इस तरह सोनिया के दोनो हाथों मे लड्डू हो गये हैं, एक जेब में प्रधानमन्त्री और दूसरी में राष्ट्रपति । इन्दिरा गाँधी ने भी जैल सिंह को इसीलिये राष्ट्रपति बनवाया था क्योंकि वे सार्वजनिक तौर पर कह चुके थे कि "मुझे मैडम की चप्पलें उठाने में भी कोई शर्म नहीं है"...। कलाम साहब तो उसी दिन से सबको खटकने लगे थे, जब उन्होंने "लाभ के पद" वाले मुद्दे पर सरकार को "डंडा" कर दिया था, हालांकि उन्होंने भी अफ़जल की फ़ाँसी रोककर अपनी गोटियाँ चलने की कोशिश की थी, लेकिन उनका गैर राजनैतिक होना आडे़ आ गया । प्रतिभा पाटिल का नाम अचानक नहीं आया लगता, क्योंकि हमारे यहाँ सत्ता प्रतिष्ठान हमेशा ऐसा राष्ट्रपति पसन्द करता है जो "यस मैन" हो, इसलिये प्रणब मुखर्जी की सम्भावना तो वैसे ही कम हो गई थी (फ़िर महारानी को यह भी याद था कि उनके पति को प्रधानमन्त्री बनाने का विरोध प्रणब बाबू ने किया था), अर्जुनसिंह तो अति-राजनीति का शिकार हो गये लगते हैं और काँग्रेस को अभी आरक्षण की फ़सल काटना बाकी है, इसलिये शायद उनका नाम आगे नहीं बढाया गया.
(यदि अर्जुनसिंह खडे होते तो शेखावत की जीत पक्की हो जाती, क्योंकि अर्जुनसिंह के कांग्रेस में ही इतने दुश्मन हैं कि वे पार्टी लाईन से हटकर शेखावत को वोट देते), शिवराज पाटिल को वामपंथियों ने समर्थन नहीं दिया, क्योंकि वे मोदी को "वाजिब डंडा" करने में असफ़ल रहे । कर्ण सिंह "सॉफ़्ट हिन्दुत्ववादी" (?) माने जाते हैं इसलिये कट गये, सिर्फ़ रहस्य है कि सुशील कुमार शिन्दे का नाम क्यों कटा, जबकि वे तो दलित भी हैं और मायावती से सोनिया पींगें बढा़ चुकी हैं । शायद महारानी को प्रतिभा पाटिल का नाम इसलिये आगे बढाना पडा़ ताकि "राजस्थान की बहू" होने के नाते शेखावत के वोट काटे जा सकें (हकीकत तो यही है कि यूपीए भैरोंसिंह शेखावत के पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए आतंकित है), खैर जो भी हो अब देखना यही है कि महिला आरक्षण के नाम पर नौटंकी करने वाले सारे दल क्या-क्या खेल खेलते हैं, कुछ अनहोनी नहीं हुई तो पहली महिला राष्ट्रपति (या पत्नी ?) बनना तय है ।