नरेन्द्र मोदी "प्रवृत्ति" का उदभव एवं विकास… (भाग-3)
जैसा कि हमने पिछले भागों में देखा, “सेकुलरिज़्म” और “मुस्लिम वोट बैंक प्रेम” के नाम पर शाहबानो, रूबिया सईद और मस्त गुल जैसे तीन बड़े-बड़े घाव 1984 से 1996 के बीच विभिन्न सरकारों ने भारत की जनता (विशेषकर हिन्दुओं) के दिल पर दिए।
(पिछला भाग पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें… http://blog.sureshchiplunkar.com/2012/10/rise-of-narendra-modi-phenomenon-part-2.html
नरसिंहराव की सरकार ने (कभी भाजपा के समर्थन से, तो कभी झारखण्ड के सांसदों को खरीदकर) जैसे-तैसे अपना कार्यकाल पूरा किया, लेकिन आर्थिक सुधारों को देश की जनता नहीं पचा पाई, जिस वजह से नरसिंहराव बेहद अलोकप्रिय हो गए थे। साथ ही इस बीच अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी और शरद पवार द्वारा अपने-अपने कारणों से विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियाँ बनाने से कांग्रेस और कमजोर हो गई थी। मुस्लिम और दलित वोटों के सहारे सत्ता की चाभी की सुगंध मिलने और किसी को भी पूर्ण बहुमत न मिलता देखकर गठबंधन सरकारों के इस दौर में एक तीसरे मोर्चे का जन्म हुआ, जिसमें मुलायम सिंह, चन्द्रबाबू नायडू, जनता दल और वामपंथी शामिल थे।
1996 के आम चुनावों में जनता ने कांग्रेस को पूरी तरह ठुकरा दिया था, लेकिन पूर्ण बहुमत किसी को भी नहीं दिया था, भाजपा 161 सीटें लेकर पहले नम्बर पर रही, जबकि कांग्रेस को 140 और नेशनल फ़्रण्ट को 79 सीटें मिलीं। जनता दल, वामपंथ और कांग्रेस के भारी “सेकुलर” विरोध के बीच ब्रिटेन की वेस्टमिंस्टर पद्धति का पालन करते हुए राष्ट्रपति शर्मा ने वाजपेयी जी को सरकार बनाने का न्यौता दिया और उनसे 2 सप्ताह में संसद में अपना बहुमत साबित करने को कहा। परन्तु “सेकुलरिज़्म” के नाम पर जिस “गिरोह” की बात मैंने पहले कही, वह 1996 से ही शुरु हुई। 13 दिनों तक सतत प्रयासों, चर्चाओं के बावजूद वाजपेयी अन्य पार्टियों को यह समझाने में विफ़ल रहे कि जनता ने कांग्रेस के खिलाफ़ जनमत दिया है, इसलिए हमें (यानी भाजपा और नेशनल फ़्रण्ट को) आपस में मिलजुलकर काम करना चाहिए, ताकि कांग्रेस की सत्ता में वापसी न हो सके।
भाजपा और अटल जी “भलमनसाहत” के इस मुगालते में रहे कि जब भाजपा ने 1989 में वीपी सिंह को समर्थन दिया है, और देशहित में नरसिंहराव की सरकार को भी गिरने नहीं दिया, तो संभवतः कांग्रेस विरोध के नाम पर अन्य क्षेत्रीय पार्टियाँ अटल सरकार बनवाने पर राजी हो जाएं, फ़िर साथ में अटलबिहारी वाजपेयी की स्वच्छ छवि भी थी। परन्तु मुस्लिम वोटरों के भय तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से की जाने वाले “घृणा” ने इस देश पर एक बार पुनः अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस का ही शासन थोप दिया। अर्थात 13 दिन के बाद वाजपेयी जी ने संसद में स्वीकार किया कि वे अपने समर्थन में 200 से अधिक सांसद नहीं जुटा पाए हैं इसलिए बगैर वोटिंग के ही उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया। इस तरह “सेकुलरिज़्म” के नाम पर एक गिरोह बनाकर तथा जनता द्वारा कांग्रेस को नकारने के बावजूद देश की पहली भाजपा सरकार की भ्रूण-हत्या मिलजुलकर की गई। इस “सेक्यूलर गिरोहबाजी” ने हिन्दू वोटरों के मन में एक और कड़वाहट भर दी। उसने अपने-आपको छला हुआ महसूस किया, और अंततः देवेगौड़ा के रूप में कांग्रेस का अप्रत्यक्ष शासन और टूटी-फ़ूटी, लंगड़ी सरकार देश के पल्ले पड़ी, जिसे कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया हुआ था।
ऐसा नहीं कि कांग्रेस के बाहरी समर्थन का अर्थ नेशनल फ़्रण्ट वाले नहीं जानते थे, परन्तु सत्ता के मोह तथा “मुस्लिम वोटों के लालच में भाजपा के कटु विरोध” ने उन्हें इस बात पर मजबूर कर दिया कि वे बाहर से समर्थन दे रही कांग्रेस की चिरौरी और दया पर निर्भर रहें। उन्हें कांग्रेस के हाथों जलील होना मंजूर था, लेकिन भाजपा का साथ देकर गैर-कांग्रेसी सरकार बनाना मंजूर नहीं था। इस कथित नेशनल फ़्रण्ट का पाखण्ड तो पहले दिन से ही इसलिए उजागर हो गया था, क्योंकि इसमें शामिल अधिकांश दल अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ़ ही चुनाव लड़कर व जीतकर आए थे, चाहे वे मुलायम हों, लालू हों, नायडू हों या करुणानिधि हों… इनमें से (मुलायम को छोड़कर) किसी की भी भाजपा से कहीं भी सीधी टक्कर या दुश्मनी नहीं थी। लेकिन फ़िर भी प्रत्येक दल की निगाह इस देश के 16% मुसलमान वोटरों पर थी, जिसके लिए वे भाजपा को खलनायक के रूप में पेश करने में कोई कोताही नहीं बरतना चाहते थे।
देवेगौड़ा के नेतृत्व में चल रही इस “भानुमति के सेकुलर कुनबेनुमा” सरकार के आपसी अन्तर्विरोध ही इतने अधिक थे कि कांग्रेस को यह सरकार गिराने के लिए कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ी और सिर्फ़ 18 माह में देवेगौड़ा की विदाई तय हो गई। कांग्रेस ने देवेगौड़ा पर उनसे “महत्वपूर्ण मामलों में सलाह न लेने” और “कांग्रेस को दरकिनार करने” का आरोप लगाते हुए, देवेगौड़ा को बाहर का दरवाजा दिखा दिया। चूंकि सेकुलरिज़्म के नाम पर बनी इस नकारात्मक यूनाइटेड फ़्रण्ट में “आत्मसम्मान” नाम की कोई चीज़ तो थी नहीं, इसलिए उन्होंने देवेगौड़ा के अपमान को कतई महत्व न देते हुए, आईके गुजराल नामक एक और गैर-जनाधारी नेता को प्रधानमंत्री बनाकर सरकार को कुछ और समय के लिए घसीट लिया। इस बीच भाजपा ने अपना जनाधार मजबूत बनाए रखा, तथा विभिन्न राज्यों में गाहे-बगाहे उसकी सरकारें बनती रहीं। एक नौकरशाह आईके गुजराल की सरकार भी कांग्रेस की दया पर ही थी, सो कांग्रेस उनकी सरकार के नीचे से आसन खींचने के लिए सही समय का इंतज़ार कर रही थी।
वास्तव में इन क्षेत्रीय दलों को भाजपा की बढ़ती शक्ति का भय सता रहा था। वे देख रहे थे कि किस तरह 1984 में 2 सीटों पर सिमट चुकी पार्टी सिर्फ़ 12-13 साल में ही 160 तक पहुँच गई थी, इसलिए उन्हें अपने मान-सम्मान से ज्यादा, भाजपा को किसी भी तरह सत्ता में आने से रोकना और मुसलमानों को खुश करना जरूरी लगा। विडम्बना यह थी कि लगभग इसी नेशनल फ़्रण्ट की वीपी सिंह सरकार को भाजपा ने कांग्रेस विरोध के नाम पर अपना समर्थन दिया था, ताकि कांग्रेस सत्ता से बाहर रहे… लेकिन जब 1996 में भाजपा की 160 सीटें आ गईं तब इन्हीं क्षेत्रीय दलों ने (जो आए दिन गैर-कांग्रेसवाद का नारा बुलन्द करते थे) अपना “गिरोह” बनाकर भाजपा को “अछूत” की श्रेणी में डाल दिया और उसी कांग्रेस के साथ हो लिए, जिसके खिलाफ़ जनमत साफ़ दिखाई दे रहा था…। ऐसे में जिन हिन्दुओं ने भाजपा की सरकार बनने की चाहत में अपना वोट दिया था, उसने इस “सेकुलर गिरोहबाजी” को देखकर अपने मन में एक कड़वी गाँठ बाँध ली…
आईके गुजराल सरकार को न तो लम्बे समय तक चलना था और न ही वह चली। चूंकि
कांग्रेस का इतिहास रहा है कि वह गठबंधन सरकारों को अधिक समय तक बाहर से टिकाए
नहीं रख सकती, इसलिए गुजराल को गिराने का बहाना ढूँढा जा रहा था। हालांकि गुजराल
एक नौकरशाह होने के नाते कांग्रेस से मधुर सम्बन्ध बनाए रखे थे, लेकिन उनकी सरकार
में मौजूद अन्य दल उन्हें गाहे-बगाहे ब्लैकमेल करते रहते थे। ऐसा ही एक मौका आया
जब चारा घोटाले में सीबीआई ने लालू के खिलाफ़ मुकदमा चलाने की अनुमति माँगते हुए
बिहार के राज्यपाल किदवई के सामने आवेदन दे दिया। गुजराल ने इस प्रस्ताव को हरी
झण्डी दे दी, बस फ़िर क्या था लालू की कुर्सी छिन गई और वह बुरी तरह बिफ़र गए…। लालू
ने जनता दल को तोड़कर अपना राष्ट्रीय जनता दल बना लिया, लेकिन फ़िर भी वे सत्ता से
चिपके ही रहे और गुजराल सरकार को समर्थन देते रहे (ज़ाहिर है कि “सेकुलरिज़्म” के नाम पर…)। परन्तु लालू का
दबाव सरकार पर बना रहा और गुजराल साहब को सीबीआई के निदेशक जोगिन्दर सिंह का
तबादला करना ही पड़ा। इस सारी “सेकुलर नौटंकी” को हिन्दू वोटर लगातार ध्यान से देख रहा था।
11 माह बाद आखिर वह मौका भी आया
जब कांग्रेस को लगा कि यह सरकार गिरा देना चाहिए। एक आयोग द्वारा DMK के मंत्रियों को, राजीव गाँधी की हत्या में दोषी LTTE से सम्बन्ध रखने की टिप्पणी की
थी। बस इसको लेकर कांग्रेस ने बवाल खड़ा कर दिया, सरकार में से “राजीव गाँधी के हत्यारों से
सम्बन्ध रखने वाले” DMK को हटाने की माँग को लेकर कांग्रेस ने गुजराल सरकार
गिरा दी। बेशर्मी की इंतेहा यह है कि इसी “लिट्टे समर्थक” DMK के साथ यूपीए-1 और
यूपीए-2 सरकार चलाने तथा ए राजा के साथ मिल-बाँटकर 2G लूट खाने में कांग्रेस को जरा भी हिचक महसूस नहीं हुई,
परन्तु जैसा कि हमेशा से होता आया है, बुद्धिजीवियों द्वारा “नैतिकता” और “राजनैतिक शुचिता” के सम्बन्ध में सारे के सारे
उपदेश और नसीहतें हमेशा सिर्फ़ भाजपा को ही दी जाती रही हैं, जबकि कांग्रेस-DMK का साथ “सेकुलरिज़्म” नामक थोथी अवधारणा पर टिका रहा… किसी ने कोई सवाल नहीं
उठाया।
बहरहाल,
देवेगौड़ा और उसके बाद गुजराल सरकार भी गिरी और कांग्रेस की सत्ता लालसा में देश को
1998 में पुनः आम चुनाव में झोंका गया। 1998 तक भाजपा का “कोर हिन्दू वोटर” न सिर्फ़ उसके साथ बना रहा,
बल्कि उसमें निरन्तर धीमी प्रगति ही होती रही। 1998 के चुनावों में भी हिन्दू
वोटरों ने पुनः अपनी ताकत दिखाई और भाजपा को 182 सीटों पर ले गए, जबकि कांग्रेस
सिर्फ़ 144 सीटों पर सिमट गई। चूंकि कांग्रेस की गद्दारी और सत्ता-पिपासा क्षेत्रीय
दल देख चुके थे और 182 सीटें जीतने के बाद उनके सामने कोई और विकल्प था भी नहीं…
इसलिए अंततः “सेकुलरिज़्म” की परिभाषा में सुविधाजनक
फ़ेरबदल करते हुए “NDA” का जन्म हुआ। (क्षेत्रीय दलों को आडवाणी के नाम पर सबसे
अधिक आपत्ति थी, वे वाजपेयी के नाम पर सहमत होने को तैयार हुए… शायद यही रवैया
आडवाणी की राजनीति को बदलने वाला, अर्थात जिन्ना की मजार पर जाने जैसे कदम उठाने
का कारण बना…) हालांकि “कोर हिन्दू वोटर” ने अपना वोट आडवाणी की रथयात्रा
और उनकी साफ़ छवि एवं कट्टर हिन्दुत्व को देखते हुए उन्हीं के नाम पर दिया था,
लेकिन ऐन मौके पर क्षेत्रीय दलों की मदद से अटलबिहारी वाजपेयी ने पुनः देश की कमान
संभाली, जिससे हिन्दू वोटर एक बार फ़िर ठगा गया…। इन क्षेत्रीय दलों को जो भी
प्रमुख पार्टी सत्ता के नज़दीक दिखती है उसे वे सेक्यूलर ही मान लेते हैं, ऐसा ही
हुआ, और 13 महीने तक अटल जी की सरकार निर्बाध चली।
13 महीने के बाद देश, भाजपा और हिन्दू वोटरों ने एक
बार फ़िर से क्षेत्रीय दलों के स्थानीय हितों और देश की प्रमुख समस्याओं के प्रति
उदासीनता के साथ-साथ “सेकुलरिज़्म” का घृणित स्वरूप देखा। हुआ यह
कि, केन्द्र की वाजपेयी सरकार को समर्थन दे रहीं जयललिता को किसी भी सूरत में
तमिलनाडु की सत्ता चाहिए थी, वह लगातार वाजपेयी पर तमिलनाडु की DMK सरकार को बर्खास्त करने का दबाव बनाती रहीं, लेकिन
देश के संघीय ढाँचे का सम्मान करते हुए तथा धारा 356 के उपयोग के खिलाफ़ होने की
वजह से वाजपेयी ने जयललिता को समझाने की बहुत कोशिश की, कि DMK सरकार को बर्खास्त करना उचित नहीं होगा, लेकिन जयललिता को
देश से ज्यादा तमिलनाडु की राजनीति की चिंता थी, सो वे अड़ी रहीं…। अंततः 13 माह
पश्चात जयललिता के सब्र का बाँध टूट गया और उन्होंने अपनी क्षेत्रीय महत्वाकांक्षा
पर वाजपेयी सरकार की बलि लेने का फ़ैसला कर ही लिया…
वाजपेयी सरकार ने प्रमोद महाजन की “हिकमत” और चालबाजी तथा क्षेत्रीय दलों
की सत्ता-लोलुपता के सहारे संसद में बहुमत जुटाने का कांग्रेसी खेल खेलने का फ़ैसला
किया, लेकिन सारी कोशिशों के बावजूद “सिर्फ़ 1 वोट” से सरकार गिर गई। संसद में वोटिंग के दौरान सभी दलों की
साँसे संसद के अन्दर ऊपर-नीचे हो रही थीं, जबकि संसद के बाहर पूरा देश साँस रोककर
देख रहा था कि वाजपेयी सरकार बचती है या नहीं। क्योंकि भले ही हिन्दू वोटर आडवाणी
को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे, लेकिन “हालात से समझौता” करने के बाद उनकी भावनाएं वाजपेयी सरकार से भी जुड़ चुकी
थीं। वास्तव में विश्वास प्रस्ताव के खिलाफ़ दो वोट विवादास्पद थे, जहाँ वाजपेयी
सरकार अपनी चालबाजी नहीं दिखा सकी। पहला वोट वह था, जिस वोट से सरकार गिरी, वह भी
एक “सेकुलर” वोट ही था, जिसे नेशनल
कांफ़्रेंस के सैफ़ुद्दीन सोज़ ने सरकार के खिलाफ़ डाला था। इस पहले सेकुलर वोट की
कहानी भी बड़ी “मजेदार”(?) है… हुआ यूँ कि नेशनल
कांफ़्रेंस ने विश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वोट देने का फ़ैसला किया था, जिसकी वजह
से वाजपेयी सरकार उस तरफ़ से निश्चिंत थी। लेकिन अन्तिम समय पर सैफ़ुद्दीन सोज़ के
भीतर का “सेकुलर राक्षस” जाग उठा और पिछले 13 महीने से
जो वाजपेयी सरकार “साम्प्रदायिक” नहीं थी, वह उन्हें अचानक “साम्प्रदायिक” नज़र आने लगी। सैफ़ुद्दीन सोज़ ने
वीपी सिंह को लन्दन में फ़ोन लगाया, जहाँ वह “डायलिसिस” की सुविधा ग्रहण कर रहे थे। जी हाँ, वही “राजा हरिश्चन्द्र छाप” वीपी सिंह, जिन्हें भाजपा से
समर्थन लेकर दो साल तक अपनी सरकार चलाने में जरा भी शर्म या झिझक महसूस नहीं हुई
थी, उन्होंने सैफ़ुद्दीन सोज़ को “कूटनीतिक सलाह” दे मारी, कि अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर वोटिंग करो… और
अंतरात्मा की आवाज़ तो ज़ाहिर है कि “सेकुलरिज़्म का राक्षस” जाग उठने के बाद भाजपा के खिलाफ़ हो ही गई थी… तो सैफ़ुद्दीन
सोज़ ने अपनी पार्टी लाइन तोड़ते हुए वाजपेयी सरकार के खिलाफ़ वोट दे दिया, जिससे
सरकार गिरी।
दूसरा सेकुलर वोट था, उड़ीसा के तत्कालीन मुख्यमंत्री
गिरधर गमांग का, “मुख्यमंत्री” और लोकसभा में??? जी हाँ, जब
एक-एक वोट के लिए मारामारी मची हो तब व्हील चेयर पर बैठे हुए सांसदों तक को उठाकर
संसद में लाया गया था, ऐसे में भला कांग्रेस कैसे पीछे रहती? एक तकनीकी बिन्दु को
मुद्दा बनाया गया कि, “चूंकि गिरधर गमांग भले ही उड़ीसा के मुख्यमंत्री हों, लेकिन
उन्होंने इस बीच संसद की सदस्यता से इस्तीफ़ा नहीं दिया है, इसलिए तकनीकी रूप से वह
लोकसभा के सदस्य हैं, और इसलिए वह यहाँ वोट दे सकते हैं…”, जबकि नैतिकता यह कहती थी कि
गमांग पहले मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देकर ही वोट डाल सकते थे, लेकिन “नैतिकता” और कांग्रेस का हमेशा ही छत्तीस
का आँकड़ा रहा है, इसलिए इस कानूनी नुक्ते का सहारा लेकर गिरधर गमांग ने भी सरकार
के खिलाफ़ वोट डाला। ऐसी विकट परिस्थिति में लोकसभा अध्यक्ष की भूमिका हमेशा बहुत
महत्वपूर्ण होती है, उस समय लोकसभा अध्यक्ष थे तेलुगू देसम के श्री जीएमसी
बालयोगी, जो कि संसद की चालबाजियों, कानूनी दाँवपेंचों से दूर एक आदर्शवादी युवा
सांसद थे। इसलिए उन्होंने न तो सैफ़ुद्दीन सोज़ को पार्टी व्हिप का उल्लंघन करके वोट
डालने पर उनका वोट खारिज किया, और न ही गिरधर गमांग का वोट इस कमजोर तकनीकी बिन्दु
के आधार पर खारिज किया… बालयोगी ने दोनों ही सांसदों के वोटों को मान्यता प्रदान
कर दी, इसलिए कहा जा सकता है कि जयललिता द्वारा समर्थन वापस लेने के बावजूद, 13
माह तक चली इस वाजपेयी सरकार के “सिर्फ़ एक वोट” से गिर जाने के पीछे सैफ़ुद्दीन सोज़ (यानी वीपी सिंह की
सलाह) और गिरधर गमांग (मुख्यमंत्री भी, सांसद भी) का हाथ रहा…
इस तरह एक बार फ़िर से हिन्दू वोटरों की यह इच्छा कि
इस देश में कोई गैर-कांग्रेसी सरकार अपना एक कार्यकाल पूरा करे, “सेकुलरिज़्म” के नाम पर धरी की धरी रह गई। संसद
में विश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान हिन्दू वोटरों ने “सेकुलरिज़्म” के नाम पर क्षेत्रीय दलों
द्वारा की जा रही “नौटंकी” और “दोगलेपन” को साफ़-साफ़ देखा (ध्यान दीजिए,
कि यह सारी घटनाएं नरेन्द्र मोदी के प्रादुर्भाव से पहले की हैं… यानी तब भी
संघ-भाजपा-भगवा के प्रति इनके मन में घृणा भरी हुई थी)। हिन्दू वोटरों ने महसूस किया कि कभी अपनी सुविधानुसार,
कभी सत्ता के गणित के अनुसार तो कभी पूरी बेशर्मी से जब मन चाहे तब भाजपा को वे
कभी साम्प्रदायिक तो कभी सेकुलर मानते रहते थे। अपनी परिभाषा बदलते रहते थे… “सेकुलरिज़्म” के इस विद्रूप प्रदर्शन को हमने बाद के वर्षों
में भी देखा, जब नेशनल कांफ़्रेंस, तृणमूल कांग्रेस, जनता दल जैसे कई “मेँढक” कभी भाजपा के साथ तो कभी
कांग्रेस के साथ सत्ता का मजा चखते रहे। जब वे भाजपा के साथ होते तब वे कांग्रेस
की निगाह में “साम्प्रदायिक” होते थे, लेकिन जैसे ही वे
कांग्रेस के साथ होते थे, तो अचानक “सेकुलर” बन जाते थे। यह घटियापन सिर्फ़ पार्टियों तक ही सीमित नहीं
रहा, व्यक्तियों तक चला गया, और हमने देखा कि किस तरह संजय निरुपम कांग्रेस में
आते ही “सेकुलर” बन गए, और छगन भुजबल NCP में आते ही “सेकुलरिज़्म” के पुरोधा बन गए…। हिन्दू वोटर अपने मन में यह सारी कड़वाहट
पीता जा रहा था, और अन्दर ही अन्दर सेकुलरिज़्म के इस दोगले रवैये के खिलाफ़ कट्टर
बनता जा रहा था…
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अगले भाग में हम 1999 के चुनाव से आगे बात करेंगे…
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