विरोधी बयानों एवं धर्मांतरण के समर्थक विचार
रखने वाले दलित नेता उदित राज को भाजपा के झंडे तले लाकर उन्हें दिल्ली से टिकट
देने का भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया. ज्ञातव्य है कि दलितों के एक बड़े वर्ग
में उदित राज की छवि एक पढ़े-लिखे सुलझे अधिकारी एवं विचारक की है. हालांकि उदित
राज को भाजपा में लाने पर भाजपा के कई वर्गों एवं संस्थाओं में बेचैनी महसूस की
गई, लेकिन चुनावी राजनीति की दृष्टि से तथा विभिन्न चैनलों पर बहस-मुबाहिसे तथा
लेखों की कीमत पर देखा जाए तो उदित राज
भाजपा के लिए फायदे का सौदा ही साबित होंगे. हालांकि उदित राज की हस्ती इतनी बड़ी
भी नहीं है कि वे मायावती को चुनौती दे सकें या उनके स्थानापन्न बन सकें, परन्तु
उदित राज के साथ आने से भाजपा की जो परम्परागत “ब्राह्मण-बनिया पार्टी” वाली छवि
थी उसमें थोड़ी दलित चमक आई, तथा विपक्षी हमलों की धार भोथरी हुई है. दिल्ली की
सुरक्षित सीट पर उदित राज, कृष्णा तीरथ एवं राखी बिडालान का मुकाबला करेंगे तो
स्वाभाविक है कि उसकी आतंरिक आंच यूपी की कुछ सीटों पर अपना प्रभाव जरूर छोड़ेगी. मोदी
का दलित कार्ड और गठबंधन सहयोगी बढ़ाओ अभियान यहीं तक सीमित नहीं रहा, वह
महाराष्ट्र में भी जा पहुंचा. रिपाई (रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया) के रामदास
आठवले को भाजपा ने अपनी मदद से राज्यसभा में पहुंचाया और उनसे गठबंधन कर लिया, इस
तरह महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना-रिपाई का एक मजबूत ढांचा तैयार हो चूका है.
चूंकि राज ठाकरे भी मोदी लहर से अछूते नहीं रह सकते थे, इसीलिए उन्होंने चुनावों
से पहले ही घोषित कर दिया है कि वे चुनावों के बाद मोदी का समर्थन करेंगे. अलबत्ता
जिस तरह से शरद पवार लगातार शिवसेना में सेंधमारी कर रहे हैं, उसे देखते हुए लगता
है कि 2019 के आम चुनाव आते-आते
महाराष्ट्र में भाजपा बगैर गठबंधन के ही और भी मजबूत होकर उभरेगी. बहरहाल... यूपी
में मोदी-शाह की जोड़ी तथा संघ के पूर्ण समर्थन से एक और बड़ा मास्टर स्ट्रोक खेला
गया, और वह है नरेंद्र मोदी को वाराणसी सीट से चुनाव लड़वाना. कुछ मित्रों को याद
होगा कि मैंने गत वर्ष ही एक लेख में यह लिख दिया था कि यूपी-बिहार में अपने जीवन
का सबसे बड़ा दांव खेलने जा रहे नरेंद्र मोदी को लखनऊ अथवा बनारस से चुनाव लड़ना
चाहिए. बहरहाल इस मुद्दे पर चर्चा थोड़ी देर बाद... पहले दक्षिण की तरफ चलते हैं...
तेलंगाना के निर्माण के पश्चात उसका क्रेडिट
लेने के लिए बेताब कांग्रेस को सबसे पहला तगड़ा झटका टीआरएस ने ही दे दिया.
कांग्रेस यह मानकर चल रही थी कि टीआरएस-कांग्रेस का गठबंधन हो गया तो कम से कम
तेलंगाना में उसकी इज्जत बची रहेगी. लेकिन यहाँ चंद्रशेखर राव ने कांग्रेस को
ठेंगा दिखा दिया है और वे अकेले ही चुनाव लड़ेंगे. राव ने यह भी स्पष्ट कर दिया है
कि आम चुनावों के परिणामों के बाद हे वे अपनी अगली रणनीति तय करेंगे. ज़ाहिर है कि
यदि नरेंद्र मोदी अकेले दम पर 225 से अधिक सीटें ले आते हैं तो चंद्रशेखर राव को विशेष पॅकेज के नाम पर NDA में खींच लाना कतई
मुश्किल नहीं होगा. उधर सीमान्ध्र और रायलसीमा में कांग्रेस की दूकान तो पहले ही
लगभग बंद हो चुकी है. मुख्यमंत्री किरण कुमार ने अपनी नई क्षेत्रीय पार्टी बना ली
है, जबकि चंद्रबाबू नायडू दो बार नरेंद्र मोदी के साथ मंच पर आ चुके हैं और उनकी
आपसी सहमति एवं समझबूझ काफी विकसित हो चुकी है. इसके अलावा चिरंजीवी के भाई कमल की
नई पार्टी भले ही कुछ ख़ास न कर पाए, लेकिन कांग्रेस के ताबूत में कीलें ठोंकने का
काम बखूबी करेगी. अर्थात जो आँध्रप्रदेश यूपीए-२ के गठन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण
था, वहीं पर कांग्रेस अनाथ की स्थिति में पहुँच चुकी है. फिलहाल नए राज्य की
खुमारी में तेलंगाना की सभी सीटों पर TRS के जीतने के पूरे आसार हैं, जबकि सीमान्ध्र में
कांग्रेस दो-तीन सीटें भी ले आए तो बहुत है. अर्थात वहां पर भाजपा के पास खोने के
लिए कुछ नहीं है. इसीलिए नरेंद्र मोदी ने चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू दोनों
को बराबरी का महत्त्व दे रखा है. दोनों में से जो भी अधिक सीटें लाएगा उसे “स्पेशल
पॅकेज” मिलेगा और NDA में जगह भी. तमिलनाडु
में भी भाजपा ने पहली बार तीन क्षेत्रीय दलों को साथ मिलाने में सफलता हासिल कर ली
है. प्रख्यात अभिनेता विजयकांत की MDMK पार्टी सबसे बड़ी भागीदार रहेगी, इसके अलावा पीएमके को
भी उचित स्थान मिला है. जयललिता और करूणानिधि के सामने यह गठबंधन कुछ ख़ास कर
पाएगा, इसकी उम्मीद बहुत लोगों को नहीं है. परन्तु यह गठबंधन तमिलनाडु में कई
सीटों पर “खेल बिगाड़ने” की स्थिति में जरूर रहेगा. यदि टूजी घोटाले की वजह से तमिल
जनता का नज़ला करूणानिधि-राजा-कनिमोझी पर गिरा तो इस गठबंधन को चालीस में से
चार-पांच सीटें जरूर मिल सकती हैं. साथ ही उत्साहजनक बात यह भी है कि जयललिता कह
चुकी हैं कि वे यूपीए-३ की बजाय नरेंद्र
मोदी को प्राथमिकता देंगी. कर्नाटक में येद्दियुरप्पा के आने के पश्चात भाजपा को
किसी गठबंधन की जरूरत नहीं है, और केरल, जहाँ पार्टी ने अकेले लड़ने का फैसला किया
है, वहां भी वह कांग्रेस-मुस्लिम लीग अथवा वाम गठबंधन में से किसी एक का खेल
बिगाड़ने की स्थिति में रहेगी.
जो विश्लेषक और बुद्धिजीवी नरेंद्र मोदी की
वजह से भाजपा को अछूत मानने या अस्पृश्य सिद्ध करने पर तुले हुए थे, वे यह देखकर
आश्चर्यचकित हैं कि ऐसा कैसे हो रहा है? और क्यों हो रहा है? इसका सीधा सा जवाब
यही है कि राजनीति का कच्चे से कच्चा जानकार भी बता सकता है कि कांग्रेस संभवतः 100 सीटों के आसपास सिमट
जाएगी, जबकि NDTV जैसे धुर भाजपा विरोधी
चैनल भी अपने सर्वे में भाजपा को 225 सीटें दे रहे हैं, तो स्वाभाविक है कि बहती हुई हवा के
लपेटे में सारे नए और बेहद छोटे क्षेत्रीय दल नरेंद्र मोदी के साथ जुड़ते चले जा
रहे हैं. बड़े क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करने के अपने नुकसान होते हैं.
उदाहरणार्थ जयललिता-ममता-पटनायक जैसी पार्टियों के साथ यदि चुनाव पूर्व या चुनाव
बाद का गठबंधन किया जाए तो इनकी शर्तें और नखरे इतने अधिक होते हैं कि ये लोग नाक
में दम कर देते हैं. बेचारे वाजपेयी जी ऐसे ही लालची क्षेत्रीय दलों की वजह से
अपने दोनों घुटने कमज़ोर करवा बैठे थे, लेकिन इनकी मांगें लगातार बढ़ती ही जातीं.
नरेंद्र मोदी इस स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ हैं, इसीलिए वे छोटे-छोटे दलों गठबंधन
कर रहे हैं. इसके अलावा ऐसे-ऐसे लोगों को (उदाहरणार्थ – सतपाल महाराज, जगदम्बिका
पाल, उदित राज इत्यादि) भाजपा में प्रवेश दे रहे हैं अथवा सीट शेयरिंग कर रहे हैं,
जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था. सेकुलरिज़्म की रतौंधी से युक्त पुरोधाओं को जम्मू-कश्मीर
से भी तगड़ा झटका लगा है, मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी कह दिया है कि कश्मीर की
समस्याओं के बारे में UPA की बजाय
NDA की सरकार में
अधिक समझ थी. अर्थात वे अभी से अगली NDA सरकार में अपनी “खिड़की” खुली रखना चाहते हैं. ज़ाहिर है कि नरेंद्र मोदी की बहती
हवा और NDA सरकार बनने की सर्वाधिक
संभावना देखते हुए बहुत सारी पार्टियाँ और ढेर सारे नेता अब जाकर धीरे-धीरे
नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई अत्यधिक कड़वी बात कहने से बच रहे हैं. सभी को दिखाई दे
रहा है कि अगली सरकार बगैर नरेंद्र मोदी की मर्जी के बगैर बनने वाली नहीं है. कहीं
भाजपा 250 सीटें पार कर गई तब तो
उसे किसी भी “ब्लैकमेलर” की जरूरत नहीं पड़ेगी.
परन्तु यदि जैसा कि भाजपा के कुछ भितरघाती तथा तीसरे मोर्चे(???) के कुछ अवसरवादी
अपनी यह इच्छा बलवती बनाए हुए हैं कि किसी भी तरह से काँग्रेस को सौ सीटों के
आसपास तथा भाजपा को 200 सीटों के आसपास रोक
लिया जाए तो पाँच साल के लिए उन लोगों की चारों उँगलियाँ घी में, सिर कढाई में और
पाँव मखमल पर आ जाएँगे. स्वाभाविक है कि गुजरात में अपनी शर्तों पर बारह साल तक
सत्ता चलाने वाले नरेंद्र मोदी इतने बेवकूफ तो नहीं हैं, कि वे इन “बैंगनों-लोटों” तथा सामने से
मुस्कुराकर पीठ में खंजर घोंपने को आतुर लोगों की घटिया चालें समझ ना सकें.
अब हम आते हैं नरेंद्र मोदी और भाजपा की
सबसे महत्त्वपूर्ण रणभूमि अर्थात यूपी-बिहार की तरफ. अगले प्रधानमंत्री का रास्ता
यहीं से होकर गुजरने वाला है. यह बात नरेंद्र मोदी और संघ-भाजपा सभी जानते हैं,
इसीलिए जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, बनारस से नरेंद्र मोदी को लड़वाने का फैसला एक
मास्टर स्ट्रोक साबित होने वाला है. सामान्यतः सेकुलर सोच वाले बुद्धिजीवियों ने
सोचा था कि नरेंद्र मोदी गुजरात की किसी भी सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ेंगे, परन्तु
सभी को गलत साबित करते हुए नरेंद्र मोदी ने लखनऊ भी नहीं, सीधे वाराणसी को चुना. वाराणसी
सीट का अपना एक अलग महत्त्व है, ना सिर्फ राजनैतिक, बल्कि रणनीतिक और धार्मिक भी. काशी
से नरेंद्र मोदी के खड़े होने का जो “प्रतीकात्मक” महत्त्व है वह भाजपा
कार्यकर्ताओं के मन में गुदगुदी पैदा करने वाला तथा यूपी-बिहार में घुसे बैठे
जेहादियों के दिल में सुरसुरी पैदा करने वाला है. यहाँ के प्रसिद्द संकटमोचन मंदिर
में हुए बम विस्फोट की यादें अभी लोगों के दिलों में ताज़ा हैं, साथ ही काशी
विश्वनाथ मंदिर अपने-आप में एक विराट हिन्दू “आईकॉन” है ही. धार्मिक मुद्दे फिलहाल
इस चुनाव में इतने हावी नहीं हैं, परन्तु वाराणसी सीट का राजनैतिक महत्त्व बहुत
ज्यादा है. बिहार और पूर्वांचल की सीमा के पास स्थित होने के कारण नरेंद्र मोदी के
यहाँ से लड़ने का फायदा पूर्वांचल की लगभग तीस सीटों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष
रूप से पड़ेगा. पिछले चुनावों में भाजपा इस इलाके में बहुत कमजोर साबित हुई थी.
नरेंद्र मोदी की उपस्थिति से कार्यकर्ताओं का मनोबल भी उछाल मार रहा है. विरोधियों
में कैसा हडकंप मचा हुआ है, यह इसी बात से साबित हो जाता है कि इसी घोषणा के बाद
मुलायम सिंह को भी अपनी रणनीति बदलते हुए मैनपुरी के साथ-साथ आजमगढ़ से चुनाव लड़ने
की घोषणा करनी पड़ी. मुलायम के आजमगढ़ से मैदान में उतरने का फायदा जहाँ एक तरफ सपा
के यादव-मुस्लिम वोट बैंक को हो सकता है, वहीं उनके लिए खतरा यह भी है कि आजमगढ़ की
“विशिष्ट छवि” के कारण पूर्वांचल में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की
संभावनाएं भी बढ़ जाएँगी, जो मोदी-भाजपा के लिए फायदे का सौदा ही होंगी. उधर लालू
भी अपने सदाबहार अंदाज़ में “साम्प्रदायिक शक्तियों(???) को रोकने के नाम पर ताल
ठोंकने लगे हैं. जबकि अनुमान यह लगाया जा रहा है कि बिहार में लालू की पार्टी इन
चुनावों में तीसरे स्थान पर रह सकती है. नरेन्द्र मोदी के वाराणसी में उतरने के
कारण बहुतों की योजनाएं गड़बड़ा गई हैं, सभी को उसी के अनुसार फेरबदल करना पड़ रहा
है. परन्तु इतना तो तय है कि यूपी-बिहार 120 सीटों में से यदि भाजपा साठ सीटें नहीं जीत पाई, तो
उसके लिए दिल्ली का रास्ता मुश्किल सिद्ध होगा. इसीलिए नरेंद्र मोदी ने हिम्मत
दिखाते हुए बनारस से लड़ने का फैसला किया है, जबकि यहाँ से मुरलीमनोहर जोशी पिछला
चुनाव बमुश्किल 17,000 वोटों से ही जीत सके
थे. लेकिन यह जुआ खेलना बहुत जरूरी था, क्योंकि वाराणसी से मोदी की जीत भविष्य में
बहुत से सेकुलरों-बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों का मुँह सदा के लिए बंद कर देगी.
क्रिकेट की भाषा में अक्सर भाजपा को “दक्षिण अफ्रीका” की टीम कहा जाता है, जो
बड़े ही दमदार तरीके से जीतते हुए फाईनल तक तो पहुँचती है, परन्तु फाईनल में आकर
उसे पता नहीं क्या हो जाता है और उसके खिलाड़ी अचानक खराब खेलकर टीम हार जाती है.
कुछ-कुछ ऐसा ही इस आम चुनाव में भी हो रहा है. चार विधानसभा में तीन में सुपर-डुपर
जीत तथा दिल्ली में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद एवं नरेंद्र मोदी की लगातार जारी
धुँआधार रैलियों और काँग्रेस पर हमले की वजह से आज भाजपा “फ्रंट-रनर” के रूप में सामने है, लेकिन टीम के कुछ “गरिष्ठ खिलाड़ियों” को कैप्टन के निर्णय पसंद नहीं आ रहे हैं. कुछ
खिलाड़ी सीधे सामने आकर, जबकि कुछ खिलाड़ी परदे के पीछे से लगातार इस कोशिश में लगे
हुए हैं कि किसी भी तरह फाईनल में यह टीम “200 रन” के आसपास ही उलझकर रह जाए, ताकि मैच के अंतिम ओवरों में
विपक्षी टीम के कुछ अन्य “खिलाड़ियों” के साथ मिलकर मैच फिक्सिंग करते हुए जीत की वाहवाही भी लूटी जा सके.
नरेंद्र मोदी इस बात को समझते हैं कि विरोधी खेमे में भगदड़ का फायदा उठाने
वाली इस रणनीति का सिर्फ तात्कालिक फायदा है, और वह है किसी भी सूरत में भाजपा
(एवं NDA) को 272+ तक ले जाना. यदि
उत्तर-पश्चिम भारत में मोदी का जादू मतदाताओं के सर चढ़कर बोला और अकेले भाजपा अपने
दम पर 225-235 तक भी ले आती है, तो
निश्चित जानिये कि ढेर सारे “थाली के बैंगन” और “बिन पेंदे के लोटे” तैयार बैठे
मिलेंगे, जो मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए खुद अपनी तरफ से जी-जान लगा देंगे,
आखिर सत्ता ही सबसे बड़ी मित्र होती है, और वक्त की दीवार पर साफ़-साफ़ लिखा है कि
नरेंद्र मोदी सत्ता में आ रहे हैं. गुजरात दंगों को लेकर पिछले बारह साल से जो “गाल-बजाई” चल रही थी, उसका अंत
होने ही वाला है. जिस तरह “सेकुलर गिरोह” ने 1996 में वाजपेयी को अछूत बनाकर घृणित चाल चली थी, ठीक उसी प्रकार या कहें कि
उससे भी अधिक घृणित चालें चलकर मुस्लिमों को डराकर, सेकुलरिज़्म के नाम पर मीडिया
और NGOs की गैंग की मदद से
नरेंद्र मोदी को लगातार “राजनैतिक अछूत” बनाने की असफल कोशिश की गई. इस अभियान में नीतीश कुमार
से लेकर दिग्विजयसिंह सभी ने अपनी-अपनी आहुतियाँ डालीं लेकिन नरेंद्र मोदी शायद
किसी और ही मिट्टी के बने हुए हैं, डटकर अकेले मुकाबला करते रहे और अब जीत उनके करीब
है. महाभारत वाला अभिमन्यु तो बहादुरी से लड़ते हुए चक्रव्यूह में मारा गया था,
लेकिन नरेंद्र मोदी नामक यह आधुनिक अभिमन्यु इस “कुटिल चक्रव्यूह” को तोड़कर न सिर्फ बाहर
निकल आया है, बल्कि अब तो सभी कथित महारथियों को धूल चटाते हुए हस्तिनापुर पर शासन
भी करेगा.
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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013 16:15
Priyanka Gandhi Vs Narendra Modi...???
"पप्पू के स्थान पर बबली"??
इस बात का अनुमान तो बहुत पहले ही लग चुका था कि "भोंदू" की लगातार होती दुर्गति और उसकी अति-सीमित बुद्धि की वजह से "बियांका (Bianca) वाड्रा"को कांग्रेस मैदान में उतारेगी ही... आज यह खबर लीक होने के बाद कांग्रेसी लीपा-पोती करते नज़र आए...
हालांकि अब सभी जान चुके हैं कि "पप्पू", नरेंद्र मोदी से मुकाबला करने में सक्षम नहीं है... इसलिए वही वर्षों पुराना कांग्रेसी "नाटक" (अर्थात सूती साड़ियाँ, पूरी बांहों का ब्लाऊज़, आँखों में ग्लिसरीन और महिला होने के नाम पर सहानुभूति की भीख मांगने की गुहार) खेला जाएगा...
===============
दिक्कत सिर्फ यही है कि "बियांका" के पति, अर्थात अपने परिवार को छोड़कर घरजमाई बना हुआ, "जमीन" से जुड़ा लालची व्यक्ति रॉबर्ट वाड्रा का काला इतिहास भी उसके साथ है...
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गुरुवार, 05 सितम्बर 2013 21:25
Hindu-Muslim Communialism and Narendra Modi
हिन्दू साम्प्रदायिकता बनाम मुस्लिम साम्प्रदायिकता...
राष्ट्रीय परिदृश्य पर नरेन्द्र मोदी के
उभरने से काफी पहले अर्थात पन्द्रह साल पहले 1986 में जब देश एक युवा प्रधानमंत्री को तीन-चौथाई
बहुमत देकर यह सोच रहा था कि शायद अब देश तेजी से आगे बढ़ेगा, उसी समय उस “तथाकथित आधुनिक प्रधानमंत्री” ने देश की सुप्रीम कोर्ट को लात मारते हुए
शाहबानो नाम की मुस्लिम महिला पर अन्याय की इबारत लिख मारी. क्या उस समय तक अर्थात
1985-86 तक “संघ
परिवार” ने राम मंदिर आंदोलन को तेज़ किया था? नहीं...
फिर उस समय राजीव गाँधी की क्या मजबूरी थी? इतना जबरदस्त बहुमत होते हुए भी एक
युवा प्रधानमंत्री को मुस्लिम कट्टरपंथ खुश करने की घटिया राजनीति क्यों करनी पड़ी?
इसका जवाब है, काँग्रेस की दोनों हाथों में लड्डू रखने की राजनीति. सभी को मालूम
है कि राम जन्मभूमि का ताला खुलवाते समय ना तो संघ का दबाव था और ना ही उस समय तक
नरेन्द्र मोदी को कोई जानता भी था. लेकिन पहले काँग्रेस ने हिन्दू वोटरों को खुश
करने के लिए राम जन्मभूमि का कार्ड खेला, फिर इस कदम से कहीं मुस्लिम नाराज़ ना हो
जाएँ, इसलिए एक मज़लूम मुस्लिम महिला को दाँव पर लगाकर मुस्लिम तुष्टिकरण कर डाला.
क्या 1986 से पहले “तथाकथित हिन्दू साम्प्रदायिकता”(?) नाम की कोई बात अस्तित्त्व में थी? नहीं थी. परन्तु काँग्रेस की
मेहरबानी से मुस्लिम साम्प्रदायिकता जरूर 1952 से ही इस देश में
लगातार बनी हुई है. इस बीच जब 1989 से 1996 के मध्य “हिन्दू
राजनीति” को भाजपा ले उड़ी और टूटे-फूटे बहुमत के साथ सत्ता में भी आ गई, तब
सेकुलरिज़्म के पुरोधा हडबडाते हुए बेचैन हो गए.
यह तो था मुस्लिम साम्प्रदायिकता के उभार का
शुरुआती बिंदु और इस्लामिक वोटों के लिए नीचे गिरने के सिलसिले के आरम्भ का
संक्षिप्त इतिहास... आईये अब हम पिछले कुछ वर्षों की प्रमुख घटनाओं पर संक्षेप में
निगाह डाल लें. इन घटनाओं को देखने के बाद हम समझ जाएँगे कि राजीव गाँधी ने
मुस्लिम वोटों के लिए जो गिरावट शुरू की थी, वह धार्मिक राजनीति अब खुल्लमखुल्ला
देशद्रोह, बेशर्मी और दबंगई में बदल गई है. शुरुआत करते हैं सोहराबुद्दीन एनकाउंटर
मामले से... केन्द्र व राज्य सरकार के आँकड़ों के अनुसार पिछले दस वर्ष में गुजरात
में सिर्फ 18 फर्जी एनकाउंटर के मामले सामने आए हैं, जबकि उत्तरप्रदेश में 170 से अधिक एवं आँध्रप्रदेश में 150 से अधिक फर्जी
पुलिस एनकाउंटर हुए हैं. फिर “सोहराबुद्दीन” एनकाउंटर को ही मीडिया में इतनी प्रसिद्धि क्यों मिली? ज़ाहिर है,
क्योंकि सोहराबुद्दीन चाहे कितना भी खूंखार अपराधी हो, चाहे उसके घर के कुएँ से
एके-४७ राइफलें मिली हों, परन्तु वह मुसलमान है, इसलिए उसका उपयोग करके नरेन्द्र
मोदी को घेरा जा सकता है. सोहराबुद्दीन के साथ ही तुलसी प्रजापत नाम के गुंडे का
भी एनकाउंटर हुआ था, तुलसी प्रजापत का नाम तो अधिक सुनने में नहीं आता, क्योंकि वह
हिन्दू है. यह सब पढ़ने-सुनने में बड़ा अजीब सा और साम्प्रदायिक किस्म का लग सकता
है, परन्तु जब हम देखते हैं कि अचानक ही इशरत जहाँ नामक संदिग्ध लड़की के मारे जाने
पर नीतीश कुमार और शरद पवार, दोनों ही उसके “अब्बू” बनने की कोशिश करने लगते हैं तब यह शक और भी मजबूत हो जाता है कि मुस्लिम
वोटों को लुभाने के लिए सेक्यूलर “गैंग” सोहराबुद्दीन मामले में किसी भी हद तक जा सकती है.
पाठकों को याद होगा कि मुम्बई के आज़ाद
मैदान में रज़ा अकादमी द्वारा आयोजित रैली के बाद एकत्रित मुस्लिम भीड़ ने जिस तरह
की अनियंत्रित हिंसा की, पुलिस वालों को पीटा गया, महिला कांस्टेबलों की बेइज्जती
की गई और तो और शहीद स्मारक पर मुल्लों द्वारा लातें और डंडे बरसाए गए. संदिग्ध
इतिहास वाली रज़ा अकादमी को रैली की अनुमति देना सही निर्णय था या नहीं यह अलग बात
है, परन्तु इस मुस्लिम भीड़ द्वारा इस हिंसक रैली के बाद राज ठाकरे के दबाव में जब
महाराष्ट्र सरकार की पुलिस ने बिहार जाकर एक मुस्लिम युवक को गिरफ्तार किया, तब भी
नीतीश कुमार ने सहयोग करने की बजाय मुस्लिम कार्ड खेल लिया, जबकि महाराष्ट्र के
गृह मंत्री आरआर पाटिल NCP के ही मंत्री हैं. जो शरद पवार और नीतीश कुमार जो आज इशरत जहाँ को “बेटी-बेटी-बेटी”
कहने की होड़ लगा रहे हैं, वे उस समय आमने-सामने खड़े थे.
मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बड़ी बेशर्मी और
भौंडे अंदाज़ में पालने-पोसने की कई घटनाओं में से एक सभी को याद है और वह है “बाटला हाउस एनकाउंटर”.
सोहराबुद्दीन एनकाउंटर पर रुदालीगान करने वाले सभी सेक्यूलर इस मामले में भी पुनः
शहज़ाद नामक आतंकवादी के पक्ष में आँसू बहाते नज़र आए. जिस तरह से 26/11 हमले के समय हेमंत करकरे के बलिदान की बेइज्जती करके उस घटना को भी
संघ के माथे थोपने की भद्दी कोशिश की गई थी, बाटला हाउस मामले में भी शहीद हुए
इंस्पेक्टर मोहनचंद्र शर्मा को अपराधी साबित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी
गई. यहाँ तक कि आजमगढ़ से ट्रेन भर-भरकर मुसलमानों को दिल्ली में प्रदर्शन हेतु
लाया गया. कोर्ट का निर्णय आने के बावजूद मुस्लिम वोटों के सौदागर अभी भी
मोहनचंद्र शर्मा की मिट्टी पलीद करने में लगे हुए हैं.
सोहराबुद्दीन पर मची छातीकूट, आज़ाद मैदान
हिंसा पर रहस्यमयी चुप्पी और इशरत जहाँ को बेटी बनाने की फूहड़ होड़ के बाद मुस्लिम
साम्प्रदायिकता की राजनीति का घिनौना चेहरा सामने आया उत्तरप्रदेश में, जहाँ के रेत
माफिया पर नकेल कसने वाली युवा, कर्मठ आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति को निलंबित करने
के लिए अखिलेश यादव नाम के एक और “युवा”(?) मुख्यमंत्री ने रमजान माह में एक मस्जिद की दीवार गिराने का स्पष्ट
बहाना बना लिया, ताकि मुस्लिम वोटों की खेती की जा सके. थोड़ा-बहुत हल्ला-गुल्ला
मचाया गया, लेकिन जैसा कि होता है उत्तरप्रदेश के अन्य मंत्रियों ने अपने बेतुके
बयानों से आग में घी डालने का ही काम किया. किसी को भी इस देश के प्रशासनिक ढाँचे,
संघीय व्यवस्था अथवा एक युवा अफसर के गिरते मनोबल के बारे में कोई चिंता नहीं थी.
सोनिया गाँधी ने सिर्फ एक चिठ्ठी लिखकर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली, परन्तु
संसद में सपा-बसपा के ऑक्सीजन पर टिकी हुई काँग्रेस इस मामले को अधिक तूल देना
नहीं चाहती थी... क्योंकि उसके सामने भी मुस्लिम वोटों की फसल का सवाल था...
इन सारी चुनावी सेकुलर बेशर्मियों के बीच
एक और बात को च्युइंग-गम की तरह चबाया गया. वह है मीडिया की सांठगांठ के साथ तैयार
किया गया “इस्लामी टोपी प्रकरण”.
पिछले एक साल में तो इस मुद्दे पर इतना कुछ कहा जा चुका है कि इस्लाम में पवित्र
मानी जाने वाली सफेद टोपी अब हँसी और खिल्ली का विषय बन चुकी है. चंद बिके हुए
लोगों ने ऐसा माहौल रच दिया गया है, मानो देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार
होने के लिए विकास कार्य, दूरदृष्टि, ईमानदारी वगैरह की जरूरत नहीं है, बल्कि “जालीदार टोपी”
लगाना ही एकमात्र क्वालिफिकेशन है. इफ्तार पार्टियों के नाम पर मुस्लिम वोटों की
दलाली का जो भौंडा और भद्दा प्रदर्शन होता है, उसका तो कोई जवाब ही नहीं है. भाजपा
के दूसरे मुख्यमंत्री और नेता भी इस चूहा-दौड़ में शामिल दिखाई देते हैं. 1996 की सेकुलर “गिरोहबाजी” से 13 दिनों और 13 माह में भाजपा की सरकारें गिराने वालों की हरकतें देख चुकी देश की
जनता फिर से देख रही है कि एक अकेले नरेन्द्र मोदी के खिलाफ किस तरह यह “गैंग” ना सिर्फ एकजुट है, बल्कि इन लोगों को मुस्लिम साम्प्रदायिकता भड़काने
से भी गुरेज़ नहीं है. इसीलिए कभी यह गैंग सभी मुसलमानों को “कुत्ते का पिल्ला”
साबित करने में जुट जाती है तो कभी टोपी और पाँच रूपए के टिकिट जैसे क्षुद्र
मुद्दों पर टाईम-पास करती है.
तात्पर्य यह है कि गत कुछ वर्षों में बड़े
ही सुनियोजित ढंग से मुस्लिम साम्प्रदायिकता को खाद-पानी दिया जा रहा है, और मजे
की बात यह है कि ये सब कुछ “साम्प्रदायिक”(?) ताकतों से लड़ने के नाम पर किया जा रहा है. क्या पिछले दस वर्ष में
कभी भाजपा ने राम मंदिर के नाम पर आंदोलन-प्रदर्शन किया है? क्या विहिप और बजरंग
दल ने पिछले दस वर्ष में गौ-हत्या अथवा हिन्दू धर्म के किसी अन्य मुद्दे पर कोई
विशाल या हिंसात्मक आंदोलन किया है? क्या नरेन्द्र मोदी के गुजरात में पिछले दस
वर्ष में कोई छोटा-बड़ा दंगा हुआ है? क्या शिवराज-रमण सरकारों के शासनकाल में
मुसलमानों के ऊपर “अत्याचार”
बढ़ाए गए हैं?? इन सभी सवालों का जवाब “नहीं” में आता है, तो फिर “सेकुलरिज़्म
के घड़ियाल”
मुस्लिम साम्प्रदायिकता के उभार को
तथाकथित हिन्दू आतंक(?) के जवाब में होने वाली घटना कैसे कह सकते हैं... यह तो
चोरी और सीनाजोरी वाली हरकत हो गई.
इसी सीनाजोरी का एक और प्रदर्शन हाल ही
में जम्मू क्षेत्र के किश्तवाड में देखने को मिला, जहाँ ईद की नमाज़ के बाद
मुस्लिमों की भारी भीड़ ने भारत विरोधी नारे लगाए, जिसका विरोध करने पर असंगठित
हिंदुओं को जमकर सबक सिखाया गया. सैकड़ों दुकानें जलीं, संपत्ति लूटी गई, कुछ घायल
हुए और कुछ मारे गए. जवाब में उमर अब्दुल्ला ने भी “देश के इतिहास में हुए एकमात्र दंगे”(?) यानी गुजरात का उदाहरण देकर उसे हल्का करने की कोशिश कर ली. अब्दुल्ला
का वह बयान तो और भी हैरतनाक था जिसमें उन्होंने कहा कि “ कश्मीर में ईद की नमाज के बाद अथवा जुमे की नमाज के बाद भारत विरोधी
नारे लगना तो आम बात है...”
यानी उमर अब्दुल्ला कहना चाहते हैं कि पाकिस्तान जिंदाबाद कहना एक सामान्य सी बात
है और उसका विरोध नहीं किया जाना चाहिए. क्या अब भी कोई शक बाकी रह गया है कि
कश्मीर को पंडितों से खाली करने के बाद अब जेहादियों की नज़रें जम्मू क्षेत्र पर भी
हैं, और इस मंशा को हवा देने में बाकी भारत में जारी मुस्लिम साम्प्रदायिकता का
बड़ा हाथ है, इस साधारण सी बात को सेकुलर समझना ही नहीं चाहते. “हिन्दू आतंक”
नाम के जिस हौए को वे खड़ा करना चाहते हैं, उसके पैर इतनी खोखली जमीन पर खड़े हैं कि
महाराष्ट्र सरकार साध्वी प्रज्ञा के खिलाफ अभी तक ठीक से चार्जशीट भी फ़ाइल नहीं कर
पाई है, सरकारी प्रेस की खबरों पर यकीन करें तो असीमानंद पर NIA के बयान भी लगातार बदल रहे हैं, भाजपा अथवा कोई हिंदूवादी संगठन इनकी
मदद के लिए खुल्लमखुल्ला सामने नहीं आ रहा, जबकि शहजाद का साथ देने के लिए
दिग्विजय सिंह डट चुके हैं, सोहराबुद्दीन के लिए तीस्ता “जावेद” सीतलवाड बैटिंग कर रही हैं, आज़ाद मैदान की घटना को “मामूली”
बताकर खारिज करने की कोशिशें हो रही हैं, किश्तवाड से हिन्दू पलायन करने की गुहार
लगा रहे हैं कोई सुनवाई नहीं हो रही... लेकिन सभी पार्टियों के दिलो-दिमाग पर नरेन्द्र
मोदी नाम का तूफ़ान ऐसा हावी है कि उन्हें मुस्लिम वोटों से आगे कुछ दिखाई नहीं दे
रहा, मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए नित-नए रास्ते खोजे जा रहे हैं, ताकि
मोदी के नाम से मुसलमानों को धमकाकर रखा जा सके.
फिल्म मिशन इम्पासिबल (भाग-२) में एक
वैज्ञानिक कहता है, “नायक
गढ़ने के लिए पहले एक खलनायक गढ़ना जरूरी है...” मुस्लिम वोटरों की दलाली करने वाले नेताओं और दलों की आपसी खींचतान
के चलते उन्होंने आपस में एक “गैंग” बनाकर पहले नरेन्द्र मोदी को खलनायक बनाया, ताकि वे खुद को मुस्लिमों
के एकमात्र मसीहा और खैरख्वाह साबित कर सकें, उनके नायक बन सकें. वर्ना क्या वजह
है कि जब भी गुजरात दंगों की बात होती है या चर्चाएँ होती हैं, उस समय उन दंगों के
मुख्य कारक तत्त्व गोधरा ट्रेन हादसे को ना सिर्फ भुला दिया जाता है, बल्कि उसे
चुपचाप दरी के नीचे छिपाने की भौंडी कोशिशें लगातार जारी रहती हैं. क्या 2001 से पहले भारत में कहीं दंगे नहीं हुए थे? क्या 2001 के बाद भारत में कभी दंगे नहीं हुए? क्या
2001 से पहले के गुजरात का हिन्दू-मुस्लिम दंगों का इतिहास लोगों को मालूम
नहीं है, जब चिमनभाई पटेल के शासन में दो-दो माह तक दंगे चला करते थे? सेकुलरिज़्म
की डामर अपने चेहरे पर पोते हुए कांग्रेसियों और वामपंथियों को सब मालूम है कि
काँग्रेस शासन के दौरान असम के नेल्ली से लेकर मलियाना तक सैकड़ों मुसलमानों का
नरसंहार हुआ था, और उधर तीस साल के वामपंथी कुशासन में पश्चिम बंगाल में गरीबी तो
बढ़ी ही, साथ ही मुस्लिम वोट बैंक की घटिया राजनीति के चलते बांग्लादेश से आए हुए “सेक्यूलर मेहमानों”
ने पश्चिम बंगाल के सत्रह जिलों और असम के आठ जिलों की आबादी को मुस्लिम बहुल बना
डाला. क्या “सेक्यूलर रतौंधी”
से ग्रस्त लोग कभी इसे देख पाएँगे?
नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते समय यह “गैंग” सुविधानुसार यह भूल जाती है कि पिछले दस वर्ष में गुजरात में एक भी
दंगा नहीं हुआ, क्या यह बड़ी उपलब्धि नहीं है? बिलकुल है, परन्तु जैसा कि मैंने ऊपर
कहा, खुद को नायक साबित करने के चक्कर में खलनायक गढा गया है, और जब यह कथित “खलनायक”
गुजरात के विकास को शो-केस में रखकर वोट जुटाने की कोशिश में लगा है, तो रह-रहकर
काँग्रेस-सपा-बसपा-जदयू-वामपंथ सभी को सेकुलरिज़्म का बुखार चढ़ने लगता है. नरेन्द्र
मोदी से मुकाबले के लिए इन लोगों की निगाह में सिर्फ एक ही रामबाण है, और वह है “थोकबंद मुस्लिम वोट”.
ज़ाहिर है कि मुस्लिम वोट देश की १०० से अधिक लोकसभा सीटों पर निर्णायक है, इसलिए
आने वाले दिनों में इस “पैमाने” पर इन्हीं के बीच आपस में घमासान मचेगा, जिसका केन्द्र बिंदु
उत्तरप्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल होंगे.
हिन्दू साम्प्रदायिकता का उभार और चरम 1988 से 1993 तक ही कहा जा सकता है. 2001 में गुजरात की घटना
सिर्फ गोधरा की प्रतिक्रिया थी, लेकिन पिछले साठ वर्षों में काँग्रेस सहित अन्य
तथाकथित सेकुलर पार्टियों ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ाया और पाला-पोसा है,
उसके जवाब में यदि मई २०१४ के लोकसभा चुनावों में “हिन्दू उभार”
सामने आ गया तो मुश्किल हो जाएगी. संक्षेप में कहूँ तो, “राजनीति करें, लेकिन रबर को इतना भी ना खींचें कि वह टूट ही जाए...”. यदि इसी तरह मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ोतरी दी गई, तो 1989-1991 की तरह पुनः हिन्दू साम्प्रदायिकता का उभार ना हो जाए... यदि ऐसा हुआ
तो राजनीतिज्ञों का कोई नुकसान नहीं होगा, लेकिन आम गरीब मुसलमान को ही कष्ट उठाने
पड़ेंगे.
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सोमवार, 29 जुलाई 2013 11:06
Narendra Modi Campaign and In-fighting of BJP
नरेन्द्र मोदी की प्रचार रणनीति और भीतरघात के खतरे...
यदि यह तीन नाम किसी हिन्दी फिल्म के
होते, तो निश्चित ही वह फ़िल्में भी उतनी ही हिट होतीं, जितना कि नरेन्द्र मोदी को
लेकर (24 X 7 X 365) दिन-रात तक “स्यापा” करने वाले चैनलों ने कमाया. जी हाँ, मैं
बात कर रहा हूँ, “कुत्ते के पिल्ले”, “सेकुलरिज्म का बुरका” और “पाँच रूपए की औकात” नामक तीन “फिल्मों”(?) की. किसी एक हीरो द्वारा दस दिनों के
अंतराल में लगातार तीन-तीन हिट फ़िल्में देना मायने रखता है, ये बात और है कि
नरेन्द्र मोदी स्वयं को तेजी से भारत की जनता के बीच “हीरो” अथवा “विलेन” के रूप में
ध्रुवीकरण करते जा रहे हैं.
भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के सशक्त
उम्मीदवार और फिलहाल “राष्ट्रीय प्रचार
प्रमुख” ने जिस अंदाज़ में पहले संवाद एजेंसी “रायटर” को इंटरव्यू दिया, उसके बाद पुणे के
फर्ग्युसन कॉलेज में युवाओं को संबोधित किया उसने मीडिया, काँग्रेस, सेकुलरों और
वामपंथियों के होश उड़ाकर रख दिए. बची-खुची कसर हैदराबाद की प्रस्तावित रैली में
भाजपा की स्थानीय इकाई द्वारा मोदी को सुनने के लिए पाँच रूपए का अंशदान लेने की
घोषणा ने पूरी कर दी. नरेन्द्र मोदी के प्रत्येक भाषण और इंटरव्यू को खुर्दबीन
लेकर जाँचने वाले “बुद्धिजीवियों” की निगाह कुछ
ऐसा मसाला खोजती ही रहती है, जिसके द्वारा उनकी रोजी-रोटी चलती रहे और टीवी पर “भौं-भौं-थू-थू-तू-तू-मैं-मैं” के दौरान
उनका मुखड़ा दिखाई देता रहे. उपरोक्त तीनों नामों की सुपरहिट साप्ताहिक फ़िल्में
इन्हीं बुद्धिजीवियों की देन है. (यहाँ बुद्धिजीवियों से मेरा आशय “बुद्धि को गिरवी रखकर” अपनी रोटी कमाने
वालों से है).
बहरहाल, यह सिद्ध होता जा रहा है कि जो
हुआ अच्छा ही हुआ. क्योंकि नरेन्द्र मोदी को घेरने और उनके कथनों को प्रताड़ित करने
से नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता घटती नहीं है, बल्कि बढ़ती है, उनके भाषणों को
लगातार घंटे भर बिना ब्रेक के दिखाने से चैनलों की TRP भी बढ़ती है... यानी
सभी के लिए यह फायदे का सौदा होता है. दिक्कत काँग्रेस को हो रही है, उसे समझ नहीं
आ रहा है कि नरेन्द्र मोदी के इस आक्रामक प्रचार अभियान का जवाब कैसे दिया जाए,
नतीजे में काँग्रेस कभी दिग्विजय सिंह (जिनका प्रत्येक बयान संघ समर्थकों में
बढ़ोतरी ही करता है), कभी मनीष तिवारी (जो चाटुकारिता की सीमाओं को पार करते हुए
मोदी की औकात पाँच रूपए बताकर मोदी को फायदा पहुंचाते हैं), तो कभी शशि थरूर (जो
खाकी पैंट को इतालवी फासीवाद तक ले जाने की मूर्खता कर बैठते हैं)... जैसे
प्रवक्ताओं को आगे करती जा रही है. लेकिन इन लोगों की बयानबाजी से नुकसान और भी
बढ़ता जा रहा है, ध्रुवीकरण और तेज होता जा रहा है. भले ही नरेन्द्र मोदी ने किसी
समुदाय विशेष को कुत्ते का पिल्ला नहीं कहा हो, लेकिन काँग्रेस-पोषित मीडिया और
काँग्रेस-जनित बुद्धिजीवियों ने मुसलमानों को कुत्ते का पिल्ला साबित करने में कोई
कसर बाकी नहीं रखी.
जैसा कि सब जानते हैं नरेन्द्र मोदी कोई
भी बात अथवा उदाहरण बगैर सोचे-समझे नहीं देते. ज़ाहिर है कि नरेन्द्र मोदी अपने
विरोधियों को उकसाना चाहते थे, और वह कामयाब भी रहे. यूपी-बिहार के मुस्लिम वोटों
को लेकर आगामी कुछ महीने में जैसा घमासान मचने वाला है, उसके कारण हिन्दू वोटर
अपने-आप ध्रुवीकृत होता चला जाएगा. गत तीन दशक गवाह हैं कि यूपी-बिहार में “जाति” की ही राजनीति चलती है, और इस जातिगत
राजनीति का तोड़ या तो विकास की बात करना है, अथवा हिन्दू वोटरों जाति तोड़कर धर्म
के आधार पर एकत्र करना है. नरेन्द्र मोदी दोनों ही रणनीतियों पर चल रहे हैं. जिन
राज्यों में विकास की बात चलेगी वहाँ पर गुजरात का विकास दिखाया जाएगा, मोदी के
भाषणों में वर्तमान UPA सरकार द्वारा फैलाए जा रहे निराशाजनक वातावरण के साथ युवाओं को लेकर
बनने वाले चमकदार भविष्य की बात की जाएगी, और जिन राज्यों में धर्म-जाति की
राजनीति चलती होगी, वहाँ अमित शाह को प्रभारी बनाकर उन्हें सांकेतिक रूप से राम
मंदिर भी भेजा जाएगा.
मोदी के इस रणनीति को लेकर काँग्रेस इस
समय गहरी दुविधा में है. काँग्रेस यह निश्चित नहीं कर पा रही है कि १) क्या वह
राहुल गाँधी को स्पष्ट रूप से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे या ना करे??
(ऐसा करने पर खतरा यह होगा कि लड़ाई मुद्दों से हटकर व्यक्तित्वों पर फोकस हो
जाएगी, शहरी मध्यमवर्ग और युवाओं के गुस्से को देखते हुए काँग्रेस यह नहीं
चाहती)... २) क्या नरेन्द्र मोदी का “हौआ” दिखाकर सर्वाधिक सीटों वाले यूपी-बिहार के मुसलमानों को अपने पक्ष में
किया जा सकता है?? (इसमें खतरा यह है कि भाजपा को छोड़कर सभी पार्टियाँ मुस्लिम वोट
रूपी केक में से अपना टुकड़ा झपटने की तैयारी में हैं, इसलिए निश्चित नहीं कहा जा
सकता कि मोदी को हराने के नाम पर क्या वाकई मुसलमान काँग्रेस को वोट देंगे?)... और
काँग्रेस की दुविधा का तीसरा बिंदु है - क्या काँग्रेस को अपने पुराने फार्मूले
अर्थात “गरीब को गरीब बनाए रखो और चुनाव के समय उसके
सामने रोटी का एक टुकड़ा फेंककर उसके वोट ले लो” को ही आजमाना
चाहिए? उल्लेखनीय है कि २००९ के चुनावों में “मनरेगा” एवं किसानों की कर्ज माफी के 72,000 करोड़ रूपए ने ही
काँग्रेस की नैया पार लगाई थी. यही दाँव काँग्रेस अब दोबारा खेलना चाहती है “खाद्य सुरक्षा क़ानून” के नाम पर. लेकिन
इसमें खतरा यह है कि खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों और नित नए सर्विस टैक्स की वजह से
शहरी मध्यमवर्ग काँग्रेस से और भी नाराज़ हो जाएगा, ऐसा भी हो सकता है कि आगामी
चुनाव बुरी तरह त्रस्त निम्न-मध्यमवर्ग बनाम बेहद गरीब वर्ग के बीच हो जाए. कुल
मिलाकर काँग्रेस खुद अपने ही जाल में उलझती जा रही है, जबकि उधर नरेन्द्र मोदी
मैदान में उतरकर बैटिंग की शुरुआत में ही “तीन चौके” लगा चुके हैं.
हालाँकि “सेकुलरिज्म के
अखाड़े” में उतरने के लिए नरेन्द्र मोदी भी अपनी कमर कस
चुके हैं. मोदी ने संसदीय बोर्ड की बैठक में ही स्पष्ट कर दिया है कि “सेकुलरिज्म” के मुद्दे पर
काँग्रेस को समुचित जवाब दिया जाएगा. जनता को यह बताया जाएगा कि पिछले ६० साल में
काँग्रेस ने किस तरह मुसलमानों का उपयोग किया, किस तरह दंगों के समय अधिकाँश
राज्यों में काँग्रेस (या गैर-भाजपाई) सरकारें थीं, किस तरह काँग्रेस ने विभिन्न
प्रकार के “लालीपाप” दे-देकर
मुसलमानों को बेवकूफ बनाया. साथ ही यह भी बताया जाएगा कि गुजरात के मुसलमानों की
तुलना में पश्चिम बंगाल और बिहार के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति कितनी नीचे है.
तात्पर्य यह है कि “प्रचार प्रमुख” तो पूरे दमखम
और फुल-फ़ार्म में गांधीनगर से दिल्ली की ओर कूच कर चुके हैं, जबकि काँग्रेस CBI या SIT के जरिए किसी
“अप्रत्याशित लाटरी” की प्रत्याशा
में बैठी है, और उनके “युवराज” महीने-दो महीने में एकाध जगह पर अपने दर्शन देकर वापस अपनी मांद में
घुस जाते हैं.
ऐसा नहीं है कि भाजपा या नरेन्द्र मोदी के
सामने सब कुछ अच्छा-अच्छा, गुलाबी-गुलाबी ही है. नरेन्द्र मोदी की राह में कई
किस्म के रोड़े भी हैं. संघ के हस्तक्षेप और बीचबचाव के बावजूद आडवाणी खेमा पार्टी
पर अपनी पकड़ छोड़ने को तैयार नहीं है. खुद आडवाणी भी अभी तक अनमने ढंग से ही
नरेन्द्र मोदी के साथ हैं, उन्होंने अभी तक एक बार भी नरेन्द्र मोदी की
प्रधानमंत्री दावेदारी के पक्ष में खुलकर कुछ नहीं कहा है. इस बीच मध्यप्रदेश में
भाजपा ने राघव जी के रूप में “आत्मघाती गोल” कर लिया है. भले ही मप्र काँग्रेस इस खुलासे के लिए अपनी पीठ ठोंकती
रहे, लेकिन वास्तव में यह भाजपा की अंदरूनी गुटबाजी और महत्वाकांक्षा का ही नतीजा
था कि यह सीडी कांड हो गया. हालाँकि राघव जी की इतनी राजनीतिक हैसियत कभी नहीं रही
कि वे शिवराज या सुषमा को चुनौती दे सकें, परन्तु फिर भी पत्रकार जगत में दबे
शब्दों में इस कांड को शिवराज बनाम मोदी वर्चस्व से जोड़ने की कोशिश हो रही है. इस
प्रकार की गुटबाजी देश के लगभग प्रत्येक राज्य में है. मोदी की असली चुनौती
उत्तरप्रदेश-बिहार और महाराष्ट्र में होगी. जहाँ उन्हें दो विपरीत ध्रुवों को एक
साथ साधना है. यदि नरेन्द्र मोदी महाराष्ट्र में उद्धव-राज को एक साथ लाने तथा
कर्नाटक में येद्दियुरप्पा को ससम्मान वापस लाने में कामयाब रहे तो रास्ता काफी
आसान हो जाएगा. हालाँकि राज ठाकरे को साथ लाने में एक पेंच यह है कि “मनसे” के विरुद्ध यूपी-बिहार में लगभग घृणा का
माहौल है, इसलिए महाराष्ट्र की १५-२० सीटों के लिए खुले तौर पर राज ठाकरे को साथ
लेने पर यूपी-बिहार की कई सीटों को गँवाने और विरोधियों के दुष्प्रचार का सामना भी
करना पड़ सकता है. केरल में नरेन्द्र मोदी पहले ही पेजावर मठ तथा नारायण गुरु आश्रम
जाकर नमन कर चुके हैं, तमिलनाडु से भी जयललिता का साथ मिलने का आश्वासन है.
आंध्रप्रदेश में तेलंगाना विवाद ने काँग्रेस शासित इस सबसे सशक्त राज्य में उसकी
हालत पतली कर रखी है. ज़ाहिर है कि नरेन्द्र मोदी के नाम, उनकी भाषण शैली, काँग्रेस
पर सीधा हमला बोलने की अदा और गुजरात की विकासवादी छवि के सहारे यदि मोदी अपने दम
पर यूपी-बिहार-झारखंड की लगभग १३० सीटों में से ६० सीटें भी ले आते हैं, तो
काँग्रेस का नाश तय है. इसीलिए इन दोनों राज्यों में आने वाले महीनों में
मुसलमानों के वोटों और आरक्षण के नाम पर कोई ना कोई गडबड़ी होने की आशंका जताई जा
रही है. नरेन्द्र मोदी के समर्थक और संघ चाहेंगे कि पार्टी को २०० से २२० सीटों के
बीच प्राप्त हो जाएँ, उसके बाद तो राह अपने-आप आसान हो जाएगी... जबकि आडवाणी गुट
चाहता है कि भाजपा किसी भी हालत में १८० सीटों से आगे ना निकल सके, ताकि बाद में “सर्वसम्मति” और “काँग्रेस विरोधी गठबंधन” के नाम पर
ममता-नीतीश-पटनायक-मायावती इत्यादि को साधकर आडवाणी के नाम को आगे बढ़ाया जा सके.
अतः नरेन्द्र मोदी के सामने जहाँ एक तरफ काँग्रेस-सेकुलर-वामपंथ-सीबीआई-NGO-मीडिया जैसे
मजबूत “गठबंधन” से निपटने की
चुनौती है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा के स्थानीय क्षत्रपों की आपसी सिर-फुटव्वल तथा
आडवाणी गुट के “बेमन” से किए जा
रहे सहयोग से भी निपटना है. हालाँकि काँग्रेस के विरोध तथा नरेन्द्र मोदी के पक्ष
में लगभग प्रत्येक राज्य में एक “अंडर-करंट” बह रहा है, भले ही काँग्रेस या मीडिया इसे न स्वीकार करे परन्तु जिस
तरह से मोदी के प्रत्यके शब्द और प्रत्येक हरकत पर उनके विरोधियों द्वारा तीखी
प्रतिक्रिया दी जाती है, उससे साफ़ है कि वे भी इस “अंडर-करंट” को महसूस कर चुके हैं. स्वाभाविक है कि अगले छः-आठ माह देश की
राजनीति और भविष्य के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं.
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शनिवार, 02 मार्च 2013 13:24
Hindutva and Development Cocktail - Narendra Modi
हिंदुत्व और विकास का कॉकटेल – नरेंद्र मोदी
२०१२ के गुजरात विधानसभा चुनावों की तैयारी के दौरान जिस
समय नरेंद्र मोदी सदभावना यात्रा और उपवास के मिशन पर गुजरात भर में घूमने निकले
थे, उस समय एक अप्रत्याशित घटना घटी थी. एक कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी का स्वागत
करते हुए एक मौलवी ने उन्हें मुसलमानों की सफ़ेद जाली वाली टोपी पहनाने का उपक्रम
किया था, जिसे नरेंद्र मोदी ने विनम्रतापूर्वक ठुकरा दिया था. इस बात को भारत के
पक्षपाती (यानी तथाकथित सेकुलर) मीडिया ने लपक लिया और मोदी के इस व्यवहार(?) को
लेकर हमेशा की तरह मोदी पर हमले आरम्भ कर दिए थे. उसी दिन शाम को एक कम पढ़ी-लिखी
महिला से मेरी बातचीत हुई और मैंने उससे पूछ लिया कि नरेंद्र मोदी ने उस मौलवी की “टोपी” नहीं
पहनकर कोई गलती की है क्या? उस महिला का जवाब था नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी ने
गुजरात विधानसभा का आधा चुनाव तो सिर्फ इसी बात से जीत लिया है. साफ़ बात है कि
जो बात एयरकंडीशन कमरों में बैठे बुद्धिजीवी नहीं समझ पाते, वह बात एक सामान्य
महिला की समझ में आ रही थी कि यदि नरेंद्र मोदी भी दिल्ली-मुंबई-पटना में बैठे हुए
सेकुलर नेताओं की तरह “मुल्ला टोपी” पहनकर इतराने का भौंडा प्रयास करते तो उनके वोट और भी कम
हो जाते, वैसा न करके उन्होंने अपने वोटों को बढ़ाया ही था. परन्तु जो “बुद्धिजीवी”(?) वर्ग
होता है वह अक्सर नरेन्द्र मोदी को बिन मांगे सेकुलर सलाह देता है, क्योंकि उसे
पता ही नहीं होता कि जमीनी हकीकत क्या है.
इस प्रस्तावना का मोटा अर्थ यह है कि यदि विकास सही तरीके
से किया जाए, जनता के कामों को पूरा किया जाए, लोगों की तकलीफें कम होती हों,
उन्हें अपने आर्थिक बढ़त के रास्ते दिखाई देते हों और राज्य की बेहतरी के लिए सही
तरीके से आगे बढ़ा जाए, तो जनता को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि आप “हिन्दुत्ववादी” हैं या
“मुल्लावादी”. नरेन्द्र
मोदी और देश के बाकी मुख्यमंत्रियों में यही एक प्रमुख अंतर है कि नरेन्द्र मोदी
अपनी “छवि” (जो कि
उन पर थोपी गई है) की परवाह किए बिना, चुपचाप अपना काम करते जाते हैं, मीडिया के “वाचाल
टट्टुओं” को
बिना मुँह लगाए, क्योंकि उन्हें यह स्पष्ट रूप से पता है कि मीडिया नरेन्द्र मोदी
के विपक्ष में जितना अधिक चीखेगा उसका उतना ही फायदा उन्हें होगा. मीडिया जब-जब
मोदी के खिलाफ जहर उगलता है, मोदी को लाभ ही होता है. नरेन्द्र मोदी का इंटरव्यू
लेने पर सपा के शाहिद सिद्दीकी की पार्टी से बर्खास्तगी हो, या मोदी की तारीफ़ करने
पर मुस्लिम बुद्धिजीवी मौलाना वस्तानावी के साथ जैसा “सलूक”
सेकुलरों ने किया, उसका अच्छा सन्देश ही हिंदुओं में गया. लोगों को यह महसूस हुआ
कि जिस तरह से नरेन्द्र मोदी के साथ “अछूतों” की तरह व्यवहार किया जाता है, वह मीडिया और विपक्षियों की
घटिया चालबाजी है.
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने द्वारा किए गए विकास को कई
बार साबित किया है। आश्चर्य तो यह है कि उनके इस विकासवादी एजेंडा पर महबूबा
मुफ्ती, अमरिंदर सिंह, गुजरात कांग्रेस और शीला दीक्षित भी मुहर लगा रही
हैं। यहाँ पर यह याद रखना जरूरी है कि उन पर लगाए गए दंगों के आरोप अभी तक किसी
अदालत में साबित होना तो दूर, उन पर अभी तक कोई FIR भी नहीं है, जबकि नरेन्द्र मोदी को घेरने की
पूरी कोशिशें की जा चुकी हैं. NGOवादी “परजीवी गैंग” ने भी मोर्चा खोला हुआ है, केंद्र की तरफ से
तमाम एसआईटी और सीबीआई तथा गुजरात के सभी मामलों की सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वयं
निगरानी... इन सबके बावजूद नरेन्द्र मोदी यदि डटे हुए हैं, तो यह उनके विकास
कार्यों और हिन्दुत्ववादी छवि के कारण.
पार्टी हो या पार्टी से बाहर... किसी भी व्यक्ति या संस्था को मोदी से निपटने का कोई कारगर रास्ता नहीं सूझ रहा है, उन्होंने अपनी पार्टी और पार्टी से बाहर विरोधियों से निपटने के लिए गुजरात-मोदी-विकास-हिंदुत्व का एक चौखट बना लिया है, जिसे तोड़ना लगभग असंभव होता जा रहा है, तभी तो महबूबा मुफ्ती जैसी नेता को भी मोदी की तारीफ करनी पड़ती है। चेन्नै के एक मुस्लिम व्यापारी की फाइल को सबसे तेजी से कुछ घंटों में सरकारी महकमों से निपटाकर वापस करने के लिए। क्या देश के तथाकथित सेक्युलर मुख्यमंत्रियों को ऐसा काम करने से कोई रोकता है? भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार 2007 में गुजरात के मुसलमानों की प्रति व्यक्ति आय (पीसीआई) देश में सबसे ज्यादा थी। देश के अन्य “सेकुलर”(?) राज्यों में भी ऐसा किया जा सकता था लेकिन नहीं किया गया, क्योंकि अव्वल तो उन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को “हिंदुत्व” शब्द से ही घृणा है और दूसरा यह कि उन्हें सेकुलरिज्म का एक ही अर्थ मालूम है कि “जैसे भी हो मुसलमानों को खुश करो”. जबकि नरेन्द्र मोदी का हिंदुत्व एकदम उलट है, कि “विकास सभी का करो लेकिन तुष्टिकरण किसी का भी न करो”. इसीलिये जब अहमदाबाद की विश्व प्रसिद्द बीआरटीएस (रोड ट्रांसपोर्ट योजना) के निर्माण की राह में जो भी मंदिर-मस्जिद या दरगाह आईं, नरेन्द्र मोदी ने बगैर पक्षपात के उन्हें तुडवा दिया और अहमदाबाद को विश्व के नक़्शे पर एक नई पहचान दी. आज अहमदाबाद के BRTS की तर्ज पर कई शहरों में “विशेष ट्रांसपोर्ट गलियारों” का निर्माण हो रहा है. मजे की बात यह है कि इस दौरान मंदिरों को गिराने या विस्थापित करने का किसी भी हिन्दू संगठन ने कोई विरोध नहीं किया, स्वाभाविक है कि मस्जिद या दरगाह को तोड़ने का विरोध भी होने की संभावना खत्म हो गई... यही है हिंदुत्व और विकास, जिसे “सेकुलर” लोग कभी नहीं समझ सकेंगे क्योंकि उनकी आँखों पर “मुस्लिम तुष्टिकरण” की पट्टी चढ़ी होती है.
दरअसल, संघ ने २०१४ के महाभारत के लिए एक दोधारी
तलवार चुनी है। एक धार
विकास की, दूसरी
धार हिंदू राष्ट्र की। मोदीत्व और हिंदुत्व को मिलाकर जो आयुर्वेदिक दवाई बनी है,
वह फिलहाल अब तक लाजवाब साबित हो रही है. इस मोदीत्व में कई
बातें शामिल हैं। 'विकास' और 'सुशासन' का एक मोदी फॉर्मूला तो है ही, और भी बहुत कुछ है। जैसे कि धुन का पक्का
एक कद्दावर नेता, जो अपने समर्थकों के
बीच “दबंग” छवि वाला है,
राजधर्म की दुहाई देनेवाले अटल बिहारी वाजपेयी हों या बात-बात पर देश की अदालतों
की फटकार हो, यह व्यक्ति चुटकियों
में दो-टूक फैसले लेता है और आनन-फानन में उन्हें लागू भी कर देता है, यह इंसान हाज़िर-जवाब है जो मीडिया के
महारथियों(?) को उन्हीं की भाषा में जवाब देता है, जिसने “गुजराती अस्मिता', “मेरा गुजरात”, “छः करोड़ गुजराती” इत्यादि शब्दों को
सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है, समर्थकों को भरोसा है कि यह हमेशा हिंदुत्व की
रक्षा करेगा। इन तमाम तत्वों से मिलकर बनता है मोदीत्व. यानी हिंदुत्व और विकास का
कॉकटेल| कुम्भ मेले के
दौरान साधू-संतों और अखाड़ों द्वारा लगातार मोदी-मोदी-मोदी की मांग करना और ऐन उसी
वक्त मोदी द्वारा दिल्ली के श्रीराम कालेज में युवाओं को संबोधित करना महज संयोग
नहीं है, यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत हुआ है, अर्थात परम्परागत
वोटरों को “हिंदुत्व” से और युवा शक्ति
को “विकास और आर्थिक
समृद्धि” के उदाहरणों के
सहारे वोट बैंक में तब्दील किया जा सके. सीधी सी बात है कि “हिंदुत्व और विकास” की इस जोड़-धुरी के
प्रमुख नायक हैं नरेन्द्र मोदी.
भाजपा की इस कॉकटेल
के सबसे बड़े प्रतीक मोदी हैं। गुजरात दंगों की वजह से मोदी की छवि आज वैसी ही है
जैसी कि राम मंदिर आंदोलन के दौरान आडवाणी की थी। राम मंदिर आंदोलन ने आडवाणी को
हिंदू ह्रदय सम्राट बना दिया था। लेकिन “विकास” कभी भी आडवाणी के
साथ नहीं चिपक पाया। गृह मंत्री के तौर पर भी उनका कार्यकाल प्रेरणादायी नहीं था,
बल्कि कंधार प्रकरण की वजह से उनकी किरकिरी ही हुई थी. आडवाणी को अटल बिहारी
वाजपेयी की परछाई के नीचे काम करना पड़ा ऐसे में अच्छे शासन का श्रेय तो वाजपेयी
को मिला प्रधानमंत्री के रूप में, लेकिन आड़वाणी को नहीं। नरेन्द्र मोदी के साथ ये
दिक्कत नहीं है। मोदी ने भाजपा के लिये लगातार तीन चुनाव जीते हैं। पहला चुनाव
निश्चित रूप से उन्होंने सांप्रदायिकता के मुद्दे पर लड़ा और जीत हासिल की,
हालांकि यह मुद्दा भी मीडिया और कांग्रेस द्वारा बारम्बार “हिटलर” और “मौत का सौदागर” जैसे शब्दों की वजह
से प्रमुख बना। लेकिन गुजरात विधानसभा के दूसरे चुनावों में “विकास” उनके एजेंडे पर
प्रमुख हो गया। गुजरात दंगों की छवि उनके साथ खामख्वाह चिपकी जरूर रही लेकिन
उन्होंने उस पर बात करना ही बंद कर दिया, और अब तीसरा चुनाव जीतते ही नरेन्द्र
मोदी भाजपा में निर्विवाद नेता हो गये हैं। सबसे बड़े जनाधार वाले नेता और एक ऐसा
नेता जो फैसले लेने से डिगता नहीं है। नरेन्द्र मोदी अब धीरे-धीरे भाजपा की
अपरिहार्य आवश्यकता बनते जा रहे हैं। ये लगभग तय है कि बीजेपी अगला चुनाव उनकी ही
अगुआई में लड़ेगी। पार्टी की कमान राजनाथ सिंह संभालेंगे और देश भर में लहर पैदा
करने की जिम्मेदारी मोदी की होगी।
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद मुंबई की रैली से जिस
तरह लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज जैसे राष्ट्रीय नेता छोटे-छोटे और नाकाफी
कारणों से गैरहाजिर रहे और मंच पर नरेंद्र मोदी का एकछत्र दबदबा दिखा,
उससे साफ
है कि भाजपा में मोदी युग की शुरुआत हो चुकी है। मोदी भी कल्याण
सिंह, उमा भारती और
येदियुरप्पा की तरह “स्वतंत्र स्वभाव के पिछडे वर्ग के” नेता हैं। यह बात
जाहिर है कि अटल बिहारी वाजपेयी 2002 के दंगों के बाद उन्हें हटाना चाहते थे लेकिन कार्यकर्ताओं और जनता के
दबाव की वजह से नहीं हटा पाए। २०१२ की तीसरी विधानसभा जीत में जिस तरह से गुजरात
के मुसलमानों ने मोदी के नाम पर वोट दिया है, वह सेकुलर पार्टियों, खासकर मुस्लिमों
को वोट बैंक समझने वाली कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है. हाल ही में एक नगरपालिका
चुनाव में सभी की सभी सीटें भाजपा ने जीतीं, जबकि वहाँ कि जनसंख्या में ७२%
मुसलमान हैं, नरेन्द्र मोदी की यही बात विपक्षियों की नींद उडाए हुए है.
नरेन्द्र मोदी ने
जिस तरह कुशलता से “हिंदुत्व और विकास” का ताना-बाना बुना
और लागू किया है, वह भाजपा के अन्य मुख्यमंत्रियों के लिए भी सबक है. यदि उन्हें
सत्ता में टिके रहना है तो यह फार्मूला कारगर है, दुर्भाग्य से मध्यप्रदेश के
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने धार की भोजशाला मामले में “सेकुलर” रुख अपनाकर अपनी ही
पार्टी के कार्यकर्ताओं की नाराजगी मोल ले ली है. जबकि इसके उलट नरेन्द्र मोदी ने
केंद्र की और से अल्पसंख्यकों के लिए भेजी जाने वाली छात्रवृत्ति का वितरण करने से
इस आधार पर मना कर दिया कि छात्रों के साथ धार्मिक भेदभाव करना उचित नहीं है.
फिलहाल यह मामला केन्द्र-राज्य के बीच झूल रहा है, लेकिन नरेन्द्र मोदी को अपने
समर्थकों और वोटरों को जो सन्देश देना था, वह पहुँच गया. इसके बावजूद, गुजरात के मुसलमानों की आर्थिक स्थिति में भरपूर
सुधार हुआ है तथा अन्य राज्यों (विशेषकर पश्चिम बंगाल और उत्तरप्रदेश) के मुकाबले
गुजरात में मुसलमानों की सामाजिक स्थिति काफी सुधरी हुई है.
तात्पर्य यह है कि “विकास और
हिंदुत्व का काकटेल” धीरे-धीरे सिर चढ़कर बोलने लगा है, दिल्ली विश्वविद्यालय के
श्री राम कालेज में युवाओं को सम्मोहित करने वाले संबोधन और सेकुलर मीडिया द्वारा
उस अदभुत भाषण की बखिया उधेड़ने की कोशिश भी उनके लिए फायदेमंद ही रही, क्योंकि आज
के मध्यमवर्गीय युवा को किसी भी कीमत पर विकास और रोजगार चाहिए, इस युवा के रास्ते में यदि 4-M (अर्थात
मार्क्स-मुल्ला-मिशनरी-मैकाले) भले ही कितने भी रोड़े अटकाएं, युवा किसी की सुनने
वाला नहीं है. इसकी बजाय आज का युवा पांचवां M (अर्थात मोदी)
चुनना अधिक पसंद करेगा, जो
दबंगई से अपने निर्णय लागू करे और युवाओं के साथ संवाद स्थापित करे, ऐसे में यदि
इन सब के बीच “हिंदुत्व
का तडका-मसाला” भी लग
जाए तो क्या बुरा है?
Suresh Chiplunkar
Suresh Chiplunkar
Published in
ब्लॉग
गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012 21:01
Rise of Narendra Modi Phenomenon... (Part-2)
नरेन्द्र मोदी “प्रवृत्ति” का उदभव एवं विकास… (भाग-2)
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मित्रों… पिछले भाग में हमने देखा कि किस तरह से – राजीव गाँधी सरकार शाहबानो
मामले में इस्लामी कट्टरपंथियों के सामने झुकी और उसने सुप्रीम कोर्ट को ताक पर
रखा… फ़िर वीपी सिंह की मण्डलवादी राजनीति और मुफ़्ती सईद द्वारा आतंकवादियों को
छोड़ने की “परम्परा” शुरु करने जैसे शर्मनाक वाकये
सामने आए… फ़िर “सांसदों
को खरीदने” की
नीति, लेकिन “देश
के संसाधन बेचने” की
नीति को आगे बढ़ाने वाले नरसिंहराव आए… इस तरह हम 1996 के चुनावों तक पहुँच चुके
हैं…। (यहाँ पढ़ें… http://blog.sureshchiplunkar.com/2012/10/rise-of-narendra-modi-phenomenon-part-1.html) अब आगे…
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1996 के चुनावों पर बात करने से पहले नरसिंहराव सरकार के कार्यकाल की एक घटना का उल्लेख करना जरूरी है। यह घटना घटी थी कश्मीर की प्रसिद्ध चरार-ए-शरीफ़ दरगाह में 1994 के अंत में मस्त गुल नाम के आतंकवादी ने अपने कई साथियों के साथ कश्मीर की प्रसिद्ध चरार-ए-शरीफ़ दरगाह पर कब्जा जमा लिया था। हालांकि कश्मीर में हमारे सुरक्षा बलों को इसकी भनक लग चुकी थी, लेकिन कड़ाके की सर्दी और बर्फ़बारी तथा कश्मीर में उसे हासिल स्थानीय मदद के कारण मस्त गुल उस दरगाह में घुसने में कामयाब हो गया था। बस… इसके बाद भारत सरकार और आतंकवादियों के बीच
चूहे-बिल्ली का थकाने वाला खेल शुरु हुआ। हमारी सेना आसानी से हमला करके दरगाह में
घुसे बैठे चूहों को मार गिराती, परन्तु हमारे देश के राजनैतिक नेतृत्व और मीडिया
ने हमेशा ही पुलिस और सैन्य बलों का मनोबल गिराने का काम किया है। जो “राष्ट्रीय शर्म”, 1990 में रूबिया सईद के
अपहरण के बदले पाँच खूँखार आतंकवादियों को छोड़ने पर हमने झेली थी, ठीक वैसा ही इस घटना में भी हुआ…
लगभग दो महीने तक हमारे सुरक्षा बलों ने दरगाह पर घेरा डाले रखा, आतंकवादियों
को खाना-पानी के तरसा दिया, ताकि वे दरगाह छोड़कर बाहर आएं, लेकिन नरसिंहराव सरकार
उन आतंकवादियों के सामने गिड़गिड़ाती भर रही, इन आतंकवादियों को बिरयानी, चिकन और
पुलाव की दावतें दी गईं। समूचे विश्व के सामने हमारी खिल्ली उड़ती रही, भारत का “पिलपिला” थोबड़ा लगातार दूसरी बार विश्व
के सामने आ चुका था…। आज 17 साल बाद भी यह स्पष्ट नहीं है कि इस घटना में आतंकवादी
थक गए थे, या सरकार ने उनके साथ कोई गुप्त समझौता किया था, परन्तु जाते-जाते मस्त
गुल और उसके साथियों ने लकड़ी से निर्मित शानदार वास्तुकला के नमूने “चरार-ए-शरीफ़” को आग के हवाले कर दिया। सेना
मुँह देखती रह गई और सरकार व कश्मीर के स्थानीय “शांतिदूतों” की मदद से मस्त गुल पाकिस्तान भागने में सफ़ल रहा, जहाँ
उसका स्वागत “इस्लाम
के एक हीरो” के
रूप में हुआ। रॉ और आईबी के अधिकारियों की चुप्पी की वजह से अभी तक ये भी रहस्य ही
है कि मस्त गुल को पाकिस्तान की सीमा तक छोड़ने कौन गया था?
उस वक्त भी हमारा मीडिया, सैन्य बलों और पुलिस की नकारात्मक छवि पेश करने में
माहिर था, और आज भी वैसा ही है। मीडिया ने दरगाह के जलने का सारा दोष भारतीय सैन्य
बलों पर मढ़ दिया, और कहा कि यह सब सेना के हमले की वजह से हुआ है, जबकि मीडिया को
चरार-ए-शरीफ़ दरगाह से 10 किमी दूर ही रोक दिया गया था। मीडिया का यही “घटिया” और “देशद्रोही” रुख हमने मुम्बई हमले के वक्त
भी देखा था, जब सुरक्षा बलों का साथ देने की बजाय इनका सारा जोर यह दिखाने में था
कि कमाण्डो कहाँ से उतरेंगे, कहाँ से ताज होटल में घुसेंगे?
नरेन्द्र मोदी “प्रवृत्ति” के उभार की श्रृंखला में इस
घटना का उल्लेख करना इसलिए आवश्यक था, ताकि भारत की सरकारों की “दब्बू”, “डरपोक” और “पिलपिली” मानसिकता साफ़-साफ़ उजागर हो सके,
जिसकी वजह से भारतीय युवाओं के मन में आक्रोश पनपता और पल्ल्वित होता जा रहा था।
और जब यही दब्बूपन, अनिर्णय और डरपोक नीति वाजपेयी सरकार के दौरान IC-814 विमान अपहरण काण्ड में भी सामने
आई, तो भाजपा के समर्थकों का विश्वास और भी कमजोर हो गया… (इस काण्ड पर चर्चा अगले
किसी भाग में होगी)। परन्तु मुम्बई रैली में राज ठाकरे को मंच पर जाकर गुलाब का
फ़ूल देने वाले सिपाही की जो विद्रोही मानसिकता है, उस मानसिकता को समझने में
भारतीय नेताओं ने हमेशा ही भूल की है…
1991 के चुनावों तक देश की हालत आर्थिक मोर्चे पर बहुत पतली हो चुकी थी, सोना
भी गिरवी रखना पड़ा था… इस पृष्ठभूमि में चलते चुनावों के बीच ही राजीव गाँधी की
हत्या भी हो गई, जिसका फ़ायदा कांग्रेस को मिला और उसकी सीटें 197 से बढ़कर 244 हो
गईं। परन्तु भाजपा की सीटें भी 85 से बढ़कर 120 हो गईं… (आम धारणा है कि यदि राजीव
गाँधी की हत्या न हुई होती, तो 1991 में ही भाजपा की ताकत 150 सीटों से ऊपर निकल
गई होती), जबकि जनता दल 59 सीटें लेकर लगभग साफ़ हो गया। राम मन्दिर आंदोलन और
वाजपेयी-आडवाणी की स्वच्छ छवि के चलते, भाजपा की ताकत बढ़ती रही और हिन्दुत्व के
मुद्दे पर देश आंदोलित होने लगा था। परन्तु उस समय देश की आर्थिक हालत को देखते
हुए और 273 के आँकड़े के लिए कोई भी समीकरण नहीं बन पाने की मजबूरी के चलते, कोई भी
पार्टी सरकार गिराना नहीं चाहती थी। इसलिए पीवी नरसिंहराव ने पूरे पाँच साल तक एक “अल्पमत सरकार” चलाई और मनमोहन सिंह और प्रणब
मुखर्जी के दिशानिर्देशों के तहत विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के सहारे,
भारत को “आर्थिक सुधारों”(?) के मार्ग पर धकेल दिया। अतः
कहा जा सकता है कि देशहित को ध्यान में रखते हुए सभी पार्टियों ने अपने विवादित
मुद्दों को अधिक हवा न देने का फ़ैसला कर लिया था, इसलिए 1991 से 1996 के दौरान
मण्डल-मन्दिर दोनों ही आंदोलनों की आँच, अंदर ही अंदर सुलगती रही, लेकिन थोड़ी धीमी
पड़ी।
हालांकि इन पाँच सालों में देश ने कांग्रेसी पतन की नई “नीचाईयाँ” भी देखीं। चूंकि नरसिंहराव
सिर्फ़ विद्वान और चतुर नेता थे, करिश्माई नहीं… इसलिए अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी,
और माखनलाल फ़ोतेदार जैसे घाघ नेताओं ने उन्हें कभी चैन से रहने नहीं दिया। सरकार
शुरु से अन्त तक अल्पमत में थी, इसलिए झारखण्ड के “सांसदों को खरीदकर बहुमत जुटाने” की नई परम्परा को भी कांग्रेस
ने जन्म दिया। 1995 में एक कांग्रेसी नेता सुशील ने अपनी पत्नी की हत्या कर, उसके
टुकड़े-टुकड़े करते हुए उसे तंदूर में जला दिया, यह घटना भी चर्चित रही… कुल मिलाकर
देश में एक हताशा, क्रोध और निराशा का माहौल घर करने लगा था।
इस प्रकार, 1) शाहबानो केस, 2) महबूबा मुफ़्ती केस और 3) चरार-ए-शरीफ़ (मस्त
गुल) केस, इन तीन प्रमुख मामलों ने हिन्दू युवाओं के मन पर (1996 तक) तीन बड़े आघात
कर दिए थे…। इन ज़ख्मों पर नमक मलने के तौर पर, कश्मीर से लाखों हिन्दू पलायन करके
दिल्ली में शरणार्थी कैम्पों में समा चुके थे…। अर्थात नरेन्द्र मोदी “प्रवृत्ति” के उभरने की जड़ मजबूती से जम
चुकी थी…
(भाग-3 पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें… http://blog.sureshchiplunkar.com/2012/10/rise-of-narendra-modi-phenomena-part-3.html
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