डॉक्टर सुब्रह्मण्यम स्वामी के बारे में उनके दोस्त व दुश्मन दोनों एक बात जरूर कहते हैं, कि स्वामी जी को कभी भी हलके में नहीं लेना चाहिए, वे हमेशा गंभीरता से हर लड़ाई लड़ते हैं. परन्तु देश के कांग्रेसी तीर्थस्थल उर्फ “पवित्र परिवार” (यानी ऐसा परिवार, जिस पर देश में कोई उँगली नहीं उठा सकता) ने हमेशा डॉक्टर स्वामी को मजाक में लिया और यह सोचते रहे कि यह अकेला आदमी क्या कर लेगा जिसकी ना तो कोई अपनी राजनैतिक पार्टी है और ना ही कोई राजनैतिक रसूख. इसीलिए पिछले दस-बारह वर्ष से लगातार काँग्रेस ने डॉक्टर स्वामी के आरोपों की सिर्फ खिल्ली उड़ाई, क्योंकि काँग्रेस को विश्वास था कि उनके खिलाफ कोई सबूत ला ही नहीं सकता, भारत में प्रशासन से लेकर न्यायपालिका तक उनके “स्लीपर सेल” समर्थक इतने ज्यादा हैं, कि उन्हें आसानी से कानूनी जाल में फँसाया ही नहीं जा सकता, परन्तु गाँधी परिवार यह भूल गया कि डॉक्टर स्वामी भी हारवर्ड शिक्षित हैं, ख्यात अर्थशास्त्री हैं, चीन और रूस में उन्हें गंभीरता से सुना जाता है तथा उनका पिछला इतिहास भी सदैव उठापटक वाला रहा है, चाहे वह राजीव गाँधी की हत्या का मामला हो, चंद्रास्वामी का केस हो, जयललिता से दुश्मनी हो अथवा वाजपेयी सरकार को गिराने के लिए उसी जयललिता को साधना हो...डॉक्टर स्वामी हमेशा तनी हुई रस्सी पर आराम से कसरत कर लेते हैं. इसीलिए सन 2012 में जब एक सार्वजनिक सभा में राहुल गाँधी ने तत्कालीन जनता पार्टी अध्यक्ष डॉक्टर सुब्रह्मण्यम स्वामी को यह धमकी दी कि यदि उन्होंने नेशनल हेरल्ड मामले में अपनी बयानबाजी जारी रखी तो वे उन पर मानहानि का मुकदमा दायर कर देंगे, राहुल ने आगे कहा कि उन पर तथा सोनिया गाँधी पर स्वामी के सभी आरोप मिथ्या, दुर्भावनापूर्ण और तथ्यों से परे हैं. उस समय एक और दरबारी जनार्दन द्विवेदी ने यह कहा था कि प्रत्येक लोकतांत्रिक देश के समाज में ऐसे लोग मिल ही जाते हैं जो ऊटपटांग बकवास करते रहते हैं, कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता... तब सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा कि यदि काँग्रेस में हिम्मत है तो मुझ पर मानहानि का दावा करे, मैं सिद्ध कर दूँगा कि सोनिया-राहुल ने “यंग इन्डियन” नामक कंपनी बनाकर नेशनल हेराल्ड की समूची संपत्ति (जो कि लगभग 5000 करोड़ है) हड़प कर ली है. उसके बाद काँग्रेसी खेमे में चुप्पी छा गई और आज चार वर्ष बाद जब निचली अदालत ने गाँधी परिवार को “समन” जारी किए और अदालत में पेशी रुकवाने के लिए सोनिया-राहुल ने दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की तो उल्टा हाईकोर्ट ने इस मामले में “प्रथमदृष्टया आपराधिक षड्यंत्र” होने की टिप्पणी भी इसमें जोड़ दी तथा काँग्रेस को जोर का झटका, धीरे से दे दिया.
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नेशनल हेरल्ड का यह मामला अभी भी जिनकी जानकारी में नहीं है, आगे बढ़ने से पहले मैं उन्हें संक्षेप में समझा देता हूँ कि आखिर रियल एस्टेट की यह “सबसे बड़ी लूट” किस तरह से की गई.
१) पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आजादी से पहले 1938 में नेशनल हेरॉल्ड अखबार की स्थापना की थी. वर्ष 2008 में इसका प्रकाशन बंद हो गया. इस अखबार का स्वामित्व एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) नाम की कम्पनी के पास था, जिसे कांग्रेस से आर्थिक कोष मिलता था. देश उस समय आज़ाद नहीं हुआ था.
२) समय के साथ धीरे-धीरे यह अखबार और इसकी साथी पत्रिकाएँ कुप्रबंधन के कारण बन्द होती चली गईं, परन्तु देश में लगातार काँग्रेस की सत्ता होने के कारण इस अखबार को देश के कई प्रमुख शहरों में मौके की जमीन और इमारतें “समाजसेवा” के नाम पर लगभग मुफ्त दी गईं. अखबार का घाटा बढ़ता ही गया और एक समय आया जब 2008 में यह बन्द हो गया.
३) इसके बाद 2011 में “यंग इन्डियन” नामक गैर-लाभकारी (Section 25) कंपनी बनाई गई, जिसके 76% शेयर मालिक सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी हैं, बाकी के शेयर मोतीलाल वोरा, सुमन दुबे और सैम पित्रोदा के पास हैं. 26 फरवरी 2011 को बन्द हो चुकी कम्पनी अर्थात AJL (Associated Journal Limited) के बोर्ड ने प्रस्ताव पास किया कि वे काँग्रेस पार्टी से शून्य ब्याज दर पर नब्बे करोड़ का ऋण लेकर अपनी समस्त देनदारियाँ चुकाएँगे. वैसा ही किया गया, जबकि क़ानून के मुताबिक़ कोई राजनैतिक पार्टी किसी निजी कम्पनी को ऋण नहीं दे सकती.
४) काँग्रेस पार्टी द्वारा की गई इस “कृपा” के बदले में AJL कम्पनी ने अपने नौ करोड़ शेयर (दस रूपए प्रति शेयर) के हिसाब से नब्बे करोड़ रूपए “यंग इन्डियन” कंपनी के नाम ट्रांसफर कर दिए और इसके मूल शेयरधारकों को इसकी सूचना भी नहीं दी (यह भी कम्पनी कानूनों के मुताबिक़ अपराध ही है). इस प्रकार सिर्फ पचास लाख रूपए से शुरू की गई कंपनी अर्थात “यंग इन्डियन” देखते ही देखते पहले तो नब्बे करोड़ की वसूली की अधिकारी हो गई और फिर AJL की सभी संपत्तियों की मालिक बन बैठी.
डॉक्टर स्वामी ने न्यायालय में मूल सवाल यह उठाया है कि गठन के एक माह के भीतर ही सोनिया-राहुल की मालिकी वाली यंग इन्डियन कम्पनी, AJL की मालिक कैसे बन गई? अपना नब्बे करोड़ का ऋण चुकाने के लिए AJL कम्पनी ने अपनी देश भर में फ़ैली चल संपत्तियों का उपयोग क्यों नहीं किया, जबकि बड़े आराम से ऐसा किया जा सकता था, क्योंकि AJL के पास वास्तव में 5000 करोड से अधिक की संपत्ति है. सिर्फ दिल्ली के भवन की कीमत ही कम से कम 500 करोड़ है. असल में यह सारा खेल काँग्रेस के वफादार मोतीलाल वोरा को आगे रखकर खेला गया है और परदे के पीछे से सोनिया-राहुल इसमें सक्रिय भूमिका निभा रहे थे.
अब मजा देखिये... AJL के प्रबंध निदेशक “मोतीलाल वोरा” ने, यंग इन्डियन के 12% शेयरधारक “मोतीलाल वोरा” से कहा कि वे काँग्रेस के कोषाध्यक्ष “मोतीलाल वोरा” से ऋण दिलवाएँ और फिर AJL के “मोतीलाल वोरा” ने यंग इन्डियन के “मोतीलाल वोरा” को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए समस्त ऋणों के चुकता करने के बदले में अपने समस्त शेयर (बिना इसके शेयरधारकों की अनुमति के) ट्रांसफर कर दिए, और इस तरह यंग इन्डियन के 76% मालिक अर्थात सोनिया-राहुल AJL की विराट संपत्ति के मालिक बन बैठे और यह सब कागज़ों पर ही हो गया, क्योंकि लेने वाला, बेचने वाला, अनुमति देने वाला और फायदा उठाने वाला सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे.
नेशनल हेरॉल्ड अखबार के “मास्टहेड” के ठीक नीचे उद्देश्य वाक्य लिखा रहता था - ‘फ्रीडम इज इन पेरिल, डिफेंड इट विद ऑल योर माइट (अर्थात आज़ादी खतरे में है, अपनी पूरी ताकत से इसकी रक्षा करो). यह वाक्य एक पोस्टर से उठाया गया था, जिसे इंदिरा गांधी ने ब्रेंटफोर्ड, मिडिलसेक्स से नेहरू जी को भेजा था. यह ब्रिटिश सरकार का पोस्टर था. नेहरू को यह वाक्य इतना भा गया कि इसे उन्होंने अपने अखबार के माथे पर चिपका दिया. दुर्भाग्य है कि नेहरू के वारिस तमाम बातें करते रहे, पर उन्होंने जानबूझकर इस अखबार और उसके संदेश को कभी गंभीरता से नहीं लिया. पहले नेहरू की पुत्री ने देश पर आपातकाल थोपा और अब इंदिरा की पुत्रवधू ने बड़ी ही सफाई से पहले तो नरसिंहराव और सीताराम केसरी को निकाल बाहर किया और षड्यंत्रपूर्वक नेहरू की इस विरासत पर कब्ज़ा कर लिया.
“नेशनल हेरॉल्ड”, “नवजीवन” और “कौमी आवाज” की मिल्कियत वाले एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड की परिसंपत्तियों की कीमत एक हजार से पांच हजार करोड़ तक आंकी जा रही है. इस कंपनी के पास दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, पटना, इंदौर, भोपाल और पंचकूला में जमीनें और भवन हैं. ये सभी संपत्तियां इन शहरों के मुख्य इलाकों में स्थित हैं
- दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर मूल्य और आकार के अनुसार सबसे बड़ी संपत्ति है, जहां एक लाख वर्ग फुट में पांच-मंजिला भवन बना है. इस संपत्ति की कम-से-कम कीमत 500 करोड़ रुपये है. इसकी दो मंजिलें विदेश मंत्रालय और दो मंजिलें टीसीएस ने किराये पर लिया है, जिनमें पासपोर्ट संबंधी काम होते हैं. ऊपरी मंजिल खाली है, जिसे “यंग इंडियन कंपनी” ने अपने जिम्मे ले रखा है. इस भवन से हर साल सात करोड़ रुपये की आमदनी होती है. (जो पता नहीं किसके खाते में जाती है).
- लखनऊ के ऐतिहासिक कैसरबाग में स्थित भवन से तीन भाषाओं में अखबार छपते थे. इस दो एकड़ जमीन पर 35 हजार वर्ग फुट में दो भवन हैं. अभी एक हिस्से में राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा इंदिरा गांधी नेत्र चिकित्सालय एवं शोध संस्थान संचालित किया जाता है. यहां से निकलनेवाले संस्करण 1999 में बंद हो गये.
- मुंबई के बांद्रा में अखबार को 3,478 वर्ग फुट जमीन 983 में दी गयी थी. यह जमीन अखबार निकालने और नेहरू पुस्तकालय एवं शोध संस्थान बनाने के लिए दी गयी थी, लेकिन 2014 में इस जमीन पर 11-मंजिला वाणिज्यिक भवन बना दिया गया है. नियम के अनुसार गैर-लाभकारी संस्था को आवंटन के तीन वर्षों के अंदर भवन बना लेना चाहिए था, जिसका उपयोग सिर्फ मूल उद्देश्य के लिए किया जा सकता था. इसमें 14 कार्यालय और 135 कार पार्किंग हैं. एक लाख वर्ग फुट से अधिक के कार्यालय क्षेत्र के इस संपत्ति की कीमत करीब 300 करोड़ रुपये है. इसका किराया और दुकानों-दफ्तरों की बिक्री का पैसा किसके खाते में गया किसी को नहीं मालूम.
- इसी प्रकार पटना के अदालतगंज में दी गयी जमीन खाली पड़ी है और फिलहाल उस पर झुग्गियां बनी हुई हैं. इस प्लॉट की कीमत करीब सौ करोड़ है. इस पर कुछ दुकानें बनाकर बेची भी गयी हैं.
- पंचकूला में 3,360 वर्ग फुट जमीन अखबार को 2005 में हरियाणा सरकार ने दी थी. इस पर अभी एक चार-मंजिला भवन है जो अभी हाल में ही बन कर तैयार हुआ है. इस संपत्ति की कीमत 100 करोड़ आंकी जाती है.
- इंदौर की संपत्ति इस लिहाज से खास है कि यहां से अब भी नेशनल हेरॉल्ड एक फ्रेंचाइजी के जरिये प्रकाशित होता है. एबी रोड पर 22 हजार वर्ग फुट के इस प्लॉट की कीमत करीब 25 करोड़ है. भोपाल के एमपी नगर में हेरॉल्ड की जमीन को एक कांग्रेसी नेता ने फर्जी तरीके से एक बिल्डर को बेच दिया था, जिसने उस पर निर्माण कर उन्हें भी बेच दिया था. इसकी कीमत तकरीबन 150 करोड़ आंकी जाती है.
तात्पर्य यह है कि AJL की तमाम संपत्तियों के रखवाले(??) यंग इण्डियन तथा काँग्रेस के लेन-देन और खातों की गहराई से जाँच की जाए तो पता चल जाएगा कि कितने वर्षों से यह गड़बड़ी चल रही है, और अभी तक इस लावारिस AJL नामक भैंस का कितना दूध दुहा जा चुका है. काँग्रेस और सोनिया-राहुल पर यह संकट इसलिए भी अधिक गहराने लगा है कि अब इस लड़ाई में AJL के शेयरधारक भी कूदने की तैयारी में हैं. प्रसिद्ध वकील शांतिभूषण भी एक शेयरधारक हैं और उन्होंने कम्पनी एक्ट के तहत मामला दायर करते हुए पूछा है कि कंपनी की संपत्ति और शेयर बेचने से पहले शेयरधारकों से राय क्यों नहीं ली गई? उन्हें सूचित तक नहीं किया गया. इसी प्रकार मार्कंडेय काटजू के पास भी पैतृक संपत्ति के रूप में AJL के काफी शेयर हैं, और वे भी इस घोटाले से खासे नाराज बताए जाते हैं. जब नेशनल हेरल्ड की स्थापना हुई थी, उस समय जवाहरलाल नेहरू के अलावा, कैलाशनाथ काटजू, रफ़ी अहमद किदवई (मोहसिना किदवई के पिता), कृष्णदत्त पालीवाल, गोविन्दवल्लभ पंत (केसी पंत के पिता) इसके मूल संस्थापक थे. वर्तमान में AJL के 1057 शेयरधारक हैं, जिनमें से एक को भी नहीं पता कि इस कंपनी की संपत्ति को लेकर मोतीलाल वोरा, सोनिया-राहुल, सैम पित्रोदा, सुमन दुबे और ऑस्कर फर्नांडीस ने परदे के पीछे क्या गुल खिलाए हैं. अब तक तो पाठकगण समझ ही गए होंगे कि किस तरह बड़े ही शातिर तरीके से यह सारा गुलगपाड़ा किया गया.
डॉक्टर सुब्रह्मण्यम स्वामी को जब यह भनक लगी तब उन्होंने अपने निजी स्तर पर खोजबीन आरम्भ की और कई तथ्य उनके हाथ लगे, जिसके आधार पर उन्होंने न्यायालय में 2012 में मामला दायर किया, उस समय स्वामी जनता पार्टी के अध्यक्ष थे, भाजपा से उनका कोई सम्बन्ध नहीं था. दस्तावेजों की जाँच-पड़ताल के बाद 26 जून 2014 को मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट गोमती मनोचा ने सभी को समन्स जारी किए और उन्हें 7 अगस्त 2014 को अदालत में पेश होने का आदेश दिया. अपने निर्णय में मजिस्ट्रेट ने कहा कि प्रथमदृष्टया साफ़ दिखाई देता है कि “यंग इण्डियन” कम्पनी का गठन सार्वजनिक संपत्ति और AJL को निशाने पर रखकर किया गया तथा सभी कंपनियों एवं संस्थाओं में मौजूद व्यक्तियों के आपसी अंतर्संबंध मामले को संदेहास्पद बनाते हैं”. पेशी पर रोक लगवाने हेतु सोनिया-राहुल ने दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, लेकिन हुआ उल्टा ही. सात दिसंबर 2015 के अपने आदेश में न्यायाधीश सुनील गौड़ ने ‘कांग्रेस द्वारा एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) को ब्याज-मुक्त कर्ज देने और 90 करोड़ के कर्ज को यंग इंडियन को देने’ पर सवाल खड़ा किया, जिसका आधार यह था कि कांग्रेस के पास धन सामान्यतः चंदे के द्वारा आता है और उस कर्ज को AJL की परिसंपत्तियों के द्वारा चुकाया जा सकता था. न्यायाधीश ने कहा कि ‘इसमें अपराध की बू है, धोखाधड़ी की गंध है’, और “इसलिए इसकी पूरी पड़ताल जरूरी है” अतः आरोपियों को कोर्ट में पेशी से छूट नहीं दी जा सकती. अब, जबकि दो भिन्न-भिन्न न्यायाधीश अपने न्यायिक ज्ञान के प्रयोग द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, तो इसे राजनीतिक बदला कैसे कहा जा सकता है? परन्तु काँग्रेस इसे यही रंग देने में लगी हुई है... जबकि हकीकत यह है कि डॉक्टर स्वामी किसी की सुनते नहीं हैं, वे अपने मन के राजा हैं और “वन मैन आर्मी” हैं, फिर भी काँग्रेस की पूरी कोशिश यही है कि नेशनल हेरल्ड मामले को नरेंद्र मोदी से जोड़कर इसे “राजनैतिक बदला” कहकर भुनाया जाए.
दरअसल, काँग्रेस इस समय सर्वाधिक मुश्किल में फँसी हुई है. जहाँ एक तरफ उसका कैडर राहुल गाँधी की भविष्य की क्षमताओं पर प्रश्नचिन्ह लगाने के मूड में दिखाई दे रहा है, वहीं दूसरी तरफ यूपीए-२ के काले कारनामे लंबे समय तक उसका पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं. अगले दस वर्ष में काँग्रेस के कई नेताओं को भारत की “महीन पीसने वाली चक्की” अर्थात न्यायपालिका के चक्कर लगाते रहने पड़ेंगे, और जब आगाज़ ही सोनिया-राहुल से हुआ है तो अंजाम कैसा होगा? चूँकि भारत के मतदाता न सिर्फ भोलेभाले और भावुक होते हैं, बल्कि वे जल्दी ही माफ भी कर देते हैं. ऐसे में यदि चुनावी मंचों से सोनिया गाँधी सिर पर पल्ला लेकर और आँखों में आँसू लेकर जनता से कहेंगी कि नरेंद्र मोदी उन्हें झूठा ही फँसा रहे हैं तो महँगाई से त्रस्त ग्रामीण मतदाता का बड़ा हिस्सा काँग्रेस की भावनाओं में बह सकता है. 44 सीटों पर सिमटने के बाद लोकसभा में काँग्रेस के पास खोने के लिए कुछ है नहीं, सौ साल पुरानी पार्टी अब इससे नीचे क्या जाएगी? इसलिए काँग्रेस की रणनीति यही है कि कैसे भी हो सोनिया-राहुल की अदालत में पेशी को राजनैतिक रंग दिया जाए, इसीलिए आठ दिनों तक संसद को भी बंधक बनाकर रखा गया और पेशी के वक्त भी जमकर नौटंकी की गई. कुछ जानकारों को उस समय आश्चर्य हुआ जब सोनिया-राहुल ने जमानत लेने का फैसला किया. परन्तु यह भी काँग्रेस की रणनीति का ही भाग लगता है कि चूँकि फिलहाल किसी भी बड़े राज्य में तत्काल विधानसभा चुनाव होने वाले नहीं हैं, तथा यह सिर्फ पहली ही पेशी थी और अभी मामला विधाराधीन है, आरोप भी तय नहीं हुए हैं. इसलिए अभी जमानत से इनकार करके जेल जाने का कोई राजनैतिक लाभ नज़र नहीं आता था. हमारी धीमी न्याय प्रक्रिया के दौरान अभी ऐसे कई मौके आएँगे जब इस मामले में सोनिया-राहुल खुद को “शहीद” और “बलिदानी” सिद्ध करने का मौका पा सकेंगे, बशर्ते डॉक्टर स्वामी के पास सबूतों के रूप में कोई “तुरुप के इक्के” छिपे हुए ना हों. इस तरह जमानत लेने और जेलयात्रा नहीं करने का फैसला एक “सोचा-समझा जुआ” लगता है, जिसे उचित समय आने पर भुनाने की योजना है, तब तक राज्यसभा में अपने बहुमत की “दादागिरी” के बल पर मोदी सरकार को सभी महत्त्वपूर्ण बिल और कानूनों को पास नहीं करने दिया जाए, ताकि जनता के बीच सरकार की छवि गिरती रहे.
लब्बेलुआब यह है कि जहाँ एक तरफ केजरीवाल अपनी सनातन नौटंकियाँ जारी रखेंगे, छापामार आरोप लगाते रहेंगे, केन्द्र-दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर नित-नए ड्रामे रचते रहेंगे, और दिल्ली में एक अच्छी सरकार देने की बजाय अपने मंत्रियों एवं समर्थकों पर लगने वाले प्रत्येक आरोप को आंतरिक लोकपाल द्वारा निपटाने लेकिन “मोदी” से जोड़ने की कोशिश जरूर करेंगे... वहीं दूसरी तरफ गले-गले तक भ्रष्टाचार में डूबे काँग्रेसी अपनी “रानी मधुमक्खी” पर क़ानून की आँच आती देखकर उत्तेजित होंगे, एकजुट होंगे तथा और अधिक कुतर्क करेंगे. कुल मिलाकर बात यह है कि आगामी दो वर्ष के भीतर होने वाले पंजाब, बंगाल, उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड के विधानसभा चुनाव बड़े ही रंगीले किस्म के होंगे, जहाँ भारतवासियों को नए-नए दांवपेंच, नई-नई रणनीतियाँ, विशिष्ट किस्म की नौटंकियाँ देखने को मिलेंगी...