पाकिस्तान की शिक्षा प्रणाली, भारत के “नॉस्टैल्जिक” बुद्धिजीवी और “शर्मनिरपेक्षता”… (भाग-3) Pakistan Education System & Indian Secular Intellectuals
Written by Super User शनिवार, 21 मार्च 2009 10:57
(भाग-2 – यहाँ देखें) से आगे जारी… समापन किस्त)
इस लेखमाला का उद्देश्य यही है कि आप और हम भले ही पाकिस्तान द्वारा पढ़ाये जा रहे इस प्रकार के पाठ्यक्रम को पढ़कर या तो हँसें या गुस्से में अपना माथा पीटें, लेकिन सच तो यही है कि पाकिस्तान में 1971 के बाद पैदा हुई पूरी एक-दो पीढ़ियाँ यही पढ़-पढ़कर बड़ी हुई हैं और फ़िर भी हम उम्मीद कर रहे हैं कि पाकिस्तान कभी हमारा दोस्त बन सकता है? जो खतरा साफ़-साफ़ मंडरा रहा है उसे नज़र-अन्दाज़ करना समझदारी नहीं है। सरस्वती शिशु मन्दिरों को पानी पी-पीकर कोसने वाले अपने दिल पर हाथ रखकर कहें कि क्या इतना घृणा फ़ैलाने वाला कोर्स सरस्वती शिशु मन्दिरों में भी बच्चों को पढ़ाया जाता है? देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति पैदा करने वाला कोर्स पढ़ाने और किसी धर्म/देश के खिलाफ़ कोर्स पढ़ाने में मूलभूत अन्तर है, इसे “सेकुलर”(?) लोग नहीं समझ रहे। शिवाजी को “राष्ट्रनायक” बताना कोई जुर्म है क्या? या ऐसा कहीं लिखा है कि पृथ्वीराज चौहान की वीरता गाथायें पढ़ाना भी साम्प्रदायिक है? पाकिस्तान से तुलना की जाये तो हमारे यहाँ पढ़ाये जाने वाला पाठ्यक्रम अभी भी पूरी तरह से सन्तुलित है। हालांकि इसे विकृत करने की कोशिशे भी सतत जारी हैं, और सेकुलरों की असली चिढ़ यही है कि लाख चाहने के बावजूद भाजपा, हिन्दूवादी संगठनों और सरस्वती शिशु मन्दिरों के विशाल नेटवर्क के कारण वे पाठ्यक्रम् को “हरे” या “लाल” रंग से रंगने में सफ़ल नहीं हो पा रहे… हाँ, जब भी भाजपा पाठ्यक्रम में कोई बदलाव करती है तो “शिक्षा का भगवाकरण” के आरोप लगाकर हल्ला मचाना इन्हें बेहतर आता है।
गत 60 साल में से लगभग 50 साल तक ऐसे ही “लाल” इतिहासकारों का सभी मुख्य शैक्षणिक संस्थाओं पर एकतरफ़ा कब्जा रहा है चाहे वह ICHR हो या NCERT। उन्होंने इतिहास पुनर्लेखन के नाम पर तमाम मुस्लिम आक्रांताओं का गौरवगान किया है। लगभग हर जगह भारतीय संस्कृति, प्राचीन भारत की गौरवशाली परम्पराओं, संस्कारों से समृद्ध भारत का उल्लेख या तो जानबूझकर दरकिनार कर दिया गया है या फ़िर अपमानजनक तरीके से किया है (एक लेख यह है)। इनके अनुसार 8वी से लेकर 10वीं शताब्दी में जब से धीरे-धीरे मुस्लिम हमलावर भारत आना शुरु हुए सिर्फ़ तभी से भारत में कला, संस्कृति, वास्तु आदि का प्रादुर्भाव हुआ, वरना उसके पहले यहाँ रहने वाले बेहद जंगली और उद्दण्ड किस्म के लोग थे। इसी प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों के शासनकाल को भी भारतवासियों को “अनुशासित” करने वाला दर्शाया जाता है, लेकिन “लाल” इतिहासकारों का “असली और खरा प्रेम” तो मुस्लिम शासक और उनका शासनकाल ही हैं। सिक्ख गुरुओं द्वारा किये गये संघर्ष को “लाल मुँह वाले” लोग सिर्फ़ एक राजनैतिक संघर्ष बताते हैं। ये महान इतिहासकार कभी भी नहीं बताते कि बाबर से लेकर ज़फ़र के शासनकाल में कितने हिन्दू मन्दिर तोड़े गये? क्यों आज भी कई मस्जिदों की दीवारों में हिन्दू मन्दिरों के अवशेष मिल जाते हैं?
NCERT की सातवीं की पुस्तक “हमारे अतीत – भाग 2” के कुछ नमूने –
1) तीसरा अध्याय, पाठ : दिल्ली के सुल्तान – लगभग 15 पेज तक अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद तुगलक और उनके शासन का गुणगान।
2) चौथा पाठ – 15 पेज तक मुगल सेना तथा बाबर, अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, औरंगज़ेब की ताकत का बखान। फ़िर अकबर की प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन।
3) पाँचवा पाठ – “रूलर्स एण्ड बिल्डिंग्स”, कुतुब मीनार, दिल्ली की जामा मस्जिद, हुमायूं का मकबरा और ताजमहल आदि का बखान।
4) दसवाँ अध्याय – 18वीं सदी का राजनैतिक खाका – ढेर सारे पेजों में नादिरशाह, निजाम आदि का वर्णन, जबकि राजपूत, जाट, मराठा और सिख राजाओं को सिर्फ़ 6 पेज।
कुल मिलाकर मुस्लिम शासकों और उनके बारे में 60-70 पेज हैं, जबकि हिन्दुओं को पहली बार मुगल शासकों की गुलामी से मुक्त करवाकर “छत्रपति” कहलाने वाले शिवाजी महाराज पर हैं कुल 7 पेज। शर्म की बात तो यह है कि विद्वानों को “शिवाजी” का एक फ़ोटो भी नहीं मिला (पुस्तक में तस्वीर की जगह खाली छोड़ी गई है, क्या शिवाजी महाराज यूरोप में पैदा हुए थे?), जबकि बाबर का फ़ोटो मिल गया। इसी पुस्तक में राजपूत राजाओं पर दो पेज हैं जिसमें राजा जयसिंह का उल्लेख है (जिसने मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया था), जबकि घास की रोटी खाकर अकबर से संघर्ष करने वाले महाराणा प्रताप पर सिर्फ़ एक पैराग्राफ़… हिन्दुओं से ऐसी भी क्या नफ़रत!!! इतिहास की पुस्तक में “मस्जिद कैसे बनाई जाती है?” “काबा की दिशा किस तरफ़ है…” आदि बताने की क्या आवश्यकता है? लेकिन जब बड़े-बड़े संस्थानों में बैठे हुए “बुद्धिजीवी”(?), “राम” को काल्पनिक बताने, रामसेतु को तोड़ने के लिये आमादा और भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव को हीरो की बजाय “आतंकवादी” दर्शाने पर उतारू हों तो ऐसा ही होता है।
अक्सर इतिहास की पुस्तकों में बाबर और हुमायूँ को “उदारवादी” मुस्लिम बताया जाता है जिन्होंने “जज़िया” नहीं लगाया और हिन्दुओं को मन्दिर बनाने से नहीं रोका… फ़िर जैसे ही हम अकबर के शासनकाल तक पहुँचते हैं अचानक हमें बताया जाता है कि अकबर इतना महान शासक था कि उसने “जज़िया” की व्यवस्था समाप्त कर दी। ऐसे में सवाल उठता है कि जो जजिया बाबर और हुमायूं ने लगाया ही नहीं था उसे अकबर ने हटा कैसे दिया? “लाल” इतिहासकारों का इतिहास बोध तो इतना उम्दा है कि उन्होंने औरंगज़ेब जैसे क्रूर शासक को भी “धर्मनिरपेक्ष” बताया है… काशी विश्वनाथ मन्दिर तोड़ने को सही साबित करने के लिये एक कहानी भी गढ़ी गई (यहाँ देखें…) फ़िर जब ढेरों मन्दिर तोड़ने की बातें साबित हो गईं, तो कहा गया कि औरंगज़ेब ने जो भी मन्दिर तोड़े वह या तो राजनैतिक उद्देश्यों के लिये थे या फ़िर दोबारा बनवाने के लिये (धर्मनिरपेक्षता मजबूत करने के लिये)… क्या कमाल है “शर्मनिरपेक्षता” का।
ये तो सिर्फ़ एक उदाहरण भर है, अधिकतर पुस्तकों का “टोन” कुछ ऐसा है कि “मुस्लिम शासक” ही असली शासक थे, हिन्दू राजा तो भगोड़े थे… बच्चों के दिमाग में एक “धीमा ज़हर” भरा जा रहा है। “लाल इतिहासकारों” का “अघोषित अभिप्राय” सिर्फ़ यह होता है कि “तुम हिन्दू लोग सिर्फ़ शासन किये जाने योग्य हो तुम कभी शासक नहीं थे, नहीं हो सकते…”। हिन्दुओं के आत्मसम्मान को किस तरह खोखला किया जाये इसका अनुपम उदाहरण हैं इस प्रकार की पुस्तकें… और यही पुस्तकें पढ़-पढ़कर हिन्दुओं का खून इतना ठण्डा हो चुका है कि “वन्देमातरम” का अपमान करने वाला भी कांग्रेस अध्यक्ष बन सकता है, “सरस्वती वन्दना” को साम्प्रदायिक बताने पर भी किसी को कुछ नहीं होता, भारत माता को “डायन” कहने के बावजूद एक व्यक्ति मंत्री बन जाता है, संसद जैसे सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्थान पर हमले के बावजूद अपराधी को फ़ाँसी नहीं दी जा रही…सैकड़ों-सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं, और यह सब हो रहा है “सेकुलरिज़्म” के नाम पर… यह इसी “विकृत मानसिक शिक्षा” की ही देन है कि ऐसे नापाक कामों के समर्थन में उन्हें भारत के ही “हिन्दू बुद्धिजीवी” भी मिल जाते हैं, क्योंकि उनका दिमाग भी या तो “हरे”/“लाल” रंग में रंगा जा चुका है अथवा खाली कर दिया गया है… ऐसा होता है “शिक्षा” का असर…
शिवाजी महाराज का पालन-पोषण जीजामाता ने भगवान राम और कृष्ण की कहानियाँ और वीरता सुनाकर किया था और उन्होंने मुगलों की नाक के नीचे “पहले हिन्दवी स्वराज्य” की स्थापना की थी, लेकिन जिस तरह से आज के नौनिहालों का “ब्रेन वॉश” किया जा रहा है ऐसे में हो सकता है कि आने वाले कुछ सालों के बाद पाठ्यपुस्तकों में ओसामा बिन लादेन, सद्दाम हुसैन, दाऊद इब्राहीम, परवेज़ मुशर्रफ़ की वीरता(?) के किस्से भी प्रकाशित हो सकते हैं और उससे क्या और कैसी प्रेरणा मिलेगी यह सभी को साफ़ दिखाई दे रहा है सिवाय “सेकुलर बुद्धिजीवियों” के…
शिक्षा व्यवस्था को सम्पूर्ण रूप से बदले बिना, (अर्थात भारतीय संस्कृति और देश के बहुसंख्यक, फ़िर भी सहनशील हिन्दुओं के अनुरूप किये बिना) भारतवासियों में आत्मसम्मान, आत्मगौरव की भावना लाना मुश्किल ही नहीं असम्भव है, वरना “हिन्दुत्व” तो खत्म होने की ओर अग्रसर हो चुका है। मेरे जैसे पागल लोग भले ही चिल्लाते रहें लेकिन सच तो यही है कि 200 वर्ष पहले कंधार में मन्दिर होते थे, 100 वर्ष पहले तक लाहौर में भी मन्दिर की घंटियाँ बजती थीं, 50 वर्ष पहले तक श्रीनगर में भी भजन-कीर्तन सुनाई दे जाते थे, अब नेपाल में तो हिन्दुत्व खत्म हो चुका, सिर्फ़ वक्त की बात है कि “धर्मनिरपेक्ष भारत”(?) से हिन्दुत्व 50-100 साल में खत्म हो जायेगा… और इसके लिये सबसे अधिक जिम्मेदार होंगे “कांग्रेस” और “सेकुलर बुद्धिजीवी” जो जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं… लेकिन इन्हें अक्ल तब आयेगी जब कोई बांग्लादेशी इनके दरवाजे पर तलवार लेकर खड़ा होगा और उसे समर्थन देने वाला कोई कांग्रेसी उसके पीछे होगा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
अमूमन एक सवाल किया जाता है कि इस्लामिक देशों में लोकतन्त्र क्यों नहीं पनपता? इसका जवाब भी इसी लेख में निहित है कि “लोकतांत्रिक” होना भी एक जीवन पद्धति है जो हिन्दू धर्म में खुद-ब-खुद मौजूद है, न तो वामपंथी कभी लोकतांत्रिक हो सकते हैं, ना ही इस्लामिक देश। एक तरफ़ पाकिस्तान की शिक्षा व्यवस्था और दूसरी तरफ़ भारत की शिक्षा व्यवस्था, आप खुद ही फ़ैसला कर लीजिये कि हम कहाँ जा रहे हैं और हमारा “भविष्य” क्या होने वाला है…
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इस लेखमाला का उद्देश्य यही है कि आप और हम भले ही पाकिस्तान द्वारा पढ़ाये जा रहे इस प्रकार के पाठ्यक्रम को पढ़कर या तो हँसें या गुस्से में अपना माथा पीटें, लेकिन सच तो यही है कि पाकिस्तान में 1971 के बाद पैदा हुई पूरी एक-दो पीढ़ियाँ यही पढ़-पढ़कर बड़ी हुई हैं और फ़िर भी हम उम्मीद कर रहे हैं कि पाकिस्तान कभी हमारा दोस्त बन सकता है? जो खतरा साफ़-साफ़ मंडरा रहा है उसे नज़र-अन्दाज़ करना समझदारी नहीं है। सरस्वती शिशु मन्दिरों को पानी पी-पीकर कोसने वाले अपने दिल पर हाथ रखकर कहें कि क्या इतना घृणा फ़ैलाने वाला कोर्स सरस्वती शिशु मन्दिरों में भी बच्चों को पढ़ाया जाता है? देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति पैदा करने वाला कोर्स पढ़ाने और किसी धर्म/देश के खिलाफ़ कोर्स पढ़ाने में मूलभूत अन्तर है, इसे “सेकुलर”(?) लोग नहीं समझ रहे। शिवाजी को “राष्ट्रनायक” बताना कोई जुर्म है क्या? या ऐसा कहीं लिखा है कि पृथ्वीराज चौहान की वीरता गाथायें पढ़ाना भी साम्प्रदायिक है? पाकिस्तान से तुलना की जाये तो हमारे यहाँ पढ़ाये जाने वाला पाठ्यक्रम अभी भी पूरी तरह से सन्तुलित है। हालांकि इसे विकृत करने की कोशिशे भी सतत जारी हैं, और सेकुलरों की असली चिढ़ यही है कि लाख चाहने के बावजूद भाजपा, हिन्दूवादी संगठनों और सरस्वती शिशु मन्दिरों के विशाल नेटवर्क के कारण वे पाठ्यक्रम् को “हरे” या “लाल” रंग से रंगने में सफ़ल नहीं हो पा रहे… हाँ, जब भी भाजपा पाठ्यक्रम में कोई बदलाव करती है तो “शिक्षा का भगवाकरण” के आरोप लगाकर हल्ला मचाना इन्हें बेहतर आता है।
गत 60 साल में से लगभग 50 साल तक ऐसे ही “लाल” इतिहासकारों का सभी मुख्य शैक्षणिक संस्थाओं पर एकतरफ़ा कब्जा रहा है चाहे वह ICHR हो या NCERT। उन्होंने इतिहास पुनर्लेखन के नाम पर तमाम मुस्लिम आक्रांताओं का गौरवगान किया है। लगभग हर जगह भारतीय संस्कृति, प्राचीन भारत की गौरवशाली परम्पराओं, संस्कारों से समृद्ध भारत का उल्लेख या तो जानबूझकर दरकिनार कर दिया गया है या फ़िर अपमानजनक तरीके से किया है (एक लेख यह है)। इनके अनुसार 8वी से लेकर 10वीं शताब्दी में जब से धीरे-धीरे मुस्लिम हमलावर भारत आना शुरु हुए सिर्फ़ तभी से भारत में कला, संस्कृति, वास्तु आदि का प्रादुर्भाव हुआ, वरना उसके पहले यहाँ रहने वाले बेहद जंगली और उद्दण्ड किस्म के लोग थे। इसी प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों के शासनकाल को भी भारतवासियों को “अनुशासित” करने वाला दर्शाया जाता है, लेकिन “लाल” इतिहासकारों का “असली और खरा प्रेम” तो मुस्लिम शासक और उनका शासनकाल ही हैं। सिक्ख गुरुओं द्वारा किये गये संघर्ष को “लाल मुँह वाले” लोग सिर्फ़ एक राजनैतिक संघर्ष बताते हैं। ये महान इतिहासकार कभी भी नहीं बताते कि बाबर से लेकर ज़फ़र के शासनकाल में कितने हिन्दू मन्दिर तोड़े गये? क्यों आज भी कई मस्जिदों की दीवारों में हिन्दू मन्दिरों के अवशेष मिल जाते हैं?
NCERT की सातवीं की पुस्तक “हमारे अतीत – भाग 2” के कुछ नमूने –
1) तीसरा अध्याय, पाठ : दिल्ली के सुल्तान – लगभग 15 पेज तक अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद तुगलक और उनके शासन का गुणगान।
2) चौथा पाठ – 15 पेज तक मुगल सेना तथा बाबर, अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, औरंगज़ेब की ताकत का बखान। फ़िर अकबर की प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन।
3) पाँचवा पाठ – “रूलर्स एण्ड बिल्डिंग्स”, कुतुब मीनार, दिल्ली की जामा मस्जिद, हुमायूं का मकबरा और ताजमहल आदि का बखान।
4) दसवाँ अध्याय – 18वीं सदी का राजनैतिक खाका – ढेर सारे पेजों में नादिरशाह, निजाम आदि का वर्णन, जबकि राजपूत, जाट, मराठा और सिख राजाओं को सिर्फ़ 6 पेज।
कुल मिलाकर मुस्लिम शासकों और उनके बारे में 60-70 पेज हैं, जबकि हिन्दुओं को पहली बार मुगल शासकों की गुलामी से मुक्त करवाकर “छत्रपति” कहलाने वाले शिवाजी महाराज पर हैं कुल 7 पेज। शर्म की बात तो यह है कि विद्वानों को “शिवाजी” का एक फ़ोटो भी नहीं मिला (पुस्तक में तस्वीर की जगह खाली छोड़ी गई है, क्या शिवाजी महाराज यूरोप में पैदा हुए थे?), जबकि बाबर का फ़ोटो मिल गया। इसी पुस्तक में राजपूत राजाओं पर दो पेज हैं जिसमें राजा जयसिंह का उल्लेख है (जिसने मुस्लिम धर्म स्वीकार कर लिया था), जबकि घास की रोटी खाकर अकबर से संघर्ष करने वाले महाराणा प्रताप पर सिर्फ़ एक पैराग्राफ़… हिन्दुओं से ऐसी भी क्या नफ़रत!!! इतिहास की पुस्तक में “मस्जिद कैसे बनाई जाती है?” “काबा की दिशा किस तरफ़ है…” आदि बताने की क्या आवश्यकता है? लेकिन जब बड़े-बड़े संस्थानों में बैठे हुए “बुद्धिजीवी”(?), “राम” को काल्पनिक बताने, रामसेतु को तोड़ने के लिये आमादा और भगतसिंह-राजगुरु-सुखदेव को हीरो की बजाय “आतंकवादी” दर्शाने पर उतारू हों तो ऐसा ही होता है।
अक्सर इतिहास की पुस्तकों में बाबर और हुमायूँ को “उदारवादी” मुस्लिम बताया जाता है जिन्होंने “जज़िया” नहीं लगाया और हिन्दुओं को मन्दिर बनाने से नहीं रोका… फ़िर जैसे ही हम अकबर के शासनकाल तक पहुँचते हैं अचानक हमें बताया जाता है कि अकबर इतना महान शासक था कि उसने “जज़िया” की व्यवस्था समाप्त कर दी। ऐसे में सवाल उठता है कि जो जजिया बाबर और हुमायूं ने लगाया ही नहीं था उसे अकबर ने हटा कैसे दिया? “लाल” इतिहासकारों का इतिहास बोध तो इतना उम्दा है कि उन्होंने औरंगज़ेब जैसे क्रूर शासक को भी “धर्मनिरपेक्ष” बताया है… काशी विश्वनाथ मन्दिर तोड़ने को सही साबित करने के लिये एक कहानी भी गढ़ी गई (यहाँ देखें…) फ़िर जब ढेरों मन्दिर तोड़ने की बातें साबित हो गईं, तो कहा गया कि औरंगज़ेब ने जो भी मन्दिर तोड़े वह या तो राजनैतिक उद्देश्यों के लिये थे या फ़िर दोबारा बनवाने के लिये (धर्मनिरपेक्षता मजबूत करने के लिये)… क्या कमाल है “शर्मनिरपेक्षता” का।
ये तो सिर्फ़ एक उदाहरण भर है, अधिकतर पुस्तकों का “टोन” कुछ ऐसा है कि “मुस्लिम शासक” ही असली शासक थे, हिन्दू राजा तो भगोड़े थे… बच्चों के दिमाग में एक “धीमा ज़हर” भरा जा रहा है। “लाल इतिहासकारों” का “अघोषित अभिप्राय” सिर्फ़ यह होता है कि “तुम हिन्दू लोग सिर्फ़ शासन किये जाने योग्य हो तुम कभी शासक नहीं थे, नहीं हो सकते…”। हिन्दुओं के आत्मसम्मान को किस तरह खोखला किया जाये इसका अनुपम उदाहरण हैं इस प्रकार की पुस्तकें… और यही पुस्तकें पढ़-पढ़कर हिन्दुओं का खून इतना ठण्डा हो चुका है कि “वन्देमातरम” का अपमान करने वाला भी कांग्रेस अध्यक्ष बन सकता है, “सरस्वती वन्दना” को साम्प्रदायिक बताने पर भी किसी को कुछ नहीं होता, भारत माता को “डायन” कहने के बावजूद एक व्यक्ति मंत्री बन जाता है, संसद जैसे सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्थान पर हमले के बावजूद अपराधी को फ़ाँसी नहीं दी जा रही…सैकड़ों-सैकड़ों उदाहरण मौजूद हैं, और यह सब हो रहा है “सेकुलरिज़्म” के नाम पर… यह इसी “विकृत मानसिक शिक्षा” की ही देन है कि ऐसे नापाक कामों के समर्थन में उन्हें भारत के ही “हिन्दू बुद्धिजीवी” भी मिल जाते हैं, क्योंकि उनका दिमाग भी या तो “हरे”/“लाल” रंग में रंगा जा चुका है अथवा खाली कर दिया गया है… ऐसा होता है “शिक्षा” का असर…
शिवाजी महाराज का पालन-पोषण जीजामाता ने भगवान राम और कृष्ण की कहानियाँ और वीरता सुनाकर किया था और उन्होंने मुगलों की नाक के नीचे “पहले हिन्दवी स्वराज्य” की स्थापना की थी, लेकिन जिस तरह से आज के नौनिहालों का “ब्रेन वॉश” किया जा रहा है ऐसे में हो सकता है कि आने वाले कुछ सालों के बाद पाठ्यपुस्तकों में ओसामा बिन लादेन, सद्दाम हुसैन, दाऊद इब्राहीम, परवेज़ मुशर्रफ़ की वीरता(?) के किस्से भी प्रकाशित हो सकते हैं और उससे क्या और कैसी प्रेरणा मिलेगी यह सभी को साफ़ दिखाई दे रहा है सिवाय “सेकुलर बुद्धिजीवियों” के…
शिक्षा व्यवस्था को सम्पूर्ण रूप से बदले बिना, (अर्थात भारतीय संस्कृति और देश के बहुसंख्यक, फ़िर भी सहनशील हिन्दुओं के अनुरूप किये बिना) भारतवासियों में आत्मसम्मान, आत्मगौरव की भावना लाना मुश्किल ही नहीं असम्भव है, वरना “हिन्दुत्व” तो खत्म होने की ओर अग्रसर हो चुका है। मेरे जैसे पागल लोग भले ही चिल्लाते रहें लेकिन सच तो यही है कि 200 वर्ष पहले कंधार में मन्दिर होते थे, 100 वर्ष पहले तक लाहौर में भी मन्दिर की घंटियाँ बजती थीं, 50 वर्ष पहले तक श्रीनगर में भी भजन-कीर्तन सुनाई दे जाते थे, अब नेपाल में तो हिन्दुत्व खत्म हो चुका, सिर्फ़ वक्त की बात है कि “धर्मनिरपेक्ष भारत”(?) से हिन्दुत्व 50-100 साल में खत्म हो जायेगा… और इसके लिये सबसे अधिक जिम्मेदार होंगे “कांग्रेस” और “सेकुलर बुद्धिजीवी” जो जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं… लेकिन इन्हें अक्ल तब आयेगी जब कोई बांग्लादेशी इनके दरवाजे पर तलवार लेकर खड़ा होगा और उसे समर्थन देने वाला कोई कांग्रेसी उसके पीछे होगा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
अमूमन एक सवाल किया जाता है कि इस्लामिक देशों में लोकतन्त्र क्यों नहीं पनपता? इसका जवाब भी इसी लेख में निहित है कि “लोकतांत्रिक” होना भी एक जीवन पद्धति है जो हिन्दू धर्म में खुद-ब-खुद मौजूद है, न तो वामपंथी कभी लोकतांत्रिक हो सकते हैं, ना ही इस्लामिक देश। एक तरफ़ पाकिस्तान की शिक्षा व्यवस्था और दूसरी तरफ़ भारत की शिक्षा व्यवस्था, आप खुद ही फ़ैसला कर लीजिये कि हम कहाँ जा रहे हैं और हमारा “भविष्य” क्या होने वाला है…
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