एनडी तिवारी के बहाने दो-तीन प्रमुख मुद्दों पर बहस की दरकार… ND Tiwari, Sex Scandal, Governor of AP

Written by मंगलवार, 29 दिसम्बर 2009 11:27
पिछले कुछ दिनों से आंध्र के पूर्व राज्यपाल एनडी तिवारी ने चहुंओर हंगामा मचा रखा है। इसके पक्ष-विपक्ष में कई लेख और मत पढ़ने को मिले, जिसमें अधिकतर में तिवारी के चरित्र पर ही फ़ोकस रहा, किसी ने इसे तुरन्त मान लिया, कुछ लोग सशंकित हैं, जबकि कुछ लोग मानने को ही तैयार नहीं हैं कि तिवारी ऐसा कर सकते हैं। ज्ञानदत्त पाण्डेय जी के ब्लॉग पर विश्वनाथ जी ने बड़े मासूम और भोले-भाले से सवाल उठाये, जबकि विनोद जी ने चीरफ़ाड़ में कांग्रेस की फ़ाड़कर रख दी, वहीं एक तरफ़ डॉ रूपचन्द्र शास्त्री जी उन्हें दागी मानने को ही तैयार नहीं हैं। हालांकि कुछ बिन्दु ऐसे हैं जिनका कोई जवाब अभी तक नहीं मिला है, जैसे –

1) यदि नैतिकता के इतने ही पक्षधर थे तो, एनडी तिवारी ने इस्तीफ़ा इतनी देर से और केन्द्र के हस्तक्षेप के बाद क्यों दिया?

2) नैतिकता का दावा मजबूत करने के लिये इस्तीफ़ा “स्वास्थ्य कारणों” से क्यों दिया, नैतिकता के आधार पर देते?

3) जब रोहित शेखर नामक युवक ने पिता होने का आरोप लगाया था, तब नैतिकता की खातिर खुद ही DNA टेस्ट के लिये आगे कर दिया होता, दूध का दूध पानी का पानी हो जाता?

4) पहले भी ऐसे ही “खास मामलों” में राजनैतिक गलियारों में इनका ही नाम क्यों उछलता रहा है, किसी और नेता का क्यों नहीं?


बहरहाल सवाल तो कई हैं, लेकिन ऐसे माहौल में दो महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात छूट गई लगती है, इसलिये उन्हें यहाँ पेश कर रहा हूं…

पहला मुद्दा – क्या अब भी हमें राज्यपाल पद की आवश्यकता है?

पिछले कुछ वर्षों में (जबसे राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें मजबूत हुईं, तब से) यह देखने में आया है कि राज्यों में राज्यपाल केन्द्र के “जासूसी एजेण्ट” और “हितों के रखवाले” के रूप में भेजे जाते हैं। राज्यपाल अधिकतर उन्हीं “घाघ”, “छंटे हुए”, “शातिर” लोगों को ही बनाया जाता है, जिन्होंने “जवानी” के दिनों में कांग्रेस (यानी गाँधी परिवार) की खूब सेवा की हो, और ईनाम के तौर पर उनका बुढ़ापा सुधारने (यहाँ “मजे मारने” पढ़ा जाये) के लिये राज्यपाल बनाकर भेज दिया जाता है। राज्यपालों को कोई काम-धाम नहीं होता है, इधर-उधर फ़ीते काटना, उदघाटन करना, चांसलर होने के नाते प्रदेश के विश्वविद्यालयों में अपनी नाक घुसेड़ना, प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति यदि राज्य के दौरे पर आयें तो उनकी अगवानी करना, विधानसभा सत्र की शुरुआत में राज्य सरकार का ही लिखा हुआ बोरियत भरा भाषण पढ़ना… और सिर्फ़ एक महत्वपूर्ण काम यह कि कौए की तरह यह देखना कि कब राज्य में राजनैतिक संकट खड़ा हो रहा है (या ऐसा कोई संकट खड़ा करने की कोशिश करना), फ़िर पूरे लोकतन्त्र को झूला झुलाते हुए केन्द्र क्या चाहता है उसके अनुसार रिपोर्ट बनाकर देना…। ऐसे कई-कई उदाहरण हम रोमेश भण्डारियों, सिब्ते रजियों, बूटा सिंहों आदि के रूप में देख चुके हैं। तात्पर्य यह कि राज्यपाल नामक “सफ़ेद हाथी” जितना काम करता है उससे कहीं अधिक बोझा राज्य के खजाने (यानी हमारी जेब पर) डाल देता है। जानना चाहता हूं कि क्या राज्यपाल नामक “सफ़ेद हाथी” पालना जरूरी है? एक राजभवन का जितना खर्च होता है, उसमें कम से कम दो राज्य मंत्रालय समाहित किये जा सकते हैं, जो शायद अधिक काम के साबित हों…।

अब आते हैं दूसरे मुद्दे पर…

क्या भारतीय राजनीति में “टेब्लॉयड संस्कृति” का प्रादुर्भाव हो रहा है? यदि हो रहा है तो होना चाहिये अथवा नहीं?

भारत के राजनैतिक और सामाजिक माहौल में अभी ब्रिटेन की “टेब्लॉयड संस्कृति” वाली पत्रकारिता एक नई बात है। जैसा कि सभी जानते हैं, ब्रिटेन के दोपहर में निकलने वाले अद्धे साइज़ के अखबारों को टेब्लॉयड कहा जाता है, जिसमें, किस राजनेता का कहाँ चक्कर चल रहा है, किस राजनेता के किस स्त्री के साथ सम्बन्ध हैं, कौन सा राजनैतिक व्यक्ति कितनी महिलाओं के साथ कहाँ-कहाँ देखा गया, जैसी खबरें ही प्रमुखता से छापी जाती हैं। चूंकि पश्चिमी देशों की संस्कृति(?) में ऐसे सम्बन्धों को लगभग मान्यता प्राप्त है इसलिये लोग भी ऐसे टेब्लॉयडों को पढ़कर चटखारे लेते हैं और भूल जाते हैं।

डॉ शास्त्री, तिवारी जी के प्रति अपनी भक्तिभावना से प्रेरित होकर और विश्वनाथ जी एक सामान्य सभ्य नागरिक की तरह सवाल पूछ रहे हैं, लेकिन सच्चाई कहीं अधिक कटु होती है। जो पत्रकार अथवा जागरूक राजनैतिक कार्यकर्ता सतत इस माहौल के सम्पर्क में रहते हैं, वे जानते हैं कि इन नेताओं के लिये “सर्किट हाउसों”, रेस्ट हाउसों तथा फ़ार्म हाउसों में क्या-क्या और कैसी-कैसी व्यवस्थाएं की जाती रही हैं, की जाती हैं और की जाती रहेंगी… क्योंकि जब सत्ता, धन और शराब तीनों बातें बेखटके, अबाध और असीमित उपलब्ध हो, ऐसे में उस जगह “औरत” उपलब्ध न हो तो आश्चर्य ही होगा। भारतीय मीडिया अभी तक ऐसी खबरों के प्रकाशन अथवा उसे “गढ़ने”(?) में थोड़ा संकोची रहा है, लेकिन यह हिचक धीरे-धीरे टूट रही है… ज़ाहिर है कि इसके पीछे “बदलते समाज” की भी बड़ी भूमिका है, वरना कौन नहीं जानता कि –

1) भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री के कम से कम 3 महिलाओं से खुल्लमखुल्ला सम्बन्ध रहे थे।

2) दक्षिण का एक सन्यासी, जो कि हथियारों का व्यापारी भी था कथित रूप से एक पूर्व प्रधानमंत्री का बेटा कहा जाता है।

3) एक विशेष राज्य के विशेष परिवार के मुख्यमंत्री और उसका बेटे के “घरेलू” सम्बन्ध एक पूर्व प्रधानमंत्री के पूरे परिवार से थे।

4) एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री के लाड़ले बेटे की “चाण्डाल चौकड़ी” ने न जाने कितनी महिलाओं को बरबाद (एक प्रसिद्ध अभिनेत्री की माँ को) किया, जबकि कितनी ही महिलाओं को आबाद कर दिया (उनमें से एक वर्तमान केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में भी है)।

5) मध्यप्रदेश की एक आदिवासी महिला नेत्री का राजनैतिक करियर उठाने में भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री का हाथ है, जिनकी एकमात्र योग्यता सुन्दर होना है।

6) एक प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता की माँ के भी एक पूर्व प्रधानमंत्री से सम्बन्ध काफ़ी चर्चित हैं।

नेताओं अथवा धर्मगुरुओं के प्रति भावुक होकर सोचने की बजाय हमें तर्कपूर्ण दृष्टि से सोचना चाहिये…। एक और छोटा सा उदाहरण - हाल ही में अपनी हरकतों की वजह से कुख्यात हुए एक “सिन्धी” धर्मगुरु तथा मुम्बई के एक प्रसिद्ध “सिन्धी” बिल्डर के बीच यदि धन के लेन-देन और बेनामी सौदों की ईमानदारी से जाँच कर ली जाये तो कई राज़ खुल जायेंगे… एक और प्रवचनकार द्वारा आयकर छिपाने के मामले खुल रहे हैं।

(तात्पर्य यह शास्त्री जी अथवा विश्वनाथ जी, कि भारतीय राजनीति में ऐसे कई-कई उदाहरण मौजूद हैं, हालांकि ऊपर दिये गये उदाहरणों में मैं नामों का उल्लेख नहीं कर सकता, लेकिन जो लोग राजनैतिक रूप से “जागरूक” हैं, वे जानते हैं कि ये किरदार कौन हैं, और ऐसी बातें अक्सर सच ही होती हैं और बातें भी हवा में से पैदा नहीं होती, कहीं न कहीं धुँआ अवश्य मौजूद होता है) चूंकि अब मामले खुल रहे हैं, समाज छिन्न-भिन्न हो रहा है, विश्वास टूट रहे हैं… तो लोग आश्चर्य कर रहे हैं, तब सवाल उठना स्वाभाविक है कि –

अ) क्या पश्चिमी प्रेस का प्रभाव भारतीय मीडिया पर भी पड़ा है?

ब) जब हम हर बात में पश्चिम की नकल करने पर उतारू हैं तो नेताओं के ऐसे यौनिक स्टिंग ऑपरेशन भी होने चाहिये (अब जनता ने भ्रष्टाचार को तो स्वीकार कर ही लिया है, इसे भी स्वीकार कर लिया जायेगा), धीरे-धीरे ऐसे नेताओं को नंगा करने में क्या बुराई है?

स) भारतीय संस्कृति में ऐसी खबरें हेडलाइन्स के रूप में छपेंगी तो समाज पर क्या “रिएक्शन” होगा?

ऐसे उप-सवालों का मूल सवाल यही है कि “ऐसे स्टिंग ऑपरेशन और नेताओं के चरित्र के सम्बन्ध में मीडिया को सबूत जुटाना चाहिये, खबरें प्रकाशित करना चाहिये, खोजी पत्रकारिता की जानी चाहिये अथवा नहीं?”

मूल बहस से हटते हुए एक महत्वपूर्ण तीसरा और अन्तिम सवाल यहाँ फ़िर उठाना चाहूंगा कि जब ऐसी कई जानकारियाँ मेरे जैसा एक सामान्य ब्लागर सिर्फ़ अपनी आँखे और कान खुले रखकर प्राप्त कर सकता है तो फ़िर पत्रकार क्यों नहीं कर सकते, उन्हें तो अपने मालिक का, कानून का कवच प्राप्त होता है, संसाधन और सम्पर्क हासिल होते हैं, और यदि यही संरक्षण ब्लागरों को भी मिलने लगे तो कैसा रहे?

बहरहाल अधिक लम्बा न खींचते हुए इन दोनों (बल्कि तीनों) मुद्दों पर पाठकों की बेबाक राय जानना चाहूंगा…
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चलते-चलते :- मैं सीरियसली सोच रहा हूं कि तिवारी जी ने इस्तीफ़े में “स्वास्थ्य कारणों” की वजह बताई, वह सही भी हो सकती है, क्योंकि वियाग्रा के ओवरडोज़ से स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो ही जाती हैं… है ना? और तिवारी जी की गलती इतनी बड़ी भी नहीं है, उन्होंने तो कांग्रेस की स्थापना के 125 वर्ष का जश्न थोड़ा जल्दी मनाना शुरु कर दिया था, बस…


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I am a Blogger, Freelancer and Content writer since 2006. I have been working as journalist from 1992 to 2004 with various Hindi Newspapers. After 2006, I became blogger and freelancer. I have published over 700 articles on this blog and about 300 articles in various magazines, published at Delhi and Mumbai. 


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