हिन्दू तो शायद मान भी लें, लेकिन सेकुलर-वामपंथी बुद्धिजीवी नहीं मानेंगे… Secular Intellectuals Allahabad Ayodhya Verdict
Written by Super User सोमवार, 04 अक्टूबर 2010 11:33
अयोध्या पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का बहुप्रतीक्षित निर्णय आखिरकार मीडिया की भारी-भरकम काँव-काँव के बाद आ ही गया। अभी निर्णय की स्याही सूखी भी नहीं थी कि सदभावना-भाईचारा-अदालती सम्मान के जो नारे सेकुलर गैंग द्वारा लगाये जा रहे थे, 12 घण्टों के भीतर ही पलटी खा गये। CNN-IBN जैसे सुपर-बिकाऊ चैनल ने अदालत का नतीजा आने के कुछ घंटों के भीतर ही फ़्लैश चमकाना शुरु कर दिया था कि "मन्दिर तोड़कर नहीं बनाई थी मस्जिद…" मानो तीनो जजों से भी अधिक बुद्धिमान हो ये चैनल। हालांकि कांग्रेस द्वारा सभी चैनलों और अखबारों को बाकायदा शरीफ़ाना शब्दों में "धमकाया" गया था कि फ़ैसला चाहे जो भी आये, उसे ऐसे पेश करना है कि मुसलमानों को दुख न पहुँचे, जितना हो सके कोर्ट के निर्णय को "हल्का-पतला" करके दिखाना है, ताकि सदभावना बनी रहे और उनकी दुकानदारी भी चलती रहे।
परन्तु क्या चैनल, क्या अखबार, क्या सेकुलर बुद्धिजीवी और क्या वामपंथी लेखक… किसी का पेट-दर्द 8-10 घण्टे भी छिपाये न छिप सका और धड़ाधड़ बयान, लेख और टिप्पणियाँ आने लगीं कि आखिर अदालत ने यह फ़ैसला दिया तो दिया कैसे? सबूतों और गवाहों के आधार पर जजों ने उस स्थान को राम जन्मभूमि मान लिया, जजों ने यह भी मान लिया कि मस्जिद के स्थान पर कोई विशाल हिन्दू धार्मिक ढाँचा था (भले ही मन्दिर न हो), जजों ने यह भी फ़ैसला दिया कि वह मस्जिद गैर-इस्लामिक थी…और उस समूचे भूभाग के तीन हिस्से कर दिये, जिसमें से दो हिस्से हिन्दुओं को और एक हिस्सा मुसलमानों को दिया गया। (पूरा फ़ैसला यहाँ क्लिक करके पढ़ें… http://rjbm.nic.in/)
हिन्दू-विरोध की रोटी खाने वालों के लिये तो यह आग में घी के समान था, जो बात हिन्दू और हिन्दू संगठन बरसों से कहते आ रहे थे उस पर कोर्ट ने मुहर लगा दी तो वे बिलबिला उठे। मुलायम सिंह जैसे नेता उत्तरप्रदेश में सत्ता में वापसी की आस लगाये वापस अपने पुराने "मौलाना मुलायम" के स्वरूप में हाजिर हो गये, वहीं लालू और कांग्रेस की निराशा-हताशा भी दबाये नहीं दब रही। फ़ैसले के बाद सबसे अधिक कुण्ठाग्रस्त हुए वामपंथी और सेकुलर लेखक।
रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों के कान के नीचे अदालत ने जो आवाज़ निकाली है उसकी गूंज काफ़ी दिनों तक सुनाई देती रहेगी। अब उनके लगुए-भगुए इस निर्णय की धज्जियाँ अपने-अपने तरीके से उड़ाने में लगे हैं, असल में उनका सबसे बड़ा दुःख यही है कि अदालत ने हिन्दुओं के पक्ष में फ़ैसला क्यों दिया? जबकि यही लोग काफ़ी पहले से न्यायालय का सम्मान, अदालत की गरिमा, लोकतन्त्र आदि की दुहाई दे रहे थे (हालांकि इनमें से एक ने भी अफ़ज़ल की फ़ाँसी में हो रही देरी पर कभी मुँह नहीं खोला है), और अब जबकि साबित हो गया कि वह जगह राम जन्मभूमि ही है तो अचानक इन्हें इतिहास-भूगोल-अर्थशास्त्र सब याद आने लगा है। जब भाजपा कहती थी कि "आस्था का मामला न्यायालय तय नहीं कर सकती" तो ये लोग जमकर कुकड़ूं-कूं किया करते थे, अब पलटी मारकर खुद ही कह रहे हैं कि "आस्था का मामला हाईकोर्ट ने कैसे तय किया? यही राम जन्मभूमि है, अदालत ने कैसे माना?"…
अब उन्हें कौन समझाये कि हिन्दुओं ने तो कभी नहीं पूछा कि यरुशलम में ईसा का जन्म हुआ था या नहीं? ईसाईयों ने कहा, हमने मान लिया… हिन्दुओं ने तो कभी नहीं पूछा कि कश्मीर की हजरत बल दरगाह में रखा हुआ "बाल का टुकड़ा" क्या सचमुच किसी पैगम्बर का है… मुस्लिमों ने कहा तो हमने मान लिया। अब जब करोड़ों हिन्दू मानते हैं कि यही राम जन्मभूमि है तो बाकी लोग क्यों नहीं मानते? इसलिये नहीं मानते, क्योंकि हिन्दुओं के बीच सेकुलर जयचन्दों और विभीषणों की भरमार है… इनमें से कोई वोट-बैंक के लिये, कोई खाड़ी से आने वाले पैसों के लिये तो कोई लाल रंग के विदेशियों की पुस्तकों से "प्रभावित"(?) होकर अपना काम करते हैं, इन लोगों को भारतीय संस्कृति, भारतीय आध्यात्मिक चरित्रों और परम्परागत मान्यताओं से न कोई लगाव है और न कोई लेना-देना।
अब आते हैं इस फ़ैसले पर - जो व्यक्ति कानून का जानकार नहीं है, वह भी कह रहा है कि "बड़ा अजीब फ़ैसला है", एक आम आदमी भी समझ रहा है कि यह फ़ैसला नहीं है बल्कि बन्दरबाँट टाइप का समझौता है, क्योंकि जब यह मान लिया गया है कि वह स्थान राम जन्मभूमि है तो फ़िर ज़मीन का एक-तिहाई टुकड़ा मस्जिद बनाने के लिये देने की कोई तुक ही नहीं है। तर्क दिया जा रहा है कि वहाँ 300 साल तक मस्जिद थी और नमाज़ पढ़ी जा रही थी… इसलिये उस स्थान पर मुस्लिमों का हक है। यह तर्क इसलिये बोदा और नाकारा है क्योंकि वह मस्जिद ही अपने-आप में अवैध थी… अब वामपंथी बुद्धिजीवी पूछेंगे कि मस्जिद अवैध कैसे? इसका जवाब यह है कि बाबर तो अफ़गानिस्तान से आया हुआ एक लुटेरा था, उसने अपनी सेना के बल पर अयोध्या में जबरन कब्जा किया और वहाँ जो कुछ भी मन्दिरनुमा ढाँचा था, उसे तोड़कर मस्जिद बना ली… ऐसे में एक लुटेरे द्वारा जबरन कब्जा करके बनाई गई मस्जिद वैध कैसे हो सकती है? उसे वहाँ मस्जिद बनाने की अनुमति किसने दी?
कुछ तर्कशास्त्री कहते हैं कि वहाँ कोई मन्दिर नहीं था, चलो थोड़ी देर को मान लेते हैं कि मन्दिर नहीं था… लेकिन कुछ तो था… और कुछ नहीं तो खाली मैदान तो होगा ही… तब बाहर से आये हुए एक आक्रांता द्वारा अतिक्रमण करके स्थानीय राजा को जबरन मारपीटकर बनाई गई मस्जिद वैध कैसे हो गई? यानी जब शुरुआत ही गलत है तो वहाँ नमाज़ पढ़ने वाले किस आधार पर 300 साल नमाज पढ़ते रहे? अफ़गानिस्तान के गुंडों की फ़ौज द्वारा डकैती डाली हुई "खाली ज़मीन" (मान लो कि मन्दिर नहीं था) पर बनी मस्जिद में नमाज़ कैसे पढ़ी जा सकती है?
इसे दूसरे तरीके से एक काल्पनिक उदाहरण द्वारा समझते हैं - यदि अजमल कसाब ताज होटल पर हमला करता और किसी कारणवश या कमजोरीवश भारत के लोग अजमल कसाब को ताज होटल से हटा नहीं पाते, कसाब ताज होटल की छत पर चादर बिछाकर नमाज़ पढ़ने लगता, उसके दो-चार साथी भी वहाँ लगातार नमाज़ पढ़ते जाते… इस बीच 300 साल गुज़र जाते… तो क्या हमें ताज होटल का एक तिहाई हिस्सा मस्जिद बनाने के लिये दे देना चाहिये? सिर्फ़ इसलिये कि उस जगह पर कसाब और उसके वंशजों ने नमाज़ पढ़ी थी? मैं समझने को उत्सुक हूं कि आखिर बाबर और कसाब में क्या अन्तर है?
मूल सवाल यही है कि आखिर सन 1528 से पहले अयोध्या में उस जगह पर क्या था? क्या बाबर को अयोध्या के स्थानीय निवासियों ने आमंत्रण दिया था कि "आओ, हमें मारो-पीटो, एक मस्जिद बनाओ और हमें उपकृत करो…"? बाबर ने जो किया जबरन किया, किसी तत्कालीन राजा ने उसे मस्जिद बनाने के लिये ज़मीन आबंटित नहीं की थी, बाबर ने जो किया अवैध किया तो मस्जिद वैध कैसे मानी जाये? एक आक्रान्ता की निशानी को भारत के देशभक्त मुसलमान क्यों अपने सीने से चिपकाये घूम रहे हैं? हाईकोर्ट का निर्णय आने के बाद सबसे अधिक सदभावनापूर्ण बात तो यह होगी कि भारत के मुस्लिम खुद आगे आकर कहें कि हमें इस तथाकथित मस्जिद से कोई लगाव नहीं है और न ही हम ऐसी बलात कब्जाई हुई जगह पर नमाज़ पढ़ना चाहते हैं, अतः हिन्दुओं की भावनाओं की खातिर जो एक तिहाई हिस्सा कोर्ट ने दिया है हम उसका भी त्याग करते हैं और हिन्दू इस जगह पर भव्य राम मन्दिर का निर्माण करें, सभी मुस्लिम भाई इसमें सहयोग करेंगे… यह सबसे बेहतरीन हल है इस समस्या का, बशर्ते मुसलमानों को, सेकुलर और वामपंथी बुद्धिजीवी ऐसी कोई पहल करने दें और कोई ज़हर ना घोलें। ऐसी पहल शिया नेता कल्बे जव्वाद की शिया यूथ विंग "हुसैनी टाइगर" द्वारा की जा चुकी है, ज़ाहिर है कि कल्बे जव्वाद, "सेकुलर बुद्धिजीवियों" और "वामपंथी इतिहासकारों" के मुकाबले अधिक समझदार हैं…
परन्तु ऐसा होगा नहीं, मुलायम-लालू-चिदम्बरम सहित बुरका दत्त, प्रणव रॉय, टाइम्स समूह जैसे तमाम सेकुलरिज़्म के पैरोकार अब मुसलमानों की भावनाओं को कभी सीधे, तो कभी अप्रत्यक्ष तौर पर भड़कायेंगे, इसकी शुरुआत भी फ़ैसले के अगले दिन से ही शुरु हो चुकी है। उधर पाकिस्तान में भी "मुस्लिम ब्रदरहुड" नामक अवधारणा(?) हिलोरें मारने लगी है (यहाँ देखें…) और उन्हें हमेशा की तरह इस निर्णय में भी "इस्लाम पर खतरा" नज़र आने लगा है, मतलब उधर से भी इस ठण्डी पड़ती आग में घी अवश्य डाला जायेगा… और डालें भी क्यों नहीं, जब इधर के मुसलमान भी "कश्मीर में मारे जा रहे मुसलमानों और उन पर हो रहे अत्याचारों"(?) के समर्थन में एक बैठक करने जा रहे हैं (यहाँ देखिये…)। क्या यह सिर्फ़ एक संयोग है कि भारत से अलग होने की माँग करने वाले अब्दुल गनी लोन ने भी उसी सुर में सुर मिलाते हुए कहा है कि "अयोघ्या का फ़ैसला मुसलमानों के साथ धोखा है…" (ठीक यही सुर मुलायम सिंह का भी है)… क्या इसका मतलब अलग से समझाना पड़ेगा?
अब चिदम्बरम जी कह रहे हैं कि बाबरी ढाँचा तोड़ना असंवैधानिक था और उसके दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा…। क्या हो गया है चिदम्बरम जी आपको? यदि कोई गुण्डा मेरे घर में घुस कर बरामदे में अपना पूजास्थल बना लेता है तो उसे तोड़ने का मुझे कोई हक नहीं है? चिदम्बरम जी के "कांग्रेसी तर्क" को अपना लिया जाये, तो क्यों न शक्ति स्थल के पास ही मुशर्रफ़ मस्जिद, याह्या खां मस्जिद बनाई जाये, या फ़िर नेहरु के शांतिवन के पास चाऊ-एन-लाई मेमोरियल बनाया जाये, ये लोग भी तो भारत पर चढ़ दौड़े थे, आक्रांता थे…
अब फ़ैसला तो वामपंथी और सेकुलरों को करना है कि वे किसके साथ हैं? भारत की संस्कृति के साथ या बाहर से आये हुए एक आक्रान्ता की "तथाकथित मस्जिद" के साथ?
अक्सर ऐसा होता है कि मीडिया जिस मुद्दे को लेकर भचर-भचर करता है उसमें हिन्दुत्व और हिन्दुओं का नुकसान ही होता है, क्योंकि उनकी मंशा ही ऐसी होती है… परन्तु इस बार इस मामले का सकारात्मक पक्ष यह रहा कि मीडिया द्वारा फ़ैलाये गये रायते, जबरन पैदा किये गये डर और मूर्खतापूर्ण हाइप की वजह से 1992 के बाद पैदा हुई नई पीढ़ी को इस मामले की पूरी जानकारी हो गई… हमें भी अपने नौनिहालों और टी-एजर्स को यह बताने में आसानी हुई कि बाबर कौन था? कहाँ से आया था? उसने क्या किया था? इतने साल से हिन्दू एक मन्दिर के लिये क्यों लड़ रहे हैं, जबकि कश्मीर में सैकड़ों मन्दिर इस दौरान तोड़े जा चुके हैं… आदि-आदि। ऐसे कई राजनैतिक-धार्मिक सवाल और कई मुद्दे जो हम अपने बच्चों को ठीक से समझा नहीं सकते थे, मीडिया और उसकी "कथित निष्पक्ष रिपोर्टिंग"(?) ने उन 17-18 साल के बच्चों को "समझा" दिये हैं। कश्मीरी पण्डितों की दुर्गति जानने के बाद, अब उन्हें अच्छी तरह से यह भी "समझ" में आ गया है कि भारत के मीडिया को कांग्रेस और मुस्लिमों का "दलाल" क्यों कहा जाता है। जैसे-जैसे आज की पीढ़ी इंटरनेट पर समय बिताएगी, ऑरकुट-फ़ेसबुक-मेल पर बतियाएगी और पढ़ेगी… खुद ही इन लोगों से सवाल करेगी कि आखिर इतने साल तक इस मुद्दे को किसने लटकाया? वे कौन से गिरे हुए बुद्धिजीवी हैं और किस प्रकार के घटिया इतिहासकार हैं, जो बाबर (या मीर बाकी) की बनाई हुई मस्जिद को "पवित्र" मानते रहे हैं…। नई पीढ़ी ये भी सवाल करेगी कि आखिर वे किस प्रकार के "धर्मनिरपेक्ष" अफ़सर और लेखक थे जिन्होंने राम और रामसेतु को काल्पनिक, तथा रामायण को एक नॉवेल बताया था…ये सभी लोग बामियान (अफ़गानिस्तान) में सादर आमंत्रित हैं…
अब देखना है कि भारत के मुसलमान इस अवैध मस्जिद को कब तक सीने से चिपकाये रखते हैं? पाकिस्तान, देवबन्द और उलेमा बोर्ड के भड़काने से कितने भड़कते हैं? अपने आपको सेकुलर कहने वाले मुलायम और वामपंथी लोगों के बहकावे में आते हैं या नहीं? दोहरी चालें चलने वाली कांग्रेस मामले को और लम्बा घसीटने के लिये कितने षडयन्त्र करती है? जो एक तिहाई हिस्सा उन्हें खामख्वाह मिल गया है क्या उसे सदभावना के तहत हिन्दुओं को सौंपते हैं? सब कुछ भविष्य के गर्भ में है… फ़िलहाल तो हिन्दू इस फ़ैसले से अंशतः नाखुश होते हुए भी इसे मानने को तैयार है… (भाजपा ने भी कहा कि विवादित परिसर से दूर एक विशाल मस्जिद बनाने में वह सहयोग कर सकती है), लेकिन कुछ "बुद्धिजीवी"(?) मुस्लिमों को भड़काने के अपने नापाक इरादों में लगे हुए हैं… अयोध्या फ़ैसले के बाद ये बुद्धिजीवी सदमे और सन्निपात की हालत में हैं और बड़बड़ा रहे हैं…। कहा नहीं जा सकता कि आगे क्या होगा, लेकिन अब गेंद मुसलमानों के पाले में है…। अभी समय है कि वे जमीन के उस एक-तिहाई हिस्से को हिन्दुओं को सौंप दें, ताकि मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सके…। कहीं ऐसा न हो कि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बाद वह एक तिहाई हिस्सा भी उनके हाथ से निकल जाये…
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परन्तु क्या चैनल, क्या अखबार, क्या सेकुलर बुद्धिजीवी और क्या वामपंथी लेखक… किसी का पेट-दर्द 8-10 घण्टे भी छिपाये न छिप सका और धड़ाधड़ बयान, लेख और टिप्पणियाँ आने लगीं कि आखिर अदालत ने यह फ़ैसला दिया तो दिया कैसे? सबूतों और गवाहों के आधार पर जजों ने उस स्थान को राम जन्मभूमि मान लिया, जजों ने यह भी मान लिया कि मस्जिद के स्थान पर कोई विशाल हिन्दू धार्मिक ढाँचा था (भले ही मन्दिर न हो), जजों ने यह भी फ़ैसला दिया कि वह मस्जिद गैर-इस्लामिक थी…और उस समूचे भूभाग के तीन हिस्से कर दिये, जिसमें से दो हिस्से हिन्दुओं को और एक हिस्सा मुसलमानों को दिया गया। (पूरा फ़ैसला यहाँ क्लिक करके पढ़ें… http://rjbm.nic.in/)
हिन्दू-विरोध की रोटी खाने वालों के लिये तो यह आग में घी के समान था, जो बात हिन्दू और हिन्दू संगठन बरसों से कहते आ रहे थे उस पर कोर्ट ने मुहर लगा दी तो वे बिलबिला उठे। मुलायम सिंह जैसे नेता उत्तरप्रदेश में सत्ता में वापसी की आस लगाये वापस अपने पुराने "मौलाना मुलायम" के स्वरूप में हाजिर हो गये, वहीं लालू और कांग्रेस की निराशा-हताशा भी दबाये नहीं दब रही। फ़ैसले के बाद सबसे अधिक कुण्ठाग्रस्त हुए वामपंथी और सेकुलर लेखक।
रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों के कान के नीचे अदालत ने जो आवाज़ निकाली है उसकी गूंज काफ़ी दिनों तक सुनाई देती रहेगी। अब उनके लगुए-भगुए इस निर्णय की धज्जियाँ अपने-अपने तरीके से उड़ाने में लगे हैं, असल में उनका सबसे बड़ा दुःख यही है कि अदालत ने हिन्दुओं के पक्ष में फ़ैसला क्यों दिया? जबकि यही लोग काफ़ी पहले से न्यायालय का सम्मान, अदालत की गरिमा, लोकतन्त्र आदि की दुहाई दे रहे थे (हालांकि इनमें से एक ने भी अफ़ज़ल की फ़ाँसी में हो रही देरी पर कभी मुँह नहीं खोला है), और अब जबकि साबित हो गया कि वह जगह राम जन्मभूमि ही है तो अचानक इन्हें इतिहास-भूगोल-अर्थशास्त्र सब याद आने लगा है। जब भाजपा कहती थी कि "आस्था का मामला न्यायालय तय नहीं कर सकती" तो ये लोग जमकर कुकड़ूं-कूं किया करते थे, अब पलटी मारकर खुद ही कह रहे हैं कि "आस्था का मामला हाईकोर्ट ने कैसे तय किया? यही राम जन्मभूमि है, अदालत ने कैसे माना?"…
अब उन्हें कौन समझाये कि हिन्दुओं ने तो कभी नहीं पूछा कि यरुशलम में ईसा का जन्म हुआ था या नहीं? ईसाईयों ने कहा, हमने मान लिया… हिन्दुओं ने तो कभी नहीं पूछा कि कश्मीर की हजरत बल दरगाह में रखा हुआ "बाल का टुकड़ा" क्या सचमुच किसी पैगम्बर का है… मुस्लिमों ने कहा तो हमने मान लिया। अब जब करोड़ों हिन्दू मानते हैं कि यही राम जन्मभूमि है तो बाकी लोग क्यों नहीं मानते? इसलिये नहीं मानते, क्योंकि हिन्दुओं के बीच सेकुलर जयचन्दों और विभीषणों की भरमार है… इनमें से कोई वोट-बैंक के लिये, कोई खाड़ी से आने वाले पैसों के लिये तो कोई लाल रंग के विदेशियों की पुस्तकों से "प्रभावित"(?) होकर अपना काम करते हैं, इन लोगों को भारतीय संस्कृति, भारतीय आध्यात्मिक चरित्रों और परम्परागत मान्यताओं से न कोई लगाव है और न कोई लेना-देना।
अब आते हैं इस फ़ैसले पर - जो व्यक्ति कानून का जानकार नहीं है, वह भी कह रहा है कि "बड़ा अजीब फ़ैसला है", एक आम आदमी भी समझ रहा है कि यह फ़ैसला नहीं है बल्कि बन्दरबाँट टाइप का समझौता है, क्योंकि जब यह मान लिया गया है कि वह स्थान राम जन्मभूमि है तो फ़िर ज़मीन का एक-तिहाई टुकड़ा मस्जिद बनाने के लिये देने की कोई तुक ही नहीं है। तर्क दिया जा रहा है कि वहाँ 300 साल तक मस्जिद थी और नमाज़ पढ़ी जा रही थी… इसलिये उस स्थान पर मुस्लिमों का हक है। यह तर्क इसलिये बोदा और नाकारा है क्योंकि वह मस्जिद ही अपने-आप में अवैध थी… अब वामपंथी बुद्धिजीवी पूछेंगे कि मस्जिद अवैध कैसे? इसका जवाब यह है कि बाबर तो अफ़गानिस्तान से आया हुआ एक लुटेरा था, उसने अपनी सेना के बल पर अयोध्या में जबरन कब्जा किया और वहाँ जो कुछ भी मन्दिरनुमा ढाँचा था, उसे तोड़कर मस्जिद बना ली… ऐसे में एक लुटेरे द्वारा जबरन कब्जा करके बनाई गई मस्जिद वैध कैसे हो सकती है? उसे वहाँ मस्जिद बनाने की अनुमति किसने दी?
कुछ तर्कशास्त्री कहते हैं कि वहाँ कोई मन्दिर नहीं था, चलो थोड़ी देर को मान लेते हैं कि मन्दिर नहीं था… लेकिन कुछ तो था… और कुछ नहीं तो खाली मैदान तो होगा ही… तब बाहर से आये हुए एक आक्रांता द्वारा अतिक्रमण करके स्थानीय राजा को जबरन मारपीटकर बनाई गई मस्जिद वैध कैसे हो गई? यानी जब शुरुआत ही गलत है तो वहाँ नमाज़ पढ़ने वाले किस आधार पर 300 साल नमाज पढ़ते रहे? अफ़गानिस्तान के गुंडों की फ़ौज द्वारा डकैती डाली हुई "खाली ज़मीन" (मान लो कि मन्दिर नहीं था) पर बनी मस्जिद में नमाज़ कैसे पढ़ी जा सकती है?
इसे दूसरे तरीके से एक काल्पनिक उदाहरण द्वारा समझते हैं - यदि अजमल कसाब ताज होटल पर हमला करता और किसी कारणवश या कमजोरीवश भारत के लोग अजमल कसाब को ताज होटल से हटा नहीं पाते, कसाब ताज होटल की छत पर चादर बिछाकर नमाज़ पढ़ने लगता, उसके दो-चार साथी भी वहाँ लगातार नमाज़ पढ़ते जाते… इस बीच 300 साल गुज़र जाते… तो क्या हमें ताज होटल का एक तिहाई हिस्सा मस्जिद बनाने के लिये दे देना चाहिये? सिर्फ़ इसलिये कि उस जगह पर कसाब और उसके वंशजों ने नमाज़ पढ़ी थी? मैं समझने को उत्सुक हूं कि आखिर बाबर और कसाब में क्या अन्तर है?
मूल सवाल यही है कि आखिर सन 1528 से पहले अयोध्या में उस जगह पर क्या था? क्या बाबर को अयोध्या के स्थानीय निवासियों ने आमंत्रण दिया था कि "आओ, हमें मारो-पीटो, एक मस्जिद बनाओ और हमें उपकृत करो…"? बाबर ने जो किया जबरन किया, किसी तत्कालीन राजा ने उसे मस्जिद बनाने के लिये ज़मीन आबंटित नहीं की थी, बाबर ने जो किया अवैध किया तो मस्जिद वैध कैसे मानी जाये? एक आक्रान्ता की निशानी को भारत के देशभक्त मुसलमान क्यों अपने सीने से चिपकाये घूम रहे हैं? हाईकोर्ट का निर्णय आने के बाद सबसे अधिक सदभावनापूर्ण बात तो यह होगी कि भारत के मुस्लिम खुद आगे आकर कहें कि हमें इस तथाकथित मस्जिद से कोई लगाव नहीं है और न ही हम ऐसी बलात कब्जाई हुई जगह पर नमाज़ पढ़ना चाहते हैं, अतः हिन्दुओं की भावनाओं की खातिर जो एक तिहाई हिस्सा कोर्ट ने दिया है हम उसका भी त्याग करते हैं और हिन्दू इस जगह पर भव्य राम मन्दिर का निर्माण करें, सभी मुस्लिम भाई इसमें सहयोग करेंगे… यह सबसे बेहतरीन हल है इस समस्या का, बशर्ते मुसलमानों को, सेकुलर और वामपंथी बुद्धिजीवी ऐसी कोई पहल करने दें और कोई ज़हर ना घोलें। ऐसी पहल शिया नेता कल्बे जव्वाद की शिया यूथ विंग "हुसैनी टाइगर" द्वारा की जा चुकी है, ज़ाहिर है कि कल्बे जव्वाद, "सेकुलर बुद्धिजीवियों" और "वामपंथी इतिहासकारों" के मुकाबले अधिक समझदार हैं…
परन्तु ऐसा होगा नहीं, मुलायम-लालू-चिदम्बरम सहित बुरका दत्त, प्रणव रॉय, टाइम्स समूह जैसे तमाम सेकुलरिज़्म के पैरोकार अब मुसलमानों की भावनाओं को कभी सीधे, तो कभी अप्रत्यक्ष तौर पर भड़कायेंगे, इसकी शुरुआत भी फ़ैसले के अगले दिन से ही शुरु हो चुकी है। उधर पाकिस्तान में भी "मुस्लिम ब्रदरहुड" नामक अवधारणा(?) हिलोरें मारने लगी है (यहाँ देखें…) और उन्हें हमेशा की तरह इस निर्णय में भी "इस्लाम पर खतरा" नज़र आने लगा है, मतलब उधर से भी इस ठण्डी पड़ती आग में घी अवश्य डाला जायेगा… और डालें भी क्यों नहीं, जब इधर के मुसलमान भी "कश्मीर में मारे जा रहे मुसलमानों और उन पर हो रहे अत्याचारों"(?) के समर्थन में एक बैठक करने जा रहे हैं (यहाँ देखिये…)। क्या यह सिर्फ़ एक संयोग है कि भारत से अलग होने की माँग करने वाले अब्दुल गनी लोन ने भी उसी सुर में सुर मिलाते हुए कहा है कि "अयोघ्या का फ़ैसला मुसलमानों के साथ धोखा है…" (ठीक यही सुर मुलायम सिंह का भी है)… क्या इसका मतलब अलग से समझाना पड़ेगा?
अब चिदम्बरम जी कह रहे हैं कि बाबरी ढाँचा तोड़ना असंवैधानिक था और उसके दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा…। क्या हो गया है चिदम्बरम जी आपको? यदि कोई गुण्डा मेरे घर में घुस कर बरामदे में अपना पूजास्थल बना लेता है तो उसे तोड़ने का मुझे कोई हक नहीं है? चिदम्बरम जी के "कांग्रेसी तर्क" को अपना लिया जाये, तो क्यों न शक्ति स्थल के पास ही मुशर्रफ़ मस्जिद, याह्या खां मस्जिद बनाई जाये, या फ़िर नेहरु के शांतिवन के पास चाऊ-एन-लाई मेमोरियल बनाया जाये, ये लोग भी तो भारत पर चढ़ दौड़े थे, आक्रांता थे…
अब फ़ैसला तो वामपंथी और सेकुलरों को करना है कि वे किसके साथ हैं? भारत की संस्कृति के साथ या बाहर से आये हुए एक आक्रान्ता की "तथाकथित मस्जिद" के साथ?
अक्सर ऐसा होता है कि मीडिया जिस मुद्दे को लेकर भचर-भचर करता है उसमें हिन्दुत्व और हिन्दुओं का नुकसान ही होता है, क्योंकि उनकी मंशा ही ऐसी होती है… परन्तु इस बार इस मामले का सकारात्मक पक्ष यह रहा कि मीडिया द्वारा फ़ैलाये गये रायते, जबरन पैदा किये गये डर और मूर्खतापूर्ण हाइप की वजह से 1992 के बाद पैदा हुई नई पीढ़ी को इस मामले की पूरी जानकारी हो गई… हमें भी अपने नौनिहालों और टी-एजर्स को यह बताने में आसानी हुई कि बाबर कौन था? कहाँ से आया था? उसने क्या किया था? इतने साल से हिन्दू एक मन्दिर के लिये क्यों लड़ रहे हैं, जबकि कश्मीर में सैकड़ों मन्दिर इस दौरान तोड़े जा चुके हैं… आदि-आदि। ऐसे कई राजनैतिक-धार्मिक सवाल और कई मुद्दे जो हम अपने बच्चों को ठीक से समझा नहीं सकते थे, मीडिया और उसकी "कथित निष्पक्ष रिपोर्टिंग"(?) ने उन 17-18 साल के बच्चों को "समझा" दिये हैं। कश्मीरी पण्डितों की दुर्गति जानने के बाद, अब उन्हें अच्छी तरह से यह भी "समझ" में आ गया है कि भारत के मीडिया को कांग्रेस और मुस्लिमों का "दलाल" क्यों कहा जाता है। जैसे-जैसे आज की पीढ़ी इंटरनेट पर समय बिताएगी, ऑरकुट-फ़ेसबुक-मेल पर बतियाएगी और पढ़ेगी… खुद ही इन लोगों से सवाल करेगी कि आखिर इतने साल तक इस मुद्दे को किसने लटकाया? वे कौन से गिरे हुए बुद्धिजीवी हैं और किस प्रकार के घटिया इतिहासकार हैं, जो बाबर (या मीर बाकी) की बनाई हुई मस्जिद को "पवित्र" मानते रहे हैं…। नई पीढ़ी ये भी सवाल करेगी कि आखिर वे किस प्रकार के "धर्मनिरपेक्ष" अफ़सर और लेखक थे जिन्होंने राम और रामसेतु को काल्पनिक, तथा रामायण को एक नॉवेल बताया था…ये सभी लोग बामियान (अफ़गानिस्तान) में सादर आमंत्रित हैं…
अब देखना है कि भारत के मुसलमान इस अवैध मस्जिद को कब तक सीने से चिपकाये रखते हैं? पाकिस्तान, देवबन्द और उलेमा बोर्ड के भड़काने से कितने भड़कते हैं? अपने आपको सेकुलर कहने वाले मुलायम और वामपंथी लोगों के बहकावे में आते हैं या नहीं? दोहरी चालें चलने वाली कांग्रेस मामले को और लम्बा घसीटने के लिये कितने षडयन्त्र करती है? जो एक तिहाई हिस्सा उन्हें खामख्वाह मिल गया है क्या उसे सदभावना के तहत हिन्दुओं को सौंपते हैं? सब कुछ भविष्य के गर्भ में है… फ़िलहाल तो हिन्दू इस फ़ैसले से अंशतः नाखुश होते हुए भी इसे मानने को तैयार है… (भाजपा ने भी कहा कि विवादित परिसर से दूर एक विशाल मस्जिद बनाने में वह सहयोग कर सकती है), लेकिन कुछ "बुद्धिजीवी"(?) मुस्लिमों को भड़काने के अपने नापाक इरादों में लगे हुए हैं… अयोध्या फ़ैसले के बाद ये बुद्धिजीवी सदमे और सन्निपात की हालत में हैं और बड़बड़ा रहे हैं…। कहा नहीं जा सकता कि आगे क्या होगा, लेकिन अब गेंद मुसलमानों के पाले में है…। अभी समय है कि वे जमीन के उस एक-तिहाई हिस्से को हिन्दुओं को सौंप दें, ताकि मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो सके…। कहीं ऐसा न हो कि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बाद वह एक तिहाई हिस्सा भी उनके हाथ से निकल जाये…
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