रविवार, 27 नवम्बर 2011 12:32
Conversion in Kashmir, Islam and Conversion, Missionary Activity in India
ईसाई धर्मांतरण को रोकने का इस्लामी तरीका… हिन्दुओं के बस की बात नहीं ये… (सन्दर्भ - कश्मीर में धर्मान्तरण)
घटना इस प्रकार है कि, कुछ समय पहले श्रीनगर स्थित चर्च के रेव्हरेंड (चन्द्रमणि
खन्ना) यानी सीएम खन्ना(?) (नाम पढ़कर चौंकिये नहीं… ऐसे कई हिन्दू नामधारी फ़र्जी
ईसाई हमारे-आपके बीच मौजूद हैं) ने घाटी के सात मुस्लिम युवकों को बहला-फ़ुसलाकर
उन्हें इस्लाम छोड़, ईसाई धर्म अपनाने हेतु राजी कर लिया। जब यह मामला खुल गया, तो
19 नवम्बर को रेव्हरेण्ड खन्ना को श्रीनगर स्थित मुख्य मुफ़्ती बशीरुद्दीन ने खन्ना
को “शरीयत कोर्ट”(?) में जवाब-तलब के लिए
बुलवाया। खन्ना साहब से चार घण्टे तक पूछताछ(?) की गई। उन सभी सात मुस्लिम युवकों
की पुलिस ने जमकर पिटाई की, जिन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार किया था, फ़िर उन युवकों
से रेव्हरेण्ड खन्ना के खिलाफ़ कबूलनामा लिखवा लिया गया कि उसने पैसों का लालच देकर
उन्हें ईसाई धर्म के प्रति बरगलाया (यही सच भी था)।(Know more about Shariah Court... http://expressbuzz.com/opinion/columnists/sharia-courts-rule-in-jk-secularists-keep-mum/337356.html)
इतना सब हो चुकने के बाद राज्य की
“धर्मनिरपेक्ष” सरकार ने अपना रोल प्रारम्भ
किया। बशीरुद्दीन की “धमकी”(?) के बाद सबसे पहले तो
रेव्हरेण्ड खन्ना को गिरफ़्तार किया गया…। चूंकि गुजरात, तमिलनाडु, मध्य्रप्रदेश की
तरह जम्मू-कश्मीर में धर्मान्तरण विरोधी कानून नहीं है (क्योंकि कभी सोचा ही नहीं
था, कि मुस्लिम बहुल इलाके में कोई पादरी इतनी हिम्मत करेगा), इसलिये अब उस पर 153A तथा 295A की
धाराएं लगाई गईं अर्थात “धार्मिक वैमनस्यता फ़ैलाने”, “नस्लवाद भड़काने” और “अशांति फ़ैलाने” की, ताकि चन्द्रमणि खन्ना को आसानी से छुटकारा न मिल सके…
क्योंकि उसने इस्लाम के अनुसार मुस्लिमों का धर्म परिवर्तन करवा कर सिर्फ़ “अपराध” नहीं बल्कि “पाप” किया था। मौलाना बशीरुद्दीन ने
कहा है कि “शरीयत” अपना काम करेगी, और सरकार को
अपना काम “करना
होगा…”, यह एक गम्भीर मसला है
और इस्लाम में इससे “निपटने” के कई तरीके हैं।
इन मुस्लिम युवकों के धर्मान्तरण
की वीडियो क्लिप यू-ट्यूब पर आने के बाद पादरी खन्ना और वेटिकन के खिलाफ़ घृणा
संदेशों की मानो बाढ़ सी आ गई, जिसमें “वादा” किया गया है कि यदि खन्ना को “उचित सजा” नहीं मिली तो कश्मीर से
मिशनरियों के सभी स्कूल, इमारतें और चर्च इत्यादि जला दिए जाएंगे… मजे की बात यह
है कि धमकी भरे ईमेल कश्मीर के साथ-साथ पाकिस्तान से भी भेजे जा रहे हैं।
समूचे मामले का तीन तरह से
विश्लेषण किया जा सकता है, और तीनों ही विश्लेषण तीन विभिन्न समूहों को पूरी तरह
बेनकाब करते हैं…
1) सबसे पहले बेनकाब होते हैं तमाम ईसाई संगठन तथा सजन जॉर्ज एवं जॉन दयाल
जैसे “स्वघोषित” ईसाई बुद्धिजीवी… (लेकिन असलियत
में धर्मान्तरण के समर्थक घोर एवेंजेलिस्ट)। भाजपा शासित राज्यों सहित पूरे देश
में मिशनरी गतिविधियों के जरिये दनदनाते हुए दलितों-आदिवासियों और गरीब हिन्दुओं
को ईसाई धर्म में खींचने-लपेटने में लगे हुए ईसाई संगठन, कश्मीर के इस मसले पर
शुरुआत में तो चुप्पी साध गये, फ़िर धीमे-धीमे सुरों में इन्होंने विरोध शुरु किया।
प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति और सोनिया गाँधी के समक्ष, “धर्मान्तरण की गतिविधि संविधान सम्मत है…”, “कश्मीर में जो हुआ वह गलत और
असंवैधानिक तथा धार्मिक स्वतन्त्रता का हनन है…” तथा “कश्मीर के तालिबानीकरण पर चिंता जताते हैं…” जैसे वाक्यों और घोषणाओं से
शिकायत करते रहे। लेकिन इस्लामिक मामलों में और खासकर कश्मीर के मामले में
प्रधानमंत्री की क्या औकात है कि वे कुछ करें… सो कुछ नहीं हुआ। फ़िलहाल डायोसीज़
चर्च और वेटिकन के उच्चाधिकारी रेव्हरेण्ड खन्ना के साथ हुए सलूक पर सिर्फ़ “प्रलाप” भर कर रहे हैं, कुछ कर सकने की
उनकी न तो हिम्मत है और न ही औकात…। यह बात पहले भी केरल में साबित हो चुकी है, जब
एक ईसाई प्रोफ़ेसर का हाथ, कुछ इस्लामिक पागलों ने काट दिया था… तब भी भारतीय चर्च,
हिन्दुओं को सरेआम ईसाई बनाते एवेंजेलिस्ट और वेटिकन के सारे गुर्गे, सिमी द्वारा संचालित इस्लामी जेहाद के सामने
दुम दबाकर घर बैठ गये थे…। तात्पर्य यह कि ईसाई संगठनों द्वारा किये जाने वाले “धर्मान्तरण सम्बन्धी सारे संवैधानिक
अधिकार”(?) और “दादागिरी” सिर्फ़ हिन्दुओं पर ही चलती है,
जैसे ही कोई इस्लामी जेहादी इन्हें इनकी औकात बताता है तो ये चुप्पी साध लेते हैं
या मन मसोसकर रह जाते हैं…
पता कीजिये कि गरीबों की सेवा(?) के नाम पर चल रही कितनी मिशनरियाँ, मुस्लिम बहुल इलाके में अपना कामकाज कर रही हैं? क्या मुसलमानों में गरीबी नहीं है? तो फ़िर मिशनरी संस्थाओं को "सेवा" के लिए दलित-आदिवासी बस्तियाँ ही क्यों मिलती हैं?
2) इस घटना से इस्लाम के तथाकथित स्वयंभू ठेकेदार भी बेनकाब होते हैं, क्योंकि
जहाँ एक तरफ़ उन गरीब मुस्लिम नौजवानों (जो पैसे के लालच में ईसाई बने), उन पर
फ़िलहाल कोई कार्रवाई नहीं की जा रही, जबकि रेव्हरेण्ड खन्ना को रगड़ा जा रहा है।
इसी प्रकार इस्लाम की अजब-गजब परिभाषाओं के अनुसार “जो भी व्यक्ति पवित्र इस्लाम में प्रवेश करता है, उसका
स्वागत है…”
इसमें “आने वाले” और “लाने वाले” दोनों को ईनाम दिया जाता है
(जैसा कि लव-जेहाद के कई मामलों में कर्नाटक व केरल पुलिस ने पाया है कि मुस्लिम लड़कों को हिन्दू
लड़की फ़ँसा कर लाने पर दो-दो लाख रुपये तक दिये गये हैं)। वहीं दूसरी ओर, पाखण्ड की
इन्तेहा यह है कि बशीरुद्दीन साहब फ़रमाते हैं कि “इस्लाम छोड़कर जाना गुनाह-ए-अज़ीम (महापाप) है…”। यानी इस्लाम में आने वाले को
ईनाम और इस्लाम छोड़कर जाने वाले को कठोर दण्ड… यह है “शांति का धर्म” (Religion of Peace)?
3) बेनकाब होने की श्रृंखला में तीसरा नम्बर आता है, हमारे “सुपर ढोंगी सेकुलरों” और “वामपंथी बुद्धिजीवियों”(?) का…। पाठकों को याद होंगे दो
मामले, पहला कोलकाता के रिज़वानुर रहमान और उद्योगपति अशोक तोडी की लड़की का प्रेम
प्रसंग (Search - Ashok Todi and Rizvanur Rehman Case) एवं कश्मीर में अमीना और रजनीश का प्रेम प्रसंग (Search - Ameena and Rajneesh Love story of Kashmir)। झोला छाप वामपंथी
बुद्धिजीवियों एवं पाखण्ड से लबरेज धर्मनिरपेक्षों ने रिज़वानुर रहमान की हत्या पर
कैसा “रुदालीगान” किया था, जबकि कश्मीर में
इस्लामी उग्रवादियों द्वारा रजनीश की हत्या पर चुप्पी साध ली थी…। ये लोग ऐसे ही
गिरे हुए होते हैं, उदाहरण - गोधरा ट्रेन जलाने पर कपड़ा-फ़ाड़ चिल्लाना, लेकिन
मुम्बई की राधाबाई चाल में हिन्दुओं को जलाने पर चुप्पी…, फ़िलीस्तीन के मुसलमानों
के लिये बुक्का फ़ाड़कर रोना, लेकिन कश्मीरी पण्डितों के मामले में चुप्पी…, गुजरात
के दंगों को “नरसंहार” बताना, लेकिन सिखों के नरसंहार
के बावजूद कांग्रेस की गोद में बैठना इत्यादि-इत्यादि। इनका ऐन यही रवैया, कश्मीर
के इस धर्मान्तरण मामले को लेकर भी रहा… आए दिन भाजपा-संघ को अनुशासन, संविधान,
अल्पसंख्यकों के अधिकारों आदि पर भाषण पिलाने वाले महेश भट्ट, शबाना आज़मी और
तीस्ता नुमा सारे बुद्धिजीवी अपनी-अपनी खोल के अन्दर दुबक गये…। किसी ने भी
बशीरुद्दीन और उमर अब्दुल्ला सरकार को पाठ पढ़ाने की कोशिश नहीं की, क्योंकि उन्हें
मालूम है कि यदि वे इस्लाम के खिलाफ़ एक शब्द भी बोलेंगे तो उनका पिछवाड़ा लाल कर
दिया जाएगा…। जॉन दयाल, सीताराम येचुरी अथवा सैयद शहाबुद्दीन साहब ने एक बार भी
नहीं कहा, कि कश्मीर में पादरी खन्ना के खिलाफ़ जो भी कार्रवाई हो वह भारत के
संविधान के अनुसार हो… शरीयत कोर्ट कौन होता है फ़ैसला करने वाला? लेकिन ज़ाहिर है
कि जिसके पास “ताकत” है, उसी की बात चलेगी और
ठोकने-लतियाने तथा हाथ काटने की ताकत फ़िलहाल इस्लाम के पास है, जबकि हिन्दू ठहरे
नम्बर एक के बुद्धू, सेकुलर और गाँधीवादी…, उनके खिलाफ़ तो “कुछ भी” (जी हाँ, कुछ भी) किया जा सकता
है…। क्योंकि भाजपा में भी अब कांग्रेस “बी” टीम बनने की होड़ चल पड़ी है, तो रीढ़ की हड्डी सीधी करके
धार्मिक मामलों पर भाजपा के नेता खुलकर क्यों और कैसे बोलें? जबकि स्थापित तथ्य यह
है कि “विशेष परिस्थितियों” (गुजरात एवं मध्यप्रदेश के चन्द
चुनावों) को छोड़कर चाहे भाजपाई नेता, सार्वजनिक रूप से मुस्लिमों के चरण धोकर भी
पिएं तब भी वे भाजपा को वोट देने वाले नहीं हैं… फ़िर भी भाजपा को यह पूछने में
संकोच(?) हो रहा है कि “शरीयत” बड़ी या “भारत का संविधान”?
प्रस्तुत घटना यदि किसी भाजपा शासित राज्य में हुई होती तथा बजरंग दल
अथवा श्रीराम सेना ने इस घटना को अंजाम दिया होता, तो अब तक भारत के समूचे मीडियाई
भाण्डों, नकली सेकुलरिज़्म का झण्डा उठाये घूमने वाले बुद्धिजीवियों सहित “प्रगतिशील”(?) वामपंथियों ने कपड़े
फ़ाड़-फ़ाड़कर, आसमान सिर पर उठा लिया होता… परन्तु चूंकि यह घटना कश्मीर की है तथा
इसमें इस्लामी फ़तवे का तत्व शामिल है, इसलिए दोगले सेकुलरों और फ़र्जी वामपंथियों
के मुँह पर बड़ा सा ताला जड़ गया है… “राष्ट्रीय”(?) मीडिया की तो वैसे भी हिम्मत और औकात नहीं है कि वे इस
घटना को कवरेज दे सकें…।
वाकई, “सेकुलरिज़्म
और गाँधीवाद” ने
मानसिक रूप से भारतवासियों (सॉरी… हिन्दुओं) को इतना खोखला और डरपोक बना दिया है, कि वे वाजिब बात
का विरोध भी नहीं कर पाते…
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नोट :- ताज़ा समाचार यह है कि "शरीयत कोर्ट" ने कश्मीर विवि के कुछ प्रोफ़ेसरों को भी उसके समक्ष पेश होने का नोटिस जारी किया है, क्योंकि खन्ना ने स्वीकार किया है कि मुस्लिम युवकों का धर्मान्तरण करवाने में इन्होंने उसकी मदद की थी…। दूसरी तरफ़ पादरी खन्ना की पत्नी और बेटे ने उनके "गिरते स्वास्थ्य" को देखते हुए उमर अब्दुल्ला से उन्हें रिहा करने की अपील की है। पत्नी ने एक बयान में कहा है कि कश्मीर में आए भूकम्प के दौरान पादरी खन्ना और चर्च ने सेवाभाव से गरीबों की मदद की थी, उनके पुनर्वास में विभिन्न NGOs के साथ मिलकर काम किया था… (इस स्वीकारोक्ति का अर्थ समझे आप? थोड़ा गहराई से विचार कीजिए, समझ जाएंगे)।
फ़िलहाल तो इस मामले में "धर्मनिरपेक्षों" और "स्वयंभू मानवाधिकारवादियों" की साँप-छछूंदरनुमा हालत, दोगलेपन और पाखण्ड पर तरस खाईये और मुस्कुराईये…।
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