घबराने की आवश्यकता नहीं, यह "कुलकर्णी वायरस" का बुखार है… मरीज़ जल्दी ही ठीक होगा… Secularism in BJP, Muslim Votes, Defeat in Elections

Written by बुधवार, 26 अगस्त 2009 14:07
भाजपा में बहुप्रतीक्षित उठापटक आखिरकार शुरु हो ही गई। इस बात का इन्तज़ार काफ़ी समय से किया जा रहा था कि लगातार दो चुनाव हारने के बाद ही सही शायद भाजपा के सिर से "सेकुलर" नाली में लोट लगाने का भूत उतर गया हो, लेकिन शायद अभी नहीं। सबसे पहले पुस्तक के बहाने जसवन्त सिंह को बाहर किया गया, जबकि जसवन्त सिंह को बाहर करने की असली वजह है वह चिठ्ठी जिसमें उन्होंने हार के लिये जिम्मेदार व्यक्तियों को पुरस्कृत करने पर सवाल उठाया था। "बहाने से" इसलिये कह रहा हूं कि उनकी विवादित पुस्तक के रिलीज़ होने के 36 घण्टे के भीतर उन्हें अपमानजनक तरीके से निकाल दिया गया, मुझे नहीं पता कि 36 घंटे से कम समय में पार्टी ने या इसके चिन्तकों ने 700 पेज की यह पुस्तक कब पढ़ी, और कब उसमें से यह भी ढूंढ लिया कि यह पार्टी विरोधी है, लेकिन ताबड़तोड़ न कोई नोटिस, न कोई अनुशासन समिति, सीधे बाहर…।

अब हार के लिये "जिम्मेदार व्यक्ति" यानी कौन? ज़ाहिर है कि पार्टी पर काबिज एक गुट, जो कि भाजपा को सेकुलर बनाने और अपना उल्लू सीधा करके पार्टी को कांग्रेस की एक घटिया "बी" टीम बनाने पर तुला हुआ है। लेकिन "सीधी बात" कर दी अरुण शौरी ने, ऐसे व्यक्ति ने, जिसे पार्टी का बौद्धिक चेहरा समझा जाता है, ज़मीनी नहीं। ऐसे व्यक्ति ने आम कार्यकर्ताओं के मन की बात पढ़ते हुए बिना किसी लाग-लपेट के सच्ची बात कह दी अर्थात "संघ को भाजपा को टेक-ओवर कर लेना चाहिये…", और इस बात से पार्टी में कुछ लोगों को सिर्फ़ मिर्ची नहीं लगी, बल्कि भूचाल सा आ गया है। जबकि अरुण शौरी द्वारा लगाये गये सारे आरोप, एक आम कार्यकर्ता के दिल की बात है।

लेकिन सुधीन्द्र कुलकर्णी नामक "सेकुलर वायरस" ने पार्टी को इस कदर जकड़ रखा था कि उसका असर दिमाग पर भी हो गया था, और पार्टी कुछ सोचने की स्थिति में ही नहीं थी, सिवाय एक बात के कि किस तरह मुसलमानों को खुश किया जाये, किस तरह से मुस्लिम वोट प्राप्त करने के लिये तरह-तरह के जतन किये जायें। जो छोटी सी बात एक सड़क का कार्यकर्ता समझता है कि चाहे भाजपा लगातार 2 माह तक शीर्षासन भी कर ले, मुस्लिम उसे वोट नहीं देने वाले, यह बात शीर्ष नेतृत्व को समझ नहीं आई। पहले इस कुलकर्णी वायरस ने आडवाणी को चपेट में लिया, वे जिन्ना की मज़ार पर गये, वहाँ जाकर पता नहीं क्या-क्या कसीदे काढ़ आये, जबकि बेचारे जसवन्त सिंह ने तो जिन्ना को शराबी, अय्याश और स्वार्थी बताया है। फ़िर भी चैन नहीं मिला तो आडवाणी ने पुस्तक लिख मारी और कंधार प्रकरण से खुद को अलग कर लिया, जबकि बच्चा भी समझता है कि बगैर देश के गृहमंत्री की सलाह या जानकारी के कोई भी इस प्रकार दुर्दान्त आतंकवादियों को साथ लेकर नहीं जा सकता। थोड़ी कसर बाकी रह गई थी, तो खुद को "मजबूत प्रधानमंत्री" भी घोषित करवा लिया, पुस्तक के उर्दू संस्करण के विमोचन में भाजपा-संघ को पानी पी-पीकर कोसने वाले नामवर सिंह और एक अन्य मुस्लिम लेखक को मंच पर बुला लाये। कहने का मतलब यह कि हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद और पार्टी की पहचान बने सारे मुद्दे को छोड़कर भाजपा ने अपनी चाल ही बदल ली, ऐसे में आम कार्यकर्ता का दुखी और हताश होना स्वाभाविक ही था, हालांकि कार्यकर्ता बेमन से ही सही चुनाव प्रचार में जुटे, लेकिन जनता के मन में कांग्रेस के प्रति जो गुस्सा था उसे भाजपा नेतृत्व भुना नहीं पाया, क्योंकि "सेकुलर वायरस" के कारण उसकी आँखों पर हरी पट्टी बँध चुकी थी। पार्टी भूल गई कि जिस विचारधारा और मुद्दों की बदौलत वे 2 सीटों से 190 तक पहुँचे हैं, वही छोड़ देने पर उसे वापस 116 पर आना ही था। वोटिंग पैटर्न देखकर ऐसे कई उदाहरण दिये जा सकते हैं जहाँ मुसलमानों ने रणनीति के तहत "सिर्फ़ भाजपा को हराने के लिये" वोटिंग की है, उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं था कि जीतने वाला कांग्रेसी है, या बसपाई, या सपाई, बस भाजपा को हराना था। यानी भाजपा की हालत "आधी छोड़ पूरी को धाये, आधी पाये न पूरी पाये" जैसी हो गई। जो परम्परागत हिन्दू वोट बैंक था, वह तो दरक गया, कर्मों की वजह से हाथ से खिसक गया और बदले में मिला कुछ नहीं। पार्टी पर काबिज एक गुट ने प्रश्न पूछने के लिये पैसा लेने वाल्रे सांसदों पर कड़ी कार्रवाई नहीं की, स्टिंग आपरेशन होने पर भी बेशर्मी से भ्रष्टों का बचाव करते रहे, टीवी पर चेहरा दिखाने के लालच में धुर-भाजपा विरोधी चैनलों पर चहक-चहककर बातें करते रहे, गरज यह कि पार्टी को बरबाद करने के लिये जो कुछ बन पड़ा सब किया। "हिन्दुत्व" और "राष्ट्रवाद" गये भाड़ में, तब नतीजा तो भुगतना ही था। आडवाणी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि, 2 सीटों से 190 तक ले जाने में उनके राम मन्दिर आंदोलन का बहुत बड़ा हाथ रहा और इसके लिये पार्टी कार्यकर्ता उन्हें श्रेय भी देते हैं, लेकिन वह पिछली सदी और पिछली पीढ़ी की बात थी, "हिन्दुत्व" के उस विराट आंदोलन के बाद आडवाणी को समय रहते अपना चार्ज वक्त रहते किसी युवा के हाथों में दे देना चाहिये था, लेकिन इस बात में जो देरी हुई उसका नतीजा आज पार्टी भुगत रही है।

अब जो चिन्तन-विन्तन के नाम पर जो भी हो रहा है, वह सिर्फ़ आपसी गुटबाजी और सिर-फ़ुटौव्वल है, बाकी कुछ नहीं। गोविन्दाचार्य ने बिलकुल सही कहा कि सैनिक तो लड़ने के लिये तैयार बैठे हैं, सेनापति ही आपस में लड़ रहे हैं, तो युद्ध कैसे जीतेंगे। कार्यकर्ता तो इन्तज़ार कर रहा है कि कब पार्टी गरजकर कहे कि "बस, अब बहुत हुआ!!! राम मन्दिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता, बांग्लादेशी घुसपैठिये, उत्तर-पूर्व के राज्यों में सघन धर्मान्तरण, नकली सेकुलरिज़्म का फ़ैलता जाल, जैसे मुद्दों को लेकर जनमानस में माहौल बनाया जाये। पहले से ही महंगाई, भ्रष्टाचार और आतंकवाद से त्रस्त जनता को उद्वेलित करने में अधिक समय नहीं लगेगा, लेकिन यह बात बड़े नेताओं को एक आम कार्यकर्ता कैसे समझाये? उन्हें यह कैसे समझाये कि देश की युवा पीढ़ी भी देश के नपुंसक हालात, बेरोजगारी, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि से त्रस्त है, "राष्ट्रवाद" की एक मजबूत चिंगारी भी एक बड़े वोट बैंक को भाजपा के पीछे खड़ा कर सकती है, लेकिन नेताओं को लड़ने से फ़ुर्सत मिले तब ना। मजे की बात यह भी है कि अब आरोप लग रहे हैं कि भाजपा सशक्त विपक्ष की भूमिका नहीं निभा रहा, क्यों निभाये भाई? पिछले 5 साल में देश की वाट लगी पड़ी है, अगले 5 साल और लगेगी, समस्याओं के लिये कांग्रेस को दोष नहीं देंगे, लेकिन भाजपा पर जिम्मेदार विपक्ष बनने की जिम्मेदारी ढोल रहे हैं। जब जनता ने, मीडिया ने, चुनाव आयोग ने, उद्योगपतियों ने, वोटिंग मशीनों की हेराफ़ेरी ने, सबने मिलकर कांग्रेस को जिताया है, तो अब वही जनता भुगते। भाजपा को पहले अपना घर दुरुस्त करना अधिक जरूरी है।

खैर… भले ही फ़िलहाल इस सेकुलर वायरस ने पार्टी को ICU में पहुँचा रखा हो, भाजपा के तमाम विरोधियों की बाँछें खिली हुई हों, भाजपा की पतली हालत देखकर उनके मन में लड्डू फ़ूट रहे हैं। जबकि ऐसे लोग भी मन ही मन जानते हैं कि कांग्रेस के शासनकाल में जनता अधिक कष्ट भुगतेगी, फ़िर भी उनका मन भाजपा-विरोध पर ही टिका रहता है, ऐसे भाजपा-विरोधी चाहते हैं कि कांग्रेस का विकल्प तो बने, लेकिन "कांग्रेस-बी" के रूप में, हिन्दुत्ववादी भाजपा के रूप में नहीं। ऐसा कैसे होने दिया जा सकता है? जल्दी ही पार्टी के नेताओं को समझ में आयेगा कि "कांग्रेस-बी" बनना उसकी सेहत के लिये ठीक नहीं है, उसे अपने मूल स्वरूप "भाजपा" ही बनकर रहना होगा, और यदि वे कांग्रेस-बी बनना चाहेंगे भी, तो अब आम कार्यकर्ता, भाजपा समर्थक वोटर और अन्य समूह उसे ऐसा करने नहीं देंगे। बस बहुत हुई "सेकुलर नौटंकी", यदि यही रवैया जारी रहा तो कांग्रेस को हराने से पहले भाजपा को हराना पड़ेगा, इतनी बार हराना पड़ेगा कि वह "सेकुलरिज़्म" का नाम भी भूल जाये। अधिक से अधिक क्या होगा, कांग्रेस चुनाव जीतती रहेगी यही ना!!! क्या फ़र्क पड़ेगा, लेकिन अपनी "मूल विचारधारा" से खोखली हो चुकी भाजपा को रास्ते पर लाना अधिक महत्वपूर्ण है, बजाय कांग्रेस की जीत या हार के। पहले देखें कि इस मजमे से निपटने के बाद पार्टी क्या राह पकड़ती है, फ़िर कार्यकर्ता और भाजपा समर्थक भी अपना रुख तय करेंगे। लेकिन एक अदना सी सलाह यह है कि 2004 और 2009 के चुनाव में भाजपा को शाइनिंग इंडिया, विकास, नदी-जोड़ो योजना, स्वर्णिम चतुर्भुज योजना, वाजपेयी की प्रधानमंत्री सड़क योजना आदि के बावजूद जनता ने हरा दिया, तो फ़िर पार्टी को अपनी पुरानी हिन्दुत्ववादी लाइन पर लौटने में क्या हर्ज है? वैसे भी तो हारे ही, फ़िर इस लाइन को अपनाकर हारने में क्या बुराई है? यह मिथक भी सेकुलर मीडिया द्वारा ही फ़ैलाया गया है कि अब आज का युवा साम्प्रदायिक नारों से प्रभावित नहीं होता, सिर्फ़ एक बार यह लाइन सच्चाई से पकड़कर और उस पर ईमानदारी से चलकर देखो तो सही, कैसे बेरोजगारी और महंगाई से त्रस्त हिन्दू वोट बैंक तुम्हारे पीछे एकत्रित होता है, लेकिन जब "कुलकर्णी वायरस" दिमाग पर हावी हो जाता है तब कुछ सूझता नहीं है।

सो फ़िलहाल कार्यकर्ता चिन्ता ना करें, अभी जो हो रहा है होने दिया जाये, कम से कम यह भी पार्टी-लोकतन्त्र का एक हिस्सा ही है, अभी इतनी गिरावट भी नहीं आई कि महारानी या युवराज के एक इशारे पर किसी पार्टी के लोग ज़मीन पर लोट लगाने लगें। सेकुलर बुखार से पीड़ित इस मरीज को अभी थोड़े और झटके सहने पड़ेंगे, लेकिन एक बार यह वायरस उसके शरीर से पूरी तरह निकल जाये, तब "ताज़ा खून" संचारित होते देर नहीं लगेगी, और मरीज फ़िर से चलने-फ़िरने-दौड़ने लगेगा…। आज की तारीख में संघ-भाजपा-हिन्दुत्व विरोधियों का "पार्टी-टाइम" चल रहा है, उन्हें मनाने दो…

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