भाषा, उच्चारण और वर्णमाला (भाग-१)

Written by मंगलवार, 02 अक्टूबर 2007 13:30

Phonetics, Language, Alphabets in Hindi

अक्सर हमारे मन में सवाल उठते हैं कि आखिर “भाषा” का उद्‌भव कैसे हुआ? वर्णमाला कैसे बनी?, उच्चार क्रिया क्या है? क, ख, ग, घ के बाद ङ ही क्यों आता है, ण क्यों नहीं आता?

किसी भी भाषा का विकास एक सतत प्रक्रिया है, मानव जीवन के हजारों वर्षों के इतिहास में कई बोलियाँ आईं-गईं, कई लिपियाँ बनीं-मिटीं, कई भाषाओं का उत्थान-पतन हुआ, कुछ लुप्त हो गईं या होने की कगार पर हैं। इस सारी प्रक्रिया में हमारे पूर्वजों, उनके पूर्वजों, साधु-महात्माओं, विद्वानों आदि सभी नें भाषा और उच्चारण क्रिया में कुछ ना कुछ शोध करके उसे आगे, और आगे बढाने का महती कार्य किया है।

उच्चार क्रिया और वर्णमाला के अध्ययन हेतु विभिन्न साईटों के भ्रमण के दौरान, और मराठी ब्लॉग जगत तथा विभिन्न फ़ोरमों से जुड़े होने के कारण विचार आया कि इस रोचक सामग्री को एकत्रित किया जाये। कुछ और “फ़ोनेटिक उच्चार” सम्बन्धी अंग्रेजी साईटों के कुछ हिस्से का अनुवाद भी है। हिन्दी के पाठकों को भी इसका पूरा रसास्वादन मिलना चाहिये, इसलिये इन विस्तृत लेखों और विभिन्न जगह पर बिखरी सामग्री का अनुवाद करने की कोशिश कर रहा हूँ, विषय भी अत्यंत रोचक है। विद्वानों द्वारा प्रस्तुत जानकारी भी गहराई लिये हुए और विषद्‌ अध्ययन से भरपूर है। इस लेखमाला का संकलन, संपादन और अनुवाद करना एक मुश्किल और मेहनत भरा काम रहा। प्रस्तुत है इस लेखमाला का पहला भाग, जिसमें वर्णमाला, भाषा, उच्चारण आदि के बारे में प्रारम्भिक लेकिन वैज्ञानिक जानकारी दी गई है।

बहुत वर्षों पहले किसी ने मुझसे पूछा था कि “भाषा सीखते समय संस्कृत का क्या फ़ायदा होता है?” मैंने भी एक सर्वसाधारण सा जवाब दिया कि “संस्कृत में सभी प्रकार के उच्चार होने के कारण व्यक्ति की जीभ वह चाहे जैसे घुमा-फ़िरा सकता है, इसलिये अन्य भाषाओं के कैसे भी उच्चार करना उसके लिये आसान होता है”, मजे की बात यह कि यह जवाब सामने वाले व्यक्ति को उचित भी लगा और वह संतुष्ट हो गया, लेकिन जब असल में भाषाशास्त्र का अध्ययन प्रारम्भ किया तब पता चला कि मुझे कितनी बड़ी गलतफ़हमी थी। हम सभी को यह गलतफ़हमी आमतौर पर होती है कि “हम अक्षरों को ही उच्चार समझते हैं”। जैसे कि हमें अंग्रेजी सिखाते समय बताया जाता है कि इसमें पाँच स्वर हैं – a, e, i, o, u, लेकिन ये तो सिर्फ़ अक्षर हैं, उच्चार पद्धति से देखा जाये तो अंग्रेजी में ५-१० नहीं बल्कि २० स्वर हैं। इसका मतलब यह कि हम जो अक्षर लिखते हैं और उनका उच्चारण, इसमें काफ़ी अन्तर होता है।

इस प्रकार यह गलतफ़हमी हमें दूर कर लेनी चाहिये कि संस्कृत भाषा में सभी उच्चार हैं, किसी भी भाषा में दुनिया के सभी उच्चार नहीं होते हैं, न ही हो सकते हैं। उदाहरण के तौर पर अंग्रेजी में “भ” नहीं है और संस्कृत में “ऍ” नहीं है, और ऐसे भी कई उच्चार हैं जो इन दोनों भाषाओं में नहीं हैं। संक्षेप में कहा जाये तो अन्य भाषाओं की तरह ही संस्कृत भी मानव निर्मित ही है और उसकी भी कुछ सीमायें हैं। हर शिक्षित व्यक्ति के लिये यह ज्ञान भी शिक्षा जैसा ही महत्वपूर्ण है, यानी मातृभाषा का ज्ञान, हिन्दी वर्णमाला का ज्ञान। इस लेखमाला में वर्णमाला के स्वर-व्यंजन, उनके निर्माण के नियम, शब्दों की रचना के सूत्र, ध्वनि विज्ञान की भारतीय अवधारणा आदि से लेकर शब्द ब्रह्म तक की विवेचना होगी। यही सब तो है जिन पर हमारा जीवनक्रम आधारित है। इसी लेखमाला से हमारी भाषा की वैज्ञानिकता भी सिद्ध होगी। पाठकों के लिये हिन्दी एक रुचिकर भाषा बन जायेगी। मुझे खुशी होगी यदि इन लेखों से एक प्रतिशत पाठक भी भाषा शक्ति का अनुभव कर सकें, अपने उच्चारण और लेखन में शुद्धता ला सकें, तब भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा भी हो सकेगी।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि भाषा में भी अनेक प्रकार की मजेदार बातें हैं, और उन्हें पहचान कर प्राचीन काल के अध्ययनकर्ताओं ने उसका एक स्वतंत्र तर्कसंगत शास्त्र या विज्ञान बनाया, जिसे उच्चारशास्त्र (Phonetic Science) या भाषा विज्ञान कहते हैं। संस्कृत भाषा को समझने की पहली पायदान के रूप में हैं इस भाषा के विभिन्न उच्चारण और वे जिसके द्वारा एक माला में गुँथे हुए हैं, वह होती है वर्णमाला। अभी स्थिति यह हो रही है कि न तो हम हिन्दी पूरी तरह से सीख पा रहे हैं, ना ही अंग्रेजी। व्यक्ति यह मानने को तैयार नहीं है कि भाषा हमारे व्यक्तित्व का दर्पण होती है। क्या गलत भाषा अथवा शब्दों का प्रयोग करना हमें शोभा देता है? पर्सनालिटी डेवलपमेंट और तथाकथित मैनेजमेंट गुरु सबसे पहले बताते हैं कि सामने वाले पर प्रभाव का सबसे पहला सूत्र है भाषा, चाहे वह हिन्दी हो या अंग्रेजी। जब व्यक्ति भाषा को सही रूप में प्रयोग करता है, सही शब्दों का चुनाव करता है, तब सुनने-पढ़ने वाले पर विशेष प्रभाव पड़ता है। यह इस बात का सूचक भी है कि आप सामने वाले का कितना सम्मान करते हैं। गलत भाषा का अर्थ या तो लापरवाही होता है, या जानबूझकर सामने वाले का अपमान करना होता है, और दोनों ही बातें उचित नहीं हैं।

इसका मतलब है हमें शब्दों के साथ-साथ अर्थों की भी जानकारी होना चाहिये। अर्थ के कारण ही ज्ञान पकड़ में आता है। इसी प्रकार शब्द को समझने के लिये अक्षर या वर्ण को समझने की जरूरत है। आज अनेक शब्दों का गलत प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है, प्रयोग भी इतना कि कई जगह पर गलती भी रूढ़ि बन चुकी है। जैसे एक शब्द है अस्मिता, इसका अर्थ है हठ करना, हम कहने लगे हैं कि यह देश की अस्मिता का प्रश्न है। इस रूप में अस्मिता का अर्थ इज्जत हो गया है, जो कि गलत ही है, लेकिन अब यही प्रचलन में है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है, इसके माध्यम से हम अपने मन की बात करते हैं या लिखकर भेजते हैं। भाषा सही होगी, शब्दों का चुनाव सही होगा तभी हमारी बात दूसरे व्यक्ति को सही-सही समझ में आयेगी। खान-पान और पहनावे के साथ-साथ हम भाषा का स्वरूप भी बदलते रहते हैं, यह और बात है कि आगे चलकर हमें इसे पुनः सही और शुद्ध करना ही पड़ता है, फ़िर शुरु से ही सही भाषा का उपयोग क्यों ना किया जाये? आज भाषा, रुढ़ि में बँधकर वास्तविक अर्थों से दूर होती जा रही है। अर्थ का अनर्थ हो रहा है। शब्द अपने मूल स्वरूप से अलग दिखाई देने लगा है, क्योंकि उसपर कई आवरण चढ़ गये हैं। (भाग-२ में जारी......)

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