कुछ वर्षों पूर्व जब संसद में सीटों की संख्या बढाये जाने का प्रस्ताव विचाराधीन था, तब दक्षिण के राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने राजनैतिक पूर्वाग्रहों और मतभेदों से ऊपर उठकर इस बात का विरोध किया था कि संसद में सीटों की संख्या को जनसंख्या के अनुपात में बढाया जाये । उनका तर्क था कि इस तरह तो पुनः उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों को इसका फ़ायदा मिल जायेगा, क्योंकि जनसंख्या तो वहीं की सबसे ज्यादा बढ रही है, जबकि दक्षिण के राज्यों को एक तरह से इसकी "सजा" मिलेगी, क्योंकि उन्होंने जनसंख्या नियन्त्रण को प्रभावी तरीके से सफ़ल बनाया है । दक्षिणी राज्यों का विरोध बिलकुल सही था, क्योंकि अभी भी दक्षिण के राज्यों को संसद में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है, जबकि उत्तरप्रदेश (उत्तराखण्ड मिलाकर) ८५ एवं बिहार (झारखण्ड मिलाकर) ५४ सांसद संख्या के मामले में संसद में अपनी उपस्थिति से सारे गणित को उलटफ़ेर करने में सक्षम हैं ।
भारत के अधिकतर प्रधानमन्त्री उत्तरप्रदेश से आते हैं, क्योंकि लोकतन्त्र संख्या बल से चलता है (यहाँ सिर गिने जाते हैं, सिरों के भीतर क्या है यह नहीं देखा जाता), परन्तु यह संख्या बल के साथ-साथ उस जनता का भी अपमान है, जिसने स्वतः होकर जनसंख्या नियन्त्रण में महती भूमिका निभाई है, यह उनके साथ अन्याय होता कि मात्र जनसंख्या के आधार पर उत्तरप्रदेश और बिहार संसद में सभी पर हावी हो जाते हैं (लगभग यही स्थिति हिन्दी और उसके आग्रह को लेकर है और जिस पर क्षेत्रीय राज्यों को गहरी आपत्ति है, लेकिन यह बहस का अलग विषय है)... बहरहाल आर्थिक दृष्टि से अपने को समृद्ध करने के लिये चारों दक्षिणी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की कुछ समय पहले एक बैठक हुई थी, जिसमें इन चारों राज्यों ने अपने राजनैतिक विचारधाराओं और पार्टियों की सीमा से ऊपर उठकर आपस में समझदारी बनाई कि चारों राज्यों को आपस में मिलकर व्यापार, परिवहन, कर प्रणाली आदि में तालमेल बनाकर उसे सरल एवं सभी के लिये फ़ायदेमन्द बनाने की कोशिश करनी चाहिये । इस प्रक्रिया में उन्होंने महाराष्ट्र को भी शामिल कर लिया है । अब भविष्य में स्थिति धीरे-धीरे यह बनने जा रही है कि दक्षिण के राज्यों का एक आर्थिक महासंघ आकार ग्रहण करेगा, जाहिर है कि इससे वहाँ की जनता को दीर्घकालीन लाभ प्राप्त होगा । दक्षिण के राज्य पहले से ही शिक्षा और स्वास्थ्य के मानकों में उत्तरी राज्यों से काफ़ी आगे हैं, लेकिन सामाजिक सुरक्षा, बुनियादी ढाँचे एवं ग्रामीण विकास में भी उत्तरी राज्य बहुत पिछडे हुए हैं, जबकि उतरप्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश से दर्जनों मन्त्री केन्द्र मे हैं और पहले भी रहते आये हैं (रेल मंत्रालय पर तो लगभग हमेशा बिहार का ही कब्जा रहा है), तर्क देने वाले अक्सर कहते हैं कि बिहार राज्य से अधिकतर आईएएस और आईपीएस चुनकर आते हैं, जरूर आते हैं, लेकिन इसलिये नहीं कि बिहार में शिक्षा का स्तर अच्छा है, बल्कि इसलिये कि बिहार में इन सिविल सेवाओं के प्रति सामाजिक आकर्षण एवं भययुक्त आदर आज भी मौजूद है ।
उत्तरी राज्यों के पिछडने का प्रमुख कारण अशिक्षा और बुनियादी सेवाओं (सडक, विजली, सिंचाई और संचार) की बेहद कमी है । ऊपर से "करेला और वो भी नीम चढा" की तर्ज पर जातीय समीकरणों वाली राजनीति ने स्थिति को और खराब कर दिया है । जबकि दक्षिणी राज्यों और महाराष्ट्र में कई सफ़ल सामाजिक आन्दोलन हुए, छुआछूत, भेदभाव, विधवा विवाह आदि पर कई समाज सुधारकों ने वहाँ समाज को जगाया, परन्तु राज्यों के विकास की कीमत पर नहीं । परन्तु उत्तर भारत में इसका ठीक उलटा हुअ, यहाँ दलितों, राजपूतों, और ब्राह्मणों को सिर्फ़ एक वोट बैंक की तरह विकसित किया गया, जोड़तोड़ से सरकार बनाओ, अपनी जातियों का भला करो, उन्हें बढावा दो, उनकी गलतियों को नजरअंदाज करो, मुफ़्तखोरी को सरकारी जामा पहना दो, अपनी गलतियों को केन्द्र के मत्थे मढने की कोशिश करो, राज्य का विकास गया भाड में । अब स्थिति यह हो गई है कि दक्षिण के राज्य केन्द्र से मिलने वाली सहायता को "परफ़ॉर्मेंस" आधारित करने की माँग कर रहे हैं, जो कि सही भी है । जैसे कि जो राज्य विद्युत पारेषण एवं उपयोग की पूरी राशि चुकायेंगे उन्हें पर्याप्त बिजली मिलनी चाहिये । इस मामले में हरियाणा का उदाहरण आश्चर्यजनक किन्तु सत्य है कि हरियाणा देश का पहला राज्य बन गया, जिसके विद्युत मण्डल ने जबरदस्त मुनाफ़ा कमाया और वहाँ किसानों को भरपूर बिजली मिल रही है । यह तो सिर्फ़ एक उदाहरण है, लेकिन बात साफ़ है कि जब तक उत्तरी राज्य जातीय राजनीति और अशिक्षा के जाल में फ़ँसे रहेंगे, समूची जनता का नुकसान तय है, और इसके कारण उत्तर भारत की प्रतिभा का पलायन मुम्बई, दिल्ली, बेंगलोर, हैदराबाद की ओर हो रहा है ।
यह बात भारत के भविष्य के लिये भी ठीक नहीं है, क्योंकि इसके कारण अलगाव की भावना पैदा होती है, जिसे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के सन्दर्भ में समझा जा सकता है । छत्तीसगढ के लोगों में यह भावना मजबूत हो गई थी कि मध्यप्रदेश उसके अधिकतम संसाधनों का उपयोग कर रहा है, लेकिन वहाँ के निवासियों को इसका पूरा फ़ायदा नहीं मिल रहा है, उलटे किसी अधिकारी को "सजा" के तौर पर छत्तीसगढ ट्रांसफ़र किया जाता था, लगभग यही बात झारखण्ड और बिहार पर भी लागू होती है । व्यापक परिप्रेक्ष्य में देशहित में यह ठीक बात नहीं है...दक्षिणी राज्यों से प्रचुर राजस्व वसूली करके उत्तरी राज्यों को सबसिडी देना ठीक नहीं है । लेकिन जब तक जनता जाति विशेष को आरक्षण, मुफ़्त बिजली, कर्जा माफ़ी, धर्म परिवर्तन आदि मुद्दों में उलझी रहेगी, तब तक विकास नहीं हो सकता । आरक्षण से क्या हासिल होने वाला है, नौकरियाँ तो पहले से ही नहीं हैं जो हैं वे भी जाने वाली हैं, मुफ़्त बिजली बाँटकर नेताओं की जेब से क्या जाता है, कटौती तो जनता को ही भुगतना होता है, धर्म परिवर्तन रोकने या करवाने पर हल्ला मचाने से ज्यादा जरूरी है आदिवासियों की सामाजिक / आर्थिक हालत सुधारना, अवैध कालोनियों को वैध करने से अतिक्रमण रुकना तो दूर बल्कि भूमाफ़िया और जमीन दबा लेंगे । तात्पर्य यह कि नेताओं को घोषणायें करने में कुछ नहीं लगता, उन्हें तो मालूम है कि तेल तो तिल्ली में से ही निकलेगा (यानी जनता की जेब से), बस एक बार वोट दो और पाँच साल की फ़ुर्सत, परन्तु लाख टके का सवाल तो यही है कि जनता कब जागेगी ?
South and North States of India :- Increasing Difference
Written by Suresh Chiplunkar सोमवार, 23 अप्रैल 2007 12:51उत्तर-दक्षिण के बीच बढती खाई…
विश्व बैंक की ताजा सर्वेक्षण रिपोर्ट में बताया गया है कि केरल और उत्तरप्रदेश के मानव विकास सूचकांक में काफ़ी बडा़ अन्तर आ गया है । शिक्षा, स्वास्थ्य, जनभागीदारी के कार्यक्रम, शिशु मृत्यु दर, बालिका साक्षरता, महिला जागरूकता आदि कई बिन्दुओं पर विश्व बैंक ने इस तथ्य को रेखांकित किया है कि सामाजिक विकास की दृष्टि से केरल भारत के अग्रणी राज्यों में से एक है, और उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश (जिसकी स्थिति बाकी तीनों से कुछ बेहतर बताई गई है) ये चारों राज्य अब तक "बीमारू" राज्यों की श्रेणी से बाहर नहीं निकल सके हैं, और ना ही निकट भविष्य में इसकी कोई सम्भावना है ।
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