सोमवार, 03 अप्रैल 2017 13:02
राजनैतिक समझबूझ : विपक्ष के पास मोदी का कोई तोड़ नहीं
राजनीति करना और राजनीति को समझना दो अलग-अलग बातें हैं। भारतीय राजनीति में इन दोनों विधाओं में सामंजस्य रखने वाले अनेक नेता हुए हैं, जिन्होंने राजनीति करते हुए राजनीति को अच्छे से समझा, तदनुसार रणनीति बनाई और सफलता प्राप्त की।
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आलेख
मंगलवार, 07 मार्च 2017 19:04
यूपी में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलेगा? : एक आकलन
देश का पूरा राजनैतिक विमर्श उत्तरप्रदेश पर केंद्रित है। 5 राज्यो के विधानसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश का अपना अलग महत्त्व है। यह भी तय है कि उत्तरप्रदेश के चुनाव परिणाम देश की आगामी राजनैतिक दशा, दिशा को तय करने वाले सिद्ध हो सकते हैं।
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आलेख
रविवार, 25 मई 2014 12:06
Narendra Modi Magic :Mandal, Mandir and Marketing Combination
“मोदी का मैजिक” – भगवा क्रान्ति, जो सिर चढ़कर बोले...
सत्तर के दशक में भारतीय फिल्मों के दर्शक
राजेश खन्ना के आँखें मटकाने वाले रोमांस, देव आनंद के झटके खाते संवादों से लगभग
ऊब चले थे. उसी दौरान भारत में इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में जो काँग्रेस सरकार चल
रही थी, उसके कारनामों से भी आम जनता बेहद परेशान, त्रस्त, बदहाल और हताश हो चुकी
थी. ठीक उसी समय रुपहले परदे पर अमिताभ बच्चन नामक एंग्री-यंगमैन का प्रादुर्भाव
हुआ जो युवा वर्ग के गुस्से, निराशा और आक्रोश का प्रतीक बना. थाने में रखी कुर्सी
को अपनी बपौती समझने वाले शेर खान के सामने ही गरजकर उस कुर्सी को लात मारकर
गिराने वाले इस महानायक का भारत की जनता ने जैसा स्वागत किया, वह आज तक न सिर्फ
अभूतपूर्व है, बल्कि आज भी जारी है. जी हाँ, आप बिलकुल सही समझे... सभी पाठकों के
समक्ष अमिताभ बच्चन का यह उदाहरण रखने का तात्पर्य लोकसभा चुनाव 2014 के हालात और
नरेंद्र मोदी की जीत से तुलना करना ही है.
विगत दस वर्ष में यूपीए-१ एवं यूपीए-२ के
कार्यकाल में देश का बेरोजगार युवा, व्यापारी वर्ग, ईमानदार नौकरशाह, मजदूर तथा
किसान जिस तीव्रता से निराशा और उदासीनता के गर्त में जा रहे थे, उसकी मिसाल विगत
शताब्दी के राजनैतिक इतिहास में मिलना मुश्किल है. लूट, भ्रष्टाचार, कुशासन,
मंत्रियों की अनुशासनहीनता, काँग्रेस की मनमानी इत्यादि बातों ने इस देश के भीतर
गुस्से की एक अनाम, अबूझ लहर पैदा कर दी थी. फिर इस परिदृश्य पर आगमन हुआ गुजरात
के मुख्यमंत्री नरेन्द्रभाई दामोदरदास मोदी का... और इस व्यक्ति ने अपने ओजस्वी
भाषणों, अपनी योजनाओं, अपने सपनों, अपने नारों, अपनी मुद्राओं से जनमानस में जो
लहर पैदा की, उसकी तुलना अमिताभ बच्चन के प्रति निराश-हताश युवाओं दीवानगी से की
जा सकती है. काँग्रेस से बुरी तरह क्रोधित और निराश भारत की जनता ने नरेंद्र मोदी
में उसी अमिताभ बच्चन की छवि देखी और नरेंद्र मोदी ने भी इस गुस्से को भाँपने में
कतई गलती नहीं की.
भारत के इतिहास में इस आम चुनाव से पहले
कोई चुनाव ऐसा नहीं था, जिसके परिणामों को लेकर जनमानस में इतनी अधिक उत्सुकता रही
हो. क्योंकि इन चुनावों में जहाँ एक तरफ काँग्रेसी कुशासन एवं यूपीए घटक दलों की
महालूट के खिलाफ खड़ा युवा एवं मध्यमवर्ग था... वहीं दूसरी तरफ पिछले दस वर्ष में
मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, शिक्षा का अधिकार जैसे कानूनों द्वारा अल्प लाभान्वित
लेकिन अधिकाँशतः बरगलाया हुआ निम्न वर्ग था. परिणामों वाले दिन अर्थात 16 मई की सुबह से ही
वातावरण में सनसनी थी. चौराहों-गाँवों-शॉपिंग मॉल्स-चाय की दुकानों पर चहुँओर
सिर्फ इसी बात की उत्सुकता थी कि भाजपा को कितनी सीटें मिलती हैं? काँग्रेस की
विदाई का विश्वास तो सभी को था, परन्तु साथ ही मन में एक आशंका भी थी कि कहीं देश
पुनः 1996-1998 वाली “खिचड़ी” और “भानुमती के कुनबे” जैसी तीसरा मोर्चा सरकारों के युग में न जा धँसे. कहीं नरेंद्र मोदी
को 272 से कम सीटें मिलीं तो क्या वे खुले हाथ से काम कर सकेंगे या
जयललिता-माया और ममता वाजपेयी सरकार की तरह ही नरेंद्र मोदी को ब्लैकमेल करने में
कामयाब हो जाएँगी? तमाम आशंकाएँ, कुशंकाएँ, भय निर्मूल सिद्ध हुए और NDA को 334 सीटें मिलीं जिसमें
भाजपा को अकेले ही 284 सीटें मिल गईं.
16 मई 2014 की सुबह नौ बजे के आसपास टीवी स्क्रीन पर जो पहला चुनाव परिणाम झलका,
वह था कि पश्चिमी उप्र की बागपत सीट से चौधरी अजित सिंह को मुम्बई के पुलिस
कमिश्नर सत्यपाल सिंह ने पराजित कर दिया है. जाट बहुल बेल्ट में, एक पूर्व
प्रधानमंत्री के बेटे और केन्द्रीय मंत्री अजित सिंह अपने-आप में एक बड़ी हस्ती
हैं. नौकरी छोड़कर राजनीति में कदम रख रहे मुम्बई पुलिस कमिश्नर, जिन्हें चुनावी
छक्के-पंजे मालूम नहीं, पहली बार चुनाव लड़ रहे हों, अजित सिंह की परम्परागत सीट पर
चुनौती दे रहे हों... इसके बावजूद वे जीत जाएँ, यह टीवी देख रहे राजनैतिक पंडितों
और विश्लेषकों के लिए बेहद चौंकाने वाला था. उसी समय लग गया था, कि यूपी में कुछ
ऐतिहासिक होने जा रहा है.
और वैसा ही हुआ... दोपहर के तीन बजते-बजते
यूपी के चुनाव परिणामों ने दिल्ली में काँग्रेस और गाँधी परिवार को झकझोरना आरम्भ
कर दिया. भाजपा की बम्पर 71 सीटें, जबकि मुलायम सिंह सिर्फ अपने परिवार की पाँच सीटें तथा
सोनिया-राहुल अपनी-अपनी सीटें बचाने में ही कामयाब रहे. सबसे अधिक भूकम्पकारी
परिणाम रहा बहुजन समाज पार्टी का. जाति से बुरी तरह ग्रस्त यूपी में मायावती की
बसपा अपना खाता भी न खोल सके, यह बात पचाने में बहुत लोगों को काफी समय लगा. इसी
प्रकार जैसे-जैसे यूपी के परिणाम आते गए यह स्पष्ट होता गया, कि इस बार यूपी में
एक भी मुस्लिम प्रतिनिधि चुनकर नहीं आने वाला. हालांकि भाजपा के कट्टर से कट्टर
समर्थक ने भी यूपी में 71 सीटों का अनुमान या आकलन नहीं किया था. लेकिन यह जादू हुआ और “नमो” के इस जादू की झलक
पूर्वांचल तथा बिहार की उन सीटों पर भी दिखाई दी, जो बनारस के आसपास थीं.
आखिर यूपी-बिहार में ऐसी कौन सी लहर चली
कि 120 सीटों में से NDA को 100 से अधिक सीटें मिल गईं. बड़े-बड़े दिग्गज धूल चाटते नज़र आए. न ही जाति
चली और ना ही “सेकुलर धर्म” चला, न कोई चालबाजी चली और ना ही EVM मशीनों की हेराफेरी
या बूथ लूटना काम आया. यह “नमो” लहर थी या “नमो” सुनामी थी? गहराई
से विश्लेषण करने पर दिखाई देता है कि जहाँ एक तरफ मुज़फ्फरनगर के दंगों में सपा की
विफलता, मीडिया तथा काँग्रेस द्वारा जानबूझकर हिन्दू-मुस्लिम के बीच खाई पैदा करने
की कोशिश, भाजपा के विधायकों पर मुक़दमे तथा बसपा और सपा के विधायकों को वरदहस्त
प्रदान करने से पश्चिमी उप्र में जमकर ध्रुवीकरण हुआ. संगठन में जान फूंकने में
माहिर तथा कुशल रणनीतिकार अमित शाह की उपस्थिति ने इसमें घी डाला, तथा बनारस सीट
से नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी ने यूपी में जमकर ध्रुवीकरण कर दिया. रही-सही कसर
बोटी काटने वाले इमरान मसूद, बेनीप्रसाद वर्मा, नरेश अग्रवाल, राशिद अल्वी जैसे कई
नेताओं ने खुलेआम नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपशब्द कहे, जिस तरह उनकी खिल्ली उड़ाई...
उससे महँगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुकी जनता और भी नाराज हो गई. जनता ने
देखा-सोचा और समझा कि आखिर अकेले नरेंद्र मोदी के खिलाफ पिछले बारह साल से केन्द्र
सरकार तथा अन्य सभी पार्टियों के नेता किस कारण आलोचना से भरे हुए हैं. “कसाई”, “रावण”, “मौत का सौदागर”, “भस्मासुर” जैसी निम्न श्रेणी की उपमाओं के साथ-साथ “मोदी को गुजरात से बाहर जानता कौन है?”, “भारत की जनता कभी
साम्प्रदायिक व्यक्ति को स्वीकार नहीं करेगी”, “अडानी-अंबानी का
आदमी है”, “अगर ये आदमी किसी तरह 200 सीटें ले भी आया, तो सुषमा-राजनाथ इसे कभी प्रधानमंत्री बनने नहीं
देंगे”, “दूसरे दलों का
समर्थन कहाँ से लाएगा?” जैसी ऊलजलूल
बयानबाजियां तो जारी थी हीं, लेकिन इससे भी पहले नरेंद्र मोदी के पीछे लगातार कभी CBI ,
कभी इशरत जहाँ,
कभी सोहराबुद्दीन
मुठभेड़, कभी बाबू बजरंगी- माया कोडनानी, अशोक भट्ट, डीडी वंजारा, बाबूभाई
बोखीरिया, महिला जासूसी कांड जैसे अनगिनत झूठे मामले लगातार चलाए गए… मीडिया तो
शुरू से काँग्रेस के शिकंजे में था ही. इनके अलावा ढेर सारे NGOs की गैंग, जिनमें तीस्ता जावेद सीतलवाड़, शबनम
हाशमी सहित तहलका
के आशीष खेतान और तरुण तेजपाल जैसे लोग शामिल थे.. सबके सब दिन-रात चौबीस घंटे
नरेंद्र मोदी के पीछे पड़े रहे, जनता चुपचाप सब देख रही थी. लेकिन नरेंद्र मोदी जिस
मिट्टी के बने हैं और जैसी राजनीति वे करते आए हैं, उनका कोई भी कुछ बिगाड़ नहीं
पाया, और यही काँग्रेस की ईर्ष्या और जलन की सबसे बड़ी वजह भी रही.
दूसरी तरफ यूपी-बिहार की अपनी तमाम
जनसभाओं में नरेंद्र मोदी ने अक्सर विकास को लेकर बातें कीं. बिजली कितने घंटे आती
है? गाँव में सड़क कब से नहीं बनी है? ग्रामीण युवा रोजगार तलाशने के लिए मुम्बई,
पंजाब और गुजरात क्यों जाते हैं? जैसी कई बातों से नरेंद्र मोदी ने जातिवाद से
ग्रस्त इस राज्य की ग्रामीण और शहरी जनता के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया. इसी
कारण मोदी की तूफानी सभाओं के बाद सपा-बसपा-काँग्रेस-जदयू के प्रत्याशियों को अपने
इलाके में इस बात की सफाई देना मुश्किल हो रहा था, कि आखिर पिछले बीस-पच्चीस साल
के शासन और उससे पहले काँग्रेस के शासन के बावजूद गन्ना उत्पादक, चूड़ी कारीगर,
पीतल कारीगर, बनारस के जुलाहे सभी आर्थिक रूप से विपन्न और परेशान क्यों हैं?
बचा-खुचा काम दिल्ली-गुजरात-मप्र से गए भाजपा कार्यकर्ताओं ने पूरा कर दिया,
गाँव-गाँव घूम-घूमकर उन्होंने लोगों के मन में यह सवाल गहरे रोप दिया कि जब गुजरात
में चौबीस घंटे बिजली आती है तो यूपी-बिहार में क्यों नहीं आती? आखिर इस राज्य में
क्या कमी है? धीरे-धीरे लगातार दो-तीन माह के सघन प्रचार अभियान, तगड़ी मार्केटिंग
और अमित शाह, संघ-विहिप कार्यकर्ताओं तथा सोशल मीडिया के हवाई हमलों के कारण
यूपी-बिहार की जनता को समझ में आ गया कि देश को एक मजबूर और कमज़ोर नहीं बल्कि
मजबूत और निर्णायक प्रधानमंत्री चाहिए. हालांकि ऐसा भी नहीं कि नरेंद्र मोदी ने
काँग्रेस और विपक्षी दलों की चालबाजी का समुचित जवाब नहीं दिया हो. “शठे शाठ्यं समाचरेत” की नीति अपनाते हुए मोदी ने भी फैजाबाद की आमसभा में मंच के पीछे
प्रस्तावित राम मंदिर का फोटो लगाकर उन्होंने कईयों की नींद हराम की. जबकि “अमेठी-रायबरेली” में बैठकर मीडियाई हवाई हमले करने वाली प्रियंका गाँधी ने जैसे ही “नीच राजनीति” शब्द का उच्चारण
किया, नरेंद्र मोदी ने तत्काल इस शब्द को पकड़ लिया और “नीच” शब्द को लेकर जैसे
शाब्दिक हमले किए, खुद को “नीच जाति” का प्रोजेक्ट करते
हुए चुनाव के अंतिम दौर में यूपी में सहानुभूति बटोरी वह काँग्रेसी शैली में
मुंहतोड़ जवाब देने का अदभुत उदाहरण था. असम और पश्चिम बंगाल में अवैध
बांग्लादेशियों का मुद्दा जोरशोर से उठाकर उन्होंने तरुण गोगोई और ममता बनर्जी को
ख़ासा परेशान किया. इस मुहिम का फायदा भी उन्हें मिला और असम में भाजपा को ऐतिहासिक
जीत मिली. जबकि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी समझ गईं कि अगले विधानसभा चुनावों
में वाम दलों की बजाय भाजपा भी उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बनने जा रही है, और
इसीलिए ममता ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ लगातार अपने मुँह का मोर्चा खोले रखा.
हालांकि इसके बावजूद वे आसनसोल से बाबुल सुप्रियो को जीतने से रोक न सकीं.
तमिलनाडु, सीमान्ध्र, तेलंगाना, उड़ीसा,
अरुणाचल एवं कश्मीर-लद्दाख जैसे नए-नए क्षेत्रों में भाजपा को पैर पसारने में
नरेंद्र मोदी के तूफानी दौरों ने काफी मदद की. मात्र दस माह में लाईव और 3-D की मिलाकर 3800 से अधिक रैलियाँ
करते हुए नरेंद्र मोदी ने समूचे भारत को मथ डाला. असाधारण ऊर्जा और परिश्रम का
प्रदर्शन करते हुए उन्होंने नौजवानों को मात दी और एक तरह से अकेले ही भाजपा का
पूरा चुनावी अभियान कारपोरेट स्टाईल में चलाया. नतीजा भाजपा का अब तक का सर्वोच्च
बिंदु, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ दिल्ली
के तख़्त पर काबिज हुआ. पहले स्वयंसेवक अटल जी थे, लेकिन उन्हें
ममता-माया-जयललिता-नायडू ने इतना ब्लैकमेल किया, इतना दबाया कि उनके घुटने खराब हो
गए थे. परन्तु इस बार इनकी दाल नहीं गलने पाई. नरेंद्र मोदी जिस “कार्यशैली” के लिए जाने-माने
जाते हैं, वह आखिरकार उन्हें दिल्ली में भी जनता ने सौंप दी है.
यूपी-बिहार के बाद भाजपा को सबसे बड़ी
सफलता हाथ लगी महाराष्ट्र में. यहाँ भी नरेंद्र मोदी की रणनीति काम आई, उन्होंने
चुनाव से पहले ही भाँप लिया था कि दलित वोटों का नुक्सान कम से कम करने के लिए
आरपीआई के रामदास आठवले से गठबंधन फायदे का सौदा रहेगा. इसी प्रकार राज ठाकरे से ‘दो
हाथ की दूरी’ बनाए रखना भी लाभकारी ही सिद्ध हुआ, क्योंकि यूपी-बिहार में राज
ठाकरे के खिलाफ गुस्से की एक लहर मौजूद है. इसके अलावा महाराष्ट्र की जनता
कांग्रेस-राकांपा के पंद्रह साल के कुशासन, बांधों में मूतने की बात करने वाले
उनके घमंडी मंत्रियों से बेहद परेशान थी. नतीजा, कांग्रेस सिर्फ चार सांसदों पर
सिमट गई, जो कि आपातकाल के बाद हुए चुनावों से भी कम है. यह नरेंद्र मोदी की
सुनामी नहीं तो और क्या है, कि जिस राज्य में शकर लॉबी की सहकारी संस्थाओं और शकर
मिलों के जरिये कांग्रेस ने वोटों का महीन जाल बुन रखा है उसी राज्य में ऐसी
दुर्गति कि जनता ने कांग्रेस की अर्थी उठाने के लिए सिर्फ चार सांसद भेजे? और वो
भी तब जबकि विधानसभा के चुनाव सर पर आन खड़े हैं. नरेंद्र मोदी ने विदर्भ-मराठवाड़ा
और मुम्बई क्षेत्र में स्थानीय समस्याओं को सही तरीके से भुनाया.
गुजरात की २६ में से २६ सीटें मिलना अधिक
आश्चर्यजनक नहीं था, लेकिन राजस्थान की २५ में से २५ सीटें जरूर कई विश्लेषकों को
हैरान कर गईं. जाट-ठाकुर-मीणा जैसे जातिगत समीकरणों तथा जसवंत सिंह जैसे कद्दावर
नेता द्वारा सार्वजनिक रूप से ख़म ठोकने के कारण खुद भाजपा के नेता भी बीस सीटों का
ही अनुमान लगा रहे थे. जबकि उधर मध्यप्रदेश में सिर्फ सिंधिया और कमलनाथ ही अपनी
इज्जत बचाने में कामयाब हो सके.
तमाम चुनाव विश्लेषकों ने इस आम चुनाव से
पहले सोशल मीडिया की ताकत को बहुत अंडर-एस्टीमेट किया था. अधिकाँश विश्लेषकों का
मानना था कि सोशल मीडिया सिर्फ शहरी और पढ़े=लिखे मतदाताओं को आंशिक रूप से
प्रभावित कर सकता है. उनका आकलन था कि सोशल मीडिया, लोकसभा की अधिक से अधिक सौ
सीटों पर कुछ असर डाल सकता है. जबकि नरेंद्र मोदी ने आज से तीन वर्ष पहले ही समझ
लिया था कि मुख्यधारा के मीडिया द्वारा फैलाए जा रहे दुष्प्रचार एवं संघ-द्वेष से
निपटने में सोशल मीडिया बेहद कारगर सिद्ध हो सकता है. जिस समय कई पार्टियों के
नेता ठीक से जागे भी नहीं थे, उसी समय अर्थात आज से दो वर्ष पहले ही नरेंद्र मोदी
ने अपनी सोशल मीडिया टीम को चुस्त-दुरुस्त कर लिया था. कई बैठकें हो चुकी थीं,
रणनीति और प्लान ले-आऊट तैयार किया जा चूका था. ऐसी ही एक बैठक में नरेंद्र मोदी
ने इस लेखक को भी आमंत्रित किया था. जहाँ IIT और IIM से पास-आऊट युवाओं
की टीम के साथ, ठेठ ग्रामीण इलाकों में मोबाईल के सहारे कार्य करने वाले कम
पढ़े-लिखे कार्यकर्ता भी मौजूद थे. नरेंद्र मोदी ने प्रत्येक कार्यकर्ता के विचार
ध्यान से सुने. जिस बैठक में मैं मौजूद था, वह तीन घंटे चली थी. उस पूरी बैठक के
दौरान नरेंद्र मोदी जी ने प्रत्येक बिंदु पर विचार किया, विस्तार से चर्चा की और
अन्य सभी प्रमुख कार्य सचिवों पर छोड़ दिए. जिस समय अन्य मुख्यमंत्री
गरीबों-मजदूरों को बेवकूफ बनाकर अथवा झूठे वादे या मुफ्त के लैपटॉप-मंगलसूत्र
बाँटने की राजनीति पर मंथन कर रहे थे, उससे काफी पहले ही नरेंद्र मोदी ने ट्विटर,
फेसबुक, व्हाट्स एप्प, हैंग-आऊट, स्काईप को न सिर्फ आत्मसात कर लिया था, बल्कि
ई-कार्यकर्ताओं की एक ऐसी सेवाभावी सशक्त फ़ौज खड़ी कर चुके थे जो नरेंद्र मोदी के
खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी, बल्कि तमाम बुद्धिजीवियों को ताबड़तोड़ और
त्वरित गति से तथ्यों के साथ जवाब देने में सक्षम भी थी. ऐसे ही हजारों सोशल
मीडिया कार्यकर्ताओं ने दिन-रात मेहनत करके नरेंद्र मोदी की काफी मदद की. हालांकि
सोशल मीडिया ने वास्तविक रूप से कांग्रेस को कितनी सीटों का नुक्सान पहुँचाया, यह
पता लगाना अथवा इसका अध्ययन करना लगभग असंभव ही है, परन्तु जानकार इस बात पर सहमत
हैं कि इस माध्यम का उपयोग सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी ने ही प्रभावशाली रूप से
किया. कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे 3D हो या फेसबुक..
आधुनिक तकनीक के सही इस्तेमाल और युवाओं से सटीक तादात्म्य स्थापित करने तथा समय
से पहले ही उचित कदम उठाने और विरोधियों की चालें भांपने में माहिर नरेंद्र मोदी
की जीत सिर्फ वक्त की बात थी. मजे की बात ऐसी कि यह पूरी मुहीम अकेले नरेंद्र मोदी
के दिमाग की देन थी, आरएसएस तो अभी भी अपनी परम्परागत जमीनी तकनीक और “मैन-टू-मैन
मार्किंग” पर ही निर्भर था.
विगत दस वर्ष में भारत की राजनीति एवं
समाज पर 3M अर्थात ““मार्क्स-मुल्ला-मिशनरी”” का प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था. नक्सलियों के लगातार बढ़ते जा रहे लाल
गलियारे हों, सिमी और इन्डियन मुजाहिदीन के स्लीपर सेल हों अथवा स्वामी
लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या सहित ईसाई धर्मांतरण के बढ़ते मामले हों... इन तीनों
“M” ने भारत को काफी नुक्सान पहुँचाया है इसमें कोई शक नहीं है. 3M के इस घातक विदेशी
कॉम्बिनेशन का मुकाबला संघ-भाजपा ने अपनी स्टाईल के 3M से किया, अर्थात “”मंदिर-मंडल-मार्केटिंग”. संक्षेप में कहा जाए तो इसका अर्थ है पहला M = मंदिर अर्थात संघ के
परम्परागत कैडर और भाजपा के स्थायी वोटरों को हिंदुत्व और राम मंदिर के नाम पर
गोलबंद किया... फिर उसमें मिलाया दूसरा M= मंडल, अर्थात
नरेंद्र मोदी की पिछड़ी जाति को प्रोजेक्ट किया और अंतिम दो दौर में तो सीधे “नीच जाति का हूँ” कहकर मायावती-मुलायम के वोट बैंक पर चोट कर दी... और सबसे
महत्त्वपूर्ण रहा तीसरा M= मार्केटिंग. नरेंद्र मोदी को “हिंदुत्व-मंडल और विकास के मार्केट मॉडल” की पन्नी में लपेटकर ऐसा शानदार तरीके से पेश किया गया, कि लुटी-पिटी
जनता ने थोक में भाजपा को वोट दिए. “जनता माफ नहीं करेगी”, “अबकी बार”, “अच्छे दिन आने वाले
हैं”, “चाय पर चर्चा” जैसे सामान्य व्यक्ति के दिल को छूने वाले स्लोगन एवं जनसंपर्क
अभियानों के जरिये नरेंद्र मोदी की छवि को “लार्जर देन लाईफ” बनाया गया. बहरहाल, यह सब करना जरूरी था, वर्ना विदेशी 3M
(मार्क्स-मुल्ला-मिशनरी) का घातक मिश्रण अगले पाँच वर्ष में भारत के हिंदुओं को
अँधेरे की गर्त में धकेलने का पूरा प्लान बना चुका था.
कुल मिलाकर कहा जाए तो लोकसभा का यह चुनाव
जहाँ एक तरफ काँग्रेसी कुशासन, भ्रष्टाचार, निकम्मेपन और घमण्ड के खिलाफ जनमत था,
परन्तु ये भी सच है कि नरेंद्र मोदी की यह विजय भाजपा-संघ के कार्यकर्ताओं, अमित
शाह की योजनाओं एवं संगठन, “भारतीय” कारपोरेट जगत
द्वारा उपलब्ध करवाए गए संसाधनों, नारों-भाषणों-आक्रामक मुद्राओं के बिना संभव
नहीं थी. यह संघ-मोदी की शिल्पकारी में बुनी गई एक “खामोश क्रान्ति” थी, जिसमें 18 से 30 वर्ष के करोड़ों मतदाताओं ने अपना योगदान दिया. जिस पुरोधा को देश की
जनता ने अपना बहुमत दिया, वह बिना रुके, बिना थके शपथ लेने से पहले ही काम पर लग
गया. देश ने पहली बार एक चुने हुए प्रधानमंत्री को गंगा आरती करते देखा, वर्ना अभी
तक तो मजारों पर चादर चढाते हुए ही देखा था. देश ने पहली बार किसी नेता को
लोकतंत्र के मंदिर अर्थात संसद की सीढ़ियों पर मत्था टेकते भी देखा. नरेंद्र मोदी
ने 19 मई को ही गृह सचिव से मुलाक़ात कर ली, तथा 21 मई को कैबिनेट सचिव
के माध्यम से सभी प्रमुख मंत्रालयों के सचिवों को निर्देश प्राप्त हो गए हैं कि “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी” पहले सप्ताह में ही उनके द्वारा पिछले पाँच वर्ष में किए गए कार्यों,
उनके सुझाव, कमियों एवं योजनाओं के बारे में पावर पाईंट प्रेजेंटेशन देखेंगे.
सुस्त पड़ी नौकरशाही में मोदी के इस कदम के कारण जोश भी है और घबराहट भी. देखना यही
है कि उनके द्वारा जनता से माँगे गए 60 महीने में वे उम्मीदों के इस “महाबोझ” पर कितना खरे उतर
पाते हैं? यूपीए-१ और २ की सरकारों ने बहुत कचरा फैलाया है, कई समस्याओं को जन्म
दिया और कुछ पुरानी समस्याओं को उलझाया-पकाया है. इसे समझने में ही नरेंद्र मोदी
का शुरुआती समय काफी सारा निकल ही जाएगा. अलबत्ता उनके समक्ष उपस्थित प्रमुख
चुनौतियाँ महँगाई, भ्रष्टाचार पर नकेल, बेरोजगारी, आंतरिक सुरक्षा और
षडयंत्रकारियों इत्यादि से निपटना है.
1967 में तमिलनाडु में बुरी तरह हारने के बाद काँग्रेस आज तक वहाँ कभी उबर
नहीं सकी है, बल्कि आज तो उसे वहाँ चुनाव लड़ने के लिए सहयोगी खोजने पड़ते हैं.
उड़ीसा में नवीन पटनायक भी काँग्रेस का लगभग समूल नाश कर चुके हैं. यूपी-बिहार में
पिछले बीस वर्ष में काँग्रेस लगभग नदारद ही रहती है. पश्चिम बंगाल में वामपंथियों
की खाली की गई जगह पर ममता ने कब्ज़ा किया है वहाँ भी काँग्रेस कहीं नहीं है.
तेलंगाना-सीमान्ध्र में काँग्रेस को दोनों हाथों में लड्डू रखने की चाहत भारी पड़ी
है, फिलहाल अगले पाँच वर्ष तो काँग्रेस वहाँ भी साफ ही है. भाजपा शासित राज्यों
जैसे गुजरात-मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में काँग्रेस का संगठन चरमरा चुका है और ये
तीनों राज्य भी लगभग “काँग्रेस-मुक्त” हो चुके हैं. अर्थात नरेंद्र मोदी द्वारा आव्हान किए गए “काँग्रेस-मुक्त” भारत की दिशा में भारत की लगभग 250 सीटों ने तो मजबूती
से कदम बढ़ा दिया है. अब यदि नरेंद्र मोदी अगले पाँच वर्ष में केन्द्र की सत्ता के
दौरान कोई चमत्कार कर जाते हैं, कोई उल्लेखनीय कार्य कर दिखाते हैं, तो उन्हें
अगला मौका भी मिल सकता है और यदि ऐसा हुआ तो निश्चित जानिये 2024 आते-आते काँग्रेस
के बुरे दिन और डरावनी रातें शुरू हो जाएँगी.
सबसे बड़ा सवाल यही है कि इतने दबावों,
इतनी अपेक्षाओं, भयानक उम्मीदों, आसमान छूती आशाओं के बीच नरेंद्र मोदी भारत की
तकदीर बदलने के लिए क्या-कितना और कैसा कर पाते हैं यह ऐसा यक्ष-प्रश्न है जिसके
जवाब का करोड़ों लोग दम साधे इंतज़ार कर रहे हैं...
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ब्लॉग
शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013 20:11
Why India Want ONLY Narendra Modi....
भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों
चाहिए???
कुछ दिनों पहले की ही बात
है, नरेंद्र मोदी दिल्ली में FICCI के महिला सम्मेलन को
संबोधित करने वाले थे. उस दिन सुबह से ही लगभग प्रत्येक चैनल पर यह बहस जारी थी,
कि “आज नरेंद्र मोदी क्या कहेंगे?”, “क्या नरेन्द्र मोदी, राहुल “छत्तेवाला” के
तीरों का जवाब देंगे?”. हाल के टीवी इतिहास में मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी एक राज्य
के मुख्यमंत्री के होने वाले भाषण से पहले चैनलों पर इतनी उत्सुकता दिखाई गई हो?
इतनी उत्सुकता मनमोहन सिंह के १५ अगस्त के भाषण से पहले कभी देखी है??... उस दिन
सभी चैनलों ने नरेंद्र मोदी का पूरा भाषण बिना किसी ब्रेक के दिखाया, जो अपने-आप
में अदभुत बात थी...
आज की तारीख में भारत के
राजनैतिक माहौल में अगर कोई शख्स, हर वक्त और सबसे ज्यादा चर्चा में रहता है तो वे
हैं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी। भारत के इतिहास में संभवतः ऐसा कभी नहीं
हुआ होगा कि एक राज्य का मुख्यमंत्री होने के बावजूद केंद्र
की सत्ता से लेकर, गली-मोहल्ले के सामान्य व्यक्ति भी नरेंद्र मोदी पर अपनी नजरें
गड़ाए रखते हों। जो व्यक्ति टीवी पर भाषण देने आता है तो चैनलों की टीआरपी अचानक
आसमान छूने लगती है, जिस प्रकार रामायण के प्रसारण के समय लोग टीवी पर नज़रें गड़ाए
बैठे रहते थे, वैसे ही आज जब भी नरेंद्र मोदी किसी मंच से भाषण देते हैं तो उनके
विरोधी भी मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते हैं... कि नरेंद्र मोदी क्या बोलने वाले
हैं...? मोदी किस नीति पर बल देंगे? या
फिर नरेंद्र मोदी के मुँह से कोई विवादास्पद बात निकले, तो वे उसे लपक लें, ताकि
भाषण के बाद होने वाली टीवी बहस में उसकी चीर-फाड़ की जा सके.... क्या किसी और
पार्टी में ऐसा प्रभावशाली वक्ता और दबंग व्यक्तित्व है?? जवाब है... नहीं!!
बात साफ़ है, नरेंद्र मोदी इस समय देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं. हाल के तमाम सर्वे से यह बात जाहिर होती है। यहां तक कि कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हों या सोनिया गांधी अथवा राहुल गाँधी. भाजपा की तरफ से कोई भी नेता लोकप्रियता में उनके आसपास नहीं टिकता. यहाँ तक कि गोवा और छत्तीसगढ़ के सफल और लोकप्रिय भाजपाई मुख्यमंत्रियों को भी कुछ जागरूक नागरिक तस्वीरों से भले ही पहचान लें, परन्तु उनके नाम याद करने में दिमाग पर जोर डालना पड़ता है, परन्तु नरेंद्र मोदी की बात ही और है... आज प्रत्येक नौजवान की ज़बान पर मोदी का नाम है, “नमो-नमो” का जादू चल रहा है. प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी लोगों की पहली पसंद हैं. अधिकाँश सर्वे में भी यही बात सामने आई है. नीलसन सर्वे के साथ किए गए एक न्यूज चैनल के सर्वे के मुताबिक मोदी को 48 फीसदी लोगों ने प्रधानमंत्री पद के लिए पहली पसंद बताया, जबकि महज सात फीसदी लोगों की पसंद मनमोहन सिंह हैं। सर्वे में कोई दूसरा नेता मोदी के आसपास नहीं दिखता। वहीं एक न्यूज साइट पर कराए गए ओपन सर्वे में 90 फीसदी लोगों ने मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी पहली पसंद बताया।
वास्तव में बात यह है कि नरेंद्र मोदी आम लोगों से जुड़े नेता हैं। ये बात भाजपा के कई दूसरे नेताओं के लिए भी कही जा सकती है, लेकिन सवाल प्रधानमंत्री पद के दावेदारों का है। दावेदारों के नाम गिनाना आरम्भ करें तो, उनमें से कई तो पार्टी को मिलने वाली सीटों के आधार पर ही छंट जाएंगे (जैसे कि नीतीश कुमार)... या फिर वह राजनैतिक हस्ती आम इंसान की तरह जिंदगी गुजारते हुए इतने ऊंचे ओहदे तक नहीं पहुंचे होंगे (अर्थात राहुल गांधी, जिन्हें “विरासत” में कुर्सी और समर्थकों की भीड़ मिली है), या फिर वो आम लोगों से जुड़े नेता नहीं होंगे (अर्थात प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिनका न तो आम आदमी से कोई लेना-देना है, और ना ही चुनावी राजनीति से. बल्कि यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा, कि पहली बार दस साल तक देश का प्रधानमंत्री ऐसा व्यक्ति रहा, जो लोकसभा में चुना ही नहीं गया... )।
चुनाव के परिणाम नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को और पुख्ता करते हैं। लगातार तीन बार उन्होंने गुजरात का चुनाव भारी बहुमत से जीता है। विपक्ष द्वारा पूरी ताकत लगाने, मीडिया के नकारात्मक रवैये और विभिन्न विदेश पोषित संगठनों के दुष्प्रचार के बावजूद मोदी का कद बढ़ा ही है. यही नरेंद्र मोदी की मजबूती है. मोदी ने स्वयं को युवाओं से जोड़ने में भी कामयाबी हासिल की है। कई सर्वे से यह बात सामने आई है कि इस समय देश का एक बड़ा तबका युवाओं का है, जिनके लिए बेरोजगारी, विकास, महंगाई और भ्रष्टाचार एक बडा मुद्दा है। मोदी इन मुद्दों को एक विजन के साथ पेश करते हैं। दिल्ली के श्रीराम कॉलेज में मोदी के भाषण में इसकी झलक दिखाई पड़ी, जहाँ युवा वर्ग ने मोदी को हाथोंहाथ लिया था.
एक समय था, जब राहुल गाँधी राजनीति में नए-नए आये थे, उस समय महिलाओं और कमसिन लड़कियों को राहुल गाँधी के चेहरे की मासूमियत और गालों के डिम्पल बड़े भाते थे, परन्तु जैसे-जैसे राहुल गाँधी की वास्तविकताएं महिलाओं से सामने आने लगीं, जिस प्रकार एक के बाद एक उप्र-बिहार में राहुल ने काँग्रेस का बेड़ा गर्क किया और विशेषकर दिल्ली रेप हो या रामलीला मैदान हो, केजरीवाल का आंदोलन हो या तेलंगाना का मुद्दा, राहुल गाँधी ने कभी जनता के सामने आकर अपनी बुद्धिमत्ता(?) का परिचय नहीं दिया. देश की जनता जानती ही नहीं कि देश की ज्वलंत समस्याओं पर राहुल का क्या रुख है? जबकि नरेंद्र मोदी हर वक्त आम जनता से जुड़े रहते हैं। चाहे वो सोशल नेटवर्किंग साइट ही क्यों न हो, इंटरव्यू के लिए बड़ी आसानी से उपलब्ध रहते हैं। गुजरात जैसे राज्य का मुख्यमंत्री होने के बावजूद कॉलेज हो या यूनिवर्सिटी, हर जगह के लिए न सिर्फ उपलब्ध होते हैं, बल्कि उनकी इस व्यस्तता के बावजूद सरकारी कामकाज में भी कोई फर्क नहीं पड़ता। अब तो नरेंद्र मोदी युवाओं के साथ-साथ, महिलाओं में भी उतने ही लोकप्रिय हैं. Open/C-Voter के सर्वे से साफ है कि राहुल की तुलना में मोदी न सिर्फ पुरुष वोटरों की पसंद हैं बल्कि धीरे-धीरे ज्यादातर महिलाओं ने भी मोदी पर ही भरोसा जताया है। हाल ही में महिला उद्यमियों के मंच FICCI में दिए गए अपने भाषण से नरेंद्र मोदी ने महिलाओं पर जादू तो कर ही दिया, अपने साथ-साथ “जसूबेन का पिज्जा” को भी लोकप्रिय बना दिया. एक महिला ने तो खुलेआम टीवी बहस में यह भी कह डाला कि राहुल गाँधी “बचकाने” किस्म के लगते हैं, जबकि नरेंद्र मोदी जब बोलते हैं तो “पिता-तुल्य” प्रतीत होते हैं. हर उम्र के लोगों में नरेंद्र मोदी ज्यादा लोकप्रिय है। Open/C-Voter के सर्वे में युवाओं के साथ-साथ अधेड़ों और वृद्धजनों पर भी सर्वे किया गया था। मोदी लगभग सारे आयु समूहों में कमोबेश लोकप्रिय हैं।
स्थिति यह है कि अब निश्चित हो चुका है कि 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस खुलकर राहुल गांधी पर दांव खेलने का फैसला कर चुकी है, वहीं बीजेपी की तरफ से फिलहाल मोदी की दावेदारी मजबूत है। यदि इन दोनों की ही तुलना कर ली जाए तो राहुल की तुलना में मोदी ज्यादा लोगों की पसंद हैं। एक न्यूज चैनल के साथ कराए गए नीलसन सर्वे के मुताबिक देश की 48 फीसदी जनता ने अगर मोदी को पहली पसंद बताया तो महज 18 फीसदी जनता राहुल के साथ नजर आई। वहीं इंडिया टुडे पत्रिका ने भी 12,823 लोगों से बातचीत के आधार पर एक सर्वे किया। इसमें भी प्रधानमंत्री पद के लिए 36 फीसदी लोगों की पसंद मोदी थे, जबकि महज 22 फीसदी लोगों ने राहुल को अपनी पहली पसंद बताया। बाकी कई चैनलों के सर्वे का भी यही हाल है।
सबसे बड़ी बात यह है कि नरेंद्र मोदी में “कठोर निर्णय क्षमता” है, वे बिना किसी दबाव के फैसले ले सकते हैं, उनमें एक विशिष्ट किस्म की “दबंगई” है। गुजरात में उन्होंने कई-कई बार संघ-विहिप के नेताओं की बातों को दरकिनार करते हुए, अपने मनचाहे निर्णय लागू किए हैं. क्या प्रधानमंत्री के दावेदारों में किसी दूसरे नेता के लिए हम यह बात कह सकते हैं? मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व का आलम ये है कि जेडीयू सांसद जय नारायण निषाद ने, न सिर्फ मोदी को खुला समर्थन दे दिया, बल्कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपने घर में दो दिनों का यज्ञ करवाया। इससे मोदी की लोकप्रियता का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। नरेंद्र मोदी को संघ का भी पूरा समर्थन हासिल है। ये सब कुछ जानते हुए भी कि मोदी की कार्यशैली संघ की कार्यशैली से बिल्कुल अलग है। खुद मोदी के नेतृत्व में गुजरात में संघ उतना प्रभावशाली नहीं रहा तथा नरेंद्र मोदी ने गुजरात में विहिप और बजरंग दल को भी “आपे से बाहर” नहीं जाने दिया है.
नरेंद्र मोदी को चाहने की दूसरी बड़ी वजह है कि - मोदी पर आज तक व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का कभी कोई आरोप नहीं लगा. हालांकि उनके विरोधी उनके द्वारा रिलायंस, अदानी और एस्सार समूहों को दी जाने वाली रियायतों पर सवाल उठाते हैं, लेकिन उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं होता कि आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में खुद केंद्र सरकार ने न जाने कितनी विदेशी कंपनियों को तमाम तरह की कर रियायतें और मुफ्त जमीनों से उपकृत किया है. महज एक राज्य का मुख्यमंत्री होने के बावजूद मोदी ने गुजरात मॉडल को पूरी दुनिया के सामने पेश किया, सूरत जैसे शहरों का रखरखाव हो या अहमदाबाद की BRTS सड़क योजना हो, नहरों के ऊपर बनाए जाने वाले सोलर पैनलों से बिजली निर्माण हो, सरदार सरोवर से कच्छ तक पानी पहुँचाना हो... हर तरफ उनके काम की वाहवाही हो रही है। मोदी की धीरे-धीरे विदेशों में भी स्वीकार्यता बढ़ी है। यूरोपियन यूनियन, ब्रिटेन और अमेरिका के राजदूत ने इस बात को माना है।
नरेंद्र मोदी के प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है, कि जब अमेरिका में वार्टन इकोनॉमिक फोरम ने चंद “चंदाखोर” लोगों के विरोध के बाद उनके भाषण को रद्द कर दिया, तो इस कार्यक्रम को प्रायोजित करने वाली सभी कंपनियों ने हाथ पीछे खींच लिए। सबसे पहले मुख्य स्पॉन्सर अडानी ग्रुप ने किनारा किया। इसके बाद सिल्वर स्पॉन्सर कलर्स और फिर ब्रॉन्च स्पॉन्सर हेक्सावेअर ने हाथ खींच लिए। यही नहीं इस ग्रुप से जुड़े लोगों ने भी शामिल होने से इनकार कर दिया। शिवसेना नेता सुरेश प्रभु ने भी इस फोरम में जाने से इनकार कर दिया। पेन्सिलवेनिया मेडिकल स्कूल की एसोसिएट प्रोफेसर डा. असीम शुक्ला ने भी इसके खिलाफ मुहिम छेड़ दी। वहीं अमेरिकन एंटरप्राइज इंस्टीट्यूट से संबद्ध और वाल स्ट्रीट जर्नल के स्तंभकार सदानंद धूमे ने ट्वीट कर वार्टन इंडिया इकोनॅामिक फोरम से दूर रहने का एलान किया। न्यूजर्सी में रहने वाले प्रख्यात चिकित्सक और पद्मश्री से सम्मानित सुधीर पारिख ने विरोध दर्ज करते हुए इस सम्मेलन से अपना नाम वापस ले लिया। सन्देश स्पष्ट है कि अब भारत ही नहीं विश्व के अन्य देशों में भी नरेंद्र मोदी का अपमान सहन नहीं किया जाएगा, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था, अर्थात मोदी की स्वीकार्यता तेजी से बढ़ रही है.
नरेन्द्र मोदी को चाहने की तीसरी बड़ी वजह यह है कि वे अपने भाषणों और इंटरव्यू में एक सुलझे हुए नेता नज़र आते हैं, वे दूरदर्शी प्रतीत होते हैं। किसी भी मुद्दे को लेकर उहापोह की स्थिति में नहीं रहते, उनमें तकनीक की समझ है और किसी भी नए प्रयोग को करने और उसे प्रोत्साहित करने के साथ-साथ वे युवाओं से इस मामले में निरंतर सलाह भी लेते रहते हैं. उत्तर भारत में उनकी लोकप्रियता बढ़ने का एक प्रमुख आयाम है, उनके द्वारा “हिन्दी” में दिए जाने वाले भाषण. “कूल ड्यूड” के कॉलेज माने जाने वाले श्रीराम कॉलेज हो या अंग्रेजी में सोचने वाले धनी महिलाओं का FICCI फोरम हो, दोनों स्थानों पर नरेन्द्र मोदी ने आम बोलचाल वाली हिन्दी में भाषण देकर देश के सामान्य आदमी का दिल जीत लिया. वाजपेयी जी के बाद से बहुत दिनों तक देश ने किसी “असली नेता” के मुँह से हिन्दी में ऐसे भाषण सुने गए हैं.
जिस गुजरात में १९९८ से पहले हर साल बड़े-बड़े दंगे हुआ करते थे, उसी गुजरात में 2002 के गुजरात दंगों को छोड़ दें तो इसके बाद कोई दंगा नहीं हुआ. दंगों को लेकर भले ही नरेंद्र मोदी के दामन पर दाग लगाने की कोशिश की जाती रही हो, लेकिन हकीकत ये है कि अब तक किसी अदालत ने उन्हें दोषी करार देना तो दूर तमाम CBI और SIT की जाँच के बावजूद उन पर एक FIR तक नहीं है. इसलिए एक खास परिस्थिति (गोधरा ट्रेन कांड) के बाद दंगों को न रोक पाने की वजह से मोदी के प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर सवाल उठाना सही नहीं है. यदि यही पैमाना रखा जाए तो राजीव गाँधी को कभी प्रधानमंत्री बनना ही नहीं चाहिए था. हालांकि दंगों की वजह से गुजरात की न सिर्फ देश में बदनामी हुई बल्कि दूसरे शब्दों में कहें तो पूरी दुनिया में चंद स्वार्थी NGOs और देशद्रोही बुद्धिजीवियों ने भारत की जमकर बदनामी की, लेकिन पहले भूकंप और उसके बाद दंगे के बावजूद, जिस तरह से पिछले चंद सालों में नरेंद्र मोदी ने अपनी मेहनत की वजह से गुजरात की पहचान बदली, इसे मोदी की बड़ी सफलता माना जाएगा। देश को ऐसे ही “कुशल प्रशासक” की जरूरत है.
नरेंद्र मोदी को भले ही हिंदुत्व के पोस्टर ब्वॉय के तौर पर प्रचारित किया जाता रहा हो, लेकिन मोदी के राज में कई मंदिरों को गैर कानूनी निर्माण की वजह से ढहा दिया गया। सिर्फ एक महीने के भीतर 80 ऐसे मंदिरों को गिरा दिया गया, जिसका निर्माण गैर कानूनी तौर पर सरकारी जमीन पर हुआ था। साफ है कि मोदी के मिशन का पहला नारा विकास है. जाति-धर्म सब बातें बाद में. 2001 की जनगणना के मुताबिक गुजरात की आबादी का 9 फीसदी हिस्सा मुस्लिमों का है, यानी गुजरात में 45 लाख मुस्लिम हैं। लेकिन इनकी साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा 73 फीसदी थी। जामनगर के एक आर्किटेक्ट अली असगर ने एक लेख में लिखा कि "अगर लोग बेरोजगार होंगे, तो हिंसा होगी। अब चूंकि हर किसी काम मिल रहा है... तो दंगे क्यों होंगे।". समय गुजरने के साथ मुस्लिमों का भरोसा भी नरेंद्र मोदी पर बढ़ा है। गुजरात में कई मुस्लिम बहुल सीटों पर हिन्दू उम्मीदवार भाजपा के टिकट पर जीते हैं. मोदी को अल्पसंख्यक लोगों का समर्थन धीरे-धीरे हासिल हो रहा है. स्थानीय चुनावों में जामनगर इलाके में मोदी ने 27 सीटों के लिए 24 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को खड़ा कर दिया, इसमें 9 महिलाएं थीं। आश्चर्य की बात ये है सभी 24 मुस्लिम उम्मीदवारों ने यहां बीजेपी के कोटे से जीत हासिल की। स्वाभाविक है कि अब सिर्फ हिंदुत्व की चाशनी से काम नहीं चलेगा, पार्टी ने इसके साथ-साथ विकास का कॉकटेल भी शुरू किया है और इन दोनों हुनर को साधने में मोदी से बड़ा दूसरा नेता नहीं। दुनिया की सबसे प्रभावशाली पत्रिका टाइम ने मार्च 2012 में नरेंद्र मोदी को अपने कवर पेज पर जगह दी। टाइटल लिखा “मोदी मतलब बिजनेस”।
क्षेत्रवाद से परे मोदी ने जिस तरह से गुजरात के लोगों की सोच बदली, ऐसे मौके पर मोदी देश की एक बड़ी जरूरत बन चुके हैं। खासतौर पर राष्ट्रीय एकता बहाल करने के लिए मोदी को हर हाल में देश की केंद्रीय सत्ता सौंपनी चाहिए, ताकि हमें नासूर बन चुकी नक्सलवाद और कश्मीर सहित आतंकवाद की समस्याओं से निजात मिले. मोदी एक मजबूत सियासी नेता हैं, संघ की राजनैतिक जमीन पर तप कर आगे बढ़े हैं और उन्हें मुद्दों की बारीक समझ है। जाहिर है स्थायित्व और विकास के लिए इस देश को ऐसे ही तपस्वी राजनीतिज्ञ की जरूरत है। इस समय देश के सामने सबसे बड़ी विडंबना ये है कि मुश्किल की घड़ी में सर्वोच्च पद पर बैठे नेता सामने नहीं आते, खुलकर अपने बयान नहीं देते, बल्कि खुद को एसी कमरों में कैद कर लेते हैं। नरेंद्र मोदी के सत्ता के शिखर पर बैठने से ये मुश्किल भी दूर हो जाएगी।
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गुरुवार, 18 अप्रैल 2013 12:43
Intellectual Gang against Narendra Modi (Reference : Wharton Business School)
नरेंद्र मोदी के खिलाफ “अंतर्राष्ट्रीय बुद्धिजीवी गैंग” (सन्दर्भ : व्हार्टन स्कूल प्रकरण)
हाल ही में नरेंद्र मोदी को
अमेरिका के व्हार्टन बिजनेस स्कूल में एक व्याख्यान देने हेतु आमंत्रित किया गया
था. लेकिन अंतिम समय पर चंद मुठ्ठी भर लोगों के विरोध की वजह से नरेंद्र मोदी का
व्याख्यान निरस्त कर दिया गया. हालांकि नरेंद्र मोदी मूर्खतापूर्ण अमरीकी वीसा
नीति के कारण, सशरीर तो अमेरिका जाने वाले नहीं थे, लेकिन वीडियो कांफ्रेंसिंग के
जरिए अपनी बात कहने वाले थे. विषय था “गुजरात का तीव्र आर्थिक विकास माडल”.
व्हार्टन बिजनेस स्कूल ने
स्वयं अपने छात्रों और शिक्षकों की मांग पर नरेंद्र मोदी को आमंत्रित किया था.
लेकिन पश्चिमी देशों में कार्यरत कुछ NGOs और कुछ
“कोहर्रमवादी बुद्धिजीवी”, जिनकी सुई आज भी २००२ के गुजरात दंगों पर ही अटकी हुई
है, उन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रति अपनी घृणा को बरकरार रखते हुए अपने “जेहादी
नेटवर्क” के जरिए व्हार्टन स्कूल पर ऐसा दबाव बनाया कि उन्होंने नरेंद्र मोदी का
व्याख्यान रद्द कर दिया. जल्दी ही इस “तथाकथित बुद्धिजीवी” गैंग का खुलासा भी हो
गया, और उनके चेहरे भी बेनकाब हो गए जिन्होंने विदेशी पैसों के बल पर नरेंद्र मोदी
के खिलाफ एक निरंतर मुहिम चला रखी है. आईए देखें कि ये दागदार चेहरे कौन-कौन से
हैं, कुछ ही समय में आप जान जाएंगे कि इस “गैंग” के आपसी संपर्क-सम्बन्ध एवं इनके
कुत्सित इरादे क्या हैं...
कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ
इंटेग्रल स्टडीज़ (CIIS) की एक प्रोफ़ेसर अंगना चटर्जी ने नरेंद्र मोदी को अमेरिकी वीसा देने के
खिलाफ मुहिम चलाने हेतु एक समूह की स्थापना की.
२०११ में अंगना चटर्जी और उसके पति को CIIS से
बर्खास्त कर दिया गया, क्योंकि विवि प्रशासन को उनके खिलाफ चार ठोस सबूत मिल चुके
थे, जिसमें विद्यार्थियों की गोपनीयता भंग करना, प्रशासन-विद्यार्थी और शिक्षकों
के प्रति आपसी पेशेगत दुर्भावना एवं अनैतिकता, शिक्षण कार्य के लिए प्राप्त फण्ड
के पैसों में बेईमानी व गबन तथा दिए गए असाइनमेंट और शिक्षण कार्य को समय पर पूरा
न करते हुए अन्य कामों में ध्यान लगाना जैसे आरोप शामिल थे. पूरी जाँच के बाद
दोनों को बर्खास्त कर दिया गया था. चूँकि अंगना चटर्जी और उसका पति गबन और काम के
प्रति बेईमानी करते रंगे हाथों पकडे जा चुके थे, इसलिए इस बार २०१३ में नरेंद्र
मोदी का विरोध करने में अंगना चटर्जी खुद सामने नहीं आई. मोदी के विरोध में
व्हार्टन स्कूल को दिए गए ज्ञापन पर अंगना चटर्जी के हस्ताक्षर नहीं हैं. इस बार
उसने अपनी “गैंग” के दूसरे सदस्यों को इस काम के लिए आगे किया और खुद परदे के पीछे
से सूत्र संचालन करती रही.
व्हार्टन स्कूल वाले ज्ञापन
पर जिन तीन प्रमुख “बुद्धिजीवियों”(??) के हस्ताक्षर हैं, वे हैं... अनिया लूम्बा,
तोर्जो घोष एवं अंजली अरोंदेकर, जिनके साथ मिलकर अंगना चटर्जी ने २०१२ में एक
पुस्तक प्रकाशित की थी. जब २०१० में आर्थिक अनियमितताओं के चलते अंगना चटर्जी के
पति को भारत सरकार ने देशनिकाला दिया था, तब भी इसके विरोध में दिए गए ज्ञापन पर
प्रमुख हस्ताक्षर अनिया लूम्बा के ही हैं. अंगना के पति के समर्थन व नरेंद्र मोदी
के विरोध में २०१० और २०१३ में दिए गए ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वाले भी यही लोग
हैं, जैसे अंजली अरोंदेकर, पिया चटर्जी, सुनयना मायरा, सिमोना साहनी और सबीना
साहनी इत्यादि.
हाल ही में किसी व्यक्ति ने
अंगना चटर्जी और गुलाम नबी फाई के आपसी रिश्तों को उजागर करने वाले विकीपीडिया पेज
पर बदलाव करके उसमें से अंगना चटर्जी का नाम निकाल दिया है. (जैसा कि सभी जानते
हैं, विकीपीडिया एक मुक्त स्रोत है, इसलिए कोई भी व्यक्ति उसमें मनचाहे बदलाव कर
सकता है). ज्ञातव्य है कि गुलाम नबी फाई, पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी ISI का जासूस है, जो पाकिस्तान से पैसा लेकर कश्मीर के बारे में दुष्प्रचार
करने हेतु बड़े-बड़े पाँच सितारा सेमीनार आयोजित करवाता था. जुलाई २०११ में गुलाम
नबी फाई को अमेरिकी जाँच एजेंसी एफबीआई ने पाकिस्तान की ISI
से मिले हुए ३५ लाख डालर छुपाने के जुर्म में दोषी पाया और षड्यंत्र रचने व टैक्स
चोरी के इलज़ाम में जिसे हाल ही में अमेरिका ने जेल में डाल दिया है. दो मिनट के
गूगल सर्च से कोई भी जान सकता है कि किस प्रकार फाई और अंगना चटर्जी भारत के
अलगाववादी तत्वों को गाहे-बगाहे मदद करते रहे हैं. यही अंगना चटर्जी, नरेंद्र मोदी
की अमेरिका यात्रा के विरोध की मुख्य सूत्रधार रही है.
(लाल गोल घेरे में - गौतम नवलखा)
नरेन्द्र मोदी के खिलाफ हस्ताक्षर करने वाले अधिकाँश बुद्धिजीवियों का सम्बन्ध भारत के माओवादी समूहों अथवा पाकिस्तानी अलगाववादियों के साथ रहा है. उदाहरण के लिए डेविड बर्सामिया नाम के एक शख्स को सितम्बर २०११ में भारत में अवैध रूप से रहने का दोषी पाए जाने पर भारत से निकाल बाहर करने का आदेश दिया गया. डेविड को भारत में संदिग्ध गतिविधियों में भी लिप्त पाया गया था. लेकिन उसके देशनिकाले के खिलाफ ज्ञापन देने वालों में भी इसी गैंग के अंगना चटर्जी, आनिया लूम्बा और सुवीर कौल इत्यादि लोग शामिल थे. नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा और देशविरोधी डेविड बर्सामिया के देशनिकाले संबंधी पत्रों, दोनों पर हस्ताक्षर करने वालों में तेरह नाम एक जैसे हैं. ऊपर जो तीन नाम दिए हैं, उनके अलावा नरेंद्र मोदी का विरोध करने वालों के नाम और उनके कर्म भी जान लीजिए... दो हस्ताक्षरकर्ता हैं – दाऊद अली और कैथलीन हाल – इन दोनों बुद्धिजीवियों ने मार्च २०११ में यूएस पेन में एक सेमीनार आयोजित किया था, जिसका विषय था “माओवाद एवं भारत में वामपंथ की स्थिति”. इस कांफ्रेंस में प्रसन्नजीत बैनर्जी और गौतम नवलखा जैसे कई वक्ताओं को आमंत्रित किया गया था, जो खुलेआम नक्सलवाद को समर्थन देते हैं.
अमेरिका द्वारा गुलाम मोहम्मद फाई को रंगे हाथों पकडे जाने और उसके ISI लिंक साबित होने के बावजूद, गौतम नवलखा यह बयान दे चुके हैं कि “फाई साहब बहुत भले व्यक्ति हैं और उनकी “एक गलती”(?) को बढाचढा कर पेश किया गया है... नवलखा आगे कहते हैं कि मुझे फाई साहब के साथ काम करने में गर्व महसूस होता है तथा उनके द्वारा आयोजित सेमिनारों (अर्थात भारत की कश्मीर नीति के विरोध) में भाग लेना बड़ा ही खुशनुमा अनुभव है...”. (गौतम नवलखा वही हैं, जिन्होंने हर्ष मंदर और अरुंधती रॉय के साथ, अफज़ल गूरू को माफी दिलवाने के लिए अभियान पर भी हस्ताक्षर किए थे). स्वाभाविक है कि नक्सलवाद समर्थक और ISI समर्थकों का आपस में तगड़ा अंतर्संबंध है. उल्लेखनीय है कि “ग्लोबल टेरर डाटाबेस” के अनुसार CPI-माओ भारत का सबसे बड़ा आतंकवादी समूह है, जिसने भारत के गरीबी से ग्रस्त प्रदेशों में अब तक हजारों हत्याएं करवाई हैं. (http://blogs.cfr.org/zenko/2012/11/19/the-latest-in-tracking-global-terrorism-data/)
दाऊद अली, यूपेन्न के साउथ
एशिया स्टडीज़ विभाग का अध्यक्ष है, दक्षिण एशिया संबंधी इस विभाग में पढाने वाले
अन्य बुद्धिजीवी हैं – आनिया लूम्बा, तोर्जो घोष, सुवीर कौल और कैथलीन हाल. मजे की
बात यह है कि माओवाद और नक्सलवाद का समर्थन करने वाले यही बुद्धिजीवी(??) इजराइल
के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र को दिए गए ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वालों में भी शामिल
हैं, क्योंकि फाई “साहब”(?) ने उन्हें ऐसा करने को कहा था. ये बात अलग है कि यह
“तथाकथित संवेदनशील” बुद्धिजीवी पाकिस्तान में ईसाईयों पर होने वाले हमलों पर
चुप्पी साध लेते हैं, पाकिस्तान में अहमदिया और शियाओं के हत्याकांड इन्हें दिखाई
नहीं देते, पाकिस्तान में हिन्दू आबादी १९५१ में २२% से घटकर २०११ में सिर्फ २% रह
गई, लेकिन इन बुद्धिजीवियों ने इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है... स्वाभाविक
है कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ याचिका दायर करना हो, अथवा गबन के आरोपी अंगना चटर्जी
के पति या संदिग्ध गतिविधियों वाले डेविड बर्सामिया के समर्थन में ज्ञापन देना हो,
यह “बुद्धिजीवी गैंग”, गुलाम फाई (यानी ISI) के निर्देशों का
पालन करती है, यह गैंग पाकिस्तान के इस्लामिक समूहों अथवा दंतेवाडा में ७६
सीआरपीएफ जवानों की हत्या के खिलाफ कोई ज्ञापन क्यों देगी??
गुलाम नबी
फ़ई के पाँच सितारा होटलों में आयोजित होने वाले सेमिनार, कान्फ़्रेंस और गोष्ठियों
में जाने वालों की लिस्ट देखिए, कैसे-कैसे लोग भरे पड़े हैं, और इन्हीं
में से अधिकतर बुद्धिजीवी UPA-2
की नीतियों, विदेश नीतियों, कश्मीर निर्णयों को प्रभावित करते हैं - हरीश खरे (प्रधानमंत्री के मीडिया
सलाहकार), रीता मनचन्दा, वेद भसीन
(कश्मीर टाइम्स के प्रमुख), हरिन्दर बवेजा (हेडलाइन्स टुडे),
प्रफ़ुल्ल बिदवई (वरिष्ठ पत्रकार), अंगना
चटर्जी (इनका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है), कमल मित्रा के अलावा
संदीप पाण्डेय, अखिला रमन… जैसे एक से
बढ़कर एक “बुद्धिजीवी” शामिल हैं। इन्हीं
में से अधिकांश बुद्धिजीवी, हमें सेकुलरिज़्म और
साम्प्रदायिकता का मतलब समझाते नज़र आते हैं, इन्हीं
बुद्धिजीवियों के लगुए-भगुए अक्सर हिन्दुत्व और नरेन्द्र मोदी को गरियाते मिल
जाएंगे, और पिछले 10 साल में कश्मीर को
“विवादित क्षेत्र” के रूप में प्रचारित करने,
तथा भारतीय सेना के
बलिदानों को नज़रअंदाज़ करके अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बार-बार सेना के “कथित दमन” को हाइलाईट करने में यह गैंग सदा आगे रही
है। ये वही “गैंग” है जिसे
कश्मीर के विस्थापित पंडितों से ज्यादा फ़िलीस्तीन के मुसलमानों की चिन्ता रहती है…
इनके अलावा जेएनयू एवं कश्मीर विश्वविद्यालय के कई प्रोफ़ेसर भी गुलाम नबी
फ़ई द्वारा आयोजित “मजमों” में शामिल हो चुके हैं।
इन
सारे बुद्धिजीवियों(??) के आपसी लिंक और नेटवर्क बहुत गहरे हैं... सभी के
आपस में कोई न कोई व्यावसायिक अथवा स्वार्थी सम्बन्ध जरूर हैं.. यानी "तुम
मुझे कांफ्रेंस में बुलवाओ, मैं तुम्हारी पुस्तक में एक लेख लिख दूँगा, फिर
हम किसी ज्ञापन पर हस्ताक्षर करके किसी NGO से पैसा ले लेंगे और आपस में
बाँट लेंगे... तुम मेरी किताब प्रकाशित करवा देना, मैं तुम्हारे पक्ष में
माहौल बनाने में मदद करूँगा..." इस प्रकार की साँठगाँठ से इस बुद्धिजीवी
गैंग का काम, नाम और दाम चलता है.
बात साफ़ है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तीन-तीन बार जनता द्वारा चुने गए एक मुख्यमंत्री के खिलाफ, निहित स्वार्थी बुद्धिजीवी गैंग द्वारा लगातार एक “नकारात्मक प्रोपेगैंडा” चलाकर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को सफलतापूर्वक बेवकूफ बना दिया गया है. विश्व के दो विशाल लोकतंत्र, अमेरिका और भारत, दोनों को ही मुठ्ठी भर पाखण्डियों एवं कट्टरवादियों ने अपनी अकादमिक घुसपैठ के चलते मूर्ख बना दिया है. हालांकि इस तरह का राजनैतिक नकारात्मक प्रचार दुनिया के लगभग प्रत्येक देश में चलता है.
बात साफ़ है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में तीन-तीन बार जनता द्वारा चुने गए एक मुख्यमंत्री के खिलाफ, निहित स्वार्थी बुद्धिजीवी गैंग द्वारा लगातार एक “नकारात्मक प्रोपेगैंडा” चलाकर अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को सफलतापूर्वक बेवकूफ बना दिया गया है. विश्व के दो विशाल लोकतंत्र, अमेरिका और भारत, दोनों को ही मुठ्ठी भर पाखण्डियों एवं कट्टरवादियों ने अपनी अकादमिक घुसपैठ के चलते मूर्ख बना दिया है. हालांकि इस तरह का राजनैतिक नकारात्मक प्रचार दुनिया के लगभग प्रत्येक देश में चलता है.
२००८ में एक राजनैतिक बहस के
दौरान ओबामा ने कहा था कि, “यदि आप अपने समर्थक नहीं जोड़ सकते, तो कुछ ऐसा करो कि
विपक्षी के समर्थक उसे छोड़कर भाग खड़े हों...” कुछ ऐसा ही नरेंद्र मोदी के साथ किया
जा रहा है. दुर्भाग्य से मोदी के खिलाफ यह नकारात्मक प्रचार लंबा खिंच गया है, और
चूँकि भारत में “सेकुलरिज्म” नाम का एक “एड्स” फैला हुआ है, इसलिए सामान्य
बुद्धिजीवी इस बात पर विचार करने के लिए भी तैयार नहीं है कि पिछले १० वर्षों में
गुजरात में एक भी बड़ा दंगा नहीं हुआ... २०११ में सृजित होने वाले नए रोजगारों में
गुजरात का हिस्सा ७२% रहा....
वामपंथियों, सेकुलरों और
कथित “बुद्धिजीवियों”(?) की इस गैंग द्वारा नरेंद्र मोदी के खिलाफ सतत नकारात्मक
प्रचार १० साल से जारी है, जबकि सीबीआई, सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश में काम कर
रहे विशेष जाँच दल और तमाम आयोगों के बावजूद नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक FIR तक नहीं है. अब यह तो आपको विचार करना है कि इन बुद्धिजीवियों पर भरोसा
किया जाए अथवा गुजरात के जमीनी वास्तविक विकास पर...
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ब्लॉग
गुरुवार, 22 नवम्बर 2012 17:07
Narendra Modi : Increasing Phenomenon (Part-4)
नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति का उदभव एवं विकास (भाग-4)
पिछले अंक से आगे… (पिछला भाग पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें... http://blog.sureshchiplunkar.com/2012/10/rise-of-narendra-modi-phenomena-part-3.html)
मित्रों… जैसा कि हम पिछले भागों में देख चुके हैं कि 1984 से लेकर 1998 तक
ऐसी तीन-चार प्रमुख घटनाएं और व्यवहार हुए जिन्होंने यह साबित किया कि देश में
मुस्लिम तुष्टिकरण न सिर्फ़ बढ़ रहा था, बल्कि वोट बैंक की घृणित राजनीति और “सेकुलरिज़्म” की विकृत परिभाषा ने
भाजपा-संघ-हिन्दुत्व को “अछूत” बना दिया।
1984 से 1998 की लोकसभा चुनाव तक का इतिहास हम देख चुके हैं, जिसमें शाहबानो
मामला, रूबिया सईद अपहरण मामला, चरार-ए-शरीफ़ और आतंकवादी मस्त गुल का मामला,
कश्मीर से षडयंत्रपूर्वक और धर्म के नाम पर हजारों कश्मीरी हिन्दुओं को यातनाएं
देकर भगाना और अपने ही देश में शरणार्थी का जीवन जीने को मजबूर करना… और 1998 में
सेकुलरिज़्म के नाम पर जिस तरह “सिर्फ़ एक वोट” से वाजपेयी जी की सरकार गिराई गई… ऐसी कई घटनाओं ने
हिन्दुओं के मन में आक्रोश भी भरा और उनके अंतःकरण को छलनी भी किया।
1999 के आम चुनावों में भी भाजपा का “प्रतिबद्ध वोटर” उसके साथ ही रहा और उसने 1998 की ही तरह भाजपा को 182
सीटें देकर पहले नम्बर पर ही रखा। जबकि कांग्रेस 114 सीटों के ऐतिहासिक न्यूनतम
संख्या पर पहुँच गई। ध्यान रहे कि इस समय तक जिस “प्रवृत्ति” की हम बात कर रहे हैं, वह नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय
परिदृश्य में कहीं भी नहीं थे, बल्कि मोदी का राष्ट्रीय स्तर पर प्रादुर्भाव 2002
में, अर्थात NDA सरकार बनने के तीन साल
बाद हुआ था, लेकिन हिन्दुओं के दिल में “मोदी प्रवृत्ति” का निर्माण तो शाहबानो मामले से ही हो गया था, जो
धीमे-धीमे बढ़ता जा रहा था।
बहरहाल, हम बात कर रहे थे 1999 के आम चुनावों की… भाजपा के प्रतिबद्ध हिन्दू
वोटरों का भाजपा की सरकार से पहली बार मोहभंग होना यहीं से शुरु हुआ। 182 सीटें
जीतने के बाद तथा लगातार दो बार (पहले 13 दिन और फ़िर 13 माह) की सरकारें गिर जाने
के बाद भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व यह साबित करना चाहता था कि वह भी गठबंधन सरकार
बनाकर कांग्रेस की ही तरह पूरे पाँच साल सरकार चला सकते हैं। इस गठबंधन सरकार को
बनाने (अर्थात कई सेकुलर दलों का समर्थन हासिल करने के लिए) भाजपा ने अपने तीन
प्रमुख मुद्दे (अर्थात राम मन्दिर निर्माण, कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति की माँग
और समान नागरिक संहिता), जिनसे पार्टी की “पहचान” थी, उन्हीं को तिलांजलि दे डाली। इन तीनों ही मुद्दों को
भाजपा ने सत्ता हासिल करने और “कैसे भी हो पाँच साल सरकार चलाकर दिखाएंगे” की जिद की खातिर, ठण्डे बस्ते
में डाल दिया। हिन्दू वोटरों के दिल से भाजपा का विश्वास हिलने और “मोदी प्रवृत्ति” के विकास में इस “विश्वासघात” ने गहरा असर किया, क्योंकि अभी
तक (अर्थात 1998 तक) हिन्दुओं को लगता था कि जिस तरह अन्य पार्टियाँ अपने मुद्दों
पर ठोस स्वरूप में खड़ी रहती हैं, भाजपा भी वैसा ही करेगी, परन्तु जब उसने देखा कि
सिर्फ़ सरकार बनाने की जिद और पार्टी में धीरे-धीरे बढ़ते सत्ता-लोभ के कारण उसके
हृदय को छूने वाले तीनों प्रमुख मुद्दे ही पार्टी ने दरकिनार कर दिए हैं, तो उसका
दिल खट्टा हो गया। 1998 से पहले हिन्दुओं के दिल पर “गैरों” ने ठेस लगाई थी, 1999 की सरकार
बनाते समय पहले मजबूरी में आडवाणी की जगह अटल जी को लाने और बाद में इन तीनों
मुद्दों को त्यागने की वजह से पहली बार हिन्दू वोटरों का विश्वास भाजपा से हिल गया,
तब से लेकर आज तक पार्टी की फ़िसलन लगातार जारी है।
हालांकि पार्टी के बाहर से एक आम भाजपाई वोटर लगातार इस बात की पैरवी करता रहा
कि चूंकि भाजपा के पास 182 सीटें हैं और कांग्रेस के पास सिर्फ़ 114, तो ऐसी स्थिति
में भाजपा को अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के सामने इतना झुकने की आवश्यकता कतई नहीं
थी, क्योंकि उस स्थिति में भाजपा के बिना कोई भी सरकार बन ही नहीं सकती थी, पहले
करगिल युद्ध जीतने और कांग्रेस की छवि एकदम रसातल में पहुँच जाने के बाद यदि भाजपा
चाहती, तो उस समय इन तीनों मुद्दों पर अड़ सकती थी, लेकिन भाजपा के रणनीतिकारों को
क्षेत्रीय दलों से “सौदेबाजी” करना नहीं आया। उस समय भाजपा को
गठबंधन करना ही था तो “अपनी शर्तों” पर करना था, लेकिन हुआ उल्टा। सत्ता प्राप्त करने की जल्दी
में भाजपा ने अपने “कोर” मुद्दे तो छोड़ दिए, जबकि ममता
बनर्जी, चन्द्रबाबू नायडू जैसे क्षेत्रीय नायकों की “वसूली की कीमत” के आगे झुकती चली गई, जबकि यदि
भाजपा इस बात पर ज़ोर देती कि जो भी क्षेत्रीय दल इन तीनों मुद्दों पर हमारी बात
मानेगा, हम सिर्फ़ उसी का समर्थन लेंगे… तो मजबूरी में ही सही कई दलों को अपनी “सेकुलरिज़्म” की परिभाषा को सुविधानुसार
बदलने पर मजबूर होना ही पड़ता तथा भाजपा की छवि “अपने कोर वोटरों” के बीच चमकदार बनी रहती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, और धीरे-धीरे
1999 से 2004 के बीच पार्टी पर “प्रमोद महाजन टाइप” के लोगों का कब्जा होता चला गया… आडवाणी, कल्याण सिंह, उमा
भारती इत्यादि खबरों में तो रहे, लेकिन भाजपा को डस चुके “सेकुलरिज़्म” के नाग ने इन्हें दोबारा कभी भी
निर्णायक भूमिका में आने ही नहीं दिया। (नोट :- प्रमोद महाजन “टाइप” का अर्थ भी एक “विशिष्ट प्रवृत्ति” ही है, जिसने भाजपा को 1999 के
बाद अंदर से खोखला किया है, प्रमोद महाजन तो सिर्फ़ इस प्रवृत्ति का एक रूप भर हैं…
इस पर आगे किसी अन्य लेख में बात होगी… ठीक उसी प्रकार जैसे कि नरेन्द्र मोदी भी “मोदी प्रवृत्ति” का एक रूप भर हैं… अर्थात महाजन
न होते तो कोई और होता, और यदि मोदी न होते तो कोई और होता…)।
खैर… किसी तरह भाजपा ने NDA
नामक “कुनबा” जोड़-तोड़कर 1999 में सरकार बना
ली, और जिस “कोर” हिन्दू वोटर ने जिन मुद्दों पर
विश्वास करके भाजपा को वहाँ तक पहुँचाया था, वह बेचारा मन मसोसकर “सेकुलरिज़्म के ब्लैकमेल”, भाजपा के सत्ता प्रेम और अपने
ही मुद्दों को छोड़ने की “तथाकथित” मजबूरी को देखता-सहता रहा।
सन् 2000 के दिसम्बर में भाजपा नेतृत्व (अर्थात अटल-आडवाणी) को हिन्दू वोटरों
तथा समूचे देश के दिलों में अमिट छाप छोड़ने का एक अवसर मिला था, लेकिन अफ़सोसनाक और
शर्मनाक तरीके से वह भी गँवा दिया गया। जैसा कि हम सभी जानते हैं, दिसम्बर 2000 के
अन्तिम सप्ताह में IC-814 नामक फ़्लाइट का अपहरण
करके उसे कंधार ले जाया गया था, जहाँ पर भारत सरकार को पाँच खूंखार आतंकवादियों को
छोड़ना पड़ा था। हालांकि इस घटना के बारे में काफ़ी कुछ पहले ही लिखा जा चुका है,
परन्तु चूंकि मैं यहाँ भाजपा की गिरावट और “मोदी प्रवृत्ति” के उठाव के बारे में लिख रहा हूँ, इसलिए अधिक विस्तार से
इस घटना में न जाते हुए, संक्षेप में भाजपा पर पड़ने वाले इस घटना के दुष्परिणामों
के बारे में जानेंगे…
सन् 2000 आते-आते हमारे 24 घण्टे चलने वाले न्यूज़ चैनल और खबरों के प्रति उनकी
भूख और “लाइव तथा सबसे तेज” के प्रति उनकी अत्यधिक “वासना” के चलते, कंधार काण्ड में भी इस
मीडिया ने NDA सरकार (यानी
वाजपेयी-आडवाणी-जसवंत सिंह) को गहरे दबाव में ला दिया था। उस समय भी भारत के मीडिया ने लगातार इस विमान अपहरण के बारे
में “ब्रेकिंग न्यूज़” दे-देकर, विमान में सवार
यात्रियों के परिजनों के इंटरव्यू दिखा-दिखाकर और प्रधानमंत्री निवास के सामने
कैमरायुक्त धरने देकर, सरकार को इतना दबाव में ला दिया था कि सरकार ने पाँच बेहद
खतरनाक आतंकवादियों को छोड़ने का फ़ैसला कर लिया। हालांकि जो भाजपा का “कोर हिन्दू वोटर” था, उसका मन इसकी गवाही नहीं
देता था, लेकिन भाजपा ने तो उस वोटर के “साथ और सलाह” दोनों को कभी का त्याग दिया था, उस वोटर से पूछता ही कौन
था? अंततः बड़े ही अपमानजनक तरीके से एक रिटायर्ड फ़ौजी जसवन्त सिंह अपने साथ पाँच
खूंखार आतंकवादियों हवाई जहाज़ में बैठाकर कंधार ले गए, और वहाँ से उन “धनिकों और उच्चवर्गीय लोगों” को “छुड़ाकर”(???) लाए, जिन्होंने अपने जीवन
में शायद कभी भी भाजपा को वोट नहीं दिया होगा (ध्यान रहे कि सन 2000 में हवाई
यात्रा करने वाले अधिकांश लोग धन्ना सेठ और उच्चवर्गीय लोग ही होते थे), लेकिन जब
प्रधानमंत्री निवास के सामने रात-दिन इन धनवान लोगों ने रोना-पीटना मचा रखा हो,
तमाम चैनल लगातार वाजपेयी सरकार की असफ़लता(?) को गिनाए जा रहे हों, हर तरफ़ यह “डरपोक माहौल” बना दिया गया हो कि यदि
आतंकवादियों को नहीं छोड़ा तो “कयामत” का दिन नज़दीक आ जाएगा… इत्यादि के भौण्डे प्रदर्शन से कैसी
भी सरकार हो, दबाव में आ ही जाती। ऊपर से महबूबा मुफ़्ती अपहरण के समय छोड़े गए
आतंकवादियों का “अलौकिक
उदाहरण”(?) पहले से मौजूद था
ही, सो सारे तथाकथित पत्रकारों ने (जो खुद को देशभक्त बताते नहीं थकते थे) “आतंकवादियों को छोड़ो…
आतंकवादियों को छोड़ो… नागरिकों की जान बचाओ… यात्रियों को सकुशल वापस लाओ…” जैसा विधवा प्रलाप सतत 8 दिन तक
किए रखा।
ऐसे कठिन समय में देश के गृहमंत्री अर्थात आडवाणी से जिस कठोर मुद्रा की
अपेक्षा की जा रही थी, वह कहीं नहीं दिखाई दे रही थी। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस
मुद्दे को मिलने वाले कवरेज के कारण लगातार हो रही जगहँसाई के सामने एक भी भाजपाई
नेता नहीं दिखा, जो तनकर खड़ा हो जाए और कह दे कि “हम आतंकवादियों की कोई माँग नहीं मानेंगे… उन्हें जो करना
हो कर लें”।
भाजपा का कोर हिन्दू वोटर जो एक मजबूत देश का मजबूत प्रधानमंत्री चाहता था, वह
अपेक्षित करता था कि वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी, व्लादिमीर पुतिन (चेचन्या के
आतंकवादियों द्वारा किया गया थियेटर बंधक काण्ड) की तरह ठोस और तत्काल निर्णय लेकर
या तो आतंकवादियों के सामने झुकने से साफ़ इंकार कर दे, या फ़िर इज़राइल की तरह
कमाण्डोज़ भेजकर उन्हें कंधार
में ही खत्म करवा दे… लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वाजपेयी-आडवाणी-जसवन्त की तिकड़ी ने 31
दिसम्बर 2000 को पाँच आतंकवादियों को रिहा कर दिया और हमारे तथाकथित “युवा” और “जोशीले” भारत ने बड़े ही पिलपिले,
शर्मनाक और लुँज-पुँज तरीके से 21वीं सदी में कदम रखा। उस दिन अर्थात 1 जनवरी 2001
को भारत के युवाओं और हताश-निराश भाजपा समर्थकों के मन में एक “दबंग” प्रधानमंत्री की लालसा जाग उठी
थी…। ध्यान रहे कि इस समय तक भी नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य में कहीं नहीं
थे, परन्तु जैसी दबंगई नरेन्द्र मोदी ने, पिछले दस वर्षों में मीडिया, NGOs तथा निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा उनके खिलाफ़ चलाए जा रहे
अभियानों के दौरान दिखाई है… मध्यवर्गीय हिन्दू युवा इसी दबंगई के दीवाने हुए हैं
एवं “मोदी प्रवृत्ति” इसी का विस्तारित स्वरूप है।
कल्पना कीजिए कि यदि उस समय वाजपेयी-आडवाणी-जसवन्त सिंह कठोर निर्णय ले लेते, तो
आज भाजपा के माथे पर एक सुनहरा मुकुट होता तथा आतंकवाद से लड़ने की उसकी
प्रतिबद्धता के बारे में लोग उसे सर-माथे पर बैठाते… लेकिन भाजपा तो मुफ़्ती
मोहम्मद सईद और नरसिम्हाराव की कतार में जाकर बैठ गई, जिसने हिन्दू मानस को बुरी
तरह आहत किया…।
1998 से पहले तक, “पराए” शर्मनिरपेक्षों ने हिन्दू मन पर कई घाव दिए थे, लेकिन 1999
से 2001 के बीच जिस तरह से भाजपा के नेताओं ने “गठबंधन सरकार चलाने की मजबूरी”(?)(?) के नाम पर प्रमुख मुद्दों
से समझौते किए, उसे “अपनों
द्वारा ही, अपनों पर घाव” की तरह लिया गया… ज़ाहिर है कि जब कोई अपना चोट पहुँचाता है
तो तकलीफ़ अधिक होती है। इसलिए धीरे-धीरे हिन्दू कोर वोटर (जो आडवाणी की रथयात्रा
से उपजा था) जिसने भाजपा को 182 सीटों तक पहुँचाया था, भाजपा से छिटकने लगा और
भाजपा की ढलान शुरु हो गई, जो आज तक जारी है…। लेकिन हिन्दू दिलों में “नरेन्द्र मोदी प्रवृत्ति” का प्रादुर्भाव, जो कि 1985 में
“शाहबानो मसले” से शुरु हुआ था, वह 15 साल में “कंधार काण्ड” तथा खासकर “तीन कोर मुद्दों” को त्यागकर, सेकुलरिज़्म की राह
पकड़ने की कोशिशों की वजह से, मजबूती से जम चुका था…।
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मित्रों… 2001 से आगे हम अगले अंक में देखेंगे… क्योंकि 2002 में नरेन्द्र
मोदी का पहले गुजरात और फ़िर राष्ट्रीय परिदृश्य पर आगमन हुआ…। जबकि 2001 से 2004
के बीच भी NDA की सरकार के कार्यकाल
में कुछ और भी “कारनामे” हुए, जिसने अप्रत्यक्ष रूप से “दबंगई स्टाइल वाली मोदी
प्रवृत्ति” को
ही बढ़ावा दिया था।
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