पश्चिम बंगाल का सारधा चिटफंड घोटाला :- लूट, राजनीति, और आतंक
का तालमेल
कभी-कभी ऐसा संयोग होता है कि एक साथ
दो घटनाएँ अथवा दुर्घटनाएँ होती हैं और उनका आपस में सम्बन्ध भी निकल आता है, जो
उस समय से पहले कभी उजागर नहीं हुआ होता. पश्चिम बंगाल में सारधा चिटफंड घोटाला
तथा बर्दवान बम विस्फोट ऐसी ही दो घटनाएँ हैं. ऊपर से देखने पर किसी अल्प-जागरूक
व्यक्ति को इन दोनों मामलों में कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देगा, परन्तु जिस तरह से
नित नए खुलासे हो रहे हैं तथा ममता बनर्जी जिस प्रकार बेचैन दिखाई देने लगी हैं
उससे साफ़ ज़ाहिर हो रहा है कि वामपंथियों के कालखंड से चली आ रही बांग्लादेशी वोट
बैंक की घातक नीति, पश्चिम बंगाल के गरीबों को गरीब बनाए रखने की नीति ने राज्य की
जनता और देश की सुरक्षा को एक गहरे संकट में डाल दिया है.
जब तृणमूल काँग्रेस के गिरफ्तार सांसद
कुणाल घोष ने जेल में नींद की गोलियाँ खाकर आत्महत्या करने की कोशिश की तथा उधर
उड़ीसा में बीजू जनता दल के सांसद हंसदा को सीबीआई ने गिरफ्तार किया, तब जाकर आम
जनता को पता चला कि सारधा चिटफंड घोटाला ऊपर से जितना छोटा या सरल दिखाई देता है
उतना है नहीं. इस घोटाले की जड़ें पश्चिम बंगाल से शुरू होकर पड़ोसी उड़ीसा, असम और
ठेठ बांग्लादेश तक गई हैं. आरंभिक जांच में पता चला है कि सारधा समूह ने अपने
फर्जी नेटवर्क से 279 कम्पनियाँ खोल रखी थीं, ताकि पूरे प्रदेश से गरीबों के
खून-पसीने की गाढ़ी कमाई को चूसकर उन्हें लूटा जा सके. सीबीआई का प्रारम्भिक अनुमान
2500 करोड़ के
घोटाले का है, लेकिन जब जाँच बांग्लादेश तक पहुँचेगी तब पता चलेगा कि वास्तव में
बांग्लादेश के इस्लामिक बैंकों में कितना पैसा जमा हुआ है और कितना हेराफेरी कर
दिया गया है. इस कंपनी की विशालता का अंदाज़ा इसी बात से लग जाता है कि गरीबों से
पैसा एकत्रित करने के लिए इनके तीन लाख एजेंट नियुक्त थे. जिस तेजी से इसमें
तृणमूल काँग्रेस के छोटे-बड़े नेताओं के नाम सामने आ रहे हैं, उसे देखते हुए इसके
राजनैतिक परिणाम-दुष्परिणाम भी कई लोगों को भोगने पड़ेंगे.
सारधा चिटफंड स्कीम को अंगरेजी में
“पोंजी” स्कीम कहा जाता है. यह नाम अमेरिका के धोखेबाज व्यापारी चार्ल्स पोंजी के
नाम पर पड़ा, क्योंकि सन 1920 में उसी ने इस प्रकार की चिटफंड योजना का आरम्भ किया था,
जिसमें वह निवेशकों से वादा करता था कि पैंतालीस दिनों में उनके पैसों पर 50% रिटर्न
मिलेगा और नब्बे दिनों में उन्हें 100% रिटर्न मिलेगा. भोलेभाले और बेवकूफ
किस्म के लोग इस चाल में अक्सर फँस जाते थे क्योंकि शुरुआत में वह उन्हें नियत समय
पर पैसा लौटाता भी था. ठीक यही स्कीम भारत में चल रही सैकड़ों चिटफंड कम्पनियाँ भी
अपना रही हैं. बंगाल का सारधा समूह भी इन्हीं में से एक है. ये कम्पनियाँ पुराने
निवेशकों को योजनानुसार ही पैसा देती हैं, जबकि नए निवेशकों को बौंड अथवा पॉलिसी
बेचकर उन्हें लंबे समय तक बेवकूफ बनाए रखती हैं. जाँच एजेंसियों ने पाया है कि
सारधा समूह ने प्राप्त पैसों को लाभ वाले क्षेत्रों अथवा शेयर मार्केट अथवा फिक्स
डिपॉजिट में न रखते हुए, जानबूझकर ऐसी फर्जी अथवा घाटे वाली मीडिया कंपनियों में
लगाया जहाँ से उसके डूबने का खतरा हो. फिर इन्हीं कंपनियों को घाटे में दिखाकर
सारा पैसा धीरे-धीरे बांग्लादेश की बैंकों में विस्थापित कर दिया गया. NIA तथा
गंभीर आर्थिक मामलों की जाँच एजेंसी SFIO ने केन्द्र सरकार से कहा है कि चूंकि
पश्चिम बंगाल पुलिस उनका समुचित सहयोग नहीं कर रही है, इसलिए कम से कम तीन प्रमुख
मीडिया कंपनियों सारधा प्रिंटिंग एंड पब्लिकेशंस प्रा.लि., बंगाल मीडिया प्रा.लि.
तथा ग्लोबल ऑटोमोबाइल प्रा.लि. के सभी खातों, लेन-देन तथा गतिविधियों की जाँच
सीबीआई द्वारा गहराई से की जाए. SFIO ने अपनी जाँच में पाया कि सारधा समूह
का अध्यक्ष सुदीप्तो सेन (जो फिलहाल जेल में है) 160 कंपनियों में निदेशक था, जबकि उसका
बेटा सुभोजित सेन 64 कंपनियों में निदेशक के पद पर था.
सीबीआई को अपनी जाँच में पता चला है
कि भद्र पुरुष जैसा दिखाई देने वाला और ख़ासा भाषण देने वाला सुदीप्तो सेन वास्तव
में एक पुराना नक्सली है. सुदीप्तो सेन का असली नाम शंकरादित्य सेन था. नक्सली
गतिविधियों में संलिप्त होने तथा पुलिस से बचने के चक्कर में 1990 में इसने
अपनी प्लास्टिक सर्जरी करवाई और नया नाम सुदीप्तो सेन रख लिया. बांग्ला भाषा पर
अच्छी पकड़ रखने तथा नक्सली रहने के दौरान अपने संबंधों व संपर्कों तथा गरीबों की
मानसिकता समझने के गुर की वजह से इसने दक्षिण कोलकाता में 2000 लोगों को
जोड़ते हुए इस पोंजी स्कीम की शुरुआत की. सुदीप्तो सेन की ही तरह सारधा समूह की
विशेष निदेशक देबजानी मुखर्जी भी बेहद चतुर लेकिन संदिग्ध महिला है. इस औरत को
सारधा समूह के चेक पर हस्ताक्षर करने की शक्ति हासिल थी. देबजानी मुखर्जी पहले एक
एयर होस्टेस थी, लेकिन 2010 में नौकरी छोड़कर उसने सारधा समूह में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी
आरम्भ की, और सभी को आश्चर्य में डालते हुए, देखते ही देखते पूरे समूह की
एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर बन बैठी. सारधा समूह की तरफ से कई राजनैतिक पार्टियों को
नियमित रूप से चन्दा दिया जाता था. कहने की जरूरत नहीं कि सर्वाधिक चन्दा प्राप्त
करने वालों में तृणमूल काँग्रेस के सांसद ही थे. खुद कुणाल घोष प्रतिमाह 26,000 डॉलर की
तनख्वाह प्रतिमाह पाते थे. इसी प्रकार सृंजय बोस नामक सांसद महोदय सारधा समूह की
मीडिया कंपनियों में सीधा दखल रखते थे. इनके अलावा मदन मित्रा नामक सांसद इसी समूह
में युनियन लीडर बने रहे और इसी समूह में गरीब मजदूरों का पैसा लगाने के लिए
उकसाते और प्रेरित करते रहे. ममता बनर्जी की “अदभुत एवं
अवर्णनीय” कही जाने वाली पेंटिंग्स को भी सुदीप्तो सेन ने ही अठारह करोड़
में खरीदा था. बदले में ममता ने आदेश जारी करके राज्य की सभी सरकारी लायब्रेरीयों
में सारधा समूह से निकलने वाले सभी अखबारों एवं पत्रिकाओं को खरीदना अनिवार्य कर
दिया था. सूची अभी खत्म नहीं हुई है, सारधा समूह ने वफादारी दिखाते हुए राज्य के
कपड़ा मंत्री श्यामपद मुखर्जी की बीमारू सीमेंट कंपनी को खरीदकर उसे फायदे में ला
दिया. ऐसा नहीं कि वामपंथी दूध के धुले हों, उनके कार्यकाल में भी सारधा समूह ने
वित्त मंत्री के विशेष सहायक गणेश डे को आर्थिक “मदद”(?) दी थी. सारधा समूह ने पश्चिम बंगाल से बाहर अपने पैर कैसे
पसारे?? असम स्वास्थ्य एवं शिक्षा मंत्री हिमंता बिस्वा सरमा को सारधा की पोंजी
स्कीम से लगभग पच्चीस करोड़ रूपए का भुगतान हुआ. असम से पूर्व काँग्रेसी मंत्री
मातंग सिंह की पत्नी श्रीमती मनोरंजना सिंह को बीस करोड़ के शेयर मिले, जबकि उनके
पिता केएन गुप्ता को तीस करोड़ रूपए के शेयर मिले जिसे बेचकर उन्होंने सारधा के ही
एक टीवी चैनल को खरीदा. जाँच अधिकारियों के अनुसार जब जाँच पूरी होगी, तो संभवतः
धन के लेन-देन का यह आँकड़ा दोगुना भी हो सकता है. सभी विश्लेषक मानते हैं कि
गरीबों के पैसों पर यह लूट बिना राजनैतिक संरक्षण के संभव ही नहीं थी, इसलिए
काँग्रेस-वामपंथी और खासकर तृणमूल काँग्रेस के सभी राजनेता इस बात को जानते थे,
लेकिन चूँकि सभी की जेब भरी जा रही थी, इसलिए कोई कुछ नहीं बोल रहा था.
ये तो हुई घोटाले, उसकी कड़ियाँ एवं
विधि के बारे में जानकारी, पाठकगण सोच रहे होंगे कि इस लूट और भ्रष्टाचार का
इस्लामी आतंक और बम विस्फोटों से क्या सम्बन्ध?? असल में हुआ यूँ कि इस घोटाले की
जाँच काफी पहले शुरू हुई जिसे SFIO नामक एजेंसी चला रही थी. लेकिन बंगाल
में बर्दवान जिले के खाग्रागढ़ नामक स्थान पर एक मोहल्ले में अब्दुल करीम और उसकी
साथी जेहादी महिलाओं के हाथ से कोई गलती हुई और बम का निर्माण करते हुए जबरदस्त
धमाका हो गया. हालाँकि पश्चिम बंगाल की वफादार पुलिस ने इसे “मामूली” धमाका बताते हुए छिपाने की पूरी कोशिश की, अपनी
तरफ से जितनी देर हो सकती थी वह भी की. लेकिन विस्फोट के आसपास के रहवासियों ने
समझ लिया था कि यह विस्फोट कोई सामान्य गैस टंकी का विस्फोट नहीं है. ज़ाहिर है कि
इसकी जाँच पहले सीबीआई ने और फिर जल्दी ही NIA ने अपने हाथ में ले ली. अब SFIO घोटाले की तथा NIA विस्फोट की जाँच के रास्ते पर चल
निकले. उन्हें क्या पता था कि दोनों के रास्ते जल्दी ही आपस में मिलने वाले हैं.
राष्ट्रीय
सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल, जो कि भूतपूर्व जासूस और कमांडो रह चुके हैं, खुद
उन्होंने विस्फोट के घटनास्थल का दौरा किया और एजेंसी तुरंत ही ताड़ गई कि मामला
बहुत गंभीर है. इस बीच सितम्बर 2014 में आनंदबाजार पत्रिका ने लगातार अपनी रिपोर्टों
में तृणमूल सांसद अहमद हसन इमरान के बारे में लेख छापे. सांसद इमरान पहले ही
स्वीकार कर चुका है कि वह प्रतिबंधित संगठन “सिमी” का संस्थापक सदस्य है और बांग्लादेश
में प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी से उसके सम्बन्ध हैं. सारधा घोटाले तथा बर्दवान
विस्फोटों के बारे में जाँच की भनक लगते ही बांग्लादेश की सरकार भी सक्रिय हो गई
और उन्होंने पाया कि ढाका स्थिति इस्लामिक बैंक के तार भी इस समूह से जुड़े हुए
हैं. यहाँ भी ममता बनर्जी ने अपनी टांग अडाने का मौका नहीं छोड़ा, और उन्होंने
बांग्लादेश के डिप्टी हाई कमिश्नर को विरोध प्रकट करने तथा प्रोटोकॉल तोड़ने के
आरोप में हाजिर होने का फरमान सुना दिया. बांग्लादेश के विदेश मंत्री अब्दुल हसन
महमूद और डोवाल के बीच हुई चर्चा के बाद उन्होंने अपनी जाँच को और मजबूत किया तब
पता चला कि सारधा समूह का सारा पैसा ढाका
की इस्लामिक बैंक में ट्रांसफर किया जा रहा था. जाँच में इस बैंक के तार अल-कायदा
से भी जुड़े हुए पाए गए हैं. बांग्लादेश सरकार पहले ही भारत सरकार से भी ज्यादा
कठोर होकर कथित जेहादियों पर टूट पड़ी है, पिछले दो साल में बांग्लादेश में इनकी
कमर टूट चुकी है, इसलिए इन संगठनों के कई मोहरे सीमा पार कर कोलकाता, मुर्शिदाबाद,
बर्दवान, नदिया आदि जिलों में घुसपैठ कर चुके हैं. यह सूचनाएँ पाने के बाद भारत की
ख़ुफ़िया एजेंसी RAW भी इसमें कूद पड़ी है. प्रवर्तन निदेशालय और बांग्ला जाँच
एजेंसियों के तालमेल से पता चला है कि इस इस्लामिक बैंक के कई “विशिष्ट कारपोरेट ग्राहक” बेहद संदिग्ध हैं, जिन्हें यह बैंक “कारपोरेट ज़कात” के रूप में मोटी रकम चुकाता रहा है.
भारतीय जाँच एजेंसियों ने धन के इस प्रवाह पर निगाह रखने के लिए अब दुबई और सऊदी
अरब तक अपना जाल फैला दिया है. “RAW” के अधिकारियों के मुताबिक़ इस इस्लामिक बैंक के डायरेक्टरों में
से कम से कम दो लोग ऐसे हैं, जिनकी पृष्ठभूमि आतंकी संगठन “अल-बद्र” से जुड़ती है. जबकि इधर कोलकाता सहित
पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और असम के बेचारे लाखों गरीब और निम्न वर्ग के लोग, अपनी
बीस-पच्चीस-पचास हजार रूपए की गाढ़ी कमाई की रकम के लिए धक्के खा रहे हैं.
अब
हम वापस आते हैं, सारधा पर. ममता बनर्जी के खास आदमी माने जाने वाले पूर्व सिमी
कार्यकर्ता और तृणमूल से राज्यसभा सांसद हसन इमरान ने “कलाम” नामक उर्दू अखबार
शुरू किया, जिसे “अचानक” सारधा समूह ने खरीद
लिया. प्रवर्तन निदेशालय की जाँच से स्पष्ट हुआ कि बांग्लादेश की जमाते-इस्लामी के
जरिये इमरान सारधा समूह का पैसा खाड़ी देशों में हवाला के जरिये पहुंचाता था, इसके
बदले में बैंक और इमरान को मोटी राशि कमीशन के रूप में मिलती थी, जिससे वे बम
विस्फोट के आरोपियों को मकान दिलवाने एवं उनकी मदद करने आदि में खर्च करते थे.
चूँकि इमरान खुद सिमी का संस्थापक सदस्य रहा और 1974 से
1984 तक लगातार जुड़ा भी
रहा, इसलिए उसके संपर्क काफी थे और कार्यशैली से वह वाकिफ था. ख़ुफ़िया जाँच
एजेंसियों को कोलकाता में एक रहस्यमयी मकान 19,
दरगाह रोड भी मिला. इस मकान में ही “सिमी” का दफ्तर भी खोला
गया, फिर इसी पते पर सारधा घोटाले की चिटफंड कंपनी का दफ्तर भी खोला गया, फिर इसी
पते पर सारधा समूह के दो-दो अखबारों का रजिस्ट्रेशन भी करवाया गया, जिन्हें बाद
में सुदीप्तो सेन ने इमरान से खरीद लिया. अखबार बेचने के बावजूद हसन इमरान ही
कागजों पर दोनों उर्दू अखबारों का मालिक बना रहा. इन्हीं अखबारों के सम्पादकीय और
संपर्कों के जरिये इमरान ने अबूधाबी में इस्लामिक डेवलपमेंट बैंक के अधिकारियों से
मधुर सम्बन्ध बनाए थे. बांग्लादेश के जमात नेता मामुल आज़म से भी इमरान के मधुर
सम्बन्ध रहे, और वह बांग्लादेश में एक-दो बार उनके यहाँ भी आया था. अब SFIO तथा NIA
मिलजुलकर सारधा घोटाले तथा बर्दवान बम विस्फोटों की गहन जाँच में जुटी हुई है और
उन्हें विश्वास है कि इन दोनों की लिंक्स और कड़ियाँ जो फिलहाल बिखरी हुई हैं,
बांग्लादेश और असम तक फ़ैली हुई हैं सब आपस में जुड़ेंगी और जल्दी ही वे इसका
पर्दाफ़ाश कर देंगे, कि किस तरह तृणमूल के कुछ सांसद, सुदीप्तो सेन, अब्दुल करीम
तथा हसन इमरान सब आपस में गुंथे हुए हैं और इनका सम्बन्ध बांग्लादेश की प्रतिबंधित
जमात-ए-इस्लामी और आतंक के नेटवर्क से जुड़ा हुआ है.
बहरहाल, ये तो हुई एक “ईमानदार दीदी” की कथा, अब आते हैं एक और “ईमानदार सभ्य बाबू” उर्फ नवीन पटनायक के राज्य उड़ीसा
में. अप्रैल-मई में इस मामले के सामने आने के बाद से लगातार सीबीआई सारधा घोटाले
की जाँच में जुटी हुई है और हाल ही में एजेंसी ने बीजद के सांसद रामचंद्र हंसदा और
दो विधायकों को इस सिलसिले में गिरफ्तार कर लिया है. उड़ीसा में ये सांसद महोदय “अर्थ-तत्त्व” नामक समूह चलाते थे, जिसकी कार्यशैली बिलकुल सारधा के पोंजी
स्कीम की तरह है. जहाँ सारधा वालों ने रियलिटी, मीडिया जैसे कई क्षेत्रों में 200 से अधिक कम्पनियाँ बनाईं, उसी प्रकार
“अर्थ-तत्त्व” ने 44 कम्पनियाँ खड़ी कर रखी हैं. जिसमें जाँच एजेंसियों को भूलभुलैया
की तरह घुमाए जाने की योजना थी, लेकिन पश्चिम बंगाल से सबक लेते हुए सांसद महोदय
को गिरफ्तार कर लिया. जाँच एजेंसियों के हाथ में आई अब तक की सबसे बड़ी मछली है
उड़ीसा के एडवोकेट जनरल अशोक मोहंती साहब, जिन्होंने अर्थ-तत्त्व के मुखिया प्रदीप सेठी
के साठ मिलकर एक बेहद रहस्यमयी जमीन सौदा किया और ताक में लगी एजेंसियों की पकड़
में आ गए. सीबीआई का मानना है कि सारधा और अर्थ-तत्त्व दोनों आपस में अंदर ही अंदर
कहीं मिले हुए हैं और दोनों का सम्मिलित घोटाला दस हजार करोड़ से भी अधिक हो सकता
है. उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल और उड़ीसा दोनों ही राज्यों में गरीबों की संख्या
बहुत अधिक है. इसलिए वे बेचारे अनपढ़ लोग जब किसी संस्था के साथ सांसद और अपने
नेताओं को जुड़ा हुआ देखते हैं तो विश्वास कर लेते हैं, यही हुआ भी और लाखों लोगों
को अभी तक करोड़ों रूपए की चपत लग चुकी है. वे अपनी मैली-कुचैली पास बुक लेकर
दस-बीस हजार रूपए के लिए दर-दर भटक रहे हैं, लेकिन न तो ममता बनर्जी और ना ही नवीन
पटनायक उनकी बात सुनने को तैयार हैं. सिर्फ जाँच का आश्वासन दिया जा रहा है, जो कि
केन्द्रीय एजेंसियाँ कर रही हैं.
एडवोकेट
जनरल मोहंती साहब फरमाते हैं कि कटक के मिलेनियम सिटी इलाके में उन्होंने एक करोड़
एक लाख का जो मकान खरीदा है वह उनकी कमाई है. जबकि जाँच में पता चला है कि यह मकान
प्रदीप सेठी ने “कानूनी मदद” के रूप में मोहंती साहब को “गिफ्ट” किया हुआ है. विशेष सीबीआई कोर्ट भी
मोहंती साहब से सहमत नहीं हुई और उन्हें दो बार न्यायिक हिरासत में भेज चुकी है.
इसी से पता चलता है कि तीनों ही राज्यों (बंगाल, असम, उड़ीसा) में कितने ऊँचे स्तर
पर यह खेल चल रहा था, और यह सभी को पता था. सारधा के विशाल फ्राड नेटवर्क की ही एक
और कंपनी है उड़ीसा की ग्रीन रे इंटरनेशनल लिमिटेड. इसका मुख्यालय बालासोर में है
और यह कम्पनी उड़ीसा के गरीबों से दस-दस, पचास-पचास रूपए रोज़ाना वसूल कर नाईजेरिया
में खनन का कारोबार खड़ा कर रही थी. इस कम्पनी के कर्ताधर्ता मीर सहीरुद्दीन ने
दुबई में दफ्तर भी खोल लिया था, लेकिन वहाँ भी अपनी कलाकारी दिखाने के चक्कर में
फिलहाल नाईजीरिया सरकार ने इनका पासपोर्ट जब्त कर रखा है और ये साहब वहाँ पर
सरकारी मेहमान हैं.
नवीन
पटनायक साहब, जो अपने चेहरे-मोहरे से बड़े भोले और सभ्य दिखाई देते हैं, वे वास्तव
में इतने सीधे नहीं हैं. ममता बनर्जी की ही तरह पटनायक साहब ने भी NIA तथा SFIO की जाँच में अड़ंगे लगाने के भरपूर
प्रयास किए और जाँच को धीमा अथवा बाधित किया. सीबीआई द्वारा तमाम सबूत दिए जाने के
बावजूद उड़ीसा विधानसभा के स्पीकर महीनों तक दोनों बीजद विधायकों और मंत्रियों से
पूछताछ का आदेश देने में टालमटोल करते रहे. इसीलिए सीबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने
नाम न छापने की शर्त पर कहा कि इस घोटाले की व्यापकता तथा इसमें आतंकवाद और
अंडरवर्ल्ड तथा तीन-तीन राज्यों के बड़े-बड़े नेताओं के फँसे होने के कारण सीबीआई
एवं दूसरी जाँच एजेंसियों पर भारी दबाव है कि जाँच की गति धीमी करें. राज्य पुलिस
एवं स्थानीय CID से कोई विशेष मदद नहीं मिल रही है, इसलिए जाँच में मुश्किल भी
आ रही है, जबकि इधर दिल्ली में नरेंद्र मोदी और अमित शाह लगातार जाँच अधिकारियों
पर जल्दी जाँच करने का दबाव बनाए हुए हैं. अप्रैल में यह मामला उजागर हुआ, 9 मई 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की
जाँच सीबीआई को सौंपने तथा इस पर निगरानी हेतु सरकार से कहा (इस दिनाँक तक बाजी UPA के हाथ से निकल चुकी थी) और तत्परता
दिखाते हुए 4 जून 2014 को ही सीबीआई ने 47 एफआईआर रजिस्टर कर दी थीं. ताज़ा खबर
यह है कि तृणमूल काँग्रेस के एक और सांसद को सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया है और
शिकंजा कसता जा रहा है.
बंगाल-उड़ीसा
और असम के लाखों गरीब लोगों का पैसा वापस मिलने की उम्मीद तो अब बहुत ही कम बची
है, लेकिन कम से कम लुटेरों और ठगों को उचित सजा और लंबी कैद वगैरह मिल जाए तो
उतना ही बहुत है. देखते हैं कि केन्द्र सरकार आगे इस मामले को कितनी गहराई से
खोदती है. लेकिन फिलहाल ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और तरुण गोगोई को ठीक से नींद
नहीं आ रही होगी, यह निश्चित है.
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सुरेश चिपलूनकर, उज्जैन
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