Narendra Modi - The Magnet for Power and Coalition

Written by रविवार, 30 मार्च 2014 20:22


मोदी का जादू – मिल रहे हैं साथी, बढ़ रहा है कारवाँ...


जिस दिन भाजपा ने नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनावों हेतु प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया था, उसी दिन से लगातार तमाम चुनाव विश्लेषक और अकादमिक बुद्धिजीवी इस बात पर कयास लगाते रहे थे कि ऐसा करने से भाजपा अलग-थलग पड़ जाएगी. इन सेक्युलर(?) विश्लेषकों की निगाह में नरेंद्र मोदी अछूत हैं. यही वे बुद्धिजीवी थे जिन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि भाजपा कभी भी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं करेगी, लेकिन न सिर्फ वैसा हुआ, बल्कि भाजपा ने मोदी को प्रचार समिति की कमान सौंप दी. इसके अलावा जब टिकट वितरण की बारी आई, तब भी कुछेक मामलों को छोड़कर नरेंद्र मोदी को लगभग फ्री-हैंड दिया गया. स्वाभाविक है कि ऐसा होने पर इन चुनाव विश्लेषकों की सिट्टी-पिट्टी गुम होनी ही थी. इसलिए इन्होंने हार ना मानते हुए “मोदी के रहते भाजपा को कोई सहयोगी नहीं मिलेगा” का राग दरबारी शुरू किया. लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इनके दुर्भाग्य से नरेंद्र मोदी – अमित शाह की जुगलबंदी ने इस राग दरबारी के सारे सुर बिगाड़ने की पूरी तैयारी कर ली है.

      जैसा कि सभी जानते हैं, लोकसभा चुनाव २०१४ में जीत के झंडे गाड़ने के लिए उत्तरप्रदेश और बिहार यह दो राज्य सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं. मोदी-शाह की जोड़ी ने पिछले एक साल से ही इस दिशा में कार्य करना शुरू कर दिया था. जिस दिन मोदी को कमान सौंपी गई, उसी दिन अमित शाह को उत्तरप्रदेश का प्रभारी बनाने का निर्णय हो गया था. हालांकि गुजरात और यूपी-बिहार की स्थानीय राजनीति में जमीन-आसमान का अंतर है, परन्तु फिर भी अमित शाह जैसे व्यक्ति जिसने आज तक दर्जनों चुनाव जीते हों, एक भी चुनाव ना हारा हो तथा बेहद कुशल रणनीतिकार हो... उसे यूपी का प्रभार देने से यह स्पष्ट हो गया कि वे नरेंद्र मोदी के सबसे विश्वसनीय व्यक्ति हैं. नरेंद्र मोदी ने जब बिहार पर अपना ध्यान केन्द्रित किया तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि रामविलास पासवान भाजपा का दामन थाम लेंगे, परन्तु ऐसा हुआ. भले ही विश्लेषकों को इस समय यह लग रहा हो कि भाजपा ने पासवान को सात और कुशवाहा को तीन सीटें देकर अपना नुक्सान कर लिया, लेकिन वास्तव में इसे नरेंद्र मोदी का “मास्टर स्ट्रोक” ही कहा जाएगा. रामविलास पासवान के भाजपा के साथ आने से दो फायदे हुए हैं. पहला तो यह कि “नरेंद्र मोदी अछूत हैं”, “उनकी साम्प्रदायिक छवि के कारण कोई उनके साथ नहीं जाएगा”, जैसे मिथक भरभराकर टूटे. पासवान के इस कदम से नीतीश कुमार, जिन्हें भाजपा चुनाव से पहले गठबंधन तोड़कर “जोर का झटका धीरे से” दे चुकी थी, उन्हें एक और झटका लगा. मोदी के इस मास्टर स्ट्रोक का सुनामी जैसा असर कांग्रेस-लालू गठबंधन पर पड़ा. कांग्रेस-लालू-पासवान की तिकड़ी यदि समय रहते अपने मतभेद भुलाकर किसी समझौते पर पहुँच जाती तो यह भाजपा के लिए बहुत नुकसानदेह होता. इन तीनों के वोट प्रतिशत एवं जातिगत गणित तथा नीतीश कुमार के अति-पिछड़े एवं महा-दलित कार्ड का मुकाबला भाजपा सिर्फ नरेंद्र मोदी की छवि और नीतीश के कुशासन से नहीं कर सकती थी. इसीलिए नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने परदे के पीछे से रामविलास पासवान को लुभाने की कोशिशें जारी रखीं और इसमें सफलता भी मिली. असल में नीतीश कुमार का दांव यह था कि वे भाजपा को दूर करके मुस्लिम वोटरों तथा महादलित-अतिपिछडे के गणित के सहारे वैतरणी पार करना चाहते थे. परन्तु रामविलास पासवान के भाजपा के साथ आने से जहां एक तरफ कांग्रेस-लालू खेमे में हड़कम्प मचा, वहीं दूसरी और नीतीश के खेमे का गणित भी छिन्न-भिन्न हो गया और मजबूरी में नीतीश को “बिहार स्पेशल पॅकेज” और “बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दो” जैसी राजनीति पर उतरना पड़ा. अब बिहार में स्थिति यह है कि भाजपा-पासवान-कुशवाहा गठबंधन की 29-7-3 सीटों पर पासवान-कुशवाहा के वोट भाजपा को ट्रांसफर होंगे, जबकि बाकी का काम नीतीश सरकार से नाराजी और नरेंद्र मोदी की छवि और धुंआधार रैलियों से पूरा हो जाएगा.

      इसी से मिलता-जुलता काम मोदी-शाह की जोड़ी ने यूपी में भी किया. अपने हिन्दू धर्म विरोधी बयानों एवं धर्मांतरण के समर्थक विचार रखने वाले दलित नेता उदित राज को भाजपा के झंडे तले लाकर उन्हें दिल्ली से टिकट देने का भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया गया. ज्ञातव्य है कि दलितों के एक बड़े वर्ग में उदित राज की छवि एक पढ़े-लिखे सुलझे अधिकारी एवं विचारक की है. हालांकि उदित राज को भाजपा में लाने पर भाजपा के कई वर्गों एवं संस्थाओं में बेचैनी महसूस की गई, लेकिन चुनावी राजनीति की दृष्टि से तथा विभिन्न चैनलों पर बहस-मुबाहिसे तथा लेखों की कीमत पर  देखा जाए तो उदित राज भाजपा के लिए फायदे का सौदा ही साबित होंगे. हालांकि उदित राज की हस्ती इतनी बड़ी भी नहीं है कि वे मायावती को चुनौती दे सकें या उनके स्थानापन्न बन सकें, परन्तु उदित राज के साथ आने से भाजपा की जो परम्परागत “ब्राह्मण-बनिया पार्टी” वाली छवि थी उसमें थोड़ी दलित चमक आई, तथा विपक्षी हमलों की धार भोथरी हुई है. दिल्ली की सुरक्षित सीट पर उदित राज, कृष्णा तीरथ एवं राखी बिडालान का मुकाबला करेंगे तो स्वाभाविक है कि उसकी आतंरिक आंच यूपी की कुछ सीटों पर अपना प्रभाव जरूर छोड़ेगी. मोदी का दलित कार्ड और गठबंधन सहयोगी बढ़ाओ अभियान यहीं तक सीमित नहीं रहा, वह महाराष्ट्र में भी जा पहुंचा. रिपाई (रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया) के रामदास आठवले को भाजपा ने अपनी मदद से राज्यसभा में पहुंचाया और उनसे गठबंधन कर लिया, इस तरह महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना-रिपाई का एक मजबूत ढांचा तैयार हो चूका है. चूंकि राज ठाकरे भी मोदी लहर से अछूते नहीं रह सकते थे, इसीलिए उन्होंने चुनावों से पहले ही घोषित कर दिया है कि वे चुनावों के बाद मोदी का समर्थन करेंगे. अलबत्ता जिस तरह से शरद पवार लगातार शिवसेना में सेंधमारी कर रहे हैं, उसे देखते हुए लगता है कि 2019 के आम चुनाव आते-आते महाराष्ट्र में भाजपा बगैर गठबंधन के ही और भी मजबूत होकर उभरेगी. बहरहाल... यूपी में मोदी-शाह की जोड़ी तथा संघ के पूर्ण समर्थन से एक और बड़ा मास्टर स्ट्रोक खेला गया, और वह है नरेंद्र मोदी को वाराणसी सीट से चुनाव लड़वाना. कुछ मित्रों को याद होगा कि मैंने गत वर्ष ही एक लेख में यह लिख दिया था कि यूपी-बिहार में अपने जीवन का सबसे बड़ा दांव खेलने जा रहे नरेंद्र मोदी को लखनऊ अथवा बनारस से चुनाव लड़ना चाहिए. बहरहाल इस मुद्दे पर चर्चा थोड़ी देर बाद... पहले दक्षिण की तरफ चलते हैं...

      तेलंगाना के निर्माण के पश्चात उसका क्रेडिट लेने के लिए बेताब कांग्रेस को सबसे पहला तगड़ा झटका टीआरएस ने ही दे दिया. कांग्रेस यह मानकर चल रही थी कि टीआरएस-कांग्रेस का गठबंधन हो गया तो कम से कम तेलंगाना में उसकी इज्जत बची रहेगी. लेकिन यहाँ चंद्रशेखर राव ने कांग्रेस को ठेंगा दिखा दिया है और वे अकेले ही चुनाव लड़ेंगे. राव ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि आम चुनावों के परिणामों के बाद हे वे अपनी अगली रणनीति तय करेंगे. ज़ाहिर है कि यदि नरेंद्र मोदी अकेले दम पर 225 से अधिक सीटें ले आते हैं तो चंद्रशेखर राव को विशेष पॅकेज के नाम पर NDA में खींच लाना कतई मुश्किल नहीं होगा. उधर सीमान्ध्र और रायलसीमा में कांग्रेस की दूकान तो पहले ही लगभग बंद हो चुकी है. मुख्यमंत्री किरण कुमार ने अपनी नई क्षेत्रीय पार्टी बना ली है, जबकि चंद्रबाबू नायडू दो बार नरेंद्र मोदी के साथ मंच पर आ चुके हैं और उनकी आपसी सहमति एवं समझबूझ काफी विकसित हो चुकी है. इसके अलावा चिरंजीवी के भाई कमल की नई पार्टी भले ही कुछ ख़ास न कर पाए, लेकिन कांग्रेस के ताबूत में कीलें ठोंकने का काम बखूबी करेगी. अर्थात जो आँध्रप्रदेश यूपीए-२ के गठन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था, वहीं पर कांग्रेस अनाथ की स्थिति में पहुँच चुकी है. फिलहाल नए राज्य की खुमारी में तेलंगाना की सभी सीटों पर TRS के जीतने के पूरे आसार हैं, जबकि सीमान्ध्र में कांग्रेस दो-तीन सीटें भी ले आए तो बहुत है. अर्थात वहां पर भाजपा के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. इसीलिए नरेंद्र मोदी ने चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू दोनों को बराबरी का महत्त्व दे रखा है. दोनों में से जो भी अधिक सीटें लाएगा उसे “स्पेशल पॅकेज” मिलेगा और NDA में जगह भी. तमिलनाडु में भी भाजपा ने पहली बार तीन क्षेत्रीय दलों को साथ मिलाने में सफलता हासिल कर ली है. प्रख्यात अभिनेता विजयकांत की MDMK पार्टी सबसे बड़ी भागीदार रहेगी, इसके अलावा पीएमके को भी उचित स्थान मिला है. जयललिता और करूणानिधि के सामने यह गठबंधन कुछ ख़ास कर पाएगा, इसकी उम्मीद बहुत लोगों को नहीं है. परन्तु यह गठबंधन तमिलनाडु में कई सीटों पर “खेल बिगाड़ने” की स्थिति में जरूर रहेगा. यदि टूजी घोटाले की वजह से तमिल जनता का नज़ला करूणानिधि-राजा-कनिमोझी पर गिरा तो इस गठबंधन को चालीस में से चार-पांच सीटें जरूर मिल सकती हैं. साथ ही उत्साहजनक बात यह भी है कि जयललिता कह चुकी हैं कि वे यूपीए-३  की बजाय नरेंद्र मोदी को प्राथमिकता देंगी. कर्नाटक में येद्दियुरप्पा के आने के पश्चात भाजपा को किसी गठबंधन की जरूरत नहीं है, और केरल, जहाँ पार्टी ने अकेले लड़ने का फैसला किया है, वहां भी वह कांग्रेस-मुस्लिम लीग अथवा वाम गठबंधन में से किसी एक का खेल बिगाड़ने की स्थिति में रहेगी.

      जो विश्लेषक और बुद्धिजीवी नरेंद्र मोदी की वजह से भाजपा को अछूत मानने या अस्पृश्य सिद्ध करने पर तुले हुए थे, वे यह देखकर आश्चर्यचकित हैं कि ऐसा कैसे हो रहा है? और क्यों हो रहा है? इसका सीधा सा जवाब यही है कि राजनीति का कच्चे से कच्चा जानकार भी बता सकता है कि कांग्रेस संभवतः 100 सीटों के आसपास सिमट जाएगी, जबकि NDTV जैसे धुर भाजपा विरोधी चैनल भी अपने सर्वे में भाजपा को 225 सीटें दे रहे हैं, तो स्वाभाविक है कि बहती हुई हवा के लपेटे में सारे नए और बेहद छोटे क्षेत्रीय दल नरेंद्र मोदी के साथ जुड़ते चले जा रहे हैं. बड़े क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करने के अपने नुकसान होते हैं. उदाहरणार्थ जयललिता-ममता-पटनायक जैसी पार्टियों के साथ यदि चुनाव पूर्व या चुनाव बाद का गठबंधन किया जाए तो इनकी शर्तें और नखरे इतने अधिक होते हैं कि ये लोग नाक में दम कर देते हैं. बेचारे वाजपेयी जी ऐसे ही लालची क्षेत्रीय दलों की वजह से अपने दोनों घुटने कमज़ोर करवा बैठे थे, लेकिन इनकी मांगें लगातार बढ़ती ही जातीं. नरेंद्र मोदी इस स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ हैं, इसीलिए वे छोटे-छोटे दलों गठबंधन कर रहे हैं. इसके अलावा ऐसे-ऐसे लोगों को (उदाहरणार्थ – सतपाल महाराज, जगदम्बिका पाल, उदित राज इत्यादि) भाजपा में प्रवेश दे रहे हैं अथवा सीट शेयरिंग कर रहे हैं, जिनके बारे में कभी सोचा भी नहीं गया था. सेकुलरिज़्म की रतौंधी से युक्त पुरोधाओं को जम्मू-कश्मीर से भी तगड़ा झटका लगा है, मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी कह दिया है कि कश्मीर की समस्याओं के बारे में UPA की बजाय NDA की सरकार में अधिक समझ थी. अर्थात वे अभी से अगली NDA सरकार में अपनी “खिड़की” खुली रखना चाहते हैं. ज़ाहिर है कि नरेंद्र मोदी की बहती हवा और NDA सरकार बनने की सर्वाधिक संभावना देखते हुए बहुत सारी पार्टियाँ और ढेर सारे नेता अब जाकर धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई अत्यधिक कड़वी बात कहने से बच रहे हैं. सभी को दिखाई दे रहा है कि अगली सरकार बगैर नरेंद्र मोदी की मर्जी के बगैर बनने वाली नहीं है. कहीं भाजपा 250 सीटें पार कर गई तब तो उसे किसी भी “ब्लैकमेलर” की जरूरत नहीं पड़ेगी. परन्तु यदि जैसा कि भाजपा के कुछ भितरघाती तथा तीसरे मोर्चे(???) के कुछ अवसरवादी अपनी यह इच्छा बलवती बनाए हुए हैं कि किसी भी तरह से काँग्रेस को सौ सीटों के आसपास तथा भाजपा को 200 सीटों के आसपास रोक लिया जाए तो पाँच साल के लिए उन लोगों की चारों उँगलियाँ घी में, सिर कढाई में और पाँव मखमल पर आ जाएँगे. स्वाभाविक है कि गुजरात में अपनी शर्तों पर बारह साल तक सत्ता चलाने वाले नरेंद्र मोदी इतने बेवकूफ तो नहीं हैं, कि वे इन “बैंगनों-लोटों” तथा सामने से मुस्कुराकर पीठ में खंजर घोंपने को आतुर लोगों की घटिया चालें समझ ना सकें.

      अब हम आते हैं नरेंद्र मोदी और भाजपा की सबसे महत्त्वपूर्ण रणभूमि अर्थात यूपी-बिहार की तरफ. अगले प्रधानमंत्री का रास्ता यहीं से होकर गुजरने वाला है. यह बात नरेंद्र मोदी और संघ-भाजपा सभी जानते हैं, इसीलिए जैसा कि मैंने ऊपर लिखा, बनारस से नरेंद्र मोदी को लड़वाने का फैसला एक मास्टर स्ट्रोक साबित होने वाला है. सामान्यतः सेकुलर सोच वाले बुद्धिजीवियों ने सोचा था कि नरेंद्र मोदी गुजरात की किसी भी सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ेंगे, परन्तु सभी को गलत साबित करते हुए नरेंद्र मोदी ने लखनऊ भी नहीं, सीधे वाराणसी को चुना. वाराणसी सीट का अपना एक अलग महत्त्व है, ना सिर्फ राजनैतिक, बल्कि रणनीतिक और धार्मिक भी. काशी से नरेंद्र मोदी के खड़े होने का जो “प्रतीकात्मक” महत्त्व है वह भाजपा कार्यकर्ताओं के मन में गुदगुदी पैदा करने वाला तथा यूपी-बिहार में घुसे बैठे जेहादियों के दिल में सुरसुरी पैदा करने वाला है. यहाँ के प्रसिद्द संकटमोचन मंदिर में हुए बम विस्फोट की यादें अभी लोगों के दिलों में ताज़ा हैं, साथ ही काशी विश्वनाथ मंदिर अपने-आप में एक विराट हिन्दू “आईकॉन” है ही. धार्मिक मुद्दे फिलहाल इस चुनाव में इतने हावी नहीं हैं, परन्तु वाराणसी सीट का राजनैतिक महत्त्व बहुत ज्यादा है. बिहार और पूर्वांचल की सीमा के पास स्थित होने के कारण नरेंद्र मोदी के यहाँ से लड़ने का फायदा पूर्वांचल की लगभग तीस सीटों पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से पड़ेगा. पिछले चुनावों में भाजपा इस इलाके में बहुत कमजोर साबित हुई थी. नरेंद्र मोदी की उपस्थिति से कार्यकर्ताओं का मनोबल भी उछाल मार रहा है. विरोधियों में कैसा हडकंप मचा हुआ है, यह इसी बात से साबित हो जाता है कि इसी घोषणा के बाद मुलायम सिंह को भी अपनी रणनीति बदलते हुए मैनपुरी के साथ-साथ आजमगढ़ से चुनाव लड़ने की घोषणा करनी पड़ी. मुलायम के आजमगढ़ से मैदान में उतरने का फायदा जहाँ एक तरफ सपा के यादव-मुस्लिम वोट बैंक को हो सकता है, वहीं उनके लिए खतरा यह भी है कि आजमगढ़ की “विशिष्ट छवि” के कारण पूर्वांचल में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की संभावनाएं भी बढ़ जाएँगी, जो मोदी-भाजपा के लिए फायदे का सौदा ही होंगी. उधर लालू भी अपने सदाबहार अंदाज़ में “साम्प्रदायिक शक्तियों(???) को रोकने के नाम पर ताल ठोंकने लगे हैं. जबकि अनुमान यह लगाया जा रहा है कि बिहार में लालू की पार्टी इन चुनावों में तीसरे स्थान पर रह सकती है. नरेन्द्र मोदी के वाराणसी में उतरने के कारण बहुतों की योजनाएं गड़बड़ा गई हैं, सभी को उसी के अनुसार फेरबदल करना पड़ रहा है. परन्तु इतना तो तय है कि यूपी-बिहार 120 सीटों में से यदि भाजपा साठ सीटें नहीं जीत पाई, तो उसके लिए दिल्ली का रास्ता मुश्किल सिद्ध होगा. इसीलिए नरेंद्र मोदी ने हिम्मत दिखाते हुए बनारस से लड़ने का फैसला किया है, जबकि यहाँ से मुरलीमनोहर जोशी पिछला चुनाव बमुश्किल 17,000 वोटों से ही जीत सके थे. लेकिन यह जुआ खेलना बहुत जरूरी था, क्योंकि वाराणसी से मोदी की जीत भविष्य में बहुत से सेकुलरों-बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों का मुँह सदा के लिए बंद कर देगी.

क्रिकेट की भाषा में अक्सर भाजपा को “दक्षिण अफ्रीका” की टीम कहा जाता है, जो बड़े ही दमदार तरीके से जीतते हुए फाईनल तक तो पहुँचती है, परन्तु फाईनल में आकर उसे पता नहीं क्या हो जाता है और उसके खिलाड़ी अचानक खराब खेलकर टीम हार जाती है. कुछ-कुछ ऐसा ही इस आम चुनाव में भी हो रहा है. चार विधानसभा में तीन में सुपर-डुपर जीत तथा दिल्ली में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद एवं नरेंद्र मोदी की लगातार जारी धुँआधार रैलियों और काँग्रेस पर हमले की वजह से आज भाजपा “फ्रंट-रनर” के रूप में सामने है, लेकिन टीम के कुछ “गरिष्ठ खिलाड़ियों” को  कैप्टन के निर्णय पसंद नहीं आ रहे हैं. कुछ खिलाड़ी सीधे सामने आकर, जबकि कुछ खिलाड़ी परदे के पीछे से लगातार इस कोशिश में लगे हुए हैं कि किसी भी तरह फाईनल में यह टीम “200 रन” के आसपास ही उलझकर रह जाए, ताकि मैच के अंतिम ओवरों में विपक्षी टीम के कुछ अन्य “खिलाड़ियों” के साथ मिलकर मैच फिक्सिंग करते हुए जीत की वाहवाही भी लूटी जा सके.

नरेंद्र मोदी इस बात को समझते हैं कि विरोधी खेमे में भगदड़ का फायदा उठाने वाली इस रणनीति का सिर्फ तात्कालिक फायदा है, और वह है किसी भी सूरत में भाजपा (एवं NDA) को 272+ तक ले जाना. यदि उत्तर-पश्चिम भारत में मोदी का जादू मतदाताओं के सर चढ़कर बोला और अकेले भाजपा अपने दम पर 225-235 तक भी ले आती है, तो निश्चित जानिये कि ढेर सारे “थाली के बैंगन” और “बिन पेंदे के लोटे” तैयार बैठे मिलेंगे, जो मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए खुद अपनी तरफ से जी-जान लगा देंगे, आखिर सत्ता ही सबसे बड़ी मित्र होती है, और वक्त की दीवार पर साफ़-साफ़ लिखा है कि नरेंद्र मोदी सत्ता में आ रहे हैं. गुजरात दंगों को लेकर पिछले बारह साल से जो “गाल-बजाई” चल रही थी, उसका अंत होने ही वाला है. जिस तरह “सेकुलर गिरोह” ने 1996 में वाजपेयी को अछूत बनाकर घृणित चाल चली थी, ठीक उसी प्रकार या कहें कि उससे भी अधिक घृणित चालें चलकर मुस्लिमों को डराकर, सेकुलरिज़्म के नाम पर मीडिया और NGOs की गैंग की मदद से नरेंद्र मोदी को लगातार “राजनैतिक अछूत” बनाने की असफल कोशिश की गई. इस अभियान में नीतीश कुमार से लेकर दिग्विजयसिंह सभी ने अपनी-अपनी आहुतियाँ डालीं लेकिन नरेंद्र मोदी शायद किसी और ही मिट्टी के बने हुए हैं, डटकर अकेले मुकाबला करते रहे और अब जीत उनके करीब है. महाभारत वाला अभिमन्यु तो बहादुरी से लड़ते हुए चक्रव्यूह में मारा गया था, लेकिन नरेंद्र मोदी नामक यह आधुनिक अभिमन्यु इस “कुटिल चक्रव्यूह” को तोड़कर न सिर्फ बाहर निकल आया है, बल्कि अब तो सभी कथित महारथियों को धूल चटाते हुए हस्तिनापुर पर शासन भी करेगा.
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